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मंगलवार, 8 मार्च 2016

राम दूवारे जो मरै--(प्रवचन--08)

प्रभु, मुझ पर अनुकम्‍पा करें—(प्रवचन—आठवां)
दिनांक 18 नवम्‍बर 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्‍नसार:
प्रश्‍न—01 भगवान! यह जो मेरा जन्मों—जन्मों का अहंकार है, वही शायद आपके और मेरे बीच बड़ी बाधा है। यही अहंकार मुझे आपके चरणों में झुकने नहीं देता, मिटने नहीं देता
प्रश्‍न—02 भगवान, मैं धनी होना चाहता हूं, बड़ा पद भी पाना चाहता हूं, सुंदर स्त्री भी। मैं क्या करूं?
प्रश्‍न—03 भगवान, क्या सच ही सभी धार्मिक क्रिया—कांड व्यर्थ हैं?
प्रश्‍न—04 भगवान, मैं अज्ञानी हूं। मेरे चारों ओर अंधकार ही अंधकार है। मेरे लिए क्या मार्ग है?


पहला प्रश्न :
भगवान! यह जो मेरा जन्मों—जन्मों का अहंकार है, वही शायद आपके और मेरे बीच सबसे बड़ी बाधा है। यही अहंकार मुझे आपके चरणों में झुकने नहीं देता, मिटने नहीं देता। प्रभु, मुझ पर अनुकंपा करें और मुझे मिटा कर इसी जन्म में अपने में समेट कर एक कर लें।
संत! अहंकार यदि कुछ होता, तो उसे मिटाया भी जा सकता था। अहंकार तो केवल भ्रांति है। मात्र आभास है। जैसे रस्सी में कोई सांप को देख ले अंधेरे में। फिर भयभीत हो जाए, भाग खड़ा हो, और लोगों से पूछता फिरे कि सांप को कैसे मारूं? उससे तुम क्या कहोगे? दोगे उसे खंजर, कि तलवार? उससे तुम कहोगे : दीया ले जाओ, गौर से देखो, सांप है ही नहीं। रस्सी है। अंधेरे में भ्रांति हो गई है।
ऐसा ही अहंकार है। तुमने मान लिया है। अंधेरे में भ्रांति हो गई है।
अहंकार ऐसे है जैसे तुम्हारी छाया। पीछे तो चलती तुम्हारे, लेकिन है? है उसका कोई अस्तित्व? और अगर तुम अपनी छाया से लड़ने लग गए तो बहुत मुश्किल में पड़ोगे। जीत तो न सकोगे, टूटोगे, बुरी तरह हारोगे।
यह अड़चन ठीक से समझ लेना।
छाया से जो लड़ेगा, जीत तो सकता ही नहीं। हारना निश्चित है। इसलिए नहीं कि छाया तुम्हें हरा सकती है बल्कि इसलिए कि छाया से लड़ोगे तो अपने ही से टूट जाओगे, खंडित हो जाओगे। पराजित होओगे बारबार। छाया बलशाली है, इसलिए नहीं, छाया है ही नहीं, इसलिए। कैसे जीतोगे? लेकिन लड़ने में शक्ति व्यय होगी। और जितनी शत्ति व्यय होगी उतने तुम क्षीण होओगे। तुम जितने क्षीण होओगे उतना लगेगा छाया बलवान है। और इस गणित को मानकर अगर रहे, तो टूट जाओगे अपनी ही छाया से लड़—लड़ कर।
अहंकार से लड़ो मत।
और न केवल तुम खुद लड़ रहे हो, संत, तुम मुझसे भी कहते हो कि मैं भी तुम्हारे अहंकार को मिटाऊं। अहंकार होता तो जरूर मिटाने का कोई उपाय हो सकता था। अहंकार नहीं है। जाग कर गौर से देखो!
इसलिए अहंकार मिटाने की बात ही भूल जाओ। ध्यान को जगाओ! ध्यान से ज्योति जलेगी। उस ज्योति में अहंकार कभी नहीं पाया गया है। दूसरे साधु—संत तुमसे कहते हैं : अहंकार छोड़ो, अहंकार काटो, अहंकार मारो। मैं तुमसे नहीं कहता। मैं तो कहता हूं : ध्यान का दीया जलाओ। फिर खोजो; अगर मिल जाए अहंकार तो मेरे पास ले आना। अब तक तो किसी को भी ध्यान का दिया जलाने पर मिला नहीं। ध्यान का दीया जलते ही तुम जिसे पाओगे, वह है आत्मा, अहंकार नहीं। और उसे मिटाना थोड़े ही है। और तुम मिटाना भी चाहो तो उसे न मिटा सकोगे।
 अहंकार को नहीं मिटा सकते, क्योंकि वह है नहीं और आत्मा को नहीं मिटा सकते, क्योंकि वह शाश्वत अस्तित्व है। मिटा तो कुछ भी नहीं सकते—न अहंकार, न आत्मा। अहंकार को रोशनी जला लोगे तो पाओगे कि नहीं है, और रोशनी जली कि पाओगे कि आत्मा है। और आत्मा मेरी और तुम्हारी थोड़े ही होती है! आत्मा तो शुद्ध अस्तित्व है—मेरा भी वही, तुम्हारा भी वही, सबका वही। इसलिए जो आत्मा में प्रविष्ट हो गया, बुद्ध उसके, महावीर उसके, कृष्ण उसके, क्राइस्ट उसके, नानक, कबीर, मलूक सब उसके। जो सागर में उतर गया, सारी नदियां भी उसने पा लीं—जो पहले सागर में उतर चुकी हैं। वे भी उसकी हो गईं।

सलिल—कण हूं कि पारावार हूं मैं?
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूं मैं।
बंधा हूं, स्वप्न है, लघु वृत्त में हूं,
नहीं तो व्योम का विस्तार हूं मैं।

समाना चाहती जो बीन—उर में,
विकल वह शून्य की झंकार हूं।
भटकता, खोजता हूं ज्योति तम में,
सुना है, ज्योति का आगार हूं मैं।

जिसे निशि खोजती तारे जला कर,
उसी का कर रहा अभिसार हूं मैं।
जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन,
अगम का पा सका क्या पार हूं मैं?
कली की पंखड़ी पर ओस—कण में
रंगीले स्वप्न का संसार हूं मैं;
मुझे क्या आज ही या कल झरूं मैं?
सुमन हूं, एक लघु उपहार हूं मैं।

जलन हूं, दर्द हूं, दिल की कसक हूं,
किसी का हाय, खोया प्यार हूं मैं।
गिरा हूं भूमि पर नंदन—विपिन से,
अमरत्तरु का सुमन सुकुमार हूं मैं।
तुम अमृत के पुत्र हो।
गिरा हूं भूमि पर नंदन—विपिन से,
अमरत्तरु का सुमन सुकुमार हूं मैं।
तुम उस अमृत के वृक्ष के फूल हो—जिसका न कोई जन्म, न कोई मृत्यु!

बंधा हूं, स्वप्न है, लघु वृत्त में हूं,
नहीं तो व्योम का विस्तार हूं मैं।
सोए हो तो छोटे हो, छोटे हो तो ओछे हो, ओछे हो तो अहंकार से भरे रहोगे। जाग जाओ तो व्योम का विस्तार हो, सारा आकाश हो! तुम्हारी कोई सीमा नहीं फिर। अहंकार सीमा है, आत्मा असीमा है।

समाना चाहती जो बीन—उर में,
विकल वह शून्य की झंकार हूं मैं।
भटकता, खोजता हूं ज्योति तम में,
सुना है, ज्योति का आगार हूं मैं।
तुमने अभी सुना है कि मैं ज्योतिर्मय हूं, जाना नहीं। सुना है कि अमृत—पुत्र हो, पहचाना नहीं। मैं तुम्हें पहचान के सूत्र दे सकता हूं। मैं तुम्हें मार्ग का इशारा दे सकता हूं, इंगित दे सकता हूं। लेकिन संत, तुम चाहो कि तुम्हारे अहंकार को मिटा दूं, यह असंभव! तुम्हारी भ्रांति तुम्हारे होश से जाएगी। तुम्हारी भ्रांति अगर मेरे होश से जा सकती होती, तो बात बड़ी आसान हो जाती! अगर आंखवाला अंधे को रोशनी दिखा सकता, तब तो बड़ा सुगम था जगत् में सत्य को पा लेना। आंखवाला औषधि की चर्चा कर सकता है, वैद्य का पता दे सकता है, लेकिन आंख तो तुम्हें अपनी ही तलाशनी होगी। और वही कठिनाई है।
अहंकार नहीं है बड़ी समस्या, बड़ी समस्या है कि ध्यान के लिए जो श्रम करना होता है, ध्यान के लिए सतत साधना करनी होती है, उतना सातत्य हम में नहीं है। एक दिन किया, फिर दो दिन विश्राम हो जाता है। तो एक दिन में जो बनाते हैं, वह दो दिन में मिट जाता है। फिर वहीं के वहीं, फिर कोरे के कोरे। कुछ थोड़े—सी लिखावट आती है, बस आलस्य में पूंछ जाती है। सातत्य चाहिए। अगर बूंद—बूंद भी सतत टपकती रहे तो चट्टानों को तोड़ देती है।
 लेकिन तुम उस श्रम से बचना चाहते हो। तो तुम आशा रखे हो, मैं तोड़ दूं। मैं तोड़ सकता होता, तुम से पूछता ही नहीं, तोड़ ही देता। नहीं तोड़ सकता हूं, इसका यह अर्थ नहीं है कि नहीं तोड़ना चाहता हूं। अब जिसने रस्सी को सांप समझा हो, उसे ले जाना पड़ेगा रस्सी के पास—और वह जाना नहीं चाहता। वह भागता है। वह भयभीत होता है। उससे कहो कि यह दीया रहा, आओ मेरे साथ, देख लो ठीक से। वह कहता है : वहां तो मुझे ले ही मत जाओ, वहां सांप है। पहले सांप का मेरा डर मिटा दो, फिर मैं चलूंगा।
मुल्ला नसरुद्दीन तैरना सीखने गया था। पैर फिसल गया, सीढ़ी पर नदी के काई जमी थी। उठा और एकदम घर की तरफ भागा। जिन उस्ताद के साथ गया था, जो उसे सिखानेवाले थे तैरना, उन्होंने चिल्लाकर कहा कि अरे नसरुद्दीन, कहां भागे जा रहे हो? तैरना नहीं सीखना? कितने दिन से तो मेरी जान खाते थे कि तैरना सिखा दो! नसरुद्दीन ने कहा : फिर मिलेंगे। जब तैरना सीख लूंगा तब नदी के पास आऊंगा। अभी पैर फिसल गया, देखा नहीं! अगर ज़रा और पानी में गिर गया होता तो आज जान गंवायी होती। अब तो तैरना सीख कर ही आऊंगा!
लेकिन तैरना कहां सीखोगे? कोई गद्देत्तकिए बिछा कर थोड़े ही तैरना सीखा जाता है! और कितना ही गद्दात्तकिया बिछा कर तुम हाथ—पैर तड़फड़ाओ, यह तैरना काम नहीं आएगा; जब नदी में जाओगे तभी तैरना सीख सकोगे।
नदी में जाने में खतरा है!
खतरा तो है ही। कौन जाने, सीख पाओ, तैरना, न सीख पाओ; कहीं डूब जाओ! कौन जाने, जो ले जा रहा है, खुद भी जानता हो, न जानता हो! दुःसाहस चाहिए! अदम्य साहस चाहिए! और श्रद्धा चाहिए।

ले चल मुझे भुलावा देकर
मेरे नाविक! धीरे—धीरे।

जिस निर्जन में सागर लहरी
अंबर के कानों में गहरी—
निश्छल प्रेम—कथा कहती हो,
तज कोलाहल की अवनी रे!
जहां सांझ—सी जीवन छाया
ढीले अपनी कोमल काया,
नील—नयन से ढुलकाती हो
ताराओं की पांत घनी रे!

जिस गंभीर मधुर छाया में,
विश्व चित्र—पट चल माया में—
विभुता विभु—सी पड़े दिखाई,
दुःख—सुख वाली सत्य बनी रे!

श्रम—विश्राम क्षितिज—वेला से,
जहां सृजन करते मेला से;
अमर जागरण उषा नयन से
बिखराती हो ज्योति घनी रे!

ले चल मुझे भुलावा देकर
मेरे नाविक! धीरे—धीरे।
हम चाहते हैं कोई ले चले। और भुलावा दे कर ले चले! यह रास्ता ऐसा नहीं। यहां तो तुम्हें पहले ही सब साफ कर दिया जाएगा। कठिनाइयां भी, चुनौतियां भी, खतरे भी। रास्ता दुरूह है, दुर्गम है। पर्वत के शिखर की तरफ उठना है। गिरने के खतरे तो हैं ही। उतार नहीं है कि सुगम हो, चढ़ाव है। इसलिए दुर्गम है। इसलिए हांफ भी जाओगे। इसलिए बोझ भी कम कर लेना जरूरी है।
इसीलिए तो रोज—रोज कहता हूं : फेंक दो तुम्हारा कूड़ा—कर्कट ज्ञान, जो तुमने उधार इकट्ठा कर रखा है। इतना बोझ लेकर पर्वत—शिखरों पर न चढ़ पाओगे, सिर हल्का करो। इतना भार न लिए चलो। भूल जाओ कि हिंदू हो, कि मुसलमान, कि ईसाई, कि जैन, कि बौद्ध, कि सिक्ख! क्योंकि ये सब न भूलोगे तो ये छाती पर बंधे हुए पत्थर हैं। ये तुम्हें आगे न जाने देंगे। इन पत्थरों को लेकर तुम सागर तैरने चले हो? इन पत्थरों को लेकर तुम पर्वत शिखर चढ़ने चले हो? पर्वत शिखर पर तो जैसे—जैसे व्यक्ति ऊंचाई पर जाता है वैसे—वैसे बोझ को कम करना होता है। क्योंकि थोड़ा—सा भी बोझ भारी मालूम होने लगता है। एक तो चढ़ाई, खून पसीना होता है, फिर बोझ!
निर्बोझ हो जाओ, निर्भार हो जाओ! छोड़ दो सब ज्ञान, छोड़ दो सब पंथ, छोड़ दो सब मान्यताएं, विश्वास। खाली हो जाओ, शून्य हो जाओ। तो देर नहीं लगेगी दीए के जलने में। दीया जल सकता है। लेकिन खतरा तो लेना ही होगा सब छोड़ने का। इसको तुम पकड़े भी रहो और चाहो कि जीवन—ज्योति जग जाए, तो नहीं हो सकता।
जब तक तुम जीवन—ज्योति के सिद्धांतों को मानते रहोगे, जीवन—ज्योति की तस्वीरों की पूजा करते रहोगे, तब तक जीवन—ज्योति न जलेगी। इन तस्वीरों से तुम कितनी ही आशा रखो, रोशनी होनेवाली नहीं है।

नाविक! इस सूने तट पर
किन लहरों से खे लाया?
इस बीहड़ बेला में क्या
अब तक था कोई आया?
उस पार कहां फिर जाऊं

तम के मलीन अंचल में?
जीवन का लोभ नहीं, वह
वेदना छद्यम—मय छल में।

प्रत्यावर्तन के पथ में
पद—चिह्न न शेष रहा है,
डूबा है हृदय—मरुस्थल
आंसू नद उमड़ रहा है।

अवकाश शून्य फैला है
है शक्ति न और सहारा,
अपदार्थ तिरूंगा मैं क्या
हो भी कुछ कूल—किनारा
घबड़ाहट होगी जब मझधार में नाव पहुंचेगी। पुराना किनारा छूट जाएगा और नए किनारे का दूर—दूर तक कोई पता नहीं! पुराने सब आधार छूट जाएंगे और नए आधार समय लेते हैं। पहले तो पुरानी भूमि हट जाएगी पैरों के नीचे से, तब बहुत घबड़ाहट होती है कि कहीं मैं अधर में न गिर जाऊं! कहीं मैं अतल में न गिर जाऊं!
मृत्यु जैसा लगता है ध्यान। इसीलिए तो लोग ध्यान की बातें करते हैं, ध्यान नहीं करते। ध्यान के संबंध में शास्त्र पढ़ते हैं, ध्यान नहीं करते। जितनी देर बातें करते हैं, जितनी देर शास्त्र पढ़ते हैं, उतनी देर ध्यान कर लें तो सब हल हो जाए। सब व्याधि कट जाए, औषधि मिल जाए। मगर ध्यान नहीं करते, ध्यान पर बड़ा विवेचन करते हैं। ध्यान के संबंध में बड़ी बाल की खाल निकालते हैं। ध्यान की विधियों के संबंध में खूब लोग जानते हैं। लेकिन ध्यान का स्वाद ज़रा भी नहीं लिया। उस पार क्या है, वे इसी पार से बता सकते हैं! शास्त्र पढ़ लिए हैं। नावें कैसी होती हैं, उनकी भी तस्वीरें देख ली हैं। मझधार में कैसे तूफान उठते हैं, उनकी भी अफवाहें सुन ली हैं। सब इसी किनारे बैठे—बैठे! एक इंच पानी में नहीं उतरे। एक डग मझधार की तरफ भरी नहीं। न डांडें उठायीं, न नाव खेई, न कभी खतरा मोल लिया। अपनी—अपनी सुरक्षा में बैठे हैं—खिड़की, द्वार—दरवाजे सब बंद किए! और वही चर्चा चल रही है। रोशनी की चर्चा—और अंधेरे में बैठे हैं! करो चर्चा, करते रहो जन्मों—जन्मों तक, रोशनी चर्चा से नहीं होती।
संत, कठिनाई कुछ और नहीं है, कठिनाई सिर्प इतनी है कि एक सातत्य को निर्मित करना होगा। चाहे कुछ ही क्षण क्यों न हो, चुप बैठे रहो। छोड़ना है सोचना—विचारना। छोड़ना है कल्पना, छोड़ना है कल्पना के जाल। और लोग क्या—क्या कल्पनाएं बनाए बैठे हैं! या तो स्मृतियों का एक अंबार लगा रखा है, उसी में कुरेदते रहते हैं, लौट—लौट कर पीछे देखते रहते हैं—अहाह! कल कितना सुंदर था जो बीत गया! और कल भी तुम थे और तुम प्रसन्न न दिखाई पड़े थे, तब तुम कह रहे थे—अहाह! जो कल बीत गया, वह कितना सुंदर था! जो बचपन बीत गया, वह कितना प्यारा था! जो दिन बीत गए, वे सतयुग थे, स्वर्ण—युग्म थे, राम—राज्य था! या तो पीछे की तुम स्मृतियां बांधे बैठे हो, उन्हीं में खोए रहते हो, या फिर भविष्य की योजनाएं बना रखी हैं। व्यर्थ की योजनाएं, व्यर्थ की कल्पनाएं। छोटी—छोटी बात से मौका भर मिल जाए तुम्हें सरकने का, तो या तो अतीत में सरक जाते हो या भविष्य में सरक जाते हो। और इन दोनों में उलझे रहने के कारण ध्यान नहीं बन पाता।
ध्यान है वर्तमान में होना—न अतीत, न भविष्य।
"इतने क्रोधित और परेशान क्यों हो रहे हो, भाई ब्रह्मचारी जी?"—मुल्ला नसरुद्दीन विस्मय से बोला—"ऐसे उत्तेजित होने की तो कोई बात ही नहीं हुई। और पेट पर से एक चूहा ही निकला है, कोई हाथी तो नहीं निकला। फिजूल में नाराज हो रहे हो!"
"तुम्हें घटनाओं की श्रृंखलाबद्धता का नियम नहीं मालूम"—मटकानाथ ब्रह्मचारी ने अपने पलंग पर से उठते हुए कहा—"अभी तक मेरी तोंद पर से चींटियां आदि ही निकलती थीं, आज यह चूहा निकल गया। यदि इसी तरह बात आगे बढ़ती गयी, तो कल बिल्लियां निकलेंगी, परसों कुत्ते निकलेंगे। फिर कुत्तों पर ही बात तो रुकेगी नहीं। अरे मियां, धीरे—धीरे आदमी और गधे—घोड़े निकलेंगे, गाय—भैंसे निकलेंगी। और एक दिन ऐसा भी आएगा कि हाथी भी निकलने लगेंगे"—ब्रह्मचारी जी गुस्से में बोले—"तब किसी को रोकना बहुत मुश्किल हो जाएगा। मेरा पेट पेट न होकर आम रास्ता बन जाएगा!"
लोग बड़ी दूर की सोचते हैं! चींटे—चींटियों से हाथियों तक का हिसाब लगा लेते हैं! तो या तो तुम भविष्य में खो जाते हो कि कल ऐसा होगा, कल ऐसा करेंगे। जब ध्यान लगेगा, जब समाधि फलेगी, जब बुद्धत्व का फूल खिलेगा, तो कैसा आनंद नहीं होगा! एक क्षण तो लगता है, स्वर्ग उतर आया!
लोग इस जन्म में ही नहीं, अगले जन्मों तक का इंतजाम कर रहे हैं! परलोक की फिक्र कर रहे हैं। स्वर्ग में थोड़ा—सा बैंक—बैलेंस हो, इसका इंतजाम कर रहे हैं! स्वर्ग के खाते में भी थोड़ा पुण्य जमा कर रहे हैं। अतीत में लौटते हैं या भविष्य में। और दोनों के मध्य में जो बारीक—सी रेखा है वर्तमान की, उसे चूक जाते हैं। बस, उससे चूके कि ध्यान से चूके। उससे चूके कि अहंकार निर्मित होगा। और हाथ तुम्हारे कुछ लगेगा नहीं।
अतीत राख है, कब का राख हो चुका।
जो बीत गई सो बात गई।

जीवन में एक सितारा था,
माना वह बेहद प्यारा था,
वह डूब गया तो डूब गया
अंबर के आनन को देखो,
कितने इसके तारे टूटे,
कितने इसके प्यारे छूटे,
जो छूट गए फिर कहां मिले,
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है,
जो बीत गई सो बात गई।

जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम,
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो,
सूखीं इसकी कितनी कलियां
मुर्झाईं कितनी वल्लरियां
जो मुर्झाईं फिर कहां खिलीं,
पर बोलो सूखे पत्तों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई।

जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन—मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आंगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई।

मृदु—मिट्टी के हैं बने हुए
मधु—घट टूटा ही करते हैं
लघु जीवन ले कर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अंदर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट—प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है, चिल्लाता है

जो बीत गई, सो बात गई।
पहला सूत्र ध्यान का : जो बीत गई सो बात गई। फिर लौट—लौट मत देखो। फिर स्मृतियों को मत कुरेदो। स्मृतियों को मत जगाते रहो। जगाते रहोगे, वे जागती रहेंगी। जगाते रहोगे, उनमें पुन—पुनः प्राण डालते रहोगे। उन्हीं से घिरे रहोगे।
लोग बैठे हों तो उनसे पूछो कि क्या कर रहे हो? बस दो काम में से एक कर रहे होंगे—या तो अतीत में उधेड़बुन चल रही होगी या भविष्य में।
 अतीत जा चुका और भविष्य अभी आया नहीं। दोनों का अभाव है। और अभाव में तुम जीते हो। उसी अभाव से अहंकार निर्मित होता है। भाव में जीओ; अस्तित्व में जीओ। अस्तित्व के सघन प्रकाश में ही अहंकार की छाया नहीं बनती फिर। अस्तित्व की सघन अग्नि में सब जल जाता है कूड़ा—करकट। और कितनी ही तुम योजनाएं बनाओ भविष्य की, कितनी ही कल्पनाएं सजाओ, कितने ही सपनों में श्रृंगार भरो, कितने ही सपनों को निर्मित करो—सब मिट्टी में मिल जाएंगे। क्योंकि अस्तित्व तुम्हारे सपनों के अनुसार नहीं चलता। अस्तित्व तुम्हें मानने को मजबूर नहीं है। अस्तित्व का अपना ढंग है, अपनी शैली है। अस्तित्व की अपनी गति है। एक—एक की सुनेगा तो बहुत मुश्किल में पड़ जाएगा। किस—किसकी सुने?
इसलिए अस्तित्व तटस्थ भाव से बहा जाता है। तुम अगर उसके साथ बह लो तो ध्यान लग जाए। लेकिन तुम साथ बहो कैसे? तुम्हारी अपनी योजनाएं हैं, तुम अस्तित्व पर आरोपित करना चाहते हो। तुम चाहते हो यह जीवन की धारा बाएं मुड़े, कि दाएं मुड़े, कि अभी ठहरे, कि अभी विश्राम करना है, कि अभी सागर में न गिरे, अभी ऐसा हो, अभी वैसा हो..... तुम शर्ते लगाए जाते हो। तुम अकेले हो? अनंत—अनंत लोग हैं, सबकी शर्ते हैं। अस्तित्व किसकी सुने, किसकी न सुने? अस्तित्व चुपचाप चला जाता है—अपनी गति में, अपनी मदमस्ती में। काश, तुम अस्तित्व के साथ बह सको तो ध्यान हो जाए। तुम्हारी फिर कोई मांग नहीं होनी चाहिए।
संन्यास का मेरे लिए यही अर्थ है : कोई मांग नहीं, कोई अपेक्षा नहीं। जो है, उससे राजी होना संन्यास है। जो है, जैसा है, सुंदर है, शुभ है; उसमें तल्लीन होना संन्यास है। उसमें लवलीन होना संन्यास है। जो है, उसमें परितुष्ट होना। फिर कहां अहंकार! न रहा अतीत, न रहा भविष्य। बस, उन्हीं दोनों के सहारे अहंकार खड़ा होता है। ये दो बैसाखियां हैं जो अहंकार को खड़ा करती हैं। तुम आए वर्तमान में कि बैसाखियां गिर गईं।
और ध्यान रखो, इतना जो विषाद दुनिया में दिखाई पड़ता है, इतना जो दुःख दिखाई पड़ता है, उसका अधिकतम कारण है, अपेक्षाएं। अपेक्षाएं हैं, तो आज नहीं कल जब अपेक्षाएं टूटेंगी तो प्राणों पर संकट के बादल घिर आएंगे।
"मेरी अमीर विधवा मौसी के बच्चे नहीं थे। मगर उनके पास धन खूब था। उन्हें कुत्ते पालने का शौक था। उनके घर में पांच सौ दस कुत्ते थे। मैंने जिंदगीभर धन पाने के लोभ में उन्हें खुश रखने की हर तरह से कोशिश की। उनके नापाक बदबूदार कुत्तों को खूब प्यार जताया, पागल कुत्तियों की पूछों पर हाथ फेरा, खुजलीदार पिल्लों को उठाकर गले से लगाया। मेरी मौसी कल मर गयी।"—ढब्बूजी ने अपने दोस्त मुल्ला नसरुद्दीन को बताया।
 नसरुद्दीन ने उत्सुकता से पूछा—"अच्छा, तो वह वसीयत में तुम्हारे लिए क्या लिख गयी?"
ढब्बूजी ने रोते हुए बताया—"वे ही पांच सौ दस मरियल कुत्ते, कुत्तियां और पिल्ले!"
तुम क्या चाहते हो, अस्तित्व उसे वैसा पूरा नहीं करेगा। अस्तित्व जो चाहता है, तुम उससे राजी हो जाओ। दुःखी होने का रास्ता है : तुम अस्तित्व से मांग करो कि ऐसा होना चाहिए। और सुखी होने का रास्ता है कि जैसा हो, तुम अस्तित्व को धन्यवाद दे सको कि बड़ी कृपा है, मैं शुक्रगुजार! मैं आभारी, मैं अनुगृहीत!
ऐसे अतीत और भविष्य से, संत, मुक्त हो जाओ, तो ध्यान सुगमता से सध जाएगा। इन दोनों के बीच में ही ध्यान है। ध्यान यानी वर्तमान का क्षण सब कुछ है। पीछे भी सब झूठ, आगे भी सब झूठ। सत्य है अभी और यहीं। इस क्षण अगर तुम्हारे भीतर कोई विचार की तरंग न रह जाए, फिर कहां अहंकार है? फिर कहां हो तुम? फिर एक सन्नाटा है, एक अपूर्व सन्नाटा है! उसी सन्नाटे में आत्म—अनुभव है, निर्वाण है, मोक्ष है, समाधि है। उसी सन्नाटे में सच्चिदानंद का आगमन है। सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् के फूल उसी सन्नाटे में खिलते हैं। वही सन्नाटा वसंत है।
मैं नहीं कर सकूंगा। राह दे सकता हूं, चलना तुम्हें होगा। मैं तुम्हारे लिए नहीं चल सकता। बुद्ध ने कहा है : बुद्ध केवल मार्ग दे सकते हैं, इशारे दे सकते हैं। बुद्ध तो मील के पत्थर हैं, जिन पर तीर बना है कि इतना और चलो, इतने मील और चलो तो फलां जगह पहुंच जाओगे। न तो तुम्हें हाथ पकड़ कर जबर्दस्ती ले जाया जा सकता है। क्योंकि जो जबर्दस्ती आए, वह मुक्ति नहीं होगी। मुक्ति और जबर्दस्ती!
तुम्हें भेंट में भी नहीं दी जा सकती मुक्ति। क्योंकि भेंट की कोई कीमत करना ही नहीं जानता। कितनी चीजें तुम्हें भेंट में मिली हैं, तुमने कोई कीमत की? जीवन तुम्हें भेंट में मिला है, तुमने कभी परमात्मा को धन्यवाद दिया कि हे प्रभु, तेरा मैं अनुगृहीत हूं, क्योंकि तूने मुझे जीवन दिया? जीवन से और क्या मूल्यवान हो सकता है? नहीं, तुम्हारे भीतर कोई अनुग्रह नहीं उठा। उसने तुम्हें चैतन्य दिया है, तुमने अपने चैतन्य के लिए धन्यवाद दिया? नहीं, शिकायतें की होंगी, संदेह प्रकट किए होंगे, न अनुग्रह जगा, न श्रद्धा जगी। ऐसे ही तुम्हें अगर मोक्ष भी मिल जाए, तो तुम मोक्ष में भी शिकायतें करोगे कि आज धूप ज्यादा है, कि आज वर्षा हो गई, कि आज कपड़े सुखाने थे, कि आज यह करना था, कि आज वह करना था। तुम्हें मोक्ष भी अगर मिल जाए मुफ्त . . .परमात्मा ने सब दिया है, मोक्ष को बचा रखा है। वह तुम्हें खोजना है। ताकि तुम उसकी कीमत कर सको, उसका मूल्य कर सको।
परमात्मा ने तुम्हें सब देकर देख लिया कि तुम्हें जो भी दिया जाए, उसका तुम मूल्य नहीं करते। तुम अपने श्रम से जिसे पाते हो, उसका ही मूल्य करते हो। दो कौड़ी की चीजों का भी तुम मूल्य करते हो, अगर श्रम से मिलें। और अगर मुफ्त मिल जाएं तो तत्क्षण तुम्हारे मन में उनकी कीमत नहीं रह जाती। कीमत आंकने का तुम्हारे पास एक ही उपाय, एक ही मापदंड है और वह यह है कि कितना श्रम तुमने किया।
परमात्मा ने जो आखिरी बहुमूल्य चीज है, जो परम जीवन है, वह रोक रखा है। सब दे दिया है तुम्हें, उसे खोजने की सारी सुविधा दे दी है, उसे पाने का सामर्थ्य दे दिया है, उस तक पहुंचने की पूरी शक्ति दे दी है, मगर उस परम शिखर को छोड़ रखा है। यह शुभ किया है। यह उचित ही किया है। उसे तुम्हें ही पाना होगा। उसे कोई तुम्हें नहीं दे सकता। और कोई अगर कहे कि मैं तुम्हें दूंगा, तो तुम सावधान रहना, कोई धोखा है, कोई बेईमानी! जो ऐसा कहता है, तुम्हें लूटेगा। जो ऐसा कहता है, उससे बड़ा धोखेबाज इस दुनिया में कोई और नहीं।
सत्य को पाना होता है। मोक्ष को पाना होता है। ये चीजें हस्तांतरित नहीं होतीं। नहीं तो एक बुद्ध पर्याप्त था, सारी दुनिया को बुद्धत्व बांट देता।
संत, श्रम करो! तुम्हें मैंने नाम दिया है : संत। क्योंकि मैं संभावना देखता हूं। क्योंकि मैं देखता हूं उस सूरज को जो तुम्हारे अंधेरे में छिपा है; उस सुबह को, जो तुम्हारी अमावस में छिपी है। अमावस के गर्भ में एक भोर है, जो कभी भी प्रकट हो सकती है। ज़रा उठो, ज़रा चलो, छोड़ो आलस्य! और छोड़ो वह भरोसा कि कोई और तुम्हें दे सकेगा, अन्यथा यह तुम्हारे आलस्य को ही छिपाने का एक ढंग होगा।
हम बड़े तर्क निकाल लेते हैं अपनी चीजों को छिपाने के।
एक मित्र मेरे पास आते हैं, वर्षो से आते हैं। आकर चरण छू जाते हैं., और कहते हैं कि बस, आपके चरण छू लिए, अब और क्या करना है! मैंने उनसे कहा कि अगर यह सच है, तो दुकानदारी भी बंद करो! ..... बड़े व्यापारी हैं। ..... मेरे चरण छू लिया, अब दुकानदारी भी क्या करना!
उन्होंने कहा : यह कैसे होगा? दुकानदारी तो करनी ही होगी। तो मैंने कहा : तो फिर तुम धोखा किसको दे रहे हो? दुकानदारी तुम करोगे, मेरे चरण छूने से काम नहीं होता। लेकिन परमात्मा मेरे चरण छूने से मिलेगा—वह तुम्हें करना नहीं है। जो तुम्हें चाहिए, जो तुम्हें पाना है—धन—वह तो तुम दौड़ रहे हो खुद, वह तुम किसी पर नहीं छोड़ रहे हो, वह मेरे चरणों पर नहीं छोड़ रहे। जो तुम्हें पाना नहीं है और ऐसे ही मिलता हो मुफ्त तो क्या हर्जा है, वह तुम मेरे चरणों पर छोड़ रहे हो! अगर श्रद्धा पूरी है तो सब छोड़ दो और अगर श्रद्धा पूरी नहीं है, तो फिर यह श्रम करो। श्रद्धा को आलस्य छिपाने का आवरण मत बनाओ।
आदमी के मन में बड़े तर्क होते हैं। बड़ी होशियारियां होती हैं। हर चीज से बचने का रास्ता निकाल लेता है।
मुल्ला नसरुद्दीन को किसी ने खबर दी कि नसरुद्दीन, तुम यहां बैठे होटल में क्या कर रहे हो? तुम्हारी पत्नी एक आदमी से घर में प्रेम कर रही है। नसरुद्दीन ने कहा कि अभी ठीक करता हूं उसको! चमड़ी उधेड़ कर रख दूंगा! शक तो मुझे भी था। अभी जाकर उसे नसीहत सिखाता हूं!
नसरुद्दीन भागा हुआ घर पहुंचा, खिड़की में से छलांग लगा कर अंदर घुस गया। वह आदमी पत्नी के साथ पलंग पर लेटा हुआ था। वह आदमी भी उठ कर एकदम से अलमारी में छिप कर खड़ा हो गया। नसरुद्दीन तो गुस्से में आगबबूला हो ही रहा था, उसने अलमारी खोली, बस अलमारी खोलते ही से उसका एकदम गुस्सा शांत हो गया। वह था गांव का पहलवान। बोला कि उस्ताद, यहां दिन में भूत बन कर खड़े होकर मेरे बच्चों को डराने की कोशिश करते हो, शर्म नहीं आती! तभी तो मैं कहूं कि फजलू रोज मुझसे कहता है कि पिताजी, घर में भूत है! जरूर तुम्हीं को देखकर डर गया होगा। अपने घर जाओ, कुछ काम करो, भाई!
देखा, तरकीब निकाल ली उसने!
मगर कोई ऐसे माननेवाले थोड़े ही होते हैं। और पहलवान से अब तुम इस तरह कहोगे तो पहलवान भी समझ गया कि हालत क्या है!
दूसरे दिन फिर नसरुद्दीन घर पहुंचा, देखा कि छाता बाहर रखा है किसी का, जूते उतरे हैं। जूते का बड़ा लंबा ढंग देख कर ही समझ गया कि वही पहलवान होना चाहिए। छाते पर देखा तो उसका नाम लिखा है। उठाकर छाते को अपने पैर पर रखकर तोड़ डाला। दो टुकड़े कर दिए। और कहा कि हे प्रभु, अब वर्षा कर दे! ..... क्या करो! ..... अब हो जाए वर्षा! चखा दो इसको मजा!
 आदमी न—मालूम कितने हिसाब खोज लेता है, जिस चीज से बचना हो! सावधान रहना अपने मन से, तुम्हारा मन बहुत तर्क—कुशल है। वह आलस्य को श्रद्धा कह सकता है। उसे शब्दों पर शब्द की पर्ते जमाने में कोई अड़चन नहीं आती। वह बेईमानी को आस्तिकता बना लेता है। वह पाखंड को धर्म बना लेता है। वह थोथे आडंबर को नीति मानने लगता है। वह दिखावे को, दूसरों के सामने प्रदर्शन करने को सदाचार समझ लेता है।
बहुत जागरूक होकर अपने मन की चालबाजियों को देखो।
संत, संतत्व तो घटना है। घटेगा। और मैं खुश हूं जिस ढंग से तुम विकसित हो रहे हो। इधर इन पांच—सात वर्षो में बहुत कुछ हुआ है। तुम्हारे जीवन में बहुत कुछ बदला है। लेकिन बहुत कुछ अभी और होना है। चलो, आकांक्षा भी पैदा हुई कि यह अहंकार जाए, यह भी क्या कम है! लोगों की आकांक्षाएं तो हैं कि अंधकार कैसे भरे, कैसे बढ़े? तुममें यह आकांक्षा पैदा हुई कि अहंकार जाए, यह भी शुभ लक्षण है। वसंत का पहला फूल खिला जैसे! अब और फूल भी आते ही होंगे। पहले फूल ने खबर दे दी कि वसंत आ गया, अब दूर नहीं है।
और मैं तुम्हारे विकास से खुश हूं। लेकिन, अभी बहुत यात्रा पड़ी है। जब मैं कहता हूं कि मैं तुम्हारे विकास से खुश हूं तो इतना ही समझना कि तुम्हें बल दे रहा हूं, तुम्हें आश्वासन दे रहा हूं। तुम्हें आश्वस्त कर रहा हूं कि इतना चल लिए हो, थोड़ा और चलो, थोड़ा और चलो। धीरे—धीरे, चलते—चलते, एक—एक कदम चलते—चलते हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।
बुद्ध एक पहाड़ी रास्ते से गुजर रहे थे। आशा थी कि गांव पहुंच जाएंगे दोपहर तक, लेकिन सांझ होने लगी। आनंद थक गया है, बहुत थक गया है। बुद्ध भी थक गए हैं। पहाड़ी रास्ते पर एक खेत में बने झोंपड़े के पास रुके हैं। आनंद ने झोंपड़े के बाहर बैठे बूढ़े किसान से पूछा— उसकी बुढ़िया भी बैठी वहीं कुछ चरखा कात रही है—पूछा कि गांव कितनी दूर है? उस बूढ़े ने कहा, होगा यही कोई चार मील। चार मील सुनते ही आनंद का तो चेहरा और उतर गया। चार कदम चलने की हिम्मत न थी, गिरी—गिरी हालत हो रही थी कि अब गिरे तब गिरे, इतने थक गए थे! भूखे, प्यासे दिनभर की तपन। बुढ़िया ने अपना चरखा चलाना रोक दिया और अपने बूढ़े से कहा ज़रा होश से बातें करो, देखते नहीं कितने थके—मांदे यात्री हैं, अरे, दो मील बहुत होगा! और बुढ़िया ने कहा कि मैं कहती हूं कि दो मील है। यह बुढ़ऊ की बातें मत सुनो, इनको कुछ होश नहीं, सठिया गए हैं।
 थोड़ी हिम्मत आयी आनंद में। लेकिन बुद्ध हंसे।
रास्ते में आनंद पूछने लगा, आप हंसे क्यों? बुद्ध ने कहा : इसलिए हंसा कि बुढ़िया ने जो काम किया, वही काम मुझे चौबीस घंटे करना पड़ता है। चाहे चार मील हो कि चालीस मील हो, मैं कहता हूं : यही दो मील, यही दो मील!
 और यही हुआ। जब दो मील चलने के बाद गांव नहीं आया तो फिर किसी राहगीर से पूछा आनंद ने कि भई, गांव कितनी दूर है, दो मील सुना था, दो मील तो निकल भी गए। उसने कहा, यही होगा कोई दो मील, बस अब आया! और दो मील चल कर भी गांव नहीं आया। बुद्ध ने कहा : अब समझे? उस बुढ़िया की भाषा मैं समझा! बूढ़ा सठिया नहीं गया था, बूढ़ा सच्चा ही कह रहा था। लेकिन बुढ़िया ने करुणा की, उसने कहा : ज़रा देखते नहीं कितने थके—मांदे लोग, इनको चार मील बताते शर्म नहीं आती? अरे, दो मील बहुत!
 रास्ता तो लंबा है। लेकिन इतना भी लंबा नहीं कि पूरा न हो सके। मंजिल कठिन तो है, मगर असंभव नहीं। साधना तो करनी होगी, साध्य है। दुरूह है, दुर्गम है, असाध्य नहीं! फिर तुम जैसा चल आए हो, जितना चल आए हो, उससे आशा बंधती है कि आगे भी रास्ते ठीक मिलते जाएंगे।
मुझ पर मत छोड़ो! मुझ पर छोड़ने में खतरा है। छोड़ा मुझ पर कि तुम बस बैठ जाओगे।
 यही तो इस पूरे देश का दुर्भाग्य है। इसने छोड़ दिया सब, मान लिया कि भगवान की इच्छा होगी तो सब हो जाएगा। भगवान की इच्छा से निश्चित सब हो सकता है, मगर पहले तुम्हें अपनी पूरी इच्छा को श्रम में संलग्न कर देना होगा। तुम जब अपनी इच्छा को पूरा का पूरा श्रम में संलग्न कर देते हो, उसी क्षण भगवान की ऊर्जा तुम्हें मिलनी शुरू होती है, उसके पहले नहीं।
तुम अपना पूरा श्रम ध्यान में लगा दो। मैं तो साथ खड़ा ही हूं! और परमात्मा भी तुम्हारे साथ खड़ा है। सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ है। जब भी कोई व्यक्ति ध्यान की दिशा में उतरता है, सारा अस्तित्व आनंदमग्न हो उसे सहयोग देता है, क्योंकि कोई भूला—भटका घर आ रहा है। कोई दूर निकल गया वापिस लौट रहा है। कोई बीज फूट रहा है, अंकुरित हो रहा है, पल्लवित हो रहा है। आकाश उसे छाया देता है, सूरज उसे गर्मी देता है, बादल उसे पानी देते हैं। भूमि उसे प्राण देती है। यह सारा अस्तित्व उसके लिए सहयोगी हो जाता है।
हां, अस्तित्व के विपरीत चलना हो तो तुम अकेले रह जाते हो। अहंकार की यात्रा अकेले की यात्रा है। ध्यान की यात्रा में सारा अस्तित्व सहयोगी है। मगर अस्तित्व पर ही मत छोड़ देना। तुम्हें तो श्रम करना ही है। अस्तित्व सहयोग देगा।
और तुमने अब तक जैसा किया है, वह शुभ है, ठीक दिशा में है। तुम्हारे कदम ठीक दिशा में पड़ रहे हैं। ज़रा लौट कर पांच—सात साल पहले की अपनी शक्ल याद करो, संत! सब बदल गया है!
संत जब शुरू—शुरू में यहां आए और ध्यान करते थे तो ध्यान में मालूम है वह क्या करते थे? पंजाबी हैं! तो घूंसे चलाते। गालियां देते! जैसे किसी को मार रहे हों, किसी की हत्या कर रहे हों। पंजाबी ध्यान भी करे तो है तो पंजाबी ही! और जब वह ध्यान में आ जाते तो फिर हिंदी नहीं बोलते थे, फिर पंजाबी ही। अब सब बदल गया है। संत के चेहरे से पंजाबीपन विदा हो गया है, आदमियत की झलक आने लगी है। एक सरलता आयी है। आंखों में भी एक शांति आयी है। व्यक्तित्व में एक सौम्यता आयी है। वह लठैतपन चला गया। वे जो घूंसे ध्यान में उठते थे, वह जो मार—पीट की वृत्ति ध्यान में जगती थी, वह सब शांत हो गई है। आधा काम तो पूरा हो गया। और जब आधा हो गया तो शेष आधा ही हो जाएगा! चले चलो! चले चलो!!

दूसरा प्रश्न :
भगवान, मैं धनी होना चाहता हूं, बड़ा पद भी पाना चाहता हूं, सुंदर स्त्री भी। मैं क्या करूं?
रिकृष्ण तुम जरूर धोखेबाज के हाथ में पड़ोगे, पहली तो बात, यह खयाल रखना। क्योंकि इस तरह की आकांक्षाओंवाले लोग ही शिकार बनते हैं चालबाजों के। तुम अगर धनी होना चाहते हो, तो जरूर कोई तुम्हें ताबीज देगा और लूटेगा। जितना तुम पर है, वह भी जाएगा! ज़रा संभल कर चलना, बड़ी गलत आकांक्षा है!
एक मुसलमान युवक मेरे पास आया। कुछ दिन मेरे पास रहा। चालबाज था। मैंने उसको कहा भी कि तू यह सब चालबाजी छोड़ दे, नहीं तो मेरे पास ज्यादा देर नहीं टिक सकेगा। लेकिन वह तो आया ही इसलिए था क्योंकि मेरे पास इतने लोग आते—जाते हैं, इनमें से किसी न किसी को वह फांस ले। और लोग आ—आ कर मुझसे शिकायत करने लगे कि उसने हमसे सौ रुपए ले लिए। कोई कहता आकर, वह कहता— उसने हमसे अंगूठी ले ली। कोई कहता, उसने हमारी घड़ी ले ली। मैं उनसे पूछता कि कोई तुमसे घड़ी ले कैसे लेगा? तुमसे अंगूठी ले कैसे लेगा? तुमसे सौ रुपए का नोट कोई ले कैसे लेगा? उसने कहा कि उसने हमें पहले चमत्कार करके दिखाया। एक रुपए का नोट लिया, उसके दो बना दिए! जब उसने एक के दो बना दिए तो हमने सोचा कि सौ के दो सौ बना देगा। वह सौ लेकर नदारद हो गया है। होने ही वाला है यह।
तो मैं उनसे कहता कि तुम उसी को दोष दोगे या अपने को भी दोष दोगे? वह तो चालबाज है, जाहिर है। मगर तुम कुछ ईमानदार हो, ऐसा नहीं। आखिर बेईमान तो तुम भी पक्के हो! तुम सौ रुपए के दो सौ रुपए बनवा रहे थे, तुमको अगर धोखा दे गया तो कुछ बुरा नहीं किया। तुमको ठीक दंड मिला है। तुम अगर अपनी अंगूठी को दो अंगूठियां बनवा रहे थे ..... और उसे कुछ थोड़ी—सी हाथ की कलाएं आती थीं, एकाध नोट को वह दो नोट बना कर दिखा देता था। वह सब झूठा खेल, सब हाथ का खेल। मगर जब कोई आदमी एक रुपए का नोट दो रुपए का नोट बनाकर दिखा दे या एक अंगूठी से दो अंगूठी बनाकर दिखा दे, तो फिर तुम्हारे भीतर लोभ जगता है। लोभ खतरनाक अवस्था है। कोई न कोई तुम्हें सताएगा; कोई न कोई तुम्हें लूटेगा
और जो लोग मुझसे आ—आकर शिकायत करते, वे कहते कि वह बेईमान है, उसको आप यहां क्यों टिकने देते हैं? मैं उनसे कहता कि तुम को भी मुझे नहीं टिकने देना चाहिए, तुम भी कोई ईमानदार नहीं हो।
एक यहूदी अपने बेटे को समझा रहा था कि बेटे, अब तू दुकान पर बैठना शुरू कर। और इसके पहले कि दुकान पर बैठे, कुछ बातें सीख ले। जैसे, मेरे पिताजी ने मुझे बताया था, वह मैं तुझे बताता हूं। उन्होंने दो सूत्र मुझे बताए थे। पहला सूत्र : कि हमेशा अपने वचन का पालन करना, ताकि दुकान की प्रतिष्ठा हो। और दूसरा उन्होंने मुझे सूत्र बताया था कि भूलकर भी किसी को वचन मत देना। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।
दुकान पर नैतिक जीवन जीना होता है। तो बाप अपने बेटे से बोला कि देख, कल का ही सवाल है। एक आदमी भूल से सौ रुपए के नोट की जगह मुझे दो सौ रुपए के नोट दे गया—वे आपस में चिपके हुए थे। तो उसने समझा एक है। वह जब सीढ़ियां उतर रहा था, तभी मैंने देखा तो दो नोट हैं। अब सवाल यह उठता है—व्यावसायिक नैतिकता का सवाल—कि मैं अपने पार्टनर को बताऊं कि न बताऊं?
यह देखते हो? यह ईमानदारी! व्यावसायिक नैतिकता! वह आदमी सीढ़ियां ही उतर रहा है! उसका तो सवाल ही नहीं उठता कि उसको बताना है! अपने पार्टनर को बताऊं कि नहीं बताऊं?
तुम कहते हो : "धनी होना चाहता हूं, सुंदर स्त्री पाना चाहता हूं, बड़ा पद पाना चाहता हूं।" तुम धोखे में पड़ोगे। पाओगे क्या? जिन्होंने पा लिया, उन्हें क्या मिला है?

सागरों की खनक ख़रीदी है
दोस्ती के भरम ख़रीदे हैं

आरजूए—निशात में हमने
कैसे दिलचस्प ग़म खरीदे हैं
दिलचस्प भला, मगर दुःख ही दुःख!

सागरों की खनक ख़रीदी है,
दोस्ती के भरम ख़रीदे हैं;
आरजूए—निशात में हमने .....
सुखी होने की आकांक्षा में . . .
कैसे दिलचस्प ग़म खरीदे हैं
धन है, पद है, प्रतिष्ठा है, सुंदर स्त्रियां हैं, सुंदर पुरुष हैं—सब दिलचस्प गम हैं। मनोरंजन भला हो जाए थोड़ी देर को, मगर पीछे फांसी लगती है।
अभी से सावधान हो जाओ, हरिकृष्ण! तुम यहां आए होओगे मेरी जीवनदृष्टि के संबंध में सुनकर कि मैं जीवन को उसकी समग्रता में स्वीकार करता हूं, तो तुमने सोचा होगा : चलो, यह व्यक्ति है जिससे पूछ लेना चाहिए कि धन, पद, सुंदर स्त्री, सब कैसे मिलें? यह व्यक्ति त्याग की बात नहीं करता। शायद इसी भ्रांति में तुम यहां आ गए हो। यहां त्याग की बात नहीं होती, लेकिन बड़ी सूक्ष्मता से त्याग घटित होता है। यहां त्याग की बात नहीं होती, यह सच है। यहां बात ध्यान की होती है। मगर जिसको ध्यान आ गया, उसको त्याग तो अपने—आप आ जाता है। जिसको ध्यान आ गया, उसे चीजों की व्यर्थता दिखाई पड़ने लगती हैं। और व्यर्थता आ गयी समझ में, तो पकड़ छूट जाती है।
तुम गलत जगह आ गए।
एक व्यक्ति ने विज्ञापन दिया—तुम्हारे जैसे लोगों के लिए ही दिया होगा—"दो रुपए भेजिए और रातोंरात लखपति बनने का फार्मूला मालूम कीजिए।" अब दो रुपए में कौन लखपति न बनना चाहे! लगभग एक लाख व्यक्तियों ने रुपए भेजे। एक सप्ताह बाद उन सभी व्यक्तियों के पास, जिन्होंने विज्ञापन से प्रभावित होकर दो रुपए भेजे थे, जवाब मिला—"जो काम मैं कर रहा हूं, वही काम आप भी शुरू कर दीजिए। मैं तो रातोंरात लखपति हो गया!"
एक लाख ने भेज दिए दो—दो रुपए, तो वह तो दो लाख रुपए उसके पास हो गए
तुम्हें इसी तरह धोखा दिया जा रहा है। तुम्हें जुए खिलाए जा रहे हैं। मटका चल रहा है। और लोग जुए खिलाते हों तो ठीक, और लोग नाल काटते हों तो ठीक है, सरकारें भी जुए खिला रही हैं। सरकारें भी, जो गांधीवादी होने का दावा करती हैं, वे भी लाटरियां निकालती हैं! लाटरी जुआ है। सिर्प लोगों को धोखा है। लेकिन लोभी फंस जाता है। लोभी को लगता है कि एक ही रुपया तो लगाना है दांव पर। और लाखों मिल जाएंगे, एक दफा मिल गए तो बस, ..... ! मगर करोगे क्या लाखों को पाकर?
टालस्टाय की प्रसिद्ध कहानी है :
एक आदमी, एक दरजी, हर महीने एक रुपया लाटरी की टिकिट खरीदता था। ऐसा वह बीस साल से करता था। न कभी उसको लाटरी मिली, न उसने अब सोचना ही जारी रखा था कि कभी मिलेगी, मगर पुरानी आदत हो गई थी तो एक महीने में एक रुपए की खरीद लेता था। एक रुपए में कुछ बिगड़ता भी न था।
मगर बीसवें साल अनहोना घटा! द्वार पर आकर एक राल्सरायस कार खड़ी हुई, उसमें बड़े—बड़े थैले नोटों से भरे हुए लोग उतरे और उन्होंने कहा कि भाई दरजी, अब क्या बैठे कर रहे हो, अब छोड़ोछाड़ो सीना—पिरोना! ..... वह अपनी बटने टांक रहा था, शाम का वक्त। ..... फेंको—फांको यह सब! ये मिल गए तुमको दस लाख रुपए। लाटरी में जीत गए हो तुम। दरजी ने भी आव देखा न ताव ..... दस लाख रुपए मिल जाएं तो अब क्या करना! उसने दुकान में ताला मारा और चाबी कुएं में फेंक दी! कि अब करना ही क्या है!
सालभर में दस लाख रुपए हवा हो गए। चीजें जैसे आती हैं वैसे ही जाती हैं, यह भी खयाल रखना। जब दस लाख रुपए आए ऐसे आकाश से उड़ते हुए, तो ऐसे ही आकाश में उड़ते हुए चले गए। क्योंकि सालभर वह जिआ ऐसे जैसे कोई शहंशाह जीए। खरीदी बड़ी—बड़ी गाड़ियां, बड़े मकान, सुंदर से सुंदर स्त्रियां, बड़े—बड़े होटलों में रहा, सारी दुनिया का चक्कर मार आया—जो था भोगने योग्य, भोग लिया। और जो भोग से होना था, वह हुआ। सालभर बाद दस लाख रुपए पर पानी फिर गया, वह तो अलग, सालभर में स्वास्थ्य पर भी पानी फिर गया। आंखें भी धुंधली हो गईं, चश्मा चढ़ गया, चलने में भी डंडा लेकर चलता तो टेक—टेक कर चल पाता। क्योंकि भोग कुछ सस्ता तो पड़ता नहीं। टूट गया बिल्कुल। शराब और वेश्याएं और रात का जागना, और होटलों का भोजन! सीधा सादा आदमी था, जिंदगी में ये चीजें कभी खायी भी न थीं, एकदम से खाईं तो उसका दुष्परिणाम भी हुआ। सालभर बाद आकर दरवाजे पर खड़ा हुआ तब याद आया कि चाबी तो कुएं में फेंक दी! सो कुएं में उतरा। ठंड के दिन, रूस का मौसम, पानी बिल्कुल बरफ हो रहा है, उसमें डुबकी मारी, बामुश्किल चाबी खोज पाया। खींच—खींच कर लोगों ने बाहर निकाला।
ताला खोलकर फिर दूसरे दिन से सुबह दुकान शुरू की। लेकिन सालभर में ऐसा लगा जैसे बीस साल गुजर गए हों! जैसे बीस साल कम हो गए उम्र के, इतना कमजोर हो गया।
मगर पुरानी आदतें नहीं जातीं। फिर वह अगला महीना आया, एक तारीख, एक रुपए की टिकिट उसने फिर खरीद ली। हालांकि भगवान से रोज प्रार्थना करता था कि अब नहीं। अब मत दिलवाना लाटरी! अब बहुत हो गया! देख लिया जो देखना था, और बरबादी भी देख ली! अब नहीं! इधर रोज प्रार्थना भी करता ..... आदमी का ऐसा अद्भुत द्वंद्व से भरा हुआ मन है, तुम ज़रा गौर करोगे तो तुम्हारे भीतर भी ऐसा ही मन पाओगे। इधर कहता रोज भगवान से कि नहीं, अब मत दिलवा देना! एक दफा बहुत है, जो दिखा दिया नरक, वह पर्याप्त है! मगर टिकिट भी खरीदता जाता।
और सालभर बाद फिर आकर वही कार आकर रुकी। उसने छाती पीट ली, उसने कहा : मारे गए! अब फिर फंसे! जानता है कि नहीं फंसना है, मगर फिर निकल कर द्वार के बाहर आ गया, फिर थैलियां उतरीं, फिर रुपए, और फिर उसने ताला मारा। और कहता जा रहा है अपने दिल में कि हे प्रभु, यह क्या करवा रहे हो? यह मत दिखलाओ, यह मैं क्या कर रहा हूं! और ताला भी मार दिया और कुएं में जब चाबी फेंकने लगा, तब फिर कहा कि हे प्रभु, क्यों?! क्या फिर ठंडे पानी में उतरवाओगे? और चाबी फेंक दी!
मगर फिर उसे दुबारा ठंडे पानी में उतरने की नौबत नहीं आयी, क्योंकि उस साल वह मर ही गया!
करोगे क्या बहुत धन पाकर? बरबाद होना है? मूढ़ता के हाथ धन लग जाए तो सिवाय बरबादी के और क्या होगा? इस दुनिया में बहुत कम समझदार लोग हैं जो धन का उपयोग जानते हों। यहां इस दुनिया में बहुत कम समझदार लोग हैं, जो किसी भी चीज का उपयोग जानते हों। हर चीज से हानि हो जाती है। बेहतर यही है कि लोगों के पास बहुत चीजें न हों, नहीं तो उनसे उनकी हानियां ही होनेवाली हैं। मैं धनपतियों को जानता हूं। उनको धन तो क्या मिला, चिंता मिली, संताप मिला, बेचैनी मिली, विक्षिप्तता मिली। मैं उन लोगों को जानता हूं, जिन्होंने सुंदरतम स्त्रियों से शादी की, और सिवाय चिंता—संताप के कुछ भी नहीं। क्योंकि जब सुंदर स्त्री होती है तो चिंता पकड़ती है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने शादी की तो गांव की सब से बदशक्ल औरत से शादी की। होशियार आदमी! गांवभर के लोग पूछने लगे कि नसरुद्दीन, तुझे अच्छी—से—अच्छी स्त्री मिल सकती थी, गांव में कितने लोगों के तेरे ऊपर निमंत्रण आए, कितने पिताओं ने तुझे समझाया, कितने न्यौते तुझे मिले, और तूने इस स्त्री को चुना? जिसे भूतपलीत भी देख लें तो भाग खड़े हों! उसने कहा : भाई, इसमें राज है। यह घर में रहेगी तो चिंता नहीं होगी। एक तो इसकी वफ़ादारी पर कभी शक पैदा नहीं हो सकता। यह एक बड़ा लाभ है, कि यह सदा वफ़ादार रहेगी, यह कभी धोखा नहीं दे सकती। धोखा देगी किसके साथ? इस गांव में तो कोई है नहीं जो इसके पास भी आ सके!
जैसा मुसलमानों में रिवाज है, जब विवाह कर पत्नी को घर लाया तो पत्नी ने पूछा कि नसरुद्दीन, रिवाज के अनुसार पूछती हूं कि किस—किस के सामने घूंघट उठा सकती हूं? किस—किस के सामने बुरका उठा सकती हूं? नसरुद्दीन ने कहा : मुझे छोड़कर जिसके सामने उठाना हो उठा। और ऐसे भी मैं दिनभर घर आने वाला नहीं हूं, रात के अंधेरे में ही आऊंगाडरवा जितनों को डरवा सके!! आखिर तुझ से शादी किसलिए की है!
सुंदर स्त्रियां लोगों को चिंताएं ले आती हैं। धन चिंता ले आता है। सुंदर पुरुष चिंता ले आते हैं। चिंता स्वाभाविक है, उसके पीछे गणित है। जब स्त्री इतनी सुंदर है तो कोई अकेले तुम ही उसके चाहक होओगे? और भी चाहक होंगे। और अगर तुम्हीं अकेले चाहक हो उसके तो क्या ख़ाक सुंदर है! कि कोई और न मिला, तुम्हीं मिले! जब स्त्री सुंदर है, जितनी सुंदर है, उतने ही उसके चाहक होंगे। जब पुरुष सुंदर है, तो उतनी ही उसे चाहने वाली स्त्रियां होंगी।
फिर संदेह पैदा होता है, फिर शक पैदा होता है। लोग शक—शक में ही जीते हैं, संशय—संशय में ही जीते हैं। मरे जाते हैं, सड़े जाते हैं। और सुंदरतम स्त्री भी दो दिन से ज्यादा थोड़े ही सुंदर रहती है! जब उसको पहचान लिया, जान लिया, फिर क्या करोगे? दो दिन बाद सब शांत हो जाता है। वह तो दूर थी तो सुंदर थी। जैसे—जैसे पास आएगी वैसे—वैसे सौंदर्य समाप्त हो जाएगा। जब तुम उसे घर में ले आओगे डोले में बिठा कर, बस तभी मुसीबत खड़ी हो जाएगी।

हरि—कृष्ण, कुछ जागो, समझो!
ढब्बूजी भागे—भागे पोस्टआफिस पहुंचे। और हांफते—हांफते पोस्टमास्टर से बोलेः "सुनिए, मेरी धर्मपत्नी धन्नो की जान खतरे में है। वह घर के भीतर अपने कमरे में अंदर से दरवाजा बंद करके गहरी नींद में सो रही है। और अभी—अभी घर में आग लग गई है। मैंने बहुत आवाजें दीं, किंतु उसने दरवाजा नहीं खोला। और अब तो घर के भीतर घुसना भी मुश्किल है। आप ही बताइऐ मैं क्या करूं?"
पोस्टमास्टर बोला : "ढब्बूजी, आप मेरे पास क्यों आए हैं! मैं भला क्या कर सकता हूं? अरे, आपको तो फायर बिग्रेड वालों के पास जाना चाहिए!"
"नहीं—नहीं, मैं वहां नहीं जाऊंगा, कतई नहीं जाऊंगा"—ढब्बूजी ने लगभग रो देनेवाले स्वर में कहा—"पिछली बार मैंने यही गलती की थी और साले फायर बिग्रेड वालों ने सचमुच ही मेरी पत्नी को बचा लिया था।"
आज नहीं कल फिर तुम मुक्त होना चाहोगे। और विवाह तो आसान है, तलाक बहुत कठिन है।
मुल्ला नसरुद्दीन तलाक लेने गया था, अपने वकील से बोला। वकील ने कहाः "नसरुद्दीन, तलाक महंगा पड़ेगा, विवाह से चार गुना ज्यादा खर्चा हो जाएगा! नसरुद्दीन ने कहा : "हो जाए!" "तलाक का मजा ही और है," नसरुद्दीन ने कहा, "अरे, कहां विवाह और कहां तलाक! क्या तुलना कर रहे हो? हो जाए खर्चा जो भी होना हो!" अब विवाह का मजा ले लिया तब पता चला कि तलाक बात ही और है! तलाक का मजा ही और है!
कहावत है अरबी में कि दुनिया में बड़ी शांति होती, बड़ा आनंद होता, अगर हर पुरुष कुंवारा होता और हर स्त्री विवाहित होती। बड़ा मुश्किल है! यह हो कैसे! इसलिए दुनिया में दुःख रहनेवाला है।
हरि कृष्ण, क्यों दुःख की तलाश कर रहे हो? यहां मेरे पास आए. हो, ध्यान की पूछो। धन की पूछते हो! परमात्मा की पूछो। पत्नी की पूछते हो! पद की पूछते हो! निर्वाण की पूछो। यह सब तो चल ही रहा है। यह सब तो सारा संसार ही है। इसी में तो सारे लोग डूबे हैं। इतने लोगों को डूबे देखकर भी तुम्हें होश नहीं आता, कि अगर इनको कुछ मिल रहा होता तो इनके चेहरे पर चमक होती, इनकी आंखों में ज्योति जलती, इनके प्राणों में दीया जलता, इनके जीवन में दीवाली होती! ज़रा इनको गौर से देखो! धन भी है, मगर इनसे ज्यादा निर्धन लोग तुम पाओगे सुंदर पत्नी है पति है बच्चे है और इनसे ज्यादा कुरूप अवस्था में रहते हुए तुम लोग पाओगे? पद है, प्रतिष्ठा है, नाम है, धाम है और भीतर घास—फूस भरी है, भीतर कुछ भी नहीं। वह जो खेत में बिजूका खड़ा कर देते हैं न—झूठा आदमी—हंडी लगी दी, उस पर गांधी टोपी रख दी, हंडी में डंडा लगा दिया और एक डंडा आड़ा बांध दिया वह हाथ हो गया और खादी का कुर्ता पहना दिया और अचकन पहना दी। और अगर बहुत ही शौकीन हुआ खेतवाला तो चूड़ीदार पायजामा पहना दिया और लखनवी जूते। क्या जंचते हैं। दूर से देखो तो बिल्कुल लगता है कि आज नेताजी क्या सैर को निकले हैं सुबह—सुबह? पशु—पक्षी डर भी जाते हैं।
खलील जिब्रान की कहानी है एक, कि मैंने एक बिजूके से पूछा कि हे भाई बिजूके, यहां खेत में खड़े—खड़े, वर्षा में, धूप में, सर्दी में थक जाते होओगे? चौबीस घंटे न कोई मनोरंजन, न फिल्म, न रेडियो, न टी. वी., न कुछ संग—साथी, न रोटरी क्लब, लायंस क्लब, न होटल जा सको, न होटल यहां आ सके, थक जाते होओगे, उदास हो जाते होओगे, मगर देखता हूं कि तुम सदा प्रसन्न खड़े हो अपनी अकड़ में! तुम्हारी इस प्रसन्नता का राज क्या है उस बिजूके ने कहाः सुन, मेरी प्रसन्नता का राज यह है कि पशु—पक्षियों को डराने में मुझे जो मजा आता है, वह क्या ख़ाक तुम्हारे मनोरंजन में रखा है! दूसरों को डराने का मजा ऐसा है, कि आए वर्षा, आए धूप, आए सर्दी, सब सह लूंगा, मगर दूसरों को डराने का मजा ऐसा है!
यह कहानी प्रीतिकर है। नेताओं का भी मजा क्या है, बड़े पद पर जो हैं उनका मजा क्या है? दूसरों को डराने का मजा! दूसरों को दबाने का मजा! जिनके पास बहुत धन है, उनका मजा क्या है? मजा यही है कि दूसरों को झुकाने का मजा! कि दूसरों से जी—हुजूर कहलवाने का मजा! ये सब बिजूके हैं। इन सब में घास—फूस भरी है। इनकी अचकन वगैरह उतार कर भीतर देखोगे तो बड़े हैरान होओगे; जैसे हनुमान जी ने छाती चीरी और उसमें रामजी दिखाई पड़े, ऐसे ही नेता की छाती चीरो और तुम बड़े हैरान हो जाओगे—एकदम घास—फूस! और ऐसी सड़ी—गली कि गाय—भैंसें भी चरने से इनकार करें। गाय—भैंसें तो दूर, गधे भी मुंह फेर लें। है क्या उनके भीतर? बड़े पद पर भी बैठ जाते हैं तो है क्या भीतर?
तुम भी बड़े पद पर हो जाओ, धन पा लो, यश पा लो, क्या पा लोगे? इस दुनिया में यश पानी पर खींची गई लकीरों जैसा है। अभी खींचा, अभी मिटा। कितने लोग आए और कितने लोग गए, उनका कुछ नाम, पता, ठिकाना? कितने लोग आए और कितने लोग गए, सोने के उनके महल थे, स्वर्ण उनके रथ थे, और सब हुआ क्या? सब मिट्टी में मिल गया!
कुछ और करो—कुछ जो मिट्टी में न मिल सके। कुछ और, जिसको मृत्यु पोंछ न सके। कुछ और, जो तुम्हें अमृत से जुड़ा दे। मेरे पास आए हो, अमृत की तलाश करो, शाश्वत को खोजो। वही असली धन है। वही असली पद है। वही असली सौंदर्य है।

तीसरा प्रश्न :
भगवान, क्या सच ही सभी धार्मिक क्रिया—कांड व्यर्थ हैं?
सुधीर! क्रिया—कांड का अर्थ समझो। क्रिया—कांड का अर्थ होता है, जिसमें तुम्हारा हृदय नहीं है । और जहां हृदय नहीं है वहां झूठ तो हो ही जाएगा। इसलिए सवाल कृत्य का नहीं है, सवाल हृदय का है। मीरां नाची, तुम भी वैसे ही नाच सकते हो। ठीक वैसे ही घुंघरू बांधो, वैसा ही इकतारा हाथ में लो।..... आख़िर फिल्मी मीरांएं होती हैं न, तुम भी फिल्मी मीरां हो सकते हो! ..... और बिल्कुल वैसे ही नाच सकते हो, मगर वह क्रिया—कांड होगा। क्योंकि तुम्हारा हृदय तो वहां नहीं होगा। एक कृत्य है, मुर्दा, जिसके पीछे प्राणों की सरिता नहीं बह रही।
मीरां का नाचना क्रिया—कांड नहीं है और तुम्हारा बिल्कुल वैसा ही नाचना ..... और यह भी हो सकता है तुम मीरा से भी अच्छा नाच सको; क्योंकि हो सकता है तुमने नृत्य की शिक्षा ली हो, दीक्षा ली हो, तुम नृत्य में पारंगत होओ। मीरां ने कोई शिक्षा—दीक्षा ली थी, ऐसा तो है नहीं। यह तो मौज थी, यह तो मस्ती थी! यह नृत्य तो कोई सिखावन नहीं थी ऊपर की, भीतर से उमगा था, तो चाहे नृत्य की कला की दृष्टि से इसमें भूल—चूकें भी रहीं होंगी। रहीं ही होंगी..... कोई लच्छूजी महाराज या बच्छूजी महाराज देखते तो फौरन पाते कि इसमें ये—ये भूलें हैं, लेकिन इस नृत्य में प्रेम है, आह्लाद है, अर्चना है, प्रार्थना है, पूजा है। यह प्रेम हृदय को चढ़ाने की प्रक्रिया है। हृदय को ही लेकर मीरां आयी है मंदिर के द्वार पर। यह नृत्य क्रिया—कांड नहीं है। तुम इसी नृत्य को करो, क्रिया—कांड हो जाएगा।
इसलिए ध्यान रखना, ऊपर से तय नहीं होगी बात कि क्रिया—कांड व्यर्थ है या नहीं, तय होगी भीतर से। और तुम्हीं जान सकते हो तुम्हारे भीतर को। तुम्हारे अंतस को सुधीर, और कौन जानेगा? तुम जो कर रहे हो, वह वस्तुतः है? या तुम सिर्प दिखावा कर रहे हो? तुम्हारे प्राणों की उमंग है या केवल एक कर्तव्य निभा रहे हो? करना चाहिए, इसलिए कर रहे हो? या कि नहीं रुक सकते करने से, इसलिए कर रहे हो?
मीरां का परिवार विरोध में था। जहर भेजा था उन्होंने, कि इससे बेहतर कि तू मर जा। क्योंकि बदनामी होती है। शाही घर की महिला, रास्तों पर नाचे! और वह भी राजस्थान, जहां की स्त्रियां सदियों से घूंघट नहीं खोली थीं। वहां घूंघट सरक जाए, पल्ला गिर जाए! अब नृत्य में कोई घूंघट का खयाल रखे कि पर्दे का खयाल रखे कि पल्ले को संभाले? नृत्य तो नृत्य है—और फिर मीरां का नृत्य! वह तो अपना तन—मन भूलकर नाच रही है। उसे लोगों का पता ही नहीं, उसको तो सिर्प परमात्मा का पता है। उससे क्या छिपाना है, उसके सामने तो सच प्रकट ही है। उसके सामने तो सब नग्न ही है। तो परिवार को कष्ट होता था, प्रतिष्ठा को धक्का लगता था, लोग आकर कहते होंगे कि राजरानी रास्तों पर नाचे, भिखमंगे भीड़ लगा कर देखें, राहगीर खड़े हो कर देखें, हंसी—मजाक उड़ाएं—यह अच्छा है? परिवार ने मजबूरी में भेजा होगा जहर कि तू पी ले और मर जा!
मीरां का नृत्य क्रिया—कांड नहीं है। तुम नाचो मीरां ही जैसे। तुम्हीं जांच सकोगे और कौन जांचेगा? तुम्हारे अंतस का मेल बैठ रहा है? तुम नाचने में डूब गए हो? ऐसे डूब गए कि नर्तक न बचे, नृत्य ही बचे? तो समझना कि क्रिया—कांड नहीं रहा। फिर प्रेम का अहोभाव हो गया, उत्सव हो गया।
और यही सत्य सभी क्रिया—कांड के संबंध में लागू होता है।
मेरे पास लोग आते हैं। कोई आकर चरणों में झुक जाता है, और मैं देखता हूं उसके अंतस का उसमें कुछ मेल नहीं है। उसका अहंकार अकड़ा हुआ खड़ा है। अहंकार झुक ही नहीं रहा है। शायद वह झुक रहा है, यह और अहंकार को बढ़ा रहा है कि देखो, इसे कहते हैं शिष्टाचार; कि देखो इसे कहते हैं धार्मिकता! वह चारों तरफ लोगों को देखता है कि देख लिया, इसे कहते हैं विनम्रता! इसको कहते हैं साधुता, सरलता!
यह झुकना न हुआ। हालांकि वह झुका, मगर झुकना व्यर्थ गया। यह शारीरिक व्यायाम हुआ। इसमें आत्मा नहीं है। यह क्रिया—कांड है। इससे अच्छा था वह न झुकता।
लेकिन कोई झुकता है, सच में ही झुकता है। पानी—पानी हो जाता है, पिघल जाता है। बह जाता है। खयाल ही नहीं है कि कोई देख रहा है कि नहीं देख रहा है। खयाल ही नहीं है कि मैं कोई विशेष कृत्य कर रहा हूं। खयाल ही नहीं है! एक आनंदभाव ने पकड़ लिया है। एक मस्ती छा गई है। दोनों झुके . . .।
मैं माथेरान था, एक शिविर में। एक गांधीवादी विचारक और लेखक, ऋषभदास रांका मेरे साथ सुबह—सुबह घूमने निकले थे। उधर से "सोहन" आ गई, उसने जल्दी से झुक कर मेरे चरण छू लिए। ऋषभदास रांका ने उसे रोकने की कोशिश की, लेकिन उसने तो देखा ही नहीं। बाद में ऋषभदास मुझसे बोले, कि आपको रोकना चाहिए; आपको इस तरह के क्रिया—कांड को सहयोग नहीं देना चाहिए।
मैंने उनसे कहा : आप छुओ पैर, मैं रोक दूंगा। रोक ही नहीं दूंगा, मुझे अपने पैर धोने पड़ेंगे! क्योंकि वे अपवित्र हो जाएंगे। उस दिन से जो मुझसे वे नाराज हुए, फिर मुझे दिखाई न पड़े! मैंने कहा, आप छुओगे तो क्रिया—कांड होगा, "सोहन" ने छुआ तो क्रिया—कांड नहीं था। कौन रोके, किसको रोके? वह उसका आत्मिक भाव था। रोकना असंभव था। रोकना दुष्टता होती, क्रूरता होती।
हां, मैंने उनसे कहा, आप झुको और आपको ऐसा मजा चखाऊं झुकते वक्त कि फिर आप जिंदगी भर कभी भूलकर किसी के सामने न झुको! मैंने कहा, आप प्रयोग ही क्यों नहीं कर लेते?
वे तो जो नदारद हुए फिर उस दिन से, फिर मुझे दिखाई नहीं पड़े। दुश्मन ही हो गए मेरे। हालांकि बात सीधी—साफ थी।
झुकने—झुकने में फर्क है। पूजा—पूजा में फर्क है। अर्चना—अर्चना में फर्क है। सारा फर्क तय होता है हृदय से।
तुम पूछते हो सुधीर, "क्या सच ही सभी धार्मिक क्रिया—कांड व्यर्थ हैं?" क्रिया—कांड है तो व्यर्थ है। अगर हृदय का उन्मेष है, तो व्यर्थ नहीं है।

यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो।
रजत शंख—घड़ियाल, स्वर्ण वंशी, वीणा स्वर,
गए आरती वेला को शत—शत लय से भर;
जब था कल—कंठों का मेला
विहंसे उपल, तिमिर था खेला
अब मंदिर में इष्ट अकेला;
इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो।

चरणों से चिह्नित अलिंद की भूमि सुनहली,
प्रणत शिरों को अंक लिए चंदन की दहली;
झरे सुमन बिखरे अक्षत सित
धूप—अर्ध्य नैवेद्य अपरिमित
तम में सब होंगे अंतर्हित;
सबकी अर्चित कथा इसी लौ में पलने दो!

मन के मनके फेर पुजारी विश्व सो गया,
प्रतिध्वनि सा इतिहास प्रस्तरों के बीच सो गया;
सांसों की समाधि का जीवन
मसि—सागर का पंथ गया बन;
रुका—मुखर कण—कण का स्पंदन!
इस ज्वाला में प्राण—रूप फिर से ढलने दो!

झंझा है दिग्भ्रांत रात की मूर्च्छा गहरी,
आज पुजारी बने, ज्योति का यह लघु प्रहरी,
जब तक लौटे दिन की हलचल,
तब तक यह जागेगा प्रतिपल
रेखाओं में भर आभा जल;
दूत सांझ का इसे प्रभाती तक चलने दो!
यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो!
और तुम्हारे भीतर अगर शून्य, शांत, मौन का आविर्भाव हो जाए, तो फिर क्रिया कांड हुआ, न हुआ; आरती सजी, न सजी; पूजा का थाल रचा गया, न रचा गया; कुछ भेद नहीं पड़ता।

यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो!
फिर नीरव, चुपचाप तुम्हारे प्राणों का दीप जलता रहे, पर्याप्त पूजा है!

रजत शंख—घड़ियाल, स्वर्ण वंशी, वीणा स्वर,
गए आरती वेला को शत—शत लय से भर;
जब था कल—कंठों का मेला
विहंसे उपल, तिमिर था खेला
अब मंदिर में इष्ट अकेला;
इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो।
यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो।
एक ही बात इष्ट है कि तुम्हारे भीतर का दीया जले। फिर वह नीरव हो, बजें शंख, न घड़ियाल, न वीणा के स्वर छिड़े, चलेगा। क्योंकि पर्याप्त है उसका होना।
बस, वह तुम्हारे भीतर का दीया जलता रहे। सब हो गया! या उस दीए की रोशनी में अपने—आप सहज—स्फूर्त नाच उठे, वीणा के स्वर छिड़ें, गीत तुम्हारे ओठों से फूट पड़ें, तो फिर गीत फूटने दो।
दो तरह के लोग हुए इस पृथ्वी पर, दो तरह के लोग हैं—एक है भत्त एक है ध्यानी। ये अस्तित्व दो में बटा हुआ है—जैसे स्त्री—पुरुष; जैसे ऋण विद्युत, धन विद्युत; जैसे अंधेरा और प्रकाश; जैसे जन्म और मृत्यु, वैसे ही ध्यानी और भक्त। ध्यानी के लिए तो पर्याप्त है कि भीतर का दीया जलता रहे, मौन, शून्य—आवाज भी नहीं होगी। बुद्ध के पास बांसुरी नहीं बजी, न घंटे—घड़ियाल, न पूजा के थाल सजे, न धूप, न सुगंध—सुवास, कुछ भी नहीं। लेकिन कृष्ण के पास श्रृंगार सजा, मोर—मुकुट बंधा, ओठों पर बांसुरी आयी, बांसुरी बजी, राधा नाची, रास रचा गया। ये दो तरह के व्यक्ति हैं : एक, जिसके भीतर ध्यान होगा और अभिव्यक्त शून्य में होगा; और एक, जिसके भीतर ध्यान होगा और अभिव्यक्त स्वरों में होगा। दोनों सुंदर हैं। बस खयाल रखना भीतर का, निर्णय भीतर है।
तुम बिल्कुल हाथ पालथी में रख कर बुद्ध की तरह बैठ जाओ और कुछ भी न करो, कोई क्रिया—कांड नहीं, लेकिन भीतर हजार—हजार विचार चलते रहे, तो यह भी क्रिया—कांड है। यह जो तुम हाथ पर हाथ रख कर बैठे हो सिद्धासन में, यह भी क्रिया—कांड है। क्योंकि इसके भीतर भी प्राण नहीं, जीवन नहीं। और तुम नाचो चैतन्य की भांति, न कोई आसन है न कोई सिद्धासन है, मृदंग बज रही है, चैतन्य नाच रहे, साथ उनके प्रेमी नाच रहे—तो भी यह क्रिया—कांड नहीं है। क्रिया मात्र से कोई कांड नहीं हो जाता। क्रिया के पीछे हृदय हो तो क्रिया—कांड नहीं। अक्रिया के पीछे हृदय हो तो अक्रिया भी पूजा बन जाती है। सब कुछ निर्भर करता है तुम्हारे हृदय पर। और इसकी परख तुम्हारे अतिरिक्त और कौन देगा? तुम्हारे हृदय को तुम्हीं जान सकते हो। वहीं कसते रहना, वहीं कसौटी है।

आखिरी प्रश्न :
भगवान, मैं अज्ञानी हूं। मेरे चारों ओर अंधकार ही अंधकार है। मेरे लिए क्या मार्ग है?
संगीत! अंधकार केवल एक बात का प्रमाण है कि आलोक हो सकता है। अंधकार केवल एक चीज का सबूत है कि आलोक संभव है। इसलिए अंधकार को नकारात्मक दृष्टि से मत देखो। नास्तिक की दृष्टि से मत देखो। आस्तिक की दृष्टि से देखो। तो फिर तुम्हें अंधकार में भी रोशनी छिपी मालूम पड़ेगी। अंधकार तो गर्भ है रोशनी का। अंधकार से घबड़ा न जाओ, न भयभीत, न चिंतित—आनंद—मग्न, क्योंकि आती होगी सुबह! और जितना अंधकार घना होता है, भोर उतनी ही करीब होती है।

गहन है यह अंध कारा;
स्वार्थ के अवगुंठनों से
हुआ है लुंठन हमारा।

खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर,
बोलते हैं लोग ज्यों मुंह फेरकर,
इस गगन में नहीं दिनकर,
नहीं शशधर, नहीं तारा।

कल्पना का ही अपार समुद्र यह,
गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह,
कुछ नहीं आता समझ में,
कहां है श्यामल किनारा।

प्रिय मुझे यह चेतना दो देह की,
याद जिससे रहे वंचित गेह की,
खोजता फिरता न पाता हुआ,
मेरा हृदय हारा।
गहन है यह अंध कारा;
स्वार्थ के अवगुंठनों से
हुआ है लुंठन हमारा।
सच कहते हो, अंधेरा है; गहन अंधकार है, चारों ओर अंधकार है! हम बुरी तरह अंधेरे में लुटे हैं। अंधेरा हमें लूट रहा है। मगर अंधेरा हमारे कारण है। जिस दिन यह बात समझ में आ जाएगी, उसी क्षण अंधेरा टूटना शुरू हो जाएगा। क्यों नहीं जलाते दीया? दीया जलाने से कौन रोक रहा है? उसी दीया जलाने के लिए तो मैं निरंतर तुम्हें पुकार दे रहा हूं।

है अंधेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?

कल्पना के हाथ से कम—
नीय जो मंदिर बना था;
भावना के हाथ ने जिसमें
वितानों को तना था
स्वप्न ने अपने करों से
था जिसे रुचि से संवारा;
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों
से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटाकर
ईंट पत्थर कंकड़ों को;
एक अपनी शांति की
कुटिया बनाना कब मना है?
है अंधेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?

बादलों के अश्रु से धोया
गया नभ—नील नीलम
का बनाया था गधा मधु—
पात्र मनमोहक मनोरम
प्रथम उषा की किरण की
लालिमा—सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती
नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर
हाथ की दोनों हथेली,
एक निर्मल स्रोत से
तृष्णा बुझाना कब मना है?
है अंधेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?

क्या घड़ी थी एक भी
चिंता नहीं थी पास आई,
कालिमा तो दूर, छाया,
भी पलक पर थी न छाई,
आंख से मस्ती झपकती,
बात से मस्ती टपकती,
थी हंसी ऐसी जिसे सुन
बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई
उल्लास के आधार माना,
पर अथिरता पर समय की
मुसकराना कब मना है?
है अंधेरी रात पर  
दीवा जलाना कब मना है?

हाय, वे उन्माद के झोंके
कि जिनमें राग जागा,
वैभवों से फेर आंखें
गान का वरदान मांगा,
एक अंतर से ध्वनित हों
दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर अवनि को
मत्तता के गीत गा—गा
अंत उनका हो गया तो
मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई
गुनगुनाना कब मना है?
है अंधेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?

हाय, वे साथी कि चुंबक
लौह—से जो पास आए,
पास क्या आए, हृदय के
बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई
तार बीण के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा,
जिंदगी का गीत गाए,
वे गए तो सोचकर यह
लौटने वाले नहीं, वे,
खोज मन का मीत कोई
लौ लगाना कब मना है?
है अंधेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
रात अंधेरी है, निश्चित अंधेरी है, पर दीया जलाओ! उस दीए का नाम ही ध्यान है। भीतर का दीया जलाओ क्योंकि अंधेरा भी भीतर है। और तुम्हारे कारण है, क्योंकि तुम दीया क्यों नहीं जलाते? क्यों करते हो इतनी कंजूसी, क्यों इतनी कृपणता?
मैंने सुना है, एक आदमी यात्रा पर गया—मारवाड़ी था, महाकंजूस। कोई सात मील पहुंचा होगा तब उसे याद आयी कि मैं दीया तो जलता हुआ छोड़ आया हूं, पता नहीं वह मेरा बेटा बुझाए, बुझाए, न—मालूम कितना तेल जल जाए, और मुझे तो लौटने में अभी दोत्तीन दिन लगेंगे। सो वह लौट आया। सात मील से लौट आया। घर आकर द्वार पर दस्तक दी, बेटे से पूछा कि दीया बुझा दिया कि नहीं? बेटे ने कहा, हद हो गई, क्या तुमने बुद्धू समझा है? मैं भी मारवाड़ी हूं। इधर तुम गए कि उधर मैंने दीया बुझाया। सच तो यह है कि तुम जाने में जो देर लगा रहे थे तो मैं यही सोच रहा था कि कब ये खिसकें, कब मैं दीया बुझाऊं, तेल नाहक जल रहा है! अरे, जब जाना ही है तो जाओ! मगर तुम्हें शर्म नहीं आती, सात मील चल कर आए, जूते घिस गए होंगे!
बाप ने कहा : तूने मुझे समझा क्या है? जूते बगल में दबाकर आया हूं! तेरा बाप हूं, तू मुझे समझता क्या है? जूते और मेरे घिस जाएं!
कौन—सी कृपणता तुम्हें रोक रही है भीतर का दीया जलाने को? और यह दीया ऐसा है, इसमें तेल लगता भी नहीं, मारवाड़ी होओ तो भी जला सकते हो! बिन बाती बिन तेल! इसमें बाती भी नहीं लगती, तेल भी नहीं लगता। यह दीया सच में पूछो तो भीतर जलने को बिल्कुल तत्पर है। "चित चकमक लागै नहीं?" बस तुम्हारे चित्त की चकमक नहीं लग रही है!
चकमक पत्थर देखा न, दो पत्थरों को रगड़ देते हैं, आग पैदा हो जाती है, दीया जल जाता है।
"चित चकमक लागै नहीं!"
बस तुम्हारे चित्त की चकमक ज़रा रगड़ दो कि दीया जला ही है, और भीतर रोशनी हो जाए। और जिसके भीतर रोशनी है, उसके बाहर अंधेरा रहे तो रहे, क्या फिक्र? जिसके भीतर रोशनी है, उसके बाहर भी रोशनी है। और जिसके भीतर अंधेरा है, उसके बाहर भी रोशनी हो तो किस काम की है?

आज इतना ही।



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