अध्याय—(छियासीवां)
मैं पूना
मैं रहने लगती
हूं और हर
सुबह प्रवचन
के समय ओशो की
उपस्थिति में
बैठकर स्वयं
को धन्यभागी
अनुभव करती
हूँ। ओशो के
इर्द—गिर्द
कम्यून इतना
विस्तार ले
रहा है जो कि
मेरी कल्पना
से भी परे है।
यह अपने आप
में ही एक
छोटा—सा संसार
बन गया है।
पूरे विश्व के
कोने—कोने से
लोग यहां चले
आ रहे हैं। यह
देखकर
विश्वास नहीं
होता कि कैसे सैकड़ों
लोग इतनी
लयबद्धता में
साथ—साथ जी
रहे हैं और
काम कर रहे
हैं।
किसी को किसी
के धर्म या
राष्ट्रीयता
से कुछ लेना—देना
नहीं है। ओशो
के प्रति
प्रेम की किसी
अदृश्य डोर ने
ही उनके इर्द—गिर्द
फूलों की यह
माला गूंथ
दी है।
कुछ
दिनों बाद मैं
सांध्य—दर्शन
के समय ओशो से
मिलती हूं और
वे चांदी का
एक सुंदर—सा पारकर .पैन
मुझे उपहार
स्वरूप देते
हैं और कहते
.हैं कि मैं
एकाउंट डिपार्टमेंट
में मदद करना
शुरू कर दूँ।
बाहर
के जगत में
पहले ही मैंने
बीस साल
एकाउंट का काम
किया हैं और
अब मैं उससे
थक चुकी हूं।
मैं एकाउंट के
प्रति थोड़ी झिझक
दिखाती हूं तो
वे हंसकर कहते
हैं,
यहाँ इस काम
का स्वाद अलग
होगा। अंकों
से खेलते—खेलते
तू शून्य
अनुभव से गुजर
सकती है। बस
इसे गंभीरता
से मत लेना।’ वे विस्तार
से तीन एम' की
चर्चा करते
हैं
मैथेमेटिक्स,
म्यूजिक और
मेडिटेशन।
मैं विस्मित
आँखों से
उन्हें
निहारती हुई
उन्हें सुन रही
हूं। यह तो.
मैंने कभी
सोचा भी नहीं
था कि म्यूजिक
और मेडिटेशन
का
मैथेमेटिक्स
से, गणित
से कोई संबंध
भी हो सकता है।
मैं उन्हें
कहते हुए
सुनती हूं
मैथेमेटिक्स मस्तिष्क
है, म्यूजिक
हृदय है और
ध्यान
है आत्मा। जब
तीनों लयबद्ध
होकर काम करते
हैं तो सब कुछ
एक खेल बन
जाता है।’
जब
मैं उनके चरण
छूने के लिए
झुकती हूं तो
वे अपना हाथ
मेरे सिर पर
रखते हुए कहते
हैं,
वेरी गुड, ज्योति।’
मैं उठकर
अपनी जगह वापस
आ जाती
हूं—पूरी तरह
निर्भार और एक़ाउंट डिपार्टमेंट
में अंकों से
खेलने को
तैयार।
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