दिनांक
9 दिसम्बर 1979
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र:
मलूका
सोइ पीर है, जो जानै
पर—पीर।
जो
पर—पीर न जानही, सो काफिर
बेपीर।।
जहां—जहां
बच्छा फिरै, तहांत्तहां फिरै
गाय।
कह
मलूक जहं संतजन, तहां रमैया
जाय।।
कह
मलूक हम जबहिं
तें लीन्ही
हरि की ओट।
सोवत
हैं सुखनींद
भरि, डारि भरम की
पोट।।
गांठी
सत्त कुपीन
में, सदा फिरै निःसंक।
नाम
अमल माता रहै, गिनै इंद्र को
रंक।।
धर्महि
का सौदा भला, दाया जग
ब्योहार।
रामनाम
की हाट ले, बैठा खोल किवार।।
औरहिं
चिंता करन दे, तू मत मारे
आह।
जाके
मोदी राम—से, ताहि कहा
परवाह।।
संतन
संग सेवा करौं, भक्ति—मजूरी
देहु।।
भक्ति—मजूरी
दीजिए, कीजै भवजल
पार।
बोरत
है माया मुझे, गहे
बांह
बरियार।।
प्रेम
नेम जिन ना कियो, जीतो नाहीं मैन।
अलख
पुरुष जिन ना लख्यो, छार परो तेहि
नैन।।
रात
न आवे नींदड़ी, थरथर कांपै
जीव।
ना
जानूं क्या करैगा, जालिम मेरा
पीव।।
हरी
डारि ना तोड़िए, लागै छूरा
बान।
दास
मलूका
यों कहै, अपना—सा जिव
जान।।
जे
दुखिया संसार
में, खोवो तिनका दुक्ख।
दलिद्दर
सौंप मलूक को, लोगन दीजै सुक्ख।।
मलूक
वाद न कीजिये, क्रोधै देहु बहाय।
हार
मानु
अनजान तें, बकबक मरै
बलाय।।
मूरख
को का बोधिये, मन में रहो
बिचार।
पाहन
मारे क्या भया, जहं टूटै तरवार।।
तैं
मत जानै
मन मुवा, तन करि डारा
खेह।
ताका
क्या इतबार है, जिन मारे
सकल बिदेह।।
सुंदर
देही पायके, मत कोइ करै
गुमान।
काल
दरेरा खायगा, क्या बूढ़ा
क्या ज्वान।।
सुंदर
देही देखिके, उपजत है अनुराग।
मढ़ी
न होती चाम की, तो जीवत
खाते काग।।
आदर
मान महत्व सत, बालापन को
नेह।
यह
चारो तबहीं
गए, जबहिं कहा "कछु
देह"।।
प्रभुताही
को सब मरैं, प्रभु को मरै
न कोय।
जो
कोई प्रभु को मरैं, तो प्रभुता
दासी होय।।
एक
दिन तने ने भी
कहा था,
जड़?
जड़ तो जड़ ही
है;
जीवन से सदा
डरी रही है,
और यही है
उसका सारा
इतिहास
कि जमीन में
मुंह गड़ाए
पड़ी रही है;
लेकिन मैं
जमीन से ऊपर
उठा,
बाहर निकला,
बढ़ा हूं,
मजबूत बना
हूं,
इसी से तो
तना हूं।
एक दिन
डालों ने भी
कहा था,
तना?
किस बात पर
है तना?
जहां बिठाल
दिया गया था
वहीं पर है
बना;
प्रगतिशील
जगती में तिल
भर नहीं डोला
है,
खाया है, मोटाया
है, सहलाया
चोला है;
लेकिन हम
तने से फूटीं,
दिशा—दिशा
में गईं
ऊपर उठीं,
नीचे आईं
हर हवा के
लिए दोल बनीं,
लहराईं,
इसी से तो
डाल कहलाईं।
एक दिन
पत्तियों ने
भी कहा था,
डाल?
डाल में
क्या है कमाल?
माना वह
झूमी, झुकी,
डोली है
ध्वनि—प्रधान
दुनिया में
एक शब्द भी
कभी बोली है?
लेकिन हम हर—हर
स्वर करती हैं,
मर्मर स्वर मर्मभरा
भरती हैं,
नूतन हर
वर्ष हुई,
पतझर में झर
बहार—फूट फिर
छहरती
हैं,
विथकित—चित पंथी का
शापत्ताप हरती हैं।
एक दिन
फूलों ने भी
कहा था,
पत्तियां?
पत्तियों ने
क्या किया?
संख्या के
बल पर बस
डालों को छाप
लिया,
डालों के बल
पर ही चल—चपल
रही हैं,
हवाओं के बल
पर ही मचल रही
हैं;
लेकिन हम
अपने से खुले,
खिले, फूले
हैं—
रंग लिए, रस
लिए, पराग
लिए—
हमारी यश—गंध
दूर—दूर—दूर
फैली है,
भ्रमरों ने
आकर हमारे गुन
गाए हैं,
हम पर बौराए
हैं।
सब की सुन
पाई है,
जड़ मुसकराई
है!
धर्म
जड़ की बात है।
न तनों की, न डालों की, न पत्तों की,
न फूलों की,
न फलों की, जड़ की। जड़
अदृश्य है।
और सब
दृश्य है, सिर्फ
परमात्मा
अदृश्य है। और
सब का रूप है, सिर्फ
परमात्मा
अरूप है। और
सब आकार है, परमात्मा
निराकार है।
इससे ही हम
उससे वंचित हो
जाते हैं।
सब
दिखाई पड़ता है—वृक्ष
का वैभव, आकाश
में फैली हुई
शाखाएं, फूलों—पत्तों
के रंग, हवाओं
में उड़ती गंध,
भ्रमरों के
गीत, पक्षियों
की चहचहाहट।
और जड़ें? दबी
पड़ी रहती हैं—पृथ्वी
के गर्भ में; पृथ्वी के
अंधकार में।
लेकिन वही है
प्राण सबका—फूल
का, पत्ते
का, फल का।
वही है जीवन
का स्रोत
सबका। जिसने
जड़ को खोजा, उसने ही
जीवन के सत्य
को जाना है।
मलूकदास
के सूत्र।
कैसे हम
अदृश्य के साथ
एक हो जाएं? कैसे हम डूब
जाएं उसमें
जिसका ओर—छोर
मिलता नहीं? कैसे हम लीन
हो जाएं उसमें
जिसका पता—ठिकाना
मालूम नहीं? चलें किस
दिशा में कि
खोज लें उसे
कि जिसे पाकर
सब पा लिया
जाता है; और
जिसे बिना पाए,
कुछ भी पाया
हो तो दो कौड़ी
का है? सीधी—सादी
बातें हैं
मलूक की। ज़रा
भी कठिन नहीं।
ज़रा भी
जटिल नहीं
हैं। लेकिन
सीधी सरल
उन्हीं के लिए
हैं जो सीधे—सरल
हैं। अगर तुम
जटिल हो, उलझे
हो, द्वंद्वग्रस्त हो, दुविधा
से भरे हो, तो
सीधी—सरल
बातें भी
तुम्हारे
भीतर जा कर इरछी—तिरछी
हो जाएंगी।
सीधी लकड़ी को
पानी में
डालकर देखा? तिरछी हो
जाती है। कम—से—कम
दिखाई तो पड़ने
लगती है कि
तिरछी हो गयी
है। खींचो जल
के बाहर, सीधी
की सीधी है।
जल के भीतर भी
सीधी थी, लेकिन
तिरछी भासती
थी। आभास होता
था।
ऐसा ही
तुम्हारा
जटिल मन है।
ये मलूक के
वचन अगर
तुम्हारे मन
पर पड़े तो सब
तिरछे हो
जाएंगे। तुम
इनमें ऐसे
अर्थ निकाल लोगे, जो इनमें
नहीं हैं। और
तुम वे अर्थ
चूक जाओगे, जो इनमें
ओतप्रोत भरे
हैं। ये वचन
मन से सुनने
के वचन नहीं
हैं, ये
वचन अमन से
सुनने के वचन
हैं, ध्यान
से सुनने के
वचन हैं। सब
निर्भर करता
है : कैसे तुम सुनोगे।
जो कहा गया है,
वह तो बहुत
साफ—सुथरा है।
मगर जो सुनेगा,
अगर कूड़े—कचरे
से भरा है, तो
उसके भीतर
पहुंचते—पहुंचते
हवाएं
गंदी हो
जाएंगी। सुबह
की ताजी हवाएं,
मलय पवन, तुम्हारे
भीतर पहुंचते—पहुंचते
दुर्गंधयुक्त
हो जाएंगी।
इसलिए
अपने को साफ
सुथरा किए
बिना संतों को
नहीं समझा जा
सकता।
संतों
को समझना और
तरह का अध्ययन
नहीं है। और तरह
के अध्ययन में
तुम जैसे हो
वैसे ही काफी
हो, संतों को
समझने के पहले
खूब भीतर
स्नान होना चाहिए।
उसको ही मैं
ध्यान कहता
हूं। भीतर के
स्नान का नाम
ध्यान है।
संतों को
समझने के पहले
भीतर सन्नाटा
आना चाहिए।
शून्य उमगना
चाहिए।
शून्य
से समझोगे तो
ही समझोगे।
ब्रह्मा
की मूर्तियां
देखी हैं? चतुर्मुख
हैं ब्रह्मा।
चतुरानन हैं।
ब्रह्मा के
मुख चार,
एक ही बात,
किंतु, चारों
मुख से
ब्रह्मा
कहते हैं।
चारों मुख
से बात एक ही
कहने का
तात्पर्य
ज्ञात है?
सुनो एक से
तो लगता है,
वह ब्रह्मा
की बात;
दूसरे से
सुनने पर
लगता है
वह श्रोता
की है;
सुनो तीसरे
मुख से
तो वह सबकी
लगती;
और सुनो
चौथे से
तो ऐसा लगता,
वह नहीं
किसी की बात,
बात वह सिर्फ
बात है।
कवि ब्रह्मा
है,
"औ" कविता
ब्रह्मा की
वाणी;
नई आज भी,
समझ सको तो,
लीक पुरानी।
ब्रह्मा
के ही चार मुख
नहीं हैं, सभी संतों
के चार मुख
हैं। नहीं कि
चार मुख हैं, बल्कि संतों
को चार तरह से
समझा जा सकता
है। एक तो
समझने का ढंग
है आदमी का कि
बुद्ध के वचन,
महावीर के
वचन, कृष्ण
के वचन, क्राइस्ट
के वचन, मुहम्मद
के वचन हम
कैसे समझ
सकेंगे? यह
तो दिव्यवाणी
है! हमारी
सामर्थ्य
कहां? ऐसा
मत सोचना कि
यह बात
विनम्रता से
कही गई है। यह
बात बड़ी
चालाकी की है।
तुम जो नहीं
समझना चाहते
हो, कहने
लगते हो :
हमारी
पात्रता कहां?
चाहते नहीं
कि समझो।
क्योंकि समझो
तो महंगा हो
सकता सौदा।
समझोगे तो कुछ
करना भी होगा।
समझोगे तो
करना ही होगा।
समझ कर कौन
करने से बचा
है? समझोगे
तो बदलोगे।
बदलने की
तैयारी नहीं।
अच्छा है कि
समझो ही न। तो
हम टालते हैं।
हमारे
टालने का बड़ा
सुंदर ढंग है।
हम कहते हैं :
यह उपनिषद के
वचन, ये तो द्रष्टाओं
के, ऋषियों
के वचन हैं; पारलौकिक
हैं, स्वर्गीय
हैं; कहां
हम पृथ्वी के
वासी, कहां
यह स्वर्ग की
वाणी, हमारा
इसमें तालमेल
कहां! बस इतना
काफी कि हम पूजा
कर लें, कि
दो फूल चढ़ा
दें, कि
उपनिषद को सिर
झुका लें, कि
गीता को
गुनगुना लें
अहोभाव से, समझ के ये
हमारे परे
हैं! हमारे—इसके
बीच बड़ी अलंघ्य
खाई है। यह
अवतारों की
वाणी, तीर्थंकरों की, पैगंबरों
की, हम
साधारणजन, जमीन
पर सरकते, घिसटते,
ये आकाश में
उड़नेवालों
के वचन; अपौरुषेय
हैं! ये
पुरुषों के
वचन नहीं। ये
वेदों की ऋचाएं,
स्वयं
परमात्मा से
उतरीं, यह
ब्रह्मा की
वाणी, हम
कैसे समझेंगे?
हम तो सुन
भी लें तो धन्यभाग!
चालाकी
समझ लेना।
यह
बहुत चालाकी
की बात है। यह
ये कहना है कि
हमें क्षमा भी
करो, हमें और
भी जरूरी काम
करने हैं! अभी
हमें जीवन जीना
है; धन
जोड़ना है, पद—प्रतिष्ठा
कमानी है। अभी
कैसे तुम
हमारे जीवन
में प्रवेश पा
सकोगे? अभी
कैसे हम
तुम्हें
प्रवेश पाने
दें? हम
बड़े प्रीतिकर
ढंग से द्वार
बंद कर लेते
हैं। बड़े
सौम्य, सुसंस्कृत
ढंग से द्वार
बंद कर लेते
हैं। तीर्थंकर
कह कर, अवतार
कह कर हम दूर
कर देते हैं।
इस
चालबाजी से
बचना! यह
चालबाजी
सदियों—सदियों
पुरानी है।
और या
फिर अगर हम
समझें ठीक से
तो एक अद्भुत रहस्यमय
अनुभव होता
है। ऐसा नहीं
लगता कि यह वाणी
बुद्ध की है, महावीर की
है, कबीर
की है, नानक
की है, मलूक
की है, ऐसा
लगता है : अपनी
है, अपने
ही हृदय की
है। अपने ही
अंतस्तल की
है। अपने ही
भीतर उठी है।
जैसे मलूक वही
कह गए जो हम कहना
चाहते थे, जो
हम न कह पाते थे,
जिसके लिए
हमारे पास
शब्द न थे, जिसे
हम बांधते
थे और बंधता
नहीं था, बांध
गए मलूक उसे।
जिसे हम शब्द
देते थे और छूट—छूट,
छिटक—छिटक
जाता था, भर
गए उसे शब्दों
में। हमने भी
गुनगुनाना
चाहा था, मगर
बांसुरी हमें
बजानी न आती
थी। तूत्तू
कर के रह गए
थे। मलूक गा
गए। जो हमसे न
हो सका, कर
गए। उनकी
अनुकंपा है।
तब तुम्हें
लगेगा :
तुम्हारा ही
प्राण बोला।
और जब
ऐसा लगे कि
तुम्हारा ही
प्राण बोला, तभी जानना
कि सत्संग
शुरू हुआ। जब
तक तुमने कहा :
"भगवान उवाच",
तब तक समझना
अभी सत्संग
शुरू नहीं
हुआ। जब तुम्हें
ऐसा लगा : अपने
ही अंतस का
उद्गार, तो
सत्संग का
प्रारंभ है।
और जब लगेगा
कि मेरे ही
प्राणों की
पुकार है यह, कि सद्गुरु
केवल दर्पण है
और मैंने अपने
ही वास्तविक
चेहरे को उस
दर्पण में देख
लिया है, कि
सद्गुरु तो
वीणा है और
मैंने अपनी ही
झंकार, प्राणों
में जो छिपी
थी, उस
वीणा पर सुन
ली है; कि
मेरी हृदयत्तंत्री
ही सद्गुरु के
रूप में बजी
है, झंकृत
हुई है।
तो
तीसरी बात भी
समझ में आ
जाएगी कि तब
लगेगा : यह
मेरी ही नहीं, सबकी है।
जिसको अपने
अंतस की आवाज
सुनाई पड़ी उसको
जगत् के अंतस
की आवाज सुनाई
पड़ जाती है। तब
ऐसा लगेगा कि
पक्षी भी यही
गा रहे हैं; और वृक्षों
में भी हवाएं
सन—सन कर के जो
गुजरती हैं, उपनिषदों की
ऋचाएं
पैदा हो रही
हैं; और
पहाड़ों से
झरने उतरते
हैं, झर—झर,
मर—मर, उनकी
ध्वनि वेदों
की पुकार है; कि सुबह
गाते पक्षी
हों, कि
आकाश में
गरजते बादल, कि कड़कती
बिजलियां,
परमात्मा
की ही विभिन्न
अभिव्यक्तियां
हैं। सब कुछ
तब श्रीमद्भगवद्गीता
है। तब हर
ध्वनि कुरान
है।
और जब
तीसरी बात
लगेगी, तो
चौथी भी दूर
नहीं। तब फिर
लगेगा : न यह
मेरी है, न
यह तेरी है, इस पर मैं और
तू का कोई
बंधन नहीं
बांधा जा सकता,
यह तो बस
सत्य है।
किसका? सत्य
किसी का नहीं
होता। सत्य के
हम होते हैं, सत्य हमारा
नहीं होता।
सागर नदियों
का नहीं होता,
नदियां सागर की हो
जाती हैं। तब
चौथी बात
दिखाई पड़नी
शुरू हो
जाएगी। सत्य
तो बस सत्य
है। न हिंदू का,
न मुसलमान
का, न ईसाई
का, न जैन
का, न
बौद्ध का।
अव्याख्य, अनिर्वचनीय
है। विशेषण—शून्य
है। और जिस
दिन ऐसा सत्य
दिखे, जानना
उस दिन ही
मुक्ति करीब
आयी। ऐसा सत्य
ही मुक्त करता
है।
जब तक
हिंदू हो, बंधे रहोगे।
मुसलमान हो, जकड़े रहोगे।
ईसाई हो, कारागृह
में पड़े हो।
जैन हो, जंजीरों में हो। जिस
दिन जैन, हिंदू,
ईसाई, बौद्ध,
ये सारी
सीमाएं पीछे
छूट जाएंगी, सत्य केवल
सत्य रह जाएगा,
उस दिन ही
जानना आकाश
मिला, असीम
मिला, अनंत
मिला। और अनंत
में ही मुक्ति
है। उसी अनंत
की तरफ मलूक
के इशारे हैं।
जिधर
देखिए, श्याम
विराजे।
श्याम
कुंज, वन, यमुना
श्यामा,
श्याम
गगन, घन वारिद
गाजे।
श्याम
धरा, तृण—गुल्म
श्याम हैं,
श्याम
सुरभि—अंचल—दल
साजे;
श्याम
बलाका, शालि
श्याम है,
श्याम
विजय—बाजे नभ
बाजे।
श्याम
मयूर, कोकिला
श्यामा,
कूजन, नृत्य श्याम
मृदु माजे;
श्याम
काम, रवि
श्याम मध्यदिन,
श्याम
नयन काजल के आंजे।
श्रुति
के अक्षर
श्याम देखिए,
दीपशिखा
पर श्याम निवाजे;
श्याम
तामरस, श्याम
सरोवर,
श्याम
अनिल, छबि
श्याम संवाजे।
एक—एक
कदम चलो! ये
ब्रह्मा के
चारों मुख
तुम्हारे लिए
हैं। पहले पर
मत अटक जाना।
दुनिया में अधिक
लोग पहले पर
अटके हैं।
दूसरे पर जो
गया, सत्संग
शुरू हुआ।
तीसरे पर जो
गया, सत्संग
में डूबा। चौथे
पर जो पहुंचा,
शून्य हुआ;
सत्संग में
मिटा।
निर्वाण हुआ
उसका।
चौथा
लक्ष्य है।
उसके पहले
नहीं रुकना
है। बढ़ते ही
चलना है!
आलस्य न करना!
तामस न करना!
"सोने वाले
की क़िस्मत
सोती रहती
है,
उठ बैठे की क़िस्मत
उठ बैठा
करती है,
खड़े हुए का
भाग्य
खड़ा हो जाता
है,
चलनेवाले का
चल पड़ता है।
चरैवेति .....चरैवेति।"
संन्यासी
वही है जो
चलता रहे।
चलता रहे, चलता रहे तब
तक जब तक कि
अंतिम पड़ाव
न आ जाए। चलता
रहे तब तक जब
तक कि चलने के
लिए और कोई
स्थान शेष न
रह जाए।
बुद्ध
से पूछा है
उनके
भिक्षुओं ने :
हम क्या करें? आप तो विदा
होने लगे, आखिरी
घड़ी आ गई! तो
बुद्ध के
अंतिम वचन हैं
: "चरैवेति.....चरैवेति।"
चलते रहो।
रुकना मत। जब
तक आगे कुछ दिखाई
पड़ता रहे
मार्ग, चलते
ही रहना। जब
आगे कोई मार्ग
ही शेष न बचे, तो समझना कि
मंजिल आई। और
ऐसी घड़ी आती
है जब तुम मिट
जाते हो।
मार्ग ही नहीं
मिट जाता, मार्गी
भी मिट जाता
है। पंथ ही
नहीं मिट जाता,
पंथी भी मिट
जाता है। और
जहां पथ और
पंथी दोनों
मिट जाते हैं,
वहीं
गंतव्य है; वहीं
परमात्मा है।
वहीं तुम
निराकार को, निर्गुण को,
वहीं तुम उस
जड़ को खोज
पाओगे, जिसका
यह सारा
विस्तार है।
उसे पाकर
मुक्ति है, आनंद है।
उसे पाकर अमृत
है।
राम
दुवारे जो
मरे!
मलूक
कहते हैं : मर
जाओ राम के
द्वार पर! मिट
जाओ राम के
द्वार पर!
क्योंकि वैसे
मिटने में ही
अमृत की
शुरुआत है।
वैसी मृत्यु
में ही
पुनर्जन्म
है। और ऐसा पुनर्जन्म
कि फिर कोई
मृत्यु नहीं
होती।
सूत्रों
को समझना—
मलूका
सोइ पीर है, जो जानै
पर—पीर।
मलूक
कहते हैं : मैं उसीको संत
कहता हूं, जिसने अपनी
ही पीड़ा नहीं
जानी, दूसरे
की पीड़ा भी
जानी। यहां तो
ऐसे लोग हैं जिन्हें
अपनी पीड़ा का
भी बोध नहीं
है। दूसरों की
पीड़ा तो बहुत
दूर, इतने
मूर्छित हैं
कि अपनी ही
पीड़ा का पता
नहीं चल रहा
है।
तुम्हें
अपनी पीड़ा का
पता है? काश,
पता होता, तो तुम ऐसे
ही बने रहते
जैसे तुम हो!
कुछ करते न! घर
में आग लगी हो
और तुम बैठे
रहते, ताश
खेलते रहते! चौपड़
बिछाए रहते!
शतरंज के हाथी—घोड़े
चलाते रहते!—घर
में आग लगी
होती! काश, तुम्हें
दिखाई पड़ जाए
कि घर लपटों
से घिरा है, तो कुछ
करोगे, आग
को बुझाने के
लिए कोई उपाय
करोगे।
तुम्हें अभी
अपनी पीड़ा भी
नहीं दिखाई
पड़ती। कभी भूल—चूक
से दिखाई भी
पड़ जाए, तो
तुम उसे जल्दी
छिपा लेते हो।
ढांक
लेते हो। शराब
पी कर छिपा
लेते हो; सिनेमागृह में बैठ कर
भूल जाते हो; मित्रों से
गपशप करने में
लग जाते हो; अपने को सदा
व्यस्त रखते
हो, जब तक
जागे रहते हो,
सुबह से
लेकर रात तक
उलझे रहते हो,
लगे रहते हो
कहीं न कहीं।
क्योंकि लगे
रहोगे, उलझे
रहोगे, तो
पीड़ा दिखाई न
पड़ेगी। न
पड़ेगी पीड़ा
दिखाई, न
पीड़ा को बदलने
के लिए कुछ
करना पड़ेगा।
थके—मांदे रात
गिर जाते हो—रात
भी चैन नहीं, सपने में
उलझे रहते हो।
वह भी
तुम्हारी
चालबाजी है।
सपने भी
तुम्हारी
ईजाद हैं। दिन
में तुम काम
में उलझाए
रखते हो अपने
को, रात भी
विश्राम
नहीं।
क्योंकि जहां
विश्राम हुआ,
वहां डर है
कि कहीं भीतर
के घाव दिखाई
न पड़ जाएं।
इस दुनिया
में अधिकतम
लोग अपने
घावों को
भुलाने में
लगे हैं।
मिटाने में
नहीं। जो
घावों को भुलाने
में लगे हैं, उन्हीं को
मैं गृहस्थ
कहता हूं। और
जो घावों को
मिटाने में लग
जाते हैं, उन
को संन्यस्त
कहता हूं।
गृहस्थ और
संन्यस्त की
मेरी और कोई
परिभाषा नहीं
है। भगोड़ों
को नहीं कहता
संन्यासी, जगोड़ों को कहता
हूं। जो जाग
उठे।
जिन्होंने
देखा कि घर
में आग लगी है
और हम क्या कर
रहे हैं! हम
कैसे गंवा रहे
हैं समय को!
लोग
समय गंवा ही
नहीं रहे हैं, लोगों से
अगर पूछो कि
भई, क्या
कर रहे हो? लोग
कहते हैं : समय
काट रहे हैं।
कोई हुक्का पी
कर समय काट
रहा है; कोई
ताश खेल कर
समय काट रहा
है; कोई
व्यर्थ की बकवासों
में पड़ा है और
समय काट रहा
है। पागलो,
समय
तुम्हें काट
रहा है; और
तुम सोच रहे
हो कि तुम समय
को काट रहे हो!
हमारे
पास समय के
लिए जो मौलिक
शब्द है, वैसा
शब्द दुनिया
की किसी भाषा
के पास नहीं
है। क्योंकि
हमारे पास एक
ऐसा शब्द है
समय के लिए जो
अनूठा है। समय
को हमने कहा
है : काल। और
मृत्यु को भी
काल कहा है।
दोनों का एक ही
नाम अकारण
नहीं है। उसके
पीछे
सार्थकता है।
क्योंकि समय
मृत्यु है।
समय तुम्हारी
मृत्यु को
करीब ला रहा
है। जो
तुम्हारी
मृत्यु को
करीब ला रहा
है, वही
समय है। इसलिए
ठीक है दोनों
को एक ही नाम देना।
समय और कुछ
नहीं, मृत्यु
की पगध्वनियां
हैं। इसलिए
समय को भी काल
कहा, मृत्यु
को भी काल
कहा।
समय
तुम्हें खा
रहा है। गला
रहा है! और मूढ़ता
की हद है, कि
लोगों का समय
काटे नहीं
कटता, समय
काटने के लिए
मनोरंजन
चाहिए, समय
काटने के लिए
न—मालूम क्या—क्या
उपाय करते
हैं। किसे
धोखा दे रहे
हो? ज़रा आंख खोलो!
समय कितनों को
काट चुका है!
करोड़ों—करोड़ों
लोग काटे जा
चुके हैं। रोज
कोई गिरता है,
रोज कोई
मरता है, फिर
भी तुम समय
काट रहे हो?!
पहली
तो जरूरत है
कि अपनी पीड़ा
को समझो। अपने
गहन दुःख को
समझो। तुम्हारा
जीवन अभी नरक
है। लेकिन
नहीं समझना
चाहते। नहीं
समझना चाहते
तो नहीं सुनते
हो। मलूक जैसे
व्यक्ति से
मिलना भी हो
जाए तो भी
बहरे हो जाते
हो। अंधे हो
जाते हो। जीसस
ने बारबार कहा
है : आंखें हों
तो देख लो और
कान हों तो
सुन लो! किससे
कहते हैं जीसस? तुमसे कहते
हैं।
तुम्हारे ही
जैसे लोगों से
कहा था। उनके
पास भी
तुम्हारी
जैसी आंखें
थीं, और
तुम्हारे
जैसे कान थे।
लेकिन क्यों
बारबार कहते
हैं : कान हों
तो सुन लो, आंख
हों तो देख लो?
इसलिए कहते
हैं कि लोग
कहां देखते
हैं, यहां—वहां
देखते हैं!
कान हों तो
कुछ का कुछ
सुनते हैं। जो
देखना चाहिए,
नहीं देखते,
जो सुनना
चाहिए, नहीं
सुनते। सबसे
बड़ी देखने की
बात तो यह है कि
मैं अपनी
परिस्थिति
समझूं कि मैं
कहा हूं, क्या
हूं? लेकिन,
डर लगता है!
मुल्ला
नसरुद्दीन
को उसके मित्र
चंदूलाल
ने बंबई से
फोन किया।
वर्षा भी नहीं, बादल भी
नहीं, फोन
बिल्कुल ऐसा
साफ जैसा बगल
के कमरे से
कोई बोल रहा
हो। और चंदूलाल
ने कहा कि "नसरुद्दीन,
बहुत
मुश्किल में
पड़ गया हूं।
पांच हजार
रुपयों की
जरूरत है, तत्क्षण
इंतजाम करो।"
नसरुद्दीन
ने कहा : "क्या
कहा?"
चंदूलाल
ने कहा, "सुनाई
नहीं पड़ रहा
क्या? मुझे
तो तुम्हारी
बात बिल्कुल
साफ—साफ सुनाई
पड़ रही है।
पांच हजार
रुपए की एकदम जरूरत
है।"
नसरुद्दीन
ने कहा : "कुछ
सुनाई नहीं
पड़ता; कुछ
जोर से बोलो।"
चंदूलाल
चिल्लाकर
बोला, "पांच
हजार रुपए की
जरूरत है।"
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने कहा : "भाई, सुनाई नहीं
पड़ता।"
आपरेटर
दोनों की
बातें सुन रहा
था। वह बड़ा
हैरान हुआ!
उसने कहा कि, "बड़े मियां, सब साफ
सुनाई पड़ रहा
है, और आप
यही कहे चले
जा रहे हो कि
सुनाई नहीं
पड़ता, सुनाई
नहीं पड़ता!"
तो नसरुद्दीन
ने कहा : "तुझे
सुनाई पड़ रहा
है तो तू ही दे दे! मुझे सुनाई
नहीं पड़ रहा
है!!
हम वही
सुनते हैं, जो हम सुनना
चाहते हैं। और
वही देखते हैं,
जो हम देखना
चाहते हैं।
हमारा देखना
भी गलत है, हमारा
सुनना भी गलत
है। हम सत्यों
से बच रहे हैं।
और सत्यों से
बचने का कारण
है। क्योंकि
सत्य का पहला
आघात तो कठिन
होनेवाला है।
तुम्हारे
भीतर से
जन्मों—जन्मों
का जो पीड़ा का
अंबार है, उसका
विस्फोट हो
जाएगा। अंगार
ही अंगार पाओगे,
घाव ही घाव
पाओगे, मवाद
ही मवाद
पाओगे। इसलिए
भागे हो, अपने
से भागे हो!
कहीं अपने से
मिलना न हो
जाए! भागते ही
रहते हो। कि
कहीं रुके और
भूलचूक से मिलना
न हो जाए! और
कभी—कभी अगर
आकस्मिक रूप
से यह मिलना
हो जाता है, तो तुम आंख
बचा जाते हो।
और कभी
संयोगवशात
ऐसा व्यक्ति
मिल जाता है, जो दर्पण की
तरह तुम्हारी
असलियत को
प्रकट कर दे, तो तुम उसके
दुश्मन हो
जाते हो। तुम
उसे गालियां
देते हो। तुम
उस पर पत्थर
फेंकते हो।
तुम उसे जहर
पिलाते हो।
तुम उसे सूली
लगाते हो।
तुम्हारी
तकलीफ मैं
समझता हूं।
तुम
कहते हो कि
हमें हमारे
हाल पर छोड़
दो। मत दिखाओ
हमें नरक! और
जो अपनी ही
पीड़ा नहीं देख
रहा है, वह
दूसरे की पीड़ा
कैसे देख
सकेगा? और
बड़ा मजा है, जिनको अपनी
पीड़ा नहीं
दिखाई पड़ती
उनको हम समझाते
हैं कि दूसरों
पर दया करो, दान करो, दूसरों
की सेवा करो!
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं, वे कहते हैं :
आप लोगों को
ध्यान सिखाते
हैं! और देश
इतना गरीब! और
लोग इतने दुःख
में! आप लोगों
को यह क्यों नहीं
कहते कि जा कर
सेवा करो? मैं
उनसे कहता हूं
कि पांच हजार
साल से तो तुम
कह रहे हो
लोगों से कि
सेवा करो दुःख
मिटा? और
जो सेवा कर
रहे हैं, खुद
उनका दुःख
मिटा? लेकिन
सेवा भी एक
उपाय बन जाती
है अपने दुःख
से बचने का।
मैं
बहुत—से
सेवकों को
जानता हूं।
अपने दुःख से
बचने के लिए
वे दूसरे के
दुःख में अपने
को उलझाए
हुए हैं। भूले
रहते हैं।
उलझे रहते
हैं। कोई शराब
पीकर अपने को उलझाए
रखता है, किसी
को कुछ नहीं
सूझता तो वह
चर्खा ही
कातता है।
बुद्धूपन की
भी कोई सीमाएं
होती हैं!
शतरंज भी
खेलते तो कुछ
अक्ल बढ़ती!
चर्खा कातोगे,
थोड़ी—बहुत
और होगी पास
तो वह भी चली
जाएगी। अब
चर्खा कातने
में कोई अक्ल
की तो जरूरत
है भी नहीं!
लेकिन उलझाए
रखो अपने को!
लोग
सेवा में भी
अपने को उलझा
रहे हैं, वह
भी एक
व्यस्तता है।
नहीं, मैं तुम्हें
दूसरे की पीर
की तो कैसे
कहूं, वह
तो आगे की बात
हो जाएगी। मैं
पहले तो तुमसे
तुम्हारी ही
पीर की कह
सकता हूं। हां,
तुमने अगर
अपनी पीर जान
ली, तो
दूसरी बात
अपने—आप हो
जाने वाली है—मुझे
कहनी भी नहीं
पड़ेगी! और तुम
अगर अपनी पीर से
ऊपर उठ सके, अपनी पीड़ा
को अगर
अतिक्रमण कर
सके, तो ही
तुम दूसरे को
भी सहयोग दे
सकोगे कि वह
अपनी पीड़ा के
पार हो जाए।
अन्यथा तुम
करोगे क्या? स्कूल
खोलोगे, अस्पताल
खोलोगे, ठीक
है, स्कूल
से पढ़—लिख कर
भी और अस्पताल
से स्वस्थ
होकर भी बात वही—की—वही
रहेगी।
जीसस
के जीवन में
एक कहानी है।
ईसाई ग्रंथों
में उसका
उल्लेख नहीं
है। ईसाई
ग्रंथों में
बहुत—सी
बहुमूल्य
कहानियों का
उल्लेख नहीं
है। लेकिन, जो भी
मूल्यवान इस
जगत् में पैदा
होता है, कोई—न—कोई
उसे बचाए रखता
है। सूफी फकीर
उन कहानियों को
बचा लिए हैं
जो ईसाइयों ने
छोड़ दी हैं।
और ईसाइयों ने
इस कहानी को
जान कर छोड़ा
होगा। क्योंकि
अगर यह कहानी
न छोड़ी
जाती तो मदर
टेरेसा को
नोबल प्राइज
नहीं मिल सकती
थी।
कहानी
है कि जीसस एक
गांव में
प्रवेश किए।
गांव के द्वार
पर ही उन्हें
एक युवक एक
वेश्या के
पीछे भागता
हुआ दिखाई
पड़ा। वे युवक
को तत्क्षण
पहचान गए।
दौड़े, उसे
पकड़ा और कहा :
मेरे मित्र, क्या तुम
मुझे भूल गए, मैं तो
तुम्हें
पहचान गया। उस
युवक ने जीसस
की तरफ क्रोध
से देखा और
कहा कि मैं भी
आपको पहचान
गया हूं; और
इसीलिए भाग
रहा हूं। जीसस
ने कहा कि याद
है, तुम
अंधे थे और
मैंने ही
तुम्हारी
आंखें चमत्कार
से ठीक की थीं?
उस युवक ने
बड़े क्रोध से
कहा कि हां, भली—भांति
याद है! भूल
जाए, ऐसी
यह बात नहीं!
उम्र भर याद
रहेगी! जन्म—जन्म
याद रहेगी! तो
जीसस ने कहा :
जब आंखें
तुम्हें मिल
गईं तो इन
सुंदर आंखों का,
दृष्टि का
उपयोग वेश्या
के पीछे भागने
में कर रहे हो!
तो उस युवक ने
कहा कि अब
आपसे क्या छिपाऊं;
तो इन आंखों
का और क्या
करूं? तुम्हीं
कहो! अंधा ही
बेहतर था।
तुमने और एक झंझट
लगा दी।
इसीलिए तो भाग
रहा हूं कि
फिर कोई और
झंझट न लगा दो!
जीसस
को तो भरोसा
ही न हुआ कि
तुम किसी को
आंख दो और वह
तुम पर यह
लांछन लगाए!
कि तुम्हीं
कारण हो मेरे
उपद्रव के!
वे नगर
में प्रविष्ट
हुए, उन्हें
एक आदमी मिला
जो सड़क के
किनारे नाली
में पड़ा हुआ, शराब पीए
गालियां बक
रहा था। जीसस
ने गौर से
देखा, पहचान
गए। हिलाया
उसे और कहा कि
मेरे भाई, मुझे
पहचानते हो? तुम बीमार
थे, मृत्यु—शैया
पर पड़े थे, मैंने
ही तुम्हें
जीवन दिया था;
मैंने ही
तुम्हें
मृत्यु से
बचाया था। यह
तुम क्या कर
रहे हो? जीवन
का यह उपयोग? शराब पी कर
नाली में पड़े
हो? उस
आदमी ने सिर
ठोंक लिया; उसने कहा : और
क्या करूं? तुम्हीं
बताओ, और
क्या करूं? चार दिन की
जिंदगी है, खाओ, पीओ,
मौज करो!
बहुत दिन पड़ा
रहा बिस्तर पर,
बहुत दिन
धार्मिक रह
चुका। बिस्तर
पर धार्मिक
रहना ही पड़ा!
कोई उपाय ही न
था। बिस्तर पर
सात्विक रहना
ही पड़ा! गलत
करने की सामर्थ्य
भी न थी।
धन्यवाद है
तुम्हारा कि
तुमने मुझे
स्वस्थ किया
और गलत करने
की सामर्थ्य दी।
अब तो मेरा
पीछा न करो! अब
तो चार दिन
सुख—शांति से
जी लेने दो!.....नाली
में पड़ा है, गालियां बक
रहा है, इसको
सुख—शांति का
जीवन कह रहा
है!
जीसस
को बहुत सदमा
लगा। क्या मेरे
कृत्यों का यह
परिणाम है? वे उदास
गांव से बाहर
निकल आए।
उन्होंने
गांव के बाहर
एक आदमी को
देखा कि वह फांसी
का फंदा लगा
रहा था। रोका
कि भाई मेरे, रुको!
जिंदगी
बहुमूल्य है;
क्यों
फांसी का फंदा
लगा रहे हो? और उस आदमी
ने कहा :बस, रहने
दो! तुम फिर आ
गए! मैं मर
चुका था.....यह
आदमी मर चुका
था और जीसस ने
इसे मुर्दा से
जिंदा किया था.....उस
आदमी ने कहा, दूर रहना, पास मत
फटकना! मैं तो
मर चुका था, तुम्हीं ने
मुझे जिंदा
किया और
मुसीबत में डाला।
अब रोटी—रोजी,
बाल—बच्चे,
पत्नी, मकान,
हजार झंझटें
पीछे लगा दीं!
अब मैं फिर
मरने आया, आप
फिर आ गए! तुम
मेरा पीछा छोड़ोगे
या नहीं? देख
ली जिंदगी
बहुत, अब
और क्या करना
है? मुझे
विश्राम करने
दो।
लोगों
को तुम जीवन
दे दो तो वे
क्या करेंगे? लोगों को
तुम
स्वास्थ्य दे
दो, वे
क्या करेंगे?
लोगों को
तुम शिक्षा दे
दो, वे
क्या करेंगे?
वे जो हैं, वही तो
करेंगे न!
जैसे बच्चे के
हाथ में तलवार
आ जाए; कि
बच्चे के हाथ
में जहर आ जाए;
वह करेगा
क्या?
सेवा
से नहीं होगा।
तुम्हें
जागना होगा।
और तुम्हारे
जागरण से, तुम्हारे
आनंद से, तुम्हारे
अहोभाव से अगर
तुम औरों को
भी जगा सको! और
जागरण बड़ी और
बात है। वह जीवन
की साधारण
सुविधाओं का
नाम नहीं है।
न स्वास्थ्य
का नाम है, न
बीमारी से
मुक्त होने का,
न अंधेपन से
मुक्त होने
का। जागरण है :
भीतर
परमात्मा है,
इसके अनुभव
का नाम। फिर
तुम्हारे
जीवन से जो होगा,
शुभ होगा।
ठीक
कहते हैं मलूक—
मलूका
सोइ पीर है, .....
वे
कहते हैं, मैं उसी को
संत कहता हूं—साधक
वह, जो
स्वयं की पीड़ा
को जाने और
संत वह, जो
दूसरे की पीड़ा
को जाने। कौन
है पीर? कौन
है संत?
मलूका
सोइ पीर है, जो जानै
पर—पीर।
यह
व्याख्या की
उन्होंने।
प्यारी
व्याख्या की।
संत वह है, जो दूसरे की
पीड़ा जाने।
लेकिन पीड़ा
जानने का मतलब?
मलूकदास ने कोई
अस्पताल नहीं
खोले, और न
स्कूल खोले.....और
किसी ने खोले
भी हों, मलूकदास तो इस तरह के
उपद्रव कर ही
नहीं सकते।
तुम तो जानते
ही हो मलूकदास
क्या कह गए!—"अजगर
करै न
चाकरी, पंछी
करै न काम;
दास मलूका
कह गए, सबके
दाता राम।" एक
ही बात सिखाई
उन्होंने, कि
सब भांति
परमात्मा पर
समर्पित हो
रहो। मार जाओ
डुबकी उसमें!
लीन हो जाने
दो अपनी बूंद
उसके समुद्र
में! मिट
जाएगी सारी
पीड़ा!
जो
पर—पीर न जानी, सो काफिर
बेपीर।।
वे
कहते हैं : मैं उसीको
नास्तिक कहता
हूं, जिसे
दूसरे की पीड़ा
का कोई बोध
नहीं है। मगर
ध्यान रखना, पुनः—पुनः
ध्यान रखना, दूसरे की
पीड़ा वही जान
सकता है जिसे
स्वयं की पीड़ा
का बोध हो। और
बोध ही नहीं, जिसने स्वयं
की पीड़ा मिटा
ली हो, वही
दूसरे की पीड़ा
जान सकता है।
और वही दूसरे की
पीड़ा मिटाने
में सहयोगी हो
सकता है।
अन्यथा ईसाई
मिशनरी हो
सकते हो तुम।
और तुम्हें
सम्मान भी
बहुत मिलेगा।
तुम भिखमंगों
की सेवा कर
सकते हो, इससे
भिखमंगापन
नहीं मिटता, तुम कोढ़ियों
की सेवा कर
सकते हो, इससे
कोढ़ी भी
नहीं मिटते; हां, तुम
उलझे रहोगे।
तुम्हारी
जिंदगी अकारथ
हो जाएगी।
तुम्हारी
जिंदगी में भी
दीया नहीं जलेगा।
तुम्हें एक
व्यस्तता मिल
जाएगी।
दूसरे
की पीड़ा वही
मिटा सकता है
जिसने पहले अपनी
पीड़ा मिटा ली
हो। जो जाग
गया, वही जगा
सकता है। जो
अभी खुद ही सो
रहे हैं , जो
अभी खुद ही
नींद में बड़बड़ा
रहे हैं, इनसे
तुम सोचते हो
कि दूसरों का
जागरण हो सकेगा?
यह असंभव
है।
इसलिए
इस देश ने
सेवा नहीं
सिखाई, सत्संग
सिखाया। इस
देश ने सेवा
नहीं सिखाई, साधना
सिखाई। सेवा
साधना की
अनिवार्य
परिणति है; अपने—आप आ
जाती है। जैसे
फूल खिलते हैं
तो सुगंध आ जाती
है, और
सूरज निकलता
है तो रोशनी
हो जाती है, और दीया
जलता है तो
अंधेरा मिट
जाता है, बस,
ऐसे!
जहां—जहां
बच्छा फिरै, तहांत्तहां फिरै
गाय।
कह
मलूक जहं संतजन, तहां रमैया
जाय।।
और
मलूक कहते हैं
: एक राज की बात
तुम्हें बता
दूं कि जैसे
बछड़े के पीछे
उसकी गाय
घूमती है, ऐसे संतों
के पीछे
परमात्मा
घूमता है।
संतों को
परमात्मा
खोजने हिमालय
नहीं जाना
पड़ता, खुद
परमात्मा
संतों को
खोजता चला आता
है, संत
जहां होते
हैं।
कबीर
ने कहा है :
पहले मैं
ईश्वर को
खोजता फिरता
था, और जब तक
ईश्वर को
खोजता फिरा, ईश्वर मुझे
मिला नहीं।
खोज में ही
भूल है। खोज
में तुमने कई
बातें मान
लीं। एक तो यह
कि खो दिया
है। जो कि गलत
है। ईश्वर को
कभी हमने खोया
नहीं। इसलिए
खोजेंगे कैसे?
और खोजेंगे
कहां? क्या
कहीं और है
ईश्वर जो तुम
उसे खोजने
जाओगे? है
तो यहां है, नहीं तो फिर
कहीं भी नहीं
है। है तो अभी
है, नहीं
फिर तो किसी
और समय में—अतीत
में या भविष्य
में—उसे तुम न
पा सकोगे। अगर
आज और अभी
नहीं है, तो
मृत्यु के बाद
नहीं होगा।
अगर इस लोक
में नहीं है, तो परलोक
में नहीं
होगा। अगर
पृथ्वी पर
नहीं है, तो
आकाश भी उससे
शून्य है। है
तो सब जगह है।
सच पूछो तो
ईश्वर होने का
ही दूसरा नाम
है; अस्तित्व
का ही दूसरा
नाम है।
कबीर
कहते हैं कि
पहले मैं
खोजता फिरा, तब उसे नहीं
पाया। फिर
मुझे समझ में
आया कि मेरे
खोजने में ही
भूल हो रही
है। यह खोजना
भी एक वासना
है। यह भी
इच्छा है। यह
भी मन की
आकांक्षा, अभीप्सा
है। यह भी
महत्त्वाकांक्षा
है। फिर मैंने
यह खोज भी छोड़
दी। जैसे और
सारी इच्छाएं
छोड़ दी थीं, यह इच्छा भी
छोड़ दी। जिस
दिन यह इच्छा
छोड़ दी, उस
दिन से वह
मेरे पीछे
घूमता है....."कहत कबीर कबीर!"
"हरि लागे
पीछे फिरत, कहत
कबीर कबीर!"
कह
मलूक जहं संतजन, तहां रमैया
जाय।।
वह राम
वहां—वहां चला
जाता है, जहां—जहां
संत होते हैं।
इसलिए
हमने सद्गुरु
को भगवान की
उपस्थिति की जगह
माना। उसे
तीर्थ माना।
क्योंकि जहां
सद्गुरु है, वहां राम
होगा ही। राम
तो सभी जगह है,
मगर
सद्गुरु के
पास जाग्रत है,
ज्योतिर्मय
है, प्रज्ज्वलित है।
तुम्हारे
भीतर बुझा—बुझा,
धुआं—धुआं,
सद्गुरु के
भीतर अंगारे
की तरह दहकता
हुआ।
कुछ न
हुआ, न हो
मुझे
विश्व का सुख, श्री, यदि
केवल
पास
तुम रहो।
मेरे
नभ के बादल
यदि न कटे—
चंद्र
रह गया ढका,
तिमिर रातको तिरकर
यदि न अटे
लेश
गगन—भास का,
रहेंगे
अधर हंसते, पथ पर, तुम
हाथ
यदि गहो।
बहु रस
साहित्य
विपुल न पढ़ा—
मंद
सबों ने कहा,
मेरा काव्यानुमान
यदि न बढ़ा—
ज्ञान, जहां का रहा,
रहे, समझ है
मुझमें पूरी,
तुम
कथा
यदि कहो।
कुछ न
हुआ, न हो
मुझे
विश्व का सुख, श्री, यदि
केवल
पास
तुम रहो।
रहेंगे
अधर हंसते, पथ पर, तुम
हाथ
यदि गहो।
और इस
जगत् में क्या
है पाने योग्य? एक परमात्मा
हाथ गह ले, एक
परमात्मा साथ
हो ले, तो
सब साथ है। और
नहीं तो सारा
जगत् साथ हो
तो भी तुम
अकेले हो—भीड़
में भी अकेले
हो। प्रियजन
हैं, परिवार
है, फिर भी
तुम अकेले हो।
देखते हो अपने
अकेलेपन को? कौन जाएगा
साथ? कल
श्वास उड़
जाएगी, अर्थी
बंध जाएगी, कौन देगा
साथ? यहां
न कोई संगी है,
न कोई साथी
है। यहां सब भुलावे
हैं। यहां के
सब वायदे, यहां
की सब कसमें, यहां के सब
आश्वासन झूठे
हैं। बस, बात
की बात है। उलझाए
रखने की
तरकीबें हैं।
अपने को भुलावे
में डाले रखने
के उपाय हैं।
नशे हैं, मादक
व्यवस्थाएं
हैं। जिनमें
हम सोए—सोए
जिंदगी गुजार
देते हैं।
लेकिन
तुम अकेले हो।
परमात्मा जब
तक तुम्हारे
साथ नहीं, उसका हाथ जब
तक तुम्हारे
हाथ में नहीं,
तब तक तुम
अकेले हो। इस
अकेलेपन को
पहचानो। इसके
पहचानने का
नाम संन्यास
है। कि मैं
अकेला हूं।
जंगल में भाग
कर अकेले होने
की जरूरत कहां
है? अकेले
तुम हो ही।
जहां हो वहीं अकेले
हो। ठेठ घर
में, ठेठ
बाजार में, बीच बाजार
में अकेले हो।
अकेलापन
जानने के लिए
तुम्हें पहाड़
पर किसी गुफा
में बैठना पड़े,
तो
तुम्हारा
अकेलेपन का
बोध सच्चा
नहीं है। पत्नी
छोड़ कर जाना
पड़े तब तुम
जानोगे कि
अकेले हो? पत्नी
के पास जो न
जान सका कि
अकेला हूं, वह और कहां
जानेगा कि
अकेला है?
एक नई
विधवा ने बीमा
कम्पनी में
जाकर मैनेजर से
पति के बीमे
की रकम मांगी, तो मैनेजर
ने शिष्टाचारवश
उसे कुर्सी पर
बैठने को कहा
और बोला, "हमें
यह सुनकर बड़ा
ही दुःख हुआ
देवी जी, कि
आपके पतिदेव
नहीं रहे।"
देवीजी बिगड़कर बोलीं, "जी हां, पुरुषों
का सब जगह यही
हाल है। जहां
स्त्री को चार
पैसे मिलने का
अवसर आता है, उन्हें बड़ा
दुःख होता
है।"
अगर
तुम्हारी
पत्नी
तुम्हारे
अकेलेपन का स्मरण
नहीं दिला सकी, तो हिमालय
की कोई गुफा
सफल नहीं हो
सकेगी। अगर
तुम्हारा पति
तुम्हें याद न
दिला सका, तो
कोई मंदिर, कोई मस्जिद
कारगर नहीं हो
सकती।
एक
स्त्री को
ज्योतिषी ने
बताया—"विधवा
होने के लिए
तैयार हो जाओ।
शीघ्र ही तुम्हारे
पति की हत्या
हो जाएगी।"
स्त्री
ने पूछा, "उसके
बाद?.....क्या
मैं बरी हो
जाऊंगी?"
पति—पत्नी
सोच ही क्या
रहे हैं? तुम
ज़रा अपने
भीतर ही झांक कर
देखो!? कौन
पति होगा
जिसने नहीं
सोचा होगा कई
बार कि कब
छुटकारा हो
जाए! कैसे
छुटकारा हो!!
कौन पत्नी
नहीं है जिसने
नहीं सोचा कि
विधाता ने भी
भाग्य में
किसको लिख
दिया था।
बाजार
में जितने जोर
से अकेलेपन का
अनुभव हो सकता
है, कहीं और
नहीं हो सकता।
अकेलेपन में शायद
तुम भूल जाओ, लेकिन यहां
तुम्हें जगाए
रखने के लिए
चारों तरफ से
भाले चुभ
रहे हैं।
इसलिए मैं
नहीं कहता
कहीं भागो,
यही देखो, समझो, पहचानो!
अकेले हो, और
तब तक अकेले
रहोगे जब तक
परमात्मा का
हाथ हाथ
में न हो।
कह
मलूक हम जबहिं
ते लीन्ही
हरि की ओट।
सोवत
हैं सुखनींद
भरि, डारि भरम की
पोट।।
मलूकदास
कहते हैं कि
हमने तो यह
देख कर कि
यहां तो सब अकेलापन
ही अकेलापन है, कोई संगी
नहीं, कोई
साथी नहीं, हरि की ओट ले
ली। हम तो हरि
के साथ हो
लिए। हम तो हरि
के पीछे हो
लिए। हमने तो
उसकी बांह पकड़
ली। और तब से—
सोवत
हैं सुखनींद
भरि, डारि भरम की
पोट।।
अब
सारे भ्रम
हमारे गिर गए
हैं। अब तो हम
महा आनंद की
नींद में लीन
हैं। अब हम
विश्राम में हैं।
अब कोई हमारे
जीवन में
उपद्रव नहीं
है। एक छोटा—सा
रहस्य : हरि की
ओट। और
तुम्हारे
जीवन में
क्रांति घट जाती
है।
सलिल—कण
हूं कि
पारावार हूं
मैं
स्वयं
छाया, स्वयं
आधार हूं मैं;
बंधा
हूं, स्वप्न
हूं, छोटा
बना हूं,
नहीं
तो व्योम का
विस्तार हूं
मैं।
समाना
चाहती जो बीन
उर में;
विकल
उस शून्य की
झंकार हूं
मैं।
भटकता
खोजता हूं
ज्योति तन में,
सुना
है ज्योति का
आगार हूं मैं!?
जिसे
निशि खोजती
तारे जलाकर
उसी का
कर रहा अभिसार
हूं मैं।
जनम कर
मर चुका सौ
बार लेकिन
अगम का
पा सका क्या
पार हूं मैं।
कली की
पंखड़ी पर
ओस—कण में,
रंगीले
स्वप्न का
संसार हूं
मैं।
मुझे
क्या आज ही या
कल झरूं
मैं।
सुमन
हूं, एक लघु
उपहार हूं
मैं।
सलिल—कण
हूं कि
पारावार हूं
मैं
स्वयं
छाया, स्वयं
आधार हूं मैं;
बंधा
हूं, स्वप्न
हूं, छोटा
बना हूं,
नहीं
तो व्योम का
विस्तार हूं
मैं
शरीर
से बंधे हो, मन से बंधे
हो, तो
छोटे हो।
परमात्मा से
बंधो तो सारा
आकाश तुमसे
छोटा है।
गांठी
सत्त कुपीन
में, सदा
फिरै निःसंक।
मलूक
कहते हैं : इस
सत्य को अपने
कोपीन में
बांध लो और
फिर निःशंक हो
कर फिरो! न
तुम्हें फिर
कोई लूट सकता—क्योंकि
सत्य चुराया
नहीं जा सकता।
मृत्यु उसे
नहीं छीन
सकती।
गांठी
सत्त कुपीन
में, सदा
फिरै निःसंक।
नाम
अमल माता रहै, .....
एक बार
प्रभु का नाम तुम्हारी
पकड़ में आ जाए.....नाम
अमल माता रहै.....फिर
मदमाते
रहो, फिर मस्त
रहो, अलमस्त
रहो, .....
.....गिनै
इंद्र को
रंक।।
मलूक
कहते हैं, अगर इंद्र
भी मेरे सामने
खड़ा हो तो
मुझे भिखारी
मालूम पड़ेगा। .....जिसको
परमात्मा मिल
गया, उसके
लिए इंद्र भी
भिखारी है।
धर्महि
का सौदा भला, दाया जग व्योहार।
रामनाम
की हाट ले, बैठा खोल किवार।।
कहते
हैं : और सब
सौदे करके देख
लिए, पाया
क्या? सब
जगत् का
व्यवहार थोथा
है। कौड़ियों
का है। हीरे—जवाहरात
ऐसे नहीं
मिलते!.....
धर्महि
का सौदा भला, .....
अगर
हीरे—जवाहरात
पाने हों तो
एक ही सौदा
करने योग्य है, वह धर्म का
सौदा है।
रामनाम
की हाट ले, बैठा खोल किवार।।
और
कहां चले जा
रहे हो, किन
दुकानों पर
भटक रहे हो, परमात्मा
दरवाजा खोले,
दुकान सजाए
बैठा है कि आओ!
परमात्मा
बिकने को राजी
है तुम्हारे
हाथ! तुम ज़रा
झोली फैलाओ!
औरहिं
चिंता करन दे, तू मत मारे
आह।
जाके
मोदी राम—से, ताहि कहा
परवाह।।
मलूक
कहते हैं कि
जब से हमने यह
राज जाना, यह कुंजी
हमारे हाथ लगी,
तब से हमने
यह समझ लिया
कि करने दो
औरों को चिंता,.....
औरहिं
चिंता करन दे, तू मत मारे
आह।.....
अब तो
आह हम से
निकलती ही
नहीं, चिंता
होती ही नहीं!
जाके
मोदी राम से, .....
हमारा
साहूकार तो
राम है, .....
जाके
मोदी राम—से, ताहि कहा
परवाह।।
अब हम
किसकी परवाह
करें? अब हम
छोटे—मोटे मोदियों
के पीछे नहीं
घूमते!
रामराय असरन सरन, मोहिं आपन करि लेहु।
इतनी
ही प्रार्थना
करो कि हे
प्रभु, हे
अशरण को शरण
देनेवाले, हे
अपात्र को
पात्र बना
लेने वाले, हे पापी को
पुण्यात्मा
कर लेनेवाले,
हे लोहे को
छू दो तो सोना
हो जाए ऐसे
पारस, मोहिं आपन करि लेहु!
मुझे अपना कर
लो! मुझे अपना
बना लो!
संतन
संग सेवा करौं, भक्ति—मजूरी
देहु।।
बस, इतना ही कर
दो कि संतों
के साथ मेरा
जोड़ बन जाए।
तुम तो हो
अदृश्य, तुम्हें
तो छुऊं तो
कैसे छुऊं, तुम्हें देखूं
तो कहां देखूं,
इतनी ही दया
कर दो—
संतन
संग सेवा करौं, .....
संतों
का संग मिल
जाए, संतों के
चरण मिल जाएं,
.....
.....भक्ति—मजूरी
देहु।".....
और कुछ
चाहता नहीं
मजदूरी में, बस भक्ति
बढ़ती रहे!
सुनते
हो? यह
प्यारा वचन
सुनते हो? गांठ
बांध कर रख
लेना। हीरों
से भी ज्यादा
जगमगाता वचन
है—
संतन
संग सेवा करौं, भत्ति—मजूरी देहू।।
और
ज्यादा
मांगता नहीं, मजदूरी में
भी और कुछ
नहीं मांग रहे
हैं, इतना
ही कि मेरी
भक्ति बढ़ती
रहे, मेरी
प्रार्थना
गहन होती रहे!
भक्ति—मजूरी
दीजिए, कीजै भवजल
पार।
बोरत
है माया मुझे, गहे
बांह
बरियार।।
भक्ति
की मजूरी
इसलिए मांगता
हूं, कहते हैं,
मलूक, क्योंकि
भक्ति की नाव
ही मुझे इस
भवसागर के पार
ले जा सकती
है। अन्यथा
माया मुझे
जबर्दस्ती डुबाने की
कोशिश में लगी
है.....माया का
अर्थ हैः
मूर्छा।.....मैं
मूर्छा में
डूबा जा रहा
हूं, मुझे
जगाओ!
एक
सुंदर
अध्यापिका की
आवारगी की
चर्चा जब स्कूल
में बहुत होने
लगी तो स्कूल
की मैनेजिंग कमेटी
ने दो सदस्यों
को जांच—पड़ताल
का काम सौंपा।
ये दोनों
सदस्य उस
अध्यापिका के
घर पहुंचे।
सर्दी अधिक थी, इसलिए एक
सदस्य बाहर
लान में ही
धूप सेंकने के
लिए खड़ा हो
गया और दूसरे
सदस्य से उसने
कहा कि वह खुद
ही अंदर जाकर
पूछताछ कर ले।
एक घंटे के बाद
वह सज्जन बाहर
आए और
उन्होंने
पहले सदस्य को
बताया कि
अध्यापिका पर
लगाए गए सारे
आरोप बिल्कुल
निराधार हैं।
वह तो बहुत ही
शरीफ और
सच्चरित्र महिला
है।
इस पर
पहला सदस्य
बोला, "ठीक
है, तो फिर
हमें चलना
चाहिए। मगर यह
क्या? तुमने
केवल अंडरवीयर
ही क्यों पहन
रखी है? जाओ,
अंदर जाकर फुलपेंट
तो पहन लो।"
यहां
होश किसको?
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक रात लौटा।
जब उसने अपना चूड़ीदार
पाजामा
निकाला तो
पत्नी बड़ी
हैरान हुई; अंडरवीयर नदारद!! तो
उसने पूछा, "नसरुद्दीन अंडरवीयर
कहां गया?"
नसरुद्दीन
ने कहा कि अरे!
जरूर किसी ने
चुरा लिया!!
अब एक
तो चूड़ीदार
पाजामा! उसमें
से अंडरवीयर
चोरी चला जाए
और पता भी
नहीं चला!! चूड़ीदार
पाजामा नेतागण
पहनते ही
इसीलिए हैं कि
कोई कितना ही
खींचे, निकल
न सके! पहनो तो
दो आदमी पहनाने
को चाहिए, निकालो
तो चार आदमी
निकालने को
चाहिए! और
इनका अंडरवीयर
चोरी चला गया!!
मगर
होश किसको है?
क्या
लोग कह रहे
हैं? कैसे लोग
जी रहे हैं? लोगों के
जीवन को अगर
गौर से देखो
तो एक बात निचोड़
की मिलेगीः
मूर्छित, बेहोश
चले जा रहे
हैं! नहीं
पक्का पता है
कौन हैं, नहीं
पक्का पता है
कहां जा रहे
हैं? नहीं
पक्का पता है किसलिए जा
रहे हैं? पहुंच
कर क्या
करेंगे, इसका
भी कुछ पक्का
पता नहीं है।
दौड़ रहे हैं, बड़ी आपाधापी
है। किसी को
रोककर पूछो कि
जीवन का अर्थ
क्या है, तो
वह कहता हैः
समय नहीं है!
बेकार की
बातें न करो!
काम की बातें
करो!
मैं
छोटा था तो
मैं हर किसी
से पूछता था
कि जीवन का
अर्थ क्या है? तो वे कहते, बड़े हो
जाओगे, सब
समझ में आ
जाएगा। तो जिन—जिन
ने मुझसे कहा
था, जब मैं
बड़ा हो गया, मैं उनसे
फिर पूछता कि
अब मैं बड़ा भी
हो गया, जीवन
का अर्थ क्या
है? तो वे
कहते, तुम
भी हद के हो!
आमतौर से लोग
बड़े हो जाते
हैं फिर वे यह
बात नहीं
पूछते।
क्योंकि तब तक
ये समझ जाते
हैं कि कहां
का अर्थ, कहां
का क्या! जीवन
की धमाचौकड़ी
में सब भूल ही
जाते हैं।
हमें पता नहीं
है, फिर
उन्होंने
कहा। मैंने
कहा, तुमने
यह पहले ही
क्यों नहीं कह
दिया? तुमने
जब कहा था बड़े
हो जाओगे तब
पता चलेगा, तभी मुझे
साफ था कि
तुम्हें पता
नहीं है, सिर्फ१३२
टाल रहे हो।
यह
स्वीकार करने
की कठिनाई है
कि मुझे मालूम
नहीं।
लेकिन
सत्य के खोजी
को तथ्यों को
स्वीकार करना
आना चाहिए।
अपने अज्ञान
की स्वीकृति
ज्ञान की तरफ
पहला चरण है।
बोरत
है माया मुझे, गहे
बांह
बरियार।।
जबर्दस्ती
मेरी बांह पकड़
कर मूर्छा
मुझे डुबाए
लेती है। जगाओ
मुझे! होश दो
मुझे! भक्ति
दो! भाव दो!
मेरी आंखें
आकाश की तरफ उठें, पृथ्वी
में ही गड़ी
न रह जाएं!
सभा के
बाद एक दिन
नेताजी अपने सेक्रेटरी
पर बरस पड़े।
बोले, "उल्लू
के पट्ठे!
तुमने मुझे
इतना लंबा
भाषण क्यों
लिखकर दिया? भाषण में कई
बार तो बहुत
हूटिंग हुई।
लोगों ने केले
के छिलके
फेंके, सड़े अंडे फेंके,
जूते घिसे,
आवाजें लगाईं,
कोई कुत्ते
की बोली में
बोले, कोई
बिल्ली की
बोली में बोले;
यह तुमने
किस तरह का
भाषण लिखा? और इतना
लंबा भाषण कि
मैं खत्म भी
करना चाहूं तो
वह खत्म न हो।"
सेक्रेटरी
ने
क्षमायाचना
करते हुए कहा, "नेताजी, भाषण
तो वह लंबा
नहीं था। हां,
इतनी गलती
जरूर मुझसे हो
गयी कि मैंने
भाषण की चारों
कापियां
आपको दे दीं।
और आप मूल
प्रति के साथ—साथ
कार्बन कापियां
भी पढ़ते चले
गए। वह तो आप पिटे नहीं,
यही बहुत
है!"
होश
किसको है? लोग जीए जा
रहे हैं, कहे
जा रहे हैं, चले जा रहे
हैं, बोले
जा रहे हैं, हजार तरह के
काम—धाम किए
जा रहे हैं, मगर होश
किसे है? ध्यान
किसे है कि
क्या कर रहे
हैं, क्यों
कर रहे हैं?
भक्ति
का अर्थ होता
हैः जागृति, होश!
प्रेम
नेम जिन ना कियो, जीतो नाहीं मैन।
अलख
पुरुष जिन ना लख्यो, छार परो तेहि
नैन।।
बड़ी
मूल्य की बात
कह रहे हैं।
कह रहे हैं कि
जिन्होंने
प्रेम का नियम
न जाना और
जिन्होंने मन
के ऊपर उठने
की कला न सीखी, उन्होंने
अलख पुरुष को
नहीं देखा।
उन्होंने परमात्मा
को नहीं देखा।
परमात्मा
को देखने के
दो ही उपाय
हैं। एक ही उपाय
के दो हिस्से
हैं, एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। मन
से ऊपर उठो और प्रेम
में प्रवेश
करो। मन से जो
ऊपर उठता है, वही प्रेम
में प्रवेश
करता है। मन
को छोड़ो
तो प्रेम का
नियम आए, प्रेम
की जीवनशैली
आए।
प्रेम
नेम जिन ना कियो, जीतो नाहीं मैन।
अलख
पुरुष जिन ना लख्यो, छार परो तेहि
नैन।।
मलूकदास
कहते हैं, उस आदमी ने
जिसकी आंखों
में मन ही मन
रहा, विचार
ही विचार रहे,
मूर्छा ही
मूर्छा रही, जिसने कभी
प्रेम की पुलक
न जानी, ज्योति
न जानी, जिसने
कभी भक्ति का
रस न जाना, उसने
परमात्मा को
तो देखा ही
नहीं। मन से
परमात्मा
नहीं देखा
जाता। प्रीति
से देखा जाता
है। प्रीति
हृदय की बात
है, मन की
नहीं। और
जिसने
परमात्मा
नहीं जाना, समझ लेना
उसकी आखों
में.....
.....छार
परो तेहि
नैन।।
उसकी
आंखों में
आंखें नहीं
हैं; उसकी
आंखें फूटी
हैं; छार
पड़ा है उसकी
आंखों में।
जैसे नमक किसीने
उसकी आंखों
में डाल दिया
हो। कुछ उसे
दिखाई पड़ता
नहीं है। अंधा
है वह। आंखें
होते हुए अंधा,
कान होते
हुए बहरा।
जीवन होते हुए
मृत।
रात
न आवै नींदड़ी, थरथर कांपै
जीव।
ना
जानूं क्या करैगा, जालिम मेरा
पीव।।
मलूक
कहते हैं: जब
प्रभु की तरफ
प्रेम की थोड़ी—सी
धार बहनी शुरू
होगी, तो
रात की नींद
खो जाएगी.....
रात
न आवै नींदड़ी, थरथर कांपै
जीव।
.....और
बड़ी आतुरता
में, बड़ी
व्याकुलता में,
बड़ी विरह
में थरथर जीया
कांपेगा।
ना
जानूं क्या करैगा, जालिम मेरा
पीव।।
परमात्मा
पता नहीं क्या
करनेवाला है? क्या
होनेवाला है?.....इसके पहले
कि कोई
व्यक्ति
परमात्मा को
उपलब्ध हो, एक घड़ी
बीतती है
मध्यकाल की, जिसको विरह
की कहते हैं, संसारी और
संत के बीच एक
अंतराल है, वह अंतराल
विरह का है; संसार छूट
जाता है और
परमात्मा हाथ
नहीं लगता; उस क्षण
प्राण थर—थर
कांपते हैं।
कुछ सूझता
नहीं।
क्योंकि जहां
पैर जमे थे कल
तक, वह
जमीन भी गई और
अभी नई जमीन
मिली नहीं। उन
घड़ियों
में ही
सद्गुरु की
जरूरत होती है
कि हाथ को संभाले
रहे। कि भरोसा
देता रहे। कि
कहता रहे, "चरैवेति,
चरैवेति; चलते चलो, चलते चलो, मत घबड़ाओ,
सुबह दूर
नहीं है, रात
जितनी अंधेरी
हो रही है, सुबह
उतनी करीब आ
रही है।
हरी
डारि ना तोड़िए, लागै छूरा
बान।
दास
मलूका
यों कहै, अपना—सा जिव
जान।।
मत दो
किसी को दुःख।
हरी डाल भी मत
तोड़ो वृक्ष
से। क्योंकि
वहां भी
परमात्मा का
ही वास है; एक ही जीवन
व्याप्त है।
किसी को दुःख
न दो, पीड़ा
न दो। क्योंकि
इस तरफ पीड़ा
दिए चले जाओ और
वहां मंदिर
में
प्रार्थना
किए चले जाओ, तो
प्रार्थना
कभी पूरी नहीं
होगी। झूठी है,
झूठी ही
रहेगी।
एक नाथ
लौटते थे काशी
से गंगाजल
लेकर। बड़े
दिनों की
अभिलाषा थी कि
काशी का
गंगाजल लेकर रामेश्वरम्
में चढ़ाएं।
और रास्ते में
मरुस्थल पड़ा, और भी
तीर्थयात्री
साथ थे, सब
अपना—अपना
गंगाजल लिए
चले जा रहे
थे। एक गधा तड़फ
रहा है, मर
रहा है। और सब
तो बच कर निकल
गए—किसको गधे
से कुछ लेना—देना
है—लेकिन एकनाथ
ने अपना
गंगाजल गधे को
पिला दिया।
लोगों ने कहा,
यह क्या
करते हो? नास्तिक
हो? अरे, जो लाए हो रामेश्वरम्
में चढ़ाने
के लिए, वह
गधे को चढ़ा
रहे हो? जो
शिव के मंदिर
में चढ़ना
है, उस को
गधे को पिला
रहे हो?
एकनाथ
ने कहा कि तुम
अंधे हो; अब रामेश्वरम्
जाने की जरूरत
नहीं, जिसके
लिए मैं जल
लाया था, वह
यहीं आ गया।
मेरा काम पूरा
हो गया। अब
मैं यहीं से
घर वापिस जाता
हूं। तुम जाओ रामेश्वरम्।
और मैं तुमसे
कहे देता हूं,
तुम्हें रामेश्वरम्
का जो मालिक
है, वहां
मिलेगा नहीं,
क्योंकि वह
यहां पड़ा है; वह गधा होकर
यहां मौजूद
है। और एकनाथ
वहीं से लौट
आए।
आज
किसी और का तो
नाम भी याद
नहीं है कि
बाकी जो तीर्थयात्री
थे, वे कहां
गए? रामेश्वरम् में चढ़ा
दिया होगा जल
जाकर
उन्होंने; लेकिन
एकनाथ एक
ज्योतिर्मय प्रज्ञापुरुष
हो गए। और एकनाथ
को सब से
महत्त्वपूर्ण
अनुभव उस गधे
को पानी
पिलाते वक्त
हुआ। क्योंकि
है तो अंततः
वही। उसके
अतिरिक्त और
कोई भी नहीं
है।
जे
दुखिया संसार
में, खोवो तिनका दुक्ख।
दलिद्दर
सौंप मलूक को, लोगन दीजै सुक्ख।।
मलूक
दास कहते हैं:
अगर तुम्हें
देने की ही
पड़ी हो बहुत, दुःख किसी
को, तो
मुझे दे जाओ।
लेकिन दूसरों
को सुख देना।
दुःख देने की
आदत ही पड़ी हो,
तो मुझे दे
जाओ, मुझे
सता लो।
यही तो
आधार है जीसस
के संबंध में
इस बात के कहे
जाने का कि
उन्होंने
सारे संसार की
पीड़ा अपने ऊपर
ले ली। यह
प्रतीक है।
सूली पर चढ़ना, सारी दुनिया
की सूली जैसे
खुद झेल ली।
इस जगत् में
जिन्होंने भी
परमात्मा को
जाना है, उन्होंने
अलग—अलग रूपों
में, अपने—अपने
ढंगों से। सभी
सूली पर चढ़ें,
ऐसा कुछ
जरूरी नहीं।
बुद्ध सूली पर
नहीं चढ़े, लेकिन
बुद्ध की सूली
जीसस की सूली
से ज्यादा कठिन
है। जीसस की
सूली तो घड़ी
भर में निपट
गई, बुद्ध
बयालीस साल
सूली पर चढ़े
रहे। क्योंकि
बयालीस साल लोगों
की गालियां सहीं।
जीसस की सूली
मेरी दृष्टि
में सरल है।
निपट गई, घड़ी
भर की बात थी।
लेकिन बुद्ध
को बयालीस साल
गालियां सहनी
पड़ीं, पत्थर
सहने पड़े।
मलूक
कहते हैं कि
मुझे दे जाओ
दुःख, अगर
देने की ही
बहुत आदत पड़
गई हो, बिना
दिए मन मानता
ही न हो; गाली
ही देनी हो तो
मुझे दे जाओ, कांटे ही
फेंकने हों तो
मुझ पर फेंक
जाओ, लेकिन
दूसरों को मत
देना दुःख।
मलूक
वाद न कीजिए, क्रोधै देहु बहाय।
मलूक
कहते हैं: और
व्यर्थ के वाद—विवाद
में न पड़ो।.....ये
अपने शिष्यों
को दिए गए वचन
हैं।.....क्योंकि
वाद—विवाद से
कुछ सिद्ध
होता नहीं।
किसने परमात्मा
को विवाद से
सिद्ध किया है? और कौन
विवाद से
परमात्मा को
असिद्ध कर सका
है? यह बात
ही वाद—विवाद
की नहीं है, जानने की है,
अनुभव की
है। और अनुभव
भी तर्क से
नहीं होगा, ध्यान से
होगा। अंधा
आदमी विवाद
करता रहे
प्रकाश के
संबंध में, जितना चाहे
उतना करता रहे,
मगर विवाद
से कुछ प्रकाश
का अनुभव नहीं
होगा। कितनी
ही चर्चा करो
प्रकाश की, अंधेरा
रहेगा, दीया
नहीं जलेगा।
दीया रख कर
बैठे रहो और
प्रकाश—प्रकाश
दोहराते रहो,
मर जाओ
दोहराते—दोहराते,
दीए की बाती
में ज्योति
नहीं आएगी। और
अंधा अगर
जिद्दी हो तो
कह सकता है
प्रकाश नहीं
है; और तुम
सिद्ध न कर
पाओगे। और
हालांकि तुम
जानते हो कि
प्रकाश है।
तुम देख रहे
हो कि प्रकाश
है। तुम यह भी
जानते हो कि
अंधा भी
प्रकाश से घिरा
हुआ है, मगर
सिद्ध न कर
सकोगे। अंधे
की भी आंख ठीक
हो, आंख का
इलाज हो, औषधि
मिले तो ही
कोई उपाय है।
बुद्ध
ने कहा हैः
मैं वैद्य हूं, विचारक
नहीं। नानक ने
भी कहा है कि
वैद्य हूं, विचारक नहीं;
औषधि देता
हूं, उपदेश
नहीं; उपचार
करता हूं, उपदेश
नहीं।
क्योंकि यह
प्रश्न उपचार
का है। तुम
बीमार हो।
आध्यात्मिक
रूप से बीमार
हो। तुम्हें
एक तरह की
औषधि चाहिए।
वाद—विवाद से
क्या होगा? हां, यह
हो सकता है कि
कोई अगर
ज्यादा वाद—विवादी
हो तो शायद
तुम्हारी
बोलती बंद कर
दे। मगर बोलती
बंद कर देने
से तुम्हारा
हृदय तो रूपांतरित
नहीं होगा!
भीतर तो आग
उबलती रहेगी।
और यह भी हो
सकता है कि
तुम नरक के भय
से या स्वर्ग
के प्रलोभन से
परमात्मा को
मान लो, मोक्ष
को मान लो, लेकिन
भीतर तो संदेह
बना ही रहेगा।
भीतर तो शक—सुबह
चलता ही
रहेगा। कौन
जाने ऐसा हो, ऐसा न हो! जो
लोग कहते हैं,
झूठ कहते
हों! या झूठ न
कहते हों, खुद
ही धोखा खा गए
हों, किसी
भ्रांति में
पड़ गए हों!
तुम्हारे
भीतर संदेह की
एक अंतर्धारा
बहती रहेगी।
इसलिए
ठीक कहते हैं मलूकः
मलूक
वाद न कीजिए, क्रोधै देहु बहाय।
और वाद
से व्यर्थ
क्रोध बढ़ेगा, झगड़ा बढ़ेगा।
लोगों को इसकी
थोड़े चिंता है
कि सत्य क्या
है, इसकी
ज्यादा चिंता
है कि मेरी
बात सत्य होनी
चाहिए। मैं
सत्य हूं। लोग
विवाद करते
हैं तब असली
में यह नहीं
कहते वे कि
मेरी बात सत्य
है, वे यह
कह रहे हैं कि
मेरी बात, मेरी
बात और असत्य
हो सकती है?! बात से कुछ
लेना—देना
नहीं है, बात
कोई भी हो, मगर
मेरी है तो
सत्य होनी
चाहिए।
अहंकार संयुक्त
है। सारा विवाद
अहंकार का
विवाद है।
सत्य की शोध
से इसका कोई
संबंध नहीं
है।
हार
मानु
अनजान तें, बकबक मरै
बलाय।।
इससे
तो बेहतर, अपने
शिष्यों को
कहते हैं, हार
मान लेना।
देखो कि कोई
अनजान
अज्ञानी व्यर्थ
का विवाद करता
है, एकदम
हार ही मान
लेना। हार ही
जाना। लाओत्सू
ने भी यही कहा
है। बड़ी
अद्भुत बात
कही है लाओत्सू
ने। लाओत्सू
ने कहा हैः
मुझे कोई हरा
नहीं सकता।
क्योंकि तुम हराओ, उसके
पहले मैं
चारों खाने
चित! तुम्हें
मैं मेहनत ही
नहीं करने
देता; तुम
नाहक मेहनत कर
रहे हो, मैं
चारों खाने
चित! जैसा कभी—कभी
छोटे बच्चे के
साथ बाप कुश्ती
लड़ता है। खेल—खेल
में। अब छोटे—बच्चे
से कुश्ती लड़ोगे
तो उसे कोई
चित करके उसकी
छाती पर थोड़े
ही बैठोगे? अगर ऐसा कोई
बाप करे तो वह मूढ़ है।
छोटे बच्चे के
साथ कुश्ती
लड़ता है तो वह
खेल है। जल्दी
ही थोड़ा लड़—झगड़
कर—एकदम भी
नहीं लेट जाता,
क्योंकि
एकदम लेट जाए
तो बच्चे को
भी शक हो जाए—तो
बच्चे को यह
भ्रांति देने
के लिए कि
नहीं, देख,
तेरे को
बराबर सम्मान
दे रहा हूं, तुझे समान
मान रहा हूं, थोड़े हाथ—पैर
चलाता है और
फिर लेट जाता
है। और बच्चा
उसकी छाती पर
बैठ कर
प्रसन्न हो
लेता है।
मलूक
कहते हैं, हो लेने दो
प्रसन्न, अज्ञानी
को प्रसन्न हो
लेने दो; बेचारे
को प्रसन्नता
मिलती भी कहां
है? तुम
हार ही जाओ! और
कभी—कभी बड़ा
अद्भुत अनुभव
होगा। अगर तुम
बिना किसी
विवाद के
चुपचाप हार
मान लो तो तुम
अज्ञानी को भी
बड़ी बेचैनी
में डाल दोगे।
क्योंकि तुमने
उसकी अपेक्षा
के अनुकूल काम
नहीं किया। वह
रात सोचेगा, विचार करेगाः
बात क्या है?
केशवचंद्र
रामकृष्ण से
विवाद करने
गए। केशवचंद्र
ने कहाः
ईश्वर नहीं
है। राम—कृष्ण
ने कहाः
बिल्कुल ठीक। केशवचंद्र
बहुत चौंके।
यह आदमी कैसा!
वे आए थे
विवाद करने, पचास
आदमियों का
जत्था साथ लाए
थे, बड़े
पंडित थे, बड़े
ज्ञानी थे, बंगाल ने
थोड़े ही इस
तरह के
तर्कशास्त्री
पैदा किए हैं—और
रामकृष्ण बोलेः
बिल्कुल ठीक!
अब विवाद की
गुंजाइश ही न
रही। अब आगे
क्या करना? फिर बात छेड़ने
की कोशिश की केशवचंद्र
नेः
स्वर्ग नहीं
है, नरक
नहीं है, और
रामकृष्ण ने कहाः वाह—वाह!
यही नहीं, उठ—उठ
कर गले लगाएं!
कहें: क्या
बात कही!! क्या
पते की बात!
क्या लाखों की
बात! जो भीड़
आयी थी, वह
भी हतप्रभ
होने लगी। और केशवचंद्र
तो बिल्कुल
उदास हो गए; केशवचंद्र ने कहा, यह
मामला क्या है?
मैं विवाद
करने आया हूं
और आप मैं जो
कहता हूं, उसी
में हां भर
देते हैं। तो
विवाद हो कैसे?
रामकृष्ण
ने कहाः
तुम्हारी
विवाद की
क्षमता, तुम्हारी
कुशलता, तुम्हारी
तर्कप्रवणता,
मेरे लिए
प्रमाण है कि
ईश्वर है।
ईश्वर के बिना,
केशवचंद्र,
तुम कैसे हो
सकते थे? मैं
तो फूल को भी
देखता हूं तो
उसका मुझे
प्रमाण मिलता
है। और तुम
इतने अद्भुत फूल
हो! तो
तुम्हें
देखकर मुझे
उसका प्रमाण न
मिलेगा? इसलिए
तुम्हें गले
लगाता हूं!
गले लगाकर उस
को धन्यवाद
देता हूं कि
खूब भेजा! गजब
का आदमी भेज!
तुम्हें
देखकर मुझे
उसका प्रमाण
मिलता है। और
वही बोल रहा
है तुम्हारे
भीतर से, अब
उसको मैं
इंकार भी कैसे
करूं! अब अगर
वह यही खेल
खेलना चाहता
है तो यही
सही। हम तो हर
खेल में राजी
हैं। हम तो
उससे राजी
हैं। वह जो
खेल खिलाए!
अगर वह लुका—छिपी
खेलना चाहता
है, चलो
यही सही! आंख
के सामने खड़ा
है और कहता
हैः छिप गए; हम कहते हैं,
बिल्कुल
ठीक! कह रहे हो,
तुम मालिक
हो, हम तो
तुम्हारे
चाकर!
केशवचंद्र
उस रात सो न
सके। दूसरे
दिन सुबह फिर
पहुंचे और कहा
कि आप मुझे
कुछ समझाएं; आप ने मुझे
हरा दिया। एक
बात पक्की हो
गई कि मेरे
सारे तर्क दो कौड़ी के
हैं। क्योंकि
मेरे तर्को
ने मुझे वह
आनंद नहीं
दिया जो कल
मैंने आपकी आंखों
में देखा। और
प्रमाण तो आनंद
है। तर्क क्या
करेंगे। तर्को
का क्या
करूंगा? खाऊंगा,
पीऊंगा कि ओढूंगा? तुम्हें देख
कर भरोसा हो
गया कि कुछ और
भी है जो तर्को
के पार है।
हार
मानु
अनजान तें, बकबक मरै
बलाय।।
मूरख
को का बोधिए, मन में रहो
विचार।
पाहन
मारे क्या भया, जहं टूटै तरवार।।
कोई
पत्थर पर
तलवार मारता
है? इसलिए
मूरख के साथ
व्यर्थ सिर न फोड़ो।
रामकृष्ण ने
ठीक किया, मूरख
के साथ व्यर्थ
सिर न फोड़ा।
मूरख कोई छोटा—मोटा
मूरख नहीं था,
महामूरख था। पंडित
कोई छोटा—मोटा
पंडित नहीं था,
महापंडित
था। महापंडित
और महामूरख
का मेरे लिए
एक ही अर्थ
होता है।
शिष्ट भाषा
में कहो तो
महापंडित और
सीधी भाषा में
कहो तो महामूरख।
तैं
मत जानै
मन मुवा, तन करि डारा
खेह।
ताका
क्या इतबार है, जिन मारे
सकल बिदेह।।
और इस
देह का बहुत
भरोसा मत
लेना। मन का
भी बहुत भरोसा
मत करना, देह
का भी बहुत
भरोसा मत
करना।
तैं
मत जानै
मन मुवा, .....
यह मन
मर जाएगा। यह
मरा ही हुआ
है। यह सड़े—गले
कचरे को, यह
उधार, बासे सिद्धांतों
को, विचारों
को मत ढोओ।
और यह तन? यह
तो मिट्टी है
ही। उसकी क्या
अकड़? इस
मिट्टी में ये
मन के बबूले
उठ रहे हैं।
इस पानी में
ये मन की
लकीरें उठ रही
हैं। बनीं और मिटीं!
ताका
क्या इतबार है, जिन मारे
सकल बिदेह।।
इसका
भरोसा मत करो।
इनका जो भरोसा
कर ले, वह
विक्षिप्त
है। मगर सभी
ने इनका भरोसा
कर लिया है।
इसलिए इस
पृथ्वी पर
बहुत कम लोग
हैं जो विक्षिप्त
नहीं हैं। कभी
कोई बुद्ध, कोई नानक, कबीर, कोई
मलूक, कोई
रैदास, कोई
फरीद, बस
ऐसे थोड़े—से
इनेगिने लोग,
उंगलियों
पर गिने जा
सकें, ये
विक्षिप्त
नहीं हैं, बाकी
सब तो
विक्षिप्त
हैं।
एक बार
मोरारजी
देसाई एक
मानसिक
चिकित्सालय के
निरीक्षण के
लिए पहुंचे।
बात उन दिनों
की है जब वे
प्रधानमंत्री
थे। वे
चिकित्सालय
का निरीक्षण
कर ही रहे थे
कि अचानक
उन्हें किसी कार्यवश
अपने घर फोन
करना पड़ा। तो
उन्होंने
चिकित्सालय
से अपने घर
फोन किया।
लेकिन जब
बारबार फोन करने
पर भी फोन न
लगा, तो
उन्होंने
आपरेटर को डांटते
हुए कहा, "यह
फोन लग क्यों
नहीं रहा है? जानते नहीं
मैं कौन बोल
रहा हूं? मैं
इस देश का
प्रधानमंत्री
मोरारजी
देसाई बोल रहा
हूं।"
आपरेटर
बोला, "यह
तो पता नहीं
कि आप कौन बोल
रहे हैं, लेकिन
यह जरूर पता
है कि आप कहां
से बोल रहे हैं!"
पागलखाने
से बोल रहे
हैं! वहां कोई
एकाध मोरारजी
देसाई हैं!!
जब
विंस्टन
चर्चिल जिंदा
था तो
इंग्लैंड के पागलखानों
में आठ विंस्टन
चर्चिल बंद
थे। और जब
पंडित
जवाहरलाल
नेहरू जिंदा
थे, तो
हिंदुस्तान
के पागलखानों
में कम—से—कम
अस्सी
जवाहरलाल
नेहरू बंद थे।
एक दफे
तो ऐसा हुआ कि
एक पागलखाने
को देखने पंडित
जवाहरलाल
नेहरू गए। तो
उस पागलखाने
में एक आदमी
ठीक हो गया
था। तो
पागलखाने के
लोगों ने उसे
रोक रखा था कि
पंडितजी आते
हैं, उन्हीं
के हाथ से
तुम्हें
मुक्त करवाएंगे।
पंडितजी ने उस
पागल को माला
पहनाई, और
कहा कि मैं
बड़ा प्रसन्न
हूं, आनंदित
हूं कि तुम
स्वस्थ हो गए,
सब ठीक हो
गया, अब
तुम घर जाओ।
चलते—चलते उस
आदमी ने पूछा
कि लेकिन एक
बात मैं पूछना
भूल गया, आप
हैं कौन? स्वभावतः
जवाहरलाल ने
कहा कि मैं
पंडित जवाहरलाल
नेहरू, इस
देश का
प्रधानमंत्री।
वह पागल मुस्कराया,
उसने कहाः
चिंता न करें,
चिंता
बिल्कुल न
करें, आप
भी ठीक हो
जाएंगे। यही
बीमारी मुझे
थी, मगर
धन्य हैं इस
पागलखाने के
अधिकारी, तीन
साल में
ठिकाने लगा
दिया।
हालांकि भीतर
अभी भी कभी—कभी
लहर उठती है, मगर वह मार
मारी है कि
लहर को भीतर
दबा लेता हूं
कि भैया, यह
काम अब नहीं
करना! अब
बोलना ही मत!
अब कोई लाख मुझसे
पूछे कि आप
कौन हैं, मैं
कभी नहीं कहता
कि मैं पंडित
जवाहरलाल नेहरू
हूं। तभी तो
ये मुझे छोड़
रहे हैं!
तुम
अगर समझते हो
कि तुम शरीर
हो, तो तुम
पागलखाने से
बोल रहे हो।
तुम अगर समझते
हो कि तुम मन
हो, तो तुम
पागलखाने से
बोल रहे हो।
जब तक तुम न जानोगे
कि तुम
परमात्मा हो,
तब तक तुम
पागलखाने में
ही हो। सिर्फ
परमात्मा में
ही स्वास्थ्य
है।
स्वास्थ्य शब्द
बड़ा प्यारा
है। उसका अर्थ
होता हैः
स्वयं में
स्थित हो
जाना।
सुंदर
देही पायके, मत कोइ करै
गुमान।
काल
दरेरा खाएगा, क्या बूढ़ा
क्या ज्वान।।
सबको
खा जाता है
समय; बूढ़े को
भी, जवान
को भी; अकड़ो मत। सुंदर
देह पाकर
गुमान न करो।
सब मिट्टी हो
जाएगा।
सुंदर
देही देखिके, उपजत है अनुराग।
मढ़ी
न होती चाम की, तो जीवन
खाते काग।।
कुछ भी
नहीं है यहां।
चमड़ी चढ़ी
है, भीतर
मांस का लोथड़ा
है। अगर चमड़ी चढ़ी न होती
तो जिंदा कौवे
खा जाते। और
जैसे ही सांस उड़ी कि
कौवे ही
खाएंगे; कि
कीड़े—मकोड़े
खाएंगे; नहीं
तो आग में जलोगे।
इस पर क्या
अकड़ना? इस
पर क्या
इतराना? जब
तक अपने भीतर
छिपे शाश्वत
को न जान लो तब
तक सब इतराना
भ्रांत है। तब
तक सब भरोसा
गलत पर भरोसा
है। और गलत पर
भरोसा रखकर जो
जी रहा है, वही
संसारी है।
आदर
मान महत्त्व
सत, बालापन
को नेह।
यह
चारों तबहीं
गए, जबहिं कहा "कछु
देह"।।
इस
दुनिया के सब
नाते—रिश्ते
बस ऊपर—ऊपर के
हैं। जहां
किसी से कहा
कि भई, कुछ
दो, वहीं
मामले टूट
जाते हैं। पति
ने मांगा
प्रेम, कि
नाता गया; पत्नी
ने मांगा
प्रेम कि नाता
गया। यहां की
सब दोस्ती ऐसी
है कि मांगो
मत। हां, दूसरा
मांगे तो दो।
मांगना भर मत,
नहीं तो सब
दोस्ती गई।
यहां सब लोग
तुमसे दोस्ती
इसलिए जुटाए
हुए हैं कि
तुमसे कुछ
लूटना है; तुम्हें
कुछ देना थोड़े
ही है! यहां सब
संबंध शोषण के
हैं। कितने ही
अच्छे फूलों
से सजाओ, लेकिन सब
फूल झूठ हैं।
भीतर दुर्गंध
भरी है। यहां
सब संबंध मतलब
के हैं।
प्रभुताही
को सब मरैं, प्रभु को मरै
न कोय।.....
मलूक
का आखिरी सूत्रः
प्रभुताही
को सब मरैं, प्रभु को मरै
न कोय।
जो
कोई प्रभु को मरै, तो प्रभुता
दासी होय।।
प्यारा
है बहुत और
सार है उनके
सारे वचनों
का।
निष्पत्ति
है।
सब लोग
चाहते हैं कि
प्रभुता मिले, पद मिले, महत्त्व
मिले, महत्ता
मिले, यश मिलेष्ठ
प्रभुताही
को सब मरैं, प्रभु को मरै
न कोय .....
लेकिन
परमात्मा के
लिए कोई नहीं
चाहता। और मजा
यह है, जीवन
का अनूठा नियम
यह है—
जो
कोई प्रभु को मरै, .....
.....जो
प्रभु के लिए
मरता है.....
तो
प्रभुता दासी
होय।।
जो
परमात्मा के
लिए मरने को
राजी है, सारे
जगत् का सब
कुछ उसकी सेवा
में लीन हो
जाता है। और
जो प्रभुता के
लिए मर रहा है,
वह भिखारी
ही रहता है और
भिखारी ही
मरता है। खाली
हाथ आता है, खाली हाथ
जाता है। अगर
कुछ पाना हो
तो प्रभु की
खोज करो, प्रभुता
की नहीं।
प्रभुता तो
प्रभु की छाया
है। प्रभु मिल
गया तो
प्रभुता तो
अपने—आप मिल
जाती है।
लेकिन तुम
छाया खोजते
फिरते हो।
छायाएं कहीं
खोजी जाती हैं?
और छाया मिल
भी जाए, तो
उसके तुम
मालिक नहीं हो
सकते; क्योंकि
प्रभु कब हट
जाएगा, छाया
हट जाएगी।
एक
अफीमची ने एक
रात एक मिठाई
की दुकान से
मिठाई खरीदी; पुरानी होगी
कहानी, आठ
आने सेर मिठाई
मिलती थी, सेर
भर मिठाई ली।
पूरा नगद
रुपया था, दुकानदार
के पास टूटे
पैसे नहीं थे
तो उसने कहा
कि भाई, कल
आठ आने ले
लेना। अफीमची
नशे में था
फिर भी इतना
होश तो था, नशे
में भी इतना
होश तो रहता
है, कि
कहीं यह
अठन्नी पचा न
जाए! कहीं कल
बदल न जाए! तो
उसने गौर से
देख लिया सब
कि ठीक पहचान
कर लेनी जरूरी
है । तख्ता भी
पढ़ लिया उसकी
दुकान का कि
नाम क्या है।
हालांकि सब
अक्षर
डांवाडोल
दिखाई पड़ रहे
थे, सब
सारी दुनिया
घूमती मालूम
पड़ रही थी, मगर
फिर भी उसने
सब हिसाब
पक्का कर
लिया। लेकिन
फिर उसे खयाल
आया कि हो
सकता है, होशियार
आदमी है, कहीं
तख्ती बदल ले!
तो कुछ ऐसा
इंतजाम कर के
चलो कि तख्ती
भी बदल ले तो
भी कुछ फिक्र
नहीं। तो उसने
वैसा भी
इंतजाम कर
लिया।
दूसरे
दिन आया, और
आते ही से
एकदम दुकान
में घुस गया
और दुकानदार
की गरदन पकड़
ली और कहाः
हद हो गई, अठन्नी
के पीछे दुकान
बदल ली! दुकान
ही नहीं बदली,
धंधा भी बदल
लिया! तख्ता
तो बदला ही
बदला, अरे
जात तक बदल ली,
अठन्नी के
पीछे!! कहां
मिठाई की
दुकान कर रहे
थे और कहां आज
उस्तरा लिए
हजामत बना रहे
हो? वह नाई
तो बड़ा चौंका,
उसने कहा, कहां की
बातें कर रहे
हैं; कहां
की दुकान, कहां
की मिठाई? अफीमची
बोलाः
तुम किसी और
को बुद्धू
बनाना; वह
देखो भैंस; मैं कल ही
देख गया था कि
कोई ऐसी चीज
देख लो जो वहीं
की वहीं रहे!
भैंस वहीं
बैठी है, जहां
कल बैठी थी।
अब
भैंस का क्या
भरोसा? भैंस
उठ कर बैठ गई
होगी दूसरी
दुकान के
सामने!
तुम
छाया को पकड़ोगे, छाया का
मालिक तो हटता
रहेगा, छाया
तुम्हारे हाथ
न आएगी। बार—बार
हाथ में आती
लगेगी और छूट—छूट
जाएगी। यही तो
इस संसार का
विषाद है; विफलता
है, दुःख
है, पीड़ा
है, नरक
है। बारबार
लगता है, अब
मिला, अब
मिला और छूट
जाता है।
मालिक को क्यों
नहीं पकड़ लेते?
उस मालिक को
पकड़ लो, फिर
उसकी छाया
तुम्हारी है।
और उस
मालिक को पकड़ने
के लिए कहीं
दूर नहीं जाना
है, अपने
भीतर चलना है।
और मालिक को
पाने के लिए न तो
कोई बहुत बड़ी
बुद्धि की
आवश्यकता है,
न तर्क की
उस मालिक को
पाने के लिए सिर्फ
एक निर्मल, प्रेमल हृदय
की, भक्ति
की, भाव की
आवश्यकता है।
वह मालिक मिला
ही हुआ है। ज़रा
तुम्हारी
खोपड़ी में चल
रहे शोरगुल को
छोड़ो, तुम्हारी
खोपड़ी में चल
रही व्यस्तता
से अपने को
मुक्त करो, थोड़े शांत, शून्य और
मौन बनो, थोड़े
थिर होकर अपने
भीतर डुबकी लो,
और तुम पा
लोगे हीरों का
हीरा—जिसको
पाकर सब पा
लिया जाता है।
उद्दालक
का बेटा
श्वेतकेतु
आश्रम से
वापिस लौटा, गुरुकुल से,
शिक्षा
पाकर, उद्दालक
ने उससे पूछा,
बेटे, तू
सब पढ़ आया, लेकिन
तूने वह जाना
या नहीं जिसको
जान लेने से
सब जान लिया
जाता है? श्वेतकेतु
ने कहा, मैंने
भूगोल पढ़ी, इतिहास पढ़ा,
पुराण पढ़ा,
भाषा पढ़ी, व्याकरण पढ़ा,
काव्य पढ़ा,
सब पढ़ा, मगर
यह कौन—सा
शास्त्र है
जिसकी आप बात
कर रहे हैं? तो उद्दालक
ने कहा, बेटा
वापिस जा! तू
असली चीज तो
पढ़कर आया ही
नहीं। तूने
अभी अपने को
नहीं पढ़ा। ये
सब पढ़ना
ठीक है, दुनिया
में काम आता
है, लेकिन
दुनिया चार
दिन की है, और
चार दिन यूं
गुजर जाते हैं,
असली सत्य
तो भीतर है, जो शाश्वत
है, जो सदा
काम आएगा। तू
जा, तू उसे
पढ़ कर आ! तू
स्वयं को पढ़कर
आ! क्योंकि जो
स्वयं को पढ़ता
है, वहीं
ब्राह्मण है।
और उद्दालक ने
कहा कि हमारे
परिवार में
सचमुच के
ब्राह्मण
होते रहे, झूठे
ब्राह्मण
नहीं; पैदाइशी
ब्राह्मण
नहीं, अनुभव
से ब्राह्मण
होते रहे। हम
ब्रह्म को जानकर
ही अपने को
ब्राह्मण कहे
हैं; सिर्फ
ब्राह्मण —कुल
में पैदा होने
के कारण नहीं।
यह हमारे कुल
की परंपरा
नहीं, श्वेतकेतु,
तू जा! तू
ब्राह्मण
होकर लौट! तू
ब्रह्म को जानकर
आ!
ब्रह्म
तुम्हारे
भीतर छिपा
बैठा है। ज़रा
तलाशो, ज़रा पुकारो, ज़रा
आंखें गीली
करो, ज़रा आंसुओं से
भरो, ज़रा तुम्हारी
पुकार में
हार्दिकता
लाओ, और
तुम चकित हो
जाओगे, मालिकों
का मालिक सदा
से तुम्हारे
भीतर था और तुम
भिखमंगे
बने घूमते
रहे! इस सारे
विश्व का
साम्राज्य
तुम्हारा है,
क्योंकि
तुम उस मालिक
के हिस्से हो!
तुम दीन नहीं,
दरिद्र
नहीं।
तत्त्वमसि।
तुम वही हो।
मगर
"वह" होने के
लिए तुम्हें
एक शर्त पूरी
करनी पड़ेगीः
"रामदुवारे
जो मरे!"
तुम
जैसे हो ऐसे
तो तुम्हें मर
जाना होगा; तभी तुम
वैसे हो सकोगे
जैसे तुम्हें
होना चाहिए।
बूंद मिटे तो
सागर हो जाती
है; बीज
मिटे तो वृक्ष
हो जाता है; तुम मिटो
तो परमात्मा
प्रकट हो!
तुम्हारी
मृत्यु में ही
तुम्हारा
असली जीवन है।
आज
इतना ही।
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