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मंगलवार, 22 मार्च 2016

किताबे--ए--मीरदाद--(अध्‍याय--30)

अध्याय—तीस

मुर्शिद मिकेयन का स्वम्न सुनाते हैं

नरौंदा : मुर्शिद के बेसार से लौटने से पहले और उसके बाद काफी समय तक हमने मिकेयन को एक मुसीबत में पड़े व्यक्ति की तरह आचरण करते देखा। अधिकतर वह अलग रहता, न कुछ बोलता, न खाता और कम ही अपनी कोठरी से बाहर निकलता। अपना भेद वह मुझे भी नहीं बता रहा था। और हम सब चकित थे कि मुर्शिद उसे बहुत चाहते हैं. फिर भी वे उसकी पीड़ा को कम करने के लिये न कुछ कह रहें है न कुछ कर रहे हैं।

एक दिन जब मिकेयन तथा बाकी साथी अँगीठी के चारों ओर बैठे आग ताप रहे थे, मुर्शिद ने निज घर के लिये महाविरह के विषय में प्रवचन आरम्भ किया।
मीरदाद : एक बार किसी ने एक सपना देखा। और वह सपना यह था.
उसने अपने आप को एक चौड़ी. गहरी खामोशी से बहती नदी के हरे —भरे तट पर खड़े देखा। तट हर आयु के और हर बोली बोलने वाले स्त्री —पुरुषों और बच्चों के विशाल समूहों से भरा हुआ था।. सबके पास अलग —अलग नाप तथा रंग के पहिये थे जिन्हें वे तट पर ऊपर और नीचे की ओर ठेल रहे थे।
ये जनसमूह शोख रंगों के वस्त्र पहने हुए थे और मौज मनाने तथा खाने —पीने के लिये निकले थे। उनके कोलाहल से वातावरण गूँज रहा था। अशान्त सागर की लहरों की तरह वे ऊपर —नीचे, आगे —पीछे आ —जा रहे थे।
वही एक ऐसा व्यक्ति था जो दावत के लिये सजा—सँवरा नहीं था, क्योंकि उसे किसी दावत की जानकारी नहीं थी। और केवल उसी के पास ठेलने के लिये कोई पहिया नहीं था। उसने बड़े ध्यान से सुनने का यत्न किया. पर उस बहुभाषी भीड़ से वह एक भी ऐसा शब्द नहीं सुन पाया जो उसकी अपनी बोली से मिलता हो। उसने बड़े ध्यान से देखने का यत्न किया, पर उसकी दृष्टि एक भी ऐसे चेहरे पर नहीं अटकी जो उसका जाना —पहचाना हो। इसके अतिरिक्त, भीड़ जो उसके चारों ओर उमड़ रही थी उसकी ओर अर्थ —भरी नजरें डाल रही थी मानों कह रही हो, ''यह विचित्र व्यक्ति कौन है?'' फिर अचानक उसकी समझ में आया कि यह दावत उसके लिये नहीं है, वह तो निरा अजनबी है; और तब उसके मन में एक टीस उठी।
शीघ्र ही उसे तट के ऊपरी सिरे से आती हुई एक ऊँची गरज सुनाई दी, और उसी क्षण उसने देखा कि वे असख्य लोग दो पंक्तियों में बँटते हुए घुटनों के बल झुक गये, उन्होंने अपने हाथों से अपनी आंखें बंद कर लीं और अपने सिर धरती पर झुका दिये, और उन पंक्तियों के बीच तट की पूरी लम्बाई तक एक खाली, सीधा और तंग रास्ता बन गया और वह अकेला ही रास्ते के बीच में खडा रह गया। वह समझ नहीं पा रहा था कि वह क्या करे और किस ओर मुड़े।
जब उसने उस ओर देखा जिधर से गरज की आवाज आ रही थी तो उसे एक बहुत बड़ा साँड़ दिखाई दिया जो मुँह से आग की लपटें छोड़ रहा था और नभूनों से धुएँ के अम्बार, और जो उस मार्ग पर बिजली की गति से बेतहाशा दौड़ता हुआ आ रहा था। भयभीत होकर उसने उस क्रोधोन्मत्त पशु की ओर देखा तथा दाईं या बाईं तरफ भाग कर बचना चाहा, पर बचाव का कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया। उसे लगा मानों वह जमीन में गड गया है और अब मृत्यु निश्चित है।
ज्यों ही साँड़ उसके इतना नजदीक पहुँचा कि उसे झुलसाती लौ और धुआँ महसूस हुआ, उसे किसी ने हवा में उठा लिया। उसके नीचे खड़ा साँड़ ऊपर की ओर आग तथा धुआं छोड़ रहा था, किन्तु वह ऊँचा, और ऊँचा उठता गया, और यद्यपि आग तथा धुआं उसे अब भी महसूस हो रहे थे तो भी उसे कुछ विश्वास हो गया कि अब साँड़ उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। उसने नदी को पार करना शुरू कर दिया। नीचे हरे —भरे तट पर उसने दृष्टि डाली तो देखा कि जनसमुदाय अब भी पहले की तरह घुटनों के बल झुका हुआ है, और साँड़ अब उस पर आग और धुएँ के बजाय तीर छोड़ रहा है। अपने नीचे से होकर निकल रहे तीरों की सरसराहट उसे सुनाई दे रही थी; उनमें से कुछ उसके कपडों में धँस गये, पर उसके शरीर को एक भी न छू सका।
आखिर साँड़, भीड और नदी आँखों से ओझल हो गये, और वह व्यक्ति उड़ता चला गया।
उड़ते—उड़ते वह एक सुनसान, धूप से झुलसे भू—खण्ड पर से गुजरा जिस पर जीवन का कोई चिह्न न था। अन्त में वह एक ऊँचे, बीहड़ पर्वत की उजाड़ तलहटी में उतरा जहाँ घास की एक पत्ती तो क्या, एक छिपकली, एक चींटी तक न थी। उसे लगा कि पर्वत के ऊपर से होकर जाने के सिवाय उसके लिये और कोई चारा नहीं है।
बडी देर तक वह ऊपर चढ़ने का कोई सुरक्षित मार्ग ढूँढता रहा, किन्तु उसे केवल एक पगडण्डी ही मिली जो मुश्किल से दिखाई देती थी और जिस पर सिर्फ बकरियाँ ही चल सकती थीं। उसने उसी राह म् चलने का निश्चय किया।
वह अभी कुछ सौ फुट ही ऊपर चढ़ा होगा कि उसे अपनी बाईं ओर निकट ही एक चौडा और समतल मार्ग दिखाई दिया। वह रुका और अपनी पगडण्डी को छोडने ही वाला था कि वह मार्ग एक मानवीय प्रवाह बन गया जिसका आधा भाग बडे श्रम के साथ ऊपर चढ़ रहा था, और दूसरा आधा भाग अन्धाधुन्ध बड़ी तेजी के साथ पहाड़ से नीचे आ रहा था। अनगिनत स्त्री —पुरुष संघर्ष करते हुए ऊपर चढ़ते, और फिर कलाबाजी खाते हुए नीचे लुढ़क जाते थे, और जब वे नीचे लुढ़कते तो ऐसी चीख —पुकार करते थे कि दिल दहल जाता था।
वह व्यक्ति थोड़ी देर यह अद्भुत दृश्य देखता रहा और मन ही मन इस नतीजे पर पहुँचा कि पहाड़ के ऊपर कहीं एक बहुत बडा पागलखाना है, और नीचे लुढ़कने वाले लोग उसमें से निकल भागने वाले पागलों में से कुछ हैं। कभी गिरते तो कभी सँभलते हुए वह अपनी घुमावदार पगडण्डी पर चलता रहा, लेकिन चक्कर काटते हुए वह निरन्तर ऊपर की ओर बढता गया।
कुछ ऊँचाई पर वह मानवीय प्रवाह सूख गया और उसका कोई चिह्न तक न रहा। वह व्यक्ति उस सूने पर्वत पर फिर अकेला रह गया — न रास्ता दिखाने को कोई हाथ, और न ही उसके ढहते साहस को सहारा और तेजी से क्षीण होती शक्ति को बल देने के लिये कोई आवाज। उसके साथ था केवल धुँधला —सा विश्वास — कि उसका मार्ग शिखर की ओर जाता है।
थके, बोझिल पैरों से मार्ग पर रक्त—चिह्न छोड़ते हुए वह आगे बढ़ता गया। कठिन जी—तोड़ परिश्रम के बाद वह एक ऐसी जगह पहुँचा जहाँ मिट्टी नरम और पत्थरों से रहित थी। उसकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा जब उसे चारों ओर घास के कोमल अंकुर दिखाई दिये; घास इतनी नरम थी और मिट्टी इतनी मखमली, और हवा इतनी सुगन्धमय और शान्तिदायक कि उसे वैसा ही अनुभव हुआ जैसा अपनी शक्ति के अन्तिम अंश को खो देने वाले किसी व्यक्ति को होता है। अतएव उसने हाथ —पैर ढीले छोड़ दिये और उसे नींद आ गई।
किसी हाथ के स्पर्श और एक आवाज़ ने उसे जगाया, ''उठो! शिखर सामने है और बसन्त शिखर पर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।’’
वह हाथ और वह स्वर था स्वर्ग की अप्सरा—सी एक अत्यन्त रूपवती कन्या का जो अत्यन्त उज्ज्वल सफेद वस्त्र पहने थी।
उस कन्या ने कोमलता—पूर्वक उस व्यक्ति का हाथ अपने हाथ में लिया और एक नई स्कूर्ति तथा उत्साह के साथ वह उठ खड़ा हुआ। उसे सचमुच शिखर दिखाई दिया। उसे सचमुच बसन्त की सुगन्ध आई। किन्तु जैसे ही उसने पहला डग भरने के लिये पैर उठाया, वह जाग पड़ा और उसका सपना टूट गया।
ऐसे सपने से जग कर मिकेयन यदि देखे कि वह चार साधारण दीवारों से घिरे एक साधारण —से बिस्तर पर पड़ा हुआ है, परन्तु उसकी पलकों की ओट में उस कन्या की छवि जगमगा रही हो और उस शिखर की सुगन्धिपूर्ण कान्ति उसके हृदय में ताजी हो, तो वह क्या करेगा?
मिकेयन : (मानों उसे सहसा गहरी चोट लगी हो) पर वह सपना देखने वाला तो मैं हूँ? मेरा ही है वह सपना। मैंने ही देखी है उस कन्या और शिखर की झलक। आज तक वह सपना मुझे रह —रह कर सताता है और मुझे जरा भी चैन नहीं लेने देता। उसने तो मुझे मेरे लिये ही अजनबी बना दिया है। उसी के कारण मिकेयन अब मिकेयन को नहीं पहचानता।
लेकिन जब आपको बेसार ले जाया गया था, उसके कुछ ही समय बाद मैंने यह सपना देखा था। आप इसका इतना सूक्ष्म विवरण कैसे दे रहे हैं? आप कैसे व्यक्ति हैं कि लोगों के सपने भी आपके लिये खुली किताब हैं?
आह, उस शिखर की स्वतन्त्रता! आह, उस कन्या का सौन्दर्य। कितना तुच्छ है और सब —कुछ उनकी तुलना में। मेरी अपनी आत्मा उनकी खातिर मुझे छोड़ गई थी। जिस दिन मैंने आपको बेतार से आते देखा, उसी दिन मेरी आत्मा मेरे पास लौटी और मैंने अपने आप को शान्त तथा सबल पाया। पर यह अहसास अब मुझे छोड़ गया है. और अनदेखे तार मुझे एक बार फिर मुझसे दूर खींच रहे हैं।
मुझे बचा लो, मेरे महान साथी। मैं वैसे नजारे की एक झलक के लिये घुला जा रहा हूँ।
मीरदाद : तुम नहीं जानते तुम क्या माँग रहे हो, मिकेयन। क्या तुम अपने मुक्तिदाता से मुक्त होना चाहते हो?
मिकेयन : मैं इस संसार में, जो अपने घर में इतना सुखी है, बेघर होने की इस असह्य यातना से मुक्‍ति होना चाहता हूँ। मैं उस शिखर पर उस कन्या के पास पहुँचना चाहता हूँ।
मीरदाद : खुशी मनाओ कि निज घर के लिये महाविरह ने तुम्हारे हृदय को जकड़ लिया है। क्योंकि यह एक अटल आश्वासन है कि तुम्हें अपना देश और अपना घर अवश्य मिलेगा और तुम उस शिखर पर उस कन्या के पास अवश्य पहुँचोगे।
अबिमार : कृपया हमें इस ''विरह'' के बारे में और बतायें। हम इसे किन चिह्नों से पहचान सकते हैं?





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