अध्याय—(तिरानवां)
मैं
दिसंबर 1985 के
अंत में पूना
पहुंचती हूं
और फिर से
अकाउंट
डिपार्टमेंट
में मदद करने
लगती हूं।
कम्यून में
सिर्फ पचास—साठ
संन्यासी हैं
और पूरी जगह
वीरान—सी लगती
है। कुछ
हफ्तों बाद
हमें यह खबर
सुनने को
मिलती है कि
ओशो मनाली से
नेपाल चले गए
हैं। भारत के
बहुत से
संन्यासी
उनसे मिलने
नेपाल जा रहे हैं।
मुझे ऐसा लगता
है कि वे जहां—जहां
जाते हैं, वहां—वहां
शारीरिक रूप
से पंहुच पाना
तो असंभव है।
शारीरिक
रूप से उनसे
दूर बिताए
वर्षो में अंतत:
मैं अपने
ध्यान के मौन
क्षणों में
उनसे जुड़ना
सीख गई हूं।
अब जुदाई की
पीड़ा नहीं
होती। हमें
खबर मिलती है
कि नेपाल में
वे किसी होटल
में रह रहे
हैं और हर रोज
सुबह और शाम
उस होटल के
कांफ्रेस हॉल
में बोल रहे
हैं। नेपाल के
कुछ सरकारी
अधिकारी ओशो
में उत्सुक हैं
और हो सकता है
कि वे वहीं
रुक जाएं। फिर
करीब डेढ़
महीने बाद, एक
दिन हमें यह
खबर मिलती हे
कि ओशो ग्रीस
चले गए हैं और
वहां से वे
अपनी
विश्वयात्रा
पर निकल
पड़ेंगे। यह
समाचार मेरे
लिए बड़े धक्के
जैसा है। मुझे
लगता है कि अब
इस जन्म में
मैं उन्हें कभी
दोबारा नहीं
देख पाऊंगी।
हर रोज उनकी
किसी खबर के
लिए मैं अखबार
टटोलती हूं।
कुछ हफ्तों
बाद हम अखबार
में पढ़ते हैं
कि ग्रीस में
ओशो को
गिरफ्तार करके
उन्हें वहां
से निष्कासित
कर दिया गया
है। मैं बहुत
उदास हो जाती
हूं और रात
अपने ध्यान के
समय मैं उनके
लिए
प्रार्थना
करती हूं कि
वे भारत वापस
लौट आएं। पश्चिम
इस विद्रोही
व्यक्ति को
पचाने के लिए
तैयार नजर
नहीं आता।
इसके बाद अखबारों
से ऐसी ही खबरें
मिलती रहती
हैं कि उन्हें
किसी भी —देश 'मैं प्रवेश
नहीं मिल रहा
है। एक दिन
अखबार में जब
हम यह पढ़ते है कि
ओशो को
उरुग्वे में
प्रवेश मिल
गया है तो हमें
राहत मिलती है।
ओशो वहां कुछ
महीने के लिए
रहते हैं फिर
वहां से भी
देश छोड्कर
उन्हें आगे
यात्रा पर आगे
निकल जाना
पड़ता है।
एक
रात,
बिस्तर पर
लेटे हुए मैं
यह महसूस करती
हूं कि मैं
यूरो तरह थक
चुकी हूं और
मुझे लंबी छुट्टी
की जरूरत है।
मैं पूना
कम्यून' छोड्कर
उत्तर भारत के
पर्वतों की ओर
निकल पड़ती हूं।
ओशो की अपने
जेट प्लेन में
अनवरत यात्रा
की खबर पाने
के लिए मैं
रोज अखबार
देखता हूं।
जमाईका छोड़ने
के बाद उनकी
कोई खबर
अखबारों में
नहीं है। मैं
गंगा के
किनारे—किनारे
होती हुई
गोमुख तक
पहुंचने के
अपने पर्वतारोहण
का आनंद ले
रही हूं।
बिलकुल ताजी
और ऊर्जा से
भरी हुई, मैं
जुलाई के मध्य
में बंबई वापस
पहुंच जाती हूं।
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