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सोमवार, 14 मार्च 2016

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--98)

अध्‍याय—(अट्ठानवां)

शो का शरीर स्वस्थ नहीं चल रहा और वे कछ दिन के लिए बोलना बंद कर देते हैं। इस बीच बंबई के कुछ मित्र उनके लिए कोई नई जगह भी खोज रहे हैं। ओशो की मौजूदगी चुंबकीय मशाल जैसी है। वे जहां भी हों, सत्य के खोजी उनकी ओर खिंचे चले आते हैं। हर रोज पश्चिम से और—और संन्यासी पहुंच रहे हैं। सुमिला में रहते हुए ओशो को लगभग पांच महीने हो चुके हैं। पड़ोसी ओशो की उपस्थिति और आने वालों की बढ़ती भीड़ से परेशान होने लगे हैं।

एक शाम, हमें पता चलता है कि कुछ ही दिनों में ओशो पूना जाने वाले हैं। तो हम अपनी तैयारी करने लगते हैं और आनंदित होते हैं कि उनके साथ पूना चले जाएंगे।
3 जनवरी 1987 को सुबह—सबेरे ओशो पूना पहुंच जाते हैं। कछ दिन आराम करने के बाद वे रोज सुबह—शाम च्वांग्त्सु सभागार में प्रवचन देने लगते हैं। उनका शरीर अब काफी तन्दरुस्त नजर आता है और आवाज भी शुरू के दिनों की तरह आग्नेय हो गई है।
जरथुस्त्र पर प्रवचनमाला के दौरान ओशो आते—जाते समय हमारे साथ नाचने लगते हैं। ऐसा लगता है जैसे गुरु और शिष्य के बीच ऊर्जा का खेल चले रही है। पूरा वातावरण पुन: उनकी ऊर्जा से आपूरित हो उठा है। लेकिन यह ज्यादा दिन नहीं चलता। ओशो के कंधों में दर्दे होने लगता है व उनके कान में कोई इनफेक्‍सान हो जाता है और वे बाहर आना बंद कर देते हैं। जो कान विशेषज्ञ ओशो का इलाज कर रहा है वह जब यह पाता है कि कोई: भी इलाज जरा भी विधायक परिणाम नहीं ला पा रहा है तो वह दुविधा में पड़ जाता है। ओशो का खून जाँच के लिए पश्चिम ले जाया जाता है जिससे यह पता चलता है कि अमेरिकी जेलों में उन्‍हें जह़र दिया गया है।
उनकी आंखें दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही हैं और किसी तरह की रोशनी सहन नहीं कर पाती। कई दिनों के बाद वे बुद्धा हॉल में वापस आते हैं लेकिन चश्मा पहनकर। चश्में में वे मुझे और भी सुंदर लगते हैं लेकिन मैं उनकी सागर जैसी सुंदर आंखों में नहीं झांक पाती।
मैं देखती हूं कि ओशो का शरीर रोज क्षीण होता जा रहा है। उनका वजन कम हो रहा है और वे अधिकाधिक कमजोर महसूस कर रहे हैं। अपनी अस्वस्थता के कारण उन्हें बार—बार बोलना बंद करना पड़ता है। पिछले कुछ समय से ओशो अपनी परिचारिका व अपने डॉक्टर के अतिरिक्त और किसी से नहीं मिल रहे हैं। इन दिनों मैं शरीरिक रूप से ओशो से कभी नहीं मिलती। अब ओशो के साथ मेरा संबंध किसी गहरे तल पर है। मुझे ऐसा धुंधला सा अहसास है कि ओशो ज्यादा दिन अब हमारे बीच नहीं रहेंगे। मैं स्तब्ध रह जाती हं जब ओशो हमें यह संदेश भेजते हैं कि बुद्धा हॉल में हम सफेद चोगे पहनने शुरू कर दें। भारतीय परंपरा में लोग सफेद कपड़े पहनकर तभी एकत्रित होते हैं, जब कोई मर जाता है। मैं एक बार फिर से चौक जाती हूं जब यह देखती हूं कि कम्यून की सभी दीवारें काले रंग से रंगी जा रही हैं।
झेन पर अपनी अंतिम प्रवचनमाला में ओशो का आग्रह ध्यान पर ही है। हर प्रवचन के बाद वे हमें ध्यान में गहरे और ज्यादा गहरे ले जाते हैं। मुझे लगता है कि ओशो अपनी पेन्टिंग को अंतिम रूप से सवार रहे हैं।
अप्रैल 1989 में ओशो फिर से बोलना बद कर देते हैं। वे बीस मिनट के लिए बुद्धा हॉल में हमारे साथ मौन बैठने के लिए आते हैं। वे बहुत ही नाजुक लगने लगे हैं। लेकिन अभी भी आते समय तथा वापस जाते समय हर दिशा में घूमकर दोनों हाथ जोड़कर वे सबको नमस्कार करते हैं। कई बार मुझे लगता है कि उनकी टांगें कंप रही हैं और मेरा हृदय चिल्लाना चाहता है, कृपया ओशो, इस सब की जरूरत नहीं है। अपने शरीर को इतनी तकलीफ न दें।लेकिन वे कभी नहीं रुकते। वे आगे बढ़ते चले जाते हैं। हर रोज बाहर आते हैं और अपने तरीके से जो उन्हें करना हे, वे करते हैं।



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