ओशो जीवन
का अंतिम
ध्येय आत्म—
दर्शन आत्म—
बोध है वह
मान्य है। आप
प्रार्थना के
लिए विरोध
करते हैं। लोइकन
मैं समझती हूं
कि प्रार्थना
एक शुभ चिंतन
है और समाज
में सात्विकता
और पवित्रता
का असर उत्पन्न
करने का एक
साधन है। आपका
हृदयपूर्वक
दिया हुआ यह
व्याख्यान
प्रार्थना
नहीं तो और क्या
है? आप शुभ
चिंतन करके
उसका फायदा
अन्य आत्मा को
देने का
प्रयास करते
ही हैं। इसी
अर्थ में
प्रार्थना
शुभकामनाओं
का दूसरा नाम
नहीं है क्या?
मेरी
दृष्टि में, प्रार्थना
की नहीं जा सकती,
प्रार्थना
में हुआ जा
सकता है। आप
प्रार्थना
में हो सकते
हैं, लेकिन
प्रार्थना कर
नहीं सकते।
प्रार्थना
कोई क्रिया
नहीं, प्रेम
की अवस्था है।
साधारणत: हम
कहते हैं, प्रेम
करते हैं, यह
वचन गलत है।
प्रेम किया
नहीं जा सकता,
प्रेम में
हुआ जा सकता
है। आप प्रेम
में हो सकते
हैं, लेकिन
प्रेम कर नहीं
सकते। प्रेम
कोई क्रिया
नहीं, भाव
की एक दशा है।
तो
मेरा जो विरोध
है वह
प्रार्थना
में होने से
नहीं, प्रार्थना
करने से है।
मेरा जो विरोध
है वह प्रेम
में होने से
नहीं, प्रेम
करने से है।
शिक्षा दी
जाती है— हम
दूसरों से
प्रेम करें।
यह बात ही गलत
है। क्योंकि
किया हुआ
प्रेम झूठा
होगा। चेष्टा
किया हुआ
प्रेम मिथ्या
होगा, वंचना
होगा, डिसेप्शन
होगा। जब हम
प्रेम करेंगे
तो क्या
करेंगे? हम
प्रेम का
दिखावा
करेंगे।
प्रेम का
दिखावा, प्रेम
के शब्द या
प्रेम की
चेष्टा से
किया गया व्यवहार
सत्य नहीं
होगा। जब हम
प्रेम करने का
विचार करते
हैं तभी स्पष्ट
है कि हमारे
भीतर प्रेम
नहीं है।
प्रेम हो तो
प्रेम किया
नहीं जाता; प्रेम की एक
चित्त—दशा है
और प्रेम
प्रवाहित
होता है।
लेकिन
साधारणत: हम
प्रार्थना
करते हैं। यह
प्रार्थना
झूठी होगी। इस
प्रार्थना
में आप क्या
करेंगे? प्रभु
की प्रशंसा
करेंगे, स्तुति
करेंगे। क्या
आप सोचते हैं
प्रभु कोई
व्यक्ति है
जिसकी स्तुति
और प्रशंसा की
जा सके? या
कि आप सोचते
हैं कि प्रभु
कोई ऐसा
व्यक्ति है जो
प्रशंसा और
स्तुति से
प्रसन्न होगा?
अगर
आप ऐसा सोचते
हैं तो परमात्मा
के संबंध में
बड़ा निम्न
दृष्टिकोण
रखते हैं। आप
सोचते हैं कि
आपकी स्तुति
से परमात्मा
प्रसन्न होगा, तो
आपने
परमात्मा को
किसी अहंकारी
व्यक्ति की
शक्ल में
निर्माण कर
लिया है।
दूसरी बात है,
क्या आप
सोचते हैं कि
परमात्मा कोई
व्यक्ति है
जिससे कोई
बातचीत हो सके?
जिससे हम
कुछ कह सकें
या कुछ निवेदन
कर सकें?
परमात्मा
कोई व्यक्ति
नहीं वरन
अनुभूति का नाम
है।
प्रेम
की स्तुति में
अगर आप कुछ
कहेंगे तो सुनने
वाला कोई भी
नहीं है।
प्रेम की ही
चरम अनुभूति
का नाम
परमात्मा है।
जब प्रेम एक
व्यक्ति से
दूसरे
व्यक्ति के
बीच में होता
है,
तब जो अनुभव
में आता है वह
प्रेम है, दूसरा
व्यक्ति
प्रेम नहीं है।
जो अनुभूति
होती है वह।
और जब एक
व्यक्ति और
समस्त सृष्टि
के बीच, समस्त
जगत के बीच
प्रेम का ऐसा
ही संबंध फलित
होता है, तब
जो भीतर
अनुभूति होती
है उस अनुभूति
का नाम
परमात्मा है।
परमात्मा व्यक्ति
नहीं है, अनुभूति
है। एक कोई
वस्तु नहीं है,
बल्कि भीतर
अनुभव की एक
दशा है।
परमात्मा की
स्तुति और
प्रार्थना
नहीं हो सकती।
हां, आप
प्रार्थना
में हो सकते
हैं। आप प्रेम
में हो सकते
हैं। और वह
होने का मार्ग
है कि आप जिस
भांति शून्य होते
जाएंगे, उसी
भांति आप
प्रार्थना
में होते
जाएंगे।
तो
मैं
प्रार्थना के
विरोध में
नहीं हूं प्रार्थना
करने के विरोध
में हूं।
क्योंकि की
हुई
प्रार्थना
झूठी होगी, सत्य
नहीं हो सकती।
किया हुआ
प्रेम झूठा
होगा, वह
भी सत्य नहीं
हो सकता।
लेकिन हमारा
सारा जीवन
असत्य है। हम
सारी बातें असत्य
करने लगे हैं।
हम प्रार्थना
भी असत्य कर
रहे हैं। और
वैसी ही
प्रार्थना
सिखाई जा रही
है, वह
हमारी
कामनाओं का ही
रूप है, हमारी
मांग का रूप
है।
जापान
में एक बौद्ध
भिक्षु था।
सबसे पहले
उसने ही चीनी
भाषा से बुद्ध
के वचन जापानी
भाषा में
अनुवाद किए।
बड़ा काम था, विराट
साहित्य था, उसको
अनुवादित
करना था। फकीर
के पास, भिक्षु
के पास कुछ भी
न था। वह गांव—गांव
गया, दस
वर्ष उसने
भिक्षा मांगी,
तब कहीं दस
हजार रुपये
इकट्ठे हुए और
ग्रंथ का काम
शुरू होने की
संभावना बनी।
लेकिन जैसे ही
दस हजार रुपये
इकट्ठे हुए, जिस क्षेत्र
में वह रहता
था वहां अकाल
पड़ गया। अकाल
पड़ गया तो
उसने शास्त्र
के अनुवाद का
काम रोक दिया।
उसने वे दस
हजार रुपये
अकाल पीड़ितों
को भेंट कर
दिए।
फिर
भिक्षा
मांगनी शुरू
की,
फिर दस वर्ष
लग गए, दस
हजार रुपये
इकट्ठे हुए।
तभी एक भूकंप
आ गया। उसने
वे दस हजार
रुपये उस भूकंप
में दान कर
दिए।
फिर
भिक्षा
मांगनी शुरू
की। वह
शास्त्रों का
काम फिर रुक
गया। जब उसने
भिक्षा
मांगनी शुरू
की थी तब वह
चालीस वर्ष का
था। जब तीसरी
बार भिक्षा
पूरी हुई तो
वह सत्तर वर्ष
का था। फिर दस
हजार रुपये
इकट्ठे हुए, ग्रंथों
का काम शुरू
हुआ। मरते समय
किसी ने उससे
पूछा कि क्या
इन ग्रंथों का
यह पहला
संस्करण है?
तो
उसने कहा, नहीं;
यह तीसरा
संस्करण है, दो संस्करण
पहले निकल
चुके हैं।
वे
लोग हैरान
हुए! उन्होंने
कहा.. .उसने
ग्रंथ पर
लिखवाया भी कि
तीसरा
संस्करण, थर्ड
एडिशन......लोगों
ने पूछा कि यह
क्या है? पहले
दो संस्करण
कहां हैं?
उसने
कहा,
एक अकाल में
लग गया, एक
भूकंप में। और
वे दो संस्करण
इस तीसरे से
श्रेष्ठ थे, वे दिखाई
नहीं पड़ते हैं।
वे दिखाई नहीं
पड़ते; वे
श्रेष्ठ
संस्करण थे।
वे बहुत
डिवाइन थे, बहुत दिव्य
थे। हमको
दिखाई पड़ेगा
कि वे संस्करण
हुए नहीं; लेकिन
उसे दिखाई
पड़ता है। जो
प्रार्थना
दिखाई पड़ती है
वह असली नहीं
है; जो
बहुत हृदय की
दशाओं में
उत्पन्न होती
है वही असली
है। निश्चित हां,
तीसरा
संस्करण कोई
कीमत का नहीं
है, असली
संस्करण वे दो
थे। लेकिन अगर
यह अंधा पंडित
होता, तो
वह दस हजार
रुपये का पहला
संस्करण निकालता
और मानता कि
यही ठीक है, दूसरे का भी
निकालता, मानता
यही ठीक है।
लेकिन उसके
पास
अंतर्दृष्टि
थी, प्रेम
था। उसे पता
था प्रार्थना
क्या है!
तो
यह जो हम
सामान्यत:
प्रार्थना और
पूजा समझते
हैं,
इसमें बड़ा
धोखा है। आपका
चित्त तो नहीं
बदलता, कुछ
बातें आप
दोहरा कर निपट
जाते हैं। एक
काम को पूरा
कर लेते हैं, एक रूटीन
पूरी कर लेते
हैं। फिर रोज—रोज
उसे दोहराते
रहते हैं और
समझते हैं कि
प्रार्थना कर
रहे हैं।
प्रार्थना
बड़ी क्रांति
है,
प्रार्थना
आमूल जीवन
परिवर्तन है,
बड़ा ट्रासफामेंशन
है। आपका पूरा
चित्त
परिवर्तित
होगा, तो
आप प्रार्थना
में हो सकेंगे।
और फिर ऐसा मत
समझिए कि जो
आदमी
प्रार्थना में
हो गया, वह
प्रार्थना के
बाहर हो सकता
है। बाहर नहीं
हो सकता।
क्योंकि अगर
प्रार्थना
करते हैं, तो
करेंगे तो
प्रार्थना
संबंध हो
जाएगा, नहीं
करेंगे तो
प्रार्थना के
बाहर हो
जाएंगे।
लेकिन जो
मनुष्य
प्रार्थना
में प्रविष्ट
कर जाता है—एक्शन
की तरह नहीं, बीइंग की
तरह; काम
की तरह नहीं, सत्ता की
भाति—वह फिर
प्रार्थना के
बाहर नहीं हो
सकता। वह
चौबीस घंटे
प्रार्थना
में जीता है।
उसकी
प्रत्येक
क्रिया
प्रार्थना हो
जाती है। उसका
उठना, बैठना,
उसका चलना,
उसका बोलना,
सब
प्रार्थना हो
जाता है।
प्रार्थना के
भीतर जाकर कोई
प्रार्थना के
बाहर नहीं आ
सकता। मंदिर
के भीतर जाकर
कोई मंदिर के
बाहर नहीं आ सकता,
अगर सही—सही
मंदिर के भीतर
गया हो।
क्योंकि फिर
वह जहां होगा
वहीं मंदिर
होगा। वह जो
करेगा वही
प्रार्थना
होगी। वह जो
भी उसके जीवन
में होगा, सब
प्रार्थनापूर्ण
होगा, प्रेयरफुल होगा।
तो
उसकी, उसी
प्रार्थना की,
उसी प्रेम
की मैं बात कर
रहा हूं। और
ये जो चलती
हुई
प्रार्थनाएं
हैं, निश्चित
ही मैं उनके
विरोध में हूं
क्योंकि मैं
प्रार्थना के
पक्ष में हूं।
मैं धर्म के
पक्ष में हूं
इसलिए सारे
तथाकथित धर्म
के विरोध में
हूं। मैं
चाहता हूं कि
जगत में
प्रार्थना हो,
इसलिए
प्रार्थना के
नाम से चलने
वाले जितने थोथे
बाह्य आडंबर
हैं, चाहता
हूं कि वे
नष्ट हो जाएं,
ताकि
प्रार्थना का
जन्म हो सके।
ये
सब कुछ
प्रार्थना
नहीं हैं।
प्रार्थना
बड़ी......मेरी बात
आप समझे? प्रार्थना
बड़ी आंतरिक
मनोदशा है। और
जब वह हो तो
जीवन में
दृष्टिकोण
बड़ा दूसरा होगा,
बहुत दूसरा
होगा। और अगर
वह न हो, तो
लोभी, कामी,
सब
प्रार्थना
करते हुए
दिखाई पड़ेंगे।
अपने लोभ के
लिए, अपनी
कामना के लिए,
इच्छाओं की
पूर्ति के लिए
प्रार्थना करेंगे
कि परमात्मा
प्रसन्न हो
जाए, हम जो
चाहते हैं वह
हमें मिल जाए।
उन्हें
परमात्मा से
कोई मतलब नहीं
है, उनकी
जो मांग है
उससे उन्हें
मतलब है। अगर
वह मिल जाएगी
तो वे मानेंगे
कि परमात्मा है,
अगर वह नहीं
मिलेगी, वे
कहेंगे कि
हमें
परमात्मा पर
शक है, पता
नहीं परमात्मा
है या नहीं!
अगर दस बार
मांगा और फिर
प्रार्थना
पूरी न हुई, तो उन्हें
परमात्मा पर
संदेह हो
जाएगा। यानी
उनके लिए
परमात्मा जो
है वह उन
वस्तुओं से कम
मूल्य का है
जिनको वे मांग
रहे हैं।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं,
प्रार्थना
तो बड़ी सत्य
है। क्योंकि
हम नौकरी में
नहीं थे, हमने
प्रार्थना की
और नौकरी मिल
गई। कोई मुझसे
कहता है, प्रार्थना
तो बड़ी सत्य
है। हम बड़ी
दिक्कत में थे,
प्रार्थना
की और दिक्कत
के बाहर हो गए।
मैं
उनसे पूछता
हूं क्या तुम
सोचते हो, जो
लोग दिक्कत
में होते हैं
और प्रार्थना
नहीं करते, वे कभी
दिक्कत के
बाहर नहीं
होते? क्या
तुम सोचते हो,
जो लोग
प्रार्थना
नहीं करते और
नौकरी में नहीं
होते, क्या
उन्हें कभी
नौकरी नहीं
मिलती? क्या
तुम सोचते हो
कि जो नास्तिक
मुल्क हैं, जहां कोई
प्रार्थना
नहीं होती, वहां सब लोग नौकरी
के बाहर हैं? और सारे लोग
दिक्कत में
हैं?
नहीं
लेकिन, हम
प्रार्थना से
संबंध जोड़
लेते हैं। और
हमारे लिए
प्रार्थना का
न कोई मूल्य
है, न
परमात्मा का।
हमें तो हमारी
कामना पूरी हो
जाए तो मूल्य
है। किसी को
एक बच्चा पैदा
हो जाए, वह
परमात्मा से
ज्यादा
मूल्यवान है,
क्योंकि
उसने
प्रार्थना की
थी और बच्चा
हुआ, इसलिए
परमात्मा है।
यह हमारा तर्क
है! ये हमारे
सोचने के ढंग
हैं! हमें
क्षुद्र
चीजें
मूल्यवान हैं।
और हम उन
क्षुद्र
चीजों को मांग
कर सोचते हैं कि
कुछ होगा।
असल
में जहां भी
मांग है, वहां
किसी न किसी
क्षुद्र बात
की होगी। ऐसे
लोग हुए हैं
जो कहेंगे, प्रार्थना
में वस्तुएं
मत मांगिए;
स्वर्ग मांगिए,
मोक्ष मांगिए।
ये भी सब
कामनाएं हैं,
ये भी सब
वासनाएं हैं,
ये भी सब डिजायर्स
हैं। यह बहुत
लोभ का गहरा
अंग है। एक
आदमी है जो
जाकर कहता है,
मुझे बच्चा
चाहिए। एक
संन्यासी
कहेगा कि यह
क्या क्षुद्र
मांग मांगते
हो! अरे, परमात्मा
से मांगना है
तो मांगो कि
हमें अनंत आनंद
चाहिए।
मेरी
दृष्टि में, बच्चे
को मांगने
वाला कम लोभी
है, अनंत
आनंद को
मांगने वाला
ज्यादा लोभी
है। इसकी ग्रीड,
इसका लोभ
बहुत ज्यादा
है।
लेकिन
यह समझा रहा
है कि क्या
तुम मांगते
हो! अरे
मांगना, क्या
क्षुद्र
बातें मांगते
हो!
असल
में मांगना ही
क्षुद्रता है।
आप जो भी मांगेंगे, मांगने
की वृत्ति ही
क्षुद्रता है।
फिर आप कुछ भी
मांगें। जो भी
मांगेंगे
वह कामना होगी,
कम लोभ की
होगी या
ज्यादा लोभ की
होगी। यह सवाल
नहीं।
प्रार्थना
में मांग नहीं
होनी चाहिए।
प्रेम मांगता
नहीं, देता
है। जहां
प्रेम है वहां
मांग नहीं
होती; वहां
दान होता है, देना होता
है। और जहां
प्रेम नहीं
होता वहां
मांग होती है,
शोषण होता
है। हम कुछ
शोषण करना
चाहते हैं।
प्रार्थना के
नाम से
परमात्मा का
शोषण करना चाहते
हैं। यह मिल
जाए, वह
मिल जाए, यह
हमारी इच्छा
है। हमारी
इच्छाएं पूरी
करे, परमात्मा
हमारा सेवक हो
जाए। हम जो
चाहते हैं वह
हमारा काम
करता रहे। अगर
करता रहे तो
बहुत ऊंचा
परमात्मा है,
दयालु है, परम कृपालु
है, पतितपावन
है, जमाने
भर की हम
प्रशंसा के
पदक उसको
देंगे। क्योंकि
वह हमारे काम
करता रहे।
ये
सारी बातें
प्रार्थनाएं
नहीं हैं।
प्रार्थना तो
चित्त की
प्रेम की गहरी
दशा है। और
प्रेम? प्रेम
को समझना होगा
तभी हम
प्रार्थना को
समझ सकते हैं।
प्रेम क्या है?
साधारणत: हम
सोचते हैं
जिसे हम प्रेम
कहते हैं वह
प्रेम है? वह
प्रेम नहीं है।
सामान्यत:
प्रेम के नाम
से हम दूसरे
व्यक्ति में
अपने को
भुलाने का
उपाय करते हैं।
किसी में हम
अपने को भुला
दें, भुला
सकें—उसके
सौंदर्य में,
उसके शरीर
में, उसके
व्यक्तित्व
में, और
कोई कारणों
में—तो हमें
लगता है कि
हमारा बड़ा
प्रेम है। हम
अपने को किसी
व्यक्ति में
भुलाने में जब
समर्थ हो जाते
हैं, वह
व्यक्ति हमें
जरूरी हो जाता
है। हम चाहते
हैं वह
सुरक्षित रहे,
नष्ट न हो
जाए, मर न
जाए।
अगर
आपका कोई
प्रेमी मर
जाता है तो
आपको जो दुख
होता है, इस
खयाल में मत
रहना कि वह
उसके मरने से
होता है। वह
दुख इसलिए
होता है कि आप
उसमें अपने को
भूले रखते थे,
अब क्या
करेंगे? अब
आप किसी में
भूल नहीं
सकेंगे अपने
को। अब आप
घबड़ा गए। आपकी
एक एस्केप खो
गई, आपका
एक पलायन का
स्थल था, एक
व्यक्ति था
जिसमें आप
अपने को
डुबाते थे, भूलते थे, वह नष्ट हो
गया। अब आप
क्या करेंगे?
प्रेमी जो
आत्मघात कर
लेते हैं
प्रेमियों के मरने
पर, वह
इसीलिए कि अब
उन्हें जीवन
में कोई अर्थ
नहीं दिखाई
देता।
क्योंकि
जिसमें भूलते
थे वही उनका
जीवन था।
यह
कोई प्रेम
नहीं है। ये
सब मूर्च्छाएं
हैं। ये सब चेष्टाएं
हैं अपने को
किसी में
भुलाने की। और
यही वजह है कि
जिस व्यक्ति
को आज आप
प्रेम करते
हैं,
चार—छह
महीने बाद
पाएंगे कि अब
उससे आपका
प्रेम नहीं लग
रहा है, किसी
और की तरफ
आपकी दृष्टि
चली गई है।
क्योंकि
जिसके आप आदी
हो जाते हैं
उसमें अपने को
भुलाना
मुश्किल हो
जाता है। अब
आप दूसरे
व्यक्ति को
खोजते हैं।
दूसरे के साथ
भी यही होगा, तीसरे को
खोजेंगे।
तीसरे के साथ
भी यही होगा, चौथे को
खोजेंगे। जिस—जिस
को आप अपने को
भुलाने को
खोजेंगे, थोड़े
दिन तरकीब काम
करेगी नये—नये,
फिर वह
तरकीब काम
नहीं करेगी, आप आदी हो
जाएंगे, आप
परिचित हो
जाएंगे।
यह
सब प्रेम नहीं
है। और इस
सारे प्रेम
में हम अधिकार
करना चाहते
हैं उस व्यक्ति
पर जिससे हम
प्रेम करते
हैं। सारा
प्रेम पजेस
करना चाहता है।
हम मालिक हो
जाना चाहते
हैं उसके
जिसको हम प्रेम
करते हैं।
क्यों? क्योंकि
हमें डर है कि
कहीं वह छिटक
न जाए, कहीं
वह किसी और के
प्रेम के
चक्कर में न
पड़ जाए। नहीं
तो हमारा क्या
होगा? हम
क्या करेंगे?
हमें
अपने में तो
कोई सुख नहीं
मालूम होता, दूसरे
व्यक्ति से
मांगते हैं कि
हमें सुख दे दो।
सारे प्रेमी
एक—दूसरे से
सुख मांगते
हैं। मुझे
दिखाई पड़ता है,
यह ऐसा ही
है कि एक
दुनिया हो
जिसमें सब भिखमंगे
हों और सब
अपने भिक्षापात्र
लिए एक—दूसरे
के सामने खड़े
हों कि हमें
कुछ दे दो। तो
दूसरा भी
भिखमंगा है, वह भी भिक्षापात्र
लिए खड़ा हुआ
है। इस जमीन
पर एक प्रेमी
दूसरे प्रेमी
से मांगता है—मुझे
आनंद दे दो!
इसको सोचता ही
नहीं कि उसके
पास आनंद अगर
होता तो वह
तुम्हारे पास भिक्षापात्र
लेकर खुद ही
क्यों आता!
जिसके पास
आनंद है वह किसी
से आनंद नहीं मांगेगा।
अगर
आप किसी से भी
आनंद मांग रहे
हैं,
आपके पास
आनंद नहीं है।
जिससे आप मांग
रहे हैं वह भी
आपसे मांगने
आया हुआ है।
दोनों इस भ्रम
में हैं कि
दूसरे से हमें
मिलेगा।
इसीलिए प्रेम
में फ्रस्ट्रेशन
पैदा होता है,
प्रेम में
दिक्कत पैदा
होती है, असफलता
पैदा होती है।
थोड़े दिन में
पता लगता है
कि प्रेमी
हमें प्रेम
नहीं दे रहा।
देगा क्या? प्रेम तो
आनंद का
प्रकाशन है, जिसके भीतर
आनंद होगा वही
केवल प्रेम दे
सकता है।
तो
स्मरण रखें, अगर
आप दूसरे से
प्रेम मांगते
हैं तो आप
दुखी हैं और
आप प्रेम देने
में असमर्थ
होंगे। अगर आप
भीतर आनंदित
हों तो आप
प्रेम देने
में समर्थ हो
जाएंगे। आनंद
का दान प्रेम
है और दुख का
दान प्रेम का
मांगना है।
जहां मांग है
वहां भीतर दुख
है; जहां
दान है वहां
भीतर आनंद है।
तो जब तक आपके
भीतर आनंद
नहीं है, तब
तक आप प्रेम
कर ही नहीं
सकते। अगर
थोड़ा—बहुत
आनंद होगा, तो लोगों को
थोड़ा—बहुत
प्रेम कर
पाएंगे। जिस
मात्रा में
आनंद बढ़ेगा, प्रेम बढ़ेगा।
जिस दिन आनंद
पूर्ण हो
जाएगा, उस
दिन प्रेम
पूर्ण हो
जाएगा।
आनंद
की
परिपूर्णता
पर जीवन में
प्रेम उत्पन्न
होता है। उसी
प्रेम की
परिपूर्णता
का नाम
प्रार्थना है।
वही
टु बी इन
प्रेयर है।
वही
प्रार्थना
में होना है।
फिर चौबीस
घंटे जीवन से
प्रेम बरसने
लगता है। उठते, बैठते,
चलते, चारों
तरफ प्रेम
झलकने लगता है।
भीतर आनंद
होता है, तो
उसकी ज्योति
बाहर फैलती है।
ज्योति, आनंद
की ज्योति का
नाम प्रेम है।
भीतर आनंद का
दीया जलेगा, तो बाहर
प्रकाश
फैलेगा प्रेम
का। फिर वह
प्रेम किसी से
संबंधित नहीं
होता। जो
प्रेम किसी से
संबंधित नहीं
उसका नाम प्रार्थना
है। जो प्रेम
किसी से
संबंधित हो
जाए वह प्रेम
नहीं है। जो
प्रेम किसी से
संबंधित नहीं
होता, अनंत
के प्रति, सर्व
के प्रति
प्रवाहित
होता है, वही
प्रार्थना है,
वही
परमात्मा के
प्रति
प्रार्थना है।
परमात्मा
कोई व्यक्ति
नहीं है।
समस्त, सर्व,
टोटेलिटी,
यह जो सब है,
यही
परमात्मा है।
इस सबके प्रति—
वह जो पौधा
लगा है, उसके
प्रति, चौराहे
पर पत्थर पड़ा
है, उसके
प्रति, वे
जो आकाश में
तारे हैं, चांद
है, उनके
प्रति, ये
जो लोग हैं, पशु हैं, पक्षी
हैं, यह जो
सौंदर्य है, कुरूपता है,
जो कुछ भी
है—फूल हैं, कांटे हैं, सबके प्रति
बिना किसी कंडीशन
के, बिना
किसी शर्त के,
बिना किसी
आग्रह के जो
प्रेम का दान
है वह प्रार्थना
है। और जब
व्यक्तित्व
में वैसी घड़ी
घटित होती है कि
जहां भी आपकी
दृष्टि जाए
वहीं उससे
प्रेम बरसे, जहां भी
आपके प्राण
कंपित हों
वहीं प्रेम
बरसे, जहां
भी आपकी श्वास
जाए वहीं
सुवास जाए
प्रेम की, जो
भी आपसे हो—विचार
में, कर्म
में, भाव
में— वह सब
प्रेमपूर्ण
हो, तो आप
प्रार्थना
में प्रवेश कर
रहे हैं।
प्रार्थना
बड़ी मुश्किल
बात है।
प्रार्थना
आसान बात नहीं
है; वह तो
प्रेम का
परिपूर्ण
परिष्कृत रूप
है।
तो
इसको मैं
प्रार्थना
नहीं कहता कि
आप हाथ जोड़े
किसी मंदिर
में खड़े हैं, तो
इसको मैं
प्रार्थना कह
दूं कि आप
किसी मूर्ति के
सामने हाथ
जोड़े खड़े हैं।
यह तो वही
पुराना
मांगना है जो
आप लोगों के
साथ कर रहे
हैं। एक आदमी
दूसरे से
प्रेम मांग
रहा है। वही
फिर जरा घबड़ाता
है तो मंदिर
में जाकर
मांगने लगता
है। इसमें कोई
भेद नहीं है, इसमें कोई
फर्क नहीं है,
यह तो
मांगना ही है।
प्रेम
दान है। तो
प्रार्थना
अगर मांगना है
तो समझ लेना
कि वह
प्रार्थना
नहीं है।
प्रार्थना भी
प्रेम का अनंत
दान होनी
चाहिए। और जब
वह होगी तो
फिर क्रांति
घटित होगी।
एक
मुसलमान सूफी
फकीर औरत हुई राबिया।
उसके
धर्मग्रंथ
में कहीं लिखा
था कि शैतान
को घृणा करो।
उसने वह
पंक्ति काट दी।
अब धर्मग्रंथ
में सुधार
करना बड़ा पाप
है। क्योंकि
धर्मग्रंथ
में कौन
संशोधन करे!
अब आप उठाएं
और गीता में
संशोधन कर दें, कुछ
लकीरें काट
दें और कुछ
लिख दें, तो
लोग आपको
कहेंगे, आपने
यह क्या अनर्थ
कर डाला!
एक
फकीर उसके घर
मेहमान था, हसन
नाम का फकीर
था। उसने
कुरान पढ़ी।
उसने कहा, यह
किसने इसमें
गड़बड़ कर दी? यह तो ग्रंथ
अपवित्र हो
गया! यह किसने
काट दिया कि
शैतान को घृणा
करो? राबिया ने कहा, मैंने
ही काटा है।
तो
उसने कहा, यह
तुमने क्या
भूल की है!
राबिया ने
कहा कि अब
मेरी बड़ी
मुश्किल हो गई
है। जब से मैं
प्रार्थना
में प्रविष्ट
हुई हूं अब
मैं किसी को
घृणा कर ही
नहीं सकती। अब
अगर शैतान
मेरे सामने
खड़ा हो जाए तो
प्रेम करने को
मजबूर हूं।
ईश्वर भी खड़ा
हो,
शैतान भी
खड़ा हों—मैं
दोनों को
प्रेम कर सकती
हूं। असल में
अब मैं पहचान ही
नहीं पाऊंगी
कि कौन ईश्वर
है? कौन
शैतान है? क्योंकि
प्रेम भेद
करना नहीं
जानता। तो अब
मैं कैसे उसको
घृणा करूंगी?
क्योंकि
मैं उसको
पहचान ही नहीं
पाऊंगी कि यह शैतान
है। क्योंकि
प्रेम कोई भेद
नहीं करता।
घृणा भेद करती
है। प्रेम
अभेद करता है,
प्रेम
अद्वय, अद्वैत
है। प्रेम ही
अकेला अद्वैत
है।
यह
जो प्रेम की
अद्वैत
अनुभूति है, उस
चरम अनुलुह
का नाम
प्रार्थना है।
प्रेम का ही परिशुद्धतम
रूप
प्रार्थना है।
इसका ही अंतिम
विकास
प्रार्थना है।
उस प्रार्थना
को चाहता हूं
इसलिए ये जो
तथाकथित
प्रार्थनाएं
हैं, चाहता
हूं कि ये न
हों, तो
शायद उस तरफ
हमारी दृष्टि
उठे। अगर इनसे
हम मुक्त हो
जाएं तो उस
तरफ प्रवेश हो
सकता है।
एक और
प्रश्न है।
पूछा है ओशो
ज्ञान—इंद्रियों
से साक्षीभाव
वाक्य है? ऐसा
कर्म—इंद्रियों
से वाक्य है या
नहीं?
साक्षीभाव का
अर्थ यदि समझ
गए हैं, तो
चाहे ज्ञान—इंद्रियां
हों, चाहे
कर्म—इंद्रियां
हों, साक्षीभाव संभव है। साक्षीभाव
का अर्थ है जो
भी हो रहा है—चाहे
विचार में हो
रहा हो, चाहे
कर्म में हो
रहा हो— हम उस
होते क्षण में
अपने भीतर
ध्यान के एक
बिंदु पर
मात्र तटस्थ
दर्शक हो सकें।
सिकंदर
हिंदुस्तान
से वापस लौटता
था। वापस
लौटने लगा तो
उसे स्मरण आया, जब
वह सीमा को
छोड़ने लगा तो
उसे स्मरण आया,
भारत आते
वक्त यूनान
में उसने
लोगों से पूछा
था, क्या—क्या
चाहते हो जो
मैं भारत से
लूट कर लाऊं? तो धन था, संपत्ति
थी, स्वर्ण
थे, आभूषण
थे, हिंदुस्तान
की बड़ी—बड़ी
ख्याति की
चीजें थीं, लोगों ने
कहा, वे
लेते आना। एक
पागल ने यह भी
कहा कि
हिंदुस्तान
से एक संन्यासी
को लेते आना।
संन्यासी और
कहीं होता
नहीं। यह
प्राणी यहीं
पैदा होता है।
तो उन्होंने
कहा, एक
संन्यासी को
भी लेते आना।
वह भी अजीब
चीज होगी, हम
जरा देखें, क्या मामला
क्या है? संन्यासी
क्या है?
सिकंदर
जब सब लूट कर
लौटने लगा, सीमा
पर था, उसे
खयाल आया—एक
चीज रह गई, लोग
पूछेंगे, एक
संन्यासी को
और पकड़ लाओ।
सिपाहियों को
उसने कहा कि
जाओ, पता
लगाओ, आसपास
कोई संन्यासी
हो तो ले चलें।
सिपाही
गांव में गए, गांव
के वृद्धों से
पूछा, पता
चला गांव के
बाहर एक
संन्यासी है।
लेकिन लोगों
ने कहा, जिसे
तुम पकड़ कर ले
जा सको, समझ
लेना वह
संन्यासी
नहीं है। और
जो संन्यासी
होगा, उसे
ले जाना बड़ा
कठिन है। फिर
भी गांव के
बाहर एक
संन्यासी है,
तुम जाओ और
मिल लो।
सिपाही गए, नंगी
तलवारें उनके
हाथ में थीं।
एक नंगा फकीर वहां
खड़ा हुआ था
नदी के किनारे।
उन्होंने
उससे कहा, यही
है क्या? इसकी
क्या ताकत, बांधो और ले चलो! उन
सिपाहियों ने
कहा कि आज्ञा
है महान
सिकंदर की कि
आप हमारे साथ
यूनान चलें!
संपत्ति
देंगे, समादर
देंगे, सुविधा
देंगे, वहां
कोई कष्ट न
होने देंगे।
संन्यासी
हंसने लगा, उसने
कहा कि
तुम्हें
संन्यासियों
से बात करने
का ढंग मालूम
नहीं। पहली तो
बात, जिस
दिन संन्यासी
हुए उसी दिन
से किसी की भी
आशा माननी छोड़
दी। नहीं तो
संन्यासी का
मतलब ही नहीं।
अब हम अपनी ही
आज्ञा मानते
हैं इस जगत
में, और
किसी की भी
नहीं। दूसरी
बात, तुम
कहते हो कि
आदर देंगे, सुविधा
देंगे। जिस
दिन संन्यासी
हुए, उसका
अर्थ यह है कि
प्रलोभन हमने
छोड़ दिया। तुम
हमें
प्रभावित
नहीं कर सकते।
सिपाहियों
ने कहा, तो
फिर स्मरण रखो,
प्रलोभन से
प्रभावित
नहीं होओगे तो
दंड से तो प्रभावित
हो ही जाओगे।
संन्यासी
हंसने लगा।
उसने कहा, तुम्हें
पता नहीं, जो
प्रलोभन से
प्रभावित
होता है, केवल
वही दंड से भी
प्रभावित
होता है। दंड
भी प्रलोभन का
उलटा रूप है।
सिपाही
हैरान हुए!
उन्होंने कहा, तो
हम महान
सिकंदर को
क्या कहें?
उस
संन्यासी ने
कहा कि जाओ और
कह दो, संन्यासी
अपनी मर्जी से
चलता है, अपनी
मर्जी से
बैठता है।
उसके ऊपर कोई
मर्जी नहीं
लादी जा सकती।
संन्यासी पर
कोई सत्ता
नहीं चलाई जा
सकती। कह देना,
संन्यासी
पर सत्ता
इसलिए नहीं
चलाई जा सकती
कि संन्यासी
वस्तुत: जीवित
ही नहीं है।
जीवित हो तो
डर दिया जा
सकता है कि
मार डालेंगे।
तो तुम जाओ, यह कह देना।
सिकंदर
खुद आया और
उसने कहा कि
तुम भूल में
हो। अगर मैं
तुम और
तुम्हारे
पूरे मुल्क से
भी कहूं कि
चलो,
तो चलना
पड़ेगा।
तुम्हारी
क्या हस्ती है?
देखते हो यह
तलवार! गर्दन
अलग कर दी जा
सकती है।
संन्यासी
हंसा और उसने
कहा कि अगर
तुम गर्दन अलग
करोगे, तो
जिस भांति तुम
देखोगे
कि गर्दन गिरी,
उसी भांति
हम भी गर्दन
का गिरना
देखेंगे। हम
भी! क्योंकि न
तुम यह गर्दन
हो, न हम
गर्दन हैं। तो
तुम भी देखोगे,
हम भी
देखेंगे। तुम
भी साक्षी बनोगे,
हम भी
साक्षी
बनेंगे। इस
तरह के हम
साक्षी हैं।
तो तुम गर्दन
काट दो, लेकिन
वह गर्दन मेरी
नहीं होगी, हम तो
साक्षी
रहेंगे, पीछे
देखते रहेंगे
कि अब गर्दन
काटी गई, अब
चोट लगी, अब
गर्दन गिर गई।
शरीर
के प्रति
साक्षी हुआ जा
सकता है; क्योंकि
भीतर चेतना
पृथक है, अलग
है। यह हाथ
मैं उठाता हूं—इस
वक्त एक
क्रिया हो रही
है कि मैंने
हाथ उठाया, तो हमें
केवल एक ही
बात का पता है
कि मैं हाथ के उठाने
का कर्ता हूं।
लेकिन भीतर
खयाल करें, जब हाथ को
मैं उठा रहा
हूं तो भीतर
एक चेतना है जो
देख रही है कि
हाथ उठ रहा है।
जब रास्ते पर
आप चल रहे हैं
तो आपके भीतर
कोई देख रहा
है कि आप चल
रहे हैं। जब
आप कुछ भी कर
रहे हैं तो
आपके भीतर कोई
देख रहा है कि
आप कुछ कर रहे
हैं। चौबीस
घंटे आपके
भीतर कोई
देखने वाला
बिंदु है।
लेकिन आपको
उसका होश नहीं
है।
साक्षीभाव का
अर्थ है उस
बिंदु का हमें
क्रमश: स्मरण
आता जाए, उसकी रिमेंबरिग
आती जाए, उसका
होश आता जाए।
जैसे—जैसे
उसका होश हमें
आता जाएगा, जैसे—जैसे
उस बिंदु में
जागरण होता
जाएगा, स्फुरणा
होती जाएगी, बिंदु टूटने
लगेगा, उसके
ऊपर के आवरण
हटने लगेंगे,
आप पाएंगे
कि आप
प्रत्येक
क्रिया के
साक्षी हैं।
यहां तक कि
निद्रा के भी!
जब आप सो
जाएंगे तब भी आपके
भीतर एक बिंदु
अभी भी जागता
रहता है।
कभी
आपने खयाल
किया? आप सोए
हैं, आपका
नाम राम है।
रास्ते पर कोई
विणु—विणु
चिल्ला रहा है,
आपको पता
नहीं चलेगा।
लेकिन किसी ने
कहा—राम! आप उठ
कर बैठ जाएंगे।
नींद में भी
कोई सुन रहा
है कि आपका
नाम क्या है।
दूसरे का नाम
कोई बुलाता
रहे, आप
सोए रहेंगे।
आपका कोई नाम
बुला दे, आप
नींद में भी
उठ आएंगे। मां
अपने बच्चे को
लेकर सोती हैं—बाहर
इंजन चलते
रहें, कारें
चलती रहें, लेकिन बच्चा
जरा ही रोया, जरा ही सरका,
और मां उसे
सम्हाल लेती
है। कोई भीतर
बोध को पकड़े
हुए है। कभी
रात में आप कह
कर सो जाएं
अपना ही नाम
लेकर, आपका
नाम राम है, तो कह करसो
जाएं कि राम, ठीक पांच
बजे उठ आना।
तो आप हैरान
हो जाएंगे, ठीक पांच
बजे आपकी नींद
टूट जाएगी।
कोई आपके भीतर
है जो जागा
हुआ है, जो
पांच बजे आपको
उठा देगा।
आप
तो हैरान
होंगे, हिप्नोसिस
और सम्मोहन के
प्रयोगों ने
बड़ी अदभुत
बातें सिद्ध
की हैं। अगर
किसी व्यक्ति
को सम्मोहित
करके मूर्च्छित
कर दिया जाए
और उससे कह
दिया जाए कि
सत्रह हजार
मिनट बाद तुम
ऐसा—ऐसा काम
करना, इसके
बाद उसे होश
में ला दिया
जाए। उसे कुछ
भी याद नहीं
रहेगा। अब सत्रह
हजार मिनट अगर
आपसे कह दिया
जाए तो आप होश
में भी सत्रह
हजार मिनट नहीं
गिन सकते कि
कब यह वक्त
आएगा। उसको तो
बेहोशी में
कहा गया, होश
में आने पर
उसे कुछ पता
भी नहीं है।
लेकिन ठीक
सत्रह हजार
मिनट बाद वही
काम वह व्यक्ति
कर लेगा। उसके
भीतर कोई जागा
हुआ है, जो
मिनट— मिनट का
भी हिसाब, जिसे
इसका बोध है।
हमारे
भीतर किसी
बिंदु पर बड़ा
साक्षी बिंदु
है। और इसीलिए
जिसका साक्षी
जाग्रत हो
जाता है वह
रात में सोता
भी है और नहीं
भी सोता है।
उसके भीतर एक
बोध बना रहता
है। शरीर सोता
है,
उसके भीतर
कोई जागा रहता
है।
बुद्ध
के संबंध में
कहा गया है.. .उनके
पास दस हजार
भिक्षु हमेशा
चलते थे।
देखते थे उनका
उठना, बैठना, सोना, सब
देखते थे।
भिक्षु बड़े
हैरान थे, बुद्ध
जिस करवट सोते
थे, रात भर
उसी करवट सोए
रहते थे, करवट
नहीं बदलते थे।
जो पैर जहां
रखते थे वहीं
रखे रहते थे, रात भर पैर
नहीं हिलाते
थे। जो हाथ
जहां रखते थे
वहीं रखे रहते
थे, रात भर
हाथ नहीं
हिलाते थे।
अनेक लोगों ने
अनेक बार सोचा
कि मामला क्या
है? रात भर
एक ही करवट, एक ही तरह से,
जहां पैर, जहां हाथ
वहीं बुद्ध
कैसे सोए रहते
हैं? तो
उनके एक
भिक्षु आनंद
ने एक दिन
पूछा कि क्या
हमें यह पूछने
की आशा आप
देंगे कि रात
भर आपका पैर
भी नहीं
कंपता! हाथ भी
नहीं हिलता!
करवट जिस सोते
हैं वही बनी
रहती है!
बुद्ध
ने कहा, स्मृतिपूर्वक सोता हूं।
बुद्ध ने कहा,
स्मृतिपूर्वक सोता हूं। साक्षीभाव
तब भी बना
रहता है। तो
इसलिए अपने आप
हाथ—पैर नहीं
यहां—वहां हो
सकते जब तक
मैं न चाहूं जब
तक मैं न
बदलना चाहूं।
मेरे भीतर कोई
जागा है और
देख रहा है।
यहां
तक कि जागने
की शारीरिक
क्रियाओं में
तो साक्षीभाव
हो ही सकता है, निद्रा
के समय भी हो
जाता है।
लेकिन जिस—जिस
मात्रा में
चेतना जगेगी
उस—उस मात्रा
में वैसा होगा।
अभी तो हमें
कोई साक्षीभाव
नहीं होता।
अभी तो हम सब
किए चले जाते
हैं। जब क्रोध
आकर चला जाता
है तब हमें
पता चलता है कि
क्रोध कर लिया।
जब कोई आदमी
किसी की हत्या
कर देता है तब
खून के
फव्वारे छूटे
देख कर खयाल
में आता है कि
यह मैंने क्या
कर दिया! होश
ही नहीं था जब
किया। होश ही
नहीं था जब
क्रोध किया।
इसलिए पीछे
पछताते हैं।
क्रोध करने के
बाद क्रोधी
पछताता है कि
यह मैंने क्या
कर दिया! यह तो
मैंने बहुत
बुरा कर दिया!
लेकिन
बड़ी आश्चर्य
की बात है, तुम
थे कहां? जब
तुमने किया तब
तुम कहां थे? फिर कल आज
पछताएगा, कल
फिर क्रोध
करेगा, फिर
पछताएगा, कहेगा
कि बड़ा बुरा
हो गया। कितनी
दफा तय करता
हूं कि क्रोध
न करूं, फिर
न मालूम क्या
हो जाता है!
असल
में हो क्या
जाता है, होश
है ही नहीं।
तो तय करते
हैं, फिर
बेहोशी पकड़
लेती है। तय
करने का कोई
परिणाम नहीं
होता, संकल्प
का कोई परिणाम
नहीं होता।
संकल्प का कोई
परिणाम हो ही
नहीं सकता जब
तक कि भीतर
जागरण न हो, होश न हो, साक्षीभाव न हो।
निश्चित
हां,
शरीर
की क्रियाओं
के प्रति
साक्षी का भाव
हो सकता है।
किसी भी किया
के प्रति हो
सकता है। भोजन
करते हैं, साक्षीभाव से करें, देखते
हुए करें, होश
रखें कि भोजन
कर रहा हूं।
एक— एक क्रिया दिखाई
पड़े कौर बनाया
गया, उठाया
गया, मुंह
में ले जाया
गया, पानी
उठाया गया, पीया गया। एक—एक
छोटे—छोटे
बिंदु को
जानते हुए
करें, भीतर
होश बना रहे, भीतर स्मरण,
जागृति बनी
रहे। तो शरीर
की क्रियाओं
में भी जागरण
होगा। मन की
क्रियाओं में
भी जागरण होगा।
और जब शरीर और मन,
दोनों की
क्रियाओं में
जागरण होगा, तो एक अदभुत
जागी हुई
चैतन्य
स्थिति आप सतत
अनुभव कर
पाएंगे। अभी
तो ऐसा है, हम
ऐसे घर हैं
जिसका दीया
बुझा हुआ है।
तब हम ऐसे घर
होंगे जिसका
दीया जला हुआ
है। साक्षीभाव
हो तो दीया जल
जाता है। और
जब भीतर दीया
जले तो जीवन
में पाप विलीन
हो जाता है।
दूसरा
प्रश्न: इसी
संदर्भ में
पूछा है कि
ओशो पाप क्या
है और पुण्य
क्या है?
भीतर
दीया जला हो
चैतन्य का, तो
जो कर्म होते
हैं वे पुण्य
हैं। भीतर
दीया बुझा हो,
तो जो कर्म
होते हैं वे
पाप हैं। समझ
लेना आप! कोई
कर्म न तो पाप
होता है, न
पुण्य होता है।
पुण्य और पाप
करने वाले पर
निर्भर होते
हैं। कोई कर्म
पाप और पुण्य
नहीं होता।
आमतौर से हम
यही मानते हैं
कि कर्म पुण्य
और पाप होते
हैं। यह काम
बुरा है और वह
काम अच्छा है।
यह
बात नहीं है।
जिस आदमी के
भीतर का दीया
बुझा है वह
कोई अच्छा काम
कर ही नहीं सकता।
यह असंभव है।
दिख सकता है
कि अच्छा काम
कर रहा है।
जिनके भीतर
दीये जले रहे
हैं उनके
कर्मों का अनुकरण
कर सकता है।
लेकिन अनुकरण
में भी वासना
उसकी विपरीत
होगी। अगर वह
मंदिर बनाएगा, तो
वह परमात्मा
का नहीं होगा,
अपने पिता
का होगा, उनका
नाम लिखवा
देगा। अगर वह
किसी को दान
देगा, तो
फिकर में होगा
कि अखबारनवीस,
जर्नलिस्ट
आस—पास हैं या
नहीं। वे खबर
छापते हैं या
नहीं छापते।
वह दान प्रेम
और करुणा नहीं
होगी, वह
भी अहंकार का
प्रकाशन होगा।
अगर वह किसी
की सेवा करेगा,
तो वह सेवा सेवा नहीं
होगी। वह सेवा
के गुणगान भी
करेगा, करवाना
चाहेगा। वह
कहेगा, मैं
सेवक हूं! वह
चाहेगा कि लोग
मानें कि मैंने
सेवा की है।
वह जो भी
करेगा, उसके
करने के पीछे
चूंकि दीया
जला हुआ नहीं
है, इसलिए
काम अच्छे
दिखाई पड़े भला,
पाप ही
होंगे। भीतर
दीया जला न हो,
तो जो भी हो
सकता है वह
पाप ही हो
सकता है। पाप
मेरे लिए
चित्त की एक
दशा है, कर्म
का स्वरूप
विभाजन नहीं।
और
अगर भीतर का
दीया जला हो, तो
वह जो भी करे
वह पुण्य होगा।
हो सकता है
ऊपर से दिखाई
पड़े कि यह तो
पुण्य नहीं, यह कर्म तो
पुण्य नहीं; लेकिन वह
पुण्य ही होगा।
असंभव है कि
उससे पाप हो
जाए। क्योंकि
जिसका बोध
जाग्रत है
उससे पाप कैसे
हो सकता है? उससे पाप
नहीं हो सकता।
लेकिन हम कर्म
के तल पर
चीजों को
नापते—तौलते
हैं। कल या
परसों मैंने
आपसे कहा, आचरण
बहुत
मूल्यवान
नहीं है, अंतस
मूल्यवान है।
तो अंतस पाप
की स्थिति में
हो सकता है
यदि अंधकार से
भरा है; अंतस
पुण्य की
स्थिति में
होता है अगर
वह प्रकाश से
भरा है।
प्रकाशपूर्ण
चित्त पुण्य
की दशा में है;
अंधकारपूर्ण
चित्त पाप की
दशा में है।
ये कर्म के
लक्षण नहीं
हैं। ये कर्म
के बिलकुल
लक्षण नहीं
हैं। कर्म का
लक्षण, कर्म
का लक्षण कुछ
भी तय नहीं
करता।
क्योंकि
व्यक्ति भीतर
बिलकुल
दुर्जन हो सकता
है, आचरण
बाहर सज्जन का
कर सकता है—अनेक
कारणों से।
हम
इतने लोग यहां
बैठे हैं, हम
शायद सोचते
होंगे कि हम
चोरी नहीं
करते तो हम
बड़ा पुण्य
करते हैं।
लेकिन अगर आज
पता चल जाए कि
हुकूमत नष्ट
हो गई, शरण
पर कोई पुलिस
का आदमी नहीं
है, अब कोई
अदालत न रही, अब कोई
सिपाही नहीं,
अब कोई
कानून नहीं।
फिर पता चलेगा
कितने लोग
चोरी नहीं
करते हैं। आप
सोचते होंगे
कि हम चोरी
नहीं करते तो
बड़ा पुण्य का
काम कर रहे
हैं।
चोरी
न करना काफी
नहीं है, चित्त
में चोरी के न
होने का सवाल
है। आपको अगर
सबको सुविधा
और पूरा मौका
मिल जाए, मुश्किल
से कोई बचेगा
जो चोरी न करे।
तो यह जो अचोरी
है, यह फिर
पुण्य नहीं है।
यह केवल भय और
दहशत और डर, कमजोरी, और
अनेक बातें
हैं जिनकी वजह
से आप चोरी
नहीं कर रहे
हैं। आपको
मौका नहीं है,
भयभीत हैं,
कमजोर हैं,
डरे हुए हैं;
उस डर को, भय को
छिपाने के लिए,
अदालत से, नरक से घबडाए
हुए हैं, उसको
छिपाने के लिए
आप कहते हैं, मैं तो चोरी
नहीं करता, चोरी करना
बहुत बुरी बात
है। मैं तो
चोरी करने का
बुरा काम करता
ही नहीं।
जो
आदमी कर रहा
है चोरी, उसमें
आप में हो सकता
है केवल
सामर्थ्य का
और साहस का
फर्क हो। केवल
सामर्थ्य और
साहस का फर्क
हो, वह
ज्यादा साहसी
हो। या हो
सकता है
विवेकहीन हो!
इसलिए
विवेकहीन में
ज्यादा साहस
दिखाई पड़ जाता
है। क्योंकि
उसे समझ में
नहीं आता कि
मैं क्या कर रहा
हूं क्या
परिणाम होगा!
आप सब हिसाब—किताब
सोचते हैं।
लेकिन
अगर सारी चोरी
की सुविधाएं
हों,
सारी चोरी
की भीतर
अनुकूल
परिस्थिति हो,
और फिर कोई
आदमी चोरी न
करे, तो
बहुत अलग बात
हो जाएगी, बहुत
अलग बात हो
जाएगी। अगर यह
भी कोई कह दे
कि चोरी करने
वाले अब नरक
नहीं जाएंगे
बल्कि स्वर्ग
जाएंगे; कोई
धर्मशास्त्र
यह भी कहने
लगे कि अब
चोरी करने
वाले, अब
कानून बदल गया
परमात्मा का,
अब वे उनको
नरक नहीं
भेजते, अब
उनको स्वर्ग
भेजते हैं, फिर भी कोई
आदमी चोरी न
करे। अगर यह
पता चल जाए कि
अब चोरी करने
वालों को कष्ट
नहीं दिया
जाता बल्कि
सम्मान मिलता
है, और
राष्ट्रपति
जो हैं वह
उनको
पुरस्कार
देते हैं और पदविया
देते हैं, और
भगवान भी अब
उनका सत्कार
करने लगे हैं,
फिर भी कोई
चोरी न करे।
अगर कोई यह
कहे कि जो
चोरी नहीं
करेगा उसको नरक
में डाला
जाएगा और सडाया
जाएगा; और
फिर भी चोरी न
कर सके। तब तो
समझना कि उसके
चित्त की
स्थिति अचोरी
की हो गई है।
नहीं तो उसकी
चित्त की
स्थिति अचोरी
की नहीं है।
यह सारी बात
है।
अब
जैसे
हिंदुस्तान—पाकिस्तान
का झगड़ा
हुआ या
हिंदुस्तान—पाकिस्तान
का बंटवारा
हुआ। जब
बंटवारा हुआ, तो
जो पड़ोस में
थे, भले
लोग थे, मंदिर
जाते थे, मस्जिद
जाते थे, वे
एक—दूसरे की छाती
में छुरा
भोंकने लगे, क्योंकि
मौका मिल गया।
उसके पहले
मौका नहीं था
तो वे मस्जिद
जाते थे, अब
मौका मिल गया
तो छुरा
भोंकने लगे।
मौका नहीं
मिलता था तो
मंदिर में
प्रार्थना करते
थे, मौका
मिल गया तो
मकान में आग
लगाने लगे।
कल
जब ये मंदिर
जा रहे थे तब
आप सोचते हैं
ये दूसरे आदमी
थे?
यह छुरा
भोंकने वाला
आदमी कल भी
मौजूद था।
लेकिन
परिस्थिति
नहीं थी इसलिए
प्रकट नहीं हो
रहा था, छिपा
हुआ था। आज
परिस्थिति
प्रकट होने की
हो गई है, यह
प्रकट हो गया।
कल मालूम हो
रहा था कि
मंदिर जाना
पुण्य है; आज
पता चल रहा है
कि दस हजार
हिंदुओं को
काट सकता है, आग लगा सकता
है या
मुसलमानों को
आग लगा सकता है।
यह वही आदमी
है।
मेरे
गांव में वहां
हिंदू—मुस्लिम
दंगे हुए, तो
मैंने देखा कि
वे ही लोग
जिनको हम
समझते हैं भले
हैं, जो
रोज सुबह गीता
उठ कर पढ़ते
हैं, वे
इकट्ठे करने
लगे कि किस
तरह
मुसलमानों को
काटा जाए। तो
मैं मानता हूं
जब वे गीता को
पढ़ते थे, यही
के यही आदमी
थे। गीता आगे
पढ़ रहे थे, भीतर
वही काटना—
पीटना छिपा था,
मौजूद था।
परिस्थिति
नहीं थी।
परिस्थिति
सामने आ गई, एक नारा खड़ा
हो गया कि
हिंदू—मुसलमान
में दंगा हो
गया। इतनी सी
बात अखबार में
छप गई और यह
आदमी बदल गया!
यह मकान जलाने
की सोचने लगा!
यह वही का वही
आदमी है, मौका
इसे नहीं था।
अब बहाना मिल
गया; अब एक
मौका मिला कि
अपनी हिंसा
दिखा सकता है
एक बहाने का
नाम लेकर। एक
स्लोगन—कि मैं
हिंदू हूं और
हिंदू धर्म
खतरे में है, मुसलमान को
खतम करो! अब यह
बहाना मिल गया,
अब यह खतरा
कर सकता है।
इनको
कोई भी बहाना
मिल जाए—गुजराती
और मराठी में झगड़ा हो
जाए,
हिंदी
बोलने वाले और
गैर—हिंदी
बोलने वालों
में विरोध हो
जाए— तो ये आग
लगाने लगेंगे,
हत्या करने
लगेंगे। इनका
सब धर्म, इनकी
सब अहिंसा, इनकी सब
नैतिकता एक
तरफ धरी रह
जाएगी। तो
इनकी जो
नैतिकता चल
रही थी वह
बिलकुल झूठी थी,
उसका कोई
मूल्य नहीं था।
इनकी जो
अहिंसा चल रही
थी, बिलकुल
थोथी थी, उसका
कोई मूल्य
नहीं है। इनके
भीतर ये सब
चीजें छिपी
थीं, अवसर
की तलाश थी।
आप
दुनिया को
अवसर दे दें, यह
जमीन इसी वक्त
नरक हो सकती
है इसी क्षण।
आप नरक का
पूरा इंतजाम
किए बैठे हैं।
लेकिन मंदिर
भी जाते हैं, दान भी करते
हैं, ग्रंथ
भी पढ़ते हैं, सदगुरु के चरणों
में प्रणाम भी
करते हैं। ये
सब बातें भी
हैं, और आप
अभी नरक बना
दें इसी जगह
को इसी क्षण, एक सेकेंड
में यह नरक हो
जाए। एक नारा
उठे और यह अभी
नरक हो जाए।
अभी जिस आदमी
के पास बैठ कर
आप बड़े
धार्मिक बने
बैठे हैं उसी
की गर्दन दबा
सकते हैं इसी
वक्त। तो मेरा
मानना यह है
कि आप जब नहीं
दबा रहे हैं तब
भी आप दबाने
की स्थिति में
तो हैं, नहीं
तो एकदम से
कैसे स्थिति आ
जाएगी?
पाप
की स्थिति
होती है, पाप
का कर्म नहीं
होता। वह
स्टेट ऑफ
माइंड है। और
जब तक हम उसको
कर्म समझेंगे,
तब तक
दुनिया में
बहुत क्रांति
नहीं हो सकती।
क्योंकि कर्म
का कोई पता
नहीं चलता।
कर्म तो मौके—मौके
पर प्रकट होते
हैं और अच्छे—अच्छे
बहाने लेकर
प्रकट हो जाते
हैं। अच्छे—अच्छे
बहाने ले लेते
हैं और प्रकट
हो जाते हैं।
इसीलिए यह
संभव हुआ है
कि दुनिया में
कोई भी शैतान
आदमी, कोई
भी हुकूमत, कोई भी पोलिटीशियन,
कोई भी
राजनीतिज्ञ
किसी भी क्षण
दुनिया को युद्ध
में डाल सकता
है, किसी
भी क्षण!
क्योंकि सारे
लोग तैयार हैं
पाप करने को, बिलकुल
तैयार हैं।
मौका नहीं है
उनको। किसी भी
क्षण, कोई
भी बहाना—डेमोक्रेसी
का, कम्युनिज्म का, भारत
का, पाकिस्तान
का, हिंदू
का, मुसलमान
का—कोई भी
नारा, जरा
सी आग पकड़ाने
की जरूरत है
और आप दुनिया
को एकदम पाप
से भर सकते
हैं। फिर
लाखों लोगों
को काट सकते
हैं और मजा
लेंगे।
ये
वे ही लोग जो
पानी छान कर
पीते हैं, यह
खबर सुन कर
प्रसन्न होते
हैं कि
पाकिस्तान का
फलां गांव
बर्बाद कर
दिया गया। या
हिंदुस्तान
का फलां गांव
बर्बाद कर
दिया गया; वही
आदमी जो रोज
नमाज पढ़ता है,
वह प्रसन्न
होता है कि
अच्छा हुआ।
मैं
यह समझ नहीं
सकता कि यह
आदमी जो पानी
छान कर पीता
था,
अखबार में
पढ़ता है, रात
को खाना नहीं
खाता था, अखबार
में पढ़ता है
कि इतने
पाकिस्तानी
मर गए, तो
सोचता है बहुत
अच्छा हुआ। यह
आदमी अहिंसक
है? इसका
पानी छान कर
पीना धोखा है,
बेईमानी है।
इसका रात को न
खाना सब झूठी
बकवास है।
इसका कोई मतलब
और मूल्य नहीं
है। इसका
स्टेट ऑफ
माइंड तो पाप
का है। यह
कर्म—वर्म कुछ
भी करे, इसकी
चित्त की दशा
तो पापपूर्ण
है।
इसलिए
दुनिया को कभी
भी किसी भी
भूकंप में डाला
जा सकता है, किसी
भी उपद्रव में
डाला जा सकता
है। लोगों के
काम तो बड़े
अच्छे मालूम
होते हैं, लेकिन
चित्त की दशा
जरा हां, स्किनडीप,
जरा सी चमड़ी
उघाड़ो, भीतर पाप
मौजूद है। और
काम बड़े अच्छे—अच्छे
कर रहे हैं।
टॉल्सटॉय ने
लिखा है कि
मैं एक दिन
सुबह—सुबह
चर्च में गया।
अंधेरा था, सर्दी
के दिन थे, बर्फ
पड़ती थी, कोई
नहीं था चर्च
में, मैं
गया। एक और
आदमी था, वह
कनफेशन
कर रहा था
भगवान के
सामने। उसे
पता नहीं कि
कोई दूसरा भी
अंधेरे में
मौजूद है, नहीं
तो कनफेशन
करता ही क्यों?
वह वहां कह
रहा था कि हे परमपिता, मैं बड़ा
बुरा आदमी हूं
मेरे मन में
बड़े पाप उठते
हैं, तू
मुझे क्षमा
कर! चोरी का
भाव भी आता है,
पर—स्त्री—गमन
का भाव भी आता
है, दूसरे
के धन को हड़प
लेने की
वृत्ति भी
पैदा होती है,
तू मुझे
क्षमा कर! उसे
पता नहीं था
कि यहां कोई और
आदमी भी खड़ा
है। वह चर्च
से बाहर निकला,
टॉल्सटॉय उसके पीछे
हो लिया। जब
बीच बाजार में
पहुंचे, सुबह
हो गई थी, लोग
आ—जा रहे थे, उसने चिल्ला
कर कहा कि ओ
पापी, चोर,
खड़ा रह!
वह
आदमी बोला, अरे,
कौन कहता है
मुझसे पापी और
चोर?
टॉल्सटॉय ने
कहा कि मैं
चर्च में
मौजूद था, मैंने
सुन लिया है।
उस
आदमी ने कहा, अगर
दुबारा मुंह
से निकाला तो
अदालत में
अपमान का
मुकदमा चलाऊंगा।
वह बड़ा
प्रतिष्ठित
आदमी था गांव
का। वह मैंने
भगवान के
सामने कहा था,
तुम्हारे
सामने नहीं
कहा था। टॉल्सटॉय
ने कहा, मैंने
तो यह सोचा कि
तूने मान लिया
है कि तू पापी
है, चोर है।
लेकिन तू
मानने को राजी
नहीं। अदालत
में मुकदमा
चलाएगा?
यह
स्थिति है
हमारे चित्त
की। भीतर तो
वह छिपा है और
बाहर हम अदालत
में मुकदमा चलाएंगे
अगर कोई हमसे
चोर कह दे, हम
शिकायत
करेंगे कि यह
क्या आपने
हमसे कह दिया!
तो हमारा कर्म,
हमारा ऊपर
का आवरण मूल्य
नहीं रखता।
मूल्य तो अंतस
रखता है। उस
अंतस की
क्रांति की
बात है। तो
मैं मानता हूं
पाप—पुण्य
कर्मों में
नहीं होते, पाप—पुण्य
होते हैं
चित्त की
दशाओं में। एक
आदमी की चित्त
की दशा पाप की
हो, अंधकार
की हो, तो
वह कुछ भी करे,
कुछ भी करे,
कितना ही
पानी छाने,
कितनी ही
बार छाने,
उसकी हिंसा
नहीं मिटेगी।
और कितना ही
रात को खाए, न खाए, कितना
ही उपवास करे,
न करे, कितनी
ही पूजा करे, कितनी ही
प्रार्थना
करे—कुछ भी
करे, लाख
करे— अगर भीतर
चित्त की दशा
अंधकारपूर्ण
है, उसका
सब करना
पापपूर्ण
होगा। उसके
भीतर पाप की
स्थिति बनी ही
रहेगी। वह जा
नहीं सकती। वह
किसी स्थिति
में नहीं जा
सकती।
उसे
तो सीधी चोट
करनी होगी कोई
और उपायों से
कि वहां भीतर
परिवर्तन हो, अंधकार
मिटे और
प्रकाश आए। तब
उसके कर्म
परिवर्तित हो
जाएंगे। तब हो
सकता है वह
रात को भी
भोजन कर ले और
हिंसक न हो, तब हो सकता
है कि वह पानी
भी बिना छाने
कभी पी जाए और
हिंसक न हो।
वह तो चित्त
की भीतर
परिवर्तन की
स्थिति है। वह
वहां परिवर्तन
होना चाहिए।
और तब फिर
जीवन का कर्म
सहज ही ठीक
होना शुरू हो
जाता है, उसे
ठीक करना नहीं
होता। वह सहज
ही ठीक होना
शुरू हो जाता
है। सहज ही
भीतर जब
ज्योति आनी
शुरू होती है,
कर्म का
अंधकार गिरने
लगता है और
कर्म पुण्य होने
लगते हैं।
मैं
समझता हूं
मेरी बात
समझेंगे।
कर्म नहीं
मूल्यवान है, मूल्यवान
अंतस की
स्थिति है। और
अंतस की
स्थिति कैसे
बदले, उसके
मार्ग पर ही
हम विचार कर
रहे हैं।
लेकिन यह
दृष्टि आप
खयाल में रखें।
कर्मों को दोष
मत दें, दोष
हमेशा भीतर
बैठे व्यक्ति
का है। लेकिन
हम धोखा पैदा
कर लेते हैं।
हम सोचते हैं :
क्या हर्जा है?
थोड़ा—बहुत
पाप भी होता
है, तो
थोड़ा—बहुत
पुण्य भी
करेंगे!
यह
असंभव है।
यानी यह संभव
नहीं है कि आप
सोचते हों कि
अब चलो, कोई
बात नहीं, इतना
पाप करते हैं,
एकाध—दो
पुण्य भी कर
लें, उस
तरफ भी कुछ
खाते में जमा
हो जाए। यह
असंभव है। या तो
पाप होगा, या
पाप नहीं होगा।
बीच की कोई
स्थिति नहीं
है। यह नहीं
हो सकता कि
थोड़ा पाप करें
और थोड़ा न करें,
यह हो ही
नहीं सकता।
क्योंकि भीतर
चित्त अखंड है,
उसके टुकड़े
नहीं हैं।
उसमें ऐसा
नहीं है कि
आधा चित्त पाप
से भरा है और
आधा पुण्य से
भरा है, ऐसा
कोई
कंपार्टमेंट,
ऐसा कोई
विभाजन नहीं
है। चित्त
इकट्ठा है।
इसलिए जिस
इकट्ठे चित्त
से थोड़े से
पाप निकल रहे
हैं, उस
चित्त से कभी
भी किसी
स्थिति में
पुण्य नहीं
निकल सकता। वह
तो चित्त
पापपूर्ण है।
और अगर उसमें
से पुण्य
निकलने लगे, तो उसमें से
पाप नहीं निकल
सकता।
यानी
मेरा मानना यह
है कि एक आप
प्रकाश का दीपक
जलाए तो
ऐसा नहीं हो
सकता उसमें कि
अंधेरा भी
निकल रहा है
थोड़ा सा, थोड़ा
प्रकाश भी
निकल रहा है।
ऐसा नहीं हो
सकता। या तो
प्रकाश ही
निकलेगा, या
फिर ज्योति
बुझी रहेगी तो
अंधकार ही निकलेगा।
लेकिन
इस भ्रम में
मत रहना आप कि
थोड़ा—बहुत तो
करते ही चलें।
थोड़ा—बहुत
नहीं होता।
पूरा
परिवर्तन
करना होता है, थोड़ा—बहुत
बिलकुल नहीं
होता। इससे
भ्रम पैदा
होता है, धोखा
पैदा होता है।
इसी तरह
दुनिया भर के
हत्यारे, बेईमान,
शोषक
संपत्ति
इकट्ठी करते
जाते हैं; थोड़ा—बहुत
दान भी करते
जाते हैं, इस
खयाल से कि
चलो यह पुण्य
भी हो गया।
इस
भ्रम में कोई
न रहे!
क्योंकि
संपत्ति को इकट्ठा
करना इतना बड़ा
पाप है कि दान
से कोई पुण्य
नहीं हो सकता।
संपत्ति को
इकट्ठा करना
इतना बड़ा पाप
है,
बहुत गहरे
में, बहुत
जड़ में, कि
दान से कोई
पुण्य नहीं हो
सकता। कोई
कितना ही
दानवीर कहे, धोखे में मत
आ जाना, वे
सब दान खींचने
की तरकीबें
हैं। वह
दानवीर कहना
और प्रशंसा
देना कि बहुत
बड़े दानवीर
हैं, ऐसा
है, वैसा
है; इतना
दान किया, उतना
दान किया; वे
सब दान खींचने
की तरकीबें
हैं। वे आपका
खीसा खाली करने
की तरकीबें
हैं। लेकिन इस
भ्रम में मत
पड़ जाना कि
आपसे दान हो जाएगा।
आपकी सारी
प्रवृत्ति
संग्रह की है।
उस संग्रह की
प्रवृत्ति
में से दान हो
ही नहीं सकता।
और
अगर होगा तो
उसमें कोई न
कोई आगे
संग्रह करने
का भाव होगा—
कि चलो कुछ दो, कहीं
भगवान हो तो
थोड़ा खयाल रखेगा;
कहीं
स्वर्ग हो तो
जरा छोटी
स्टूल न
मिलेगी, जरा
बड़ी कुर्सी
मिलेगी। कोई न
कोई भाव पीछे
होगा, कोई
न कोई भीतर
बात होगी।
क्योंकि यह
असंभव है कि
एक आदमी इधर
से लोगों की
हत्या करता
रहे और इस तरफ
अस्पताल बनवाता
जाए। यह
बिलकुल असंभव
है! यानी यह
आदमी बिलकुल गड़बड़
है, इसको
पता ही नहीं
कि यह क्या कर
रहा है। यह हो
ही नहीं सकता।
यह बिलकुल ही
असंभव बात है
कि एक ही आदमी
से ये दोनों
बातें एक साथ
होती रहें, इनमें से एक
बात झूठी होगी।
एक बात सच्ची
नहीं हो सकती,
वह केवल
आवरण होगी।
लेकिन
हम यह धोखा
खाते रहते हैं, अपने
को देते रहते
हैं। देते
रहते हैं
इसलिए कि हमें
थोड़ी सुविधा
हो जाती है।
कोई आदमी अपने
को पापी नहीं
मानना चाहता।
पापी मानने
में बड़ी
आत्मग्लानि
होती है। तो
थोड़ा—बहुत काम
ऐसा कर लिया
जिसको लोग
पुण्य कहते हैं,
तो
आत्मग्लानि
से बचना हो
जाता है।
आत्मग्लानि
बच जाती है, थोड़ा ऐसा
लगता है कि
आखिर हम भी
कुछ तो पुण्य
करते ही हैं; कोई फिकर
नहीं, थोड़ा
करते हैं तो
कुछ तो करते
हैं। फिर धीरे—
धीरे बढ़ेंगे,
ऐसा धीरे—
धीरे बढ़ते—बढ़ते
ज्यादा पुण्य
कर लेंगे। तो
अपनी आंखों
में अपनी
तस्वीर को
बिलकुल
अंधकारपूर्ण,
अंधेरा पुती
हुई कोई नहीं
देखना चाहता।
सोचते हैं कि
थोड़ा—बहुत तो
सफेद रंग
दिखाई पड़े। तो
वह सफेद रंग
दिखाने के लिए
थोड़ा—बहुत
करते हैं, उसको
हम पुण्य कहते
हैं।
यह
सब झूठी बात
है। वहां
हमारे चित्त
की जब तक आमूल—क्रांति
न हो,
तब तक कोई
परिवर्तन
नहीं हो सकता।
तो या तो पाप
होता है, या
पुण्य होता है।
पाप और पुण्य
साथ—साथ किसी
व्यक्ति से
नहीं हो सकते।
मेरी
दृष्टि मैं
आपको कहता हूं।
मेरी समझ मैं
आपको कहता हूं।
मुझे ऐसा ही
दिखाई पड़ता है
कि यह
असंभावना है, यह
बिलकुल
असंभावना है।
हां, अगर
व्यक्ति का
अंतस आलोकित
हो जाए तो
उससे पाप
असंभव है। उससे
पाप बिलकुल
असंभव है। अगर
आपको दिखाई भी
पड़े कि यह पाप
हुआ, तो आप
ही भूल में
होंगे, पाप
उस व्यक्ति से
हो नहीं सकता
है।
एक
छोटी सी कहानी
कहूं फिर यह
चर्चा पूरी
करूंगा। फिर
रात्रि के
ध्यान के लिए
हम बैठेंगे।
एक छोटे से
गांव के बाहर
एक साधु ठहरा
हुआ था। युवा
साधु है, बहुत
सुंदर है, बड़ा
प्रतिभाशाली
है, बड़ा
प्रभाव है।
गांव के लोग
आदर करते हैं,
प्रेम करते
हैं, सम्मान
देते हैं।
सारा गांव
सम्मान करता
है।
एक
दिन अचानक
सारी हवा बदल
गई। गांव में
एक लड़की को
बच्चा पैदा
हुआ और उस लड़की
ने कहा कि वह
साधु का बच्चा
है। सारा गांव
बदल गया।
आदर
के अनादर में
बदलने में
बहुत देर थोड़े
ही लगती है।
क्योंकि जो
आदर देते हैं
उनके पीछे
अनादर की पूरी
तैयारी रहती
है कि मौका
मिल जाए तो
अभी अनादर
करें। इसलिए
जब कोई कभी
किसी को आदर
दे तो बहुत
सावधान रहना, वह
अनादर की
तैयारी भी कर
रहा है—किसी
भी वक्त!
क्योंकि जिन
कारणों से वह
आदर दे रहा है
वे बड़े बारीक
हैं। जरा ही
दूसरे कारण
मौजूद हो जाएं,
सब गड़बड़ हो
जाएगा। इसलिए
आदर देने वाले
से हमेशा
सावधान रहना
चाहिए, वह
अनादर कर सकता
है।
सारा
गांव बदल गया।
गांव टूट पड़ा, उसके
झोपड़े
में आग लगा दी।
वह अपना सुबह
बाहर बैठा धूप
ले रहा था।
ठंड के दिन थे।
उसने पूछा कि
मामला क्या है?
तो
जाकर लोगों ने
कहा,
मामला
पूछते हो? और
वह बच्चा उसके
ऊपर पटक दिया
और कहा कि
मामला यह है!
पहचानो, यह
तुम्हारा
बच्चा है!
उसने
कहा,
इज
इट सो? ऐसी
बात है? बच्चा
मेरा है? उसने
उसे गौर से देखा,
उसे कंधे से
लगा लिया। वह
रोता था, उसे
समझाने लगा।
गांव के लोग
गाली—गलौज
बकते वापस लौट
गए।
फिर
वही साधु
भिक्षा
मांगने गया।
कल तक बड़े—बड़े
लोग आकर कहते
थे कि हमारे
घर में पैर रख
दें तो पवित्र
हो जाए, उन्हीं
लोगों ने
दरवाजे बंद कर
लिए। वह
दरवाजे पर खड़ा
है कि मुझे दो
रोटी मिल जाएं।
वही दरवाजे जो
कहते थे कि
तुम्हारे पैर
पड़ जाएं तो
पवित्र हो
जाएगा हमारा
घर, वही
दरवाजे बंद हो
गए। उन्होंने
कहा, आगे
बढ़ जाओ! कभी
भूल कर इस
द्वार पर
दुबारा छाया
मत डालना।
गांव के
बच्चों की, लोगों की
भीड़ उसके पीछे
गालियां देती
हुई, पत्थर
फेंकती हुई
चली।
फिर
वह उस दरवाजे
के सामने
पहुंचा, जिसकी
बेटी का यह
लड़का है। और
उसने उस
दरवाजे के
सामने आवाज
लगाई कि कसूर
मेरा होगा
इसका बाप होने
में, लेकिन
इसका मेरे
बेटे होने में
तो कोई कसूर
नहीं हो सकता।
बाप होने में
मेरी गलती
होगी, लेकिन
इसकी तो कोई
गलती नहीं हो
सकती। कम से
कम इसे तो दूध
मिल जाए।
वह
लड़की द्वार पर
खड़ी थी। उसके
प्राण कैप गए!
फकीर को भीड़
में घिरा हुआ, पत्थर
खाते हुए देख
कर—वह उस
बच्चे को बचा
रहा है, उसके
माथे से खून
बह रहा है—सच्ची
बात छिपाना
मुश्किल हो गई।
उसने अपने बाप
के पैर पकड़ कर
कहा कि क्षमा
करें, इस
फकीर को तो
मैं पहचानती
भी नहीं।
सिर्फ इसके
असली बाप को
बचाने के लिए
मैंने इस फकीर
का झूठा नाम
ले लिया!
वह
बाप आकर फकीर
के पैरों पर
गिर पड़ा और
बच्चे को
छीनने लगा और
कहा,
क्षमा कर
दें। उस फकीर
ने पूछा, लेकिन
बात क्या है? बेटे को
छीनते क्यों
हो?
उसके
बाप ने कहा—
लड़की के बाप
ने— कि आप कैसे
नासमझ हैं!
आपने सुबह ही
क्यों न बताया
कि यह बेटा
आपका नहीं है? आप
छोड़ दें, यह
बेटा आपका
नहीं है, हमसे
भूल हो गई।
वह
फकीर कहने लगा, इज इट
सो? बेटा
मेरा नहीं है?
पर तुम्हीं
तो सुबह कहते
थे कि
तुम्हारा है।
और भीड़ तो कभी
झूठ बोलती
नहीं। अब तुम
जब बोलते हो
कि नहीं है
मेरा, तो
नहीं होगा।
लेकिन
लोग कहने लगे
कि तुम कैसे
पागल हो! तुमने
सुबह कहा
क्यों नहीं कि
बेटा
तुम्हारा
नहीं है? तुम
इतनी निंदा और
अपमान झेलने
को राजी क्यों
हुए?
वह
फकीर कहने लगा, मैंने
तुम्हारी कभी
चिंता नहीं की
कि तुम क्या
सोचते हो। तुम
आदर देते हो
कि अनादर। तुम
श्रद्धा देते
हो कि निंदा।
मैंने
तुम्हारी आंखों
की तरफ देखना
बंद कर दिया
है। क्योंकि
मैं अपनी तरफ देखूं कि
तुम्हारी आंखों
की तरफ देखूं!
और जब तक मैंने
तुम्हारी तरफ
देखा, तब
तक अपने को
देखना
मुश्किल था।
क्योंकि
तुम्हारी आंख
तो प्रतिपल
बदल रही है, और हर आदमी
की आंख अलग है,
ये हजार—हजार
दर्पण हैं, मैं किस—किस
में झांकूं?
मैंने अपने
में ही झांकना
शुरू कर दिया
है। अब मुझे
फिकर नहीं कि
तुम क्या कहते
हो। अगर तुम
कहते हो बेटा
मेरा, तो सही,
मेरा ही
होगा। किसी का
तो होगा! मेरा
ही सही। अब
तुम कहते हो, नहीं।
तुम्हारी
मर्जी, नहीं
होगा मेरा।
लेकिन मैंने
तुम्हारी आंखों
में देखना बंद
कर दिया है।
और
वह फकीर कहने
लगा,
मैं तुमसे
भी कहता हूं
कि कब वह दिन
आएगा कि तुम
दूसरों की आंखों
में देखना बंद
करोगे और अपनी
तरफ देखना
शुरू करोगे?
आज
इतना ही।
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