माँ—
अण्डाणु
मीरदाद
:
मीरदाद चाहता
है कि इस रात
के सन्नाटे
में तुम
एकाग्र —चित्त
होकर माँ—अण्डाणु
के विषय में
विचार करो।
स्थान
और जो कुछ
उसके अन्दर है
एक अण्डाणु है
जिसका खोल समय
है। यही माँ —अण्डाणु
है।
जैसे
धरती को वायु लपेटे
हुए है, वैसे
ही इस अण्डाणु
को लपेटे हुए
है विकसित
परमात्मा.
विराट परमात्मा
— जीवन जो कि
अमूर्त, अनन्त
और अकथ है।
इस
अण्डाणु में
लिपटा हुआ है
कुण्डलित
परमात्मा, लघु—
परमात्मा —
जीवन जो मूर्त
है, किन्तु
उसी तरह अनन्त
और अकथ।
भले
ही प्रचलित
मानवीय
मानदण्ड के
अनुसार माँ —अण्डाणु
अमित है, फिर
भी इसकी
सीमाएँ हैं।
यद्यपि यह
स्वयं अनन्त
नहीं है, फिर
भी इसकी
सीमाएँ हर ओर
अनन्तता को
छूती हैं।
ब्रह्माण्ड
में जो भी
पदार्थ और जीव
हैं,
वे सब उसी
लघु —परमात्मा
को लपेटे हुए
समय—स्थान के
अण्डाणुओं से
अधिक और कुछ
नहीं, परन्तु
सबमें लघु—परमात्मा
प्रसार की
भिन्न—भिन्न
अवस्थाओं में
है। पशु के
अन्दर के लघु—परमात्मा
की अपेक्षा
मनुष्य के
अन्दर के लघु—परमात्मा
का और वनस्पति
के अन्दर के
लघु —परमात्मा
की अपेक्षा
पशु के अन्दर
के लघु—परमात्मा
का समय—स्थान
में प्रसार
अधिक है। और
सृष्टि में
नीचे —नीचे की
श्रेणियों
में
क्रमानुसार
ऐसा ही है।
दृश्य
तथा अदृश्य सब
पदार्थों और
जीवों का प्रतिनिधित्व
करते अनगिनत
अण्डाणुओं को
माँ —अण्डाणु
के अन्दर इस
क्रम में रखा
गया है कि प्रसार
में बड़े
अण्डाणु के
अन्दर उसके
निकटतम छोटा
अण्डाणु है, और
यही क्रम सबसे
छोटे अण्डाणु
तक चलता है।
अण्डाणुओं के
बीच में जगह
है और सबसे
छोटा अण्डाणु
केन्द्रीय नाभिक
है जो अत्यन्त
अल्प समय तथा
स्थान के अन्दर
बन्द है।
अण्डाणु
के अन्दर
अण्डाणु, फिर
उस अण्डाणु के
अन्दर
अण्डाणु, मानवीय
गणना से परे
और सब प्रभु
द्वारा अनुप्राणित
— यही ब्रह्माण्ड
है, मेरे
साथियों।
फिर
भी मैं महसूस
करता हूँ कि
मेरे शब्द
कठिन हैं, वे
तुम्हारी
बुद्धि की पकड़
में नहीं आ
सकते। और यदि
कभी शब्द
पूर्ण ज्ञान
तक ले जाने
वाली सीढ़ी के
सुरक्षित तथा
स्थिर डण्डे
बनाये गये
होते तो मुझे
भी अपने
शब्दों को
सुरक्षित तथा
स्थिर डण्डे
बनाने में
प्रसन्नता
होती। इसलिये
यदि तुम उन
ऊँचाइयों, गहराइयों
और चौड़ाइयों
तक पहुँचना
चाहते हो जिन
तक मीरदाद
तुम्हें
पहुँचाना
चाहता है,
तो बुद्धि से
बड़ी किसी
शक्ति के
द्वारा शब्दों
से बड़ी किसी
वस्तु का
सहारा लो।
शब्द, अधिक
से अधिक, बिजली
की कौंध हैं
जो क्षितिजों
की झलक दिखाती
हैं, ये उन
क्षितिजों तक
पहुँचने का
मार्ग नहीं हैं;
स्वयं
क्षितिज तो
बिलकुल ही
नहीं। इसलिये
जब मैं
तुम्हारे संमुख
माँ —अण्डाणु
और अण्डाणुओं
की, तथा
विराट —परमात्मा
और लघु —परमात्मा
की बात करता
हूँ तो मेरे
शब्दों को पकड
कर न बैठ जाओ, बल्कि कौंध
की दिशा में
चलो। तब तुम
देखोगे कि
मेरे शब्द
तुम्हारी
कमजोर बुद्धि
के लिये
बलशाली पख हैं।
अपने
चारों ओर की
प्रकृति पर
ध्यान दो।
क्या तुम उसे
अण्डाणु के
नियम पर रची
गई नहीं पाते
हो?
ही, अण्डाणु
में तुम्हें
सम्पूर्ण
सृष्टि की कुंजी
मिल जायेगी।
तुम्हारा
सिर,
तुम्हारा
हृदय, तुम्हारी
आंख अण्डाणु
हैं। अण्डाणु
है हर फूल और
उसका हर बीज।
अण्डाणु है
पानी की एक
बूँद तथा
प्रत्येक प्राणी
का प्रत्येक
वीर्याणु। और
आकाश में अपने
रहस्यमय
मार्गों पर चल
रहे अनगिनत
नक्षत्र क्या
अण्डाणु नहीं
हैं जिनके
अन्दर प्रसार
की भिन्न—भिन्न
अवस्थाओं में
पहुँचा हुआ
जीवन का सार —
लघु —
परमात्मा —
निहित है? क्या
जीवन निरन्तर
अण्डाणु में
से ही नहीं निकल
रहा है और
वापस अण्डाणु
में ही नहीं
जा रहा है?
निःसन्देह, चमत्कारपूर्ण
और निरन्तर है
सृष्टि की
प्रक्रिया।
जीवन का
प्रवाह माँ—अण्डाणु
की सतह से
उसके केन्द्र
तक, तथा
केन्द्र से
वापस सतह तक
बिना रुके
जारी रहता है।
केन्द्र—स्थित
लघु—परमात्मा जैसे—जैसे
समय तथा स्थान
में फैलता
जाता है, जीवन
के निम्नतम
वर्ग से जीवन
के उच्चतम
वर्ग तक एक
अण्डाणु से
दूसरे
अण्डाणु में
प्रवेश करता
चला जाता है।
सबसे नीचे का
वर्ग समय तथा
स्थान में
सबसे कम फैला
हुआ है और
सबसे ऊँचा
वर्ग सबसे
अधिक। एक
अण्डाणु से
दूसरे
अण्डाणु में
जाने में लगने
वाला समय
भिन्न—भिन्न
होता है — कुछ
स्थितियों
में पलक की एक
झपक होता है
तो कुछ में आ युग।
और इस प्रकार
चलती रहती है
सृष्टि की
प्रक्रिया जब
तक माँ —अण्डाणु
का खोल टूट
नहीं जाता, और लघु—परमात्मा
विराट—परमात्मा
होकर बाहर
नहीं निकल आता।
इस
प्रकार जीवन
एक प्रसार, एक
वृद्धि और एक
प्रगति है, लेकिन उस
अर्थ में नहीं
जिस अर्थ में
लोग वृद्धि और
प्रगति का
उल्लेख प्राय:
करते हैं, क्योंकि
उनके लिये
वृद्धि है
आकार में बढ़ना,
और प्रगति
आगे बढ़ना। जब
कि वास्तव में
वृद्धि का
तात्पर्य है
समय और स्थान
में सब तरफ
फैलना, और
प्रगति का
तात्पर्य है
सब दिशाओं में
समान गति, पीछे
भी और आगे भी, और नीचे तथा
दायें—बायें
और ऊपर भी।
अतएव चरम
वृद्धि है
स्थान से परे
फैल जाना और चरम
प्रगति है समय
की सीमा से
आगे निकल जाना,
और इस
प्रकार विराट —परमात्मा
में लीन हो
जाना और समय
तथा स्थान के
बन्धनों में
से निकल कर
परमात्मा की
स्वतन्त्रता
तक जा पहुँचना
जो
स्वतन्त्रता
कहलाने योग्य एकमात्र
अवस्था है। और
यही है वह
नियति जो
मनुष्य के
लिये निर्धारित
है।
इन
शब्दों पर
ध्यान दो, साधुओं।
यदि तुम्हारा
रक्त तक
इन्हें
प्रसन्नतापूर्ण
ग्रहण न कर ले,
तो सम्भव है
कि अपने आप को
और दूसरों को
स्वतन्त्र
कराने के
तुम्हारे
प्रयत्न
तुम्हारी और
उनकी जंजीरों
में और अधिक
कड़ियाँ जोड़
दें। मीरदाद
चाहता है कि
तुम इन शब्दों
को समझ लो ताकि
इन्हें समझने
में तुम सब
तड़पने वालों
की सहायता कर
सकी। मीरदाद
चाहता है कि
तुम
स्वतन्त्र हो
जाओ ताकि उन
सब लोगों को
जो आत्म —विजयी
और स्वतन्त्र
होने के लिये
तड़प रहे हैं तुम
स्वतन्त्रता
तक पहुँचा सकी।
इसलिये
मीरदाद
अण्डाणु के इस
नियम को और
अधिक स्पष्ट
करना चाहेगा,
खासकर जहाँ
तक इसका
सम्यश्व
मनुष्य से है।
मनुष्य
से नीचे जीवों
के सब वर्ग
सामूहिक अण्डाणुओं
में बन्द हैं।
इस तरह पौधों
के लिये उतने
ही अण्डाणु
हैं जितने
पौधों के प्रकार
हैं, जो अधिक
विकसित हैं
उनके अन्दर
सभी कम विकसित
बन्द हैं। और
यही स्थिति
कीड़ों, मछलियों
और स्तनपायी
जीवों की है, सदा ही जीवन
के एक अधिक
विकसित वर्ग
के अन्दर उससे
नीचे के सभी
वर्ग बन्द
होते हैं।
जैसे
साधारण अण्डे
के भीतर की
जर्दी और
सफेदी उसके
अन्दर के प्ले
के भूण का
पोषण और विकास
करती है, वैसे
ही किसी भी
अण्डाणु में
बन्द सभी
अण्डाणु उसके
अन्दर के लघु —परमात्मा
का पोषण और
विकास करते
हैं।
प्रत्येक
अण्डाणु में
समय —स्थान का
जो अंश लघु—परमात्मा
को मिलता है, वह
पिछले
अण्डाणु में
मिलने वाले
अंश से थोड़ा भिन्न
होता है।
इसलिये समय —स्थान
में लघु —परमात्मा
के प्रसार में
अन्तर होता है।
गैस में वह
बिखरा हुआ और
आकारहीन होता
है, पर तरल
पदार्थ में
अधिक घना हो
जाता है और
आकार धारण
करने की स्थिति
में आ जाता है,
जब कि खनिज
में वह एक
निश्चित आकार
और स्थिरता
धारण कर लेता
है। परन्तु इन
सब स्थितियों
में वह जीवन
के गुणों से
रहित होता है
जो उच्चतर
श्रेणियों
में प्रकट
होते हैं।
वनस्पति में
वह ऐसा रूप
अपनाता है
जिसमें बढने,
अपनी
संख्या—वृद्धि
करने और महसूस
करने की
क्षमता होती
है। पशु में
वह महसूस करता
है, चलता
है और सन्तान
पैदा करता है,
उसमें
स्मरण —शक्ति
होती है और
सोच —विचार के
मूलतत्त्व भी।
लेकिन मनुष्य
में, इन सब
गुणों के
अतिरिक्त, वह
एक
व्यक्तित्व
और सोच विचार
करने, अपने
आप को
अभिव्यक्त
करने तथा सृजन
करने की
क्षमता भी
प्राप्त कर
लेता है।
निःसन्देह
परमात्मा के
सृजन की तुलना
में मनुष्य का
सृजन ऐसा ही
है जैसा किसी
महान वास्तुकार
द्वारा
निर्मित एक
भव्य मन्दिर
या सुन्दर
दुर्ग की
तुलना में एक
बच्चे द्वारा
बनाया गया ताश
के पत्तों का
घर। किन्तु है
तो वह फिर भी
सृजन ही।
प्रत्येक
मनुष्य एक अलग
अण्डाणु बन
जाता है, अधिक
विकसित
मनुष्य में कम
विकसित मानव —अण्डाणुओं
के साथ सब पशु,
वनस्पति
तथा उनसे
निचले स्तर के
अण्डाणु, केन्द्रीय
नाभिक तक, बन्द
होते हैं। जब
कि सबसे अधिक
विकसित
मनुष्य में —
आत्म—विजेता
में — सभी मानव
अण्डाणु और
उनसे निचले
स्तर के सभी
अण्डाणु भी
बन्द होते हैं।
किसी
मनुष्य कै।
अपने कन्दर
बन्द रखने.
वाले अण्डाणु
का विस्तार उस
मनुष्य के समय—स्थान
के क्षितिजों
के विस्तार से
नापा जाता है।
जहाँ एक
मनुष्य की समय
की चेतना में
उसके शैशव से
लेकर वर्तमान
घड़ी तक की
अल्प अवधि से
अधिक और कुछ
नहीं समा
सकता. और उसके
स्थान के
क्षितिजों के
घेरे में उसकी
दृष्टि की
पहुँच से परे
का कोई पदार्थ
नहीं आता, वहाँ
दूसरे
व्यक्ति के
क्षितिज
स्मरणातीत भूत
और सुदूर
भविष्य को, तथा स्थान
की लम्बी दूरियों
को जिन पर अभी
उसकी दृष्टि
नहीं पड़ी 'है
अपने घेरे में
ले आते .हैं।
प्रसार
के लिये सब
मनुष्यों को
समान भोजन मिलता
है,
पर उनका
खाने और पचाने
का सामर्थ्य
समान नहीं होता;
क्योंकि वे
एक ही अण्डाणु
में से एक ही
समय और एक ही
स्थान पर नहीं
निकले हैं।
इसलिये समय—स्थान
में उनके
प्रसार में
अन्तर होता है;
और इसीलिये
कोई दो मनुष्य
ऐसे नहीं
मिलते जो हूबहू
एक —जैसे हों।
सब
लोगों के
सामने प्रचुर
मात्रा में और
खूब खुले
हाथों परोसे
गये भोजन में
से एक व्यक्ति
स्वर्ण की
शुद्धता और
सुन्दरता को
देखने का आनन्द
लेता है और
तृप्त हो जाता
है,
जब कि दूसरा
स्वर्ण का
स्वामी होने
का रस लेता है
और सदा भूखा
रहता है। एक
शिकारी एक
सुन्दर हिरनी
को देख .कर उसे
मारने और खाने
के लिये
प्रेरित होता
है; एक कवि
उसी हिरनी को
देख कर मानों
पंखों पर उड़ान
भरता हुआ उस
समय और स्थान
में जा
पहुँचता है
जिसका शिकारी
कभी सपना भी
नहीं देखता। मिकेयन,
शमदाम के
साथ एक ही
नौका में रहते
हुए, परम
स्वतन्त्रता
और समय तथा
स्थान की
सीमाओं से
पूर्ण मुक्ति
के सपने देखता
है, जब कि
शमदाम सदा
अपने आप को
समय तथा स्थान
के और अधिक
लम्बे तथा और
अधिक दृढ़
रस्सों से
बाँधने में
व्यस्त रहता
है। वास्तव
में मिकेयन और
शमदाम पास —पास
रहते हुए भी
एक दूसरे से
बहुत दूर हैं।
मिकेयन के
अन्दर शमदाम
है; परन्तु
शमदाम के
अन्दर मिकेयन
नहीं है।
इसलिये
मिकेयन शमदाम
को समझ सकता
है, परन्तु
शमदाम मिकेयन
को नहीं समझ
सकता।
एक
आत्म —विजेता
का जीवन हर
व्यक्ति के
जीवन को हर ओर
से है, क्योंकि
सब
व्यक्तियों
के जीवन उसमें
समाये हुए हैं।
परन्तु छूता
आत्म—विजेता
के जीवन को
किसी भी
व्यक्ति का
जीवन हर ओर से
नहीं छूता।
अत्यन्त सरल
व्यक्ति को
आत्म—विजेता
अत्यन्त सरल
प्रतीत होता है।
अत्यन्त
विकसित
व्यक्ति को वह
अत्यन्त विकसित
दिखाई देता है।
किन्तु आत्म —विजेता
के सदा कुछ
ऐसे पक्ष होते
हैं जिन्हें आत्म
—विजेता के
सिवाय और कोई
न कभी समझ
सकता है, न
महसूस कर सकता
है। यही कारण
है कि वह सबके
बीच में रहते
हुए भी अकेला
है, वह
संसार में है
फिर भी संसार
का नहीं है।
लघु
—परमात्मा
बन्दी नहीं
रहना चाहता।
वह मनुष्य की
बुद्धि से
कहीं ऊँची
बुद्धि का प्रयोग
करते हुए समय
तथा स्थान के
कारावास से अपनी
मुक्ति के
लिये सदैव
कार्य —रत
रहता है।
निम्न स्तर के
जीवों में इस
बुद्धि को लोग
सहज —बुद्धि
कहते हैं।
साधारण
मनुष्यों में
वे इसे तर्क
और उच्च कोटि
के मनुष्यों
में इसे दिव्य
बुद्धि कहते
हैं। यह सब तो
वह है हां, पर
इससे अधिक भी
बहुत कुछ है।
यह वह अनाम
शक्ति है जिसे
कुछ लोगों ने
ठीक ही पवित्र
शक्ति का नाम
दिया है, और
जिसे मीरदाद
दिव्य ज्ञान
कहता है।
समय
के खोल को
बेधने वाला और
स्थान की सीमा
को लाँघने
वाला प्रथम
मानव —पुत्र
ठीक ही प्रभु
का पुत्र
कहलाता है।
उसका अपने
ईश्वरत्व का
ज्ञान ठीक ही
पवित्र शक्ति
कहलाता है।
किन्तु
विश्वास रखो
कि तुम भी
प्रभु के
पुत्र हो, और
तुम्हारे
अन्दर भी वह
पवित्र शक्ति
अपना कार्य कर
रही है। उसके
साथ कार्य करो,
उसके
विरुद्ध नहीं।
परन्तु
जब तक तुम समय
के खोल को बेध
नहीं देते और
स्थान की सीमा
को लाँघ नहीं
जाते, तब तक
कोई यह न कहे, ''मैं प्रभु
हूँ'।
बल्कि सब कहो,
''प्रभु ही
मैं है''।
इस बात को
अच्छी तरह
ध्यान में रखो,
कहीं ऐसा न
हो कि अहंकार
तथा खोखली
कल्पनाएँ तुम्हारे
हृदय को
भ्रष्ट कर दें
और तुम्हारे
अन्दर हो रहे
पवित्र शकि्त
के कार्य का
विरोध करें।
क्योंकि
अधिकांश लोग
पवित्र शक्ति
के कार्य के
विरुद्ध काम
करते हैं, और
इस प्रकार
अपनी अन्तिम
मुक्ति को
स्थगित कर
देते है।
समय
को जीतने के
लिये यह
आवश्यक है कि
तुम समय द्वारा
ही समय के
विरुद्ध लड़ो।
स्थान को
पराजित करने
के लिये यह
आवश्यक है कि
तुम स्थान को
ही स्थान का
आहार बनने दो।
दोनों में से
एक का भी
स्नेहपूर्ण
स्वागत करना
दोनों का
बन्दी होना
तथा नेकी और
बदी की अन्तहीन
हास्य—जनक
चेष्टाओं का
बंधक बने रहना
है।
जिन
लोगों ने अपनी
नियति को
पहचान लिया है
और उस तक
पहुँचने के
लिये तड़पते
हैं,
वे समय के
साथ लाड़ करने
में समय नहीं
गँवाते और न
ही स्थान में
भटकने में
अपने कदम नष्ट
करते हैं।
सम्भव है कि
वे एक ही लघु
जीवन—काल में
युगों को समेट
लें तथा अपार
दूरियों को
मिटा दें। वे
इस बात की
प्रतीक्षा
नहीं करते कि
मृत्यु
उन्हें उनके
इस अण्डाणु से
अगले अण्डाणु में
ले जाये, वे
जीवन पर
विश्वास रखते
हैं कि बहुत—से
अण्डाणुओं के
खोलों को एक
साथ तोड़ डालने
में वह उनकी
सहायता करेगा।
इसके
लिये तुम्हें
हर वस्तु के
मोह का त्याग
करना होगा, ताकि
समय तथा स्थान
की तुम्हारे
हृदय पर कोई
पकड़ न रहे।
जितना अधिक
तुम्हारा
परिग्रह होगा,
उतने ही
अधिक होंगे
तुम्हारे
बन्धन। जितना
कम तुम्हारा
परिग्रह होगा,
उतने ही कम
होंगे
तुम्हारे
बन्धन।
हां, अपने
विश्वास, अपने
प्रेम तथा
दिव्य ज्ञान
के द्वारा
मुक्ति के
लिये अपनी तड़प
के अतिरिक्त
हर वस्तु की
लालसा को
त्याग दो।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें