पथ पाथय—40
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय मां,
टिक्
टिक् टिक्.......घड़ी
फिर से चलनी
शुरु हो, गई है। वह
अपने में तो
चलती ही थी; मेरे लिए
बन्द हो गई थी
या ठीक ही कि
कहूं कि मैं
ही यहां बन्द
हो गया था
जहां कि उसका
चलना है!
एक
दूसरे समय में
चला गया था। आंखें
बंद किये बैठा
था कि स्वप्न—चित्र
चलने लगे थे।
दिव्य—स्वप्न।
देखता रहा, देखता
रहा......काल का एक
और ही क्रम था
और फिर काल—
क्रम ही टूट
गया था।
समय के
बाहर खिसक
जाना कैसा
आनंद है।
चित्त पर
चित्र बंद हो
जाते हैं।
उनका होना ही
काल है। वह
मिटे कि काल
मिटा फिर
शुद्ध वर्तमान
ही रह जाता है।
वर्तमान कहने
को समय का अंग
है; वस्तुत:
वह काल—क्रम
के बाहर है, अतीत है।
उसमें होना
स्व में होना
उस
जगत् से जब
लौटा हूं। सब
कितना शांत है।
दूर किसी पक्ष
का गीत चल रहा
है; पड़ौस
में कोई बच्चा
रोता है और एक
मुर्गा बोल
रहा है।
ओह! जीना
कितना आनंद है
और अब मैं
देखता हूं कि
मृत्यु भी आनंद
है क्योंकि
जीवन उस में
भी समाप्त
नहीं होता है।
वह भी जीवन की
एक स्थिति है।
दोपहर
2 मार्च
1962
रजनीश
के प्रणाम
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