निज
घर के लिये
महाबिरह
मीरदाद
:
धुन्ध के समान
है निज घर के
लिये महाविरह।
जिस प्रकार
समुद्र और
धरती से उठी
धुन्ध समुद्र
तथा धरती पर
ऐसे छा जाती
है कि उन्हें
कोई देख नहीं
सकता, इसी
प्रकार हृदय
से उठा
महाविरह हृदय
पर ऐसे छा
जाता है कि
उसमें और कोई
भावना प्रवेश
नहीं कर सकती।
और
जैसे धुन्ध
स्पष्ट दिखाई
देने वाले
यथार्थ को
आँखों से ओझल
करके स्वयं
एकमात्र
यथार्थ बन
जाती है. वैसे
ही यह विरह मन
की अन्य
भावनाओं को
दबा कर स्वय
प्रमुख भावना
बन जाता है।
और यद्यपि
विरह उतना ही
आकारहीन, लक्ष्यहीन
तथा अन्धा
प्रतीत होता
है जितनी कि
धुन्ध, फिर
भी द्वन्द की
तरह ही इसमें
अनन्त अजात
आकार भरे होते
हैं, इसकी
दृष्टि
स्पष्ट होती
है तथा इसका
लक्ष्य सुनिश्चित।
ज्वर
के समान है यह
महाविरह। जैसे
शरीर में
सुलगा जर शरीर
के विष को
भस्म करते हुए
धीरे —धीरे
उसकी प्राण —शक्ति
को क्षीण कर
देता है, वैसे
ही अन्तर की
तड़प से जनमा
यह विरह मन के
मैल तथा मन
में एकत्रित
हर अनावश्यक
विचार को नष्ट
करते हुए मन
को निर्बल बना
देता है।
एक
चोर के समान
है यह महाविरह।
जैसे छिप कर
अन्दर घुसा
चोर अपने
शिकार का भार
तो कुछ हलका
करता है, पर
उसे बहुत
दुःखी कर जाता
है, वैसे
ही यह विरह
गुप्त रूप से
मन के सारे
बोझ तो हर
लेता है, पर
ऐसा करते हुए
उसे बहुत उदास
कर देता है और
बोझ के अभाव
के ही बोझ तले
दबा देता है।
चौड़ा
और हरा—भरा है
वह किनारा
जहाँ पुरूष और
स्त्रियाँ
नाचते, गाते,
परिश्रम
करते तथा रोते
हुए अपने क्षण—भंगुर
दिन गँवा देते
हैं। किन्तु
भयानक है आग
और धुआं उगलता
वह साँड़ जो
उनके पैरों को
बाँध देता है. उनसे
घुटने टिकवा
देता है. उनके
गीतों को वापस
उन्हीं के
कण्ठ में ठूंस
देता है और
उनकी सूजी हुई
पलकों को
उन्हीं के आंसुओं
से चिपका देता
है।
चौड़ी
और गहरी भी है
वह नदी जो
उन्हें दूसरे
किनारे से अलग
रखती है। और
उसे वे न तैर
कर,
और न ही वपु
अथवा पाल से
नौका को खेकर
पार कर सकते
हैं। उनमें से
थोड़े, बहुत
ही थोड़े, लोग
उस पर चिन्तन
का पुल बाँधने
का साहस करते
हैं। किन्तु
सभी, लगभग
सभी, बड़े
चाव से अपने
किनारे से
चिपके रहते
हैं जहाँ हर
कोई अपना समय
रूपी प्यारा
पहिया ठेलता
रहता है।
महाविरही
के पास ठेलने
के लिये कोई
मनपसन्द
पहिया नहीं
होता।
तनावपूर्ण
व्यस्तता और
समयाभाव
द्वारा सताये
इस संसार में
केवल उसी के
पास कोई काम —धन्धा
नहीं होता, उसी
को कोई जल्दी
नहीं होती।
पहनावे, बोलचाल
और आचार—व्यवहार
में इतनी
शालीन मनुष्य
जाति के बीच वह
अपने आप को
वस्त्रहीन, हकलाता हुआ
और अनाड़ी पाता
है। हँसने
वालों के साथ
वह हँस नहीं
पाता, और न
ही रोने वालों
के साथ रो
पाता है।
मनुष्य खाते
हैं, पीते
हैं, और
खाने —पीने
में आनन्द
लेते हैं, पर
वह स्वाद के
लिये खाना
नहीं खाता और
जो वह पीता है
वह उसके लिये
नीरस ही होता
है।
औरों
के जीवन—साथी
हैं. या वे
जीवन—साथी
खोजने में
व्यस्त हैं, पर
वह अकेला चलता
है, अकेला
सोता है, अकेला
ही अपने सपने
देखता है। लोग
सांसारिक
बुद्धि तथा
समझदारी की
दृष्टि से बड़े
अमीर हैं; एक
वही मूढ़ और
बेसमझ है।
औरों के पास
सुखद स्थान
हैं जिन्हें
वे घर कहते
हैं; एक
वही बेघर है।
औरों के पास
कोई विशेष भू—खण्ड
हैं जिन्हें
वे अपना देश
कहते हैं तथा
जिनका
गौरवगान वे
बहुत ऊँचे
स्वर में करते
हैं; अकेला
वही है जिसके
पास ऐसा कोई
भू—खण्ड नहीं
जिसका वह
गौरवगान करे
और जिसे वह अपना
देश कहे। यह
सब इसलिये कि
उसकी आन्तरिक
दृष्टि दूसरे
किनारे की ओर
है।
निद्राचारी
होता है
महाविरही इस
पूर्णतया जागरूक
दिखने वाले
संसार के बीच।
वह एक ऐसे
स्वप्न से
प्रेरित होता
है जिसे उसके
आस —पास के लोग
न देख सकते
हैं,
न महसूस कर
सकते हैं। और
इसलिये वे
उसका निरादर
करते हैं और
दबी आवाज़ में
उसकी खिल्ली
उड़ाते हैं।
किन्तु जब भय
का देवता — आग
और धुआं उगलता
वह
साँड़
— प्रकट होता
है तो उन्हें
धूल चाटनी पड़ती
है,
जब कि
निद्राचारी
जिसका वे
निरादर करते
और खिल्ली
उड़ाते थे, विश्वास
के पंखों पर
उनसे और उनके साँड़
से ऊपर उठ
जाता है, और
दूर, दूसरे
किनारे के पार,
बीहड़ पर्वत
की तलहटी में
पहुँच जाता है।
बंजर, और
उजाड़, और
सुनसान है वह भूमि
जिस पर से
निद्राचारी
उड़ता है। किन्तु
विश्वास के
पंखों में बल
है, और वह
व्यक्ति उड़ता
चला जाता है।
उदास, और
वनस्पतिहीन
और अत्यन्त
भयानक है वह
पर्वत जिसकी
तलहटी में वह
उतरता है।
किन्तु
विश्वास का
हृदय अजेय है;
और उस
व्यक्ति का
हृदय
साहसपूर्वक
धड़कता चला जाता
है।
पथरीला, रपटीला
और कठिनाई से
दिखाई देने
वाला है पहाड़
पर जाता उसका
रास्ता।
परन्तु रेशम—सा
कोमल है
विश्वास का
हाथ, स्थिर
है उसका पैर, और तेज है
उसकी आँख। और
वह व्यक्ति
चढ़ता चला जाता
है।
रास्ते
में उसे एक
समतल, चौड़े
मार्ग से पहाड़
पर चढ़ते हुए
पुरुष और स्त्रियाँ
मिलते हैं। वे
अल्पविरही पुरुष
और स्त्रियाँ
हैं जो चोटी
पर पहुँचने की
तीव्र इच्छा
तो रखते हैं, परन्तु एक
लंगड़े और
दृष्टिहीन
मार्गदर्शक के
साथ। क्योंकि
उनका
मार्गदर्शक
है उन वस्तुओं
में विश्वास
जिन्हें आंखें
देख सकती हैं,
और जिन्हें
कान सुन सकते
हैं. और
जिन्हें हाथ छू
सकते हैं, और
जिन्हें नाक
तथा जिह्वा
सूँघ और चख
सकते हैं।
उनमें से कुछ
पर्वत के
टखनों से ऊपर
नहीं चढ़ पाते,
कुछ उसके
घुटनों तक
पहुँचते हैं;
कुछ कूल्हे
तक, और
बहुत थोड़े कमर
तक। किन्तु उस
सुन्दर चोटी
की झलक तक
पाये बिना वे
सब अपने
मार्गदर्शक
सहित फिसल कर
पर्वत से नीचे
लुढ़क जाते हैं।
क्या
आंखें वह सब
देख सकती हैं
जो देखने
योग्य है, और
क्या कान वह
सब सुन सकते
हैं जो सुनने
योग्य है? क्या
हाथ वह सब छू
सकता है जो
छूने योग्य है,
और क्या नाक
वह सब सूँघ
सकती है जो
सूँघने योग्य
है? क्या
जिह्वा वह सब
चख सकती है जो
चखने योग्य है?
जब दिव्य
कल्पना से
उत्पन्न
विश्वास उनकी
सहायता के
लिये आगे
बढ़ेगा, केवल
तभी
ज्ञानेन्द्रियाँ
वास्तव में
अनुभव करेंगी
और इस प्रकार
शिखर तक
पहुँचने के
लिये सीढ़ियाँ
बनेंगी।
विश्वास
से रहित
ज्ञानेन्द्रियाँ
अत्यन्त अविश्वसनीय
मार्गदर्शक
हैं। चाहे उनका
मार्ग समतल और
चौड़ा प्रतीत
होता हो, फिर
भी उसमें कई
छिपे फन्दे और
अनजाने खतरे
होते हैं। और
जो लोग
स्वतन्त्रता
के शिखर पर
पहुँचने के
लिये इस मार्ग
को अपनाते हैं,
वे या तो
रास्ते में ही
मर जाते हैं, या फिसल कर
लुढ़कते हुए
वापस वहीं
पहुँच जाते हैं
जहाँ से वे
चले थे; और
वहाँ वे अपनी
टूटी
हड्डियों को
जोड़ते हैं और
अपने खुले
घावों को सीते
हैं।
अल्पविरही
वे हैं जो
अपनी
ज्ञानेन्द्रियों
से एक ससार रच
तो लेते हैं, लेकिन
जल्दी ही उसे
छोटा तथा घुटन
—भरा पाते हैं,
और इसलिये
वे एक अधिक
बड़े और अधिक
हवादार घर की
कामना करने
लगते हैं।
परन्तु नई
निर्माण—सामग्री
और नये कुशल
राजगीर को
ढूँढने के बजाय
वे पुरानी
निर्माण—सामग्री
ही बटोर लेते
हैं और उसी
राजगीर को — ज्ञानेन्द्रियो
को — अपने लिये
एक अधिक बड़े
घर का नक्शा।
बनाने और उसका
निर्माण करने
का काम सौंप
देते हैं। नये
घर के बनते ही
वह उन्हें
पुराने घर की
तरह छोटा तथा
घुटन —भरा
प्रतीत होने
लगता है। इस
प्रकार वे
ढहाने —बनाने
में ही लगे
रहते हैं और
सुख तथा
स्वतन्त्रता
प्रदान करने
वाले जिस घर
के लिये वे
तड़पते हैं उसे
कभी नहीं बना
पाते, क्योंकि
ठगे जाने से
बचने के लिये
वे उन्हीं का
आसरा लेते हैं
जिनके द्वारा
वे ठगे जा
चुके हैं। और
जैसे मछली
कड़ाही में से
उछल कर भट्ठी
में जा गिरती
है, वैसे
ही वे जब किसी
छोटी
मृगतृष्णा से
दूर भागते हैं
तो कोई बड़ी
मृगतृष्णा
उन्हें अपनी
ओर खींच लेती
है।
महाविरही
तथा
अल्पविरही
व्यक्तियों
के बीच ऐसे
मनुष्यों के विशाल
समूह हैं
जिन्हें कोई
विरह महसूस
नहीं होता। वे
खरगोशों की
तरह अपने लिये
बिल खोदने और
उन्हीं में
रहने, बच्चे
पैदा करने और
मर जाने में
सन्तुष्ट हैं।
अपने बिल
उन्हें काफी
सुन्दर, विशाल
और आरामदेह
प्रतीत होते
हैं जिन्हें वे
किसी राजमहल
के वैभव से भी
बदलने को
तैयार नहीं।
वे
निद्राचारियों
का मजाक उड़ाते
हैं, खासकर
उनका जो एक
ऐसी सूनी
पगडण्डी पर
चलते हैं जिस
पर पदचिह्न
विरले ही होते
हैं और बड़ी मुश्किल
से पहचाने
जाते हैं।
अपने
साथी
मनुष्यों के
बीच में
महाविरही वैसा
ही होता है
जैसा वह गरुड़
जिसे मुर्गी
ने सेया है और
जो चूजों के
साथ?
उनके बाड़े
में बन्द है।
उसके भाई—चूजे
तथा माँ —मुर्गी
चाहते हैं कि
वह बाल —गरुड़
उन्हीं जैसा
हो, उन्हीं
के जैसे
स्वभाव और
आदतों वाला, और उन्हीं
की तरह रहने
वाला। और वह
चाहता है कि
चूजे उसके
समान हों, अधिक
खुली हवा और
अनन्त आकाश के
स्वज देखने
वाले। पर
शीघ्र ही वह
उनके बीच अपने
आप को एक
अजनबी और अछूत
पाता है, वे
सब उसे चोंच
मारते हैं, यहाँ तक कि
उसकी माँ भी।
किन्तु उसे
अपने रक्त में
शिखरों की
पुकार बड़े जोर
से सुनाई देती
है, और
बाड़े की
दुर्गन्ध
उसकी नाक में
बुरी तरह
चुभती है। फिर
भी वह सब—कुछ
चुपचाप सहता
रहता है जब तक
उसके पंख पूरी
तरह नहीं निकल
आते। और तब वह
हवा पर हो
जाता है, और
प्यार —भरी
विदा—दृष्टि
डालता है अपने
भूतपूर्व
सवार
भाइयों
और उनकी माँ
पर जो दानों
और कीड़ों के लिये
मिट्टी
कुरेदते हुए
मस्ती में
कुडकुड़ाते
रहते हैं।
खुशी
मनाओ, मिकेयन।
तुम्हारा
सपना एक
पैगम्बर का
सपना है।
महाविरह ने
तुम्हारे
संसार को बहुत
छोटा कर दिया
है, और
तुम्हें उस
संसार में एक
अजनबी बना
दिया है। उसने
तुम्हारी
कल्पना को
निरंकुश
ज्ञानेन्द्रियों
की पकड़ से
मुक्त कर दिया
है, और
मुका कल्पना
ने तुम्हारे
अन्दर
विश्वास
जाग्रत कर दिया
है।
और
विश्वास
तुम्हें
दुर्गन्धपूर्ण
घुटन—भरे
संसार से बहुत
ऊँचा उठा कर
वीरान
खोखलेपन के
पार बीहड़
पर्वत के ऊपर
ले जायेगा
जहाँ हर विश्वास
को परखा जाता
है और सन्देह
की अन्तिम तलछट
को निकाल कर
उसे निर्मल
किया जाता है।
और
इस प्रकार
निर्मल हो
चुका विजयी
विश्वास तुम्हें
सदैव हरे —भरे
रहने वाले
शिखर की
सीमाओं पर
पहुँचा देगा
और वहाँ तुम्हें
दिव्य ज्ञान
के हाथों में
सौंप देगा।
अपना कार्य
पूरा करके
विश्वास पीछे
हट जायेगा, और
दिव्य ज्ञान
तुम्हारे
कदमों को उस
शिखर की अक्यनीय
स्वतन्त्रता
की राह
दिखायेगा जो
प्रभु तथा आत्मविजयी
मनुष्य का
वास्तविक, सीमा
—रहित
आनन्दपूर्ण
धाम है।
परख
में खरे उतरना, मिकेयन।
तुम सब खरे
उतरना, मेरे
साथियो। उस
शिखर पर क्षण —भर
भी खड़े हो
सकने का
सौभाग्य
प्राप्त करने
के लिये चाहे
कोई भी पीड़ा
सहनी पड़े, ज्यादा
नहीं है।
परन्तु उस
शिखर पर
स्थायी? निवास
प्राप्त कर
सकने में यदि
अनन्तकाल भी लग
जाये तो कम है।
हिम्बल
:
क्या आप हमें
अपने शिखर पर
अभी नहीं ले
जा सकते एक' झलक
के लिये ही
सही. चाहे वह
क्षणिक ही हो?
मीरदाद
: उतावले मत
बनो,
हिम्बल। अपने
समय की
प्रतीक्षा
करो। जहाँ मैं
आराम से साँस
लेता हूँ, वहाँ
तुम्हारा दम
घुटेगा। जहाँ
मैं आराम से
चलता हूँ, वहाँ
तुम हाँफने और
ठोकरें खाने
लगोगे।
विश्वास का
दामन थामे रखो;
और विश्वास
बहुत बड़ा कमाल
कर दिखायेगा।
यही
शिक्षा थी
मेरी नूह को।
यही
शिक्षा है मेरी
तुम्हें।
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