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सोमवार, 21 मार्च 2016

किताबे--ए--मीरदाद--(अध्‍याय--28)

अध्याय—अट्ठाईस

बेसार का सुलतान
शमदाम के साथ नीड़ मे आता है
युद्ध और शान्ति के विषय में सुलतान और मीरदाद में वार्तालाप
शमदाम मीरदाद को जाल में फँसाता है

नरौंदा : मुर्शिद ने अपनी बात समाप्त की ही थी और हम उनके शब्दों पर विचार कर रहे थे, तभी बाहर भारी पद—चाप और उसके साथ दबे स्वर में कुछ अस्पष्ट बातचीत सुनाई दी। शीघ्र ही दो विशालकाय सिपाहां, जो एड़ी से चोटी तक शस्त्रों से सज्जित थे, द्वार पर आये और उसके दोनों ओर खड़े हो गये। उनके हाथों में नंगी तलवारें थीं जो धूप में चमक रही थीं।
उनके बाद राजचिह्नों से सज्जित एक युवा सुलतान आया जिसके पीछे—पीछे शमदाम सकुचाया —सा चला आ रहा था, और शमदाम के पीछे थे दो और सिपाही।
सुलतान दूधिया पर्वत—माला के सबसे अधिक शक्तिशाली और दूर तक विख्यात शासकों में से एक था। वह क्षण भर के लिये द्वार पर रुका और उसने अन्दर एकत्रित व्यक्तियों के चेहरों को ध्यानपूर्वक देखा। फिर अपनी बड़ी —बड़ी, चमकती हुई आंखें मुर्शिद पर टिकाते हुए उसने बहुत नीचे तक मस्तक झुकाया और कहा :
सुलतान : प्रणाम, महात्मन्। हम उस महान मीरदाद का अभिवादन करने आये हैं जिसकी प्रसिद्धि इन पर्वतों में दूर—दूर तक फैलती हुई हमारी दूरस्थ राजधानी में भी पहुँच गई है।
मीरदाद प्रसिद्धि विदेश में द्रुतगामी रथ पर सवारी करती है; जब कि घर में वह बैसाखियों के सहारे लड़खड़ाती हुई चलती है। इस बात में मुखिया मेरे गवाह हैं। प्रसिद्धि की चंचलता पर विश्वास न करो, सुलतान। सुलतान फिर भी मधुर होती है प्रसिद्धि की चंचलता, और सुखद होता है लोगों के ओंठों पर अपना नाम अंकित करना।
मीरदाद : लोगों के ओंठों पर नाम अंकित करना वैसा ही है जैसा समुद्र—तट की रेत पर नाम अंकित करना। हवाएँ और लहरें उसे रेत; पर से बहा ले जायेंगी। ओंठों पर से तो उसे एक छींक ही उड़ा देगी। यदि तुम नहीं चाहते कि लोगों की छींकें तुम्हें उड़ा दें तो अपना नाम उनके ओंठों पर मत छापी, बल्कि उनके हृदयों पर अंकित कर दो।
सुलतान : किन्तु लोगों का हृदय तो अनेक तालों में बन्द है।
मीरदाद : ताले चाहे अनेक हों, पर चाबी एक है।
सुलतान : क्या आपके पास है वह चाबी? क्योंकि मुझे उसकी बहुत सख्त जरूरत है।
मीरदाद? वह तुम्हारे पास भी है।
सुलतान : अफसोस! आप मेरा मूल्य मेरी योग्यता से कहीं अधिक लगा रहे हैं। मैं लम्बे समय से खोज रहा हूँ वह चाबी जिससे अपने पड़ोसी के हृदय में प्रवेश पा सकूँ, परन्तु वह मुझे कहीं नहीं मिली। वह एक शक्तिशाली सुलतान है और मुझसे युद्ध करने पर उतारू है। अपने शान्ति —प्रिय स्वभाव के बावजूद मैं उसके विरुद्ध हथियार उठाने के लिये विवश हूँ। मुर्शिद, मेरे मुकुट और मोतियों —जड़े वस्त्रों के धोखे में न आयें। जिस चाबी की मुझे तलाश है वह मुझे इनमें नहीं मिल रही है।
मीरदाद : ये वस्तुएँ चाबी को छिपा तो देती है, पर उसे अपने पास नहीं रखतीं। ये तुम्हारे द्वारा उठाये गये कदम को जकड़ देती हैं, तुम्हारे हाथ को रोक लेती हैं, तुम्हारी दृष्टि को लक्ष्य —भ्रष्ट कर देती हैं. और इस प्रकार तुम्हारी तलाश को विफल कर देती हैं।
सुलतान : इससे मुर्शिद का क्या अभिप्राय है? मुझे अपने मुकुट और राजसी वस्त्रों को फेंक देना होगा ताकि मुझे अपने पड़ोसी के हृदय में प्रवेश पाने की चाबी मिल जाये?
मीरदाद : इन्हें रखना है तो तुम्हें अपने पड़ोसी को खोना होगा; अपने पड़ोसी को रखना है तो तुम्हें इन्हें खोना होगा। और अपने पड़ोसी को खोना अपने आप को खो देना है।
सुलतान : मैं अपने पड़ोसी की मित्रता इतनी .बड़ी कीमत पर नहीं खरीदना चाहता।
मीरदाद : क्या तुम इस ज़रा —सी कीमत पर भी अपने आप को नहीं खरीदना चाहते '
सुलतान : अपने आप को खरीदूँ? मैं कोई कैदी नहीं हूँ कि रिहाई की कीमत दूँ। और इसके अतिरिक्त मेरी रक्षा के लिये मेरे पास सेना है जिसे अच्छा वेतन दिया जाता है और जिसके पास पर्याप्त युद्ध—सामग्री है। मेरा पड़ोसी अपने पास इससे उत्तम सेना होने का दावा नहीं कर सकता।
मीरदाद : एक व्यक्ति या वस्तु का बन्दी होना ही असहनीय कारावास है। मनुष्यों की एक विशाल सेना, और कई वस्तुओं के समूह का बन्दी होना तो अन्तहीन देश —निकाला है। क्योंकि किसी वस्तु पर निर्भर होना उस वस्तु का बन्दी बनना है। इसलिये केवल प्रभु पर निर्भर रहां, क्योंकि प्रभु का बन्दी होना नि: सन्देह स्वतन्त्र होना है।
सुलतान : तो क्या मैं अपने आप को, अपने सिंहासन को, अपनी प्रजा को असुरक्षित छोड़ दूँ?
मीरदाद : अपने आप को असुरक्षित न छोड़ो।
सुलतान : इसीलिये तो मैं सेना रखता हूँ।
मीरदाद : इसीलिये तो तुम्हें अपनी सेना को भग कर देना चाहिये। सुलतान परन्तु तब मेरा पड़ोसी तुरन्त मेरे राज्य को रौंद डालेगा। मीरदाद तुम्हारे राज्य को वह रौंद सकता है, लेकिन तुम्हें कोई नहीं निगल सकता। दो कारागार मिल कर एक हो जायें तो भी वे स्वतन्त्रता के लिये एक छोटा—सा घर नहीं बन जाते। यदि कोई मनुष्य तुम्हें तुम्हारे कारागार में से निकाल दे तो खुशी मनाओ; परन्तु उस व्यक्ति से ईर्ष्या न करो जो खुद तुम्हारे कारागार में बन्द होने के लिये आ जाये।
सुलतान : मैं एक ऐसे कुल की सन्तान हूँ जो रण—भूमि में अपनी वीरता के लिये विख्यात है। हम दूसरों को युद्ध के लिये कभी विवश नहीं करते। किन्तु जब हमें युद्ध के लिये विवश किया जाता है तो हम कभी पीछे नहीं हटते, और शत्रु की लाशों पर ऊँची विजय —पताकाएँ लहराये बिना रण —भूमि से विदा नहीं लेते। आपकी सलाह कि मैं अपने पड़ोसी को मनमानी करने दूँ, उचित सलाह नहीं है।
मीरदाद : क्या तुमने कहा नहीं था कि तुम शान्ति चाहते हो?
सुलतान : हां, शान्ति तो मैं चाहता हूँ।
मीरदाद : तो युद्ध मत करो।
सुलतान : पर मेरा पडोसी मुझसे युद्ध करने पर तुला हुआ है; और मुझे उससे युद्ध करना ही पड़ेगा ताकि हमारे बीच शान्ति स्थापित हो सके।
मीरदाद : तुम अपने पडोसी को इसलिये मार डालना चाहते हो कि उसके साथ शान्तिपूर्वक जी सकी! कैसी विचित्र बात है। मुर्दों के साथ शान्तिपूर्वक जीने में कोई खूबी नहीं; खूबी तो है उनके साथ शान्तिपूर्वक जीने में जो जिन्दा हैं। यदि तुम्हें किसी ऐसे जिन्दा मनुष्य या वस्तु से युद्ध करना ही है जिसकी रुचि और हित तुम्हारी रुचि और हित से कभी —कभी टकराते हैं, तो युद्ध करो उस प्रभु से जो उसको अस्तित्व में लाया है। और युद्ध करो संसार से, क्योंकि उसके अन्दर ऐसी अनगिनत वस्तुएँ हैं जो तुम्हारे मन को व्याकुल करती हैं, तुम्हारे हृदय को पीड़ा पहुँचाती हैं, और अपने आप को जबरदस्ती तुम्हारे जीवन पर थोपती हैं। सुलतान : यदि मैं अपने पड़ोसी के साथ शान्तिपूर्वक रहना चाहूँ पर वह युद्ध करना चाहे, तो मैं क्या करूँ?
मीरदाद : युद्ध करो।
सुलतान : अब आप मुझे ठीक सलाह दे रहे हैं।
मीरदाद : हां, युद्ध करो, परन्तु अपने पड़ोसी से नहीं। युद्ध करो उन सब वस्तुओं से जो तुम्हें और तुम्हारे पड़ोसी को आपस में लड़ाती
तुम्हारा पड़ोसी तुमसे क्यों लड्ना चाहता है? क्या इसलिये कि तुम्हारी आँखें नीली हैं और उसकी भूरी? क्या इसलिये कि तुम फरिश्तों के सपने देखते हो और वह शैतान के? या इसलिये कि तुम उससे ऐसे प्यार करते हो मानों तुममें और उसमें कोई भेद नहीं, और जो कुछ तुम्हारा है वह तुम उसी का समझते हो?
सुलतान, तुम्हारा पड़ोसी तुमसे लड़ना चाहता है तुम्हारे राजसी वस्त्रों के लिये, तुम्हारे सिंहासन, तुम्हारी सम्पत्ति और तुम्‍हारे प्रताप के लिये, और उन सब वस्तुओं के लिये जिनके तुम बन्दी हो।
क्या तुम उसके विराद्ध शस्त्र उठाये बिना उसे पराजित करना चाहोगे? तो इससे पहले कि वह तुमसे युद्ध छेडे, तुम स्वयं ही इन सब वस्तुओं के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दो। जब तुम अपनी आत्मा को इनके शिकंजे से छुड़ा कर इन पर विजय पा लोगे; जब तुम इन्हें बाहर कूड़े के ढेर पर फेंक दोगे. सम्भव है कि तब तुम्हारा पड़ोसी अपने कदम थाम ले, और अपनी तलवार वापस म्यान में रख ले और अपने आप से कहे, ''यदि ये वस्तुएँ इस योग्य होतीं कि इनके लिये युद्ध किया जाये, तो मेरा पड़ोसी इन्हें कूड़े के ढेर पर न फेंक देता।’’
यदि तुम्हारा पड़ोसी अपना पागलपन न छोड़े और उस कूड़े के ढेर को उठा कर ले जाये, तो ऐसे घृणित बोझ से अपनी मुक्ति पर खुशी मनाओ, लेकिन अपने पड़ोसी के दुर्भाग्य पर अफसोस करो।
सुलतान : मेरे मान का, मेरी इज्ज्त का क्या होगा जो मेरी सारी सम्पत्ति से कहीं अधिक मूल्यवान है?
मीरदाद : मनुष्य का मान केवल मनुष्य बना रहने में है — मनुष्य जो कि प्रभु का जीता—जागता प्रतिबिम्ब और प्रतिरूप है। बाकी सब मान तो अपमान ही है।'
मनुष्यों द्वारा प्रदान किये गये सम्मान को मनुष्य आसानी से छीन लेते हैं। तलवार से लिखे गये मान को तलवार आसानी से मिटा देती है। कोई भी मान इस लायक नहीं कि उसके लिये जग लगा तीर भी चलाया जाये, तप्त आंसू बहाना या रक्त की एक भी बूँद गिराना तो दूर रहा।
सुलतान : और स्वतन्त्रता, मेरी और मेरी प्रजा की स्वतन्त्रता, क्या बड़े से बड़े बलिदान के लायक नहीं?
मीरदाद : सच्ची स्वतन्त्रता तो इस लायक है कि उसके लिये अपने अहं की बलि दे दी जाये। तुम्हारे पड़ोसी के हथियार उस स्वतन्त्रता को छीन नहीं सकते, तुम्हारे अपने हथियार उसे प्राप्त नहीं कर सकते, उसकी रक्षा नहीं कर सकते। और युद्ध का मैदान तो सच्ची स्वतन्त्रता के लिये एक कब्र है।
सच्ची स्वतन्त्रता हृदय में ही पाई और खोई जाती है।
क्या युद्ध चाहते हो तुम? तो अपने हृदय में अपने ही हृदय से युद्ध करो। दूर करो अपने हृदय से हर आशा को, हर भय और खोखली कामना को जो तुम्हारे संसार को एक घुटन —भरा बाड़ा बनाये हुए हैं, और तुम इसे ब्रह्माण्ड से भी अधिक विशाल पाओगे। इस ब्रह्माण्ड में तुम स्वेच्छा से विचरण करोगे, और कोई भी वस्तु बाधा नहीं बनेगी तुम्हारे मार्ग में।
केवल यही एक युद्ध है जो छेड़ने योग्य है। जुट जाओ इस युद्ध में, और तब तुम्हें अन्य किसी युद्ध के लिये समय ही नहीं मिलेगा। और तब युद्ध तुम्हें घृणित पशुता तथा आसुरी दाँव—पेंच प्रतीत होने लगेंगे जिनका काम होगा तुम्हारे मन को भटकाना और तुम्हारी शक्ति को सोखना, और इस प्रकार अपने आप के विरुद्ध तुम्हारे महायुद्ध में, जो वास्तव में धर्म —युद्ध है, तुम्हारी पराजय का कारण बनना। इस युद्ध को जीतने का अर्थ है अनन्त जीवन को पाना, किन्तु अन्य किसी भी युद्ध में विजय पूर्ण अ
पराजय से भी बुरी होती है। और मनुष्य के हर युद्ध का भयानक पक्ष यही है कि विजेता और पराजित दोनों के पल्ले पराजय ही पड़ती है। क्या शान्ति चाहते हो तुम? तो मत खोजो उसे दस्तावेजों के शब्द—जाल में; और मत प्रयत्न करो उसे चट्टानों पर अंकित करने में। क्योंकि जो लेखनी आसानी से शान्ति लिखती है, वह उतनी ही आसानी से युद्ध भी लिख सकती है; और जो छेनी ''आओ, शान्ति स्थापित करें'' खोदती है. वह उतनी ही आसानी से ''आओ, युद्ध करें'' भी खोद सकती है। और इसके अतिरिक्त, काग़ज़ और चट्टान लेखनी और छेनी जल्दी ही कीड़े, गलन, जंग और प्रकृति के परिवर्तन लाने वाले तत्त्वों का शिकार हो जाते हैं। किन्तु मनुष्य के काल—मुक्त हृदय की बात अलग है। वह तो दिव्य ज्ञान के बैठने का सिंहासन है।
जब एक बार दिव्य ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, तो युद्ध तुरन्त जीत लिया जाता है और हृदय में स्थायी शान्ति स्थापित हो जाती है। ज्ञानवान हृदय युद्ध—त्रस्त संसार में रहते हुए भी सदा शान्त रहता है। अज्ञानी हृदय द्वैतपूर्ण होता है। द्वैतपूर्ण हृदय का परिणाम होता है विभाजित संसार, और विभाजित संसार जन्म देता है निरन्तर संघर्ष और युद्ध को।
ज्ञानवान हृदय एकतापूर्ण होता है। एकतापूर्ण हृदय का परिणाम होता है एक संसार, और एक संसार शान्तिपूर्ण संसार होता है, क्योंकि लड़ने के लिये दो की जरूरत होती है।
इसलिये मैं तुम्हें सलाह देता हूँ कि अपने हृदय को एकतापूर्ण बनाने के लिये उसी के विरुद्ध युद्ध करो। विजय का पुरस्कार होगा स्थायी शान्ति।
ऐ सुलतान, जब तुम हर शिला में सिंहासन देख सकोगे. और हर गुफा में दुर्ग पा सकोगे, तब सूर्य तुम्हारा सिंहासन और तारामण्डल तुम्हारे दुर्ग बन कर बहुत प्रसन्न होंगे।
जब खेत में उगा डेज़ी का हर नन्हा फूल तुम्हारे लिये पदक बनने योग्य होगा; और हर कीड़ा तुम्हारा शिक्षक बनने के योग्य, तब सितारे तुम्हारे वक्ष पर सुशोभित होकर प्र:सन्न होंगे, और धरती तुम्हारा उपदेश —मंच बनने के लिये तैयार होगी।
जब तुम अपने हृदय पर शासन कर सकोगे, तब इससे तुम्हें क्या फर्क पड़ेगा कि तुम्हारे शरीर पर किसका शासन है ' जब सारा ब्रह्माण्ड तुम्हारा होगा, तो इससे तुम्हें क्या फर्क पड़ेगा कि धरती के किसी टुकड़े पर किसका प्रभुत्व है?
सुलतान : आपके शब्द काफी लुभावने हैं। फिर भी मुझे लगता है कि युद्ध प्रकृति का नियम है। क्या समुद्र की मछलियाँ भी निरन्तर लड़ती नहीं रहतीं? क्या दुर्बल बलवान का शिकार नहीं होता? पर मैं किसी का शिकार नहीं बनना चाहता।
मीरदाद : जो तुम्हें युद्ध प्रतीत होता है वह अपना पेट भरने और, अपना विस्तार करने का प्रकृति का केवल एक ढंग है। बलवान को उसी प्रकार दुर्बल के लिये आहार बनाया गया है जिस प्रकार दुर्बल को बलवान के लिये। और फिर, प्रकृति में कौन बलवान है और कौन दुर्बल?
केवल प्रकृति ही बलवान है; अन्य सभी तो निर्बल जीव हैं जो प्रकृति की इच्छा का पालन करते हैं और चुपचाप मृत्यु की धारा में बहे चले जाते हैं।
केवल मृत्यु से मुक्त जीवों को बलवान का दर्जा दिया जा सकता है। और मनुष्य, ए सुलतान, मृत्यु —मुक्त है। हां, प्रकृति से अधिक शक्तिशाली है मनुष्य। वह केवल इसलिये समृद्ध प्रकृति का शोषण करता है कि अपने अभावों की पूर्ति कर सके। वह केवल इसलिये सन्तान के माध्यम से अपना विस्तार करता है कि अपने आप को ऐसे विस्तार से ऊपर उठा सके।
जो मनुष्य पशु की स्वच्छ मूल —प्रवृत्तियों का उल्लेख करके अपनी दूषित कामनाओं को उचित सिद्ध करना चाहते हैं, उन्हें अपने आप को जंगली सुअर, या भेड़िये या गीदड़ या और कुछ भी कह लेने दो; परन्तु उन्हें मनुष्य के श्रेष्ठ नाम को दूषित मत करने दो।
मीरदाद : पर विश्वास करो सुलतान, और शान्ति प्राप्त करो।
सुलतान : मुखिया ने मुझे बताया है कि मीरदाद जादू—टोने के रहस्यों का अच्छा ज्ञाता है, और मैं चाहता हूँ कि वह अपनी कुछ शक्तियों का प्रदर्शन करे ताकि मैं उन पर विश्वास कर सकूँ।
मीरदाद : यदि मनुष्य के अन्दर प्रभु को प्रकट करना जादू —टोना है तो मीरदाद जादूगर है। क्या तुम मेरे जादू का कोई प्रमाण और कोई प्रदर्शन चाहते हो?
तो देखो मैं ही प्रमाण और प्रदर्शन हूँ।
अब जाओ। जिस काम के लिये तुम आये हो वह करो।
सुलतान : ठीक अनुमान लगाया है तुमने कि मुझे तुम्हारी सनकी बातों से अपने कान बहलाने के अलावा और भी काम हैं। क्योंकि बेसार का सुलतान एक दूसरी तरह का जादूगर है, और अपने कौशल का वह अभी प्रदर्शन करेगा।
(अपने आदमियों से) अपनी जंजीरें लाओ और इस प्रभु —मनुष्य या मनुष्य —प्रभु के हाथ—पैर बाँध दो। आओ, दिखा दें इसे तथा यहाँ उपस्थित व्यक्तियों को कि हमारा जादू कैसा है।
नरौंदा : हिंसक पशुओं की तरह चार सिपाही मुर्शिद पर झपटे और झट उनके हाथों और पैरों को जंजीरों से बाँधने लगे। क्षण भर के लिये सातों साथी स्तय बैठे रहे, उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि उनके सामने जो हो रहा है उसे मजाक समझें या गंभीर घटना। मिकेयन तथा जमोरा ने उस अप्रिय स्थिति की गम्भीरता को बाकी साथियों से पहले समझ लिया। दो क्रोधित सिंहों की तरह वे सिपाहियों पर टूट पड़े; और यदि मुर्शिद की रोकती और धैर्य बँधाती आवाज उन्हें सुनाई न देती तो उन्होंने सिपाहियों को पछाड़ दिया होता।
मीरदाद : इन्हें अपने कौशल का प्रयोग कर लेने. दो, उतावले मिकेयन। इन्हें अपनी इच्छा पूरी कर लेने दो, भले जमोरा। काले खड्ड से अधिक भयानक नहीं हैं इनकी जंजीरें मीरदाद के लिये। शमदाम को अपनी सत्ता पर बेसार के सुलतान की सत्ता का पैबन्द लगाने की खुशियाँ मना लेने दो। यह पैबन्द ही इन दोनों को चीर डालेगा।
मिकेयन : जब हमारे मुर्शिद को एक अपराधी की तरह जंजीरों से बाँधा जा रहा है तो हम एक ओर कैसे खड़े रह सकते हैं '
मीरदाद : मेरे लिये तनिक भी चिन्ता न करो। शान्त रहो। ऐसा ही व्यवहार ये लोग किसी दिन तुम्हारे साथ करेंगे; परन्तु ये अपने आप को हानि पहुँचायेंगे तुम्हें नहीं।
सुलतान : ऐसा ही व्यवहार किया जायेगा हर उस दुष्ट और पाखण्डी के साथ जो वैध अधिकार और सत्ता का विरोध करने का दुःसाहस करेगा।
यह धर्मात्मा (शमदाम की ओर संकेत करते हुए) इस मठ का वैध मुखिया है, और इसका वचन हर किसी के लिये कानून होना चाहिये। यह पवित्र नौका जिसकी उदारता का तुम लाभ उठा रहे हो मेरे संरक्षण में है। मेरी चौकस दृष्टि इसकी नियति का निरीक्षण करती है, मेरी शक्तिशाली भुजा इसकी छत और सम्पत्ति के ऊपर फैली हुई है; काट देगी मेरी तलवार उस हाथ को जो इसे नुक्सान पहुँचाने की कोशिश करेगा। यह सब समझ लें और सावधान रहें।
(अपने आदमियों से) बाहर ले चलो इस दुष्ट को। इसके खतरनाक सिद्धान्त ने नौका को बरबादी के कगार पर पहुँचा दिया है। यदि इसे अपने विनाशकारी रास्ते पर चलने दिया गया तो शीघ्र ही यह हमारे राज्य और इस धरती दोनों को नष्ट कर देगा। अब से मीरदाद को अपना उपदेश बेसार की कालकोठरी की निष्ठुर दीवारों को ही देने दो। ले जाओ इसे यहाँ से।
नरौंदा : सिपाही मुर्शिद को बाहर ले गये, और सुलतान तथा शमदाम खुशी से अकड़ते हुए उनके पीछे चल पड़े। सातों साथी इस अमगल—सूचक जुलूस के पीछे—पीछे चल रहे थे; उनकी आंखें मुर्शिद का पीछा कर रही थीं, वेदना ने उनके ओंठ सी दिये थे, उनके हृदय आँसुओं से फट रहे थे।
मुर्शिद के कदम स्थिर और दृढ़ थे, और उनका मस्तक ऊँचा उठा हुआ था। थोड़ी दूर चल कर उन्होंने मुड़ कर हमारी ओर देखा और कहा
मीरदाद : मीरदाद में अपना विश्वास अडिग रखना। जब तक मैं अपनी नौका को जल? में न उतार दूँ और उसका नेतृत्व तुम्हें न सौंप दूँ, तुम्हें छोड़ कर नहीं जाऊँगा।
नरौंदा : और उसके बाद मुर्शिद के शब्द देर तक ऊँचे स्वर में हमारे कानों में गूँजते रहे और जंजीरों की बोझिल झनझनाहट उनकी संगत करती रही।

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