अध्याय—(बायनवां)
डेढ़ साल
बाद मैं ओशो
से मिलने
रजनीशपुरम
(अमरीका) जा
पाती जहां नया
कम्यून
निर्मित हो
रहा है। ओशो
मौन में हैं
और दोपहर —केवल
ड्राइव के लिए
बाहर आते हैं।
मैं बाकी
संन्यासियों
के साथ सड़क
किनारे लाइन
में खड़ी होकर
ड्राइव बाई के
समय उन्हें
देखती हूं।
उनकी
एक झलक ही
मेरे लिए पर्याप्त
आनंद है। वे
मुझे अपनी एक टोपी
उपहारस्वरूप
भिजवाते हैं, लेकिन
शारीरिक रूप
से हम कभी
नहीं मिल पाते।
ओशो से अगली
बार मैं
दिसंबर 1985 में
मनाली में मिलती
हूं, जब वे
अमेरिका से
वापस आते हैं।
वे बर्फीले
पहाड़ों से
घिरे एक सुंदर
से होटल में
रह रहे हैं, जिसके पीछे
कल—कल करती एक
नदी अपनी पूरी
शान से वह रही
है। मनाली को
देवताओं की
घाटी की तरह
जाना जाता है।
पूरा वातावरण
ही बड़ा
परिपोषक है।
ओशो बहुत
स्वस्थ और
प्रसन्न लगते
हैं। सुबह 1०—3०
बजे जब मैं
कुछ और
मित्रों के
साथ उनके कमरे
में प्रवेश
करती हूं तो
वे एक सोफे पर
बैठे हुए हैं
और हम सब उनके
पास ही फर्श पर
बिछे कालीन पर
बैठ जाते हैं।
शारीरिक रूप
से उनसे दूर
बिताए हुए ये
सारे वर्ष एक
ही क्षण में
मिट जाते हैं।
वे हमें
अमेरिकन जेल
में बिताए
अपने समय का विवरण
सुना रहे हैं,
जो कि मेरी
नाभि केंद्र
पर चोट कर रहा
है। वे जिस
पीड़ा से गुजरे
हैं, वह
मैं महसूस कर
रही हूं और
चुपचाप मेरी आंखों
से आंसू झरने
लगते हैं।
ओशो
के भविष्य का
कार्यक्रम
अभी स्पष्ट
नहीं है। थोड़े
से संन्यासी
जो उनकी
देखभाल कर रहे
है,
बस वे ही
उनके साथ है
बाकी को आने
तो दिया जा रहा
है लेकिन
उन्हें वापस
जाना होता है।
ओशो हमें पूना
कम्यून में
जाकर वहां मदद
करने को कहते
हैं। फिर उठकर
वे बाथरूम में
चले जाते हैं।
हम भारी हृदय
लिए उनके कमरे
से बाहर आ
जाते हैं और
तीन दिन बाद
आगे अपनी—अपनी
यात्रा के लिए
मनाली से
रवाना हो जाते
हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें