अध्याय—(पिच्चासीवां)
मैं पांच
वर्ष तक बंबई
में अपने घर
अपने पिता तथा
बूढ़ी दादी के
साथ रहती हूं।
अपना काम मैं जारी
रखती हूं और लगभग
हर सप्ताह पूना
आती रहती हूं।
जब भी कभी संभव
होता है, मैं एकाध
महीने की लंबी
छुट्टियां
लेकर पूना में
समय बिताती हूं।
मैं लोगों को
विश्व के कोने
कोने से पूना
आकर संन्यास
में दीक्षित
होते देख
हैरान हूं।
भविष्य के
बारे में ओशो
का कथन' साकार
हो रहा है।
बंबई में
उन्होंने कहा
था, हजारों
लोग मेरी ओर
चल पड़े हैं।’
ओशो
हर रोज सुबह
एक महीना
हिंदी में और
एक महीना
इंग्लिश में
बोल रहे हैं।
हर शाम वे
लोगों को
व्यक्तिगत
रूप से उनके
निजी
प्रश्नों का
जवाब देने के
लिए मिलते हैं
और उसी समय वे
नऐ मित्रों को
संन्यास भी
देते हैं।
संन्यासियों
द्वारा बहुत
से नए—नए
ध्यान केंद्र
पूरे विश्व
में खोले जा
रहे हैं।
उनका
संदेश बंबई
में भी बहुत
तेजी से फैल
रहा है। और—और
मित्रों का
ओशो से परिचित
कराना ही मेरा
एकमात्र आनंद
है। जब मैं नए
लोगों से ओशो
के बारे में
बात करती हूं, तो
मुझे लगता है
कि कोई अंजान ऊजों
मेरा उपयोग एक
माध्यम की तरह
कर रही है।
मैं ऐसी—ऐसी
बातें कह जाती
हूं, जिनके
बारे मैं
मैंने कभी
सोचा भी नहीं,
और जिन्हें
मैं भी पहली
बार ही सुन
रही हूं।
ओशो
के प्रवचनों
की ऑडियो
टेप्स हर रोज
बंबई पहुंच
जाती हैं और
मित्र इकट्ठे
होकर अलग—अलग
जगहों पर
उन्हें सुनते
हैं। मैं यह
देखकर (बुश
हूं कि अब मैं
शारीरिक रूप
से ओशो के साथ
नहीं जुड़ी हुई
हूं। ओशो के
साथ मेरा
संबंध अब गहरा
चला गया है।
ध्यान करते
समय मैं खुद
को उनकी
मौजूदगी से घिरी
हुई महसूस
करती हूं। जब
भी मैं पूना
आती हूं तो
लगभग हमेशा ही
सांध्य—दर्शन
के समय उनसे
मिलने का अवसर
मिलता है। एक
दर्शन मीटिंग
में वे शे
कहते हैं कि
मुझे एक साल
और बंबई में
रहना होगा।
मैं
अपनी दादी की
देखभाल कर रही
हूं जो बिस्तर
से लगी हैं।
ओशो के संदेश
को सुनकर मुझे
पता चल जाता
है कि शायद
मेरी दादी एक
वर्ष और
जीएंगी और
अपने संचित
कर्म उनके साथ
पूरे करने के
लिए मुझे एक
वर्ष और उनके साथ
रहना होगा। जब
मैं छ: साल की
थी तभी मेरी
मां की मृत्यु
हो गई थी और तब
मेरी दादी ने
ही बड़े प्रेम
से मेरी परवरिश
की थी।
उन्होंने कभी
अपने ख्यालात
मुझ पर नहीं
लादे। प्रेम
के नाम पर
उन्होंने
मुझे मेरी तरह
से जीने की
पूरी
स्वंतत्रता
दी और मेरे मन
को किन्हीं भी
धारणाओं से
संस्कारित
नहीं किया।
मैं कह सकती
हूं कि मेरी
परवरिश एक
स्वतंत्र बच्चे
की तरह हुई और
मैं जो चाहती
थी,
कर सकती थी।
मेरा हृदय
मेरी दादी के
प्रति प्रेम व
अहोभाव से भरा
है। इस हालत
में मैं उनको
किसी भी कीमत
पर नहीं छोड
सकती, वरना
मैं पूरे जीवन
भर अपराधी
महसूस करती
रहूंगी। पाच
साल पहले जब
ओशो ने मुझे
घर पर ही रहने
को कहा था तो
यह बात शे साफ
नहीं थी।
लेकिन ओशो
हमारे आर—पार
वह सब देख
लेते हैं जिन
चीजों का हमें
भी बोध नहीं
होता।
मेरी
दादी का ठीक
ग्यारह महीने
बाद देहांत हो
जाता है। उनकी
मृत्यु के बाद, मैं
एक महीना और
घर पर ही रहती
हूं और फिर
पूना ओशो के
संबोधि दिवस
उत्सव के लिए
आती हूं। मैं
लक्ष्मी को
अपनी दादी की
मृत्यु के
बारे में
बताती हूं और
अगले ही दिन
मुझे ओशो का
संदेश मिलता
हे कि अब मुझे
बंबई नहीं
जाना है। मेरा
हृदय आनंद से
नाचने लगता हे।
ऐसा लगता है
जैसे किसी ने
पिंजरे के
द्वार खोल दिए
हों और मैं फिर
से खुले आकाश
में उड़ने के
लिए आजाद हूं।
अंतत मेरा समय
भी आ गया और अब
मैं फिर से अपने
सदगुरू के
नजदीक रहूंगी।
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