कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 10 मार्च 2016

किताबे--ए--मीरदाद--(अध्‍याय--12)

अध्याय—बारह

सिरजनहार मौन
मुख से कही बात अधिक से अधिक एक निष्कपट झूठ है

नरौंदा : जब तीन दिन बीत गये तो सातों साथी, मानों किसी सम्मोहक आदेश के अधीन, अपने आप इकट्ठे हो गये और नीड़ की ओर चल पड़े। मुर्शिद हमसे यों मिले जैसे उन्हें हमारे आने की पूरी आशा रही हो।
मीरदाद : मेरे नन्हें पंछियो, एक बार फिर मैं तुम्हारे नीड़ में तुम्हारा स्वागत करता हूँ। अपने विचार और इच्छाएँ मीरदाद से स्पष्ट कह दो।

मिकेयन : हमारा एकमात्र विचार और इच्छा मीरदाद के निकट रहने की है, ताकि हम उनके सत्य को महसूस कर सकें और सुन सकें; शायद हम उतने ही छाया—मुक। हो जायें जितने वे हैं। फिर भी उनका मौन हम सबके मन में श्रद्धामिश्रित भय उत्पन्न करता है। क्या हमने उन्हें किसी तरह से नाराज कर दिया है?
मीरदाद : तुम्हें अपने आप से दूर हटाने के लिये मैं तीन दिन मौन नहीं रहा हूँ, बल्कि मौन रहा हूँ तुम्हें अपने और अधिक निकट लाने के लिये। जहाँ तक मुझे नाराज करने की बात है, याद रखो, जिस किसी ने भी मौन की अजेय शान्ति का अनुभव किया है, उसे न कभी नाराज किया जा सकता है, न वह कभी किसी को नाराज कर सकता है।
मिकेयन : क्या मौन रहना बोलने से अधिक अच्छा है?
मीरदाद : मुख से कही बात अधिक से अधिक एक निष्कपट झूठ है, जब कि मौन कम से कम नग्न सत्य है।
अबिमार : तो क्या हम यह निष्कर्ष निकालें कि मीरदाद के वचन भी, निष्कपट होते हुए भी, केवल झूठ हैं?
मीरदाद : हां, मीरदाद के वचन भी उन सबके लिये केवल झूठ हैं जिनका 'मैं' वही नहीं जो मीरदाद का है। जब तक तुम्हारे सब विचार एक ही खान में से खोद कर न निकाले गये हो, और जब तक तुम्हारी सब कामनाए एक कुएं में से खींच कर न निकाली गई हों, तब तक तुम्हारे शब्द, निष्कपट होते हुए भी, झूठ ही रहेंगे।
जब तुम्हारा 'मैं' और मेरा 'मैं' एक हो जायेंगे, जैसे मेरा 'मैं' और प्रभु का 'मैं' एक हैं, हम शब्दों को त्याग देंगे और सच्चाई—भरे मौन में खुल कर दिल की बात करेंगे।
क्योंकि तुम्हारा 'मैं' और मेरा 'मैं' एक नहीं हैं, मैं तुम्हारे साथ शब्दों का युद्ध करने को बाध्य हूँ, ताकि मैं तुम्हारे ही शस्त्रों से तुम्हें पराजित कर सकूँ और तुम्हें अपनी खान और अपने कुएँ तक ले जा सकूँ।
और केवल तभी तुम संसार में जाकर उसे पराजित करके अपने वश में कर सकोगे, जैसे मैं तुम्हें पराजित करके अपने वश में करूँगा। और केवल तभी तुम इस योग्य होंगे कि संसार को परम चेतना के मौन तक, शब्द की खान तक, और दिव्य शान के कुएँ तक ले जा सको।
जब तक तुम मीरदाद के हाथों इस प्रकार पराजित नहीं हो जाते, तुम सच्चे अर्थों में अजेय और महान विजेता नहीं बनोगे। न ही संसार अपनी निरन्तर पराजय के कलंक को धो सकेगा जब तक कि वह तुम्हारे हाथों पराजित नहीं हो जाता।
इसलिये, युद्ध के लिये कमर कस लो। अपनी ढालों और कवचों को चमका लो और अपनी तलवारों और भालों को धार दे दो। मौन को नगाड़े पर चोट करने दो और ध्वज भी उसी—को थामने दो।
वैनून : यह कैसा मौन है जिसे एक साथ नगाडची और ध्वज—धारी बनना होगा?
मीरदाद : जिस मौन में मैं तुम्हें ले जाना चाहता हूँ, वह एक ऐसा अन्तहीन विस्तार है जिसमें अनस्तित्व अस्तित्व में बदल जाता है, और अस्तित्व अनस्तित्व में। वह एक ऐसा विलक्षण शून्य है जहाँ हर ध्वनि उत्पन्न होती है और शान्त कर दी जाती है; जहाँ हर आकृति को रूप दिया जाता है और रूप—रहित कर दिया जाता है; जहाँ हर अहं को लिखा जाता है और अ—लिखित किया जाता है; जहां केवल 'वह' है, और 'वह' के सिवाय कुछ नहीं।
यदि तुम उस शून्य और उस विस्तार को मूक ध्यान में पार नहीं—करोगे, तो तुम नहीं जान पाओगे कि तुम्हारा अस्तित्व कितना यथार्थ है, और तुम्हारा अनस्तित्व कितना कल्पित। न ही तुम यह जान सकोगे कि तुम्हारा यथार्थ सम्पूर्ण यथार्थ से कितनी दृढ़ता से बँधा हुआ है।
मैं चाहता हूँ कि इसी मौन में भ्रमण करो तुम, ताकि तुम अपनी पुरानी तंग केंचुली उतार दो और बंधन—मुक्त, अनियन्त्रित होकर विचरण करो।
मैं चाहता हूँ कि इसी मौन में बहा दो तुम अपनी चिन्ताओं और आशंकाओं को, अपने मनोवेगों और तृष्णाओं को, अपनी ईर्ष्याओं और लालसाओं को, ताकि तुम उन्हें एक—एक करके मिटते हुए देखो और इस तरह अपने कानों को उनकी निरन्तर चीख—पुकार से छुटकारा दिला दो, और बचा लो अपनी पसलियों को उनकी नुकीली एडों की पीडन से।
मैं चाहता हूँ कि इसी मौन में फेंक दो तुम इस संसार के धनुष—बाण जिनसे तुम सन्तोष और प्रसन्नता का शिकार करने की आशा करते हो, परन्तु वास्तव में अशान्ति और दुःख के सिवाय और किसी चीज का शिकार नहीं कर पाते।
मैं चाहता हूँ कि इसी मौन में तुम अहं के अँधेरे और घुटन—भरे खोल में से निकल कर उस 'एक अहं' की रोशनी और खुली हवा में आ जाओ।
इसी मौन की सिफारिश करता हूँ मैं तुमसे न कि बोल—बोल कर थकी तुम्हारी जिह्वा के लिये विश्राम की।
धरती के फलदायक मौन की सिफारिश करता हूँ मैं तुमसे, न कि अपराधी और धूर्त के भयानक मौन की।
अण्डे सेने वाली मुर्गी के धैर्य पूर्ण मौन की सिफारिश करता हूँ मैं तुमसे, न कि अण्डे देने वाली उसकी बहन की अधीर कुडकुड़ाहट की। एक इक्कीस दिन तक इस मूक विश्वास के साथ अण्डे सेती है कि उसकी रोएँदार छाती और पंखों के नीचे वह अदृश्य हाथ करामात कर दिखायेगा। दूसरी तेजी से भागती हुई अपने दरबे से निकलती है और पागलों की तरह कुडुकुडाती हुई ढिण्ढोरा पीटती है कि मैं अण्डा दे आई हूं।
डींग मारती नेकी से खबरदार रहो, मेरे साथियों। जैसे तुम अपनी शर्मिन्दगी का मुँह बन्द रखते हो, वैसे ही अपने सम्मान का मुँह भी— बन्द रखो। क्योंकि डींग मारता सम्मान मूक कलंक से बदतर है; शोर मचाती नेकी गूँगी बदी से बदतर है।
बहुत बोलने से बचो। बोले गये हजार शब्दों में से शायद एक, केवल एक, ऐसा हो जिसे बोलना सचमुच आवश्यक है। बाकी सब तो केवल बुद्धि को धुँधला करते हैं, कानों को ठसाठस भरते हैं, जिह्वा को कष्ट देते हैं, और हृदय को भी अन्धा करते हैं।
कितना कठिन है वह शब्द बोलना जिसे बोलना सचमुच आवश्यक
लिखे गये हजार शब्दों में से शायद एक, केवल एक, ऐसा हो जिसे लिखना सचमुच आवश्यक है। बाकी सब तो व्यर्थ में गँवाई स्याही और काग़ज़ हैं. और ऐसे क्षण हैं जिन्हें प्रकाश के पंखों के बजाय सीसे के पैर दे दिये गये हैं।
कितना कठिन, ओह, कितना कठिन है वह शब्द लिखना जिसे लिखना सचमुच आवश्यक है।
वैद्य. और प्रार्थना के बारे में क्या कहेंगे, मुर्शिद मीरदाद? प्रार्थना में हमें आवश्यकता से कहीं अधिक शब्द बोलने पड़ते हैं. और आवश्यकता से कहीं अधिक चीजें माँगनी पड़ती हैं। किन्तु माँगी हुई चीजों में से हमें शायद ही कभी कोई प्रदान की जाती है।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें