कल
दो सूत्रों पर
कुछ बात मैंने
आपसे की। उस
संबंध में
बहुत से
प्रश्न भी
पूछे गए हैं।
एक
मित्र ने पूछा
है कि ओशो
क्या विचार
करना ही जीवन
का ध्येय है? और
क्या विचार से
ही जीवन के
सत्य का अनुभव
हो सकता है?
विचार
प्रक्रिया है, विचार
सीढ़ी है। और
सीडी के साथ
एक अदभुत बात
है जो समझ
लेनी चाहिए।
बहुत कम लोग
समझ पाते हैं
बहुत सीधे से
सत्यों को भी।
सीढ़ी के साथ
एक अदभुत सत्य
है कि अगर ऊपर
पहुंचना हो
मकान के तो
सीढ़ी पर चढ़ना
भी पड़ता है और
उतरना भी पड़ता
है। सीडी पर
पैर भी रखने
पड़ते हैं और
फिर सीढ़ी को
छोड़ भी देना
पड़ता है। अगर
कोई कहे कि
सीढ़ी पर हम
चढ़ेंगे जरूर,
लेकिन फिर
सीढ़ी से
उतरेंगे नहीं,
तो भी वह
आदमी मकान के
ऊपर नहीं
पहुंच सकेगा।
और कोई अगर
कहे कि जब
उतरना ही है
सीढ़ी से तो चढ़ने
की जरूरत क्या
है? तो वह
आदमी भी मकान
के ऊपर नहीं
पहुंच सकेगा।
मैंने
सुना है, एक
स्टेशन पर
ट्रेन खड़ी थी
और हरिद्वार
की तरफ जाती
थी। हजारों
लोग गाड़ी में
बैठ रहे थे और
पूरे स्टेशन
पर एक ही आवाज
थी कि किसी
तरह गाड़ी के
भीतर बैठो, सामान भीतर
पहुंचाओ, सीट
पकड़ो, जगह
बनाओ। एक
मित्र को घेर
कर कुछ लोग
समझा रहे थे।
वह मित्र यह
पूछ रहा था कि
इस ट्रेन में
बैठने से
फायदा क्या जब
हरिद्वार पर
उतरना ही
पड़ेगा? जब
उतरना ही है
तो बैठें
क्यों? और
दलील उसकी सच
थी, तर्क
उसका ठीक था।
कई बार तर्क
बिलकुल ठीक
होते हैं।
सिर्फ ठीक
दिखाई पड़ते
हैं, बुनियाद
में ठीक नहीं
होते। वह ठीक
कह रहा था कि
जिस ट्रेन से
उतरना है
उसमें चढ़ना
क्यों?
लेकिन
मित्रों ने
कहा,
गाडी जा रही
है और हमें
समझाने का
मौका नहीं है,
हम
जबरदस्ती
तुम्हें अंदर
बिठा लेते हैं।
जबरदस्ती उस
आदमी को
उन्होंने
अंदर बिठा लिया।
फिर
हरिद्वार पर
फिर विवाद
शुरू हो गया।
उस आदमी ने
कहा,
जब मैं चढ़
ही गया तो अब
मैं उतरूंगा
नहीं। कि जब
चढ़ ही गए तो
उतरना क्या? और जब चढ़ाया
था इतनी मेहनत
से तो क्या
उतारने को
चढ़ाया था?
फिर
मित्र समझाने
लगे कि गाड़ी
छूटने को है, उतरते
हो कि नहीं
उतरते! तुम
आदमी पागल हो।
उसकी दलील में
तो कोई गलती न
थी। लेकिन
जिंदगी
दलीलें नहीं
मानती, जिंदगी
की अपनी
दलीलें हैं।
इस जिंदगी में
सबसे बड़े मजे
की बात यह है
कि जिस चीज को
भी सीढ़ी बनाना
हो, उसे
पकड़ना भी पड़ता
है और छोड़ना
भी पड़ता है।
विचार
प्रक्रिया है, विचार
को पकड़ना
जरूरी है, आत्यंतिक
रूप से विचार
को पकड़ना
जरूरी है, ताकि
सारा चित्त
विचार की
अग्नि से गुजर
जाए। फिर एक
घड़ी आती है कि
विचार को छोड़
भी देना पड़ता
है। सत्य का
चरम अनुभव तो
निर्विचार
चित्त को होता
है। जहां
विचार भी नहीं
रह जाते वहां
सत्य का पता चलता
है।
लेकिन
आप कहोगे कि
जब निर्विचार
चित्त को सत्य
का अनुभव होता
है,
तो हम विचार
करें ही क्यों?
जब विचार को
एक क्षण छोड़
देना पड़ेगा और
निर्विचार
होना पड़ेगा, तो फिर
विचार में
पड़ना ही क्यों?
हम बिना
विचार के ही
क्यों न रह
जाएं?
लेकिन
हरिद्वार के
स्टेशन पर
उतरना गाड़ी से
एक बात है और
किसी दूसरे
स्टेशन से न
चढ़ना बिलकुल
दूसरी बात है।
क्योंकि वह न
चढ़ा हुआ आदमी
हरिद्वार
नहीं पहुंच
जाएगा।
विचार
को जो करता ही
नहीं वह
विश्वास पर
अटका रह जाता
है। विश्वास
अंधापन है, और
अंधा आदमी
सत्य को कभी
नहीं जान सकता।
जो विचार नहीं
करता वह बिलीफ
और विश्वास
में खड़ा रह
जाता है। और
जो आदमी
विश्वास में
बंधा रह जाता
है वह अंधा है,
उसकी आंखों
पर पट्टी है, उसका शोषण
हो सकता है, उसको भटकाया
जा सकता है।
लेकिन वह कभी
सत्य तक नहीं
पहुंच सकता।
सत्य तक
पहुंचने की
पहली शर्त है.
विश्वास से मुक्त
हो जाओ।
विश्वास
का मतलब क्या
है?
विश्वास का
मतलब है कोई
कहता है और हम
मान लेते हैं,
हम नहीं
जानते।
विश्वास का
मतलब है. कोई
जानता है और
हम मानते हैं।
विश्वास का
मतलब है. आंखें
किसी और की
हैं, प्रकाश
की खबर किसी
और ने दी है। न
हमें प्रकाश
दिखाई पड़ता है,
न हमारे पास
आंखें हैं, हम सिर्फ
मान लेते हैं।
हमारा यह
मानना बहुत
खतरनाक है।
रामकृष्ण
कहते थे, एक
आदमी था अंधा,
उस अंधे
आदमी को कुछ
मित्रों ने एक
दिन भोजन पर
निमंत्रित
किया था। जब
वह भोजन कर
रहा था, वह
पूछने लगा, यह क्या है? यह क्या है? यह क्या है? बहुत
स्वादिष्ट
मिठाइयां
बनाई थीं। वह
पूछने लगा, यह मिठाई
कैसे बनी है? कहां से बनी
है? मुझे
कुछ समझाओ! यह
मुझे बहुत ही
अच्छी लगी है।
मित्रों ने
कहा, यह
मिठाई दूध से
बनी है। वह
अंधा आदमी
पूछने लगा, यह दूध क्या
है? पहले
मुझे दूध के
संबंध में
समझाओ!
मित्रों ने
कहा, दूध
भी नहीं जानते
हो? उस
आदमी ने पूछा,
कैसा होता
है दूध? क्या
है दूध का रंग?
मित्रों ने
कहा, दूध
का रंग बगुले
की तरह है।
बगुला देखा है?
उड़ता है
पक्षी। उस
बगुले की तरह
शुभ्र होता है
दूध।
उस
अंधे आदमी ने
कहा,
क्यों
पहेलियों में
पहेलियां
पैदा कर रहे
हो? अब
मुझे यह भी
पता नहीं कि
बगुला कैसा
होता है। अब
तुम थोड़ा मुझे
यह समझाओ कि
बगुला कैसा
होता है?
लेकिन
मित्र बिलकुल
भी न सोचे कि
जिसके पास आंख
नहीं है उसे न
दूध समझाया जा
सकता, न बगुला
समझाया जा
सकता। उसे रंग
के संबंध में
कुछ भी नहीं
समझाया जा सकता।
फिर
एक मित्र को
सूझ आई। उस
अंधे ने कहा, कुछ
इस तरह समझाओ
कि मैं समझ
सकूं। अभी
मिठाई क्या है,
मैं नहीं
जान पाया, और
तुमने कह दिया
दूध। अब दूध
क्या है, मैं
नहीं जान पाया;
और तुमने कह
दिया बगुला।
अब यह बगुला
क्या है? अब
तुम कहते हो
शुभ्र होता है,
सफेद। अब यह
शुभ्रता क्या
है? यह
सफेदी क्या है?
एक
मित्र पास आया, वह
अपना हाथ उस
अंधे के पास
ले गया और कहा,
मेरे हाथ पर
हाथ फेरो!
जैसा सुडौल
मेरा हाथ है, मुड़ा हुआ, ऐसी बगुले
की गर्दन होती
है।
उस
अंधे आदमी ने
हाथ फेरा, वह
अंधा आदमी खड़े
होकर नाचने
लगा और कहा, मैं समझ गया,
मैं बिलकुल
समझ गया कि
दूध मुड़े हुए
हाथ की तरह
होता है।
उसके
आंख वाले
मित्रों ने
सिर फोड़ लिया
और कहा, बड़ी
भूल हो गई, इससे
तो तुम यही
जानो कि तुम
नहीं जानते हो,
वही ठीक था।
कम से कम सच तो
था कि तुम
नहीं जानते हो।
यह जानना तो
और खतरनाक हो
गया। यह जानना
तो न जानने से
बदतर हो गया।
दूसरों
का ज्ञान खुद
के अज्ञान से
बदतर होता है, क्योंकि
दूसरों का
ज्ञान कभी भी
खुद का ज्ञान
बन ही नहीं
सकता। अंधे
आदमी की आंख
नहीं है, तो
दुनिया भर के
लोग प्रकाश को
देखते हों, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। हम सारे
दुनिया के लोग
भी एक अंधे को
नहीं समझा
सकते कि
प्रकाश कैसा
है। प्रकाश
सिर्फ जाना जा
सकता है, समझा
नहीं जा सकता।
और विश्वास
समझने पर खड़े
होते हैं, जानने
पर खड़े नहीं
होते। इसलिए
सब विश्वास
झूठे हैं और
सब विश्वास
खतरनाक हैं।
हम
मानते हैं कि
ईश्वर है। वह
झूठा है। वह
ऐसा ही झूठा
है जैसा उस
अंधे आदमी का
यह कहना कि
मुड़े हुए हाथ
की तरह होगा
दूध। हमने
सुनी हैं
बातें ईश्वर
की— कृष्ण
कहते हैं, राम
कहते हैं, क्राइस्ट
कहते हैं, मोहम्मद
कहते हैं, वे
बातें हमने
सुनी हैं।
उनकी बातों को
सुन कर हमने
ईश्वर की कोई
धारणा बना ली
है। यह धारणा
उतनी ही झूठी
है जैसे उस
अंधे आदमी की
धारणा। हमारी
धारणा का
ईश्वर कहीं भी
नहीं है, कभी
नहीं था, कभी
नहीं होगा।
अंधे की धारणा
का प्रकाश
कहीं नहीं है,
कभी नहीं
होगा, कभी
नहीं हो सकता
है। क्योंकि
अंधे की धारणा
प्रकाश की हो
ही नहीं सकती।
अंधा सिर्फ
विश्वास कर
सकता है, जानता
नहीं।
एक
बार और ऐसा
हुआ है, एक
गांव में
बुद्ध ठहरे
हैं और उस
गांव के कुछ लोग
एक अंधे आदमी
को लेकर बुद्ध
के पास आए और
कहने लगे कि हम
समझा—समझा कर
हार गए! इस
मित्र को
समझाते हैं कि
प्रकाश है, यह मानता
नहीं। और यह
ऐसी दलीलें
करता है। और
अंधे आदमी
बहुत दलीलें
करते हैं, क्योंकि
अंधे आदमी के
पास जानना तो
होता नहीं, सिर्फ
दलीलें हो
सकती हैं। यह
बहुत दलीलें
करता है। यह
कहता है, प्रकाश
है तो मैं
छूकर देखना
चाहता हूं
स्पर्श करा दो
मुझे! अब हम
कहां से
प्रकाश का
स्पर्श करा
दें? और हम
स्पर्श नहीं
करवा पाते, फिर भी
प्रकाश है।
लेकिन इसको
कैसे समझाएं?
यह कहता है
कि मैं चख कर
भी देख सकता
हूं मैं सुगंध
भी ले सकता
हूं! प्रकाश
को ठोको, बजाओ,
मैं उसकी
ध्वनि सुन लूं।
लेकिन हमारे
पास कोई उपाय
नहीं है, क्योंकि
प्रकाश को
सिर्फ आंख से
जाना जा सकता
है, न कान
से, न हाथ
से, न नाक
से, न
स्वाद से। हम
क्या करें? हम हार गए
हैं इस अंधे
आदमी से। हमें
पता है कि
प्रकाश है, हम देखते
हैं कि प्रकाश
है, लेकिन
हम सिद्ध नहीं
कर पाते। आंख
वाला आदमी
अंधे आदमी के
सामने क्या
सिद्ध कर सकता
है? कुछ भी
सिद्ध नहीं कर
सकता। हां, अंधा मानने
को राजी हो
जाए तो बात
दूसरी है। और
अंधा मानने को
राजी हो जाए
तो वह गलती
करता है।
क्योंकि जिस
चीज को मानने
को वह राजी हो
रहा है उसको
उसने जाना
नहीं है और
मानने से कभी
जान भी नहीं
सकता।
बुद्ध
ने कहा, मेरे
पास क्यों लाए
हो इसे? अगर
मैं भी अंधा
होता तो मैं
भी यही कहता
कि मैं छूकर
देखना चाहता
हूं। तुम भी
अंधे होते, तुम भी यही
कहते। मेरे
पास लाने की
जरूरत नहीं।
इसे किसी
विचारक के पास
मत ले जाओ, इसे
किसी वैद्य के
पास ले जाओ।
इसे उपदेश की
जरूरत नहीं है,
इसे उपचार
की जरूरत है।
इसकी आंख ठीक
होनी चाहिए।
एक
ही उपाय है
प्रकाश को
जानने का, वह
है आंख। आंख
की जगह
विश्वास काम
नहीं कर सकता।
और अगर कोई
मान भी ले
अंधा तो क्या
फर्क पड़ता है?
मानने से
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाएगा?
मानने से आंख
खुल जाएगी? मानने से
प्रकाश का
अनुभव हो
जाएगा? मानने
से कुछ भी
नहीं होगा।
मानने से
सिर्फ एक बात
होगी कि अंधा
आदमी अंधा
रहते हुए
समझने लगेगा
कि मैं प्रकाश
को जानता हूं
जो कि बहुत
खतरनाक है।
वे
मित्र उसे एक
वैद्य के पास
ले गए। संयोग
की बात थी, उसकी
आंख पर जाली
थी, वह छह
महीने में दवा
से कट गई। वह
आदमी नाचता
हुआ गांव भर
में घूमा और
एक—एक घर में
जाकर द्वार
खटखटाया और
कहा कि प्रकाश
है! वह बुद्ध
के पास भी आया,
उनके पैर
पकड़ लिए और
रोने लगा और
कहने लगा, प्रकाश
है! लेकिन
बुद्ध ने कहा,
मुझे
स्पर्श करा कर
दिखाओ। वह
आदमी कहने लगा,
प्रकाश का
कहीं स्पर्श
हो सकता है? बुद्ध ने
कहा, मैं
उसका स्वाद
लेकर देख लूं।
वह आदमी कहने
लगा, मत
करिए मजाक
मेरे साथ। वे
अंधे आदमी की
दलीलें थीं।
अब मेरी आंख
खुल गई, अब
मैं जानता हूं
वे दलीलें गलत
थीं। लेकिन वह
मेरे अंधेपन
का कसूर था, मेरा कसूर न
था। और अगर
मैं मान लेता,
तो वह मानना
भी झूठ होता, क्योंकि जो
मैंने आज जाना
है, इसकी
मैं कल्पना भी
नहीं कर सकता
था, इनकंसीवेबल
है।
अंधे
आदमी के लिए
प्रकाश की
कल्पना भी
असंभव है। आप
तो कहते हैं
प्रकाश की, अगर
आप जानते हों
तो आपको पता
होगा कि अंधा
आदमी अंधेरे
की कल्पना भी
नहीं कर सकता,
प्रकाश की
कल्पना तो
बहुत दूर है।
अंधे आदमी को
अंधेरे का भी
पता नहीं होता
अंधे आदमी को।
क्योंकि
अंधेरे के पते
के लिए भी आंख
चाहिए, अंधेरा
भी आंख को
दिखाई पड़ता है।
अगर आंख न हो
तो अंधेरा भी
दिखाई नहीं
पड़ता।
आप
ने सुना होगा, सोचा
होगा कि अंधे
को प्रकाश
नहीं दिखाई
पड़ता, तो
आप गलती में
हैं। अंधे को
अंधेरा भी
दिखाई नहीं
पड़ता! क्योंकि
अंधेरा भी आंख
का ही अनुभव
है, अंधेरा
भी प्रकाश के
अभाव का अनुभव
है, वह भी आंख
को ही होता है।
अंधा आदमी
अंधेरे की
कल्पना भी
नहीं कर सकता,
तो हम
प्रकाश की
कल्पना को उसे
कैसे पकडा
सकते हैं?
लेकिन
हम सारे लोग
जीवन के संबंध
में विश्वासों
को पकड़े हुए
हैं। ये
विश्वास
खतरनाक हैं।
विश्वास को
जाने दें, विचार
को आने दें।
लेकिन इसका यह
मतलब नहीं है
कि विचार करने
से सत्य का
पता चल जाएगा।
नहीं, विचार
का प्रयोग
निगेटिव है, नकारात्मक
है। विचार
करने से, क्या
असत्य है, यह
पता चल जाएगा।
विचार करने से,
क्या सत्य
नहीं है, यह
पता चल जाएगा।
विचार करने से
यह पता चल
जाएगा कि यह—यह
सत्य नहीं है,
यह—यह सत्य
नहीं है। जैसा
उपनिषद कहते
हैं. नेति—नेति,
नॉट दिस, नॉट दैट।
विचार करने से
यह पता चल
जाएगा— यह भी
सत्य नहीं है,
यह भी सत्य
नहीं है।
लेकिन विचार
करने से, सत्य
क्या है, यह
कभी पता नहीं
चलेगा।
एक
घड़ी आएगी कि
क्या—क्या
असत्य है, वह
पता चल जाएगा।
और विचार थक
जाएगा, हार
जाएगा खोज—खोज
कर और सत्य का
पता नहीं
चलेगा। तब
अंतिम स्थिति
में विचार भी
गिर जाता है।
और तब जो
जाग्रत होता
है उसका नाम
विवेक है। उस
विवेक को सत्य
का अनुभव होता
है।
विचार
है प्रक्रिया, विचार
है मार्ग, जो
विवेक तक
पहुंचा देता
है; और
विवेक है वह
द्वार जहां से
सत्य का अनुभव
होता है।
तो
जो मैंने कल
आपसे कहा, विचार
करना जरूरी है,
विश्वास पर
रुक जाना
जरूरी नहीं है।
समाज में
क्रांति करनी
हो या व्यक्ति
में, सब
में क्रांति
करनी हो या
स्वयं में—
क्रांति का
सूत्र एक ही
है। कोई चाहे
तो एक गिलास
भर पानी को
भाप बनाए या कोई
चाहे तो पूरे
समुद्र को भाप
बनाए, लेकिन
पानी को भाप
बनाने का
सूत्र एक है।
कितने पानी को
आप भाप बनाते
हैं, यह
सवाल नहीं है।
एक
व्यक्ति की
जिंदगी में
क्रांति लानी
हो तो, पूरे
समाज की
जिंदगी में
क्रांति लानी
हो तो, सूत्र
एक है.
विश्वास पर
ठहरा हुआ समाज
कभी क्रांतिकारी
नहीं होता, विश्वास पर
ठहरा हुआ
व्यक्ति कभी
क्रांतिकारी
नहीं होता; विचार की
अग्नि से
गुजरना जरूरी
है। लेकिन
विचार मात्र
से भी कभी कोई
सत्य तक नहीं
पहुंच जाता है।
एक घड़ी आती है
कि विचार की
सीढ़ी चढ़नी
पड़ती है और एक
घड़ी आती है कि
विचार की सीढ़ी
भी छोड़ देनी पड़ती
है। जिस दिन
विचार भी छूट
जाता है, उस
दिन जो शेष रह
जाता है उसका
नाम है विवेक,
उसका नाम है
प्रज्ञा, उसका
नाम है ध्यान,
उसका नाम है
समाधि। वहां
हम जानते हैं
जो है। और जो
है उसे जान
लेना एक
क्रांति से
गुजर जाना है।
अंधा
आदमी जिस दिन
प्रकाश को
जानता है, आप
समझते हैं वही
आदमी रह जाता
है जो प्रकाश
को नहीं जानता
था? नहीं; प्रकाश को
जानते ही अंधा
आदमी और ही हो
जाता है जो वह
कभी नहीं था।
जान रूपांतरण
लाता है। हम
जितना जानते
हैं उतने हम
रूपांतरित
होते हैं, हम
नये होते चले
जाते हैं।
थोड़ी देर को
सोचो आंखें
बंद हों हमारी,
कान बंद हों,
नाक बंद हो,
हाथ स्पर्श
न करता हो, हमारी
सारी
इंद्रियां
बंद हों, हम
क्या होंगे? हमारा क्या
अनुभव होगा? हमारी क्या
स्थिति होगी?
हम में और
पत्थर में
क्या फर्क
होगा?
यह
जो पशुओं की
दुनिया में
हमें विकास
दिखाई पड़ता है, वह
इंद्रियों का
विकास है।
जिसकी जानने
की क्षमता
जितनी बढ़ गई
है, वह
पशुओं में
उतना ऊपर आ
गया है। लेकिन
इंद्रियों के
अतिरिक्त भी
अतींद्रिय जानने
के द्वार हैं,
जो विचार से
मुक्त होकर, विश्वास से
मुक्त होकर
विवेक के
खुलने पर उपलब्ध
होते हैं। उस
विवेक के
चक्षु में जो
जाना जाता है
उसका नाम ही
परमात्मा है।
उस विवेक के
मार्ग से जो
पहचाना जाता
है उसी का नाम
सत्य है। और
सत्य, सत्य
क्रांति कर
देता है, रूपांतरित
कर देता है
पूरे जीवन को,
फिर चाहे वह
जीवन समाज का
हो।
इसलिए
मैंने कल आपसे
कहा कि
विश्वास को
जाने दें, विचार
को आने दें।
और विचार कब
आता है? विचार
तब आता है जब
हम संदेह करने
का साहस जुटाते
हैं। संदेह
करने का साहस
विचार का
प्राण है। वही
आदमी विचार कर
सकता है जो
संदेह कर सकता
है।
लेकिन
हमें तो
हजारों साल से
सिखाया गया है
: संदेह मत
करना; संदेह
करना ही नहीं,
संदेह करना
गलत है। आंख
बंद करके मान
लेने की
दीक्षा दी गई
है हमें। और
इसीलिए विचार
पैदा नहीं हो
पाता। संदेह
बहुत अदभुत है,
संदेह किसी
भी विचारशील
आदमी का लक्षण
है। और जो
आदमी संदेह
नहीं कर सकता
वह आदमी धार्मिक
भी नहीं है।
अब
तक यही कहा
गया है कि
विश्वास करने
वाला धार्मिक
है। और मैं
आपसे कहना
चाहता हूं
विश्वास करने
वाला धार्मिक
नहीं है, संदेह
करने वाला ही
धार्मिक है।
लेकिन
क्यों? क्योंकि
जो संदेह करता
है वह विचार
करता है। और
यह बहुत
हैरानी की बात
है कि संदेह
करने वाला एक
दिन सत्य तक
पहुंच जाएगा,
विश्वास
करने वाला कभी
सत्य तक नहीं
पहुंचता।
क्योंकि
विश्वास का
मतलब है कि
हमने यात्रा बंद
कर दी।
विश्वास का
मतलब क्या
होता है? विश्वास
का मतलब होता
है कि हमने
मान लिया, यात्रा
समाप्त हो गई।
जो नहीं मानता
उसकी यात्रा
जारी रहती है।
वह कहता है, यह नहीं, यह
नहीं। अभी और
आगे मैं
खोजूंगा, खोंका,
और आगे जाऊंगा।
एक
गांव में एक
फकीर ठहरा हुआ
था। उस गांव
के लोगों ने
आकर उस फकीर
को कहा कि चलें
और हमें ईश्वर
के संबंध में
कुछ समझाएं।
उस
फकीर ने कहा, ईश्वर
के संबंध में
कभी किसी ने
कुछ भी नहीं समझाया
है। मैं क्या
समझाऊंगा? मुझे
छोड़ दो, क्षमा
कर दो।
फिर
भी वे गांव के
लोग नहीं माने
तो वह फकीर
उनकी गांव की
मस्जिद में
गया। मस्जिद
में लोग
इकट्ठे थे, पूरा
गांव इकट्ठा
था। उस फकीर
ने खड़े होकर
मंच पर कहा कि
मैं पहले कुछ
कहने के यह
पूछ लेना
चाहता हूं
ईश्वर है? तुम
मानते हो? तुम
जानते हो कि
ईश्वर है? तो
हाथ उठा दो।
उस
मस्जिद के
सारे लोगों ने
हाथ ऊपर उठा
दिए। उस फकीर
ने कहा, बात
खतम हो गई। जब
तुम जानते ही
हो, तो अब
मुझे कहने की
कोई जरूरत
नहीं। और
ईश्वर को
जानने के आगे
तो कुछ भी
जानने को शेष
नहीं रह जाता।
इसलिए अब मैं
क्या कहूं!
कोई
भी नहीं जानता
था,
हाथ झूठे थे।
हमारे सब हाथ
भी झूठे उठते
हैं। लेकिन
हमें पता ही
नहीं है कि
धर्म के नाम
पर भी कितना
झूठ चलता है!
और जो आदमी
धर्म के नाम
पर भी झूठ पर
हाथ उठाता है,
वह आदमी
जिंदगी में
कैसे सच हो
सकता है? जब
हम से कोई
पूछता है, ईश्वर
है? और हम
कहते हैं, हां।
तो हमने कभी
सोचा कि हम
बिना जाने हा
भर रहे हैं! और
यह ही झूठ है।
और जब यह
बुनियादी हां
झूठ है, तो
हमारी और
धार्मिक
जिंदगी सारी
की सारी झूठ हो
जाएगी। इसलिए
मंदिर जाने
वालों की, तीर्थयात्रा
करने वालों की
सारी जिंदगी
सरासर झूठ
होती है।
क्योंकि
बुनियादी
आधार, फाउंडेशन
झूठ होता है।
उन्होंने उस
चीज पर ही भर
दी है जिसे
नहीं जानते
हैं।
उन्होंने
बिना खोजे, बिना सोचे, बिना जाने, बिना पहचाने
हां भर दी है।
उस
फकीर ने कहा, बात
खतम हो गई।
अब
कुछ कहने को
भी न था, गांव
वालों ने हाथ
उठा दिया था।
उन्होंने कहा
कोई फिकर नहीं।
अगले रविवार
को फिर
उन्होंने जाकर
प्रार्थना की
कि चलें
मस्जिद में।
उस
फकीर ने कहा, लेकिन
मैं गया था
पिछली बार और
सब लोग वहां
ईश्वर को
जानते हैं, मेरी वहां
कोई जरूरत
नहीं है। जहां
सभी शानी हों
वहां ज्ञान की
कोई जरूरत नहीं
रह जाती।
इस
देश में ऐसा
ही हुआ है, यहां
सभी ज्ञानी
हैं, इसलिए
ज्ञान की कोई
जरूरत नहीं रह
गई। इसलिए ज्ञान
ठहर गया, ज्ञान
आगे नहीं बढ़ता।
सब जब ज्ञानी
हों तो ज्ञान
आगे कैसे
बढ़ेगा? जिनको
इस बात का बोध
है कि हम
अज्ञानी हैं,
वे जान को
आगे बढ़ाते हैं,
क्योंकि वे
खोज करते हैं।
जिनको यह पता
चल गया कि हम
जानते हैं, उनकी खोज
बंद हो गई।
हिंदुस्तान
कोई तीन हजार
साल से रुका
है,
उसका ज्ञान
नहीं बढ़ता आगे,
क्योंकि सब
ज्ञानी हो
चुके हैं।
अज्ञानी
ज्ञान को आगे
बढ़ाते हैं।
जिनको बोध है
कि अज्ञान है,
हम नहीं
जानते, वे
जानने की
कोशिश करते
हैं। जिनको
पता है कि सब
जान लिया गया,
वे ठहर जाते
हैं; जीते
हैं, मरते
हैं, लेकिन
ज्ञान की कोई
गति नहीं होती।
उस
फकीर ने कहा, क्या
करूंगा मैं
जाकर?
लेकिन
वे लोग बोले, हम
दूसरे लोग हैं।
वे तय करके आए
थे कि अब
बदलने के
सिवाय कोई रास्ता
नहीं है।
उन्होंने कहा,
हम गांव के
दूसरे लोग हैं,
हम वे लोग
ही नहीं हैं
जो पिछली बार
आए थे। उस
फकीर ने कहा, चेहरे तो
पहचाने मालूम
पड़ते हैं, लेकिन
ठीक है।
धार्मिक आदमी
का कोई भरोसा
नहीं, कभी
भी बदल सकता
है। अभी गीता
पढ़ रहा है, अभी
छुरा निकाल
सकता है। अभी
कुरान पढ़ रहा
है मस्जिद में,
और देखो तो
बहुत भोला
मालूम पड़ता है,
थोड़ी देर
में मकान में
आग लगा सकता
है निकल कर।
धार्मिक आदमी
का कोई भरोसा
नहीं है।
तथाकथित
धार्मिक आदमी
से ज्यादा
बेईमान और डिसऑनेस्ट
व्यक्तित्व
खोजना
मुश्किल है।
लेकिन हम इसी
को धार्मिक
आदमी कहते हैं।
अधार्मिक
आदमी में भी
एक ऑनेस्टी, एक
सिसियरिटी
होती है।
धार्मिक आदमी
में वह भी
नहीं होती।
नास्तिक में
भी एक तरह का
बल और सच्चाई
होती है, आस्तिक
में वह भी
नहीं होती।
इसीलिए तो
नास्तिकों के
नाम पर दुनिया
में कोई पाप
नहीं है, कोई
न मकान जलाया
है उन्होंने,
न किसी की
हत्या की है।
लेकिन
आस्तिकों के
नाम पर इतनी
हत्या और इतने
पाप का
सिलसिला है कि
अगर कोई सोचे
तो हैरान
होगा! कि सोचे
तो भगवान से
कहे कि यह
दुनिया कब
नास्तिक हो
जाएगी, ऐसा
कुछ उपाय करो।
नहीं तो ये
पाप और अपराध
बंद नहीं
होंगे। यह
हैरानी की बात
है!
उस
फकीर ने कहा, ठीक
है। तुम पक्के
धार्मिक
मालूम पड़ते हो,
बदल गए! मैं
आऊंगा।
लोग
चले गए वापस, वह
मस्जिद
पहुंचा, वह
मंच पर खड़ा
हुआ। लोगों ने
तय कर रखा था
कि आज जब वह
पूछे, कहना
हम जानते नहीं।
फकीर ने पूछा,
ईश्वर है? मानते हो?
उन्होंने
कहा,
न ईश्वर है,
न हम मानते,
न हम जानते।
अब बोलिए!
फकीर
ने कहा, बात
खतम हो गई। जो
है ही नहीं
उसके संबंध
में बोलना
क्या? बात
ही टूट गई। और
फकीर ने कहा
कि तुम सोचते
हो कि तुमने
मामला बदल
लिया। तुमने
बदला नहीं। उस
बार भी तुमने
ज्ञान का दावा
किया था कि हम
जानते हैं; अब भी तुम ज्ञान
का दावा कर
रहे हो कि
नहीं है। नहीं
है ईश्वर, यह
भी ज्ञान का
ही दावा है।
यह भी तुम कहते
हो कि हम
जानते हैं कि
ईश्वर नहीं है।
खैर, बात
खतम हो गई है, तुम शानी हो
और मैं कुछ भी
नहीं कर सकता।
ज्ञानियों
के साथ कुछ भी
नहीं किया जा
सकता।
ज्ञानियों से
ज्यादा मरे
हुए लोग नहीं
होते। पंडित
से ज्यादा
व्यर्थ आदमी
नहीं होता।
क्योंकि
जिसको भी यह
भ्रम पैदा हो
जाता है कि
मैं जानता हूं
उसमें जीवन
नष्ट हो जाता
है। क्योंकि
जीवन
परिवर्तन है, जीवन
और जानने की
खोज है, और
जानने की। और
अनंत खोज है
यह, कभी
ऐसा क्षण नहीं
आता कि कोई
कहे कि बस, जानना
खतम हो गया।
फकीर
तो चला गया, गांव
के लोग बहुत
परेशान हुए।
यह आदमी कैसा
है! अब हम क्या
करें? लेकिन
इस आदमी ने रस
पैदा कर दिया
था और लगता था
कि यह कुछ
कहेगा तो
अर्थपूर्ण
होगा।
क्योंकि उसके
दोनों गेस्वर,
दोनों बार
उसका यह कहना
बहुत
अर्थपूर्ण
मालूम हुआ था।
बात तो सच कह
रहा था वह।
लेकिन अब हम
क्या करें? उन्होंने
आखिर.....एक ही
उपाय और बचा
था, तीसरा
विकल्प। एक
बार कहा था
हां, एक
बार कहा था
नहीं, अब
कुछ दोनों के
बीच समझौता
करने का
रास्ता था।
वे
फिर गए तीसरी
बार। फकीर ने
कहा,
क्यों भाई?
उन्होंने
कहा,
हम फिर आए
हैं
प्रार्थना
करने, लेकिन
हम तीसरे ही
लोग हैं।
लेकिन
उसने कहा, मित्रों,
चेहरे
बिलकुल
पहचाने हुए
मालूम पड़ते
हैं।
उन्होंने
कहा कि वह
आपकी गलती है, आपका
भ्रम है। हम
तीसरे ही लोग
हैं, गांव
बड़ा है। हम
पूछने आए हैं,
आप चलें।
फकीर
गया,
वह मंच पर
खड़ा हुआ। उसने
फिर वही सवाल
किया, ईश्वर
है कि नहीं है?
मस्जिद
के लोगों ने
तय किया था कि
आधे लोग
कहेंगे— है; आधे
लोग कहेंगे—
नहीं है। आधे
लोगों ने हाथ
उठा दिया कि
ईश्वर है, हम
मानते हैं, हम आस्तिक
हैं, आधे
लोगों ने कहा,
हम निपट
नास्तिक हैं,
हम नहीं
मानते। अब आप
बोलिए!
फकीर
ने कहा, कैसे
पागल हो! जो
जानते हैं वे
उनको बता दें
जो नहीं जानते
हैं। मेरी
क्या जरूरत है?
मेरा क्या
प्रयोजन है
यहां बुलाने
का? मुझे
तुम किसलिए
बुला कर लाए
हो? इस
मस्जिद में
दोनों लोग
मौजूद हैं—जों
जानते हैं वे,
जो नहीं
जानते हैं वे।
तुम आपस में
निपटारा कर लो।
वह फकीर उतर
कर चला गया।
गांव
के लोग चौथी
बार नहीं गए, क्योंकि
चौथा कोई
उन्हें उत्तर
नहीं सूझा।
फिर वह फकीर
कई महीने रुका
रहा उस गांव
में और राह
देखता रहा कि
शायद वे आएं।
कई बार उसने
लोगों से कहा,
अब नहीं आते?
कई बार
लोगों को खबर
भेजी, अब
नहीं आते? लेकिन
लोगों ने कहा,
हम क्या आएं,
हम कैसे आएं?
चौथा उत्तर
नहीं मिलता है।
तुम फिर वही
पूछोगे, हम
थक गए, चौथा
उत्तर नहीं है।
फिर
गांव से जिस
दिन वह फकीर
विदा होता था, गांव
के लोग उसे
विदा देने आए
और उससे पूछने
लगे, चौथा
उत्तर भी हो
सकता था क्या?
क्योंकि
तुमने बार—बार
पूछा कि हम
आएं, हम
फिर से आएं।
फकीर
ने कहा, हो
सकता था। और
अगर तुमने
चौथा उत्तर
दिया होता तो
मैं जरूर
बोलता।
फिर
गांव के लोग
कहने लगे, तो
बताओ न वह
चौथा उत्तर
क्या है?
लेकिन
उसने कहा, मेरा
बताया हुआ
उत्तर
तुम्हारा
उत्तर नहीं हो
सकता; लेकिन
मैं जाते वक्त
तुम्हें बताए
जाता हूं।
लेकिन ध्यान
रखना कि मेरा
उत्तर
तुम्हारा उत्तर
नहीं हो सकता।
अपना उत्तर ही
अपना होता है।
फिर
भी,
उन्होंने
कहा, बता
दें।
तो
उस फकीर ने
कहा,
मैं पूछता
और तुम चुप रह
जाते और कोई
उत्तर न देते,
तो मुझे
बोलना जरूरी
हो जाता।
क्योंकि तब
तुम बताते कि
हम कुछ भी
नहीं जानते—न
हां, न ना।
हमें बिलकुल अज्ञात
है, हम उस संबंध
में कुछ भी
नहीं कह सकते
हैं, हम
धारणा भी नहीं
कर सकते हैं
कि ईश्वर यानी
क्या!
अगर
तुम चुप रह गए
होते, मौन रह
गए होते, तो
मुझे बोलना
पड़ता। लेकिन
तुम बोलते चले
गए। तुम्हारे
बोलने ने
बताया कि तुम
जानने के भ्रम
में हो। और जो
जानने के भ्रम
में है उसे
ज्ञान कभी भी
उपलब्ध नहीं
हो सकता है।
अज्ञानी
जान सकता है, पंडित
कभी नहीं जान
सकता है।
क्योंकि
अज्ञानी को एक
खुमिलिटी, अज्ञानी
को एक
विनम्रता है
कि मैं नहीं
जानता हूं।
अज्ञानी के
द्वार खुले
हैं। लेकिन
ज्ञानी के
द्वार बंद हैं।
जो जान लेता
है वह द्वार
पर ताला लगा
कर अंदर बैठ
जाता है।
इसलिए
मैं कहता हूं
विश्वास झूठा
ज्ञान पैदा करता
है। ज्ञान
नहीं, सूडो
नॉलेज है, मिथ्या
ज्ञान है। और
मिथ्या ज्ञान
खतरनाक है।
विचार करो और
मिथ्या ज्ञान
को नष्ट कर दो।
विचार से ज्ञान
नहीं मिल
जाएगा, मिथ्या
ज्ञान नष्ट
होगा। जैसे
पैर में एक
कांटा लगा हो,
और हम दूसरे
कांटे को उठा
कर उस कांटे
को निकाल कर
फेंक देते हैं।
लेकिन दूसरे
कांटे को घाव
में नहीं रख
लेते, दूसरा
कांटा भी फेंक
देते हैं।
विश्वास के
कांटे को
निकाल डालों
विचार की
प्रक्रिया से।
फिर विचार की
प्रक्रिया भी
व्यर्थ हो जाती
है। दोनों
कांटे फेंक
दिए जाते हैं।
फिर क्या रह
जाता है? फिर
जो रह जाता है
उसी का नाम है
चेतना, उसी
का नाम है
कांशसनेस, उसी
का नाम है
विवेक, उसी
का नाम है
प्रशा। उस
प्रज्ञा को
सत्य का अनुभव
होता है। सत्य
का अनुभव
क्रांतिकारी
है। चाहे समाज
का सवाल हो, चाहे
व्यक्ति का, सत्य के
अनुभव के बिना
कोई क्रांति
नहीं है। और
इसलिए मैं
कहता हूं अब
तक दुनिया में
कोई क्रांति
नहीं हुई है, सिर्फ
क्रांति के
नाम पर सूडो रेवोल्यूशंस
हुई हैं, मिथ्या
क्रांतियां
हुई हैं। बडी
से बड़ी
क्रांति भी
दुनिया की
क्रांति नहीं
थी। रूस में
जो क्रांति
हुई वह, चीन
में जो
क्रांति हो
रही है वह, या
फ्रांस में जो
क्रांति हुई,
ये कोई भी
क्रांतियां
नहीं हैं। सब
सूडो रेवोल्यूशंस
हैं, सब
मिथ्या
क्रांतियां
हैं।
क्यों
इनको मिथ्या
क्रांति कहता
हूं?
क्योंकि ये
क्रांतियां
जिंदगी को
बदलती नहीं, सिर्फ
जिंदगी के बोझ
को एक कंधे से
दूसरे कंधे पर
कर देती हैं।
बीमारी के नये
नाम शुरू हो
जाते हैं। रूस
में गरीब मिट
गया, अमीर
मिट गया। गरीब
और अमीर की
जगह दो नये
वर्ग आ गए
जनता का और
सत्ताधिकारियों
का। और वे
वर्ग वैसे के
वैसे हैं। कल
जो आदमी मालिक
की हैसियत से
फैक्ट्री चलाता
था, अब वह
मैनेजर की
हैसियत से
फैक्ट्री
चलाता है, ताकत
उसकी उतनी की
उतनी है। कोई
क्रांति नहीं
हो गई, सिर्फ
वर्गों ने
रूपांतरण कर
लिया। सिर्फ
वर्ग बदल गए, नाम बदल गए, दूसरे वर्ग
उनकी जगह
स्थापित हो गए।
क्योंकि जो
क्रांति हुई
वह क्रांति
किसी सत्य के
साक्षात से
नहीं निकली, वह क्रांति
केवल
विश्वासों के
आधार पर निकली।
पुराने
विश्वास बदल
गए, नये
विश्वास पकड़
लिए गए। लेकिन
फिर विश्वास
पकड़ लिए गए, और फिर जो
क्रांति हुई,
वह फिर
पुराने ढांचे
को नई शक्लों
में, नये
नामों में
स्थापित कर गई।
हम नाम बदल
लेने को भी
क्रांति
समझते हैं।
नाम बदल जाते
हैं, और हम
समझते हैं सब
कुछ बदल गया।
अछूत को कहने
लगते हैं
हरिजन और
समझते हैं सब कुछ
बदल गया।
अछूत
शब्द बेहतर था, क्योंकि
उस शब्द में
एक चोट थी और
वह चोट कभी क्रांति
करवा सकती थी।
हरिजन शब्द
खतरनाक है, उसमें चोट
नहीं है, वह
बड़ा मधुर और
मीठा है। और
मीठे शब्दों
के खिलाफ
क्रांति नहीं
होती। अब
हरिजन को गौरव
मालूम होता है
यह कहने में कि
हम हरिजन हैं।
अछूत कहने में
उसे गौरव नहीं
मालूम होता था,
अछूत कहने
में चोट लगती
थी। चोट से
क्रांति आ
सकती थी।
हरिजन कहने
में वह अकड़ कर
कहता है कि हम हरिजन
हैं। और ऐसा
लगता है कि
बाकी कोई
हरिजन नहीं
हैं, बाकी
लोग भगवान के
लोग नहीं हैं,
यह आदमी
भगवान का आदमी
है। शब्द
खतरनाक सिद्ध
होते हैं।
उन्नीस
सौ बावन के
करीब, वहां
हिमालय की
तराई में
नीलगाय होती
है, तो
नीलगाय ने
बहुत उपद्रव
मचाया खेतों
में, उसकी
संख्या बहुत
बढ़ गई थी।
लेकिन नीलगाय
में गाय जुड़ा
हुआ है शब्द, तो उस गाय को
गोली नहीं
मारी जा सकती,
क्योंकि
गाय को गोली
मारना, वह
हिंदू की जो
जड़ता है उसमें
एकदम आग लग
जाएगी। तो फिर
क्या किया जाए?
तो
पार्लियामेंट
में एक
होशियार आदमी
ने सुझाव दिया
कि पहले
नीलगाय का नाम
नीलघोड़ा रखो,
फिर गोली
मारेंगे। और
यह सुझाव
स्वीकृत हो
गया। नीलगाय
नीलघोड़ा हो गई
और फिर
गोलियां मारी
गईं और किसी
ने कुछ भी
नहीं कहा। उस
जानवर को पता
भी नहीं चला
होगा कि अब हम
नीलगाय नहीं
रहे, नीलघोड़ा
हो गए हैं।
लेकिन
आदमी की
बेईमानी, आदमी
की डिसऑनेस्टी
हद की है! फिर
किसी ने भी
बात ही नहीं
की— कि
नीलघोड़े को
मारने में
क्या हर्जा है?
मरने दो, घोड़ों से
क्या लेना—देना
है! हिंदुओं
की तो गाय
माता है, बस
उसको भर बचाना
है, और
किसी से कोई
मतलब नहीं है।
अगर गाय का भी
नाम बदल दो, उसको भी
गोली मारी जा
सकती है। क्योंकि
हमारी किताब
में तो लिखा
है. गाय माता है।
अगर गाय का
नाम बदल दिया
तो फिर कोई
दिक्कत नहीं
है।
यह
जो आदमी का
दिमाग है, यह
क्रांति—व्रांति
नहीं करता, यह शब्दों
को बदलता है, वर्गों के
नाम बदलता है,
नीचे की चीज
ऊपर करता है, इस कोने की
चीज उस कोने
में रखता है
और सोचता है
क्रांति है।
यह क्रांति—व्रांति
नहीं है। नई
जमावट पैदा कर
लेता है और
कहता है
क्रांति हो गई।
क्रांति
तब तक नहीं
होगी मनुष्य
के जगत में जब
तक विचार की
ऊर्जा समग्र
जीवन को घेर न
ले,
विचार की आग
न पकड़ ले, हम
जीवन के एक—एक
मूल्य को
संदेह न करने
लगें— और
संदेह की आग
में सब जल जाए
और विवेक
जाग्रत हो। उस
विवेक से आएगी
क्रांति।
और
लोग पूछते हैं
कि वह क्रांति
कैसे लाएंगे?
क्रांति
लानी नहीं
पड़ती; विवेक
जागे तो
क्रांति आती
है, कासिकेंस
है क्रांति
विवेक का।
जैसे
कि एक घर में
अंधे आदमी
रहते हों, तो
अंधा आदमी पूछता
है कि दरवाजा
कहां है? लेकिन
आंख वाले आदमी
रहते हों, तो
कोई नहीं
पूछता कि
दरवाजा कहां
है। जब निकलना
होता है, निकल
जाता है। उसे
खुद भी पता
नहीं चलता
अपने को कि
मैं दरवाजे से
निकल रहा हूं।
उसे यह भी पता
नहीं चलता कि
मैं दरवाजा
खोजूं। आंखें
देखती हैं, आदमी दरवाजे
से निकल जाता
है। दरवाजे से
निकलना देखने
वाले आदमी के
लिए इतना सहज
है।
लेकिन
अंधा आदमी
पूछता है, दरवाजा
कहां है? बाएं
कि दाएं? लकड़ी
कहां है मेरी?
मेरा हाथ
पकड़ो, मैं
दीवाल से न
टकरा जाऊं!
अंधा आदमी यह
भी पूछ सकता
है... हम उससे
अगर कहें कि
जब तेरी आंख
ठीक हो जाएगी
तो तुझे लकड़ी
की जरूरत नहीं
रहेगी.. .वह
कहेगा, ऐसा
कैसे हो सकता
है? फिर
मैं दरवाजा
कैसे खोजूंगा?
अंधा आदमी
यह भी कह सकता
है... हम उससे
अगर कहें कि
जब तेरी आंख
ठीक हो जाएगी
तो तू बस बिना
पूछे दरवाजे
से निकल
जाएगा.. वह
कहेगा, ऐसा
कैसे हो सकता
है? बिना
पूछे कोई कैसे
निकल सकता है?
मनुष्य
पूछता है
क्रांति कैसे
होगी? मैं
नहीं कहता
क्रांति कैसे
होगी। यह सवाल
नहीं है। सवाल
यह है कि वह
क्रांति करने
वाला तत्व भीतर
जग जाए, फिर
क्रांति हो
जाती है। फिर
आप वही आदमी
हो ही नहीं
सकते जो आप थे।
आपको चीजें
दिखाई पड़ने
लगती हैं। और
कोई आदमी
देखते हुए सिर
नहीं टकराता
है दीवाल से, कोई आदमी
नहीं टकराता।
जिस
आदमी का विवेक
जग जाएगा, उसी
दिन वह हिंदू
नहीं रह जाएगा,
उसी दिन
मुसलमान नहीं
रह जाएगा।
क्योंकि
हिंदू और
मुसलमान अंधे
आदमी के लक्षण
हैं। उस दिन
वह सिर्फ आदमी
रह जाएगा। और
वह यह नहीं
पूछेगा कि मैं
हिंदू होना
कैसे भूलूं
मैं मुसलमान
होना कैसे बंद
करूं। उस आदमी
को दिख जाएगा
ये दीवालें
थीं, दरवाजे
नहीं थे; जिनसे
टकराते थे, सिर फूटते
थे, खून
बहता था; और
कुछ भी नहीं
होता था। न
हिंदू से कोई
मतलब है धर्म
का, न मुसलमान
से, न जैन
से। धार्मिक
आदमी हिंदू
मुसलमान और
जैन कैसे हो सकता
है? धार्मिक
आदमी सिर्फ
आदमी हो सकता
है। और अगर
धार्मिक आदमी
हो तो भारत और
पाकिस्तान
बच्चों के खेल
मालूम पड़ने लगेगे।
जमीन कहीं
बंटी नहीं, सिर्फ नक्शों
में बंटी है।
आज
इतना ही।
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