पत्र—पाथय—(44)
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय मां,
सुबह
एक पत्र मिला
है। किसी ने
उसमें पूछा है
कि जीवन दुःख
में घिरा है
फिर भी अपि
आनंद की बातें
कैसे करते हैं? जो है उसे
देखें तो आनंद
की बातें
कल्पना
प्रतीत होती
है।
उसे
उत्तर में लिख
रहा हूं कि
निश्चय ही
जीवन दुःख में
घिरा है।
चारों और दुःख
है पर जो घिरा
है वह दुख
नहीं है। जब
तक जो घरे हैं
उसे देखते
रहेंगे दुःख
ही मालूम होगा
पर जिस क्षण
उसे देखने
लगेंगे जो कि घिरा
है तो उसी क्षण
दुःख असत्य हो
जाता है और
आनंद सत्य हो
जाता है। कुल
दृष्टि
परिवर्तन की
बात है। जो
दृष्टि
दृष्टा को
प्रगट कर देती
है वही सम्यक्
दृष्टि है।
दृष्टा के
प्रगट होते ही
सब आनंद हो
जाता है क्योंकि
आनंद उसका
स्वरुप है।
जगत् फिर भी
रहता है पर
नया हो जाता
है। आत्म अज्ञान
के कारण उसमें
जो कांटे मालूम
हुए थे वे अब
कांटे नहीं मालूम
होते हैं।
दुःख
की सत्ता
वास्तविक
नहीं है
क्योंकि परवर्ती
अनुभव से वह
खंडित हो जाती
है। —जागने पर
जैसे स्वरुप
अवास्तविक हो
जाता है वैसे
ही स्व—बोध पर
दुःख हो जाता
है। आनंद सत्य
है कारण वह
स्व है।
13—मार्च—1963
रजनीश
के प्रणाम
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