मेरे प्रिय आत्मन्!
ऐसा
लगता है कि
कहीं कुछ भूल
हो गई है। मैं
कोई : विचारक
नहीं हूं। और
ऐसा भी नहीं
मैं मानता हूं
कि विचारकों
से जगत का कोई
लाभ हुआ है।
मनुष्य के
जीवन में
जितने झगड़े और
उपद्रव हुए
हैं, विचारक
उसका कारण है।
और मनुष्य के
जीवन में जीवन
को जीने की जो
क्षमता कम हुई
है, उसका
कारण भी
विचारक है। न
मालूम इतिहास
के किस
दुर्भाग्य
क्षण में आदमी
को यह खयाल आ
गया कि विचार
के द्वारा
जीवन जीया जा
सकता है। जीवन
में जो भी
श्रेष्ठ है वह
विचार से
उपलब्ध नहीं
होता—न
सौंदर्य, न
सत्य, न
प्रेम। विचार
एक धोखा है।
मैंने
सुना है, रवींद्रनाथ
एक रात एक बजरे
में यात्रा कर
रहे थे।
पूर्णिमा की
रात्रि थी और
पूरा चांद
आकाश में था।
अपनी नाव के
छोटे से झोपड़े
में, एक
छोटी सी
मोमबत्ती को
जला कर वे एक
किताब पढ़ रहे
थे। वह किताब ऐस्थेटिक्स
पर थी, सौंदर्यशास्त्र
पर थी। आधी
रात तक वे
किताब पढ़ते
रहे— सौंदर्य
क्या है?
और फिर ऊब गए। और किताब को बंद कर दिया और मोमबत्ती को फूंक मार कर बुझा दिया। और तभी अचानक जैसे एक क्रांति घट गई— द्वार के, खिड़कियों के, बजरे के रंध्र—रंध्र से चांद की किरणें भीतर आ गईं! मोमबत्ती के धीमे से प्रकाश ने चांद को बाहर रोक रखा था।
और फिर ऊब गए। और किताब को बंद कर दिया और मोमबत्ती को फूंक मार कर बुझा दिया। और तभी अचानक जैसे एक क्रांति घट गई— द्वार के, खिड़कियों के, बजरे के रंध्र—रंध्र से चांद की किरणें भीतर आ गईं! मोमबत्ती के धीमे से प्रकाश ने चांद को बाहर रोक रखा था।
रवींद्रनाथ
नाचने लगे। और
उन्होंने
दूसरे दिन
सुबह कहा, दूसरे
दिन सुबह
उन्होंने कहा,
कैसा अभागा
हूं मैं, सौंदर्य
बाहर मौजूद था,
सौंदर्य
पूरे क्षण
बाहर
प्रतीक्षा
करता था और
मैं सौंदर्य
पर एक किताब
पढ़ता रहा! और
जब मैंने
मोमबत्ती
बुझा दी और
किताब बंद कर
दी तो सौंदर्य
मेरे कमरे के
भीतर आकर
नाचने लगा। वे
बाहर आ गए, उन्होंने
चांद को देखा,
झील को देखा,
उस रात के
सन्नाटे को
देखा, सौंदर्य
वहां मौजूद था।
लेकिन किताब
में सिर्फ
विचार मौजूद
थे। किताब में
सिर्फ विचार
ही हो सकते
हैं, सौंदर्य
नहीं हो सकता।
विचारक के पास
भी सिर्फ
विचार ही होते
हैं, सत्य
नहीं होता, न सौंदर्य
होता, न
प्रेम होता।
और विचार, विचार
सिवाय शब्दों
के जोड़ के और
कुछ भी नहीं
हैं। सब विचार
बासे हैं,
सब विचार
उधार हैं, कोई
विचार मौलिक
नहीं होता।
कोई विचार
मौलिक हो भी
नहीं सकता।
मौलिक होती है
अनुभूति और
अनुभूति होती
है निर्विचार।
लेकिन
बड़ी पुरानी
भूल है, उसी भूल में
मुझे भी बुला
लिया है। वह भूल
यह है, हम
महावीर को भी
विचारक कहते
हैं। महावीर
विचारक नहीं
हैं। महावीर
जो कुछ भी हैं
वह विचार को
छोड़ कर हैं।
बुद्ध को भी
विचारक कहते
हैं। बुद्ध भी
विचारक नहीं
हैं। बुद्ध जो
कुछ भी हैं
विचार के पार
जाकर हैं।
जिनको हम
विचारक कहते
हैं उनमें से
बहुत से लोग विचारक
नहीं हैं।
जिन्होंने इस
जगत को कुछ
दिया है, उन्होंने
विचार से नहीं
दिया, विचार
के पार से
लाकर दिया है।
विचार वाहन हो
सकता है
अभिव्यक्ति
का, उपलब्धि
का मार्ग नहीं
है।
लेकिन
कुछ लोग सिर्फ
विचारक हैं।
उनके पास
सिवाय शब्दों
के संग्रह के
कुछ भी नहीं
है। और उन
शब्दों के
संग्रह को
उन्होंने
जीवन समझा हुआ
है। इसलिए
विचारक मरने
के बहुत पहले
मर जाता है, उसके पास
शब्दों की
लाशों के
सिवाय कोई
जीवन नहीं
होता।
मैंने
सुना है, एक फकीर था।
और फकीर बहुत
अदभुत आदमी था।
उसने
विचारकों पर
बड़ा व्यंग्य
किया है।
लेकिन विचारक
इतने कम
समझदार होते
हैं कि विचार
के ऊपर किए गए
व्यंग्य भी
उनकी पकड़ में
नहीं आते। वह
फकीर एक दिन
घर लौटता था, और किसी
मित्र ने उसे
कुछ मांस भेंट
कर दिया। और
साथ में एक
किताब भी दे
दी। किताब में
मांस को बनाने
की विधि लिखी
हुई थी। वह एक
बगल में किताब
को दबा कर और
हाथ में मांस
को लेकर घर की
तरफ भागा। एक
चील ने झपट्टा
मारा, वह
उसके मांस को
उठा कर ले गई।
उस फकीर ने
चील से कहा कि
मूरख है तू!
विधि बनाने की
तो मेरे पास
है, मांस
का क्या करेगी?
वह घर
पहुंचा, उसने अपनी
पत्नी को कहा,
देखती हो, एक मूरख चील
मेरे मांस को
छीन कर ले गई
है और किताब
मेरे पास है
जिसमें विधि
लिखी है बनाने
की, चील
मांस का करेगी
क्या?
उसकी
पत्नी ने कहा
कि तुम विचारक
मालूम होते हो।
चील को किताब
से मतलब नहीं
है, चील
को मांस बनाने
की विधि से
मतलब नहीं है।
तुम किताब बचा
लाए और मांस
छोड़ आए, अच्छा
होता कि किताब
चील को दे आते
और मांस घर ले
आते।
लेकिन
विचारक
हजारों साल से
किताब बचाता
चला आ रहा है
और जिंदगी को
छोड़ता चला जा
रहा है। इसलिए
दुनिया में
जितना विचार
बढ़ गया है
उतना जीवन कम
और क्षीण हो
गया है।
दुनिया में
जितना विचार
रोज बढ़ता जा
रहा है, आदमी उतना
उदास, परेशान
और हैरान होता
चला जा रहा है।
क्योंकि
जिंदगी का
सारा अर्थ
खोता चला जा
रहा है।
जिंदगी का जो
रस है, जिंदगी
का जो भी अर्थ
है, वह
जीने से
उपलब्ध होता
है, विचार
करने से नहीं।
और यह सब्स्टीटयुट
बन जाता है कि
हम जीने को छोड
देते हैं और
विचार करने को
पकड़ लेते हैं।
मैं एक
फूल के पास
जाऊं और बैठ
कर फूल के
संबंध में
सोचने लगू तो
मैं एक विचारक
हूं। लेकिन
फूल के संबंध
में जो बैठ कर
सोच रहा है वह
फूल को जानने
से वंचित रह
जाएगा। विचार
की एक दीवाल
खड़ी हो जाएगी।
फूल उस पार
होगा, मैं
इस पार होऊंगा।
सब विचारकों
के आसपास
विचारों की एक
दीवाल बन जाती
है— वाद की, शास्त्र
की, आइडियालॉजी
की। और वे
अपनी ही दीवाल
में बंद हो
जाते हैं, बाहर
की दुनिया से
उनका जीवन से
सारा संबंध टूट
जाता है। वह
जो फूल है वह
बाहर पुकारता
रहेगा कि आओ, लेकिन
विचारक विचार
करता रहेगा।
अगर
फूल को जानना
हो तो फूल के
पास बैठ कर
सोचने की
जरूरत नहीं है।
फूल के पास
बैठ कर सोचना
छोड़ देने की
जरूरत है, ताकि फूल
भीतर प्रवेश
कर जाए। मेरी
आत्मा और फूल
की आत्मा किसी
जगह पर मिल सकें।
विचार कभी भी
नहीं मिलने
देता है। और
इसलिए दुनिया
में जितना
विचार बढ़ता है
उतना आदमी—आदमी
अलग होते चले
जाते हैं।
दुनिया में
जितने झगड़े
हैं वे विचार
के झगड़े हैं
क्योंकि सब
दीवालें
विचारों की
दीवालें हैं।
एक
आदमी कहता है, मैं
मुसलमान हूं।
एक आदमी कहता
है, मैं
हिंदू हूं। एक
हिंदू और एक
मुसलमान के
बीच फर्क क्या
है? खून का
फर्क है? हड्डी
का फर्क है? आत्मा का
फर्क है? एक
हिंदू और एक
मुसलमान के
बीच सिर्फ
विचार का फर्क
है। मुसलमान
ने कुछ विचार
पकड़ लिया है, हिंदू ने
कुछ विचार पकड़
लिया है। और
विचार की
दीवाल है। और
तब, तब
विचार इतना
महत्वपूर्ण
हो सकता है कि
हिंदू
मुसलमान की
हत्या कर दें,
और मुसलमान
हिंदू की
हत्या कर दें।
विचार इतना
महत्वपूर्ण
हो सकता है कि
हम जीवन की
हत्या कर दें
और किताब को
बचा लें, विचार
को बचा लें।
यही होता जा
रहा है। जीवन
रोज नष्ट हो
रहा है और
किताबें बचती
चली जाती हैं।
नये विचार नये
झगड़े ले आते
हैं। कम्युनिज्म
नया विचार है।
उसने नये झगड़े
और नई दीवालें
खड़ी कर दी हैं।
क्या
यह नहीं हो
सकता कि आदमी
अस्तित्व को
जीए, विचारे
न?
यह हो
सकता है।
समस्त जीवन की
गहराइयां
अस्तित्व में
उतरने से
उपलब्ध होती
हैं। और जिसे
अस्तित्व में
उतरना है उसे
विचार को छोड़
कर उतरना पड़ता
है।
मैंने
सुना है, एक समुद्र
के किनारे
बहुत बड़ा मेला
भरा हुआ था और
तट पर बहुत
लोग इकट्ठे थे।
वे तट पर बैठ
कर सोचने लगे
कि समुद्र की
गहराई कितनी
है? वे बड़े
विचारक लोग थे।
उन्होंने तट
के ऊपर बैठ कर
विचार करना
शुरू कर दिया,
समुद्र की
गहराई कितनी
है?
लेकिन
तट के ऊपर बैठ
कर कोई समुद्र
की गहराई नहीं
जान सकता। तट
के ऊपर बैठ कर
समुद्र की
गहराई को
जानने का कोई
उपाय नहीं है।
समुद्र की
गहराई में ही
जाना पड़ेगा।
लेकिन विचार
करने वाले सदा
तट पर बैठे रह
जाते हैं। वे
तट पर बैठ कर
बहुत विचार
करते रहे, विवाद हो
गया। समुद्र
की गहराई का
तो कोई पता न चला,
लेकिन
विवाद से ही पार्टियां
और कई
संप्रदाय और
कई धर्म हो गए।
किसी ने कहा, इतनी गहराई
है। और किसी
ने कहा, हमारी
किताब में
इतनी लिखी है।
वे अपनी
किताबें ले आए
और बड़ा विवाद
शुरू हो गया।
मैंने
सुना है, उस मेले में
दो नमक के
पुतले भी भूल
से पहुंच गए
थे। उन्होंने
यह सारा विवाद
सुना, उन्होंने
कहा कि पागल
हो गए हो! अगर
समुद्र की गहराई
जाननी है तो
विचार करने की
क्या जरूरत है?
समुद्र में
कूद जाओ!
लेकिन उन
लोगों ने कहा,
जब तक गहराई
का पता न चले, हम कूदे
कैसे? गहराई
का पता चल जाए
तब हम कूदे।
गहराई का
पक्का पता हो
जाए तभी हम
कूदेंगे।
विचारक
कहता है, जब ईश्वर का
मैं पक्का पता
लगा लूंगा
विचार करके तब
खोज पर
निकलूंगा।
विचारक कहता
है, मैं
प्रेम करने तब
जाऊंगा
जब मैं प्रेम
की पूरी फिलासफी
समझ लूं।
विचारक कहता
है मैं जीवन
में तब
उतरूंगा जब मैं
जान लूं कि
जीवन क्या है।
वह किनारे पर
बैठा रह जाता
है।
और
ध्यान रहे, उस नमक के
पुतले ने कहा
कि तो फिर
ठहरो, मैं
कूद जाता हूं
मैं पता लगा
आता हूं। वह
नमक का पुतला
कूद गया।
लेकिन नमक का
पुतला समुद्र
में कूदे.....गहराई
में तो जाने
लगा लेकिन
जितना गहराई
में जाने लगा
उतना ही
पिघलने लगा।
गहराई में
पहुंच गया, ठीक समुद्र
के नीचे पहुंच
गया, उसने
गहराई जान ली,
लेकिन जब तक
उसने गहराई
जानी तब तक वह
खो गया, तब
तक वह लौट कर
बताने को नहीं
था।
यह बड़ी
अदभुत बात है।
इस जिंदगी का
सबसे बड़ा पैराडॉक्स
यही है कि जो
विचार करते
रहते हैं वे
बताने में
समर्थ हैं और
जो अस्तित्व
की गहराई में
उतरते हैं वे
खो जाते हैं, वे बताने
में असमर्थ हो
जाते हैं।
सत्य को जो
जानते हैं वे
बता नहीं पाते
और जो बिलकुल
नहीं जानते
हैं वे बताए
चले जाते हैं।
जो सत्य को
बिलकुल नहीं
जानते वे उस
पर विचार करते
रहते हैं; जो
सत्य को जान
लेते हैं वे
खो जाते हैं।
मेरी
अपनी समझ में, विचारक
का अहंकार
मनुष्य के
जीवन में सबसे
बड़ा अहंकार है।
कुछ लोग धन
इकट्ठा कर
लेते हैं, कुछ
लोग विचार
इकट्ठे कर
लेते हैं। धन
को इकट्ठा
करने वाले को
हम कहते हैं
कि क्या
संग्रह में
लगे हुए हो! और
विचार को
इकट्ठा करने
वाले को? विचार
को इकट्ठा
करने वाले को
हम, विचार
को इकट्ठा
करने वाले को
हम उस तरह से
नहीं कहते कि
क्या विचार के
संग्रह में
लगे हो? क्या
होगा विचार के
संग्रह कर
लेने से? धन
के संग्रह से
कुछ नहीं होता,
विचार के
संग्रह से भी
कुछ नहीं होता।
लेकिन सब
संग्रह
अहंकार को
मजबूत कर जाते
हैं।
धन हो
मेरे पास तो
मुझमें एक अकड़
आ जाती है कि मेरे
पास धन है। और
विचार है मेरे
पास तो भी
मुझे एक अकड़ आ
जाती है कि
मेरे पास
विचार है। और
जान, पांडित्य
और विचार की
जो अकड़ है
उससे बड़ी अकड़ और
कोई भी नहीं
हो सकती। वह
जो अहंकार है
उससे बड़ा अहंकार
और कोई भी
नहीं हो सकता।
और ध्यान रहे,
जितना बड़ा
अहंकार है
उतना ही गहरे
में उतरने की
क्षमता कम हो
जाती है।
क्योंकि गहरे
में उतरने पर
वह नमक का
पुतला पिघला,
ऐसे ही
अहंकार भी
पिघल जाता है।
जिसे गहरे
जाना है उसे
अहंकार छोड़ कर
जाना होगा। और
जिसे अहंकार
छोड़ना है उसे
धन ही नहीं
छोड़ना पड़ता
उसे विचार भी
छोड़ना पड़ता है।
विचार
की पर्त हमारी
चेतना पर ऐसे
ही है... अभी मैं
एक गांव में
ठहरा हुआ था।
उस गांव की
नदी को मैं
देखने गया। वह
सारी नदी काई
से ढंक गई थी।
पत्ते ही
पत्ते और काई
ही काई उस
पूरी नदी पर छा
गई थी। एक पत्ते
को मैंने
हटाया और नदी
झांकने लगी।
जो मित्र मुझे
ले गए थे
उन्होंने कहा, सारी नदी
पत्तों से ढंक
गई है। तो
मैंने कहा, आदमी की भी
सारी आत्मा
विचार के
पत्तों और काई
से ढंक गई है।
थोड़े विचार को
हटाओ तो
भीतर से आत्मा
की नदी झांकनी
शुरू हो जाती
है।
विचारक
पत्तों से
ढंका हुआ आदमी
है। और विचार
सब उधार हैं, बाहर से
आए हुए हैं।
ज्ञान भीतर से
आता है और
विचार बाहर से
आते हैं।
इसलिए विचारक
को ज्ञानी समझ
लेने की भूल
में नहीं पड़
जाना चाहिए।
विचार सदा
बाहर से आते
हैं—
शास्त्रों से,
शिक्षाओं
से, सूचनाओं
से, और शान
सदा भीतर से
आता है। और
जिसे शान लाना
हो, उसे
विचार बाहर से
लाने की
यात्रा बंद
करनी पड़ती है।
एक
छोटे से
उदाहरण से
समझाने की
कोशिश करूं।
मैंने
सुना है कि एक
आदमी ने घर
में एक कुआं
खोदा और एक
आदमी ने घर
में एक हौज
बनाई। अब हौज
और कुआं बनाने
के ढंग बिलकुल
अलग होते हैं, हालांकि
दोनों में
पानी दिखाई
पड़ता है। और
जब हौज बन गई, कुआं बन गया,
तो दोनों
में पानी था—कुएं
में भी पानी
था, हौज
में भी पानी
था। लेकिन हौज
में पानी उधार
था, वह
कहीं से मांगा
गया था, वह
कहीं से लाया
गया था। कुएं
के पास अपना
पानी था, वह
कहीं से मांगा
नहीं गया था, वह कहीं से
लाया नहीं गया
था। हौज भर गई।
लेकिन हौज और
कुएं के बनाने
का ढंग भी अलग
है। कुएं को
खोदना पड़ता है,
कुएं की
मिट्टी—पत्थर
को निकाल कर
बाहर फेंक
देना पड़ता है।
और अगर हौज
बनानी हो तो
मिट्टी—पत्थर
खरीद कर लाने
पड़ते हैं, दीवाल
बनानी पड़ती है
और हौज बनानी
पड़ती है। और
एक बड़े
चमत्कार की
बात, हौज
बन जाए तो भी
खाली होती है।
कुआं बन जाए
तो पानी से भर
जाता है। हौज
के पास दूसरे
का पानी होता
है।
जिसको
हम विचारक
कहते हैं उसके
पास दूसरे का
पानी होता है।
उसके पास
महावीर का
पानी होगा, बुद्ध का
पानी होगा, क्राइस्ट का
पानी होगा, कृष्ण का
पानी होगा, लेकिन उसके
पास अपना पानी
नहीं होता।
उसके पास कुआं
नहीं होता।
और
ध्यान रहे, जब कुआं
बनता है तो कुआं
बनने का एक
नियम है कि
खाली होना
पड़ता है।
जितना कुआं
खाली हो जाता
है उतना भर
जाता है।
जितना कुआं
अपने भीतर से
चीजों को बाहर
फेंक देता है
उतने जलस्रोत
उपलब्ध हो जाते
हैं। विचारक
इकट्ठा करता
है हौज की तरह,
इकट्ठा
करता जाता है।
कभी हौज के
पास जाकर कान
लगा कर सुनना,
तो हौज
हमेशा कहती है,
और लाओ! और
लाओ! अगर हौज
से पानी
निकालों तो
हौज कहती है, मत निकालों,
कम हो जाएगा।
कभी कुएं के
पास कान लगा
कर सुनना, कुआं
कहता है, निकाल
लो और निकाल
लो। चूंकि
जितना निकल
जाता है उतना
नया भीतर से और
आ जाता है।
विचारक
इकट्ठा करता
है, विचार
सिर्फ इकट्ठा
करना है। और
इसलिए विचारक
बाहर से आई
हुई पर्त में
इतना खो जाता
है कि कभी
अपने को नहीं
जान पाता। जिन्होंने
अपने को जाना
है, जिन्होंने
सत्य को जाना
है, उन्होंने
निर्विचार
होकर जाना है।
महावीर
विचारक नहीं
हैं, बुद्ध
विचारक नहीं
हैं, कृष्ण
विचारक नहीं
हैं। और
दुनिया में
ऐसे लोगों की
जरूरत है जो
विचार के पार
होकर देख सकें।
इसलिए हम उनको
द्रष्टा कहते
हैं। इसलिए हम
उस प्रक्रिया
को जिससे
ज्ञान उपलब्ध
होता है दर्शन
कहते हैं, उसको
विचारणा नहीं
कहते।
लेकिन
अभी बड़ी भूल
हुई है। भूल
यह हो गई है कि
हम पश्चिम से
जो फिलासफी
आई है, हम
फिलासफी
को भी अपने
मुल्क में
दर्शन से
अनुवाद करने लगे
हैं। दर्शन और
फिलासफी
पर्यायवाची शब्द
नहीं हैं।
दर्शन का मतलब
है. देखना। और फिलासफी
का अर्थ है
सोच—विचार।
देखने और
सोचने—
विचारने में
दुश्मनी है।
जो आदमी देख
सकता है, सोचता—विचारता
नहीं। जो नहीं
देख सकता वह
सोचता—विचारता
है।
मैं
अगर अंधा हूं
और मुझे इस
कमरे के बाहर
जाना हो, तो मैं सोचूंगा
कि रास्ता
कहां है? पूछूंगा रास्ता
कहां है? पूछूंगा द्वार कहां
है? कैसे
जाऊं? कैसे
निकलूं? और अगर मेरे
पास आंखें हैं,
तो मैं सोचूंगा
नहीं, पूछूंगा नहीं, उठूंगा और निकल जाऊंगा।
आख
चाहिए। दर्शन
चाहिए; विचार नहीं।
दृष्टि चाहिए।
और दृष्टि सदा
अपनी होती है।
विचार सदा
दूसरे के होते
हैं। दूसरे की
दृष्टि आपके
पास नहीं होती।
दूसरे की आख
से आप नहीं
देख सकते।
लेकिन
दूसरे के
विचार का
संग्रह आप कर
सकते हैं।
इसलिए विचारक, मेरी
दृष्टि में, सदा बारोड,
सदा उधार
आदमी होता है।
उसके पास कुछ
भी नहीं होता।
विचारक से
ज्यादा
दरिद्र आदमी,
दीन आदमी
खोजना बहुत
मुश्किल है।
लेकिन
हमें लगता है
कि विचारक के
पास बहुत कुछ
है, क्योंकि
जो उसने
इकट्ठा किया
है वह हमारी आंखों
को चौंकाता है।
जो उसके पास
हमें दिखाई
पड़ता है उससे
लगता है कि
इसके पास बहुत
कुछ है। जो
उससे हम सुनते
हैं, जो वह
लिखता है, उससे
हमें लगता है
कि इसके पास
बहुत कुछ है।
और हम भी तब
विचार इकट्ठा
करने में लग
जाते हैं।
हमारी सारी
शिक्षा विचार
इकट्ठा
करवाने की शिक्षा
है। इसलिए
हमारी शिक्षा
ज्ञानी को
पैदा नहीं कर
पाती, क्योंकि
वह दृष्टि और
दर्शन पैदा
करने के लिए
कोई प्रयोग
नहीं करती है।
इधर
मैं एक छोटी
सी बात अंत
में कहना
चाहूं और वह
यह कि मनुष्य
की चेतना में
दो क्षमताएं
हैं— एक विचार
की और एक
निर्विचार की, एक सोचने
की और एक
देखने की।
सोचने में जो
उलझ जाएगा वह
देखने को भूल
जाएगा। और जो
देख लेगा उसे
सोचने की फिर
कोई जरूरत
नहीं रह जाती
उसके पास आंखें
उपलब्ध हो
जाती हैं।
बुद्ध
के पास एक बार
एक आदमी को
कुछ लोग ले आए
थे। वह आदमी
अंधा था, उसके पास आंखें
नहीं थीं।
उसके मित्रों
ने बुद्ध को
आकर कहा कि यह
आदमी अंधा है
और हमारा
मित्र है। हम
इसे समझाते
हैं कि प्रकाश
है, हम समझाते
हैं कि सूरज
है, लेकिन
यह मानने को
तैयार नहीं
होता। यह कहता
है कि कैसे हो
सकता है? हम
इसे कहते हैं
कि है, तर्क
देते हैं। तो
यह कहता है कि
हम तुम्हारे
प्रकाश को
छूकर देखना
चाहते हैं।
जरा प्रकाश को
ले आओ, हम
छूकर देख लें।
प्रकाश तो हम
ले आते हैं, लेकिन यह छू
नहीं पाता। यह
कहता है, तुम
अपने प्रकाश
को थोड़ा बजाओ
तो हम सुन लें।
लेकिन हम
प्रकाश को
कैसे बजाए?
यह कहता है,
प्रकाश को
मेरे मुंह में
दे दो, मैं
थोड़ा चख लूं।
लेकिन हम
प्रकाश का
स्वाद कैसे दिलवाएं? हमने सोचा
कि एक बड़ा
विचारक गांव
में आया है, बुद्ध आए हैं,
तो हम जाएं।
बुद्ध
ने कहा, तुम गलत
आदमी के पास आ
गए, मैं
कोई विचारक
नहीं हूं। और
इस आदमी को
तुम परेशान मत
करो। अच्छा है
कि यह नहीं
मानता; क्योंकि
जिसके पास आख
नहीं है वह
माने क्यों? और अगर मान
लेगा तो विचार
में पड़ जाएगा।
सब मान्यताएं
विचार में ले
जाती हैं। अगर
एक अंधा आदमी
मान ले कि
प्रकाश है, तो प्रकाश
का होना उसके
लिए सिर्फ एक
विचार होगा, अनुभव नहीं
हो सकता।
बुद्ध ने कहा,
इसे तुम
विचारकों के
पास मत ले जाओ।
अच्छा होगा
किसी वैद्य के
पास ले जाओ।
विचारक क्या
करेगा? विचार
दे देगा।
वैद्य के पास
ले जाओ जो
इसकी आख की
चिकित्सा कर
सके।
वे उसे
वैद्य के पास
ले गए। उस
आदमी की आख पर
जाली थी। कुछ
दिन के दवा के
प्रयोग से वह
जाली कट गई।
और उस आदमी ने
प्रकाश देखा
और वह नाचने
लगा। और वह
खोजता हुआ
बुद्ध के पास
गया, उनके
चरण पकड़ लिए।
और उस आदमी ने
कहा कि आपने
बड़ी कृपा की।
अन्यथा वे सब
विचारक मुझे
मिल कर मार
डालते। वे
मुझे समझाते
थे कि है और
मुझे दिखाई
नहीं पड़ता था।
अब मुझे दिखाई
पड़ रहा है। और
मैं जानता हूं
कि जो देखने
से जाना जा
सकता है वह
समझाने से
नहीं जाना जा
सकता। मैं
कैसे समझता कि
प्रकाश है? और अगर समझ
लेता तो भी उस
समझ का क्या
मूल्य था?
नहीं, विचार की
इतनी जरूरत
नहीं है जितनी
दृष्टि और दर्शन
की जरूरत है।
और दृष्टि और
दर्शन चाहिए
हो तो चित्त
ऐसा होना
चाहिए जो
विचारों को
अलग करने में
समर्थ हो जाए।
थोड़ी देर को, थोड़े क्षणों
को ही सही, अगर
चौबीस घंटे
में कोई
व्यक्ति सारे
विचारों से
अपने को मुक्त
कर ले और
सिर्फ रह जाए—मात्र
रह जाए, सोचे
न, सिर्फ
हो जाए, थिंकिंग नहीं, सिर्फ
बीइंग—तो उसकी
जिंदगी में वह
सब उतर आएगा
जो श्रेष्ठ है,
जो सुंदर है,
जो सत्य है।
एक
अंतिम कहानी, और अपनी
बात मैं पूरी
करूंगा।
मैंने
सुना है, एक पहाड़ के
ऊपर एक आदमी
खड़ा था। सुबह—सुबह
सूरज निकला है,
और अभी
रोशनी ने
चारों तरफ
वृक्षों पर
जागरण ला दिया
है और पक्षी
गीत गाते हैं,
और वह आदमी
चुपचाप खड़ा है।
कुछ लोग घूमने
निकले हैं, तीन मित्र
रास्ते से
नीचे गुजर रहे
हैं।
उन्होंने उस
आदमी को वहां
खड़े देखा। और
एक मित्र ने
कहा, यह
आदमी यहां
क्या करता
होगा?
अब सच
तो यह है कि
कोई जरूरत
नहीं कि वह
आदमी वहां
क्या करता
होगा, लेकिन
विचार करने
वाले लोग
व्यर्थ का
विचार करते
रहते हैं। वे
तीनों विचारक
रहे होंगे। एक
ने कहा कि वह
आदमी वहां
क्या करता है?
दूसरे आदमी
ने कहा कि
जहां तक मैं
समझता हूं
जहां तक मैं
सोचता हूं कभी—कभी
उस फकीर की जो
वहा ऊपर खड़ा
है गाय खो
जाती है, वह
अपनी गाय को
खोजने के लिए
पहाड़ पर खड़े
होकर देखता
होगा कि गाय
कहां है।
लेकिन
पहले आदमी ने
कहा, तुम्हारी
बात ठीक नहीं
मालूम पड़ती।
विचारकों को
कभी एक— दूसरे
की बात ठीक मालूम
पड़ती ही नहीं।
उस आदमी ने
कहा, तुम्हारी
बात ठीक नहीं
मालूम पड़ती।
नहीं मालूम
पड़ती इसलिए कि
अगर वह गाय को
खोजता होता तो
चारों तरफ आख
भटकती उसकी, चारों तरफ
देखता। वह तो
चुपचाप एक ही
तरफ देखता हुआ
खड़ा है। खोजने
वाला आदमी एक
तरफ नहीं
देखता, सब
तरफ देखता है।
लेकिन
तीसरे आदमी ने
कहा, तुम्हारी
बात मुझे ठीक
मालूम नहीं
पड़ती। बातों
की दुनिया में
कभी कुछ ठीक
मालूम पड़ता ही
नहीं। उस
तीसरे आदमी ने
कहा कि मैं
जहां तक समझता
हूं कभी—कभी
ऐसा होता है
कि वह अपना
मित्र साथ
लाता है, मित्र
पीछे छूट जाता
है, तो वह
खड़े होकर उसकी
प्रतीक्षा
करता होगा।
उस
पहले आदमी ने
कहा, नहीं,
यह ठीक नहीं
है। क्योंकि
अगर कोई किसी
की प्रतीक्षा
करता हो तो
कभी—कभी पीछे
लौट कर भी
देखता है। वह
पीछे लौट कर
देख ही नहीं
रहा है।
तब उन
दोनों ने पूछा
कि तुम क्या
कहते हो?
उस
आदमी ने कहा, जहां तक
मैं सोचता हूं
—.. अब मजा यह है
कि ये तीनों
सोच ही सकते
हैं। क्योंकि
वह आदमी क्या
कर रहा है यह
वही जान सकता
है। बाहर से
तो सिर्फ सोचा
ही जा सकता है।
उस तीसरे ने
कहा, जहां
तक मैं सोचता
हूं वह भगवान
का स्मरण कर रहा
है।
तो उन
तीनों ने कहा, बड़ी
मुश्किल हो गई।
हम तीनों को पहाड़
पर चढ़ना
पड़ेगा और उस
आदमी से पूछना
पड़ेगा कि वह
कर क्या रहा
है।
अब बड़े
मजे की बात है
कि दूसरा आदमी
कुछ भी कर रहा
हो, तीन
आदमियों को
पहाड़ चढ़ने
की कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन दूसरा
क्या कर रहा
है उसे जानने
के लिए कोई भी
एवरेस्ट चढ़
सकता है। हम
खुद क्या कर
रहे हैं उसे
जानने की हमें
कभी भी कोई
चिंता नहीं है।
दूसरा क्या कर
रहा है!
वे
तीनों पहाड़
चढ़े, थक
गए, पसीना
उनके माथे पर
आ गया, उस
आदमी के पास
पहुंचे। पहले
आदमी ने जाकर
कहा कि जहां
तक महानुभाव,
मैं सोचता
हूं आपकी गाय
खो गई है, आप
खोज रहे हैं।
उस
आदमी ने आख
खोली। उसने
कहा, मेरा
कुछ है ही
नहीं इस जगत
में, खोएगा कैसे? और
जब खोएगा
ही नहीं तो खोजूंगा
कैसे? माफ
करो, मैं
कुछ भी नहीं
खोज रहा हूं।
दूसरा
आदमी हिम्मत
से आगे आया।
उसने कहा, जहां तक
मैं सोचता हूं
आप खोज नहीं
रहे हैं, लेकिन
आपका मित्र पीछे
छूट गया होगा,
आप उसकी
प्रतीक्षा कर
रहे हैं। सही
कह रहा हूं न
मैं?
उस
आदमी ने कहा, न मेरा
कोई मित्र है,
न मेरा कोई
शत्रु है।
पीछे छूटेगा
कौन? प्रतीक्षा
किसकी करूंगा?
मैं किसी की
प्रतीक्षा
नहीं कर रहा
हूं।
तब तो
तीसरे आदमी ने
कहा कि जीत
मेरी निश्चित है।
वह तीसरा आदमी
आगे आया और
उसने कहा कि
मैं सोचता हूं
कि आप
परमात्मा का
स्मरण कर रहे
हैं।
वह
फकीर हंसने
लगा, उसने
कहा, मुझे
परमात्मा का
कोई पता नहीं।
मुझे अभी अपना
ही पता नहीं
है, मैं
परमात्मा का
स्मरण कैसे
करूंगा?
तो उन
तीनों ने पूछा
कि फिर आप कर
क्या रहे हैं?
उस
आदमी ने कहा, मैं कुछ
भी नहीं कर
रहा हूं— मैं
सिर्फ हूं। उस
आदमी ने कहा, मैं कुछ कर
नहीं रहा हूं—
मैं सिर्फ हूं।
और उस आदमी ने
कहा, होना
इतना आनंद है—
मात्र होना।
जिन
लोगों ने सत्य
को जाना है—प्रेम
को, परमात्मा
को, कोई भी
नाम दें; मुक्ति
को, मोक्ष
को— उन सबने उस
क्षण में जाना
है जब बाहर की
भी सारी
क्रिया खो गई
है और भीतर भी
विचार की सारी
क्रिया खो गई
है, जब
किया मात्र खो
गई है और सब
सन्नाटा हो
गया है और
सिर्फ होना
मात्र रह गया
है—जस्ट एक्सिस्टेंस,
उस क्षण में
हम जुड़ जाते
हैं सब से, विराट
से। और जब तक विचार
की गतिविधि है,
तब तक टूटे
रहते हैं, नहीं
जुड़ पाते हैं।
तो
मुझे गलती से
बुला लिया। और
इतना समय भी
मैंने आपका
लिया। उसके
लिए माफी
मांगने के
सिवाय और कोई
उपाय नहीं है।
मैं कोई
विचारक नहीं
हूं और न
चाहता हूं कि
कोई विचारक हो।
द्रष्टा
चाहिए, दर्शन चाहिए,
दृष्टि
चाहिए, वह
आख चाहिए भीतर
जिससे जीवन के
परम सत्य का अनुभव
होता है।
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