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सोमवार, 21 मार्च 2016

चेतना की अंतहीन लहर है ओशो—अमृत साधना


 ओशो के बारे में क्‍या कहें? परम विध्वंसक?
या एक द्रष्टा जो दृष्टि बन जाता है?
निश्चित रूप से अस्‍तित्व के लिए एक प्रस्ताव कि हर
व्यक्ति को चेतना के अनुभव का आनंद लेने का जन्‍मसिद्ध अधिकार है।
ओशो दर्शन में कोई पूर्ण विराम नहीं है, यह एक—अंतहीन प्रवाह है चेतना का।
--अमृत साधना


 ओशो एक ऐसी अद्भुत घटना है जो बीसवीं सदी में घटी। यह क्रांति का अग्निपुष्प खिला तो भारत देश में, लेकिन देखते ही देखते इसकी आग पूरी पृथ्वी पर फैल गई। उनके अट्ठावन साल के जीवन काल में कई तल पर एक साथ इतनी आधियां चलीं, दुनिया में इतनी किस्म के बदलाव हुए कि उसका आकलन कर पाना अभी भी संभव नहीं है।
ओशो को समझना हो तो उनके जीवन को उल्टे सिरे से देखना उचित होगा, वह इसलिए कि उनका काम, उनके पहराव, नाम, और उनका परिवेश विलक्षण तेजी से बदलता गया। पीछे मुड़कर देखने पर ही उसका किंचित आकलन हो सकता है। जब कोई बवंडर उठता है तो पहले तो उससे खुद को बचाने में लोग व्यस्त हो जाते हैं। ओशो की आंधी से चुंधियाई हुई आंखों को जब तक उनकी आदत हो, तब तक वे रुखसत हो चुके थे।
पूरी धरती को हिलाकर अंत में अपनी समाधि पर लिखवा गए।

ओशो
न कभी—जन्मे न कभी विदा हुए,
जो सिर्फ इस पृथ्वी गृह पर अतिथि हुए,
11 दिसंबर, 1931 और 19 जनवरी 1990 के बीच।

इन अमर शब्दों के साथ, ओशो अपनी जीवनी को नकारते हैं और अपने जीवन का सार निचोड़ कर रखते हैं, मैं वर्तमान काल का प्रयोग कर रही हूं क्योंकि यह भी उनकी हिदायत है। मेरा उल्लेख भूतकाल में कभी मत करना। चेतना सदा वर्तमान है न भूत, न भविष्य।
जिंदगी में अपने कई नाम बदलने के बाद, वह अंतत: ओशो स्वीकार करने के लिए तैयार हुए, यह कहकर कि यह शब्द अमरीकी मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स के शब्द ओशियानिक अर्थात सागरनुमा से व्युत्‍पन्‍न है। यह मेरा नाम नहीं है, उन्होंने कहा, 'यह एक स्वास्थ्यदायी ध्वनि है, हीलिंग साउंड है।‘’
 ओशो का वर्णन विरोधाभासों को स्वीकार किए बगैर नहीं हो सकता। वे निरंतर विपरीत ध्रुवों के दो बिंदुओं के बीच गतिमान रहे। जिन—जिन बात कप खंडन किया उन्हीं बातों का स्वयं ही अंगीकार किया। पहले संन्यास, शिष्‍य या संगठन की मजाक उड़ाने वाले आचार्य रजनीश खुद ही ये सब काम करने लगे। कौन ऐसा प्रखर दार्शनिक है जो स्वयं को भगवान कहलाने की हिम्‍मत कर सकता है? और जब इस उपाधि से विश्व भर में पर्याप्त उथल—पुथल मच चुकी तो बाद में एक दिन उसे छोड्कर अलग हो गए। 
बीस साल की अवधि में हजारों घंटे स्वत: स्‍फूर्त प्रवचन करते हुए दुनिया भर में घूमें, और साथ यह भी कहते रहे कि 'मैं बोलता हूं ताकि तुम्हें मौन की झलक दे सकूं। मेरे शब्दों को जड़ता से मत पकड़ना। मैं वह उंगली हूं जो की ओर इशारा करती है, चांद को देखना, उंगली की पूजा मत करने लगना।
लेकिन हम उंगली की पूजा करने वाले लोग है, चांद से हमें क्‍या लेना—देना?
ओशो की प्रज्ञा ने मानव मन को इस तरह खुर्दबीन के नीचे रखा

 पहले कभी नहीं रखा गया था। और फिर उन्होंने मस्तिष्क की छोटी से —छोटी शिकन का विश्लेषण किया। मनोविज्ञान, विज्ञान, भावनाएं, सेक्स और प्रेम! मन/शरीर की गुत्थियां, नीति— अनीति, धर्म, इतिहास, राजनीति और सामाजिक विकास के रूप—सभी विषयों का गहन अध्ययन, परीक्षण और फिर उन्हें इंकार अपनी नई मौलिक दृष्टि का प्रतिपादन। यह ओशो का तरीका रहा है।
इस प्रक्रिया में ओशो पाखंड का पर्दाफाश करते हैं जहां भी उसे देखते हैं। प्रसिद्ध अमरीकी लेखक टीम रॉबिन्स बहुत सुंदरता से कहते हैं: 'जब कोई मरकत हवा का झोंका मेरा दरवाजों को झकझोरता है तो मैं उसे पहचानता हूं। और ओशो एक तेज, मीठी हवा की तरह, इस ग्रह पर बहते हैं— धर्मगुरुओं की खटिया खड़ी करते हैं, नौकरशाहों के मेजों पर बिखरे हुए झूठों का चीरहरण करते हैं। शक्तिशाली लोगों के पावों तले जमीन खींच लेते हैं, रुग्ण नखरेबाज नीतिवादियो की नैतिकता की धज्जियां उड़ाते हैं और मरी—मरायी आध्यात्मिकता में वापस प्राण फूंक देते हैं।
तो ओशो के बारे में क्या कहें? परम विध्वंसक? या एक द्रष्टा जो दृष्टि बन जाता है? निश्चित रूप से अस्तित्व के लिए एक प्रस्ताव कि हर व्यक्ति को समुद्रतुल्य चेतना के अनुभव का आनंद लेने का जन्मसिद्ध अधिकार हे। इसके लिए, ओशो का कहना है, 'अस्तित्व में सिर्फ एक ही रास्ता है जो भीतर की ओर जाता है, अन्य सारे रास्ते भटकाते हैं। भीतर आपको एक भी इंसान नहीं मिलेगा, केवल मौन और शांति मिलेगी।
ओशो का मुख्य कार्य हमें दिखाई देता है एक मूर्ति भंजक के रूप में। लेकिन मूर्तियां पत्थर या काष्ठ की नहीं वरन मनुष्य के विचारों की, कल्पनाओं की, कमजोर आस्थाओं की, घिसी पिटी परंपराओं की। मनुष्य जाति भूतकाल को इस कदर छाती से चिपकाये बैठी थी कि उससे उसके प्राण संकट में आ गए थे। लाश को कब तक ढोते रहेंगे? ओशो ने निर्भयता से सभी स्थापित तत्वों से लोहा लिया। वे कहते, 'मैं समूची मानवता के बीच एक के बहुमत में हूं। आई ऐम इन दि मेजोरिटी ऑफ वन।
जोरबा दि बुद्धा उनके पूरे दर्शन का सार निचोड़ कहा जा सकता है। जोरबा यानी ऐसा आदमी जो भौतिक जीवन से बेहद प्यार करता है और बुद्ध वह जो भरे—पूरे संसार के बीच तटस्थ भाव से, साक्षी बुनकर जीता है। इन दोनों का समन्वय जिसमें है वह है ओशो का नया मनुष्य।
इतिहास में कई रहस्यदशी, दार्शनिक अतिमानव का स्वप्न देखते रहे। योगी अरविंद, फ्रेंडरिक नीतो, जरथुस्त्र इत्यादि लोग सुपरमैन के अवतरण की कामना करते रहे, लेकिन ओशो ने कहा, वह नया मनुष्य कहीं ऊपर से नहीं उतरेगा, वह हर मनुष्य के भीतर जन्म लेगा। कीचड़ ही कमल बनेगा, बशर्ते वह कीचड़ से घृणा न करें। कीचड़ का सम्मान करें। कीचड़ की गंदगी में छिपे हैं कुसुमित होने के राज।
ओशो ने लोगों को यह कमल—विद्या सिखाई। इसलिए उनका आग्रह सतत रूपांतरण पर है। ध्यान का मतत्नब ही आत्म रूपांतरण की विद्या, निकृष्ठ धातु को स्वर्ण में बदलने की अल्केमी। ओशो के शब्दों से सम्मोहित बुद्धिजीवियों को यह मालूम नहीं है ओशो एक अंतर जगत के वैज्ञानिक हैं, और उन्होंने ध्यान की सैकड़ों विधियां बनाईं जो नए मनुष्य के शरीर और मन के अनुकूल हैं। आज नई पीढ़ी के बीच, देश विदेश के जवानों के बीच ओशो की लोकप्रियता का मर्म यह है कि ओशो ने वक्त की नब्ज पकड़ ली है। वे नई पीढ़ी की भाषा बोलते हैं, उनकी समस्याओं को उनके तरीके से सुलझाते हैं।
इस ओशो दर्शन में कोई पूर्ण विराम नहीं हे, यह एक अंतहीन प्रवाह है चेतना का। यहां कोई किसी का सहारा नहीं है, लेकिन हां, खुद को समझने की दिशा में एक मददगार हाथ जरूर है।

 --मा अमृत साधना

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