खाने
के लिये मारना
क्या उचित है?
जब
शमदाम और कसाई
चले गये तो
मिकेयन ने
मुर्शिद से
पूछा :
मिकेयन
:
खाने के लिये
मारना क्या
उचित नहीं है
मुर्शिद?
मीरदाद
:
मृत्यु से पेट
भरना मृत्यु
का आहार बनना
है। दूसरों की
पीड़ा पर जीना
पीड़ा का शिकार
होना है। यही
आदेश है प्रभु
—इच्छा का। यह
समझ लो और फिर
अपना मार्ग
चुनो मिकेयन।
मिकेयन
:
यदि मैं चुन
सकता तो
अमरपक्षी की
तरह वस्तुओं
की सुगन्ध पर
जीना पसन्द
करता, उसके
मांस पर नहीं।
मीरदाद
:
तुम्हारी
पसन्द सचमुच
उत्तम है।
विश्वास करो, मिकेयन,
वह दिन आ
रहा है जब
मनुष्य
वस्तुओं की
सुगन्ध पर
जियेंगे जो
उनकी आत्मा है'
उनके रक्त—मांस
पर नहीं। और तड़पने
वालों के लिये
वह दिन दूर
नहीं।
क्योंकि
तड़पने वाले
जानते हैं कि
देह का जीवन और
कुछ नहीं देह —रहित
जीवन तक
पहुँचाने
वाला पुल—मात्र
है।
और
तड़पने वाले
जानते हैं कि
स्थूल और
अक्षम इन्द्रियाँ
अत्यन्त
सूक्ष्म तथा
पूर्ण ज्ञान
के संसार के
अन्दर झाँकने
के लिये झरोखे—मात्र
है।
और
तड़पने वाले
जानते हैं कि
जिस भी मांस
को वे काटते
हैं उसे देर—सवेर, अनिवार्य
रूप से, उन्हें
अपने ही मांस
से जोड़ना
पड़ेगा, और
जिस भी हड्डी
को वे कुचलते
हैं, उसे
उन्हें अपनी
ही हड्डी से
फिर बनाना
पड़ेगा; और
रक्त की जो भी
बूँद वे
गिराते हैं, उसकी पूर्ति
उन्हें अपने
ही रक्त से
करनी पड़ेगी।
क्योंकि शरीर
का यही नियम
है। पर तड़पने
वाले इस नियम
की दासता से
मुक्त होना
चाहते हैं।
इसलिये वे
अपनी शारीरिक
आवश्यकताओं
को कम से कम कर
लेते हैं।
और
इस प्रकार कम
कर लेते हैं
शरीर के प्रति
अपने ऋण को जो
वास्तव में
पीड़ा और
मृत्यु के
प्रति ऋण है।
तड़पने
वाले पर रोक
केवल उसकी
अपनी इच्छा और
तड़प की होती
है,
जब कि न तड़पने
वाला दूसरों
के द्वारा
रोके जाने की
प्रतीक्षा
करता है। अनेक
वस्तुओं को, जिन्हें न
तड़पने वाला
उचित समझता है
तड़पने वाला
अपने लिये अनुचित
मानता है।
न
तड़पने वाला
अपने पेट या
जेब में डाल
कर रखने के
लिये अधिक से
अधिक चीजें
हथियाने का
प्रशल करता है, जब
कि तड़पने वाला
जब अपने मार्ग
पर चलता है तो न
उसकी कोई जेब
होती है और न
ही उसके पेट
में किसी जीव
के रक्त और
पीड़ा—भरी
ऐंठनों की
गन्दगी।
न
तड़पने वाला जो
खुशी किसी
पदार्थ को बड़ी
मात्रा .में पाने
से प्राप्त
करता है — या
समझता है कि
वह प्राप्त
करता है —
तड़पने वाला
उसे आत्मा के
हलकेपन और
दिव्य शान की
मधुरता में
प्राप्त करता
है।
एक
हरे —भरे खेत
को देख रहे दो
व्यक्तियों
में से एक उसकी
उपज का अनुमान
मन और सेर में
लगाता. है और
उसका मूल्य
सोने —चाँदी
में आँकता है।
दूसरा अपने
नेत्रों से
खेत की
हरियाली का
आनन्द लेता है, अपने
विचारों से हर
पत्ती को अता
है, और
अपनी आत्मा
में हर छोटी
से छोटी जड़, हर कंकड और
मिट्टी .के हर
ढेले के प्रति
भ्रातृभाव
स्थापित कर
लेता है।
मैं
तुमसे कहता
हूँ,
दूसरा
व्यक्ति उस
खेत का असली
मालिक है भले
ही कानून की
दृष्टि से
पहला व्यक्ति
उसका मालिक हो।
एक
मकान में बैठे
दो
व्यक्तियों
में से एक उसका
मालिक है
दूसरा केवल एक
अतिथि। मालिक
निर्माण तथा
देख —रेख के
खर्च की और
परदों, गलीचों
तथा अन्य साज —सामग्री
के मूल्य की
विस्तार के
साथ चर्चा करता
है। जब कि
अतिथि मन ही
मन नमन करता
है उन हाथों
को जिन्होंने?
खोद कर खदान
में से
पत्थरों को
निकाला, उनको
तराशा और उनसे
निर्माण किया;
उन हाथों को
जिन्होंने
गलीचों तथा
परदों को बुना;
और उन हाथों
को जिन्होंने
जंगलों में
जाकर उन्हें
खिड़कियों और
दरवाजों का, कुर्सियों
और में जों का
रूप दे दिया।
इन वस्तुओं को
अस्तित्व में
लाने वाले
निर्माण—कर्त्ता
हाथ की
प्रशंसा करने
में उसकी
आत्मा का
उत्थान होता
है।
मैं
तुमसे कहता
हूँ. वह अतिथि उस
घर का स्थायी
निवासी है, जब
कि वह जिसके
नाम वह मकान
है केवल एक
भारवाहक पशु
है जो मकान को
पीठ पर ढोता
है. उसमें
रहता नहीं।
दो
व्यक्तियों
में से. जो
किसी बछडे के
साथ उसकी माँ
के दूध के
सहभागी हैं, एक
बछड़े को इस
भावना के साथ
देखता है कि
बछड़े का कोमल
शारि उसके
आगामी जन्म—दिवस
पर उसके तथा
उसके मित्रों
की दावत के
लिये उन्हें
बढ़िया मास
प्रदान करेगा।
दूसरा बछड़े को
अपना धाय—जाया
भाई समझता है
और उसके हृदय
में उस नन्हें
पशु तथा उसकी
माँ के प्रति
स्नेह उमड़ता
है।
मैं
तुमसे कहता
हूँ,
उस बछड़े के
मांस से दूसरे
व्यक्ति का
सचमुच पोषण
होता है; जब
कि पहले के
लिये वह विष
बन जाता है।
हां, बहुतर
सी ऐसी चीजें
पेट में डाल ली
जाती हैं
जिन्हें हृदय
में रखना
चाहिये।
बहुत—सी
ऐसी चीजें जेब
और कोठारों
में बन्द कर
दी जाती हैं
जिनका आनन्द
आँख और नाक के
द्वारा लेना
चाहिये।
बहुत
—सी ऐसी चीजें
दाँतों
द्वारा चबाई
जाती हैं
जिनका स्वाद
बुद्धि
द्वारा लेना
चाहिये।
जीवित
रहने के लिये
शरीर की
आवश्यकता
बहुत कम है।
तुम उसे जितना
कम दोगे, बदले
में वह
तुम्हें उतना
ही अधिक देगा,
जितना अधिक
दोगे, बदले
में वह उतना
ही कम देगा।
वास्तव
में तुम्हारे
कोठार और पेट
से बाहर रह कर
चीजें
तुम्हारा उससे
अधिक पोषण
करती हैं
जितना कोठार
और पेट के
अन्दर जाकर
करती हैं।
परंतु
अभी तुम वस्तुओ
की केवल
सुगन्ध पर जीवित
नहीं रह सकते, इसलिये
धरती के उदार
हृदय से अपनी
जरूरत के अनुसार
निस्संकोच लो,
लेकिन
जरूरत से
ज्यादा नहीं। धरती
इतनी उदार और
स्नेहपूर्ण
है कि उसका
दिल अपने
बच्चों के
लिये सदा खुला
रहता है।
धरती
इससे भिन्न हो
भी कैसे सकती
है? और अपने
पोषण के लिये
अपने आप से
बाहर जा भी कहाँ
सकती है? धरती
का पोषण धरती
को ही करना है,
और धरती कोई
कंजूस गृहिणी
नहीं, उसका
भोजन तो सदा
परोसा रहता है
और सबके लिये पर्याप्त
होता है।
जिस
प्रकार धरती
तुम्हें भोजन
पर आमन्त्रित करती
है और कोई भी
चीज तुम्हारी
पहुँच से बाहर
नहीं रखती, ठीक
उसी प्रकार
तुम 'मी
धरती को भोजन
पर आमन्त्रित
करो और
अत्यन्त प्यार
के साथ तथा
सच्चे दिल से
उससे कहो
''मेरी अनुपम
माँ। जिस
प्रकार तूने
अपना हृदय
मेरे सामने
फैला रखा है
ताकि जो कुछ
मुझे चाहिये
ले लूँ, उसी
प्रकार मेरा
हृदय तेरे
सम्मुख
प्रस्तुत है
ताकि जो कुछ
तुझे चाहिये
ले ले।’’
यदि
धरती के हृदय
से आहार
प्राप्त करते
हुए तुम्हें
ऐसी भावना
प्रेरित करती
है,
तो इस बात
का कोई
महत्त्व नहीं
कि तुम क्या
खाते हो।
परन्तु
यदि वास्तव
में यह भावना
तुम्हें प्रेरित
करती है तो
तुम्हारे
अन्दर —इतना
विवेक और
प्रेम होना
चाहिये कि तुम
धरती से उसके
किसी बच्चे को
न छीनो, विशेष
रूप से उन
बच्चों में से
किसी को जो जीने
के आनन्द और
मरने की पीड़ा
का अनुभव करते
हैं — जो द्वैत
के कब में
पहुँच चुके
हैं, क्योंकि
उन्हें भी, धीरे—धीरे
और परिश्रम के
साथ, एकता
की ओर जाने
वाले मार्ग पर
चलना है। और
उनका मार्ग
तुम्हारे
मार्ग से अधिक
लम्बा है। यदि
तुम उनकी गति
में बाधक होते
हो तो वे भी
तुम्हारी गति
में बाधक
होंगे।
अबिमार
:
जब मृत्यु सब
जीवों की
नियति है, चाहे
वह एक कारण से
हो या किसी
दूसरे से, तो
किसी पशु की
मृत्यु का
कारण बनने में
मुझे कोई
नैतिक संकोच
क्यों हो '
मीरदाद
:
यह सच है कि सब
जीवों का मरना
निश्चित है, फिर
भी धिक्कार है
उसे जो किसी
भी जीव की
मृत्यु का
कारण बनता है।
जिस
प्रकार यह
जानते हुए कि
मैं नरौंदा से
बहुत प्यार
करता हूँ और
मेरे मन में
कोई रक्त—पिपासा
नहीं है, तुम
मुझे उसको
मारने का काम
नहीं सौंपोगे
उसी प्रकार
प्रभु—इच्छा
किसी मनुष्य
को किसी दूसरे
मनुष्य या पशु
को मारने का
काम नहीं
सौंपती, जब
तक कि वह उस
मौत के लिये
साधन के रूप
में उसका
उपयोग करना
आवश्यक न
समझती हो।
जब
तक मनुष्य
वैसे रहेंगे
जैसे वे हैं, तब
तक रहेंगे
उनके बीच
चोरियाँ और
डाके, झूठ,
युद्ध और
हत्याएँ, तथा
हर प्रकार के
दूषित और
पापपूर्ण
मनोवेग।
लेकिन
धिक्कार है
चोर को और
डाकू को, धिक्कार
है झूठे को और
युद्ध—प्रेमी
को तथा
हत्यारे को और
हर ऐसे मनुष्य
को जो अपने
हृदय में दूषित
तथा' पापपूर्ण
मनोवेगों को
आश्रय देता है,
क्योंकि
अनिष्टपूणे
होने के कारण
इन लोगों का
उपयोग प्रभु —इच्छा
अनिष्ट के स्थ—देश
——वाहकों के
रूप में करती
है।
परन्तु
तुम,
मेरे
साथियों, अपने
हृदय को हर
दूषित और
पापपूर्ण
आवेग से अवश्य
मुक्त करो
ताकि प्रभु —इच्छा
तुम्हें
दुःखी संसार
में सुखद
सन्देश पहुँचाने
का अधिकारी
समझे — दुःख से
मुक्ति का
सन्देश, आत्म—विजय
का सन्देश, प्रेम और
ज्ञान द्वारा
मिलने वाली
स्वतन्त्रता का
सन्देश।
यही
शिक्षा थी
मेरी नूह को।
यही
शिक्षा है
मेरी तुम्हें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें