दिनांक
17 मई 1979; श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
प्रश्न
सार:
1—आपसे
कोई प्रश्न
पूछती हूँ तो
मुझे लगता है—मेरी
गर्दन आपकी
तलवार के नीचे
आ गयी ऐसा
क्यों?
2—आप ऑंख खोलने
के लिए कहते
हैं, मगर ऑंख
खोलने में
इतना भय क्यों
लगता है?
3—मनुष्य
जीवन सहज की
ओर मुड़ेगा
या नहीं? हमारा
कर्तव्य क्या
है?
4—कआदमी
से प्रेम करता
हूँ। लेकिन
परमात्मा से
किसी लगाव का
मुझे पता
नहीं। क्या
मैं पाप के
रास्ते पर हूँ?
पहला
प्रश्न : जब भी
मैं आपसे कोई
प्रश्न पूछती
हूँ, तो
मुझे लगता है
मेरी गर्दन
आपकी तलवार के
नीचे आ गयी।
इस प्रश्न के
प्रसंग में भी
मेरा वही भाव
है। ऐसा क्यों
है?
शीला!
भय तो बिल्कुल
स्वाभाविक
है। हर प्रश्न
एक उत्तर की
तलाश है।
उत्तर
तुम्हारे
अहंकार को भरेगा, या
तोड़ेगा, कुछ निश्चित
नहीं है। मेरा
उत्तर तो
निश्चित ही
तुम्हारे
अहंकार को
भरेगा नहीं, तोड़ेगा ही।
तुम्हारे
प्रश्न से
ज्यादा
महत्त्वपूर्ण
यह है कि
तुम्हारे
प्रश्न के
बहाने तुम्हारे
अहंकार को
तोड़ा जाए।
प्रश्न तो केवल एक परिस्थिति है। उत्तर बाहर से मिलने वाले नहीं हैं। अहंकार खंडित हो जाए तो उत्तर तुम्हारे भीतर है। प्रश्न में ही छिपा है। तो भय स्वाभाविक है।
प्रश्न तो केवल एक परिस्थिति है। उत्तर बाहर से मिलने वाले नहीं हैं। अहंकार खंडित हो जाए तो उत्तर तुम्हारे भीतर है। प्रश्न में ही छिपा है। तो भय स्वाभाविक है।
जहाँ
भय न लगे और
प्रश्न पूछने
में मजा आए, वहाँ
समझना कि जीवन
का रूपांतरण
नहीं होगा। ऐसा
ही होता है, पंडित—पुरोहित
के पास
तुम्हारा
प्रश्न पूछना
तुम्हारे
अहंकार को
भरता है।
तुम्हारा
प्रश्न तुम्हारे
ज्ञान को
बताता है।
तुम्हारा
प्रश्न तुम्हारी
जिज्ञासा, तुम्हारी
खोज, तुम्हारे
अध्यात्म की
तलाश की खबर
लाता है। रस
आता है पूछने
में। और हर
उत्तर जो
पंडित—पुरोहित
से तुम्हें
मिलता है, तुम्हें
तोड़ने वाला
नहीं हो सकता,
क्योंकि
पंडित—पुरोहित
तुम्हें
तोड़ने का साहस
नहीं कर सकता।
तुम पर जीता
है। तुम्हारा
गुलाम है। तुम
उसके मालिक
हो। उसे
तुम्हारे
अहंकार को
सजाना होगा।
उसे सांत्वना
देनी ही होगी।
वह मलहम—पट्टी
करेगा। वह
तुम्हारे
घावों को
फूलों में छिपाएगा।
उसके हाथ में
तलवार नहीं हो
सकती। उसके
द्वार पर
तुम्हारा
स्वागत है। और
जो पूछता है, उसका स्वागत
उससे ज्यादा है
जो नहीं पूछता
है। क्योंकि
जो पूछता है
वह उसे मौका
देता है उसके
ज्ञान के
प्रदर्शन का। पारस्परिक
अहंकार की
परिपूर्ति
होती है।
पूछने
वाले को मजा
आता है कि लोग
जानें कि मैं जाननेवाला
हूँ—लोग जानना
दिखाने के लिए
पूछते हैं।
ऊँचे—ऊँचे
प्रश्न पूछते
हैं,
जिनका उनके
जीवन से कोई
संबंध नहीं
है। परमात्मा
है या नहीं? स्वर्ग है
या नहीं? कितने
नरक हैं? कर्म
और पुनर्जन्म
के सिद्धांत
और बड़ी गंभीर और
गहरी बातें
पूछते हैं, जिनसे उनके
जीवन का कुछ
लेना—देना
नहीं है।
जिनका कोई
उपयोग भी नहीं
है। लफ्फाजी
है। लेकिन
तात्त्विक उड़ान!
अध्यात्म, परमार्थ,
इनकी बातें
पूछने से औरों
को, सुननेवालों
को लगता है कि
हाँ, कोई
पहुँचा हुआ
आदमी है, ज्ञानी
है। देखो, इसकी
जिज्ञासा!
देखा, इसकी
उड़ान!
देखो, इसके
पंख कितनी ऊँचाइयाँ
छू रहे हैं! और
पंडित—पुरोहित
को सुविधा मिल
जाती है कि
तुम्हारे प्रश्न
के बहाने उसने
जो इकट्ठा
किया है
शास्त्रों से,
उसका
प्रदर्शन कर
ले।
यहाँ
हालत बिल्कुल
उल्टी है।
तुम्हारा
प्रश्न
तुम्हारे
अज्ञान की
घोषणा करता है, ज्ञान
की नहीं।
क्योंकि जो
ज्ञान से
पूछता है वह
तो पूछता ही
नहीं, उसके
प्रश्नों के
तो मैं उत्तर
ही नहीं देता।
क्या तुम
सोचते हो सारे
प्रश्नों के
मैं उत्तर देता
हूँ? ज्ञान
से पूछे गए
प्रश्नों को
तो तत्क्षण
कचरे की टोकरी
में डाल देता
हूँ उनको तो
दुबारा देखता
भी नहीं।
क्योंकि अगर
तुम्हें पता
ही है, तो
फिर मेरे
उत्तर की कोई
जरूरत नहीं
है। जो उस जगह
से पूछता है
जहाँ घोषणा कर
रहा है कि
मुझे मालूम है,
जो शास्त्र
का उल्लेख
देकर पूछता है,
जो उद्धरण
देता है, और
जो कहता है
मुझे मालूम है,
आपकी राय भी
जाननी है।
यहाँ कोई रायें
नहीं दी जा
रही हैं; यहाँ
कोई मंतव्य
नहीं दिए जा
रहे हैं, न
कोई
प्रमाणपत्र
दिए जा रहे
हैं। उसका
प्रश्न तो मैं
फेंक ही देता
हूँ। उसका तो
कोई दो कौड़ी
का मूल्य नहीं
है। उसके ही
प्रश्न का
उत्तर दूसरी
जगह मिलता, पंडितों—पुरोहितों
के पास उसके
ही प्रश्न का
उत्तर मिलता।
मैं तो केवल
उन प्रश्नों
के उत्तर देता
हूँ जो अज्ञान
की घड़ी में
पूछे गए हैं।
तो
पहले तो
अज्ञान की घड़ी
में पूछने से घबड़ाहट
होती है कि यह
मेरा अज्ञान
प्रकट हुआ, कि
मुझे इतना भी
मालूम नहीं है;
दीनता
प्रकट होती
है। और फिर
तुम्हारी
दीनता पर मेरा
जो उत्तर आएगा,
वह निश्चित
ही तलवार की
तरह आने वाला
है। क्योंकि
अगर मैं
तुम्हारी
गर्दन न काटूँ,
तो
तुम्हारे
किसी काम का
नहीं हूँ।
तुम्हारा सिर
तुम्हारे धड़
से अलग न हो
जाए तो तुम
परमात्मा का
दर्शन कर न पाओगे।
सिर गिरे तो
परमात्मा का
दर्शन हो। यह सिर
की अकड़ में ही
तो परमात्मा
खो गया है।
तो घबड़ाहट, शीला,
स्वाभाविक
है। कोई भी
प्रश्न पूछो,
डर तो लगेगा
कि अब पता
नहीं मैं क्या
कहूँगा? फिर
मेरा उत्तर
कोई
सुनिश्चित
उत्तर होता तो
भी आश्वासन
तुम खोज सकते
थे कि कल भी
मैंने ऐसा कहा
था, परसों
भी मैंने ऐसा
कहा था, आज
भी ऐसा ही
कहूँगा। मेरे
उत्तर के
संबंध में कोई
भविष्यवाणी
नहीं हो सकती।
कल ही
तुमने देखा है, समाधि
ने पूछा था
ब्रह्म
वेदांत के
संबंध में कुछ
महीनों पहले;
मैंने एक
उत्तर दिया
था। विजय
भारती ने भी
कल वैसा ही
प्रश्न पूछा,
इसी आशा में
पूछा होगा कि
जैसे मैंने
समाधि के
प्रश्न के
उत्तर में कहा
था कि ब्रह्म
वेदांत
भ्रांति में
पड़ गए हैं, लौट
आना चाहिए
भ्रांति से
उन्हें, और
लोगों को न भरमाएँ,
अभी वह घड़ी
नहीं आयी है, अभी सिद्धि
की घड़ी नहीं
आयी है। सोचा
होगा विजय
भारती ने कि
यह अच्छा मौका
है, ऐसा ही
प्रश्न मैं भी
पूछ लूँ।
पूछा
ओमप्रकाश के
संबंध में, मुश्किल में
पड़ गया! उसकी
गर्दन पर
तलवार गिरी!
अगर थोड़ी भी
समझ होगी, तो
अब दुबारा ऐसा
प्रश्न नहीं
पूछेगा।
लेकिन पूछा
इसी आशा में
था कि जैसा
मैंने उत्तर
पहले दिया है,
वैसा ही
उत्तर दूँगा।
मेरे उत्तर
बँधे हुए नहीं
हैं। मेरे पास
कोई तैयार
उत्तर नहीं
हैं। तुम्हारा
प्रश्न ही
मेरे भीतर
उत्तर को
जन्माता है।
और तुम्हारे
प्रश्न से
ज्यादा
तुम्हारी
मनोदशा मेरे
उत्तर को
निर्माण करती
है। कल जो कहा
था, आज न
कहूँगा; आज
जो कह रहा हूँ,
कल का कुछ
भरोसा नहीं
है। इसलिए भय
और भी लगता है।
अगर यह
भी साफ हो कि
यही मेरा
उत्तर होगा, तो
भी तुम
निश्चित हो
जाओ। मैं
तुम्हें
निश्चिंत छोड़
नहीं सकता।
तुम्हारी
निश्चिंतता
तो तभी आएगी
जब तुम्हारे
भीतर से
अस्मिता का
सारा भाव चला
जाएगा—फिर कोई
भय न लगेगा
मेरी तलवार
से। क्योंकि
मेरी तलवार
तुम्हारी
आत्मा को नहीं
काट सकती। नाहं
छिंदंति
शस्त्राणि
नैनं दहति
पावकः—याद
करो कृष्ण का
वचन—उस आत्मा
को न तो
शस्त्र छेद
सकते हैं और न
ही आग जला
सकती है। मेरी
तलवार
तुम्हारी
आत्मा को नहीं
काट सकती।
मेरी तलवार
केवल
तुम्हारे
अहंकार को काट
सकती है।
क्योंकि
अहंकार झूठ है,
क्योंकि
अहंकार
निर्जीव है, कट सकता है, गिर सकता है,
जल सकता है;
गिरना ही
चाहिए, कटना
ही चाहिए, जलना
ही चाहिए।
जितनी जल्दी
जल जाए उतना
अच्छा है।
तो भय
स्वाभाविक
है। पर इस
स्वाभाविक भय
के ऊपर चलो
अब। सच तो यह
है,
जिस दिन से
शीला तूने
संन्यास लिया
उसी दिन से
तलवार तेरे
गर्दन पर लटकी
है, पूछ कि
न पूछ! अब
पूछने में
क्या भय? तलवार
तो लटकी ही
है। जो नहीं
भी पूछते हैं,
उनकी गर्दन
पर भी गिरेगी।
वह इस
निश्चिंतता
में नहीं रह
सकते कि न कुछ
पूछा है, न
कोई खतरा है।
संन्यास का
अर्थ ही होता
है कि तुमने
गर्दन मेरे
सामने रख दी—तुमने
प्रार्थना की
मुझसे कि अब
उठाओ तलवार और
मेरी गर्दन
काटो।
संन्यास का और
अर्थ क्या होता
है? संन्यास
का इतना ही
अर्थ है कि
मैं झुकता हूँ,
कि मैं
प्रार्थना
करता हूँ कि
मेरे अहंकार
को जला दो, कि
मेरे किए यह
अहंकार न छूटेगा,
मेरे किए तो
और बढ़ता है, मैं जो भी
करता हूँ उससे
बढ़ता है; प्रार्थना
करता हूँ तो
प्रार्थना
सजावट हो जाती
है अहंकार की,
पूजा करता
हूँ तो अहंकार
को और पर लग
जाते हैं, शास्त्र
पढ़ता हूँ तो
अहंकार
ज्ञानी हो
जाता है, व्रत—नियम
साधता हूँ तो
अहंकार
तपस्वी हो
जाता है, पुण्य
करता हूँ तो
पुण्यात्मा
होकर बैठ जाता
है, जो भी
करता हूँ उससे
बढ़ता है, सघन
होता है, मजबूत
होता है। मेरे
किए इससे
छुटकारा नहीं
होगा।
नहीं
हो सकता
तुम्हारे
किए। तुम अपने
अहंकार को न
काट पाओगे।
तुम्हारे और तुम्हारे
अहंकार के बीच
फासला इतना कम
है कि तलवार
उठा न सकोगे
और खतरा यही
है कि तुम
सोचोगे कि तुम
अहंकार काट
रहे हो, लेकिन
तलवार अहंकार
के हाथ में ही
होगी। वह कुछ
और काटेगा। और
आखिर में तुम
पाओगे कि वह
खुद तो बच गया
है, कुछ और कूड़ा—करकट
काट दिया है।
इसलिए तो
तथाकथित
महात्मा, साधु—संत,
साधारण
आदमी से भी
ज्यादा अहंकारग्रस्त
हो जाते हैं।
उनका अहंकार
और सघन हो
जाता है। देखो,
साधुओं के
चेहरों पर
जैसी अहंकार
की प्रतिमा दिखायी
पड़ेगी, वैसी
साधारण जनों
के चेहरे पर
नहीं दिखायी
पड़ती!
साधारणजन को
तो लगता है—मैं
पापी, क्या
है मेरे पास
अहंकार करने
को! महात्मा
को लगता है—मैं
पुण्यात्मा, मेरे पास
कुछ है; मैंने
कुछ कमाया, मेरे पास
कमाई है।
तुमने
संन्यास लिया, उसी
दिन तुमने
गर्दन मेरे
सामने रख दी।
अब मैं
प्रतीक्षा कर
रहा हूँ ठीक
उसी क्षण की।
पूछो, न
पूछो, ठीक
क्षण आने पर
तलवार
तुम्हारे
गर्दन पर गिरेगी।
वही तुम्हारे
सौभाग्य का
क्षण भी होगा।
उसी मिटने में
तो पाना है।
उसी न हो जाने
में तो हो
जाना है।
संन्यासी
होने के बाद
ज्यादा देर बच
नहीं सकते।
अपना
दामन सँभाल कर
रखिए
जिंदगी
रक्स है शरारों
का
यहाँ
तो अंगारे नाच
रहे हैं।
सँभाल कर भी
रखोगे दामन तो
कब तक दामन
सँभाल कर
रखोगे—अंगारे
दामन में
गिरने ही वाले
हैं। चल ही
पड़े हैं। और
तुम संन्यासी
हुए तो तुमने
खुद अंगारों
के लिए दामन
फैलाया है। इस
गर्दन को गिर
ही जाने दो।
दरिया
में तलातुम
बरपा है
किश्ती का
फसाना क्या
मानी?
गरदाब से
जब लड़ना है
तुम्हें
तिनके का
सहारा क्या मानी?
यह नौहए
किश्ती बंद
करो खुद मौजे तूफाँ बन
जाओ
पैरों
के तले साहिल
होगा साहिल की
तमन्ना क्या
मानी?
किनारों
की आकांक्षा
ही मत करो।
यहाँ तो तुम्हें
जो मैं कला दे
रहा हूँ, वह
तूफान को ही
किनारा बना
लेने की कला
है। "दरिया
में तलातुम
बरपा है'—और
तूफान बड़ा है,
जिंदगी
तूफान है—"दरिया
में तलातुम
बरपा है
किश्ती का
फसाना क्या
मानी,' ये
छोटी—मोटी किश्तियाँ
लेकर तुम
चलोगे, ये बचेंगी
थोड़े ही; ये
डूब ही
जाएँगी।
तुम्हारे
मंत्र की किश्तियाँ,
तुम्हारे
यंत्र की किश्तियाँ,
तुम्हारे
योग—विधि—विधानों
की किश्तियाँ,
ये छोटी—छोटी
किश्तियाँ
काम न आएँगी, दरिया तूफान
में है, यह
भयंकर अंधड़
में है। ये
तुम्हारी सब
नावें कागज की
नावें हैं; खिलौने हैं,
नावें नहीं
हैं, ये तो डूबेंगी।
और जितना तुम
बचाने की कोशिश
करोगे, उतनी
ही कठिनाई में
पड़ोगे।
दरिया
में तलातुम
बरपा है
किश्ती का
फसाना क्या
मानी?
गरदाब से
जब लड़ना है
तुम्हें
तिनके का
सहारा क्या मानी?
और जब
इस भयंकर
तूफान से लड़ना
है,
तब छोटे—छोटे
तिनको का
सहारा लेने से
क्या होगा? और तुम्हारा
अहंकार तो
तिनके से भी
ज्यादा झूठा
है। तिनका भी
नहीं है, सिर्फ
खयाल है।
सिर्फ एक
विचार है, एक
सपना है जो
तुमने नींद
में देखा है।
यह नौहए—किश्ती
बंद करो खुद
मौजे तूफाँ
बन जाओ
अब छोड़ो
यह फिकर किश्तियों
की,
अब तो तूफान
के साथ एक हो
जाओ, मौजे तूफाँ बन
जाओ। अब तो
तूफान के साथ
तारतम्य जोड़
लो। यही
संन्यास है।
अब बचने की चेष्टा
ही छोड़ो।
अब तुम मिटने
के साथ ही
दोस्ती कर लो।
अब तो जीवन का
आग्रह छोड़ो,
अब तो मौत
का आलिंगन कर
लो :
यह नौहए—किश्ती
बंद करो खुद
मौजे तूफाँ
बन जाओ
पैरों
के तले साहिल
होगा साहिल की
तमन्ना क्या
मानी?
तूफान को
ही साहिल बना
लेंगे। तूफान
की ही नाव बना
लेंगे। मौत को
ही अमृत का
द्वार बना
लेंगे। यह गर्दन
गिरेगी, इसी
में तुम्हारा
उठना है।
तो घबड़ाहट
स्वाभाविक
है। लेकिन
स्वाभाविक घबड़ाहट के
पार चलना है।
स्वाभाविक
होने से ही
कोई बात सच
नहीं हो जाती।
स्वभाव के पार
और भी स्वभाव
है। यह
बिल्कुल ही
नीचे तल का
स्वभाव है, जहाँ
हमें भय पकड़े
रहता है—मिट
जाने का भय।
मिटना तो है
ही। ऐसे मिटे
कि वैसे मिटे।
बचना तो होना
नहीं है। बचा
तो यहाँ कोई
भी नहीं है।
यहाँ सिकंदर
भी मिट जाते
हैं, दीन—दरिद्र
भी मिटते हैं,
सम्राट भी।
मिटना तो यहाँ
है ही। गर्दन
तो गिरेगी ही।
तलवार गिरे या
न गिरे तो भी
गर्दन
गिरेगी। तो
फिर मिटने का
भी उपयोग कर
लेना चाहिए।
मरते
सभी हैं, जो
मरने का उपयोग
कर लेता है
वही अमृत को
उपलब्ध हो
जाता है। क्या
है मरने का
उपयोग? जो
स्वेच्छा से
मर जाता है।
संन्यास
स्वेच्छा से
मृत्यु का वरण
है। यह तैयारी
है कि जब मौत
आनी ही है, आती
ही है, तो
मैं स्वयं झुक
जाता; मौत
को इतना कष्ट
भी न दूँगा, मैं खुद
मरने को राजी
हूँ। इसी मरने
के राजीपन
में तुम्हारे
भीतर क्रांति
घट जाती है, तुम मृत्यु
के पार हो
जाते हो। फिर
कौन मरनेवाला
बचा—जो मरने
को ही राजी हो
गए तो मरेगा
कौन अब? जिसने
मृत्यु को भी
स्वीकार कर
लिया, वह
इसी स्वीकार
में अमृत हो
गया। अमृत तो
था ही, इस
स्वीकार में
उसे अमृत का
बोध हो गया।
दमाग
सोख्ता—सा, दिल
पै गर्द—सी
क्या है?
यह
जिंदगी का तमस्खर
है, जिंदगी
क्या है?
यह तो
जिंदगी का सिर्फ
उपहास है जिसे
हम जिंदगी कह
रहे हैं यह तो
जिंदगी का र्सिफ्
ढोंग है जिसे
हम जिंदगी
कहते हैं। यह
तो जिंदगी का
सिर्फ एक सपना
है।
दमाग
सोख्ता—सा दिल
पै गर्द—सी
क्या है?
यह
जिंदगी का तमस्खर
है, जिंदगी
क्या है?
कदम
बढ़ा कि नयी मंज़िलें
बुलाती हैं
यह बेहिसी, यह
थकन, यह शिकस्तगी
क्या है?
न
देख चश्मे—हिकारत
से खुश्क
काँटों को
गुलों से
पूछ मआले
शगुफ्तगी
क्या है
काँटों
को देखकर मत
रुक जाना; पूछना
हो जिंदगी का
राज, फूलों
से पूछना।
मरनेवालों से
मत पूछना, पूछना
हो राज़ तो
उनसे पूछना
जिन्हें अमृत
का कुछ अनुभव
हुआ है।
जिंदगी का राज़
पूछना हो तो
हँसते हुए फूल
से पूछना। उसे
पता है मौत के
बीच हँसने की
कला। चारों
तरफ मौत घिरी
है और फूल है
मुस्कुराए
चला जाता है।
चारों तरफ मौत
धिरी है
और दिया है कि
जला चले जा
रहा है। चारों
तरफ मौत तो
सबके घिरी है—तुम्हारे,
मेरे, बुद्ध
के, कृष्ण
के, क्राइस्ट
के; लेकिन
तुम मौत से
घबड़ा रहे हो
और बुद्ध मौत
से नहीं घबड़ा
रहे हैं, इतना
ही फर्क है।
तुम्हारी घबड़ाहट
में तुम मौत
से दबे जा रहे
हो। बुद्ध
निर्भय होकर
मृत्यु को देख
रहे हैं—जो
होना है होना
है, जैसा
होना है वैसा
होना है, जैसा
हो वैसा हो, ज्यों का
त्यों
ठहराया। बस
इसी क्षण
तुम्हारे भीतर
एक स्वर पैदा
होता है जो
शाश्वत का है,
एक किरण
उतरती है जो
परमात्मा की
है।
कदम
बढ़ा कि नयी मंज़िलें
बुलाती हैं
यह बेहिसी, यह
थकन, यह शिकस्तगी
क्या है?
यह
अकर्मण्यता, यह
थकान, यह
पराजय क्या है
न
देख चश्मे—हिकारत
से खुश्क
काँटों को
..... काँटों
को मत गिनती
करो, मौत
का हिसाब मत
लगाओ.....
गुलों से
पूछ मआले
शगुफ्तगी
क्या है
हँसने
का राज़
क्या है? हँसने
का एक ही राज़
है—मौत का
स्वीकार।
संन्यासी ही
हँस सकता है।
तुम्हें पता
है क्यों इस
देश ने
संन्यास के
लिए गैरिक
वस्त्र चुने?
वह अग्नि का
रंग है, लपटों
का रंग है।
प्राचीन समय
में जब किसी
को संन्यास
देते थे, तो
उसे चिता
बनाकर उस पर
लिटाते थे।
फिर चिता में
आग लगाते थे
और घोषणा करते
थे कि तू अब तक
जो था, समाप्त
हो गया। तेरी
तरह तू मर
गया। अब उठ और
एक नए जीवन
में उठ! जलती
चिता से
संन्यासी
उठता था, फिर
उसे नया नाम
देते थे, और
गैरिक वस्त्र
देते थे ताकि
याद रखना
अग्नि को, लपटों
को, मृत्यु
को; स्मरण
रखना कि जो भी मरणधर्मा
है वह तू नहीं
है; स्मरण
रखना कि जो भी
मरेगा, वह
तू नहीं है।
तो
शीला, घबड़ा मत!
रख गर्दन
सामने। गिरने
दे तलवार। जो
कटेगा, वह
तू नहीं है।
सिकंदर
जब भारत से
वापिस लौटता
था तो उसे याद आयी—जब
यात्रा पर आया
था भारत की
तरफ तो उसके
गुरु अफलातून
ने उससे कहा
था,
जब भारत से लौटो, और
बहुत—सी चीजें
तुम लूट कर
लाओगे, बन
सके तो एक
संन्यासी भी
ले आना।
संन्यास भारत
की गरिमा है।
वह भारत का
गौरव है। वह
भारत की देन
है दुनिया को।
तो अफलातून
ने ठीक ही कहा
था कि तू सब
कुछ तो लाएगा लूटकर—धन—दौलत,
हीरे—जवाहरात—मेरे
लिए इतना खयाल
रखना, एक
संन्यासी ले
आना। क्योंकि
मैं जानना
चाहता हूँ, संन्यास
क्या है? सब
लूट—पाट कर जब
सिकंदर जा रहा
था और पंजाब
की आखिरी बस्तियाँ
छोड़ रहा था, तब उसे याद
आया कि वह भूल
ही गया
संन्यासी को ले
जाना। तो उसने
खबर की गाँव
में कोई
संन्यासी है?
लोगों ने
कहा—हाँ, एक
संन्यासी है।
वह नदी के
किनारे नग्न
वर्षों से
जीता है।
सिकंदर ने
अपने दो आदमी
भेजे और कहा—संन्यासी
को कहो कि घोड़े
पर सवार होकर
हमारे साथ हो
जाए। और कह
देना, अगर
आज्ञा न मानी
तो यह नंगी
तलवार है, गर्दन
इसी वक्त
काटकर गिरा दी
जाएगी।
वे
नंगी तलवारें
लिए हुए सैनिक
गए। जो संन्यासी
वहाँ खड़ा था —नग्न, मस्त,
सुबह की
रोशनी में.....
सूरज से बातें
करता होगा, आकाश में उड़ता
होगा, अनंत
से जुड़ा था, मस्त था, मौज
में था, रक्स
में था, नाच
में था—थोड़ी
देर तक तो वे
दोनों सैनिक
तलवारें नंगी
हाथ में लिए
चुपचाप खड़े
रहे; ऐसा
दृश्य
उन्होंने
देखा नहीं था!
ऐसी मस्ती उन्होंने
देखी नहीं थी!
मतवाले देखे
थे, मगर
ऐसा मतवाला
नहीं देखा था!
और संन्यासी
को जैसे पता
ही नहीं चला
कि वे दो नंगी
तलवारें लिए
आदमी खड़े हैं किसलिए? आखिर में
उन्होंने ही
कहा कि भई, देखते
नहीं, हम
बड़ी देर से
देख रहे हैं, सिकंदर की
आज्ञा है, महान
सिकंदर की
आज्ञा है कि
घोड़े पर सवार
हो जाओ और
हमारे साथ
यूनान चलो। सब
तरह की सुविधा
रहेगी, सब
तरह का इंतजाम
रहेगा, तुम
शाही मेहमान
रहोगे। और यह
भी खबर है साथ
में कि अगर
जाने से इंकार
किया, तो
ये नंगी
तलवारें
तुम्हारी
गर्दन अभी
गिरा देंगी।
वह
संन्यासी ऐसा
खिलखिलाकर
हँसा कि नंगी
तलवारें लिए
सैनिकों के
दिल धड़ककर
रह गए होंगे।
उस संन्यासी
ने कहा—सिकंदर
को कहो कि फिर
उसे
संन्यासियों
से बात करने
की तमीज नहीं
है। उसे
संन्यासियों
के साथ चर्चा
करने का कुछ
पता नहीं है।
उस नासमझ को ही
ले आओ ताकि वह
भी देख ले—जब
एक संन्यासी
की गर्दन काटी
जाती है तो
क्या होता है? रही
आने—जाने की
बात, वर्षों
हो गए तब से मैंने
आना—जाना छोड़
दिया। ठहर गया
हूँ। वह ऊँची
बातें कह रहा
था जिसकी
सिपाहियों को
तो कुछ समझ
में ही नहीं
आया होगा क्या
कह रहा है।
आना—जाना छोड़
चुका हूँ, उसने
कहा, ठहर
गया हूँ। वह
तो संन्यासी
की परिभाषा कर
रहा था, जो
कृष्ण ने की
है—स्थितप्रज्ञ,
जिसकी
प्रज्ञा ठहर
गयी है, जो
न अब आता न
जाता.....रज्जब
ने कहा न—जो आए
जाए सो माया.....
जो न आता, न
जाता, जो
सदा ठहरा है, सदा स्थिर
है, उस
थिरता का नाम
ही संन्यास
है। तो उसने
कहा—मैं तो अब
कहाँ आता—जाता,
वर्षों हो
गए ठहर गया, अब कैसा आना,
कैसा जाना!
कैसा भारत, कैसा यूनान!
व्यर्थ की
बातें यहाँ न
करो। रही
गर्दन काटने
की बात, तुम्हें
काटना हो तुम
काट लो, सिकंदर
को काटना हो
सिकंदर काट ले,
जहाँ तक
मेरा संबंध है,
मैं तो यह
गर्दन बहुत
पहले काट ही
चुका। इस गर्दन
का मुझसे कुछ
लेना—देना
नहीं।
सिपाहियों
की हिम्मत न
पड़ी काटने की।
यह आदमी कुछ
अनूठा था।
उन्होंने
बहुत आदमी
देखे थे, या तो
आदमी होता है
तलवार उसके
सामने करो तो
वह अपनी तलवार
निकाल लेता है,
लड़ने—जूझने
को तैयार हो
जाता है; या
एक आदमी होता
है कि तलवार
दिखाओ तो वह
भाग खड़ा होता
है, पीठ
दिखा देता है।
न इसने पीठ
दिखायी, न
इसने तलवार
निकाली, यह
तीसरे ही तरह
का आदमी था, जो
खिलखिलाकर
हँसा! इन
सैनिकों ने
बहुत युद्ध देखे
थे, बहुत
लोग मारे थे, मारे गए थे, खुद मौत का
सामना किया था,
मृत्यु के
अनुभव से
निरंतर गुजरे
थे, मगर
ऐसा आदमी न
देखा था।
उन्होंने
सोचा, बेहतर
है हम सिकंदर
को पहले खबर
कर दें।
एक तो
वहीं रुका रहा
कि संन्यासी
पर नजर रखे, दूसरा
भागा सिकंदर
को गया, उसने
कहा कि आदमी
देखने जैसा
है! अफलातून
ने, तुम्हारे
गुरु ने जो
कहा संन्यासी
ले आना, ठीक
ही कहा। हमने
बहुत आदमी
देखे, मगर
यह आदमी कुछ
और तरह का
आदमी है। यह
आदमियों जैसा
आदमी नहीं है।
यह मौत की बात
सुनकर हँसा—ऐसा
हँसा कि भरोसा
न आए! या तो यह
पागल है, या
यह किसी ऐसी
अवस्था में है
ऊँचाई की जहाँ
हमारी कोई
पहुँच नहीं
है। आप खुद ही
चलो। काटना हो
आप खुद ही काट
लो। और वह
कहता है—गर्दन
तो मैं पहले
ही कटा चुका।
सिकंदर
खुद गया।
सिकंदर ने
लिखा है कि
जिंदगी में
मैं दो बार
अपने को छोटा
अनुभव किया
हूँ। एक बार डायोजनीज
से मिला था, तब—वह
भी एक नंगा
फकीर था यूनान
का—और एक बार दंडामि, इस हिंदू
संन्यासी से
मिला, तब; दो बार मुझे
लगा कि मैं ना—कुछ
हूँ। बाकि
बड़े सम्राट
देखे, दुनिया
के बड़े ख्यातिनाम
लोग देखे, उनके
सामने मैं सदा
बड़ा था। मेरे
मुकाबले वे कुछ
भी न थे। मगर
इन दो फकीरों
ने—दोनों नंगे
फकीर थे मुझे
एकदम झेंप से
भर दिया।
दंडामि के
सामने खड़े
होकर सिकंदर
ने कहा कि
चलना होगा, अन्यथा
यह तलवार है
और मैं कठोर
आदमी हूँ, जैसा
कहता हूँ, वैसा
करता हूँ, यह
गर्दन अभी कट
जाएगी, यह
सिर अभी गिर
जाएगा। पता है
दंडामि
ने क्या कहा? दंडामि ने कहा—गिराओ,
गिराओ,
सिर को गिरा
दो; मैं भी
उसे गिरते
देखूँगा, तुम
भी उसे गिरते देखोगे।
और अब तुम
करोगे क्या, जो काम मेरा
गुरु पहले ही
कर चुका है! अब
तो यह सिर ऐसा
ही अटका है, जुड़ा नहीं है।
यह तो कटा हुआ
सिर है, कटे
हुए को क्या
काटते हो, मगर
काटो! तुम भी देखोगे
गिरते, मैं
भी देखूँगा
गिरते।
सिकंदर की
तलवार कहते हैं
म्यान में
वापिस चली
गयी। इस आदमी
की रौनक, इस
आदमी की आभा
देखकर हतप्रभ
होकर वापिस
लौट गया। जाते
वक्त उस
संन्यासी ने
कहा—और ध्यान
रखना, जो
संन्यासी
तुम्हारे साथ
जाने को राजी
हो जाए, वह
ले जाने—योग्य
नहीं है। वह
संन्यासी
नहीं है। जो
संन्यासी है,
उसका अब
कैसा आना, कैसे
जाना! ज्यूँ
का त्यूँ
ठहराया।
तो
शीला! कट ही
जाने दो
गर्दन। गर्दन
कट जाए तो झंझट
मिटे। फिर भय
भी मिट जाएगा।
जब कट ही गयी , तो
कटने को कुछ
और बचा नहीं।
जब तक है, तब
तक भय है। भय
के ऊपर उठो।
दूसरा
प्रश्न : आप ऑंख
खोलने के लिए
कहते हैं, मगर
ऑंखें
खोलने में
इतना भय क्यों
लगता है?
वेदांत, भय
तो लगेगा ही। ऑंखें बंद
हैं तो प्यारे
सपने चल रहे
हैं। ऑंखें
खुलेंगी
तो सपने उजड़
जाएँगे, टूट
जाएँगे। ऑंखें
बंद हैं, तो
आशा का दीया
जल रहा है। ऑंखें
खुलेंगी
तो दीया बुझ
जाएगा।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
ने एक रात
सपना देखा कि
कोई देवदूत
प्रगट हुआ है—फरिश्ता
—और कह रहा है :
ले ले, यह
निन्न्यानबे
रुपये हैं ले ले! मुल्ला
ने कहा—निन्न्यानबे!
जैसा कि आदमी
का मन होता है;
कोई भी, तुम
भी होते तो
तुम कहते यह
भी खूब रही, निन्न्यानबे क्या, जब
देते हो तो कम—से—कम
सौ दो। कुछ
अड़चन मालूम
होती है निन्न्यानबे
के साथ। "निन्न्यानबे
का चक्कर,' कहानी
तुमने सुनी है
न। कुछ अड़चन
होती है। निन्याबे!
तो मन सोचता है
कि एक और हो।
पूरा तो हो
जाए! अधुरे
में कुछ अड़चन
होती है। तो, सपने में भी
गणित नहीं
टूटता आदमी
का। मुल्ला ने
कहा—जब देते
ही हो, भाई,
तो कम—से—कम
सौ दो! बँधा
नोट दो! यह
क्या निन्न्यानबे!
इस पर जिद्द
होने लगी, फरिश्ता
कहने लगा—लेना
हो निन्न्यानबे
ले लो; और
मुल्ला कहने
लगा कि लेंगे
तो सौ लेंगे, अब एक के लिए
यह क्या बात
कर रहे हो! जब
इतने दिलदार
हो, जब
इतने दूर से
आए, तो एक रुपट्टी
के लिए क्या
कंजूसी दिखा
रहे हो! इसी
झगड़े में नींद
खुल गयी। ऑंख
खुली तो न
फरिश्ता था, न निन्न्यानबे
रुपये थे।
मुल्ला बहुत
घबड़ाया। जल्दी
से ऑंख
बंद करके बोला—भाई,
चलो निन्न्यानबे
ही दे दो! मगर
वहाँ अब कोई
भी न था। चलो अठ्ठानवे
दे दो जितने
देना हो दे दो
कुछ तो दे दो
मगर वहां अब
कोई भी न था।
इसलिए ऑंख खोलने
में डर लगता
है। कहीं सपना
टूट न जाए। तुम
निन्न्यानबे
को सौ करने
में लगे हो।
सपने का यही
अर्थ होता है—निन्न्यानबे
को सौ करने
में जो लगा है
वह सपने में
है। और निन्न्यानबे
सौ नहीं होते।
निन्न्यानबे
कभी सौ नहीं
होते। निन्न्यानबे
निन्न्यानबे
ही रहते हैं।
तुम्हें मैं
कहानी कह दूँ, तो
खयाल में आ
जाए—
एक
सम्राट की
मालिश
करनेवाला नाई
रोज—रोज आता
है,
सुबह घंटे—दो
घंटे सम्राट
की मालिश करता
है; पुरानी
कहानी है, उसे
एक रुपया रोज
मालिश का
मिलता। उन
दिनों एक
रुपया बहुत
था। खुद खाता
है, पड़ोस
के लोगों को
खिलाता है, मस्त है!
सम्राट भी
उसकी मस्ती सेर्
ईष्या करता
है। और कोई
काम नहीं, दो
घंटे मालिश कर
लिए, फिर
दिन—भर मुक्त
है, फिर
बाँसुरी
बजाता है।
वहीं सम्राट
के सामने रहता
है, उसकी
बाँसुरी की
आवाज सम्राट
को भी कभी—कभी
सुनायी पड़
जाती। उसके घर
से हमेशा हँसी
के फव्वारे
छूटते रहते—मित्र
इकट्ठे होते
हैं, भाँग
छनती है, गीत
उठते हैं, ढोलक
पर ताल पड़ती
है, बाँसुरी
बजती है। फिर
दूसरे दिन
सुबह आकर दो
घंटे मेहनत कर
जाता है और
फिर निश्चिंत
हो जाता है।
सम्राट ने
अपने वजीर से
कहा कि मेरे
पास सब है, मगर
मैं इतना
निश्चिंत
नहीं। न मैं
बाँसुरी बजा
सकता हूँ—फुरसत
कहाँ—न मैं
हँस सकता हूँ
इस जैसा। इसके
पास कुछ भी नहीं
है। वजीर ने
कहा—यही तो
झंझट है, इसके
पास कुछ भी
नहीं है! यह
अभी चक्कर में
नहीं पड़ा। आप घबड़ाएँ न, आपकीर् ईष्या मैं
मिटा दूँगा, मैं इसको कल
चक्कर में
डाले देता
हूँ।
रात
में वह गया और निन्न्यानबे
रुपये एक थैली
में रखकर उस
गरीब के घर
में फेंक आया।
सुबह उसने ऑंख
खोली, निन्न्यानबे रुपये, गिनती
किए—एकदम निन्न्यानबे!
बस सौ का
चक्कर शुरू
हुआ। उसने कहा—आज
जो रुपया मिले,
आज रबड़ी
नहीं खरीदनी,
आज भाँग
नहीं छनेगी,
एक ही दिन
की तो बात है, एक रुपया बच
जाएगा, सौ
हो जाएँगे सौ
पूरे हो
जाएँगे। यह
आदमी का मन
कुछ अजीब पागल
है, निन्न्यानबे से पता नहीं
क्यों राजी
नहीं होता! सौ
पूरे हो जाएँ!
उस दिन न तो
बाँसुरी बजी,
न मृदंग पर
ताल पड़ी, न
मित्र आए, न
हँसी के
फव्वारे छूटे—भूखा
प्यासा आदमी
क्या हँसी का
फव्वारा छूटे!
वह कल की राह
देख रहा है यह
एक रुपया यह
तो मिला है तो
सौ कर लिए।
सम्राट
ने वजीर से
कहा—क्या किया
भाई,
हद्द कर दी!
आज कहाँ गया
नाई, क्या
हो गया उसको? वजीर ने कहा—अब
कभी हँसी न
उठेगी और अब
कभी बाँसुरी न
बजेगी, आप
फिकर न करें।
आप जल्दी ही
देखेंगे इसकी
हालत खस्ता
होती जाएगी।
और उसकी हालत
खस्ता होती चली
गयी। क्योंकि
जब सौ हो गए, तो फिकर उसको
लगी कि ऐसे
अगर बढ़ते चले
जाएँ तो दो सौ
हो सकते हैं।
सौ तो हो ही गए,
आधे तो हो
ही गए, अब
दो सौ में देर
कितनी है! तो
रोज अगर बचाऊँ!
तो रूखी—सूखी
खाने लगा, दोस्तियाँ छोड़ दीं—इसीलिए
तो धनपति
दोस्ती नहीं
करते। गरीब की
दुनिया में
दोस्ती होती
है, गरीब
की दुनिया में,
अमीर की
दुनिया में
कहाँ दोस्ती!
अमीर की दुनिया
में, र्सिफ् व्यवसायिक
नाते—रिश्ते
होते हैं, व्यावसायिक
संबंध होते
हैं, दोस्ती
नहीं होती, मित्रता
नहीं होती, क्योंकि कौन
खर्चा ले, कौन
झंझट ले! अमीर
देने में डरता
है, है
उसके पास मगर
देने में डरता
है। गरीब के
पास कुछ नहीं
है, इसलिए
देने में डरता
ही नहीं—वैसे
ही कुछ नहीं
है, अब और
क्या ले
जाओगे! इतना
है, यह भी
ले लो तो कुछ
हर्जा नहीं—क्या
खोता है!
मगर अब
इसके पास सौ
रुपये थे और
मुसीबत हो
गयी! और दिन
में दो—चार
बार जाकर टटोलकर
अपने रुपये
देख लेता था
और डर भी पैदा
होने लगा कि
कोई चोर को
पता चल जाए, घर
में इतने
आदमियों का
आना—जाना ठीक
नहीं है। आना—जाना
लोगों का बंद
करवा दिया।
खुद भी यहाँ—वहाँ
जाना बंद कर
दिया, क्योंकि
घर से बाहर
जाए—अकेला ही
आदमी था—कोई
चोर घुस जाए, कुछ हो जाए, कोई ले जाए!
रात भी सोता
था तो वो निश्चिंतता
न रही।
चिंताएँ आएँ।
रात में एकाध—दो
दफे उठकर जाकर
देख ले कि सब
ठीक—ठाक है? सूखने लगा।
पंद्रह दिन
में ही उसकी
हालत खराब थी।
सम्राट ने
पूछा कि भाई, तुझे हुआ
क्या है? कहाँ
गयी तेरी रौनक?
कहाँ गया
तेरा रस, तेरी
मस्ती? यह
वजीर ने क्या
किया तेरे साथ?
उस आदमी ने
कहा—वजीर ने!
वह आदमी
खिलखिलाकर
हँसने लगा, उसने कहा अब
मैं समझा। तो
यह वजीर की
शरारत है! वह
मुझे मार ही
डालता, अच्छा
बता दिया
आपने! मुझे निन्न्यानबे
के चक्कर में
डाल दिया।
निन्न्यानबे का
चक्कर है एक।
वही सपना है।
तुम
पूछते हो—आप ऑंख खोलने
के लिए कहते
हैं,
मगर ऑंख
खोलने में
इतना भय क्यों
लगता है? इसीलिए
कि ऑंख
बंद है तो
तुम्हारा
सपना सच मालूम
होता है। तुम ऑंख खोलकर देखोगे तो
जिसके प्रेम
में मरे जा
रहे थे, पाओगे
वहाँ कुछ भी
नहीं—हड्डी—मांस—मज्जा
है। ऑंख
खोलकर देखोगे
तो जिस पद के
लिए दिवाने
हुए थे, वहाँ
कुछ भी नहीं
है। ऊँची
कुर्सियों पर
बैठ जाने का
रस छोटे—छोटे
बच्चों जैसा
है, जो कूड़े—कचरे
के ढेर पर चढ़
जाते हैं और
चिल्लाकर
कहते हैं कि
मैं सबसे ऊँचा
हूँ। दिल्लियों
में वही कूड़े—कचरे
के ढेरों पर
चढ़े हुए लोग
चिल्लाते
रहते हैं कि
मैं सबसे ऊँचा
हूँ। तुमने देखा
न, छोटा
बच्चा कभी
तुम्हारे पास
ही आकर कुर्सी
के हत्थे पर चढ़कर खड़ा
हो जाता है और
कहता है—पिताजी,
मैं आपसे
बड़ा हूँ। तुम
हँसकर रह जाते
हो, तुम
जानते हो
बचकाना है।
अभी बच्चा है,
इसे कुछ पता
नहीं। ये कोई
बड़े होने के
ढंग नहीं हैं।
लेकिन कोई
राष्ट्रपति
हो गया, कोई
प्रधानमंत्री
हो गया, तुम
सोचते हो कुछ
भेद हो गया? कुर्सी पर
चढ़ गया। अब वह
कह रहा है—मैं
बड़ा हूँ। और
उसे पक्का
भरोसा आने
लगता है कि
मैं बड़ा हूँ, क्योंकि
कुर्सी को लोग
नमस्कार करते
हैं। वह सोचता
है नमस्कार
मुझे हो रही
है।
एक रथ
के सामने एक
गधा चल रहा था।
रथ में बैठे
सम्राट को लोग
झुक—झुककर
नमस्कार कर
रहे थे, गधा
बहुत अकड़ गया।
गधा जोर—जोर
से रेंकने
लगा। सम्राट
ने कहा—इस गधे
को क्या हुआ? सम्राट के
वजीर ने कहा—यह
लोगों की
नमस्कार इसके
दिमाग को खराब
किए दे रही
है। यह आगे—आगे
चल रहा है, इसको
आपका कुछ पता
नहीं है, इसके
पीछे रथ आ रहा
है इसका पता
नहीं है, और
पता भी हो तो
शायद यही सोच
रहा हो कि
मेरे पीछे रथ
चलते हैं, और
मेरे आगे लोग
नमस्कार करते
हैं सम्राट मेंरे
पीछे चलते हैं
और लोग झुक—झुककर
मुझे नमस्कार
करते हैं—, इस
गधे का दिमाग
फिरा जा रहा
है। एक तो गधा
और फिर दिमाग
फिरा, इसकी
हालत खराब हुई
जा रहीं है, यह पगला
जाएगा।
राजधानियों
में तुम इसी
तरह के लोग
पाओगे। कुर्सी
को लोग
नमस्कार कर
रहे हैं।
कुर्सी से हटते
ही कोई
नमस्कार करने
नहीं आता।
तुमने देखा न
कुर्सी पर
आदमी बैठता
हैं,
लोग कहते
हैं—जिंदाबाद।
कुर्सी से
उतरा कि मुर्दाबाद।
असली बात—कुर्सी
जिंदाबाद।
तो जो कुर्सी
पर है—वह भी जिंदाबाद
हो जाता है।
कुर्सी पर
बैठे आदमी की
लोग झुक—झुककर
स्तुतियाँ
करते हैं।
खुशामद करते
हैं। उसके
अहंकार को फुलाते
हैं। कुर्सी
से उतरा नहीं
आदमी कि फिर कोई
पूछता नहीं।
इसीलिए तो जो
कुर्सी पर एक
बार चढ़ जाता
है, वह
उतरता नहीं।
लाख उपाय करता
है चढ़ा ही
रहे। क्योंकि
उसे भी शक तो
होता ही है कि
कहीं उतर गया
कुर्सी से, पता नहीं
फिर क्या मेरी
हालत हो! लोग
चाहते हैं कि
कुर्सी पर ही
रहते—रहते मर
जाएँ।
सपना
तुम पद का देख
रहो हो, ऑंख खोलोगे तो
वहाँ कुछ भी न
पाओगे। सपना
तुम धन का देख
रहो हो, ऑंख खोलोगे हाथ
में राख
पाओगे। इसलिए
डर तो स्वाभाविक
है। ऑंख
खोलने से सपने
टूट जाएँगे, एक बात। और
फिर सच दिखायी
पड़ेगा, वह
और भी खतरनाक
है—कि पता
नहीं कैसा हो
सच! अनुकूल
पड़े न पड़े! और
सच ने कोई कसम
थोड़े ही खायी
है कि तुमसे
अनुकूल पड़ना
पड़ेगा। सच
तुम्हारे
अनुकूल पड़ता
ही नहीं। तुम्हीं
को सच के
अनुकूल पड़ना
पड़ता है। और
यही अड़चन है।
झूठ की एक
खूबी है कि वह
तुम्हारे
अनुकूल होता
है।
इसको
सूत्र की तरह
समझो, इसे खूब
गहरा पकड़ लो।
झूठ की यह
खूबी है—इसीलिए
तो झूठ इतना
सफल है दुनिया
में—वह हमेशा
तुम्हारे
अनुकूल होता
है। वह कहता है—तुम
जैसे, वैसा
मैं। मैं सदा
तुम्हारे साथ
हूँ। तुम लाल तो
मैं लाल, तुम
पीले तो मैं
पीला; तुम
दिन को रात
कहो तो मैं
दिन को रात
कहता; तुम
रात को दिन
कहो तो मैं
रात को दिन
कहता। मैं तो
तुम्हारा
अनुगामी हूँ,
मैं तो
तुम्हारा
दास। झूठ के
साथ एक सुविधा
है कि वह सदा
तुम्हारे
अनुकूल होता
है। सत्य के
साथ असुविधा
है—तुम्हें
सत्य के
अनुकूल होना
पड़ता है। अगर
रात है तो रात
है, तुम
लाख चिल्लाओ
कि दिन है, सत्य
नहीं कहेगा कि
यह दिन है।
सत्य के
अनुकूल
तुम्हें होना
पड़ेगा, तो
तुम्हें अपने
बहुत से अंग
काटने होंगे।
तुमने झूठ की
दुनिया में रह—रह
कर जो अंग
अपने बना लिए
हैं, एक
अपनी तस्वीर
बनायी है। एक
अपनी प्रतिमा
निर्मित की है,
वह सारी
प्रतिमा
खंडित होगी, फिर नए सिरे
से शुरू करना
पड़ेगा, फिर
बारहखड़ी,
फिर अ ब स से
शुरू करना
पड़ेगा। पुराना
कुछ काम नहीं
आएगा। अब तक
जो सोचा था
अपना परिचय है,
वह काम नहीं
अएगा। अब
अपना नया
परिचय खोजना
होगा।
और
सत्य के
अनुकूल होने
में अड़चनें
आएँगी। अड़चनें
इसलिए आएँगी
कि बाकी सारे
लोग झूठ के
अनुकूल हैं
तुम एकदम
अजनबी हो
जाओगे। तुम
भरी दुनिया में
अकेले हो
जाओगे। मित्र
किनारा काटने
लगेंगे—क्योंकि
कौन झंझट लेना
चाहता है—अपने
पराए हो
जाएँगे, सब
तरफ तुम अड़चन
पाओगे, सब
तरफ तुम अनुभव
करोगे कि
तुम्हारे बीच
और लोगों के
बीच फासला
बढ़ता जा रहा
है। तुम जितने
सत्य के करीब
आओगे, उतने
लोगों से दूर
होते जाओगे।
तुमने सुना है
कि संन्यासी
समाज को छोड़कर
भाग जाते थे, मैं कहता
हूँ भागना मत
समाज को छोड़कर,
लेकिन एक
बात तो होने
वाली है, समाज
में रहोगे तो
भी तुम समाज
के न रह
जाओगे। समाज
और तुम्हारे
बीच एक अंतराल
हो जाएगा, एक
खाई पड़ जाएगी।
तुम सत्य के
अनुकूल होने
की चेष्टा में
लगोगे और समाज
अभी झूठ में
जी रहा है—समाज
का अभी निन्न्यानबे
का फेर जारी
है—कैसे मेल
बैठे? कैसे
तालमेल हो? विसंगति हो
जाएगी। और
जीना तो
इन्हीं लोगों
के साथ है।
तो बड़ी
कला सीखनी
पड़ेगी कि जब
तुम्हारे
भीतर सब बदल
गया हो, तब
उनके साथ कैसे
जीना जिनके
भीतर कुछ भी
नहीं बदला है।
ऐसा ही समझो
कि पागलखाने
में एक आदमी
जिए जो पागल
नहीं है। उसकी
अड़चन समझो।
उसे बड़ी व्यवस्था
रखनी पड़ेगी।
उसे कम—से—कम
इतना दिखावा
जारी रखना
पड़ेगा कि मैं
भी भाई पागल
हूँ, तुम्हारे
जैसा ही हूँ।
भीतर एक हो
जाएगा और बाहर
एक अभिनय करना
होगा। ठीक
संन्यासी सम्यकरूपेण
अभिनय की कला
में कुशल हो
जाते हैं।
अभिनय का मतलब,
नाहक
दूसरों को
क्यों दुःख
देना? जो
सोए हैं और जो
अभी सोए रहने
का निर्णय किए
हैं, उनकी
नींद अकारण
नहीं तोड़ देनी
है। किसी को
यह हक नहीं
है। उन्हें
सोने दो। जब
उनका समय पकेगा
तब वे
जागेंगे।
उनके झूठों को
भी नाहक उनकी
मर्जी के
विपरीत
उन्हें दिखलाओ
मत, अन्यथा
वे नाराज हो
जाएँगे, अन्यथा
वे तुमसे बदला
लेंगे, प्रतिशोध
लेंगे।
ये बड़ी
कठिनाइयाँ
हैं। पहले तो
अपने सपने गए, जो—जो
सुंदर था वह
गया, और
फिर आया सत्य,
और सत्य के
साथ फिर अपने
को बदलना
पड़ेगा।
एक
खुद्दार आदमी
का जमीर
वक्त? से
कब शिकस्त
खाता है
यह
दिया हादसों
की ऑंधी
में
और
शिद्दत से
जगमगाता है
बड़ी
हिम्मत
चाहिए। बड़ी
स्वतंत्रता
चाहिए। बड़ा
साहस चाहिए।
"एक खुद्दार
आदमी का जमीर'—बड़ा
मजबूत
अंतःकरण
चाहिए। एक
केंद्रित
चेतना चाहिए।
एक श्रद्धा
चाहिए स्वयं
के अस्तित्व
पर।
एक
खुद्दार आदमी
का जमीर
वक्त? से
कब शिकस्त
खाता है
तभी
तुम जीत सकोगे, नहीं
तो समय
तुम्हें हरा
देगा। "यह
दिया हादसों
की ऑंधी
में', अगर
भीतर श्रद्धा
का बल हो, आत्मबल
हो, तो फिर
यह दिया ऑंधियों
से बुझता नहीं;
यह दिया
हादसों की ऑंधी
में—आपदाओं की
ऑंधी में—और
शिद्दत से
जगमगाता है—और
तेजी से
जगमगाता है।
तुम डरते हो
कि पता नहीं
यह दिया बुझ न
जाए। नहीं, हिम्मत जुड़ाओ;
जागो, खोलो ऑंख, जाने
दो सपनों को—सपने
हों तो भी
किसी काम के
नहीं; जितनी
देर सपनों में
रहे, उतना
समय व्यर्थ
गया, झूठी कल्पनाजाल
से कुछ हित
होने का नहीं
है—जागो!
और सत्य के
साथ अड़चनें
आएँगी, कठिनाइयाँ
आएँगी, चुनौतियाँ
आएँगी। मगर घबड़ाओ मत—
यह
दिया हादसों
की ऑंधी
में
और
शिद्दत से
जगमगाता है
और नयी
रौनक आएगी।
धार आएगी
तुम्हारे
दीये पर। सब ऑंधियाँ
उपद्रव की
तुम्हें और निखारेंगी, तुम
और जगमगाओगे।
शमा
की लौ में उभर
आई हैं जुल्मत
की रगें
बदले
लेने पै हैं
आमादा पतंगों
की क़तार
कितने
अल्हड़ यह
सिपाही हैं, कि
डरते ही नहीं
मरते
जाते हैं मगर
हैं, कि
चले आते हैं
जम
के मैदाँ
से क़दम
उनके उखड़ते
ही नहीं
ज़िंदगी के
नए अंदाज़ बता
जाते हैं
आग
को आग समझते
नहीं, हटते
ही नहीं
अपनी
लाशों से बना
देते हैं, शोले
का मजार
ताकि
वो नस्लें
जो कल आएँगी महफूज़
रहें
पतंगों
से सीखो। सत्य
का खोजी पतंगा
है। रोशनी की
तलाश में चला
है। मौत घटेगी
रोशनी के मार्ग
पर।
शमा
की लौ में उभर
आई हैं जुल्मत
की रगें
बदले
लेने पै हैं आमादा
पतंगों की क़तार
देखा
है पतंगों को
मरते शमा पर? दीये
के पास ऐसा
कुछ नहीं हो
जाता कि एक
पतंगा मर गया,
तो दूसरा
पतंगा रुक
जाए। कतार चली
आती है।
बदले
लेने पै हैं
आमादा पतंगों
की क़तार
कितने
अल्हड़ यह
सिपाही हैं, कि
डरते ही नहीं
मरते
जाते हैं मगर
हैं, कि चले
आते हैं
जम
के मैदाँ
से क़दम
उनके उखड़ते
ही नहीं
आग
को आग समझते
नहीं, हटते
ही नहीं
ऐसी ही
साहस की
क्षमता चाहिए, ऐसे
ही जमना पड़ेगा,
ऐसे ही लड़ना
पड़ेगा।
संन्यास का
अर्थ है—रोशनी
की तलाश में पतंगे की
तरह अपने को
गँवाने की
हिम्मत। यह
सौदा महँगा
सौदा है। यह जुआरियों
का सौदा है।
तुम ऑंख
खोलने से डरते
हो? सभी
डरते हैं।
इससे आत्मनिंदा
मत लेना।
लेकिन डरके
रुकने की
जरूरत नहीं
है। चुनौती
बनाओ इसे। ऑंख
खोलो।
जैसा है उसे
वैसा ही देखो,
तो ही
तुम्हारे
जीवन में आनंद
की वर्षा हो
सकती है। सत्य
के अतिरिक्त न
कभी आनंद फला
है, न फल
सकता है।
तीसरा
प्रश्न : इस
सृष्टि में
अनेक प्राणी
प्रकृति के
अनुसार सहज
जीवन बिता रहे
हैं लेकिन
मानव जाति
निकृष्ट जीवन
बीता रही है।
मनुष्य जीवन
सहज जीवन की
ओर मुड़ेगा
या नहीं? हमारा
कर्तव्य क्या
है?
मनुष्य
का दुर्भाग्य
भी यही है और
सौभाग्य भी यही
कि वह सहज
नहीं है।
दुर्भाग्य
इसलिए कि
पौधों को, पक्षियों
को जो शांति
और शकून
उपलब्ध है, वह आदमी को
उपलब्ध नहीं।
सौभाग्य
इसलिए कि आदमी
चाहे तो बुद्ध
बने, कृष्ण
बने, क्राइस्ट
बने। पौधे और
पशु—पक्षी
कृष्ण, बुद्ध
और क्राइस्ट
नहीं बन सकते।
मनुष्य
का
महत्त्वपूर्ण
लक्षण उसकी
स्वतंत्रता
है। मनुष्य
हकदार है
चुनने का अपनी
जीवन—व्यवस्था
को। एक कुत्ता
कुत्ते की तरह
पैदा होता है
और कुत्ते की
तरह ही मरता
है। एक गुलाब का
पौधा गुलाब की
तरह पैदा होता
है और गुलाब की
तरह ही मरता
है। कोई
क्रांति नहीं
घटती जीवन
में। जीवन
वैसे का ही
वैसा, ढाँचे
में बँधा होता
है। एक
परतंत्रता
है। शांति तो
जरूर है, लेकिन
गुलामी की
शांति है।
स्वाभाविकता
भी जरूर है; कपट नहीं, पाखंड नहीं,
गुलाब बस
गुलाब है, चंपा
होने का कभी
धोखा नहीं
देता और न कमल
होने का आयोजन
करता ह, जो
है, जैसा
है, राजी
है। पर यह स्वतंत्रता
नहीं है।
गुलाब गुलाब
होने को बँधा
है।
आदमी
की खूबी क्या
है?
आदमी का
लक्षण क्या है?
इस सारी
प्रकृति में
आदमी अकेला ही
है जिसके यह
क्षमता के
भीतर है कि जो
चाहे हो जाए।
चाहे तो गुलाब
जैसा सुंदर, और चाहे तो
बबूल का झाड़
हो जाए। चाहे
तो काँटे—ही—काँटे
उगा ले और
चाहे तो फूल—ही—फूल
हो जाए। चाहे
तो घास ही रह
जाए और चाहे
तो कमल हो
जाए। यह आदमी
की खूबी है।
आदमी
स्वतंत्र है,
तरल है, मुक्त
है। आदमी के
पास आत्मा है,
आदमी चुनाव
कर सकता है।
अधिक लोग गलत
चुनाव करते
हैं, इससे चुनावे
करने की
क्षमता की
निंदा नहीं
होती। कुछ
थोड़े—से लोग
ही ठीक को
चुनते हैं।
क्योंकि ठीक
को चुनना कुछ
कठिन मालूम
होता है।
नीचे
उतरना सदा
आसान है। जैसे
पहाड़ से कोई
उतरता हो।
इसलिए आदमी
नीचे की तरफ
उतरने में
आसानी पाता
है। वृत्तियाँ
नीचे की तरफ
उतरना है, विवेक
ऊपर की तरफ चढ़ना
है। बेहोशी नीचे
की तरफ उतरना
है, होश
ऊपर की तरफ चढ़ना
है। पहाड़ पर चढ़ने में
अड़चन तो होती
है, पसीना
तो आता है, हाथ—पैर
थक जाते हैं, शरीर टूटता
है, मगर जो
शिखर पर
पहुँचते हैं
वे ही शिखर पर
होने का आनंद
जानते हैं।
नीचे उतरना
सुगम है, लेकिन
पहुँचोगे
ऑंधियों
की घाटी में।
ऊपर चढ़ना
कठिन है, लेकिन
सूरज से
मुलाकात होगी,
बादलों से
आलिंगन होगा,
मुक्त और
निर्मल आकाश
उपलब्ध होगा।
महँगा तो है, लेकिन
परिणाम
अद्भुत है।
आदमी
जैसा होना
चाहिए वैसा
पैदा नहीं हुआ
है। आदमी को
स्वतंत्रता
है वैसा होने
की। या चाहे, न
होना हो तो न
होने की।
इसलिए एक क्षण
में भी कभी—कभी
क्रांति हो
जाती है। नीचे
जाता हुआ आदमी
कभी एक क्षण
में पुकार सुन
लेता है ऊपर
जाते किसी
आदमी की, या
पहाड़ की चोटी
से, शिखर
से आते हुए
किसी बुद्ध—पुरुष
की वाणी उसके
कान में पड़
जाती है,एक
क्षण में
क्रांति हो
जाती है।
क्योंकि मामला
इतना ही है।
कुछ ऐसा नहीं
है कि नीचे
जाने के लिए
हम बँधे हैं, हमने चुना
है इसलिए नीचे
जा रहे हैं।
जिस क्षण तय
कर लेंगे कि
अब नीचे नहीं
जाना है, कोई
दुनिया की
ताकत हमें
नीचे नहीं ले
जा सकती।
तुमने
पूछा कि इस
सृष्टि में
अनेक प्राणी
हैं जो
प्रकृति के
अनुसार सहज
जीवन बिता रहे
हैं,
लेकिन मानव—जाति
निकृष्ट जीवन
बिता रही है।
क्योंकि मनुष्य—जाति
स्वतंत्र है।
और वे प्राणी
स्वतंत्र नहीं
हैं। सुकरात
का प्रसिद्ध
वचन है कि मैं
संतुष्ट सुअर
होने के बजाय
असंतुष्ट
सुकरात होना
पसंद करुँगा।
ठीक है, संतुष्ट
सुअर आखिर
सुअर है।
असंतुष्ट
सुकरात आखिर
सुकरात है।
सिर्फ संतोष
में ही तो सब
कुछ नहीं है।
संतोष सचेत
होना चाहिए, तब कुछ है।
शांति
अनिवार्य हो, उसका
कोई मूल्य
नहीं है। जब
शांति
अनिवार्य नहीं
है, स्वेच्छा
से है, चुनी
हुई है, तब
उसका मूल्य
है। तुम्हें
गीत मजबूरी
में गाना पड़े—कोयल
ऐसे ही तो
गाती है, मजबूरी
में; इसलिए
कोयल कभी बैजू
बावरा हो
पाएगी, यह
मत सोचना। कभी
नहीं हो
पाएगी।
मजबूरी है, यंत्रवत् है, गाना
ही पड़ता है।
फिर कोयल वही
गीत गाती रही
है, करोड़ों—करोड़ों
वर्षों से, कहीं कोई
विकास नहीं
होता, आदमी
अकेला
विकासमान है।
देखते हो, करोड़ वर्ष
पहले भी कोयल
यही गीत गाती
थी, यही
धुन,यही
सुर, यही
रंग, यही
राग अब भी वही
गाती है, आगे
भी वही गाएगी,
यह
पुनरुक्ति
है। आदमी अपने
गीत को बदलता
है, अपने
तरन्नुम को
बदलता है।
आदमी
ऊँचाइयों की तलाश
करता है।
हालाँकि यह सच
भी है कि
ऊँचाइयों की
तलाश की
स्वतंत्रता
के कारण
आदमियों को
नीचे गिर जाने
की भी सुविधा
है। तो कोई
आदमी बुद्ध हो
जाता है, कोई
आदमी एडोल्फ
हिटलर हो जाता
है। मगर मैं
तुमसे कहूँगा,
एडोल्फ
हिटलर जिस
क्षण चाहे उस
क्षण बुद्ध हो
सकता है। कोई
रुकावट नहीं
है। अपना ही
निर्णय है।
निजी निर्णय
है। इस निजी
निर्णय को
जगाओ।
सहज तो
होना है, लेकिन
सहज होना है
सचेत होकर, अनिवार्यरूपेण नहीं।
स्वतंत्रता
का फल होना
चाहिए सहजता।
बुद्ध भी सहज
हैं लेकिन यह
सहजता और है।
यह सहजता वही
नहीं जो गुलाब
के फूल की है।
यह मजबूरी नहीं
है, यह
बंधन नहीं है।
गुलाब का फूल
तो बँधा है, जंजीरों में बँधा
है। ज़रा
गौर से देखना,
कितना ही
सुंदर हो
लेकिन हाथ पर
जंजीरें हैं। कुछ
और नहीं हो
सकता। सब तरफ
से सीमित है।
बुद्ध अपने
निर्णय से
खिले हैं। जो
भी फूल पैदा हुआ
है बुद्ध में,
वह खुद का
ही निर्णय, खुद का ही
श्रम, खुद
की ही साधना
का परिणाम है।
अपूर्व आनंद
है वहाँ!
पूछा
तुमने, मनुष्य
सहज जीवन की
ओर मुड़ेगा
या नहीं? तुम
मनुष्य की
फिकर छोड़ो।
तुम अपनी फिकर
लो। मनुष्य का
तो कौन निर्णय
करे? स्वतंत्रता
तो अनिर्णीत
ही रहेगी, निर्णय
नहीं हो सकता।
हाँ, तुम
चाहो तो अपने
लिए निर्णय ले
सकते हो। मैं अपने
लिए निर्णय
लिया हूँ, तुम
अपने लिए
निर्णय ले
सकते हो।
प्रत्येक व्यक्ति
को निजी
निर्णय करना
है और निज़
घोषणा करनी
है। तुम
मनुष्य की फिकिर
छोड़ो; मनुष्य
यानी कौन? तुम्हें
मनुष्य कहीं
मिलेगा? मनुष्य
कहीं नहीं
मिलेगा। कहीं
अ मिलेगा, कहीं
ब मिलेगा, कहीं
स मिलेगा, मनुष्य
कहीं नहीं
मिलेगा। कहीं
राम मिलेंगे,
कहीं रहीम
मिलेंगे, मनुष्य
कहीं नहीं
मिलेगा।
मनुष्य होते
ही नहीं।
मनुष्य तो
केवल एक
शब्दिक
सिद्धांत है।
तो तुम जब
पूछते हो कभी
मनुष्य
स्वतंत्र
होगा कि नहीं,
तो तुम गलत
बात पूछते हो।
तुम तो इस तरह
की बात पूछ
रहे हो कि कभी
ऐसी मजबूरी आ
जाएगी मनुष्य
पर कि वह असहज
न हो सके। वह
तो मनुष्य की
हत्या होगी।
वह तो मनुष्य
की सारी गरिमा
खो जाएगी।
नहीं, मनुष्य
को हक सदा
रहेगा कि वह
चाहे तो तैमूरलंग
हो, चाहे
तो दादू हो
जाए, चाहे
तो प्रेम के
आकाश में उठे
और चाहे तो
घृणा के पाताल
में खो जाए।
मनुष्य
एक सीढ़ी है।
और सीढ़ी हमेशा
दो दिशाओं में
होती है—नीचे
की तरफ भी
होती है, ऊपर
की तरफ भी
होती है। वही
सीढ़ी जिससे
तुम नीचे जाते
हो, उसी से
तुम ऊपर जाते
हो। अब तुम
अगर यह कहो कि
क्या कभी ऐसी
भी सीढ़ी होगी
जो सिर्फ ऊपर
ही जाए, तो
तुम गलत बात
पूछ रहे हो।
जो सीढ़ी सिर्फ
ऊपर ही जाती
है, वही
सीढ़ी नहीं है!
सीढ़ी को दोनों
तरफ जाना होता
है—ऊपर भी, नीचे
भी। हाँ
तुम्हारी
मर्जी है, तुम
चाहो ऊपर चढ़ो,
तुम चाहो
नीचे जाओ।
इसलिए धर्म
व्यक्ति का मूल्य
मानता है, समाज
का कोई मूल्य
नहीं मानता।
धर्म वैयक्तिक
है, सामाजिक
नहीं।
और यह
आकस्मिक नहीं
है कि जो लोग
समाज का बहुत मूल्य
मानते हैं, वे
सभी धर्म के
विपरीत हैं।
कम्युनिस्ट, फासिस्ट, सोशलिस्ट और
उस तरह के
मार्के के
सारे लोग धर्म
के विपरीत
हैं। होंगे ही,
क्योंकि
बुनियादी भेद
है। वे मनुष्य
को समाज की
तरह स्वीकार
करते हैं, वे
व्यक्ति की
कोई गरिमा
नहीं मानते।
और इसलिए वे
सभी
स्वतंत्रता
के विपरीत हैं,
विरोधी
हैं। अगर रूस
में
स्वतंत्रता
मर गयी है और
चीन में मर
गयी है, तो
यह कोई
दुर्घटना
नहीं है, यह
साम्यवाद का
सहज परिणाम
है। साम्यवाद
व्यक्ति को
मानता ही
नहीं।
साम्यवाद
कहता है —समाज
की नियति होती
है, व्यक्ति
की कोई नियति
नहीं होती।
व्यक्ति होता
ही नहीं।
व्यक्ति तो
केवल समाज का
एक अंग है।
अंग मात्र।
धर्म
की देशना और
है। धर्म का
मानना है—व्यक्ति
आधार है। समाज
तो
व्यक्तियों
के जोड़ का नाम
है। समाज के
पास कोई आत्मा
नहीं है। समाज
तो निर्जीव
शब्द है, कोरा
शब्द है। ऐसा
ही जैसे जब
तुम कहते हो—जंगल।
जंगल कहीं
देखा? जाओ,
खोजो, जंगल
कभी नहीं
मिलेगा, मिलेंगे
वृक्ष। वृक्ष
होते हैं, जंगल
नहीं होता, बहुत वृक्ष
साथ होते हैं
तो उसका नाम—जंगल।
यहाँ तुम बैठे
हो इतने लोग —पाँच
सौ मित्र यहाँ
बैठे हैं—एक समूह
यहाँ बैठा है।
तुम सोचते हो
सच में कोई समूह
यहाँ बैठा है?
यहाँ पाँच
सौ व्यक्ति
बैठे हैं, समूह
इत्यादि का
कोई अर्थ नहीं
होता। तुम तुम
हो, तुम्हारा
पड़ोसी, पड़ोसी
है। यहाँ पाँच
सौ जीवंत चेतनाएँ
बैठी हैं, यहाँ
पाँच सौ दीये
जल रहे हैं—अलग—अलग,
अपनी—अपनी
रोशनी से, अपने—अपने
ढंग से। और
मनुष्य का यह
अनिवार्य
लक्षण है कि
वह जो चाहे हो
सकता है—निम्न
से निम्नतम और
श्रेष्ठ से
श्रेष्ठतम।
यह बात
सच है कि
मनुष्य अगर
गिरे तो पशुओं
से बहुत नीचे
गिर जाता है
और मनुष्य अगर
उठे तो देवताओं
से बहुत ऊपर
उठ जाता है।
देवता भी बँधे
हैं,
जैसे पशु
बँधे हैं।
इसलिए भारत के
मनीषियों ने
एक अपूर्व बात
कही है कि अगर
देवताओं को भी
मोक्ष चाहिए
हो तो पहले
मनुष्य होना
पड़ेगा। मनुष्य
दोराहा है।
पशुओं को
मुक्त होना हो
तो मनुष्य
होना पड़ेगा और
देवताओं को
मुक्त होना हो
तो मनुष्य
होना पड़ेगा।
क्यों? क्योंकि
देवता तो बड़े
ऊपर गए हुए
हैं? ऊपर
तो गए हुए हैं,
लेकिन
देवता शुभ
करने को मजबूर
हैं। वहाँ स्वतंत्रता
नहीं है। वहाँ
सुख अनिवार्य
है। वहाँ
रोशनी
जबर्दस्ती है,
उनका चुनाव
नहीं है।
उन्हें
चौराहे पर
लौटना पड़ेगा,
जहाँ से सब
रास्ते खुलते
हैं।
आदमी
चौराहा है, जहाँ
से सब रास्ते
खुलते हैं।
इसलिए आदमी
अगर नीचे गिरे
तो कोई पशु
उसका मुकाबला
नहीं कर सकता।
जंगली से
जंगली जानवर
भी आदमी का
मुकाबला नहीं
कर सकते। कोई
जंगली जानवर
जब भर—पेट हो
तो किसी को
मारता नहीं।
भूखा हो तो
मारता है!
आदमी बड़ा अजीब
है। जब भरे—पेट
होता है तब
शिकार को
निकलता है।
कोई पशु अपनी
ही जाति के
प्राणियों को
नहीं मारता—कोई
सिंह सिंह
को नहीं मारता,
कोई कुत्ता
किसी कुत्ते
को नहीं मारता
है—अकेला आदमी
है जो आदमी को
मारता है। और
खूब मारता है।
और बड़े आयोजन
से मारता है।
और बड़े झंडे
इत्यादि
उठाकर और बड़े
दर्शनशास्त्र
खड़े करके
मारता है। और
इस ढंग से
मारता है कि
लगे कि कोई
बड़ा काम कर
रहा है। हो
रहा है कुल
मारा जाना, लेकिन ऊँचे ऊँचे नाम—
कभी धर्म की आड़, कभी
राजनीति की आड़, कभी
देश की आड़,
कभी
स्वतंत्रता
की आड़; कभी
लोकतंत्र, कभी
समाजवाद, न—मालूम
कैसे—कैसे
शब्द, ऊँचे—ऊँचे
शब्द, और
आकर पीछे गौर
से अगर देखो
तो आदमी आदमी
को मारने में
लगा हुआ है।
शांति की
बातें करता है,
युद्ध की
तैयारी करता
है। कहता है—
शांति होगी
कैसे अगर
युद्ध के
अस्त्र—शस्त्र
पास में नहीं
होंगे।
आदमी
का पूरा
इतिहास
युद्धों का
इतिहास है। पशु—पक्षी
तो कभी मार
लेते हैं जब
उन्हें भूख
लगी होती है।
आदमी का मारना
जघन्य है, अपराधपूर्ण
है, पाप
है। आदमी
पशुओं से नीचे
गिरता है, लेकिन
देवताओं से
ऊपर भी उठ
जाता है। ये
कथाएँ व्यर्थ
ही नहीं हैं
कि जब बुद्ध
को ज्ञान उत्पन्न
हुआ तो देवता
स्वर्ग से
उतरे और
उन्होंने फूल
बरसाए। ऐसा
वस्तुतः हुआ
कि नहीं, यह
सवाल नहीं है,
ये कोई
ऐतिहासिक
घटनाएँ नहीं
है, ये तो
प्रतीक कथाएँ
हैं। ये यह कह
रही हैं कि जब
कोई आदमी
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता
है, तो
देवता छोटे पड़
जाते हैं। बस
उनका काम फूल
बरसाने का रह
जाता है।
बुद्ध ज्ञान
को उपलब्ध हुए
तो देवता उनके
चरणों में आकर
झुके। उनके
चरणों की धूल
सिर पर चढ़ायी।
बुद्धत्व
देवत्व से ऊपर
है। आदमी की
सहजता जबर्दस्ती
आनेवाली बात
नहीं है। आदमी
सदा मुक्त
रहेगा। इसलिए
यह तो मत पूछो
कि मनुष्य कभी
सहज जीवन की
ओर मुड़ेगा
कि नहीं? एक—एक
व्यक्ति अपना—अपना
निर्णय ले
सकता है।
और फिर
तुमने पूछा है—हमारा
कर्तव्य क्या
है?
कर्तव्य ही
तो असहज कर
देता है।
कर्तव्य का मतलब
ही यह होता है.....
कोई पशु ने
कभी पूछा है
हमारा
कर्तव्य क्या
है? पशुओं
को जो होता है
हो रहा है, कर्तव्य
का कोई सवाल
नहीं। आदमी
पूछता है हमारा
कर्तव्य क्या है?
उसी
कर्तव्य में
स्वतंत्रता
छिपी है। हम
क्या करें? क्योंकि
आदमी दोनों
काम कर सकता
है—बुरा भी और
अच्छा भी।
मेरा जोर इस
पर नहीं है कि
तुम अच्छा काम
करो, क्योंकि
यह होता है, अक्सर हुआ
है कि अच्छा
काम करने में
भी तुम मूर्छित
रहे आते हो।
तो तुम्हारा
अच्छा काम भी यंत्रवत्
हो जाता है।
मेरा जोर
कर्तव्य पर
नहीं है, मेरा
जोर बोध पर
है। तुम जो भी
करो, बोधपूर्वक
करो। वही
एकमात्र
कर्तव्य है।
बुरा भी करो
तो बोधपूर्वक
करो। और तुम
चकित हो जाओगे
कि बुरा हो ही
नहीं सकेगा।
चोरी करने जाओ,
बोधपूर्वक
जाओ; ऐसे
जाओ जैसे
विपस्सना
ध्यान कर रहे
हो; और तुम
चोरी नहीं कर
पाओगे। तो मैं
तुमसे यह नहीं
कहता कि चोरी
मत करो—क्योंकि
एक तरफ से
चोरी रोको, आदमी दूसरी
तरफ से करता
है। इधर से
रोको, उधर
से करता है; आदमी नयी
तरकीबें
निकाल लेता
है। आदमी
तरकीबें
निकालने में
कुशल है, कोई—न—कोई
रास्ता निकाल
लेता है, कि
चोरी हो सकती
हो और चोरी पकड़ी
न जाए और चोरी चोरी न
मालूम पड़े।
एक तरफ
से चोरी रोको, दूसरी
तरफ से शुरू
हो जाती है।
आदमी को कहो
यह काम बुरा
है, तो वह वह काम बंद
कर देता है, मगर उसके
भीतर की चेतना
तो नहीं बदली,
वही—का—वही
आदमी है, कहीं
और करेगा।
देखा तुमने, महावीर ने
कहा कि खेती—बाड़ी
में हिंसा है।
तो जैनियों ने
खेती—बाड़ी बंद
कर दी। लेकिन
इससे क्या तुम
सोचते हो जैन
हिंसक नहीं
रहे? खेती—बाड़ी
की हिंसा नहीं
रही, मगर
उनकी हिंसा
दुकान पर शुरू
हो गयी। बाजार
में बैठ गए, वही हिंसा
और शायद
ज्यादा बढ़
गयी। क्योंकि
अब एक उनको आड़
भी मिल गयी
धर्म की।
तुम्हें
पता है कि जैन—धर्म
के माननेवाले
सभी व्यवसायी
क्यों हैं? वह
इसीलिए कि
कृषि का तो
उपाय नहीं
रहा। अगर तुम
खेत बनाओगे, पौधे काटोगे,
तो हिंसा
होगी। मगर
काटने की
वृत्ति तो थी,
तो दुकान पर
बैठकर
आदमियों को
काटने लगे।
बचाव इतना
आसान नहीं है।
इधर से रोको, उधर शुरू हो
जाता है। एक
तरफ से बीमारी
को रोको, दूसरी
तरफ से प्रगट
हो जाती है।
दबाने से काम नहीं
चलेगा। तुम
मुझसे
कर्तव्य मत
पूछो। मैं तुमसे
यह नहीं कहता
कि तुम ऐसा
करो, वैसा
करो, क्योंकि
मजबूरी हो
जाएगी, जबर्दस्ती
थोप लोगे। मैं
तुमसे कहता
हूँ— जो भी करो
होशपूर्वक
करो।
ऐसा
हुआ कि एक
बौद्ध भिक्षु
रास्ते से
गुजरता था और
एक वेश्या ने
उसके जाकर
चरणों में सिर
रख दिया और कहा—मेरा
निवेदन है कि
इस वर्ष
चातुर्मास, वर्षाकाल
मेरे घर में बिताएँ।
और भी भिक्षु
साथ थे। यह
भिक्षु अति
सुंदर था, वेश्या
मोहित हो गयी
थी। उसने
सम्राट देखे
थे, मगर
ऐसा प्यारा
भिक्षु नहीं
देखा था। ऐसा
आदमी ही नहीं
देखा था। यह
शान ही कुछ और
थी! अक्सर ऐसा
हो जाता है।
संन्यास एक
तरह की गरिमा
देता है, एक
तरह का
सौंदर्य देता
है, एक तरह
की दीप्ति जो
साधारणतः
नहीं पायी
जाती, एक
प्रसाद।
वेश्या पहचान
गयी सौंदर्य
को —सौंदर्य
की उसकी परख
थी। सौंदर्य
ही उसका व्यवसाय
था। इस
सुंदरतम आदमी
को देखकर वह
नहीं रोक सकी
अपने को। उसने
चरणों में सिर
रख दिया और उसने
कहा कि मैं हटूँगी
नहीं। मुझे
आश्वासन दो इस
वर्ष चार माह
वर्षा के तुम मेरे
यहाँ बिताओगे।
वर्षा सर पर
थी, आसाढ़ के पहले
बादल घिरने
शुरू हो गए थे—और
भिक्षुओं का
नियम है कि वे
चार महीने
वर्षा के कहीं
एक जगह रुक
जाएँ। उसने
कहा—मैं कल
भगवान को
पूछकर उत्तर
दे दूँगा।
दूसरे
भिक्षु जो खड़े
देख रहे थे,
ईष्या से जल
गए। वेश्या
अपूर्व सुंदरी
थी। दूर—दूर
तक
ख्यातिलब्ध
थी। बड़े
सम्राट उसके
द्वार पर खड़े
रहते थे,
ईष्या जग गयी।
वासना भी जगी, ईष्या भी
जगी, और
उनके पैर नहीं
छुए, और
उनको
निमंत्रण
नहीं दिया, इस आदमी के
प्रति जलन भी
उठी—यह सब
इकट्ठा हो गया
और साथ में
धर्म की आड़
भी मिली। वह
सामने जाकर बुद्ध
को कहा कि
वेश्या ने
निवेदन किया
और इस भिक्षु
ने इंकार नहीं
किया। यह
कर्तव्य से च्युत
हो गया। इसे
साफ कहना
चाहिए था कि
मैं वेश्या के
घर में नहीं
ठहर सकता।
क्योंकि आपने
तो स्त्री तक
को छूने को
मना किया है
और इसने वेश्या
को भी पैर
छूने दिए। इसे
निष्कासित
किया जाए। इसे
संघ से बाहर
किया जाए।
बुद्ध हँसे, और
बुद्ध ने कहा—इसने
कहा क्या? तो
उन्होंने कहा
इसने इतना ही
कहा कि मैं
भगवान से
पूछकर कल
उत्तर दूँगा।
बुद्ध ने उस
भिक्षु को खड़ा
किया, उस
भिक्षु को
देखा एक क्षण
और कहा कि
तुझे आज्ञा है
तू चार महीने
वेश्या के घर
रुक सकता है।
उस भिक्षु ने
सिर झुकाया और
कहा—मेरे लिए
कोई कर्तव्य
निर्देश? बुद्ध
ने कहा—बस होश
रखना।
और चार
महीने अपूर्व
होश के थे!
चार
महीने बाद जब
भिक्षु वापिस
लौटा तो उसके
साथ वेश्या भी
वापिस आयी।
भिक्षु तो
अद्भुत रूप से
रूपांतरित हो
गया था, क्योंकि
उसे बहुत होश
रखना पड़ा, चौबीस
घंटे होश रखना
पड़ा, इससे
ज्यादा और होश
की कोई जगह ही
नहीं हो सकती
थी। प्रतिपल
उत्तेजना थी,
प्रतिपल
आकर्षण था।
चार महीने उसे
जागकर ही
रहना पड़ा था। ज़रा झपकी
खाता, ज़रा सपने में पड़
जाता तो सदा
के लिए चूक
जाता। उसका
बढ़ता हुआ होश,
उसकी बढ़ती
हुई दीप्ति, उस वेश्या
को भी
रूपांतरित कर
गयी। उस
वेश्या ने
बुद्ध के
चरणों में
अपना सारा धन
रख दिया और
कहा कि मुझे
दीक्षा दें।
मैं तो सोचती
थी कि आपके
भिक्षु को बदल
लूँगी, लेकिन आपके
भिक्षु ने
मुझे बदल
लिया। मैं तो
सोचती थी कि
आपका भिक्षु
आज नहीं कल गिरेगा
मेरे चरणों
में, लेकिन
मुझे उसके
चरणों में गिर
जाना पड़ा। इतना
होश से भरा
हुआ आदमी
मैंने नहीं
देखा है। जो श्वास
भी लेता था तो
होश से ले रहा
था। जिसकी हर
क्रिया
होशपूर्ण थी।
मैं भी
तुमसे यही
कहता हूँ—अगर
तुम्हें सहज
जीवन की ओर
जाना है, होश
से जिओ।
और अगर तुम
चाहते हो और
लोग भी सहज
जीवन की तरफ
जाएँ, तो
तुम होश से जिओ,
ताकि
तुम्हारे होश
की गंध उनको
भी लगे, तुम्हारे
होश की झलक उन
पर भी पड़े।
जागरूक होकर जिओ।
कर्तव्य को
विस्तार में
मत पूछो, मैं
तुमसे नहीं
कहूँगा कि
पानी छानकर
पीओ—क्योंकि
पानी छानकर
पीनेवाले
लोग खून बिना छाने पी गए
हैं—मैं तुमसे
नहीं कहूँगा
छोटी—छोटी
बातें कि इनका
तुम विस्तार सँभालो, क्योंकि वे
छोटी—छोटी
बातें तो बहुत
हैं, उनका
कितना
विस्तार सँभालोगे,
और हर
विस्तार में
कुछ बातें छूट
जाएँगी। शास्त्रों
में सब
कर्तव्य
गिनाए गए हैं,
लेकिन
कितने गिनाओगे,
ऐसी
परिस्थिति आ
जाती है कि
शास्त्र में
कोई कर्तव्य
नहीं गिनाया
हुआ है।
जीसस
ने अपने एक
शिष्य से कहा
कि अगर कोई
तुझे मारे तो
उसे क्षमा कर
देना। उसने
पूछा—कितनी
बार?
अब क्या
उत्तर दोगे? एक बार मारे.....
शिष्य भी ठीक
पूछ रहा है कि
कोई सीमा होगी,
हर चीज की
हद्द होती है.....
एक बार मारे, कर देंगे
क्षमा; कितनी
बार मारे तब
तक क्षमा करनी
है? जीसस
ने कहा—सात
बार। उसने कहा—ठीक!
लेकिन उसने
जिस ढंग से
ठीक कहा उसका
मतलब था कि
आठवीं बार देख
लेंगे! उसके
ठीक कहने में ऐसा
ढंग था, कि
ठीक है तो फिर
देख लेंगे
आठवीं बार! और
सौ सुनार की
एक लोहार की, एक बार में
ही ऐसा मजा
चखा देंगे कि
छठी का दूध याद
आ जाए; कि
सात बार में
जो किया वह एक
ही बार में
निबटा दूँगा!
उसकी ऑंख
में ढंग यह
था। जीसस ने
कहा—नहीं भाई,
सतहत्तर
बार। मगर तुम
कितना करोगे,
अठहत्तर
बार! आदमी को
अगर विस्तार
में बताने चलो
तो अड़चन है।
मैंने
सुना है, एक
ईसाई फकीर को
एक आदमी ने
चाँटा मारा।
नास्तिक था
चाँटा मारनेवाला,
और साथ में
बाइबिल लेकर
आया था, और
किताब खोलकर
बतायी कि देखो
लिखा है इसमें
कि जो
तुम्हारे एक
गाल पर चाँटा
मारे, दूसरा
उसके सामने कर
देना। उस फकीर
ने कहा—मुझे
पता है, किताब
लाने की कोई
जरूरत नहीं थी,
यह रहा मेरा
दूसरा गाल! उस
आदमी ने उस
दूसरे गाल पर
और करारा
चाँटा मारा।
बस फकीर फिर
उस पर टूट पड़ा,
उसकी ऐसी
मरम्मत की, वह बहुत
चिल्लाया—भई,
यह क्या कर
रहे हो, जीसस
की तो याद करो!
उन्होंने कहा—इसके
आगे जीसस ने
कुछ भी नहीं
कहा है। एक
गाल पर चाँटा
मारो, दूसरा
कर देना; अब
तीसरा तो कोई
गाल है नहीं, इसके आगे हम
स्वतंत्र
हैं।
विस्तार
की बातें काम
नहीं आतीं।
क्योंकि एक
सीमा आ जाती
है विस्तार की, उसके
आगे तुम
स्वतंत्र
होते हो। यही
तुम देखते न
रोज, सरकार
कितने कानून
बनाती है!
जितने कानून
बनाती है, उतनी
ही बेईमानी
बढ़ती है।
क्योंकि
कानून का मतलब
होता है, विस्तार
में तुम्हें
रोकती है कि
यह भी मत करना,
यह भी मत
करना, वह
भी मत करना—मगर
कितना करोगे?
सब बताने के
बाद कुछ तो
बाकी रह जाता
है, जिंदगी
बहुत बड़ी है!
आदमी वह करके
दिखा देता है
कि लो, यह
हम करके दिखाए
देते हैं! जब
वह आदमी करके
दिखा देता है,
तब सरकार को
फिर कानून
बनाना पड़ता है
कि यह मत करना।
तुमने देखा, सरकारी ढंग
की दस्तावेज
इस तरह की
होती है, पढ़ने
में ही नहीं
आती! उसमें
इतनी तरकीबें
होती हैं, सब
तरह की
तरकीबें, रोकने
के लिए
तरकीबें होती
हैं—ऐसा मत
करना, वैसा
मत करना, उसमें
कई नियम, उप—नियम,
धाराएँ,
उप—धाराएँ,
मगर फिर भी
जो आदमी को
करना है वह कर
लेता है। दुनिया
में कोई पाप
रुका नहीं है;
कानून बढ़ते
गए हैं, अपराध
बढ़ते गए हैं।
कानून के बढ़ने
से सिर्फ वकील
को लाभ होता
है, अपराध
नहीं रुकते
हैं। कानून जब
ज्यादा हो
जाता है, तो
अपराधी को भी
अपने
विशेषज्ञ
रखने पड़ते हैं
जो खोजबीन
करते रहें—वे
ही वकील हैं।
जो खोजबीन
करते हैं
अपराधी की तरफ
से कि तू इस
तरह से कर ले, कि यह रही
तरकीब, अभी
इस पर नियम
नहीं बना है, इसके पहले
निबटा ले।
नियम बढ़ते जाते
हैं, बेईमानी
बढ़ती चली जाती
है।
विस्तार
में मुझसे मत
पूछो कि हम
क्या करें? कर्तव्य
की पूछो ही मत?
मेरा सूत्र
सीधा—साफ है
एक —होश से जीओ।
उस होश से
जीने में सब आ
जाएगा। अगर
जीसस ने कहा
होता —जब
तुम्हें कोई
चाँटा मारे तब
होश से जीना, तो इस फकीर
को उपाय नहीं
था बचने का।
अगर जीसस ने
कहा होता कि
कोई तुम्हारा
अपमान करे तो
होशपूर्वक
क्षमा कर देना—सात
और सतहत्तर
बार का सवाल
नहीं है, आदमी
बहुत जटिल और
बहुत चालाक है,
सिर्फ इतना
ही कि
होशपूर्वक
क्षमा कर
देना।
होश से जीओ , एक
दिया जलाकर जीओ। ये
विस्तार की
बातों के कारण
ही धर्म विकृत
हुए हैं। इतने
विकृत हो गए
हैं, नियम—ही—नियम
रह गए हैं।
अगर उनको
पालते रहो, तो तुम्हारी
बुद्धिमत्ता
के विकसित
होने का समय
ही नहीं आएगा।
अगर नियमों को
ही पालते रहो
तो तुम करीब—करीब
एक कारागृह के
कैदी हो जाते
हो। तुम देखो
तुम्हारे
साधुओं को, कारागृह के
कैदी हो जाते
हैं! चले हैं
स्वतंत्रता
को लेने, चले
हैं मोक्ष की
खोज में, हो
गए हैं
कारागृह के
कैदी। एक—एक
छोटी बात का
हिसाब चल रहा
है, चौबीस
घंटे उसी में
लग जाते हैं।
एक जैन—मुनि
ने मुझसे कहा
कि आप कहते
हैं ध्यान करो; फुरसत
कहाँ है? नियम—व्यवस्था
से, मर्यादा
से चलने में
फुरसत कहाँ है?
यही
दुकानदार
कहता है कि
फुरसत कहाँ? यही मुनि
कहता है कि
फुरसत कहाँ? तो बड़े मजे
की बात हो
गयी।
दुकानदार
तो क्षमा किया
जा सकता है कि
कहता है—भई, फुरसत
कहाँ है, कब
ध्यान करें? लेकिन मुनि
भी कह रहा है
कि फुरसत
कहाँ। इतने
नियम! इतना
विस्तार है
नियमों का!
धर्म को नियम
से मुक्त करने
की जरूरत है।
बस एक ही सीधा सूत्र
होना चाहिए।
ऐ "शाद'! रहबरों
के रवैय्ये
को देखकर
आना
पड़ा है राहजनों
की पनाह में
ये जो
मार्गदर्शक
हैं,
ये नियम
देनेवाले लोग
हैं, इनसे
लोग इतने
पीड़ित हो गए
हैं कि अब तो
लुटेरों की
शरण में जाना
भी ठीक मालूम
पड़ता है।
क्या
कहूँ दिल पै
क्या गुजरती
है
तेरे
कूचे से जब
गुजरता हूँ
रहजनों का
तो कोई खौफ
नहीं
रहबरों से
मगर मैं डरता
हूँ
"शाद'
अपने लहू की
सुर्खी से
आर्जूओं
में रंग भरता
हूँ
"रहजनों का तो कोई
खौफ नहीं', लुटेरों
का तो कुछ खौफ
नहीं है।
तुमको लुटेरों
ने नहीं लूटा
है, "रहबरों से मगर मैं
डरता हूँ' मगर
वह जो
मार्गदर्शक
हैं, नेता
हैं, जो
तैयार बैठे
हैं तुम्हें
नियम देने को—ऐसा
करो, वैसा
करो, ऐसा न
करना, वैसा
न करना—उनसे
सावधान रहना!
उन्होंने ही
तुम्हारे कारागृह
निर्मित किए
हैं। मैं
तुम्हें
चरित्र नहीं देता,
मैं
तुम्हें केवल
बोध देता हूँ।
मैं तुम्हें आचरण
नहीं देता, मैं केवल
अंतःकरण की
जागृति देता
हूँ। जो भी करो,
वेश्या के
घर भी ठहरना
पड़े तो घबड़ाने
की कोई जरूरत
नहीं है, ठहर
जाना, होश
कायम रखना। यह
श्रेष्ठतम
धर्म है।
बुद्ध
का एक भिक्षु
यात्रा पर जा
रहा था। उसने
पूछा, मेरे
लिए कोई आदेश?
बहुत निम्न
वृत्ति का
भिक्षु रहा
होगा, क्योंकि
बुद्ध ने जो
आदेश दिया वह
बुद्ध—जैसा
नहीं है। अभी
तुमने कहानी
सुनी न, वेश्या
के घर जाते
भिक्षु को कहा—होश
रखना। यह
बुद्ध—जैसा
आदेश है। इस
युवक ने पूछा
कि मैं यात्रा
पर जा रहा हूँ,
मेरे लिए
कोई निर्देश?
मार्ग के
लिए कोई
सूचनाएँ—क्या
करूँ, क्या
न करूँ। बुद्ध
ने कहा—स्त्रियों
को छूना मत।
देखना मत। राह
पर स्त्री
दिखायी पड़ जाए,
ऑंख नीची कर
लेना। उस
भिक्षु ने
पूछा—लेकिन
कभी ऐसा भी हो
सकता है कि स्त्री
को देखना ही
पड़ जाए; मजबूरी
हो; तो उस
हालत में क्या
करना? तो
बुद्ध ने कहा—छूना
मत। उस भिक्षु
ने पूछा और यह
भी हो सकता है
कि किसी
मजबूरी में
छूना पड़ जाए।
समझ लो कि एक
स्त्री गिर
पड़ी—पैर फिसल
गया— और मैं
पीछे हूँ, क्या
उसको हाथ का
सहारा न दूँ? तो बुद्ध ने
कहा—अगर छूना
ही पड़े तो छू
लेना, मगर
होश रखना।
देखना मत, पहले
कहा। फिर अगर
मजबूरी आ जाए
तो कहा कि ठीक है,
देख लेना।
फिर कहा—छूना
मत। मजबूरी आ
जाए तो कहा छू
लेना। फिर आखिरी
सूत्र दिया कि
होश रखना। उस
आदमी ने कहा कि
और अगर ऐसी
मजबूरी आ जाए
कि होश न रख
सकूँ, तो
बुद्ध ने कहा
फिर जाने की
जरूरत ही
नहीं। ऐसी
मजबूरी आनी ही
नहीं चाहिए।
फिर तो तू
सिर्फ रास्ते
खोज रहा है।
फिर मजबूरियों
के बहाने खोज
रहा है। निम्नवृत्ति
का आदमी रहा
होगा।
अक्सर
ऐसा हो जाता
है कि
तुम्हारे
धर्म के नियम
निम्न—से—निम्न
वृत्ति को
ध्यान में
रखकर बनाने
पड़ते हैं। इसी
कारण बड़े छोटे
होते हैं, ओछे
होते हैं, संकीर्ण
होते हैं। और
इसी कारण
श्रेष्ठ व्यक्तियों
को कोई भी
धर्म अपने
भीतर नहीं समा
पाते। बुद्ध
पैदा हुए, हिंदू
उन्हें अपने
भीतर न समा
पाए। क्योंकि
वे जीएँगे
ऊपर से और
धर्म के नियम
बने हैं आखिरी
आदमी के लिए, निम्नतम के
लिए—इसमें बड़ा
फासला हो गया।
यहूदी जीसस को
न समा पाए।
मुसलमान
मंसूर को न
समा पाए। धर्म
की तथाकथित
व्यवस्था
अंतिम आदमी को
देखकर बनी है,
निकृष्टतम
आदमी को देखकर
बनी है। और
धर्म का अनुभव
श्रेष्ठतम के
लिए है। तो जब
भी श्रेष्ठतम
आदमी पैदा
होगा, तब
परंपरागत
धर्म उसके
विपरीत हो
जाएगा।
मैं
तुम्हें कोई
कर्तव्य नहीं
देता। इतना ही
कहता हूँ—जागो, जागकर जीओ।
जागरण न छूटे,
होश न खोए।
हाथ में होश
का धागा बना
रहे। फिर सब
सध जाएगा। इस
एक के साधने
से सब सध जाता
है। इस एक के
खो जाने से सब
खो जाता है।
आखिरी
प्रश्न : मैं
आदमी को प्रेम
करता हूँ।
लेकिन
परमात्मा से
मेरा कोई लगाव
है, इसका
मुझे पता
नहीं। क्या
मैं पाप के
रास्ते पर हूँ?
नहीं, तुम
ही पुण्य के
रास्ते पर हो।
परमात्मा का
पता नहीं, प्रेम
करोगे भी कैसे?
आदमी से
प्रेम करो। उस
प्रेम की
गहराई में उतरो।
उसी गहराई में
परमात्मा की
झलकें मिलनी
शुरू होंगी।
और कहाँ खोजोगे?
मंदिरों
में थोड़े ही
छिपा है।
मनुष्यों में
छिपा है, चेतनाओं
में छिपा है।
पत्थरों में
थोड़े ही खोदकर
उसे पाओगे? आदमी के
हृदय में।
बता
दो आबिदाने—बे—अमल
को
खुदा
उकता
चुका है बंदगी
से
खुदा
से क्या
मुहब्बत कर
सकेगा
जिसे
नफरत है उसके
आदमी से
और
तुम्हारे
तथाकथित
धर्मों ने
तुम्हें अब तक
आदमी से नफरत
सिखायी है।
इसी के कारण
पृथ्वी पर
धर्म की बातें
बहुत होती हैं, बहुत
धर्म भी हैं
और धर्म
बिल्कुल नहीं
है। यह बंदगी
हो चुकी
व्यर्थ। यह
बंदगी काम
नहीं आयी। और
परमात्मा भी
इस बंदगी से
बहुत थक चुका है।
तुम आदमी को
ही प्रेम करो।
मैं तुमसे
कहता हूँ—तुम
ठीक रास्ते पर
हो। हालाँकि
तुम्हारे धर्मगुरु
कहेंगे—तुम
गलत रास्ते पर
हो। आदमी को
प्रेम? परमात्मा
को प्रेम करो।
और परमात्मा
का तुम्हें
पता नहीं, कैसे
प्रेम करोगे?
लेकिन अगर
परमात्मा के
बनाए हुए से
तुम्हारा प्रेम
हो जाए, तो
कितनी देर
परमात्मा से
दूर रहोगे? अगर
तुम्हारे
प्राणों में
संगीत से
प्रेम हो जाए,
तो उसी
संगीत के
रास्ते पर
खोजते—खोजते
तुम संगीत के
स्रोत तक
पहुँच जाओगे,
संगीत को
जन्म
देनेवाले के
पास पहुँच जाओगे।
अगर फूल से
प्रेम हो, तो
कितनी देर तुम
रुके रहोगे, कभी—न—कभी वे
ऍ?गुलियाँ तुम्हें
कहीं—न—कहीं
मिल जाएँगी
जिन्होंने
फूलों में रंग
भरा है। सूरज
से प्रेम हो
तो इन्हीं
किरणों में तुम
कभी और छिपी
हुई किरणों को
भी खोज लोगे।
आदमी
इस जगत में
सर्वश्रेष्ठ
फूल है।
क्योंकि
स्वतंत्रता
का फूल है।
खूब करो आदमी को
प्रेम। और
परमात्मा की
बात ही मत
उठाओ। एक दिन
तुम अचानक
पाओगे कि आदमी
प्रेम में ही
परमात्मा खो
गया। आदमी खो
गया और मिल भी
गया। यह खोना
और मिलना
एकसाथ घट जाता
है। यह
विरोधाभास एक
साथ घटता है।
हमको
मारा तेरी इनायत
ने
सबको
तेरे अताब
ने मारा
डर
रहा था गुनाह
से लेकिन
आदमी
को सबाब
ने मारा
आदमी
को तथाकथित पुण्यों
ने मारा है, पाप
ने नहीं। तुम
पाप—पुण्य की
पुरानी
परिभाषा पर मत
अटके रहो। मैं
तुम्हें नयी
परिभाषा देता
हूँ, नयी
दृष्टि देता
हूँ। प्रेम
पुण्य है। अ—प्रेम
पाप है। तुम
प्रेम करो।
जिससे कर सको
उससे करो।
इतना ही खयाल
रखो कि प्रेम
कहीं रुके न, अटके न, धारा
बहती रहे; गंगा
कहीं ठहरे न, तो सागर तक
पहुँच जाएगी।
बस प्रेम का
बाँध मत बनाना
कहीं। पत्नी
से प्रेम करो,
खूब करो, पति से, बच्चों
से, माँ से,
पिता से, मित्रों से ,मगर यह मत
सोचना कि बस
प्रेम यहीं
समाप्त हो गया।
बाँध मत
बनाना। पत्नी
से प्रेम करो,
पति से
प्रेम करो, बेटे से
प्रेम करो, माँ से
प्रेम करो, मित्र से
प्रेम करो और
प्रेम को बहने
दो, हर
प्रेमपात्र
के भीतर से और
आगे जाने दो, और तुम
पाओगे सभी प्रेमपात्रों
में वही एक
प्रेमपात्र
छिपा है। सभी ऑंखों में
उसकी चमक है।
सभी चेहरों पर
उसी का रंग है।
सभी सौंदर्य
में वही प्रकट
हो रहा है, उसी
की
अभिव्यक्ति
है।
फूल—सा
रंगो—बू
नहीं लेकिन
फूल—से
बढ़ के नर्म तीनत
है
इसको
नफरत से पायमाल
न कर
घास
भी गुलिसिताँ
की जीनत
है
फूल ही
नहीं हैं
परमात्मा के, घास
भी उसकी है।
"फूल—सा
रंगो—बू
नहीं लेकिन,' माना कि घास
में फूल जैसा
रंग नहीं, सुगंध
नहीं; "फूल
से बढ़ के नर्म तीनत है,' लेकिन इसका
स्वभाव फूल से
भी ज्यादा
कोमल है। परमात्मा
घास में
कोमलता की तरह
प्रगट हुआ है,
बस ऑंख
चाहिए। "इसको
नफरत से पायमाल
न कर', इसे
नष्ट मत कर
देना यह समझकर
कि यह घास है, इसमें क्या
होगा; "घास
भी गुलसितां
की जीनत
है,' वह भी
बगिया की शोभा
है, रौनक
है। यहाँ
क्षुद्र—से—क्षुद्र
में विराट
छिपा है। यहाँ
क्षुद्र है ही
नहीं।
क्षुद्र
हमारी नासमझी
के कारण है। जैसे—जैसे
समझ गहरी होगी,
वैसे—वैसे
विराट प्रगट
होगा।
छलक
रही है मएनाब
तिश्नगी
के लिए
सँवर
रही है तेरी बज्म? बरहमी
के लिए
नहीं—नहीं
हमें अब तेरी
जुस्तजू भी
नहीं
तुझे
भी भूल गए हम
तेरी खुशी के
लिए
जहाने—नौ
का तसव्वुर हयाते—नौ
का ख़याल
बड़े
फरेब किए
तुमने बंदगी
के लिए
कहाँ
के इश्को—मुहब्बत, किधर
के हिज्रो
विसाल
अभी
तो लोग तरसते
हैं ज़िंदगी
के लिए
जो जुल्मतों
में हवीदा
हो कल्बे—इंसाँ से
जियानवाज वह
शोला है तीरगी
के लिए
न मंज़िलों
की तमन्ना, न रहगुजर की
तलाश
न
जाने किस पै
भरोसा है, रहबरी
के लिए
तेरे
जहान की हर दिलकशी
सलामत है
मेरी
निगाह भटकती
है आदमी के
लिए
आदमी
को खोजो और
प्रेम करो।
आदमी की खोज
में ही तुम
धीरे—धीरे
उसकी झलकें
पाने लगोगे।
दुनिया
अधार्मिक हो
गयी,
क्योंकि
हमें सिखाया
गया—दुनिया को
प्रेम मत करना,
आदमी को
प्रेम मत
करना। प्रेम
का द्वार बंद
हो गया।
परमात्मा तक
पहुँचने का
सेतु टूट गया।
मैं तुमसे
कहता हूँ—खूब
करो प्रेम। बस
प्रेम का बाँध
न आए। प्रेम बहता
जाए। हर पात्र
से ऊपर निकल
जाए, आगे
निकल जाए; हर
पात्र से छलक
जाए। यही
प्रार्थना है,
प्रेम का
सदा बहते रहना
प्रार्थना
है। और बहता
प्रेम
परमात्मा को
निश्चिंत पा
लेता है।
इसलिए घबड़ाओ
मत और यह मत
सोचो कि तुमने
कोई पाप किया
है। यह मत
सोचो कि तुमसे
कुछ भूल हो
रही है, कि
तुम धार्मिक
नहीं हो।
अक्सर ऐसा हो
जाता है कि
तथाकथित
धार्मिक धार्मिक
नहीं होते, सिर्फ
दिखायी पड़ते
हैं। और इससे
उल्टी बात भी
सच है। जो लोग
अधार्मिक
मालुम होते
हैं, अक्सर
अधार्मिक
नहीं होते।
मैंने
एक छोटी—सी
कहानी सुनी
है। योरोप का
एक बहुत बड़ा
ईसाई पुरोहित
प्रवचन देने
चर्च में गया
था। वह बोला
तो उसने कहा
कि जो लोग
पुण्य करते
हैं,
वे स्वर्ग
में प्रवेश
पाएँगे, और
जो पाप करते
हैं, वे
नरक में। और
फिर उसने यह
भी कहा—जो
परमात्मा को
याद करते हैं,
वे स्वर्ग
में प्रवेश
पाएँगे, जो
परमात्मा को
भूल जाते हैं,
वे नरक में।
एक आदमी उठकर
खड़ा हो गया।
उसने कहा—आपने
मुझे मुश्किल
में डाल दिया।
मेरे लिए एक सवाल
उठ गया। पुरोहित
ने सोचा भी
नहीं था यह
सवाल। जब उठा
तब उसे समझ
में आया। सवाल
जरूर जटिल है।
उस
आदमी ने पूछा
कि मैं यह
पूछना चाहता
हूँ,
आपने कहा जो
पुण्य करते
हैं वे स्वर्ग
में जाएँगे, और जो प्रभु
को स्मरण करते
हैं वे स्वर्ग
में जाएँगे।
और जो पाप
करते हैं और
जो प्रभु को
स्मरण नहीं
करते, वे
नरक जाएँगे।
मेरा सवाल यह
है कि जो
पुण्य करते
हैं और प्रभु
को स्मरण नहीं
करते हैं, वे
कहाँ जाएँगे?
और जो प्रभु
का स्मरण करते
हैं और पाप
करते हैं, वे
कहाँ जाएँगे?
वह पादरी भी
भौंचक्का रह
गया। उसे कुछ सूझा
नहीं। एकदम
सिर घूम गया।
क्योंकि अड़चन
खड़ी हो गयी।
अगर वह यह कहे
कि जो लोग
पुण्य करते
हैं और प्रभु
को स्मरण नहीं
करते, वे
भी स्वर्ग
जाएँगे, तो
सीधा सवाल है—फिर
प्रभु को
स्मरण करने की
जरूरत क्या है?
और जो लोग
प्रभु का
स्मरण करते
हैं और पाप
करते हैं और
उन्हें नरक
जाना पड़ता है,
तो फिर सवाल
यह है कि
प्रभु के
स्मरण से
फायदा क्या
हुआ? नरक
तो गए ही! तो
पाप और पुण्य
काफी हैं! फिर
प्रभु को बीच
में लेने की
जरूरत क्या है?
यही तो कारण
था कि जैन और
बौद्ध, दो
धर्मों ने
प्रभु को बीच
में नहीं लिया,
परमात्मा
को बीच में
नहीं लिया, उन्होंने
पाप और पुण्य
के सिद्धांत
से काम चला
लिया। जो बुरा
करता है, वह
दु:ख पाएगा; जो भला करता
है, वह सुख
पाएगा; बात
खतम हो गयी; बीच में
परमात्मा को
लेने की जरूरत
नहीं मानी? क्योंकि
परमात्मा को
लेने से
जटिलता बढ़ेगी।
यही सवाल
उठेगा।
उस
पुरोहित ने
कहा—मुझे
क्षमा करें, मैंने
इस तरह कभी
सोचा नहीं।
मुझे सात दिन
का मौका दें, अगले रविवार
मैं इसका
उत्तर दूँगा।
सात दिन वह सो
भी नहीं सका, बहुत सिर
मारा—आदमी भी
ईमानदार रहा
होगा, नहीं
तो पुरोहित
चालबाज होते
हैं, कुछ
भी उत्तर
निकाल लाता; ईमानदार था,
उसको यह
प्रश्न तीर की
तरह चुभने
लगा। और यह प्रश्न
था
महत्त्वपूर्ण।
सातवें दिन वह
सुबह जल्दी ही
भोर में चर्च
पहुँच गया, अभी तक
उत्तर नहीं
आया है, सोचा
कि जाकर चर्च
में ही बैठ
जाऊँ, प्रभु
से परमात्मा
से प्रार्थना
करूँ कि तुम्हीं
बताओ, अब
मैं क्या
उत्तर दूँ? वह आदमी आता
होगा और सारे
गाँव में खबर
फैल गयी है, सारा गाँव आ
रहा है। मैं
जो भी उत्तर
सोचता हूँ, गलत मालूम
होता है। इन
दोनों के बीच
कैसे तालमेल बिठाऊँ? हाथ जोड़कर
प्रभु की
प्रार्थना
में झुका।
जल्दी उठ आया
था, रात
सोया भी नहीं
था, वहाँ
सिर झुकाए
हुए वेदी के
सामने उसे
झपकी आ गयी।
उसने एक सपना
देखा। सपने
में उसने वही
देखा जो सात
दिन से उसके
प्राणों को मथ रहा था।
उसने
देखा कि वह एक
ट्रेन में
सवार है। उसने
पूछा—भई यह
ट्रेन कहाँ जा
रही है? लोगों
ने कहा—स्वर्ग
जा रही है।
उसने कहा—यह
अच्छा ही हुआ,
वहीं चलकर
देख लूँ
कि हालत क्या
है? वह
स्वर्ग
पहुँचा, उसे
बड़ी हैरानी
हुई। उसने
किताबों में
जो वर्णन देखे
थे स्वर्ग के,
बड़े रंगीन
थे, बड़े सुवासपूर्ण
थे, और
स्वर्ग
बिल्कुल उजड़ा—सा
मालूम पड़ रहा
था। वीरान—सा
मालूम पड़ता
था। खंडहर
मालूम पड़ता
था। धूल—धवाँस
जमी थी। उसने
पूछा—यह मामला
क्या है? ऐसी
शकल तो नरक की
होनी चाहिए।
कहीं कुछ भूल—चूक
तो नहीं। उतरा,
लेकिन
स्वर्ग ही था,
भूल—चूक
नहीं थी। उसने
पूछा कि मैं
यह जानना
चाहता हूँ—यहाँ
कुछ लोग हैं? जैसे बुद्ध।
क्योंकि
बुद्ध ने
पुण्य किया, प्रभु को
स्मरण नहीं
किया।
सुकरात।
पुण्य तो किया,
लेकिन
प्रभु को
स्मरण नहीं
किया। यहाँ
बुद्ध और सुकरात
जैसे लोग हैं?
उन्होंने
कहा—भई, नाम
नहीं सुना
कभी। बुद्ध और
सुकरात का
हमें कुछ पता
नहीं है।
भागदौड़ कर
उसने पता
लगाया कि नरक
भी कोई ट्रेन
जाती है कि
नहीं? एक
ट्रेन नरक जा
रही थी, तैयार
ही खड़ी थी, वह
सवार हो गया।
नरक
पहुँचा। बड़ा
हैरान हुआ।
वहाँ बड़ी ताजगी
थी,
बड़ी रौनक थी,
बड़ा रंग था,
बड़ी सुंगध
थी; उसे तो
भरोसा ही नहीं
आया कि यह हो
क्या रहा है, सब उल्टा
हुआ जा रहा है;
यह नरक है? उतरकर उसने पूछा
कि यहाँ
सुकरात और
बुद्ध जैसे
लोग हैं? उन्होंने
कहा है, उनके
ही आने के
कारण तो नरक
की यह रंगत
आयी है। यह जो
सुगंध देख रहे
हो, यह जो
सुवास देख रहे
हो, यहाँ
जो चारों तरफ
महोत्सव देख
रहे हो, इसी
तरह के लोगों
के आने की वजह
से तो यह रंगत
आयी है!
तभी
उसकी नींद खुल
गयी। लोग आने
शुरू हो गए थे।
उसने खड़े होकर
मंच पर कहा कि
मैं तो उत्तर
नहीं जानता, लेकिन
यह सपना कहे
देता हूँ। इस
सपने से इतना
सार मैंने
निकाला कि
जहाँ भले लोग
हैं वहाँ
स्वर्ग है और
जहाँ भले लोग
नहीं हैं वहाँ
नरक है। यह
बात गलत है कि
पुण्य करनेवाले
लोग स्वर्ग
जाते हैं, पुण्य
करनेवाले लोग
जहाँ जाते हैं
वहाँ स्वर्ग
बन जाता है।
यह बात गलत है
कि पाप
करनेवाले लोग
नरक जाते हैं।
पाप करनेवाले
लोग स्वर्ग भी
चले जाएँ तो
भी जहाँ जाते
हैं वहाँ नरक
बन जाता है।
तुम
औपचारिक धर्म
में मत उलझ
जाना—मंदिर हो
आए,
मस्जिद हो
आए, प्रार्थना
कर ली, पाठ
कर लिया। नहीं,
धर्म तो एक
ही है—वह
प्रेम है। और
धर्म के इस
अनुभव को, प्रेम
को जगाने का
उपाय एक ही है—वह
होश है।
इन दो
शब्दों में, इन
दो कदमों में
धर्म की पूरी
यात्रा हो
जाती है। इतना
ही फासला है
संसार में और
मोक्ष में। बस
दो कदम का
फासला है। एक
कदम का नाम
प्रेम, एक
कदम का नाम
ध्यान। ये दो
कदम तुम उठा
लो। बस ये दो
कदम उठ जाएँ—भीतर
ध्यान हो, बाहर
की तरफ बहता
हुआ प्रेम हो;
भीतर गहरा
होता हुआ
ध्यान हो, बाहर
बँटता हुआ
प्रेम हो; ध्यान
बन जाए
तुम्हारी जड़
और प्रेम बन
जाए तुम्हारे
फूल—खिल जाएँ।
आदमी
को प्रेम करो, प्रकृति
को प्रेम करो,
चाँदत्तारों को प्रेम
करो—प्रेम
करो! और सब
प्रेम उसी
परमात्मा के
चरणों में
समर्पित हो
जाता है। कहीं
भी प्रेम की
अंजलि चढ़ाओ,
कहीं भी
प्रेम के फूल चढ़ाओ, वे
उसी के चरणों
में पहुँच
जाते हैं।
प्रेम से गाए
गए गीत ही
केवल प्रार्थनाएँ
हैं और ऐसी प्रार्थनाएँ
ही केवल सुनी
जाती हैं।
तुम भूलो
परमात्मा को—परमात्मा
से कुछ लेना—देना
नहीं है, शब्दों
के जाल में मत पड़ो।
प्रेम
परमात्मा है।
और ध्यान ऑंख
है, जो उस
परमात्मा को
देख सकती हैं।
तो दो बातें तुम्हें
कहता हूँ—प्रेम
करो, ध्यान
करो। प्रेम
होने दो, ध्यान
होने दो। और
अंततः एक ऐसी
घड़ी आती है जब ध्यान
और प्रेम में
कोई अंतर नहीं
रह जाता। ध्यान
प्रेमपूर्ण
हो जाता है, प्रेम
ध्यानपूर्ण
हो जाता है।
पहुँच गए तुम
मंजिल पर। आ
गया असली घर, जिसकी तलाश
थी।
आज इतना
ही।
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