अध्याय—(तीरासीवां)
लगभग
आठ घंटे गहरी
नींद में सोने
के बाद मैं
सुबह बहुत तरो—ताजा
उठती हूं।
हमारा होटल
बड़े—बड़े
वृक्षों से
घिरा है, इस
समय इन पर
चिड़िया चहचहा
रही हैं। खुले
बरामदे में
बैठकर अपनी
सुबह की चाय
पीते हुए ऐसा
लग रहा है
जैसे मैं
स्वर्ग में
हूं। यहां
बंबई से बहुत
अलग सा लग रहा
है। हर चीज
शांत लग रही
है। मैं खुश
हूं कि ओशो
बंबई से यहां
चले, आए
हैं।
9—00 बजे तक
तैयार होकर
मैं ओशो से
मिलने के लिए
चली जाती हूं।
मां लक्ष्मी
मुझसे मिलती
हैं और मुझे
घुमाकर घर व
बगीचा दिखाने
लगती हैं। यह
जगह ओशो के
लिए बिल्कुल
ठीक लगती है।
अब वे अपने
बगीचे में घूम
सकते हैं, अपने
लोन में बैठ
सकते हैं, जहां
उन्हें कोई
परेशान नहीं
करेगा।
दोपहर
को मैं दोबारा
ओशो से मिलने
आती हूं। वे
बगीचे में एक
कुर्सी पर
अपनी आंखें
बंद किए बैठे
हैं। मैं उनके
करीब जाकर
चुपचाप नीचे
फर्श पर उनकी
बांयी ओर बैठ
जाती हूं।
पेड़ों पर
चहचहाते
पक्षियों की
आवाज को छोड्कर
बाकी सबकुछ
एकदम शांत हैं।
अचानक, पास
से ही किसी
गाड़ी के
गुजरने की बड़ी
तेज आवाज आती
है। मुझे ऐसा
लगता है जैसे
शांति भंग हो
गई, लेकिन
जैसे ही गाड़ी
की आवाज खतम
होती है, शांति
और भी ज्यादा
गहरा जाती है।
कुछ समय बाद, ओशो अपनी आंखें
खोलते हैं और
मेरी ओर
मुस्कुराकर
देखते हैं। वे
मुझसे पूछते
हैं, तू, बंबई कब
वापस जा रही
है?' मैं
उनसे कहती हूं
'ओशो, मैं
बबई वापस जाना
नहीं चाहती।
मैं पूना में
ही रहना चाहती
हूं।’ वे
मुझसे पूछते
हैं कि क्या
मुझे वहां, पर कोई
समस्या है? मैं उन्हें
बताती हूं कि
समस्या तो कोई
भी नहीं है।
तब वे मुझे
विस्तार से
समझाते हैं कि
वे त्याग के
पक्ष में नहीं
हैं। मुझे
अपना काम जारी
रखते हुए घर
में ही रहना चाहिए,
और जब भी
संभव हो पूना
आती रहूं।
वापस
जाने में मेरी
अनिच्छा को
देखते हुए वे
कहते हैं, बैबई
में तुझे मेरा
काम करना है, और जब ठीक
समय आएगा मैं
तुझे बुला
लूंगा।’ मैं
रोने लगती हूँ
और उनकी ओर
देखती हूं। वे
हंसकर कहते
हैं, तू आंसूओं
में और भी
सुंदर लगती है।’
आंखों में आंसू
लिए हुए ही
मैं हंस पड़ती
हूँ और वे
अपना हाथ मेरे
सिर पर रखकर
कहते हैं, 'शाबाश'
मैं उनके
चरण स्पर्श
करती हूं और
निराशा से व्यथित
हृदय लिए लौट
आती हूं।
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