दिनांक
20 मई 1979; श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
सूत्र:
गुरु
गरवा दादू मिल्या, दीरघ
दिल दरिया।
तत
छन परसन
होत हीं भजन
भाव भरिया।।
श्रवण
कथा साँची सुणी, संगति
सतगुरु की।
दूजा
दिल आवै
नहिं, जब
धारी धुर की।।
भरमजाल भव काटिया, संका
सब तोड़ी।
साँचा
सगा जे राम का, ल्यौ तासूँ
जोड़ी।।
भौजल
माहीं काढ़िकै, जिन
जीव जिलाया।
सहज
सजीवन कर लिया
साँचे संगि
लाया।।
जनम
सफल तब का भया, चरपौ
चित लाया।
रज्जब
राम दया करी, दादू
गुर पाया।।
राम
रंगीले के रंग
राती।
परम
पुरुष संगि
प्राण हमारों, मगन
गलित मद-माती।।
लाग्यो
नेह नाम
निर्मल सूँ, गिनत
न सीली ताती।
डगमग
नहीं अडिग होई
बैठी, सिर धरि करवत
काती।।
सब
विधि सुख राम ज्यूँ राखै, यहु
रसरीति
सुहाती।
जवानी, हुस्न,
गमजे, अहद, पैमां कहकहे, नग्मे
रसीले
ओंठ,
शर्मीली निगाहें, मरमरी बाहें
यहाँ
हर चीज बिकती
है,
खरीदारो!
बताओ
क्या खरीदोगे?
भरे
बाजू, गठीले
जिस्म, चौड़े आहनी सीने
बिलकते
पेट,
रोती गैरतें,
सहमी हुई
आहें
यहाँ
हर चीज बिकती
है,
खरीदारो!
बताओ
क्या खरीदोगे?
जबानें, दिल,
इरादे, फैसले,
जांबाजियाँ,
नारे
यह आए
दिन के हंगामे, यह
रंगारंग तकरीरें
यहाँ
हर चीज बिकती
है,
खरीदारो!
बताओ
क्या खरीदोगे?
सदाकत, शायरी,
तन्कीद,
इल्पो-फन कुतुबखाने
कलम के, मोंजिजे, फिक्रो-नजर की शोख
तस्वीरें
यहाँ
हर चीज बिकती
है,
खरीदारो!
बताओ
क्या खरीदोगे?
अजानें, शंख,
हजरे, पाठशाले,
डाढ़ियाँ,
कश्के,
यह
लंबी-लंबी तस्वीहें, यह
मोटी-मोटी
मालाएँ
यहाँ
हर चीज बिकती
है,
खरीदारो!
बताओ
क्या खरीदोगे?
अलल-एलान
होते हैं, यहाँ
सौदे जमीरों
के
यह वह
बाजार है
जिसमें फरिश्ते
आके बिक
जाएँ
यहाँ
हर चीज बिकती
है,
खरीदारो!
बताओ
क्या खरीदोगे?
संसार
एक बाजार है।
यहाँ हर चीज
बिकती है; खरीदारो! बताओ क्या खरीदोगे?--सिवाय
परमात्मा के।
परमात्मा-भर
बाजार में नहीं
है। उसका-भर
सौदा नहीं हो
सकता। उसे भर
खरीदने का कोई
उपाय नहीं है।
और सब कुछ मिल
जाएगा। लेकिन
और जो भी
मिलेगा, जैसा
मिला वैसा ही
खो भी जाएगा।
पानी पर खींची
लकीरें हैं।
रेत के बनाए
महल हैं। बन
भी न पाएँगे
और मिट
जाएँगे। और जो
भी पा लोगे, मौत छीन ही
लेगी।
जिसे
मौत छीन ले, समझ
लेना वह संसार
था। जो मौत
में भी बचकर
तुम्हारे साथ
चला जाए, जो
चिता की लपटों
में भी
तुम्हारा साथ
न छोड़े, समझना
वही परमात्मा
है। मृत्यु
जिसे पोंछ
देती है, वह
परमात्मा
नहीं है।
परमात्मा
का अर्थ हैः
शाश्वत जीवन; अनंत
जीवन; न
जिसका कोई ओर,
न कोई छोर, न कोई आदि, न कोई अंत।
वैसे जीवन को
न पाया तो कुछ
भी न पाया।
वैसे जीवन को
न पाया तो
सिर्फ गँवाया
कौरे गँवाया।
वैसे जीवन की
आकांक्षा
कहाँ जगे,
कैसे जगे?
कौन उठाए उस
लपट को
तुम्हारे
भीतर? कौन
तुम्हें याद
दिलाए? जिसने
पाया हो, वही
याद दिला
सकेगा। जिसने
चखा हो, वही
तुम्हारे
प्राणों में
भी चाह उठा
सकेगा। जो
जागा हो, वही
सोए को जगा
सकेगा। उस
जागे का नाम
गुरु। गुरु का
कोई और अर्थ
नहीं होता। जो
तुम्हें
परमात्मा को
छोड़कर कुछ और
सिखाए, वह
शिक्षक, गुरु
नहीं। जो
तुम्हें
परमात्मा
सिखाए, वह
गुरु।
आज के
सूत्र बड़े
प्यारे हैं।
"गुरु
गरवा दादू मिल्या,
दीरघ दिल
दरिया।'
रज्जब
कहते हैं:
सागर-जैसे चौड़े
दिलवाला
गुरु मिल गया।
गुरु होगा ही
सागर के दिल
जैसा विस्तीर्ण।
परमात्मा को
जानते ही हृदय
विस्तीर्ण हो
जाता है।
परमात्मा को
जानते ही
जाननेवाला परमात्मामय
हो जाता है।
जो उसे जानता
है,
उसके जैसा
हो जाता है।
इसे याद रखना।
तुम जो जानते
हो उसके जैसे
ही हो जाते
हो। तुम जो
पाते हो उसके
जैसे ही हो
जाते हो। जो
धन ही इकट्ठा
करता है और
ठीकरों में ही
जीता है, वह
ठीकरा होकर ही
मरता है। आदमी
के चेहरे पर उसकी
सारी जिंदगी
की कथा लिखी
होती है। उसकी
ऑंखों
में ज़रा झाँको और
तुम उसके जीवन
की गहराई को
पकड़ लोगे।
उसकी ऑंखों
में तुम्हें
तैरते हुए
नोट-नोट
दिखायी पड़ेंगे,
कि
सोने-चाँदी के
ढेर दिखायी
पड़ेंगे, कि
पद-प्रतिष्ठा
का अंबार
दिखायी
पड़ेगा। बस यह
आदमी वही हो
गया।
जो
चाहते हो, सोचकर
चाहना।
क्योंकि
चाहना
तुम्हारी
आत्मा बन जाती
है। तुम जो
चाहते हो, उसका
रंग तुम पर चढ़
जाता है। जो
भी तुम माँगते
हो, वही
तुम धीरे-धीरे
हो जाते हो।
क्षुद्र को मत
माँगना, अन्यथा
क्षुद्र हो
जाओगे।
माँगना ही हो
तो विराट को
माँगना, ताकि
विराट हो सको।
चाहना हो तो
परमात्मा को चाहना।
उसका रंग लगे
तो जीवन में
गंध आए। उसका रंग
लगे तो जीवन
में रोशनी
उतरे।
लोग
अगर कीड़े-मकोड़ों
की तरह सरक
रहे हैं तो
उसका कारण है, उनकी
चाह जमीन की है।
आकाश की तरफ ऑंखें
उठाओ!
परमात्मा
की प्रार्थना
में हम आकाश
की तरफ ऑंखें
क्यों उठाते
हैं?
परमात्मा
की प्रार्थना
में क्यों हम
अपने बाजू
आकाश की तरफ
फैलाते हैं? किसलिए?
कोई
परमात्मा
आकाश में बैठा
है, ऐसा
थोड़े ही है।
लेकिन एक
इशारा है कि
परमात्मा
आकाश जैसा विराट
है। और जो इस
आकाश जैसे
विराट को जान
लेगा, स्वभावतः
उसी जानने में
वह आकाश जैसा
विराट हो
जाएगा। हम जो
जानते हैं, वही हो जाते
हैं। उपनिषद
कहते हैं:
जिन्होंने
उसे जाना, वह
वही हो गए।
"गुरु
गरवा दादू मिल्या,
दीरघ दिल
दरिया।'
सागर
जैसा जिसका
दिल था, ऐसा गुरु
मिला। ऐसा
भारी गुरु
मिला! "गरवा'! भारी का
क्या अर्थ? "गुरु' शब्द
का अर्थ भी
"भारी' होता
है। गुरु शब्द
भी उसी मूल से
बना है जिससे
गरवा। गुरु का
अर्थ है, ऐसा
भारी, कि
बैठ जाए
गहराइयों से
गहराइयों में,
जो अंतिम
गहराई में
पहुँच जाए।
हलके होओगे तो
गहराई न जान
सकोगे। गहरे
होने के लिए
तो वजन चाहिए।
तो सागर की
अतल गहराइयों
में उतर
पाओगे।
किस
बात से वजन
आता है जीवन
में?
एक ही बात
से वजन आता है
जीवन में:
परमात्मा से
जुड़ जाओ तो
वजन आता है।
नहीं तो लोग
सतह पर ही
जीते हैं, सतह
पर ही मर जाते
हैं।
परमात्मा सतह
पर नहीं है।
या तो
ऊँचाइयों की
ऊँचाई है
परमात्मा, या
गहराइयों की
गहराई है
परमात्मा।
सतह तो दोनों
के मध्य में
है--न ऊँचाई है
वहाँ, न
गहराई है
वहाँ।
और यह
भी खयाल रखना
कि जीवन के
गणित में
ऊँचाई और
गहराई का एक
ही अर्थ होता
है। वह एक ही
प्रक्रिया के
दो पहलू हैं।
जो गहरा होता
है,
वही ऊँचा हो
जाता है। जो
ऊँचा होता है,
वही गहरा हो
जाता है। ऐसा
ही समझो जैसे
वृक्ष। जो
वृक्ष जितना
ऊँचा उठता है
आकाश में, उसकी
जड़ें उतनी ही
गहरी चली जाती
हैं पाताल में।
अनुपात बराबर
होता है। तुम
ऐसा नहीं कर
सकते कि
छोटी-छोटी जड़ोंवाले
वृक्ष को आकाश
को छूने की
कला सिखा दो।
और तुम यह भी
नहीं कर सकते
कि पाताल तक
जड़ें पहुँचानेवाले
वृक्ष को तुम
आकाश तक
पहुँचने से
रोक लो। यह अनुपात
बराबर होता
है--जितनी
ऊँचाई उतनी
गहराई।
फेड्रिक
नीत्शे का
अद्भुत वचन
हैः जिन्हें
आकाश छूना हो, उन्हें
पाताल छूना ही
होगा। . . . तो एक
तरफ तो गुरु
आकाश जैसा
होता है
विराट! उसकी उंचाई और
दूसरी तरफ
गुरु गहरा
होता है-- सागरों
जैसा! अनंत
उसकी गहराई
है। मगर ये एक
ही घटना के दो
हिस्से हैं।
इसमें गुरु का
कुछ भी नहीं है।
परमात्मा के
साथ जो भी जुड़ता
है, वही
ऐसा हो जाता
है। यह जादू
तो परमात्मा
के साथ जुड़ने
का है; उसकी
समीपता का
जादू है।
तुम
अपनी जिंदगी
को देखो तो
कुछ समझ में
आए। तुम्हारी
जिंदगी में
कभी कोई
विराटता का
क्षण आता
है--जब सब
द्वार खुल
जाते हों, सब
दीवालें गिर
जाती हों, जब
तुम्हारा
छोटा-सा चित्त
का ऑंगन
छोटा न रह
जाता हो, आकाश-जैसा
विराट होता
हो।
स्वामी
राम कहते थे
कि मैंने अपने
चित्त के आकाश
में चाँदत्तारों
को चलते देखा
है,
सूरज को
उगते देखा है।
लोग समझते हैं
कि पागलपन की
बातें हैं; या जो इतने
कठोर न होते, वे कहते
कविताएँ हैं।
लेकिन राम जो
कह रहे थे, न
तो पागलपन था
और न काव्य था--जीवन
का सीधा सत्य
था। अहंकार की
सीमा टूट जाए
तो तुम अपने
भीतर चाँदत्तारों
को चलते देखोगे
ही, वे
तुम्हारे
भीतर चल ही
रहे हैं। तुम
अपने भीतर ही
वसंतों को आते
देखोगे।
अपने भीतर ही
तुम विराट का
सारा विस्तार देखोगे।
तुम अपने भीतर
सब पा लोगे।
मगर अहंकार
बड़ा संकीर्ण
है और तुम्हें
खुलने नहीं
देता।
अपनी
जिंदगी को
परखो।
तुम्हारी
जिंदगी में न कोई
ऊँचाई का
अनुभव है, न
कोई गहराई का
अनुभव है, न
कोई विशालता
का अनुभव है।
तुम्हारी
जिंदगी का
अनुभव सिवाय
दुःख के और
कुछ भी नहीं
है। सिवाय
पीड़ा के
तुम्हारा कोई
स्वाद नहीं
है। तुम्हारी ऑंखें अंधेरे
से भरी हैं और
तुम्हारी ऑंखें
धुएँ से तिलमिला
रही हैं। और
यह धुऑं
तुम्हारे ही
भीतर
तुम्हारे
अहंकार से उठ
रहा है। और यह अंधेरा
भी तुम्हारे
भीतर ही जन्म
ले रहा है।
मेरे ख्वाबों
के शबिस्ताँ
में उजाला न
करो
कि
बहुत दूर
सवेरा नजर आता
है मुझे
छुप गए
हैं मेरी
नजरों से खदो-खाले-हयात
हर तरफ
अब्र घनेरा
नजर आता है
मुझे
चाँदत्तारे तो
कहाँ अब कोई
जुगनू भी नहीं
कितना शफ्फाक अंधेरा
नजर आता है
मुझे
कोई ताबिंदा
किरन यूँ मेरे
दिल पर लपकी
जैसे
सोए हुए मजलूम
पै तलवार उठे
किसी नग्मे की
सदा गूँज के
यूँ थर्रायी
जैसे
टूटी हुई
पाजेब से
झंकार उठे
मैंने
पलकों को
उठाया भी तो ऑंसू पाए
मुझसे
अब खाक जवानी
का कोई बार
उठे
तुमने
रातों में
सितारे तो टटोले
होंगे
मैंने
रातों में अंधेरे
ही अंधेरे
देखे
तुमने ख्वाबों
के परिस्ताँ
तो सजाए होंगे
मैंने
माहौल के शबरंग
फरेरे
देखे
तुमने
इकतार की
झंकार तो सुनी
ही होगी
मैंने
गीतों में
उदासी के
बसेरे देखे
मेरे गमख्वार!
मेरे दोस्त!
तुम्हें क्या
मालूम
जिंदगी
मौत की मानिंद
गुजारी मैंने
इक बिगड़ी
हुई सूरत के
सिवा कुछ भी न
था
जब भी
हालात की
तस्वीर उतारी
मैंने
किसी अफलाक-नशीं
ने मुझे धत्कार
दिया
जब भी
रोकी है
मुकद्दर की
सवारी मैंने
मेरे गमख्वार!
मेरे दोस्त!
तुम्हें क्या
मालूम?
थोड़ा
सोचो अपनी
जिंदगी को।
ऐसा ही तुम
पाओगे।
चाँदत्तारे तो
कहाँ अब कोई
जुगनू भी नहीं
कितना शफ्फाक अंधेरा
नजर आता है
मुझे
तुम्हारे
चारों तरफ अंधेरा
ही अंधेरा है।
चाँदत्तारे
तो दूर, जुगनू
भी तुम्हारे
चित्त के आकाश
में तैरते हुए
दिखायी नहीं
पड़ते।
मैंने
पलकों को
उठाया भी तो ऑंसू पाए
मुझसे
अब खाक जवानी
का कोई बार
उठे
तुमने
रातों में
सितारे तो टटोले
होंगे
मैंने
रातों में अंधेरे
ही अंधेरे
देखे
तुमने ख्वाबों
के परिस्ताँ
तो सजाए होंगे
मैंने
माहौल के शबरंग
फरेरे
देखे
--और
मेरी जिंदगी
में तो सिवाय
काले झंडों के
और मुझे कुछ
भी दिखायी
नहीं पड़ा।
मैंने
माहौल के शबरंग
फरेरे
देखे
तुमने
इकतार की
झंकार तो सुनी
ही होगी
मैंने
गीतों में
उदासी के
बसेरे देखे
मेरे गमख्वार!
मेरे दोस्त!
तुम्हें क्या
मालूम
जिंदगी
मौत की मानिंद
गुजारी है
मैंने
लोग
ऐसे ही गुजार
रहे हैं--मौत
की मानिंद।
मरे-मरे जी
रहे हैं। जीने
का सिर्फ नाम
है,
जीना कहाँ!
क्योंकि जीवन
तो केवल वे ही
जानते हैं
जिन्होंने महाजीवन
के साथ हाथ
जोड़ लिए हैं।
जो परमात्मा
के साथ एक
धारा में बँध
जाते हैं, वे
ही जीवन को
जानते हैं; बाकी तो हम
मृत्यु ही
जानते हैं।
मरण-ही-मरण है।
रोज हम मरते
हैं--और थोड़ा
ज्यादा मर
जाते हैं; और
थोड़ी मौत करीब
सरक आती है; और थोड़ी
कब्र करीब आ
जाती है।
हमारी जिंदगी
का और अनुभव
क्या है?
इक बिगड़ी
हुई सूरत के
सिवा कुछ भी न
था
जब भी
हालात की
तस्वीर उतारी
मैंने
कभी
अपने हालात की
तस्वीर उतारकर
देखो। कभी
अपने रंग-ढंग
पर गौर करो।
सब फीका है! सब
बासा है! न
कहीं कोई गंध, न
कहीं कोई रंग,
न कोई नृत्य,
न कोई
मदहोशी, न
कोई मस्ती। किसलिए
जीते हो? किसलिए
जिए जाते हो? किस आशा में
चले जाते हो?
किसी अफलाक-नशीं
ने मुझे धत्कार
दिया
जब भी
रोकी है
मुकद्दर की
सवारी मैंने
मेरे गमख्वार!
मेरे दोस्त!
तुम्हें क्या
मालूम?
आदमी
की जिंदगी, जिंदगी
नाममात्र को
है। आदमी जब
तक परमात्मा से
जुड़े नहीं तब
तक जीवन के
कोई स्वर
उसमें उठते
नहीं। उसके
साथ जुड़ते ही
पाजेब बजती
है। उसके साथ
जुड़ते ही
झंकार उठती है,
इकतारा
बजता है।
ये आज
के सूत्र उसके
साथ जुड़ने
के सूत्र हैं।
लेकिन इसके
पहले कि कोई
परमात्मा से
जुड़े, किसी
परमात्मा के
प्यारे से जुड़ना
होता है।
गुरु
गरवा दादू मिल्या, दीरघ
दिल दरिया।
तत छन परसन होत
हीं भजन भाव
भरिया।।
यह
प्यारा वचन
है। "तत छन'! एक
क्षण में, नजर
से नजर मिली
और सब हो गया!
"तत छन परसन
होत हीं,'. . . दरस-परस
होते ही, देखा
गुरु को कि
बात हो गयी।
साहसी
व्यक्ति रहा
होगा रज्जब।
लोग तो वर्षों
सोचते हैं।
विचार में ही
गँवा देते
हैं। बुद्ध
मिल जाएँ, कि
कृष्ण मिल
जाएँ तो भी
विचार में
गँवा देते हैं।
सोचते ही रहते
हैं। संदेहों
का अंत ही नहीं
आता, प्रश्नों
की समाप्ति
नहीं होती।
शायद सोचना एक
बहाना होगा।
शायद सोचना
टालने की एक
विधि होगी।
शायद सोचने के
नाम से स्थगन
करते
होंगे--कल, परसों,
अभी नहीं।
साहसी
का अर्थ हैः
जो जानता है, या
तो अभी या कभी
नहीं।
"तत छन
परसन होत
हीं'. . . । और
जैसे ही दरस
हुआ, परस
हुआ, जैसे
ही स्पर्श हुआ
गुरु की तरंग
का, जैसे
ही गुरु का
राग सुनायी
पड़ा, जैसे
ही उन ऑंखों
ने रज्जब की ऑंखों में
झाँका. . . "भजन
भाव भरिया'. . . उठ आयी कोई
चीज जो सोयी
पड़ी थी
जन्मों-जन्मों
से। फूटी कोई
कली! खिला कोई
फूल! जो सितार
कभी नहीं छुई
गयी थी, बज
उठी। "भजन भाव
भरिया'! गुरु
के पास बैठकर
अगर भजन भाव न
भरे, तो
तुम पास बैठे
ही नहीं। अगर
गुरु के पास
बैठकर डोले
नहीं, तो
तुम पास बैठे
ही नहीं।
गुरु
के पास बैठे
हो,
इसका लक्षण
क्या है? कसौटी
क्या है? एक
ही कसौटी हैः
"भजन भाव
भरिया'।
तुम्हारे भाव
में भजन उतर
आए। तुम्हारे
भीतर नाद जगे।
तुम जीवन के
उल्लास से भर
जाओ। यह जो
जीवन चारों
तरफ न-मालूम
कितने-कितने
तरह की मधु
ढाल रहा है, तुम इसे पी
उठो! तुम नाच
उठो!
"तत छन
परसन होत
हीं'। यह "परसन' शब्द
के दो अर्थ हो
सकते हैं--या
तो परस, स्पर्श,
या
प्रसन्न। "तत
छन परसन
होत हीं'. . . दोनों
अर्थ सार्थक
हैं। गुरु
प्रसन्न क्या
हुआ, "भजन
भाव भरिया'।
शिष्य की तरफ
से एक अर्थ कि
परस हुआ। सौभाग्यशाली
है शिष्य कि
गुरु से ऑंख
मिली, कि
गुरु के हाथ
में हाथ पड़ा, कि गुरु के
वातावरण में
बैठने का
सुअवसर आया, कि थोड़ी देर
को गुरु की
तरंग में
डोला। यह बजी बीन
गुरु की और
शिष्य नाचा एक
नाग की भाँति!
यह परस शिष्य
की तरफ से है।
लेकिन जब भी
कोई गुरु किसी
शिष्य को नाग
की भाँति फन
उठाकर नाचते
मस्त होते देखता
है, स्वभावतः
प्रसन्न होता
है--एक फूल और
खिला! एक मंदिर
और बना! एक
काबा और खोजा
गया! एक तीर्थ
और उठा!
परमात्मा एक
हृदय में और
उतरा!
"तत
छन परसन
होत हीं'...तो
गुरु प्रसन्न
न हो जाए तो
क्या हो? आह्लाद
से भर जाता है,
शिष्य को
पाकर गुरु
उतने ही
आह्लाद से भर
जाता है, जितना
शिष्य गुरु को
पाकर आह्लाद
से भर जाता है।
यह लपट दोनों
तरफ साथ-साथ
जगती है। यह
धुन एकसाथ
उठती है।
"तत छन
परसन होत
हीं, भजन
भव भरिया।।'
और
गुरु प्रसन्न
हो जाए और
उसकी
मुस्कुराहट तुम
पर बरस उठे और
उसका आनंद तुम
पर ढल जाए, तो
क्या होगा?--"भजन भाव
भरिया'! तुम्हारे
भीतर भाव तो
पड़ा ही था
जन्मों-जन्मों
से, कोई
ठीक-ठीक वसंत
का अवसर न
मिला था; बीज
तो पड़ा था, भूमि
न मिली थी; आज
भूमि मिल गयी।
आज वसंत आ
गया। ऋतु आ
गयी। टूटेगा
बीज, पौधा
उठेगा। हरे
पत्ते निकलेंगे।
सुर्ख फूल
खिलेंगे।
"भजन
भाव भरिया'!
श्रवण
कथा साँची सुणी, संगति
सतगुरु की।
और सब
तो सुना था, और
सब जो गुना था,
पढ़ा था, व्यर्थ
हो गया--जब
संगति सतगुरु
की जानी। उसी संगति
में सुनी
सच्ची
श्रवण-कथा।
साथ होने में
सुनी। संगति
में सुनी।
शास्त्र
तो बहुत हैं, लेकिन
जब तक शास्ता
को न खोज लोगे,
तब तक कोई
शास्त्र
जीवित नहीं
होता। बुद्ध
के वचन
संगृहीत हैं,
"धम्मपद' पढ़ो; कृष्ण
के वचन
संगृहीत हैं,
"भगवद्गीता'
पढ़ो, लेकिन कुछ
कमी है। कुछ
खोयी-खोयी बात
है। क्या बात
की कमी है? क्योंकि
जो कृष्ण ने
अर्जुन से कहा
था, वही
गीता में लिखा
है, वैसा-का-वैसा
लिखा है। क्या
कमी है? कहने
वाला नहीं है।
शब्द हैं, शब्दों
का मालिक नहीं
है। शब्दों के
पीछे धड़कता
हुआ हृदय नहीं
है। शब्दों के
पीछे खड़ा हुआ
शून्य नहीं
है। तो जो
अर्जुन को
अनुभव हुआ
होगा, वह
गीता पढ़कर
तुम्हें नहीं
हो सकता। मेरे
पास बैठकर
तुम्हें जो
अनुभव हो रहा
है, वह कल
आनेवाले
दिनों में
इन्हीं
शब्दों को पढ़नेवाले
लोगों को नहीं
होगा। संगति
खो जाएगी। कुछ
मूलस्वर
कम रहेगा। कुछ
बात खाली-खाली
हो जाएगी।
उतना ही फर्क
समझो जैसा
जिंदा आदमी
में और उसकी
तस्वीर में
जैसे जिंदा
आदमी में और
उसकी बनायी हुयी
संगमरमर की
प्रतिमा में।
प्रतिमा
बिल्कुल वैसी
ही तो लगती है,
फिर भी
प्राण नहीं
हैं। बोलेगी
नहीं, चलेगी
नहीं, उठेगी
नहीं।
जब
शास्त्र चलता
है,
बोलता है, उठता है, हँसता
है, गाता
है, नाचता
है, तभी
पकड़ लेना। जब
शास्त्र का
जन्म हो रहा
हो, तब पकड़ लेना।
गुरु का यही
अर्थ हैः जहाँ
शास्त्र का जन्म
हो रहा है, जहाँ
अभी सब ताजा
है। फिर बासे
फूलों को, सुखाए
गए फूलों को
लोग
सदियों-सदियों
तक सम्हाल कर रखते
हैं, मगर
उनसे फिर गंध
नहीं उठती।
श्रवण
कथा साँची सुणी, संगति
सतगुरु की।
वह जो
साथ बैठना हो
जाता है गुरु
के,
गुरु बोले
कि न बोले, यह
बोले, वह
बोले, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता--उसके
साथ बैठने में
ही. . . श्रवण कथा
साँची सुणी...सच्ची
कथा!
ये
शब्द समझने
जैसे हैं।
सुनना मात्र
श्रवण नहीं
है। सुनते तो
सभी हैं, श्रवण
बहुत कम लोग
करते हैं।
सुनने
और श्रवण में
क्या भेद है?
सुनना
तो कान से हो
जाता है।
जिसके कान ठीक
हैं,
वही सुन
लेता है।
श्रवण--जो कान
के पीछे अपनी
आत्मा को भी
उँडेल देता है;
जो प्रेम से
सुनता है भाव
से सुनता है, आह्लाद से
सुनता है; जिसके
कान के पीछे
उसका हृदय
जुड़ा होता है।
कोई विवाद से
भी सुन सकता
है। भीतर हजार
तर्क चल रहे
हैं। यहाँ
कभी-कभी यहाँ
भी लोग आ जाते
हैं। एक भी
आदमी आ जाता
है तो यहाँ का
स्वर भंग होता
है। आकर मैं
तुम्हें
नमस्कार करता
हूँ, तभी
मेरे खयाल में
आ जाते हैं कि
कुछ ये दो-चार लोग
आ गए हैं। वे
हाथ जोड़कर
नमस्कार भी
नहीं कर सकते।
मैं उन्हें नमस्कार
कर रहा हूँ, वे हाथ जोड़कर
नमस्कार भी
नहीं कर सकते।
वे सुनेंगे
कैसे? नमस्कार
तक का उत्तर
देने की उनमें
सामर्थ्य नहीं
है, सुनेंगे
कैसे? आ गए
हैं. . .
देखने-परखने आ
गए होंगेः
क्या यहाँ हो
रहा है? कुछ
सुनिश्चित धारणाएँ
लेकर आ गए
होंगे, कि
जो यहाँ हो
रहा है गलत हो
रहा है, धर्म
के विपरीत हो
रहा है। तो
मैं नमस्कार
भी उन्हें
करूँ तो वे
मुझे हाथ जोड़कर
कैसे नमस्कार
करें--ऐसे
अधार्मिक
आदमी को कोई
नमस्कार करता
है!
सुनेंगे
तो वे भी, लेकिन
श्रवण न हो
सकेगा। और वे
इस भ्रांति
में होंगे कि
सुनकर आ गए।
श्रवण तो
उन्हीं का हो
सकेगा, जिनके
कान सिर्फ कान
नहीं, बल्कि
उनका हृदय भी
हैं; जो
सहानुभूति से
सुनेंगे; जिनके
भीतर विवाद
नहीं है, संवाद
है; जो
मेरे साथ जुड़कर
सुनते हैं।
इधर मैं, उधर
वे, ऐसे दो
नहीं रह जाते,
एक सेतु बन
जाता है। एक
अज्ञात ऊर्जा
जोड़ देती है।
मैं
देख पाता हूँ किन-किन
से मेरी ऊर्जा
जुड़ी है। मेरे
लिए दृश्य है!
और तुम भी
जानते हो जब
तुम्हारी जुड़
जाती है और जब
नहीं जुड़ती।
वे घड़ियाँ
तुम्हें भी
मालूम हैं। जब
जुड़ जाती है
कोई बात, तो
मैं क्या कह
रहा हूँ, यह
सवाल नहीं
होता; फिर
जो भी मैं
कहता हूँ उसीसे
अमृत का अनुभव
होता है। जब
नहीं जुड़ पाती
किसी दिन, तो
तुम पाते हो
कुछ चूका-चूका
है। इधर मैं
बोल रहा हँ
उधर तुम सुन
रहे हो, मगर
बीच में कोई
जोड़ नहीं है।
मैं दूर से
चिल्ला रहा
हूँ, तुम
बहुत दूर से
सुन रहे हो, आवाज सुनायी
भी पड़ती है, पर अर्थ पकड़
में नहीं आते
जब जुड़ जाती
है तरंग, जब
तुम मेरे साथ
साँस लेते हो,
और मेरे
हृदय के साथ
तुम्हारा
हृदय धड़कता
है, जब
मुझमें और
तुममें कोई
भेद नहीं होता,
जब तुम
एकात्म होकर
सुनते हो, तो
श्रवण पैदा
होता है।
"श्रवण
कथा साँची सुणी'। और "कथा'! शब्द
तो बनता है
"कथ्य' से,
जो कहा जाता
है। लेकिन
शब्द पर ही मत
अटक जाना। कथा
का मौलिक अर्थ
होता है जो
नहीं कहा जा
सकता, फिर
भी कहने की
कोशिश की जाती
है। जो कहा जा
सकता है, वह
तो साधारण कथा
है। जो कथ्य
में समा जाता
है, वह तो
साधारण कथा
है। जो कथ्य
में नहीं
समाता, फिर
भी कहना तो
पड़ता है। कहना
पड़ेगा ही; क्योंकि
बहुत हैं
जिनके काम आ
जाएगा। शब्द
में नहीं आता
है, फिर भी
समाने की
चेष्टा करते
हैं। उसका नाम
कथा है।
शब्दातीत को
शब्द में लाने
का उपाय कथा ही
है।
इसलिए
कथा में
इतिहास नहीं
होता। राम की
कथा में कोई
इतिहास नहीं
है। कुछ ऐसा
नहीं है कि जो राम
की कथा में
कहा गया है, वैसा-ही-वैसा
हुआ है। वैसी
भ्रांति में
मत पड़ना।
नहीं तो
वाल्मीकि की
कथा एक बात
कहती है, तुलसी
की कथा दूसरी
बात कहती है।
और भी बहुत लोगों
ने रामायणें
लिखी हैं, सबकी
कथाएँ अलग बात
कहती हैं।
ऐतिहासिक
नहीं है बात।
इतिहास से
ज्यादा
आध्यात्मिक
है। इतिहास तो
बहाना है। राम
और सीता और
रावण तो बहाने
हैं। उनके
पीछे बहानों
के पीछे कुछ
छिपाया गया
है। जो श्रवण
करेंगे, उन्हें
बहानों के
पीछे छिपे हुए
खजाने
मिल जाएँगे।
जो केवल
सुनेंगे, उनके
हाथ में केवल
कथा लगेगी; जो कही गयी
है, वही
बात लगेगी; जो अनकही
कहे के साथ
जोड़ दी गयी है,
वे उससे
वंचित रह
जाएँगे। वह
सूक्ष्म है।
वही अर्थ है।
श्रवण कथा
साँची सुणी,
संगति
सतगुरु की।
पश्चिम
से नए विचार
आए हैं, नयी
शोध की पद्धतियाँ
आयी हैं, नयी
इतिहास की
खोजों की विधियाँ
आयी हैं। उन
सबने हमें बड़ी
मुश्किल में
डाल दिया है
क्योंकि
हमारी सारी
कथाएँ
ऐतिहासिक
नहीं हैं। और
जब पश्चिम की
कसौटी पर कसी
जाती हैं, तो
गैर-ऐतिहासिक
सिद्ध होती
हैं। फिर
हमारे यहाँ भी
ऐसे मूढ़
हैं जो उनको
ऐतिहासिक
सिद्ध करने की
कोशिश में लग
जाते हैं। और
तब एक व्यर्थ
का विवाद शुरू
होता है; जिसमें
हम हारेंगे।
यह बात
समझ लेनी चाहिए
कि पूरब ने जो
कथाएँ रची हैं, वे
इतिहास की
घटनाएँ नहीं
हैं; वे
अंतरतम की
घटनाएँ हैं।
राम तुम्हारे
भीतर की किसी
चीज के प्रतीक
हैं और रावण
भी तुम्हारे
भीतर की किसी
चीज के प्रतीक
हैं और सीता
भी तुम्हारे
भीतर है और
राम के हाथ से
रावण के हाथ में
पड़ गयी है।
उसे वापस घर
लौटाना है।
तुम्हारे
भीतर के राम
को तुम्हारे
भीतर की सीता
की तलाश में
निकलना है।
तुम्हारी
आत्मा ही
तुम्हारी
सीता है; बाजार
में खो गयी
है। रावण की
लंका सोने की
थी--कहीं सोने
में खो गयी है;
कहीं
धन-दौलत में
बिक गयी है।
जवानी, हुस्न,
गमजे, अहद, पैमां,
कहकहे,
नग्मे
रसीले
ओंठ,
शरमीली निगाहें, मरमरी बाहें
यहाँ
हर चीज बिकती
है,
खरीदारो!
बताओ
क्या खरीदोगे?
भरे
बाजू, गठीले
जिस्म, चौड़े आहनी सीने
बिलकते
पेट,
रोती गैरतें,
सहमी हुई
आहें
खरीदारो!
यहां
हर चीज बिकती
है,
बताओ
क्या खरीदोगे?
तुमने
अपनी आत्मा
बेच दी है और
कुछ व्यर्थ की
चीजें खरीद लाए
हो। तुमने
अपनी आत्मा
दाँव पर लगा
दी है, और कुछ
व्यर्थ की
चीजें खरीद
लाए हो।
तुम्हें अपनी
सीता को छुड़ाना
होगा। ऐसे
बाहर रावण के
पुतले जलाने
से कुछ भी न
होगा; यह
पागलपन बंद
करो। भीतर
जलाना होगा।
यह बाहर की
विजय-यात्रा,
यह दशहरे का
पर्व. . . बहुत
मना चुके।
इससे कुछ नहीं
होता। यह
विजय-यात्रा
भीतर घटनी
चाहिए। यह दशहरा
भीतर आना
चाहिए। यह
विजयदशमी
भीतर होनी
चाहिए। भीतर
का खयाल ही
नहीं है। कथा
को बाहरी कर
दिया है। ऐसे
कथा से, कथा
के मौलिक अर्थ
से बच गए हो।
"स्रवण
कथा साँची सुणी,
संगति
सतगुरु की।' गुरु के साथ
बैठ-बैठकर, पर्त-पर्त
गहरे उतरकर,
आहिस्ता-आहिस्ता,
कदम-कदम
अंतरतम में
चलकर जाना।
दूजा
दिल आवै
नहिं, जब धारी
धुर की।।
और
जबसे यह पहचान
हो गयी है, जबसे
यह असली कथा
सुन ली है, जबसे
यह सच अनुभव
आने लगा है, जब से ये साँचे
बोल हृदय में
उतर गए हैं. . .
दूजा दिल आवै
नहिं. . . अब
परमात्मा के
सिवाय दिल में
कोई आता नहीं!
"दूजा
दिल आवै
नहिं'। यही
पहचान है। जब
तक परमात्मा
के सिवाय दूसरे
की याद आती है,
तब तक समझना
अभी संसार
जारी है।
दूजा
दिल आवै
नहिं, जब धारी
धुर की।।
अब तो जो
मेरे से भी
परे है, उसको
ही पाने की
एकमात्र
आकांक्षा बची
है। परात्पर!
"जब धारी धुर
की'। जो न
शब्दों में है,
न सीमाओं
में है, जिसे
प्रगट करने को
ब्रह्म शब्द
भी छोटा पड़ जाता
है, उस
परात्पर
ब्रह्म को, उस शब्दातीत
ईश्वर को, उस
भावातीत
को पाने चल
पड़े हैं। अब तो
उस एक की ही
धुन लग गयी
है। अब तो वह
एक ही पुकार
रहा है, एक
ही खींच रहा
है। एक गहरी
कशिश! भक्त चल
पड़ा--बँधा हुआ!
दूजा
दिल आवै
नहिं, जब धारी
धुर की।।
भरमजाल भव काटिया, संका
सब तोड़ी।
गुरु
का काम क्या
है?
भरमजाल भव काटिया।
यह जो संसार
का व्यर्थ का
उपद्रव है, जिसको तुमने
सार्थक मान
लिया है, गुरु
का इतना ही तो
अर्थ है कि वह
तुम्हें जगा दे
और दिखा देः
क्या व्यर्थ
है और क्या
सार्थक है? बस, इससे
ज्यादा गुरु
कुछ कर भी
नहीं सकता; इतना ही
दिखा दे कि यह
रहा हीरा, वह
रहा पत्थर, अब तुम्हें
जो चुनना हो
चुन लो। जानकर
कभी कोई पत्थर
को चुनता है? पत्थर को
चुनते हो इसी
आशा में कि
शायद हीरा है।
गुरु यह नहीं
कहता कि पत्थर
मत चुनो। गुरु
यह भी नहीं
कहता कि हीरा
चुनो। गुरु तो
इतना ही कहता
हैः यह रहा
हीरा, यह
रहा पत्थर, यह रही
कसौटी--कस लो
और जाँच लो; फिर जो
मर्जी करो।
महावीर
ने कहा हैः
मैं उपदेश
देता हूँ, आदेश
नहीं। ठीक कहा,
प्यारी बात
कही। यही सभी सद्गुरुओं
का आधार है।
उपदेश। आदेश
नहीं। जहाँ
आदेश हो, समझना
गुरु नहीं है
वहां। जो तुम
से कहे, ऐसा
करना ही पड़ेगा,
ऐसा ही करो,
इससे
अन्यथा किया
तो पापी
हो--वहाँ गुरु
नहीं है। वहाँ
तो कोई नयी
राजनीति का
जाल है। वहाँ
नेता होगा, गुरु नहीं
है। वहाँ तो
कोई नयी
तानाशाही
तुम्हारे ऊपर
निर्मित हो
रही है, तुम्हें
गुलाम बनाने
की कोई नयी
व्यवस्था की जा
रही है, कोई
नयी जंजीरें
ढाली जा रही
हैं, नए
कारागृह खड़े
किए जा रहे
हैं। सावधान
रहना।
सद्गुरु
केवल उपदेश
देता है। इतना
ही बता देता
है कि यह पत्थर
है,
यह सोना है।
फिर तुम्हारी
जो मर्जी।
आदेश नहीं
देता। आदेश की
जरूरत नहीं
है। आदेश की
जरूरत तो उनको
पड़ती है, जो
समर्थ नहीं
हैं तुम्हें
दिखलाने में
कि क्या पत्थर
है और क्या
हीरा है। वे
ही तुम्हें अनुशासन
देते हैं। वे
कहते हैं:
सुबह पाँच बजे
उठना, राम-भजन
करना, ऐसा
करना, वैसा
करना, यह
खाना, वह
पीना, यह
मत खाना, वह
मत पीना, हजार
नियम तुम्हें
देते हैं, हजार
मर्यादाएँ
तुम्हें देते
हैं। उसका
कारण? एक
बात की कमी है
उनके
पास--तुम्हारी
ऑंख खोल
नहीं पाते; तुम्हें
दिखा नहीं
पाते कि यह
रहा हीरा, यह
रही मिट्टी।
जिस दिन
तुम्हें दिख
जाएगा कि हीरा
क्या है, मिट्टी
क्या है, उस
दिन क्या तुम
मिट्टी
चुनोगे? कौन
ऐसा पागल होगा?
भरमजाल भव काटिया, संका
सब तोड़ी।
इतना
ही काम है
सद्गुरु का कि
तुम्हारे
भ्रम के जो-जो
जाल हैं, उनको
तोड़ दे; तुम्हारे
चित्त की
शंकाओं का
निरसन कर दे।
एक पतंगा
तन्हात्तन्हा
शाम ढले इस
फिक्र में था
यह तन्हाई
कैसे कटेगी?
रात हुई
और शमा जली
मगसूम पतंगा झूम
उठा
हँसते-हँसते
रात कटेगी
सुबह हुई
और सबने
देखा
राख पतंगे
की उड़-उड़कर
शमा को हरसू
ढूँढ़ रही
थी
यही
तुम्हारी
जिंदगी है!
जल्दी ही राख
का ढेर रह
जाएगा। ज़रा
याद करो! जरा
पहचानो! जल्दी
ही अपनी चिता
पर जलोगे।
जल्दी ही राख
पड़ी रह जाएगी।
और राख उड़-उड़कर
खोजेगी
उस जीवन को, जिसको
गँवा आए। राख
उड़-उड़कर खोजेगी उन
सपनों को, जिनके
आधार पर सब
खोया, सब व्यर्थ
किया।
एक पतंगा
तन्हात्तन्हा
शाम ढले इस
फिक्र में था
यह तन्हाई
कैसे कटेगी?
रात हुई
और शमा जली
मगसूम पतंगा झूम
उठा
हँसते-हँसते
रात कटेगी
तुम भी
सब यही सोच
रहे होः
हँसते-हँसते
रात कटेगी!
और रात के पार
सुबह नहीं है
मौत है। और शमा
के साथ
तुम्हारी
जिंदगी नहीं
है,
तुम्हारी
चिता है।
सुबह हुई
और सबने
देखा
राख पतंगे
की उड़-उड़कर
शमा को हरसू
ढूँढ़ रही
थी
ऐसी ही राखें उड़
रही हैं, शमा
को ढूँढ़
रही हैं।
रास्ते पर
उड़ती धूल के
बवंडर को देखा
है? खड़े हो
जाना, ज़रा ध्यान
करना। यह जो
धूल का आज
बवंडर है, कभी
तुम्हारी
जैसी देह रही
होगी। पैर के
नीचे पड़ी धूल
को देखा है? यह तुम्हारे
पैर के नीच है
आज, कल
किसी सिर में
रही होगी। कल
कोई देह रही
होगी। तुम भी
ऐसे ही कल धूल
में पड़े रह
जाओगे। इसके
पहले कि सब
धूल हो जाए, इसके पहले
कि धूल धूल
में गिरे, कुछ
खोज लो। कुछ
ऐसा खोज लो, जो मिटता
नहीं। कुछ ऐसी
तलाश कर लो।
भरमजाल भव काटिया, संका
सब तोड़ी।
अभी तो
जिस ढंग से हम
जी रहे हैं, वह
एक व्यर्थता
की पुनरुक्ति
मात्र है।
वही-वही
बार-बार करते
हैं, अनंत
बार करते हैं,
फिर भी
जागते नहीं।
आदमी अनुभव से
सीखता मालूम
ही नहीं होता।
सब काट
दो
बिस्मिल
पौधों को
बेआब
सिसकते मत छोड़ो
सब नोच
लो
बेकल
फूलों को
शाखों
पै बिलखते मत छोड़ो
यह फस्ल
उम्मीदों की
हमदम!
इस बार
भी गारत
जाएगी
सब महनत
सुबहो-शामो
की
अबके भी
अकारत जाएगी
खेती
के कोनों खदरों
में
फिर
अपने लहू की
खाद भरो
फिर
मिट्टी सींचो
अश्कों
से
फिर
अगली ऋतु की
फिक्र करो
जब फिर
इक बार उजड़ना
है
इक फस्ल
पकी तो भर
पाया
तब तक
तो यही कुछ
करना है
बस यही
करते रहो। हर
बार फसल काटो
और हर बार उजड़ो।
यह फस्ल
उम्मीदों की
हमदम!
इस बार
भी गारत
जाएगी
यह
जिंदगी
तुम्हें पहली
बार नहीं मिली, बहुत
बार मिली है।
यह फसल तुम
बहुत बार उगा
चुके हो। यह
काम कुछ नया
नहीं है, तुम
बड़े पुराने हो,
तुम बड़े
कारीगर हो
अपने को
गँवाने में।
तुम बड़े कुशल
हो अपने को
बरबाद करने
में।
यह फस्ल
उम्मीदों की
हमदम!
इस बार
भी गारत
जाएगी
सब महनत
सुबहो-शामो
की
अबके भी
अकारत जाएगी
यह
अकारत ही
जानेवाली है, क्योंकि
यह दिशा ही
भ्रांत है।
तुम रेत से
तेल निचोड़ने
की चेष्टा कर
रहे हो, हारोगे
नहीं तो और
क्या होगा?
खेती
के कोनों खदरों
में
फिर
अपने लहू की
खाद भरो
फिर
मिट्टी सींचो
अश्कों
से
फिर
अगली ऋतु की
फिक्र करो
जब फिर
इक बार उजड़ना
है
इक फस्ल
पकी तो भर
पाया
जब तक
तो यही कुछ
करना है
मगर बस
फिर उजड़ोगे, फिर
आशाएँ, फिर उजड़ोगे,
फिर आशाएँ।
जागो अब!
अब कुछ ऐसी
फसल काटें जो
भर जाए जीवन
को। अब कुछ
ऐसा धन तलाशें,
जो
निर्धनता को
सच में ही
मिटा दें; छुपाए
न, मात्र
छुपाए न, मिटा
दे--सदा के लिए
मिटा दे!
भरमजाल भव काटिया, संका
सब तोड़ी।
साँचा
सगा जे राम का ल्यौं तासूँ
जोड़ी।।
गुरु
मिला--दरिया
दिल! साँचा
सगा जे राम का. . .
। उसने दो काम
किए। पहले तो
उसने अपने से
संबंध जोड़ा--"साँचा
सगा जे राम का'।
क्योंकि गुरु
से जब तक संबंध
न जुड़ जाए, तब
तक परमात्मा
से संबंध जुड़ना
करीब-करीब
असंभव है।
"साँचा सगा जे
राम का'।
पहले राम से
दोस्ती हो, इसके पहले
राम के सगों
से तो दोस्ती
हो जाए; उसके
मित्रों से तो
पहचान हो जाए!
उसके मित्र यहाँ
घूमते हैं।
उसके मित्र
तुम्हारे
आसपास हैं।
तुम जिस दिन
चाहोगे, उनके
हाथ में
तुम्हारा हाथ
हो जाएगा।
उनके हाथ में
हाथ पड़ते ही
पहला कदम उठ
गया।
साँचा
सगा जे राम का, ल्यौं तासूँ
जोड़ी।।
पहले
उससे अपनी
प्रीति को जोड़
लो। अपने लगाव
को उससे लगा
लो,
जो राम का
सगा है, साँचा
है; जिसमें
राम की
तुम्हें
थोड़ी-सी झलक
मिल जाए; जिसके
पास तुम्हें
राम की
थोड़ी-सी सुगंध
मिल जाए।
भौजल माहिं काढ़िकै
जिन जीव
जिलाया।
गुरु
के साथ जुड़ते
ही जीवन में
एक क्रांति
आती है। कल तक
जो जीवन था, मृत्यु
हो जाता है।
और कल तक
जिसका हमें
सपने में भी
सवाल नहीं उठा
था, उस नए
जीवन का
प्रादुर्भाव
होता है।
"भौजल माहिं काढ़िकै
जिन जीव
जिलाया'।
वह जो चक्कर
था संसार का, वह जो भँवर
थी संसार
की--यह कमा लूँ,
वह कमा लूँ;
यह बना लूँ,
वह बना लूँ--जगाया
गुरु ने कि सब
व्यर्थ है!
सार वहाँ हाथ
नहीं लगेगा।
उस दिशा में
जाओ मत! उस
दिशा में कुछ
कभी किसी ने
पाया नहीं।
निरपवाद रूप
से जो उस दिशा
में गया है, भटका
है, भूला
है, मरा
है। मैं भी
गया हूँ, गुरु
कहता है, मैं
भी दौड़ा
हूँ उन्हीं
रास्तों पर, जिन पर तुम
दौड़ रहे हो, मैं भी ऐसे
ही थका हूँ, ऐसे ही गिरा
हूँ जैसे तुम
दौड़ रहे हो, गिर रहे हो, थक रहे हो।
अब मैंने एक
और दिशा खोज
ली है, जहां
विश्राम है, जहाँ विराम
है, जहाँ
राम है। और
ध्यान रखना, जहाँ राम है,
वहीं विराम
है, वहीं
विश्राम है।
राम के
अतिरिक्त
कहाँ विराम? दौड़-धूप
जारी रहेगी, आपाधापी
जारी रहेगी।
भौजल माहिं काढ़िकै
जिन जीव
जिलाया।
सहज
सजीवन कर लिया
साँचे संगि
लाया।।
गुरु
खींच लेता है
इस भ्रमजाल
से। उसके लगाव
में खिंचे
तुम बाहर आ
जाते हो--अपने
सपनों को
छोड़कर। गुरु
तुम्हारे
सामने एक नया
दृश्य
उपस्थित कर देता
है,
जो ज्यादा
मनमोहक है, जो ज्यादा
प्यारा है, जो ज्यादा
मधुमय है। तुम
छोड़ देते हो
अपने
छोटे-मोटे
उपद्रवों को,
तुम गुरु के
पीछे चल पड़ते
हो, उसके
साथ हो लेते
हो।
"भौजल माहिं काढ़िकै
जिन जीव
जिलाया।' और
जैसे गुरु ने
मुर्दे को
जिला दिया हो,
ऐसी घटना
घटती है।
"सहज
सजीवन कर लिया
साँचे संगि
लाया।' पर
खयाल रखना, सद्गुरु
जबरदस्ती
चेष्टा से तुम्हें
नहीं बदलता
है--सहज। उसकी
मौजूदगी
बदलती है।
वह कोई
छेनी लेकर, हथौड़ी
लेकर
तुम्हारे
अंग-प्रत्यंग
काटने नहीं
लगता है। वह
तुम्हें बाँधने
नहीं लगता है--मर्यादाओं
में, बाढ़ों
में। तुम्हें
अपने निकट
बुलाता है। तुम्हें
अपनी खिड़की से
झाँकने का
निमंत्रण देता
है। कहता है, इस हृदय में
राम का वास हो
गया है, तुम
ज़रा अपने
कान मेरे हृदय
के पास ले आओ, जरा यह धड़कन
सुनो! इस धड़कन
में प्यारा
संगीत है! उस
धड़कन को सुनते
ही तुम्हारे
भीतर भी एक दीवानापन
पैदा होता है।
उस धड़कन को
सुनते ही फिर
तुम रुक नहीं
सकते।
तुम्हें पंख
लगने शुरू हो
गए! तुम उड़ोगे
ही! उड़ना
ही पड़ेगा! अब
कोई उपाय नहीं
है। चुनौती आ
गयी।
गुरु
तो सिर्फ पास
बुलाता है और
चुनौती दे देता
है। फिर सहज
घटनाएँ घटनी
शुरू हो जाती
हैं।
सहज
सजीवन कर लिया, साँचे
संगि
लाया।।
और
चुपचाप, तुम्हें
पता नहीं चलता,
कब गुरु ने
तुम्हारे जीवन
को आमूल
रूपांतरित कर
दिया।
कानोंकान खबर
नहीं होती। यह
चुपचाप हो
जाता है।
पगध्वनि भी
नहीं सुनी
जाती। कहीं
कोई शोरगुल
नहीं मचता।
कहीं कोई बैंडबाजे
नहीं बजते।
चुपचाप हो
जाता है।
होते-होते हो जाता
है। एक दिन
अचानक सुबह जागकर तुम
पाते हो, तुम
वही आदमी नहीं
हो जो थे।
परसों
एक युवती कोई
वर्ष-भर यहाँ
रहने के बाद वापस
लौटी अपने घर।
उसकी एक ही
चिंता थी कि
अब घर जा रही
हूँ,
एक ही मुझे
फिक्र है कि
मेरे प्रियजन
मुझे पहचान
पाएँगे? मेरे
माँ-बाप मुझे
पहचान पाएँगे?
मेरा पति
मुझे पहचान
पाएगा? मैं
इतना बदल गयी
हूँ। एक ही डर
था उसके मन
में कि मुझे
वे पहचान नहीं
सकेंगे।
मैंने उससे पूछाः यह
तुझे खयाल कब
आया? उसने
कहा : जब तक
जाने का खयाल
नहीं था, खयाल
ही नहीं आया
था। यहाँ सब
चुपचाप हो रहा
था, इतना
हो रहा था कि
किस-किस बात
का हिसाब रखो!
लेकिन अब जबसे
जाने का सवाल
उठा है कि जाना
है; माँ
बीमार है, उसे
देखने जाना है,
तबसे एक
चिंता मन में
सवार हुई
है--वे मुझे
पहचान पाएँगे?
वे मुझे
स्वीकार कर
पाएँगे? मैं
बदल गयी हूँ।
मेरे पति
निश्चित ही
उसी स्त्री को
नहीं पाएँगे
जो साल-भर
पहले उन्हें
छोड़कर आयी थी।
चुपचाप
घटनाएँ घट
जाती हैं।
असली घटनाएँ
चुपचाप ही
घटती हैं। बड़ी
घटनाएँ
चुपचाप ही
घटती हैं। ये
तो छोटी-छोटी
घटनाएँ हैं, जिनका
शोरगुल मचता
है। फूल
चुपचाप खिल
जाते हैं, चाँदत्तारे चुपचाप
पैदा हो जाते
हैं।
सहज
सजीवन कर लिया
साँचे संगि
लाया।।
तभी
पता चलता है
शिष्य को जब
सत्य का
संग-साथ हो
जाता है; तब
उसे याद आती
है कि अरे, क्या
हो गया! मैं
कहाँ-से-कहाँ
आ गया! मैं कौन
था और कौन हो
गया! हो जाती
है घटना, तभी
पता चलता है।
मगर यह संभव
तभी है जब कोई
सरलता से गुरु
के हाथ में
अपना हाथ दे
पाए। खींचातानी
न करे।
प्रतिरोध न
करे।
अड़चन-रुकावट न
डाले। अवरोध न
खड़ा करे।
सहज
सजीवन कर लिया, साँचे
संगि
लाया।।
जनम
सफल तब का भया, चरनौ
चित लाया।
रज्जब
कहते हैं, अब
समझ में आ रहा
है कि सफल उसी
दिन हो गया था
मैं, जिस
दिन इन चरणों
में चित्त लग
गया था। वह जो
घोड़े पर सवार
थे और बारात
जाती थी और
दादू ने बीच
में रोक लिया
था और कहा था--
रज्जब
तैं गज्जब
किया, सिर से
बाँधा मौर।
आया था
हरिभजन को, चला
नरक की ठौर।।
एक
क्षण में सब
हो गया था।
रज्जब कूद पड़ा
था घोड़े से।
बारात ठिठकी
रह गयी थी।
किसी की समझ
में न आया था
क्या हो रहा
है। उसने चरण
पकड़ लिए थे
दादू के।
क्रांति उसी
दिन हो गयी थी; पहचान
आने में शायद
वर्षों लग
जाएँ।
"जनम
सफल तब का भया'...उसी दिन हो
गया था, मैं
तो अब पहचान
पाया..."चरनौ
चित लाया।' जिस क्षण
गुरु के चरणों
में चित्त लगा
था, उसी
दिन क्रांति
हो गयी थी।
क्रांति
की भी खबर
मिलते-मिलते
मिलती है। तुम
ऐसे बेहोश हो
कि तुम्हारे
भीतर ही फूल
खिल जाते हैं
और तुम्हें पता
नहीं चलता और
तुम्हारे
भीतर ही
क्रांतियां हो
जाती है और
तुम्हें पता
नहीं चलता।
समय लग जाता
है। तुम्हारे
अचेतन तल में
और तुम्हारे चेतन
तल में बड़ा
फासला
है--जमीन और
आसमान का। घटना
तो भीतर घटती
है तुम्हारे
केंद्र पर, परिधि
को खबर
लगते-लगते समय
स्वभावतः लग
जाता है। बहुत
समय लग जाता
है कभी।
कभी-कभी
वर्षों लग
जाते हैं।
गुरु न हो तो
शायद तुम चेतो
ही न।
ज़रा
सोचो, यह दादू
दयाल न आए
होते इस घोड़े
पर चढ़े हुए
रज्जब को
उतारने, थोड़ी
ही देर की बात
थी, यह
संसार में
उतरा जा रहा
था। एक लंबी
यात्रा शुरु
होती, जिसका
कोई अंत अपने
हाथ में नहीं
है। यह कहाँ जाकर
समाप्त होती,
यह भी कहना
मुश्किल है।
कहाँ अंत होता
इसका, यह
भी कहना
मुश्किल है।
लेकिन गुरु ने
ठीक उस समय
रोक लिया, द्वार
पर ही रोक
लिया संसार
के। यह भवजाल
में पड़ने ही
जा रहा था और रोक
लिया। मगर यह
मत सोचना कि
सिर्फ गुरु का
ही हाथ है इस
रोक लेने में।
रज्जब की भी
बड़ी कला है।
रज्जब भी बड़े
हिम्मत का
आदमी है। इतना
आसान तो नहीं!
मेरे
पास लोग आते
हैं। किसी की
उम्र सत्तर
साल है, वह
अभी भी कहता
है कि अभी
कैसे संन्यास लूँ! अभी
बच्चों की
शादी होनी है।
बस एक लड़का और
बचा है, इसकी
शादी कर दूँ, इसको
काम-धाम से
लगा दूँ, फिर
कोई चिंता
नहीं है, फिर
संन्यास ले
लूँगा। जैसे
मौत तुम्हारी
प्रतीक्षा
करेगी! और मौत
तुमसे यह नहीं
पूछेगी कि सब
लड़कों की शादी
हो गयी कि
नहीं।
हिम्मत
का आदमी रहा
होगा रज्जब!
अभी इसकी उम्र
ही क्या रही
होगी? यही कोई
अठारह-बीस साल
की उम्र रही
होगी। मगर अक्सर
ऐसा हो जाता
है कि जवान जो
हिम्मत कर लेते
हैं, बूढ़े
नहीं कर पाते।
नियम तो यही
है कि बूढ़े होते-होते
सभी को
संन्यस्त हो
जाना चाहिए।
लेकिन अक्सर
ऐसा होता है
कि दुनिया में
जो बड़े संन्यासी
पैदा हुए हैं,
वे सब जवानी
में संन्यासी
हुए। क्यों? क्योंकि
बुढ़ापे में
अक्सर तो
ऊर्जा ही नहीं
रह जाती।
कल मैं
एक कहानी पढ़
रहा था एक
आदमी की। वह मरणशय्या
पर पड़ा है।
गीता सुनायी
जा रही है। वह
बेहोश है और
बीच-बीच में
सिर हिलाता है, हाथ
ऊपर उठाता है।
पास में पड़ोस
की स्त्रियाँ
बैठी हैं। कोई
कहती है कि
देखो, काका
हाथ ऊपर उठा
रहे हैं, शायद
भगवान की तरफ
उठा रहे हैं।
आखिर एक आदमी बैठा
थोड़ी देर से
देख रहा था, उसने
कहा--बकवास
बंद करो! मैं
जानता हूँ
काका को। उसने
खीसे से बीड़ी
निकाली और
काका के मुँह
में लगा दी और
काका मरते
वक्त बीड़ी
पीने लगे। इधर
गीता चल रही
है! और दोत्तीन
उन्होंने कश
लिए, धुऑं मुँह से
निकला, फिर
शांति से मर
गए। जिंदगी-भर
जो लत रही . . . ! उस
आदमी ने कहा
कि बकवास बंद
करो, यह
भगवान वगैरह
की तरफ हाथ
नहीं उठा रहे,
इनको बीड़ी
चाहिए। मुझे
भली-भाँति
मालूम है, बिना
बीड़ी पिए
नहीं मरेंगे।
और जब
उन्होंने दोत्तीन
कश लगा लिए. . . वह
उनका राम-नाम
हुआ; हरिभजन
हो गया!. . . तब
वे शांति से
मरे।
मरते
वक्त तक भी
तुम हरि को
याद थोड़े ही
कर पाओगे। याद
भी आएगी तो बीड़ी
की याद आएगी, कि
कोई ले आता इस
वक्त, कि
होता कोई
प्रभु का प्यारा
और ले आता इस
वक्त! अब अपने
से तो जाते
बनता नहीं, बोल भी खो
गया है, बोल
भी नहीं सकते
हैं और गीता
चल रही हैः
"सर्व धर्मान्
परित्यज्य
मामेकं शरणं
व्रज।' गीता
चल रही है! और
स्वभावतः
गीता चल रही
है, पड़ोस
की स्त्रियाँ--धार्मिक
स्त्रियाँ
ऐसी जगह
इकट्ठी हो जाती
हैं--और काका
हाथ उठा रहे
हैं! सोचा
होगा कि काका
भी आखिरी
अवस्था में सिद्धावस्था
को पहुँच गए
हैं। काका
वहीं हैं जहाँ
सदा थे। गीता
वगैरह नहीं
सुनी जा रही
है। उनको तलफ
लगी है।
आदमी
बदल जाए जवानी
में,
जब ऊर्जा हो,
जब शक्ति हो,
जब प्राण
हों, तो
आसानी होती
है। क्योंकि
बदलाहट के लिए
भी तो ऊर्जा
की जरूरत होती
है। जितनी
जल्दी बदल जाओ
उतना अच्छा।
रज्जब
को ठीक समय पर
पकड़ लिया
होगा। लोग तो
नाराज हुए
होंगे। लोगों
ने तो कहा
होगा यह कोई भली
बात है? यह
अपशकुन कर
दिया। बारात
जा रही थी, यह
कोई समय था
ज्ञान की
चर्चा छेड़ने
का? हरिचर्चा छेड़ने
का यह कोई समय
था? दादू
पर नाराज हुए
होंगे। दादू
को क्षमा नहीं
कर पाए होंगे।
आदमी मरते
वक्त संन्यास
लेता है।
एक
बूढ़ा आदमी
मेरे पास आया।
उसके लड़के ने
संन्यास ले
लिया है। लड़के
की उम्र होगी
कोई तीस साल।
बाप बहुत
नाराज था।
पंडित
है--पढ़ा-लिखा--ज्ञानी
है। आकर उसने
शास्त्रों की
चर्चा छेड़
दी;
और उसने कहा,
आपको मालूम
है कि संन्यास
तो चौथी
अवस्था है--ब्रह्मचर्य,
फिर गृहस्थ,
फिर
वानप्रस्थ, फिर
संन्यास। और
आपने इस मेरे
लड़के को
संन्यास कैसे
दे दिया? यह
किस शास्त्र
में लिखा है? यह तो आखिरी
अवस्था में लेने
का है। यह तो
जब आदमी बूढ़ा
हो जाता है तब
लेने का है।
मैंने कहाः ठीक, मैं
आपसे राजी हो
गया। आप
संन्यास लेने
को राजी हों
तो मैं इसका
संन्यास वापस
लेता हूँ। सत्तर-पचहत्तर
साल का आदमी, जब वह यह भी न
कह सके कि
मेरा समय नहीं
आया है। मैंने
कहा कि
पचहत्तर साल
तो बस खत्म--वह
भी सौ साल
उम्र मानें, तो। पचहत्तर
साल पर
वानप्रस्थ
खत्म हो गया, अब संन्यास
का वक्त आ
गया। सौ साल
जीता कौन है? सत्तर साल
औसत उम्र है।
उस हिसाब से
तो आपको कभी
का संन्यासी
हो जाना चाहिए
था। मैंने कहा
: आप ले लो
संन्यास। आप
बिल्कुल ठीक
कह रहे हैं, शास्त्र की
बात कह रहे
हैं। मैं
शास्त्र के बिल्कुल
विपरीत नहीं
हूँ, पक्ष
में हूँ।
वे
बहुत घबड़ाए।
उन्होंने कहा
मैं फिर आकर
आपसे बात
करूँगा। मैंने
कहाः आप
जाते कहाँ हैं? लौटें,
न लौटें!
फिर इस लड़के
का भी संन्यास
तो वापिस लेना
है। जब आप
लौटोगे, तभी
इसका वापिस
लूँगा।
फिर वे
नहीं आए। फिर
भाड़ में जाए
लड़का! फिर उन्होंने
चिंता नहीं
की। काका फिर
नहीं आए! कौन झंझट
में पड़े इस! अब
शास्त्र के
अनुकूल तो यही
है। वे सोच
रहे थे
शास्त्र के
अनुकूल बच्चे
को बचा लेंगे, उन्होंने
यह नहीं सोचा
था खुद फँस
जाएँगे।
जिंदगी
जब प्रवाह में
होती है, जब
उभार में होती
है, जब
लोहा गर्म
होता है, तब
चोट हो जाए तो
बड़े काम की
होती है।
जनम
सफल तब का भया, चरनौं
चित लाया।
रज्जब
राम दया करी, दादू
गुर पाया।।
कहते
हैं: राम की
कृपा हो गयी
मुझ पर।
भक्तों का सदा
का यह अनुभव
रहा है कि
उसकी बिना
कृपा के हम
उसको खोजेंगे
भी नहीं। उसकी
बिना कृपा के हम
उसकी तरफ
जाएँगे भी
नहीं। वही
चाहेगा तो ही
हम उसे
खोजेंगे।
मिस्र
के पुराने
शास्त्र कहते
हैं कि जब तुम
परमात्मा की
खोज पर निकलते
हो तो एक बात
पक्की समझ
लेना कि उसने
तुम्हें
पुकारा है, अन्यथा
तुम अपने से
थोड़े ही खोज
पर निकल सकते
थे। उसने
तुम्हारी याद
की है। तुम
उसे याद आ गए
हो, इसलिए
खोज शुरू हुई
है।
"रज्जब
राम दया करी'। राम ने दया
की। और जब भी
राम दया करता
है तो सीधा
नहीं कर सकता।
क्योंकि सीधा
तो राम तुम्हारी
समझ में न
आएगा। सीधा तो
तुमसे कोई
सेतु नहीं
बनेगा। सीधे-सीधे
तो राम इतना
बेबूझ होगा
तुम्हें कि
सामने भी खड़ा
रहे तो तुम
देख न पाओगे, पहचान न
पाओगे। बोले
तो समझ न
पाओगे।
रज्जब
राम दया करी, दादू
गुर पाया।।
उसकी
कृपा का
परिणाम यह था
कि दादू जैसा
गुरु मिला। यह
उसकी कृपा है
कि दादू जैसा
गुरु मिला।
दादू जैसा
गुरु मिल जाए
तो राम के
मिलने में देर
कितनी? मिल
ही गया! समझो
कि मिल ही
गया। गुरु के
चरणों पर हाथ
पड़ गए तो उसीके
छिपे चरणों पर
हाथ पड़ गए।
गुरु वही है
जिसमें तुम्हें
भगवान की पहली
किरण उतरती
अनुभव में आने
लगे। गुरु वही
है तुम्हारे
लिए, जो
तुम्हारे लिए
परमात्मा का
प्रतिबिंब बन
जाए; जिसमें
परमात्मा की
छाया
तुम्हारे लिए
उतरने लगे; जिसके
माध्यम से
परमात्मा
तुम्हारे लिए
ग्राह्य हो
जाए।
राम
रंगीले के रंग
राती।
और जब
यह हुआ, जब यह
घटना घटी, तो
एक नयी दुनिया
शुरू होती
है--मस्ती की, नृत्य की, उत्सव की।
"राम रंगीले
के रंग राती।'
रज्जब कहते
हैं: उस राम
रंगीले के रंग
में रंग गयी
हूँ। जैसे ही
भक्त
परमात्मा में
रँगता है, उसकी
भाषा हमेशा
स्त्री की हो
जाती है, यह
खयाल रखना।
वहाँ कहाँ
दूसरा पुरुष;
बस एक ही
पुरुष है।
वहाँ तो सभी
स्त्री हो जाते
हैं। स्त्री
का मतलब, वहाँ
तो सभी निष्क्रिय,
ग्राहक, अनाक्रामक,
स्वागत के
द्वार हो जाते
हैं। बंदनवार
हो जाते हैं।
"राम
रंगीले के रंग
राती।' राम
सच में ही
रंगीला है। और
जिन्होंने
राम की
तस्वीरें ऐसी
बनायी हैं, जिनमें रंग
नहीं हैं, वे
तस्वीरें
झूठी हैं।
क्योंकि सारे
जगत के रंग
उसके रंग हैं।
सारे रंग उसके
रंग हैं। सब
रंग हैं।
इंद्रधनुष के
सारे रंग उसके
रंग हैं।
फूलों के, वृक्षों
के, पक्षियों
के सारे रंग
उसके रंग हैं।
तितलियों के
सारे रंग उसके
रंग हैं। इस
जगत में जितनी
भाव-भंगिमाएँ
हैं, सब
उसकी
भाव-भंगिमाएँ
हैं।
"राम
रंगीले के रंग
राती।' और
जो उसमें रंग
जाए, उसके
सारे रंगों
में डूब जाए, उसका जीवन
उदासी का होगा
तुम सोचते हो? अगर
उसका जीवन
उदासी का होगा
तो फिर आनंद
का, उत्सव
का जीवन किसका
होगा? संसार
में उदास रहो,
संसार
उदासी है, परमात्मा
में उत्सव है।
मगर
बड़ी उल्टी
बातें हो रही
हैं दुनिया
में। यहाँ सांसारिक
तो थोड़े-बहुत
प्रसन्न भी
दिखायी पड़ते हैं, आध्यात्मिक
तो बिल्कुल
ऐसे बैठ जाते
हैं, मुर्दा
होकर! इसका
मतलब क्या है?
इसका मतलब
साफ है, गणित
सीधा है। ये
जो तुम्हारे
तथाकथित
आध्यात्मिक
लोग उदास होकर
बैठे हैं, ये
आध्यात्मिक
नहीं हैं।
नहीं तो ये
कहते**ऱ्**:
राम रंगीले के
रंग राती! ये
आध्यात्मिक
नहीं हैं, ये
सांसारिक ही
हैं। संसार
में थोड़ी-बहुत
हँसी, थोड़ी-बहुत
गूँज, थोड़ा-बहुत
रस, इनको
था, वह भी
गया।
संसार
में लोग थोड़े
हँसते भी हैं; चलो
झूठी ही सही, हँसी तो है!
थोड़े नाचते भी
हैं; व्यर्थ
ही सही, मगर
नाच तो है! थोड़ा
रस भी संसार
में बहता
दिखायी पड़ता
है; उथला
ही सही, मगर
रस तो है! यह
थोड़ा उत्सव भी
दिखायी पड़ता
है संसार में।
फिर तुम्हारे
आध्यात्मिक
साधु-संत हैं,
वे बिल्कुल
ऐसे बैठे हैं
मुर्दे की
भाँति! यह इस
बात की खबर दे
रहे हैं वे कि
संसार में ही
उनका रस है; और संसार
हाथ से गया, अब दूसरा
उन्हें कोई रस
है नहीं, अब
क्या करें? उदास न हों
तो और क्या
करें? अब
बस मरने की
प्रतीक्षा कर
रहे हैं।
असली
आध्यात्मिक
व्यक्ति का
लक्षण ही यही
होगा कि उसके
पास तुम सब
रंगों की, सब
ध्वनियों की
बहार पाओगे।
उसके पास
तुम्हें
उत्सव-ही-उत्सव
मालूम होगा।
वहाँ अगर नाच
न होगा, तो
फिर नाच और
कहीं भी नहीं
हो सकता।
मंदिर उजड़
गए, मस्जिदें खाली पड़ी
हैं, चर्च बेरौनक
हैं, क्योंकि
वहाँ रंग नहीं
है, रूप
नहीं है। वहाँ
परमात्मा के
सौंदर्य की आयोजना
नहीं है। वहाँ
परमात्मा के आनंदरूप
का अवतरण नहीं
है। वहाँ संसार
से जबरदस्ती
अपने को छुड़ाकर,
किसी भाँति
संसार से भाग
गए लोग बैठ गए
हैं! नाराज, क्रुद्ध, परेशान, पीड़ित,
उदास!
"राम
रंगीले के रंग
राती।'
"परम
पुरुष संगि
प्राण हमारो'। यह होगा
ही। यह रंगमय
तो जीवन हो ही
जाएगा। मधुमय
तो जीवन हो ही
जाएगा। "परम
पुरुष संगि
प्राण हमारो'। जब परम
पुरुष के साथ
होओगे तो रास
न रचाओगे?
जब उसकी
बाँसुरी
बजेगी तो तुम नाचोगे
नहीं? और
जब वह
मोर-मुकुट
बाँधकर
तुम्हारे बीच
खड़ा हो जाएगा,
तो तुम
साधु-महात्मा
बने खड़े रहोगे?
ज़रा
सोचो, कृष्ण
बाँसुरी बजा
रहे हैं, मोर-मुकुट
बाँधे और सब
महात्मा इत्यादि--अखंडानंद,
पाखंडानंद--सब खड़े हैं!
वे सब अपनी
मालाएँ फेर
रहे हैं। वे कह
रहे हैं--हरे
राम, हरे
राम! नहीं, कृष्ण
के पास नृत्य
चाहिए।
यह
आकस्मिक नहीं
है कि हिंदुओं
ने कृष्ण को
पूर्णावतार
कहा है। राम
थोड़े कम पड़
जाते लगते हैं।
इतना उत्सव
नहीं है।
कृष्ण के पास
उत्सव पूर्ण
है। बहुविध
प्रगट हुआ है।
सब रंगों में
प्रगट हुआ है।
कोई निषेध
नहीं है। कृष्ण
के पास जैसा
रास रचा है, वही
खबर दे रहा है
पूरे विराट
की। ऐसा ही
रास चल रहा है चाँदत्तारों
का, सूरज-पृथ्वियों
का। यह विराट
उत्सव चल रहा
है जो प्रकाश
का, इसके
बीच में कहीं
कोई कृष्ण
जरूर है। इसके
बीच में कोई बाँसुरी
जरूर बज रही
है। उसी
बाँसुरी की
धुनें
पक्षियों के
कंठ में आ गयी
हैं। उसीकी
बाँसुरी के
रंग फूलों में
आ गए हैं। उसी
बाँसुरी की
तरंग
तितलियों में
आ गयी है।
कहीं इस विराट
के केंद्र पर
कोई बाँसुरी
निश्चित बज रही
है।
हिंदू
ठीक ही कहते
हैं कि कृष्ण
पूर्णावतार हैं।
उन्होंने
हिम्मत से यह
बात कही। राम
का बड़ा समादर
है,
लेकिन उनको
अंशावतार ही
कहा। कुछ कमी
रह गयी है।
कुछ थोड़ी-सी
मर्यादा है।
उत्सव में
मर्यादा नहीं
होती। उत्सव
में मर्यादा
हो तो उत्सव मर
जाता है।
उत्सव तो अमर्याद
होना चाहिए।
राम
रंगीले के रंग
राती।
परम
पुरुष संगि
प्राण हमारे, मगन
गलित मद-माती।।
सब डूब
गया! पूर्ण
मग्नता पैदा
हुई है।
मदमस्त।. . .मगन
गलित मद-माती।
लाग्यो
नेह नाम
निर्मल सूँ, गिनत
न सीली ताती।
अब न तो
सर्दी की कोई
फिकर है, न
गर्मी की कोई
फिकर है। न
सफलता, न
असफलता। न सुख,
न दःुख।
अब उस परम
प्यारे के साथ
नाच चल रहा
है। अब कैसी
फिकर? अब
सब उसके हाथ
में है। अब
कैसी फिकर? अब कैसी
चिंता?
लाग्यो
नेह नाम
निर्मल सूँ, गिनत
न सीली ताती।
डगमग
नहीं अडिग होई
बैठी, सिर धरि
करवत
काती।।
करना
क्या पड़ा है इस
उत्सव के लिए? सिर्फ
अपने सिर को
काट देना पड़ा
है। सिर को काटकर
रख दिया है
चरणों में, फिर नाच
शुरू हो गया
है, जिसका
कोई अंत नहीं।
और उस एक ही
नाम से प्रेम लग
गया है।
अहंकार
के कारण ही
तुम रुके हो।
तुम्हारा सिर भारी
है। तुम्हारा
सिर सब कुछ हो
गया है। तुम सोच-विचारकर
चल रहे हो।
तुम गणित बिठा
रहे हो। तुम
चालाक हो, चालबाज
हो, चतुर
हो। तुम्हारे
जीवन में
सरलता नहीं है,
हृदय का भाव
नहीं है। तो
तुम में
"भजन-भाव भरिया',
कैसे घटे यह
घटना! हृदय ही
सूख गया है।
लाग्यो
नेह नाम
निर्मल सूँ, गिनत
न सीली ताती।
डगमग
नहीं. . .
सिर कट
गया,
फिर कैसा
डगमग होना? यह सिर ही
डगमगाता है।
यह खोपड़ी ही
है जो संदेहों
से भरती है।
यह खोपड़ी ही
है जो चंचल
होती है। यह
अहंकार ही है
जो यहाँ से
वहाँ ले जाता
है; कहता
है--यह कर लो, वह कर लो; वैसे
हो जाओ, वैसे
हो जाओ।
"डगमग
नहीं अडिग होई
बैठी।' सिर
कट जाए तो फिर
तो अडिग हो ही
गए; फिर तो
सब ठहर गया।
मन ठहरा कि सब
ठहरा। विचार ठहरे
कि सब ठहरा।
बस एक काम करोः
अगर कहीं राम
की तुम पर
कृपा हो गयी
हो, राम की
कृपा हो रही
हो और गुरु के
चरण मिल जाएँ,
तो सिर को
काटने में देर
मत करना।
तत्क्षण सिर
काटकर चढ़ा देना।
तुम गँवाओगे
कुछ भी नहीं, क्योंकि
तुम्हारे सिर
में सिवाय
भूसे के और कुछ
भी नहीं है।
गँवाना क्या
है? भूसे
के अतिरिक्त
कुछ और तुमने
सिर में पाया
है? बेचने
जाओगे तो भूसे
के भी दाम
नहीं
मिलेंगे।
मैंने
सुना है, ऐसा
हुआ। एक
सम्राट किसी
भी फकीर के
चरणों में झुक
जाता था। उसके
वजीरों
को अच्छा नहीं
लगता था। और
उसके वजीरों
ने कहा, यह
भला नहीं है; यह ठीक नहीं
है। यह शोभा
नहीं देता। आप
इतने बड़े
सम्राट हैं। ऐरे-गैरे, कोई भी फकीर
चले आते हैं, भीख माँगनेवाले
फकीर, आप
उनके चरण छूते
हैं? आप
सिर झुकाते
हैं उनके
चरणों में? यह सिर बड़े
सम्राट नहीं झुकवा
सकते, यह
सिर कभी नहीं
झुका--विजेता
सम्राट था--इस
सिर पर
बहुमूल्य
हीरे-जवाहरातों
के मुकुट होते
हैं। इसको आप
झुकाते हैं फकीरों के
चरणों में? गंदे फकीर, नंगे फकीर!
उस सम्राट ने
कहा, समय
आने पर जवाब
दूँगा। एक दिन
एक आदमी को
फाँसी लगी।
बड़ा सुंदर
आदमी था, बड़ा
प्यारा आदमी
था। कुछ
भूल-चूक की थी,
सम्राट से
कुछ धोखाधड़ी
की थी, फाँसी
लग गयी। लेकिन
चेहरा उसका
बड़ा सुंदर था,
रूपवान था।
उसकी गर्दन कटवायी
सम्राट ने और
अपने वजीरों
को कहा कि
इसको जाकर
बाजार में बेच
आओ। सम्राट ने
कहा था तो वजीरों
को जाना पड़ा।
जहाँ गए वहीं
लोगों ने कहा,
हटो-हटो, भागो यहाँ से! यह
क्या ले आए हो
तुम? इसका
हम क्या
करेंगे? और
बदबू भी आ रही
है, तुम
यहाँ से जाओ!
तुम होश में
हो? कौन खरीदेगा
इसको?
जहाँ
गए वहीं से
भगाए गए। साँझ
होते ही वे
वापिस लौटे।
उन्होंने कहा, यह
तो बड़ा मुश्किल
मामला है, दो
पैसे में भी
कोई लेने को
तैयार नहीं
है। पैसे की
बात ही अलग, लोग खड़े
नहीं होने
देते। वे कहते
हैं, अपना
रास्ता पकड़ो!
बात ही नहीं
करते, खरीदने
का तो सवाल ही
नहीं, लोग
हँसते हैं। वे
कहते हैं, पागल
हो गए हो? आदमी
के सिर का हम
करेंगे क्या?
सम्राट
ने कहा, तुम
सोचते हो, कल
जब मैं मर
जाऊँगा, तुम
मेरे सिर को
बेच पाओगे? दो पैसे में
कोई खरीदेगा
नहीं। भूसे के
सिवाय इसमें
कुछ है भी
नहीं। भूसा भी
बिक जाएगा।
एक और
ऐसी कहानी है।
एक
सूफी फकीर को
कुछ डाकुओं ने
पकड़ लिया।
मस्त फकीर था!
अलमस्त फकीर
था! और उन्होंने
सोचा कि बेच
देंगे इसे
गुलामों के
बाजार में, अच्छे
दाम लग जाएँगे
हाथ। उसे लेकर
चले। राह वह
में एक सम्राट
की सवारी
गुजरती थी, सम्राट रुका,
उसने कहा कि
यह आदमी कहाँ
ले जा रहे हो? उन्होंने
कहा, हम
बेचने जा रहे
हैं, आपको
खरीदना है? गुलाम है, खरीद लें।
उसने कहा, दस
हजार रुपए में
खरीद लेता
हूँ। लेकिन उस
फकीर ने उन
डाकुओं को कहा
कि इतने सस्ते
में बेच मत
देना। ठहरो ज़रा, तुम्हें
मेरे मूल्य का
पता नहीं।
आदमी
बुद्धिमान
मालूम होता
था। थोड़ी देर
साथ उसके रहे
भी थे, उसकी
मस्ती भी देखी
थी। हो सकता
है ठीक हो। तो उन्होंने
कहा, नहीं,
इतने में
नहीं बेचेंगे।
तो सम्राट ने
कहा, बीस
हजार देता
हूँ। उस फकीर
ने कहा, तुम
ज़रा धीरज
रखो। अब तो
उसकी बात पर
भरोसा भी आ
गया। दस से
बीस हो गए।
उन्होंने मना
कर दिया बेचने
से।
आगे
फिर एक धनी की
सवारी मिली।
उस धनी ने कहा, पचास
हजार रुपए
देता हूँ इस
आदमी के। उस
फकीर ने कहा, तुम बेच मत
देना जल्दी
में--वे तो
बिल्कुल आतुर
हो रहे थे।
पचास हजार! जब
ठीक कोई मूल्य
बताएगा तो मैं
तुम्हें खुद
कह दूँगा कि
बेच दो।
फिर
कोई और मिल
गया खरीदनेवाला
जो लाख रुपए
देने को तैयार
था,
लेकिन फकीर
ने कहा, ज़रा सावधान! अब
तो वे ज़रा
गुलाम बेचनेवाले
भी चिंतित हो
गए कि इससे
ज्यादा दाम
मिल नहीं सकते।
हमने बड़े-बड़े
गुलाम बिकते
देखे हैं, मगर
एक लाख रुपया!
यह जरूरत से
ज्यादा हो
गया! बेचने को
ही थे और उस
फकीर ने कहा, तुम्हारी
मर्जी, फिर
पछताओगे, जिंदगी-भर
पछताओगे!
तुम्हें मेरे
दाम का पता
नहीं है, मुझे
पता है। तुम ज़रा ठहरो!
थोड़ी
दूर चलने पर
एक घसियारा
मिला। वह एक
घास की पोटली
लिए सिर पर जा
रहा था। और उस
फकीर ने कहा, इससे
पूछो कितने
दाम देगा? उन्होंने
कहा, यह
क्या दाम देगा?
उसने कहा
तुम पूछो तो।
फकीर को देखा
उस घसियारे ने,
नीचे से ऊपर
तक, उसने
कहा--भई
ज्यादा तो
मेरे पास नहीं
है, मगर यह
घास की पोटली
दे सकता हूँ।
फकीर ने कहा, बेच दो! ठीक
दाम मिल रहे
हैं, अब
चूको मत।
सिर
ठोंक लिया
होगा उन
डाकुओं ने कि
किस पागल के
चक्कर में पड़
गए।
मगर
फकीर ठीक कह
रहा है। इतना
ही दाम है! ठीक
दाम तो इतना
ही है। लेकिन
इस सिर को हम
बचाए फिरते
हैं। इस सिर
को हम अकड़ाए
फिरते हैं।
मजा यह है कि
यह सिर अकड़ा
रहे तो दो कौड़ी
इसके दाम नहीं
हैं और यह सिर
झुक जाए तो
इसकी कीमत का
क्या हिसाब!
मगर यह बड़ा
मजा है, यह
झुके तो इसमें
कीमत आती है।
झुकने से कीमत
आती है। झुकने
से यह हीरों
से तुलने-योग्य
हो जाता है।
जनम
सफल तब का भया, चरनौं
चित लामा।
रज्जब
राम दया करी, दादू
गुर पाया।।
डगमग
नहीं अडिग होई
बैठी, सिर धरि करवत
काती।।
एक बड़े
आरे से लेकर
सिर को काट
डाला है, तब से
सब डाँवाँडोलपन
चला गया, सब
थिर हो गया।
प्रज्ञा ठहर
गयी।
और जहाँ
विचार ठहर
जाते हैं, वहीं
तो परमात्मा
का आगमन है।
तुम्हारे
विचारों की
तरंगों के
कारण ही तुम
चूक रहे हो।
देख नहीं पाते,
सुन नहीं
पाते, अनुभव
नहीं कर पाते।
परमात्मा तो
सदा मौजूद है,
तुम्हारी
तरंगें सब
विकृत कर देती
हैं। ऐसा ही
है जैसे चाँद
तो निकला हो, लेकिन झील
पर बहुत लहरें
हों तो छाया
चाँद की नहीं
बनती। बने तो
भी बिखर जाती
हैं। झील भर
पर चाँदी बिखर
जाती है, मगर
चाँद नहीं
दिखायी पड़ता।
फिर कभी झील
पर हवा नहीं
है, हवा के
झोंके नहीं
हैं, तरंगें
नहीं हैं और
चाँद
निकला--चाँद
पूरा झलकता
है। ऐसे ही
परमात्मा तुम
में झलके, तुम
ठहरो ज़रा!
लेकिन तुम पड़े
हो विवाद में,
संदेहों
में, विचारों
में--जिनका
कोई मूल्य भी
नहीं है, जिनको
पकड़-पकड़कर
तुम कुछ पाओगे
भी नहीं।
लेकिन बड़ी जिद्द
से पकड़ा है।
छोड़ने को राजी
नहीं हैं।
बीमारियों को पकड़े बैठे
हो और छोड़ने
को राजी नहीं
हैं!
डगमग
नहीं अडिग होई
बैठी, सिर धरि करवत
काती।।
सब
विधि सुखी राम
ज्यूँ राखै. . .
और जब
से यह सिर
काटा है, तब से
एक मजे की बात
घट रही हैः सब
विधि सुखी राम
ज्यूँ राखै. . . । अब
जैसा राम रखते
हैं, हर
हाल में
सुख-ही-सुख
है। संतोष से
दोस्ती हो गयी
है।
सब
विधि सुखी राम
ज्यूँ राखै, यहु
रसरीति
सुहाती।
यही
प्रेम की
पुरानी रीति
है। "यहु रसरीति
सुहाती'. . . ।
भक्त को यही
सुहाती है--एक
बात, कि
जैसे राम रखें,
वैसे
रहूँगा।
"जैसे' का
खयाल रखना।
उसमें
तुम्हारी
शर्त नहीं आनी
चाहिए। सुख तो
सुख, दुःख
तो दुःख। दिन
तो दिन, रात
तो रात। सब
उसकी हैं--रात
भी उसकी, और
दुःख भी उसका;
फूल भी उसके
और काँटे भी
उसके।
सब
विधि सुखी राम
ज्यूँ राखै, यहु
रसरीति
सुहाती।
जन
रज्जब धन
ध्यान तिहारो.
. .
धनी हो
जाता है आदमी, ध्यानी
हो जाता है
आदमी--जब सिर
झुका देता है,
विचारों की
आहुति चढ़ा
देता है; मेरे
का जो भाव है, उसे गिरा
देता है।
"जन
रज्जब धन
ध्यान तिहारो।'
फिर तो बस
उसकी याद ही
रह जाती है।
वही एकमात्र
भीतर की आवाज
रह जाती है।
जन
रज्जब धन
ध्यान तिहारो, बेरबेर
बलि जाती।।
और फिर
तो बार-बार
बलि जाने का
मजा आने लगता
है। हर घड़ी
बलि जाने का
मजा आने लगता
है। यही है
पूजा, यही है प्रर्थाना,
यही है
अर्चना।
कहना
मुश्किल है--
राम रंगीले के
रंग राती--उस घड़ी
में क्या घटता
है,
कहना
मुश्किल है।
कैसे सौंदर्य
के बादल तुम्हारे
ऊपर बरस जाते
हैं, कहना
मुश्किल है।
कैसे सूरज, अनंत सूरज
तुम्हारे अंधेरे
को आलोकित कर
देते हैं, कहना
मुश्किल है।
कोई शब्द
सार्थक नहीं
हैं जो बता
सकें। और कैसे
अपूर्व
सौंदर्य का
अनुभव होता है,
और कैसे सुख
की धार भीतर
बहने लगती है,
कहना
मुश्किल है!
जैसे
शबनम से भरी
कोंपल में
किसी
तितली के परों
का परतव
जैसे
जंगल में किसी
मोर का रक्स
जैसे झोंकों
में किसी शमा
की जौ
तेरे शानों पे मुअत्तर जुल्फें
जैसे
बरसात की महकी
रुत में
साँवला
गीत किसी बादल
का
जैसे गुलज़ार
में भौंरों की
उड़ान
जैसे
मंदिर में धुऑं
संदल का
यह जवां
साल खदो-खाल
तेरे
मुझसे
तारीफ नहीं हो
सकती
तेरी
तुर्शी हुई
रानाई की
जिसमें
शामिल हो तवाजुन
का शऊर
तू वह
तस्वीर है चुगताई
की
बन गया
है मेरा सपना
कल का
खुशनुमा
रंग तेरे ऑंचल
का
साधारण
प्रेम की भी
परिभाषा नहीं
हो पाती, तो
प्रभु-प्रेम
की तो कैसे हो!
साधारण रूप भी
शब्दों में
नहीं बँधता, तो उस
निराकार का
रूप तो कैसे बँधे!
यह तो
किसी कवि के
शब्द
हैं--अपनी
प्रेयसी के लिए
कहे हैं। कहा
है--
जैसे
शबनम से भरी
कोंपल में
जैसे
कोंपल में ओस
की बूँद भरी
हो।
जैसे
शबनम से भरी
कोंपल में
किसी
तितली के परों
का परतव
और पास
से कोई उड़ती
तितली निकल
जाए और तितली
के रंगीन परों
की छाया ओस की
बूँद में पड़
जाए!
जैसे
शबनम से भरी
कोंपल में
किसी
तितली के परों
का परतव
जैसे
जंगल में किसी
मोर का रक्स
और
जैसे एकांत
जंगल में कोई
मोर नाचे!
जैसे
झोंकों में
किसी शमा की
लौ
और
जैसे हवा के
झोंके में शमा
की लौ का
नृत्य!
तेरे शानों पे मुअत्तर जुल्फें
ऐसे
तेरे बाल तेरे
माथे पर!
जैसे
बरसात की महकी
रुत में
साँवला
गीत किसी बादल
का
जैसे गुलज़ार
में भौंरों की
उड़ान
जैसे
मंदिर में धुऑं
संदल का
यह जवां
साल खदो-खाल
तेरे
यह
तेरा रूप, यह
तेरा नक्श!
मुझसे
तारीफ नहीं हो
सकती
साधारण
रूप की तारीफ
भी नहीं हो
पाती।
मुझसे
तारीफ नहीं हो
सकती
तेरी
तुर्शी हुई
रानाई की
तेरे
रूप की, तेरे
सौंदर्य की
मैं प्रशंसा
नहीं कर पाता!
जिसमें
शामिल हो तवाजुन
का शऊर
और फिर
जिसमें
संतुलन भी हो . . .
सौंदर्य और
संतुलन!
तू वह
तस्वीर है चुगताई
की
बड़े-बड़े
चित्रकार भी
तेरी तस्वीर न
बना सकें।
बन गया
है मेरा सपना
कल का
खुशनुमा
रंग तेरे ऑंचल
का
इतना
ही कह सकता
हूँ कि मैंने
जिंदगी-भर, कल
तक जो सपने
देखे थे, उन
सब सपनों का
रंग तेरे ऑंचल
का रंग है।
मगर कहना
मुश्किल है!
मुझसे
तारीफ नहीं हो
सकती
तेरी
तुर्शी हुई
रानाई की
प्रभु
के सौंदर्य का
तो कैसे वर्णन
हो?
और प्रभु का
संग-साथ मिल
जाने पर जो
मस्ती उतर आती
है, जो
शराब ढल जाती
है प्राणों
में, उसकी
तो कैसे
अभिव्यक्ति
हो? पर
भक्त के जीवन
को देखोगे
तो
अभिव्यक्ति
मिलेगी-- उसके
उठने में, उसके
बैठने में, उसकी ऑंखों
में, उसके
हाथों में।
भक्त को देखोगे--उसकी
भक्ति में, उसकी पूजा
में, उसकी
प्रार्थना
में, उसकी
आरती
में--भक्त को देखोगे तो
थोड़ी-थोड़ी खबर
मिलेगी।
तारीफ तो नहीं
हो सकती, वचनों
में आबद्ध भी
नहीं किया जा
सकता, रंगों
में तस्वीर भी
नहीं बनायी जा
सकती, मगर
भक्त के
प्रसाद में
थोड़ी-सी झलक
मिल सकती है।
वैसी ही झलक--
जैसे
शबनम से भरी
कोंपल में
किसी
तितली के परों
का परतव!
वैसी
ही झलक--
जैसे
जंगल में किसी
मोर का रक्स
जैसे
झोंकों में
किसी शमअ
की लौ
जैसे
बरसात की महकी
रुत में
साँवला
गीत किसी बादल
का
जैसे गुलज़ार
में भौंरों की
उड़ान
जैसे
मंदिर में धुऑं
संदल का
यह जवां
साल खदो-खाल
तेरे
परमात्मा
बहुत निकट है, तुम
नाहक उससे दूर
बने हो!
अपूर्व संपदा
तुम पर बरसने
को तत्पर है, झोली फैलाओ!
मगर तुम अपनी
झोली बंद किए
बैठे हो। सब
कुछ मिल सकता
है--और तुम
ना-कुछ की
तलाश कर रहे
हो! हीरों की
खदान पास
है--और तुम कचराघर
में खोजबीन कर
रहे हो!
सब
बहुत निकट है; हाथ
बढ़ाने की बात
है--इतने निकट
है! मगर
तुम्हारे हाथ
गलत दिशाओं
में टटोल रहे
हैं। तुम ऍ?धेरों में टटोल
रहे हो। तुमने
ऑंखें
बंद कर रखी
हैं। तुमने
हृदय को जड़ कर
रखा है। तुमने
अपनी बुद्धि
से ही सब कुछ
जीने की
व्यवस्था कर
रखी है। यही
तुम्हारे
जीवन की
दुर्घटना है।
इस बुद्धि को
चढ़ा दो। खोज
लो कहीं कोई
चरण, किसी
भी बहाने इस
बुद्धि को चढ़ा
दो। यह बुद्धि
चढ़ जाए, तुम
अचानक पा जाओ!
रोशनी उतरे!
रंग उतरे! गंध
उतरे! और पहली
बार तुम्हें
जीवन का अर्थ
मालूम हो।
जीवन
बहुमूल्य है, इसे
ऐसे ही मत गँवाओ।
जीवन बहुत बड़ी
भेंट है भगवान
की! इसे ऐसे ही
मत चला जाने
दो। मगर अधिक
लोग इसे ऐसे
ही चला जाने
देते हैं।
रज्जब से कुछ
सीखो!
गुरु
गरवा दादू मिल्या, दीरघ
दिल दरिया।
तत
छन परसन
होत हीं भजन
भाव भरिया।।
श्रवण
कथा साँची सुणी, संगति
सतगुरु की।
दूजा
दिल आवै
नहिं, जब
धारी धुर की।।
भरमजाल भव काटिया, संका
सब तोड़ी।
साँचा
सगा जे राम का, त्यों
तासूँ
जोड़ी।।
भौजल माहिं काढ़िकै, जिन
जीव जिलाया।
सहज
सजीवन कर लिया
साँचे संगि
लाया।।
जनम
सफल तब का भया, चरनौं
चित लाया।
रज्जब
राम दया करी, दादू
गुरु पाया।।
राम
रंगीले के रंग
राती।
परम
पुरुष संगि
प्राण हमारो, मगन
गलित मद-माती।।
लाग्यो
नेह नाम
निर्मल सूँ, गिनत
न सीली ताती।
डगमग
नहीं अडिग होई
बैठी, सिर धरि करवत
काती।।
सब
विधि सुखी राम
ज्यौं राखै, यहु
रसरीति
सुहाती।
जन
रज्जब धन
ध्यान तिहारो, बेरबेर
बलि जाती।।
राम
रंगीले के रंग
राती।
आज
इतना ही।
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