कुल पेज दृश्य

सोमवार, 14 मार्च 2016

भावना के भोज पत्र--(पत्र--पाथय--45)

पत्रपाथय45

निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
                                                जबलपुर (म. प्र.)
आर्चाय रजनीश
दर्शन विभाग
महाकोशल महाविद्यालय

प्रिय मां,
कल एक जगह बोला हूं।
कहा, मैं तुम्हें असंतुष्ट करना चाहता हूं। एक दिव्य—व्यास, एक अलौकिक—अतृप्ति सबमें पैदा हो यही मेरी कामना है। मनुष्य जो है उसमें तृप्त रह जाना मृत्यु है। मनुष्य विकास का अंत नहीं है। वह भी एक सीढ़ी है। एक विशाल—सोपान है। जो उसमें प्रगट है वह अप्रगट की तुलना में कुछ भी नहीं है।
जो वह है, वह उसकी तुलना में जो कि वह हो सकता है, कुछ न होने के बराबर. ही है।
धर्म तृप्ति की इस मृत्यु से प्रत्येक को जगाना चाहता है।
मनुष्य को मनुष्यता का अतिक्रमण करना है।
यह अतिक्रमण ही उसे दिव्यता में प्रवेश देता है।
यह अतिक्रमण कैसे होगा?
एक परिभाषा को समझें तो अतिक्रमण की प्रक्रिया भी समझ में आ सकती है।
पशुता — विचार—प्रक्रिया के पूर्व की स्थिति।
मनुष्य — विचार—प्रक्रिया की स्थिति।
दिव्यता — विचार—प्रक्रिया के अतीत की स्थिति।
विचार — प्रक्रिया के घेरे के पार चलें तो वेत्ता दिव्यता में पहुंच जाती है। विचार को पार करना मनुष्य को अतिक्रमण कर जाता है।

 दोपहर
16 मार्च1963
रजनीश के प्रणाम



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें