अध्याय—(नव्वासीवां)
ओशो
के साथ समय
बहुत कीमती
लगता है। मैं
एक दिन के लिए
भी कहीं जाना
नहीं चाहती।
रोज सुबह
प्रवचन में
उनके साथ
बैठना मेरे
लिए एक आशीष
है। हर रोज वे
मुझे मौन में
और—और गहरे ले
जा रहे हैं।
उनकी वाणी
मेरे लिए
चमत्कार जैसा
काम करती है।
जब वे बोलना शुरू
करते हैं तो
मैं अपनी आंखें
बन्द कर लेती
हूं और उछलकूद
करता मेरा मन
एकदम शांत हो
जाता है और
उनकी आवाज मेरे
भीतर ऐसे गूंजने
लगती है जैसे
मेरे नाभि से
उठ रही है। यह
घटना 1979 की है।
मैं चार दिन
ऑफिस से
छुट्टी लेकर
बंबई से पुणे 21
मार्च के
उत्सव के लिए
आई 'हूं और
छह महीने बीत चुके
हैं
फिर भी
वापस जाने का
मन नहीं हो
रहा है। हर
माह ऑफिस में
मेडिकल
सर्टिफिकेट
भेज देती हूं
कि मैं बीमार
हूं। ओशो के
सान्निध्य
में जो घट रहा
है उसके मुकाबले
बाकी सब
अर्थहीन लग
रहा है।
एक
प्रवचन में
ओशो को कहते
हुए सुनती हूँ——सब
उसकी मर्जी पर
छोड़ दो?' मेरे
मन में एक
प्रश्न उठता
है और मैं ओशो
को लिखकर
भेजती हूं।
मेरा
प्रश्न है, प्यारे
ओशो, जीवन
में कई बार
ऐसी
परिस्थितियां
आ जाती हैं कि
व्यक्ति को
स्वयं निर्णय
लेना होता है
कि क्या करे।
उस समय कैसे
समझें कि उसकी
मर्जी क्या है?
यह प्रश्न
मेरी निजी
उलझन से उठा
है। मैं तय
नहीं कर पा
रही हूं कि
क्या करूं।
वापस मुंबई
जाकर ऑफिस
जाना शुरू कर
दूँ या कि
इस्तीफा
भेजकर पुणे मै
ही रुक जाऊं।’
ओशो ने दो
दिन तक मेरे
प्रश्न का
उत्तर नहीं दिया
है। मेरा मन
ओशो का उत्तर—पाने
के लिए छटपटा
रहा है। तीसरे
दिन प्रवचन के
बाद मैं टेप डिपार्टमेंट
में जाती हूं
वहा मैं कुछ
दिनों से काम
में मदद कर
रही हूं।’टेप
लाइब्रेरी' के लौटाए
हुए टेप्स
चेक करती हूं।
आज ’एक
ओंकार सतनाम'
का बॉक्स
चेक कर रही
हूं। टेप की
शुरुआत चेक
की. जाती है, फिर फास्ट
फारवर्ड कर
बीच से टेप को
चलाकर देखा
जाता है। ‘एक
ओंकार सतनाम'
प्रवचनमाला का 13वां
प्रवचन चेक कर
रही हूं। जैसे
ही मैंने
फास्ट फारवर्ड
कर रिकार्डर
का प्ले बटन
दबाया, मुझे
अपने कानों पर
भरोसा ही न
आया। बीच टेप
से ओशो को
कहते हुए
सुनती हूं : ''कैसे पक्का
करोगे कि क्या
है उसकी मर्जी?
बड़े—बड़े
चिंतक यहां
जाकर अटक गए
हैं। क्योंकि
यह तो ठीक है, मान लिया, उसकी आज्ञा
में रहना...।
क्या है उसकी आज्ञा?
उसकी आवाज
उसकी ही है, तुम्हारी
नहीं, किसी
और की नहीं
कैसे पहचानोगे?
इन हजारों आवाजों के
मेले में तुम
कैसे पकड़
पाओगे? रास्ता
है। रास्ता
विचार से नहीं
खुलता। विचार
से तुम कभी तय
न कर पाओगे कि
उसकी आज्ञा
क्या है।
रास्ता खुलता
है जैसे—जैसे
तुम लीन होते
हो ध्यान में समाधि
में—तत्क्षण
उसकी आवाज
सुनाई पड़ने
लगती है।
तुम्हारा अहंकार
भीतर शोरगुल
मचा रहा है, इसलिए
तुम उसकी आवाज
नहीं सुन पा
रहे हो।
तुम्हारा
अहंकार शांत
हो जाए, विचारों
का उपद्रव
भीतर न रहे, तत्क्षण
उसकी आवाज
सुनाई पड़ेगी।’
यह
उत्तर सुनकर
मेरा हृदय
खुशी से झूम
उठता है जैसे
किसी अमूल्य खजाने की
कुंजी हाथ लग
गई है। ओशो का
कोई मुकाबला
नहीं, कैसे—कैसे
अनजाने
रास्तों से
आकर सहायता
करते हैं, कहना
मुश्किल है।
मैं दूसरे दिन
सुबह चार बजे
उठकर ध्यान
में बैठ जाती
हूं। ओशो का
स्मरण कर उनसे
प्रार्थना
करती हूं कि आज
मुझे गहरे
ध्यान में ले
जाएँ, मुझे
उसकी आवाज
सुनती है। बस,
बैठते ही एक
झटका लगा जैसे
किसी ने चलती
कार में गियर
बदला हो। मेरी
चेतना का गियर
बदल गया। मैं
गहरे विश्राम
में चली गई।
जब धान से
बाहर आती हूं
तो घड़ी देखकर
आश्चर्य होता
है, 6. 15 बजे
हैं। सवा दो
घंटे जैसे मैं
किसी और ही
लोक मै थी और पहली
बार उन मौन
क्षणों में
उसकी आवाज
सुनाई पड़ी है।
अब आगे सोच—विचार
करने का कोई
प्रश्न ही
नहीं है, मैं
कागज और पेन
उठाकर ऑफिस के
लिए इस्तीफा
लिख देती हूं।
हृदय से एक भारी
बोझ उतर जाता
है। एकदम हलका
अनुभव कर रही
हूं। ओशो के
प्रति
अनुग्रह के आंसू
थमाए
नहीं थमते।
मेरा आखिरी
सेतु टूट गया
और मैं बिना
पंख जैसे
मुक्त आकाश
में उड़ने
का आनंद ले
रही हूं! मैं
अपने से बहुत
खुश हूं और
ओशो को देखकर
लगता है कि वे
भी मेरे से
खुश हैं। बाद
में पता चलता
है कि अगर
मेरे इस्तीफे
का पत्र ऑफिस
में एक दिन भी
पैरी से
पहुंचता तो
मुझे काफी
आर्थिक
नुकसान होता
क्योंकि ऑफिस
में मेरी
नौकरी टर्मिनेट
करने का तय हो
चुका था। बोध
हुआ कि ओशो
अपने भक्तों
के योग—क्षेम
की भी फिकर
करते हैं।
इन्हीं
दिनों प्रवचन
के दौरान मेरे
साथ कुछ अनूठा
घट रहा है। वो
क्या कह रहे
हैं और मैं
क्या सुन रही
हूं,
कुछ समझ में
ही नहीं आता
है फिर भी कुछ
घट रहा है जो
मेरी बुद्धि
की पकड़ के
बाहर है। मैं
उन्हें लिखकर
भेजती हूं. 'ओशो जाने
क्या तूने कही,
जानें क्या
मैंने सुनी पर
बात कुछ बन ही
गई।’
दो
दिन बाद साहब
मिल साहब भय के
पांचवे
प्रवचन में
ओशो को मेरी
ये दो
पंक्तियां
पढ़ते सुनती
हूं। एक क्षण
में मेरे शरीर
में एक कंपन
की लहर उठ जाती
है। एक तरह की घबड़ाहट
पकड़ लेती है
कि पता नहीं
अब कैसी पिटाई
होगी। आगे ओशो
को कहते हुए
सुनती हूं : 'धर्म
ज्योति, बात
जब बनती है तो
ऐसे ही बनती
है। न तो कुछ
कहने से बनती
है, न कुछ
सुनने से बनती
है। शिष्य और
गुरु के बीच
कहना और सुनना
तो मौण है,
असली बात तो
न कही जाती और
न सुनी जाती।
जैसे एक दीए
से ज्योति
दूसरे दीए —में
सरक जाती है, और जिस दीए
से ज्योति
सरकती है, उसका
कुछ खोता नहीं
और जिस दीए को
मिल जाती हे, उसे सब कुछ
मिल जाता है।
गुरु का कुछ
खोता नहीं, शिष्य को सब
मिल जाता है।
तू ठीक कहती
है धर्म
ज्योति —जाने
क्या तूने कही,
जाने क्या
मैंने सुनी, पर बात कुछ
बन ही गई।’ मैं
भी देख रहा
हूं कि बात बन
रही है। तुझे
देखता हूं तो
प्रसन्न होता
हूं आनंदित
होता हूं। यह
बड़े सौभाग्य
से बनती है, बड़ी मुश्किल
से बनती है।
बनाए—बनाए
नहीं बनती।
लोग लाख उपाय
करते हैं तो
नहीं बनती।
लेकिन अगर कोई
समर्पण कर दे
अपना, सब
छोड़ दे, तो
बन जाती है।
बन रही है
तेरी बात। और
बनेगी, और—और
बनेगी। इस
यात्रा का
प्रारंभ तो है,
अंत नहीं है।
यह कली खुलती
तो है, लेकिन
खुलती ही चली
जाती है। यह
फूल फिर खुलता
ही चला जाता
है। फिर यह
विस्तार इतना
लेता है जितना
आकाश का है।
यह फिर
परमात्मा
जैसा ही विराट
हो जाता है।
इसमें से ही
उद्घोषणा
उठती है—अहं
ब्रह्मास्मि
की, अनलहक की। उठेगी
वह गंध भी, उठेगा
वह गीत भी, जगेगी
वह ऋचा भी।
‘तू चल पड़ी
ठीक दिशा में।
अब पीछे मुड़कर
मत देखना।’
मेरे
भीतर के शून्य
में उनके
आखिरी शब्द
सदा के लिए
अंकित हो जाते
है,
'अब पीछे मुड़कर
मत देखना।’
ओशो।
किस जबान से
और किन शब्दों
से आपको
धन्यवाद दूं।
संत कबीर ने
शायद ऐसे ही
किसी क्षण में
कहा है
गुरु
गोविंद दोउ
खड़े, काके 'लागू
पाय,
बलिहारी
गुरु आपनी
जिन गोविंद
दिया बताय'
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