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बुधवार, 30 मार्च 2016

आनंद योग—(द बिलिव्‍ड-02)–(प्रवचन–02)

जब संदेह न होकर विश्‍वास होता है—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 11 जूलाई 1976;
श्री ओशो आश्रम पूना।
प्रश्‍नसार:
      1—विश्‍वास करने के निर्णय से विश्‍वास उत्‍पन्‍न क्‍यों नहीं होता?
      2—बाउल, एक तांत्रिक, एक भक्‍त और एक सूफी के मध्‍य.....क्‍या अंतर?
      3—अनुभव और अनुभतियों का अनुसरण करो?
      4—सहष्‍णुता में, स्‍थगित करने में और मात्र मूढ़ता के मध्‍य क्‍या अंतर है?
      5—आपका व्‍यवहार विवेक के प्रति कैसा है?

     
पहला प्रश्न — विश्वास करने के निर्णय मे विश्वास उत्पन्न क्यों नहीं होता?  
तुम्हारी ओर से विश्वास करना, एक निर्णय नहीं है। तुम उसके लिए निर्णय नहीं ले सकते हो। जब तुम्हारे संदेह समाप्त हो जाते हैं, जब तुम संदेह को संदेह की दृष्टि से देखने लगते हो, और तुम संदेह करने की व्यर्थता के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त हो जाते हो, विश्वास का जन्म होता है। तुम्हें संदेह के साथ कुछ करना होगा, तुम्हें विश्वास के लिए कुछ भी करने की जरूरत ही नहीं है। तुम्हारे विश्वास का अधिक महत्त्व न होगा, क्योंकि तुम्हारा विश्वास और तुम्हारा निर्णय हमेशा संदेह के विरुद्ध ही होगा। और विश्वास, संदेह के विपरीत नहीं होता, विश्वास केवल संदेह की अनुपस्थिति होता है। जब संदेह नहीं होता, विश्वास ही होता है। स्मरण रहे, विश्वास किसी के प्रतिकूल या विपरीत नहीं है। शब्दकोष भले ही कुछ भी कहें, विश्वास, संदेह के विपरीत नहीं है ठीक वैसे ही, जैसे अंधकार, प्रकाश के विपरीत नहीं है। वह विपरीत होना प्रतीत होता है, लेकिन है नहीं, क्योंकि अंधकार लाकर तुम प्रकाश को नष्ट नहीं कर सकते। तुम अंधकार को अंदर नहीं ला सकते। प्रकाश के ऊपर अंधकार उडेल कर उसे नष्ट करने का कोई उपाय नहीं है। एक छोटी सी मोमबत्ती की छोटी सी ज्योति को भी, अंधकार नष्ट करने में कभी भी सफल नहीं हो सका है। एक छोटी सी मोमबत्ती के प्रकाश के सामने, पूरे अस्तित्व का अंधकार भी नपुंसक है। ऐसा क्यों होता है? यदि अंधकार, विपरीत है, शत्रुतापूर्ण और विरोधी है, तो प्रकाश को हराने में उसे कभी भी समर्थ होना ही चाहिए। वह केवल अनुपस्थित है। अंधकार इसीलिए है, क्योंकि प्रकाश नहीं है। जब प्रकाश होता है तो अंधकार नहीं होता। जब तुम अपने कमरे में प्रकाश करते हो, क्या तुमने निरीक्षण किया है कि तब क्या होता है? अंधकार कमरे के बाहर नहीं जाता, ऐसा नहीं होता कि अंधकार कमरे से पलायन कर जाता है। साधारण रूप से हम पाते हैं कि वह वहां है ही नहीं। वह कभी वहां था ही नहीं—वह एक शुद्ध नकारात्मकता है।
संदेह भी अंधकार के समान होता है और विश्वास, प्रकाश के समान होता है। यदि तुम्हारे अंदर है, तभी तुम विश्वास करने का निश्चय करोगे, अन्यथा विश्वास का निश्चय करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। फिर उसके लिए निश्चय क्यों करना? तुम्हारे अंदर अत्यधिक संदेह होना ही चाहिए। जितना अधिक बड़ा संदेह होता है, उतनी ही बड़ी जरूरत, विश्वास सृजित करने की अनुभव की जाती है। इसलिए जब कभी कोई भी व्यक्ति यह कहता है—’‘मैं बहुत दृढ़ता से विश्वास करता हूं‘‘, स्मरण रहे, कि वह एक बहुत मजबूत संदेह के विरुद्ध संघर्ष कर रहा है। इसी तरह से लोग कट्टर धार्मिक बन जाते हैं। उनमें कट्टर धार्मिकता का जन्म इसीलिए होता है क्योंकि उन्होंने झूठा विश्वास उत्पन्न कर लिया है। उनका संदेह अभी तक जीवित है, उनका संदेह अभी समाप्त नहीं हुआ है। संदेह अभी तिरोहित नहीं हुआ है, वह अभी भी वहां है। और संदेह से लड़ने के लिए ही उन्होंने उसके विरुद्ध विश्वास सृजित कर लिया है। यदि संदेह बहुत मजबूत है तो उन्हें विश्वास के साथ एक उन्मादी की भांति अपने को लपेटना होगा। जब कभी कोई व्यक्ति यह कहता है—’‘ मैं एक बहुत निष्ठावान विश्वासी हूं ‘‘, तो स्मरण रखना, अपने हृदय में कहीं गहरे में वह बहुत बड़ा अविश्वास लिए चल रहा है। अन्यथा उसे निष्ठावान विश्वासी कहने की जरूरत क्या थी। साधारण विश्वास ही यथेष्ट है—दृढू विश्वास ही क्यों? जब तुम किसी भी व्यक्ति से यह कहते हो—’‘ मैं तुम्हें बहुत दृढ़तापूर्वक प्रेम करता हूं ‘‘, तो कहीं कोई चीज गलत है। प्रेम, काफी है। प्रेम परिमाण में नहीं होता। जब कोई व्यक्ति यह कहता है—’‘ मैं तुम्हें बहुत अधिक प्रेम करता हूं ‘‘, तो कहीं कुछ चीज गलत है, क्योंकि प्रेम में कोई परिमाण नहीं होता। तुम कम या अधिक प्रेम नहीं कर सकते। या तो तुम प्रेम करते हो अथवा नहीं करते, प्रेम। यह विभाजन बहुत अधिक स्पष्ट है।
कुछ दिन पूर्व एक नई पुस्तक प्रकाशित होकर आई और मैं हमेशा उसकी प्रथम प्रति विवेक को दिया करता था। मैंने उस पर लिखा—’‘ विवेक को प्रेम सहित भेंट।’’ उसने मुझसे कहा—’‘ अत्यधिक प्रेम सहित क्यों नहीं?'' मैंने उत्तर दिया— '' यह लिखना असम्भव है। मैं उसे नहीं लिख सकता—क्योंकि मेरे लिए कम या अधिक सम्भव ही नहीं है। मैं तो सामान्य रूप से 'प्रेम सहित' ही लिख सकता हूं 'अत्यधिक प्रेम ' तो निरर्थक है। प्रश्न परिमाण का नहीं है, बल्कि केवल गुण का है। जब तुम ' अधिक 'कहते हो तो तुम उस 'अधिक ' के पीछे जरूर कोई चीज छिपा रहे हो, थोड़ी सी घृणा, थोड़ा सा क्रोध, थोड़ी सी ईर्ष्या, लेकिन कुछ ऐसी चीज जरूर है, जो प्रेम नहीं है। उसे छिपाने के लिए ही तुम इतने अधिक उत्साह का प्रदर्शन कर रहे हो, जिसे तुम 'अत्यधिक प्रेम ‘‘ दृढ़ विश्वास' कहते हो। जब तुम 'बहुत अधिक' या कट्टर ईसाई होते हो, तो तुम ईसाई जरा भी नहीं होते। यदि तुम बहुत अधिक कट्टर हिंदू होते हो, तो तुम अभी तक हिंदू होना समझे ही नहीं।
ठीक पिछली रात ही एक युवती मुझे बता रही थी कि वह भयभीत है। वह मुझसे संन्यास लेना चाहती थी, लेकिन वह भयभीत थी।’’ क्योंकि जीसस क्राइस्ट को अब नम्बर दो पर रखना होगा और आप प्रथम हो जायेंगे।’’ वह बहुत उलझन में थी। यह तो क्राइस्ट को आपके पीछे रखना हो जायेगा ‘‘—उसकी इस बात के प्रत्युत्तर में मैंने उससे कहा—’‘ यदि तुम वास्तव में क्राइस्ट को प्रेम करती हो तो तुम मुझमें ही क्राइस्ट को देखोगी। तब तुम दो भिन्न व्यक्ति नहीं खोज सकोगी। लेकिन यदि तुम ईसाई हो तब ऐसा कठिन होगा। तब तुम संन्यास लेने के बारे में भूल ही जाओ।’’
जो क्राइस्ट से प्रेम करता है, वह मुझसे प्रेम कर सकता है, वहां इसमें कहीं संघर्ष है ही नहीं। जो कृष्ण से प्रेम करता है, वह मुझसे भी प्रेम कर सकता है, वहां इसमें संघर्ष जैसी कोई बात ही नहीं है। लेकिन यदि कोई हिंदू मुसलमान या ईसाई है, तब ऐसा करना कठिन है। एक ईसाई, क्राइस्ट का प्रेमी नहीं है। ईसाई बनना तुम्हारी ओर से लिया गया एक निर्णय है, अभी संदेह पूरी तरह विसर्जित नहीं हुआ है, उस संदेह को दबा दिया गया है। संदेह का दमन मत करो। वस्तुत— इसके विपरीत निरीक्षण करो, गहराई से देखो, उसका विश्लेषण करो।
उसके किसी भी भाग को अनजाना और बिना विश्लेषण के मत छोड़ो। संदेह करने वाले मन की सभी पर्तों के साथ पहचान बनाओ। संदेह में गहरी पैठ करने से, उनसे पहचान बढ़ाने से, संदेह विसर्जित होंगे। एक दिन अचानक जब तुम सुबह जागोगे, तुम विश्वास से भरे हुए होगे—लेकिन अपने निर्णय जैसे नहीं। वह निर्णय लेने जैसा कुछ हो ही नहीं सकता, क्योंकि विश्वास तो कुछ ऐसी चीज है, जिसके साथ तुम जन्मते हो, संदेह तो सीखी हुई चीज होती है, और विश्वास होता है मौन, मूक और जन्मजात।
प्रत्येक बच्चा विश्वास करता है। जैसे—जैसे वह बड़ा होता है, संदेह उठने लगते हैं। संदेह करना सीखा जाता है। इसलिए विश्वास तो तुम्हारे अस्तित्व में एक अंतर्प्रवाह की तरह वहां हमेशा रहता है। तुम बस संदेह गिरा दो, विश्वास उठ खड़ा होगा। और तब विश्वास का अपना एक अनुपम सौंदर्य होता है, क्योंकि वह शुद्ध होता है। वह संदेह के विरुद्ध नहीं होता, वह बस संदेह की अनुपस्थिति होता है। चट्टान हटा दी गई, और झरना उफनता हुआ प्रवाहित होने लगा है।
इसलिए कृपया, उसके बारे में कोई निर्णय लेने का प्रयास मत करें। तुम्हारे निर्णय लेने में देर होगी; और निर्णय लेने में तुम जितना अधिक समय लोगे, उतने ही अधिक तुम अपने अंदर संदेह के बढ़ते कीड़ों को रेंगते हुए पाओगे। तब तुम दो भागों में विभाजित हो जाओगे, और कभी भी विश्राममय नहीं रहोगे, और वहां निरंतर एक पीड़ा बनी रहेगी।
इसीलिए बहुत से लोग परमात्मा में विश्वास करते हैं और उनके गहरे में कहीं संदेह जीवित बना उस अवसर की प्रतीक्षा में धड़कता रहता है, जब वह विश्वास को नष्ट कर दे। ऐसा विश्वास निरर्थक होता है क्योंकि विश्वास परिधि पर होता है और संदेह तुम्हारे अस्तित्व के लगभग केंद्र तक पहुंच गया होता है। प्रेम के बारे में, विश्वास के बारे में और परमात्मा के बारे में कभी कोई निर्णय लेना ही नहीं। ये चीजें तुम्हारे किये गये निर्णय से नहीं होतीं। ये सभी कोई तार्किक निष्पत्ति नहीं हैं, ये निष्कर्ष नहीं हैं। जब वहां कोई भी संदेह नहीं होता, तभी विश्वास होता है।
वह स्वयं से छूटता है। वह प्रवाहित होता है। वह तुम्हारे आंतरिक केंद्र और आंतरिक समाधि से उमगता है। तुम अपने अस्तित्व का एक नूतन संगीत सुनना शुरू कर देते हो। तुम्हारे होने की एक नूतन शैली और फिर एक नया ढंग होता है। वह मन का नहीं, अस्तित्वगत होता है।

 दूसरा प्रश्न : एक बाउल? एक तांत्रिक एक भक्त और एक सूफी के मध्य वास्तव में क्या अंतर होत? है? क्या यह सभी लोग प्रेम पथ के ही पथिक हैं? ये सभी अंदर से मिले—जुले एक जैसे ही लगते हैं कृपया बोध देने की अनुकम्पा करो।

 किसी हद तक ये सीमाएं एक दूसरे को आच्छादित करती हुई बाहर से अलग भी दिखाई देती हैं। इन सभी का मार्ग प्रेम ही है, लेकिन फिर भी इन सभी में कुछ सूक्ष्म विशेषताएं हैं। एक दूसरे को आच्छादित करती सीमाओं के साथ—साथ, तांत्रिक बाउल और भक्त, इन तीनों में कुछ चीजें विशिष्ट हैं। सूफी भी एक भक्त से अलग नहीं होता। सूफी भक्त है—इस्लाम के मार्ग का और एक भक्त, सूफी होता है हिंदुत्व के मार्ग का। भक्ति और सूफी में कोई अंतर होता ही नहीं, इसलिए हम इसका जिक्र करेंगे ही नहीं। अंतर केवल पारिभाषिक शब्दावली का है। सूफी इस्लाम के पारिभाषिक शब्दों का और एक भक्त, हिंदू परिभाषिक शब्दों का प्रयोग करते हैं। अंतर केवल भाषा का है, और किसी अंतर का कोई महत्त्व नहीं है। बाउल, तांत्रिक और भक्त, इन तीनों को ही समझना है।
प्रेम की तीन सम्भावनाएं हैं — सबसे निम्‍न तल पर सेक्स या कामवासना, सेक्स से ऊंचा तल है प्रेम, और प्रार्थना है सर्वोच्च शिखर। तांत्रिक सेक्स की दिशा की ओर ही उन्मुख है। तांत्रिक वास्तव में प्रेम से दूर रहते हैं, क्योंकि प्रेम फंसाने वाला जंजाल बन जाएगा। वे सेक्स की शुद्ध तकनीक के विशेषज्ञ बने रहते हैं। सेक्स की ऊर्जा के प्रति वे तटस्थ वैज्ञानिक की भांति कार्य करते हैं। वे इसके बीच प्रेम को नहीं लाते हैं। वे ऊर्जा का रूपांतरण करते हैं। उनमें प्रेम भी उमगता है, प्रार्थना भी जन्मती है, लेकिन ये केवल परिणाम होते हैं। वे छाया की तरह उसका अनुगमन करते हैं, लेकिन वे सेक्स ऊर्जा की ओर ही उन्मुख होते हैं। तांत्रिक का पूरा कार्य और उसकी पूरी प्रयोगशाला सेक्स केंद्रित ही होती है। वह वहीं, उस व्यक्ति से निरासक्त, अलग और लगभग तटस्थ होकर ही रहता है। जिस किसी के भी साथ वह प्रेम या संभोग करता है, वह पूरी तरह उससे पृथक और निरासक्त बना रहता है। तंत्र की विधि का यह एक भाग है कि तुम्हें उस व्यक्ति से कोई जुड़ाव या आसक्ति नहीं होनी चाहिए। इसी वजह से तांत्रिक कहते हैं : तंत्र की विधियां अपनी पत्नी या प्रेमिका के साथ मत करो। किसी ऐसी स्त्री की खोज करो, जिसके साथ तुम्हारा कोई भी सम्बंध न हो, जिससे तुम एक शुद्ध तकनीशियन बने रह सको। यह विधि पूर्ण वैज्ञानिक है।
यह ठीक इस तरह है : जैसे तुम एक महान सर्जन या शल्य चिकित्सक होकर हजारों आपरेशन कर सकते हो, लेकिन जब तुम्हें अपने ही हाथों से अपनी पत्नी का आपरेशन करना पड़े, तो तुम्हारे हाथ कापना शुरू हो जाते हैं। यदि तुम्हें अपने ही लड़के का आपरेशन करना पड़े, तो तुम्हें किसी दूसरे सर्जन को बुलाना पडेगा। वह भले ही तुम्हारा जितना होशियार न हो, लेकिन फिर भी तुम्हें किसी दूसरे को ही बुलाना पड़ेगा—क्योंकि आवश्यकता ऐसे सर्जन की है, जो मरीज से पूरी तरह असम्बंधित और निरासक्त हो। केवल तभी शल्य क्रिया पूर्णता से वैज्ञानिक हो सकता है।
तांत्रिक को पूरी तरह से वैज्ञानिक दृष्टिकोण का होना होता है। वह किसी ऐसी स्त्री या ऐसे पुरुष को खोजेगा, जो उससे किसी भी तरह सम्बंधित न हो। और तांत्रिक प्रक्रियाओं में किसी के साथ जाने से पूर्व, महीनों तैयारी की जरूरत होती है। और पूरी तैयारी यही है कि कैसे प्रेम की भावना से दूर रहा जाए कैसे उस दूसरे व्यक्ति के साथ गहरे सम्बंधों में गिरने से अपने को रोक कर तटस्थ रहा जाये। अन्यथा पूरी विधि का कोई भी उपयोग न हो सकेगा।
बाउल प्रेम की ओर उन्मुख है। बाउल के जीवन में यदि सेक्स आता है तो वह केवल एक छाया की भांति आता है। वह उसके प्रेम का ही एक भाग है। वह सेक्स से भयभीत नहीं होता, लेकिन वह सेक्स की ओर उन्मुख नहीं है। वह एक स्त्री से प्रेम करता है : क्योंकि वह उस स्त्री से प्रेम करता है, वह उसके साथ वह सब कुछ बांटना चाहता है, जो उसके पास है, जिसमें सेक्स ऊर्जा भी सम्मिलित है। लेकिन सेक्स उसकी प्रयोगशाला नहीं है; उसकी प्रयोगशाला प्रेम है, गहरा सम्बंध है, दूसरे व्यक्ति की पूरी देखभाल और फिक्र है—इतनी अधिक फिक्र कि तुम स्वयं कम महत्त्वपूर्ण और दूसरा अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है। तांत्रिक के मार्ग में जो कुछ बाधा है, वही बाउल का मार्ग है। यदि बीच में सेक्स आता है, तो ठीक है, यदि वह नहीं आता है, तो वह भी ठीक है। सेक्स कोई लक्ष्य नहीं है। और वह सेक्स के स्वाभाविक प्रवाह पर कार्य नहीं कर रहा है, वह प्रेम की सूक्ष्म ऊर्जा पर कार्य कर रहा है। जैसे एक तांत्रिक बीज पर कार्य कर रहा है, बाउल फूल पर कार्य कर रहा है, और भक्त अथवा सूफी, सुगंध अथवा प्रेम पुष्प की सुवास पर कार्य कर रहे हैं। प्रार्थना, सेक्स ऊर्जा का उच्चतम रूप है, प्रेम से भी ऊंचा। यह प्रेम पुष्प की सुवास है, अति सूक्ष्म, सारी स्थूलता चली गई। भक्त या सूफी प्रार्थना पर ही कार्य करता है। यदि प्रार्थना का अनुसरण करते हुए प्रेम प्रविष्ट होता है, तो उसकी इजाजत होती है। उस बारे में कोई भी समस्या नहीं है। यहां तक कि यदि प्रेम का अनुसरण करते हुए सेक्स भी प्रविष्ट होता है, तो उसकी भी इजाजत होती है—लेकिन पूरा ध्यान, प्रार्थना पर ही केन्द्रित रहता है। इसलिए यदि एक भक्त किसी दूसरे व्यक्ति से प्रेम करता है, तो वह प्रार्थना का ही एक रूप है। दूसरा व्यक्ति दिव्य है, दूसरा व्यक्ति देवता या देवी है। वह पवित्र प्रेम करता है।
बाउल ठीक इन दोनों के मध्य में है। वह तांत्रिक, भक्त अथवा सूफी इन दोनों के मध्य एक सेतु है।
कठिनाइयां तो तांत्रिक के साथ हैं। वह कठिनाई है—क्योंकि वह अधिक स्थूल है, और सम्भावना इस बात की है कि तुम इस स्थूलता में ही खो न जाओ। वह कहीं तुम्हें अपने नियंत्रण में न ले ले, तुम पर हावी न हो जाए। सेक्स की ऊर्जा अति भयंकर है, वह आदिम ऊर्जा हे, बहुत तूफानी है वह, और तुम एक सागर में गतिशील हो रहे हो। सागर में प्रचण्ड तूफान उठ रहे हैं, और तुम्हारे पास एक छोटी सी डोंगी है, और सफर बहुत खतरनाक है। तंत्र के मार्ग में प्रवेश करना तो बहुत सरल है, लेकिन उससे बाहर आना उतना ही कठिन है। यदि सौ लोग प्रविष्ट होते हैं, तो केवल एक ही बच पाता है—क्योंकि तुम आदिम ऊर्जा के साथ खेल रहे हो। यह ऊर्जा इतनी अधिक प्रचण्ड है कि वहां इस बात की सम्भावना अधिक है कि वह तुम्हें अपने नियंत्रण में कर ले।
प्रार्थना का, सुवास का मार्ग भी कठिन है। तुम सुवास को देख नहीं सकते, वह पकड़ में नहीं आती। प्रार्थना के मार्ग में प्रवेश करना बहुत कठिन है। यदि तुम प्रविष्ट हो जाते हो, तो तुम उससे सरलता से बाहर आ जाते हो। तंत्र के मार्ग में प्रविष्ट होना तो बहुत आसान है, लेकिन उससे बाहर आना बहुत कठिन है। प्रार्थना में प्रवेश करना बहुत कठिन है, लेकिन उसके बाहर आना बहुत आसान है। उसमें प्रविष्ट होना लगभग असम्भव है—तुम जब प्रेम के बारे में ही कुछ नहीं जानते, तो प्रार्थना के बारे में तो क्या कहा जाए? यह तुम्हारे लिए मात्र एक शब्द है, जिसके साथ कोई विषय—सामग्री नहीं है, वह वास्तविकता से पृथक बहुत बहुत सूक्ष्म और दूर है। जो प्रार्थना है, तुम उसके साथ कोई सम्बंध या सम्पर्क नहीं बना सकते। इसलिए तुम अधिक से अधिक एक विशिष्ट कर्मकाण्ड के शिकार बन जाते हो। तुम एक प्रार्थना को दोहरा सकते हो : वह केवल मौखिक उच्चारण मात्र होगा, वह मन की ही एक सामग्री और मन का ही एक खेल है। सामान्यत: प्रार्थना के पथ पर प्रवेश करना ही कठिन होगा।
बाउल का मार्ग ठीक मध्य में है। इसमें प्रवेश करना, तंत्र के मार्ग जितना सरल नहीं है, और न प्रार्थना के मार्ग जितना कठिन है। यह मनुष्य के लिए सम्भव है। बाउल बहुत यथार्थवादी हैं, जमीन से बहुत अधिक जुड़े हैं, और उनका मार्ग यथासम्भव सबसे अधिक सुरक्षित मार्ग है। ठीक मध्य में, दोनों में एक संतुलन स्थापित करने वाला—एक हाथ सेक्स की ओर उन्मुख और दूसरा हाथ प्रार्थना में उठा हुआ। बाउल ठीक मध्य में चलने वाले यात्री हैं।

 तीसरा प्रश्न : आप कहते हैं— तुम अपने अनुभवों और अनुभूतियों का अनुसरण करो, और जब मैं अंतिम रूप से साहस कर अधिक स्वतंत्रता प्रसन्नता और सरलता से अपनी अनुभूतियों और अनुभवों का अनुसरण करती हूं तो आप कहते हैं कि मैं अपरिपक्‍व हूं। आखिर इसका क्या अर्थ है?

 तुम्हारे प्रश्न का ठीक यही अर्थ है, जो स्वयं कह रहा है—कि तुम अपरिपक्व हो। अपरिपक्वता और होती ही क्या है? तुम जो कुछ भी कर रही हो, तुम लगभग उसे मूर्च्छा में ही कर रही हो। हां, मैं यह कहता हूं—सहज स्वाभाविक बनकर रहो, लेकिन मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि मूर्च्छित बनो। मेरा अर्थ है—सजग बने रहकर सहज स्वाभाविक बनो। सहज स्वाभाविक बनने से तुम तुरंत यह समझ लेती हो कि नदी में बहने वाला लकड़ी का स्लीपर बन जाना है, जिससे तुम्हारे मन की धारा तुम्हें जहां भी बहा ले जाये, तुमसे जो कुछ भी कराये, वह होने देना है। तुम अप्रत्याशित अथवा एक संयोग बन कर रह गई हो।
अपरिपक्वता एक मनुष्य को संयोग से होने वाली एक घटना बना देती है, और परिपक्वता व्यक्ति को एक दिशा देती है।
'मेच्‍योरिटी' अर्थात परिपक्वता शब्द का लेटिन मूल शब्द है—' मेचुरस ' जिसका अर्थ है —पकना। एक फल तभी परिपक्व होता है, जब वह पक जाता है, जब वह मीठा बन जाता है और खाने तथा पचने के लिए तैयार होता है, जब वह किसी के जीवन का भाग बन सकता है। परिपक्व व्यक्ति वह होता है जो यह जान लेता है कि प्रेम क्या है और प्रेम ही ने उसे मधुर और मीठा बनाया है।
अब माधुरी जो कुछ कर रही है, वह प्रेम नहीं है, वह केवल एक सनक है कामवासना की—इसलिए एक दिन वह एक पुरुष के साथ घूमती है, और दूसरे दिन दूसरे पुरुष के साथ। यह बहुत विध्वंसक और विनाशक है। स्मरण रहे, जो कुछ मैं कहता हूं उसे ठीक से समझने की जरूरत है, अन्यथा मेरा कहना सहायक न हो सकेगा। वह हानिकारक ही बन जायेगा।
एक बार ऐसा हुआ:
मुल्ला नसरुद्दीन घर आया। उसकी पत्नी ने उससे पूछा—’‘ नसरुद्दीन! जब तुमने अपने बॉस से वेतन बढ़ाने को कहा, तो आखिर उसका हुआ क्या?''
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा—’‘ वह एक भेड़ के मेमने की तरह है।’’
'' क्या सचमुच, ऐसा है वह? लेकिन उसे कहा क्या?''
— '' बा...... बा.....।’’

 जो कुछ मैं कहता हूं कृपया उसे सावधानी से सुनो और उससे अपने अलग अर्थ न निकालो उसके अर्थ को विकृत न करो। सहज स्वाभाविक बनो। लेकिन तुम सहज स्वाभाविक केवल तभी बन सकती हो, जब तुम बहुत सजग बनी रहो। अन्यथा तुम एक संयोग या दुर्घटना बन जाओगी—एक क्षण तुम उत्तर दिशा की ओर जा रही होगी और दूसरे ही क्षण दक्षिण दिशा की ओर। तुम दिशा ज्ञान ही खो दोगी। एक सहज स्वाभाविक व्यक्ति प्रत्येक क्षण प्रत्युत्तर में स्वयं तैयार रहता है। कभी उसे उत्तर की ओर कभी दूसरे लोग उसे दक्षिण दिशा की ओर जाते देख सकते हैं, लेकिन उसकी आंतरिक दिशा पूरी तरह से निश्चित बनी रहती है। उसकी आंतरिक दिशा लक्ष्य की ओर जाते तीर की भांति होती है। परिस्थितियों के अनुसार वह समायोजन कर सकता है, लेकिन जब एक बार वह व्यवस्थित हो जाता है, वह फिर से ऊर्जा प्राप्त कर अपनी दिशा की ओर गतिशील होने की शुरुआत करता है। दिशा के लिए उसके पास अपनी अनुभूति होती है, लेकिन वह अनुभूति तभी होती है जब तुम अत्यंत सजग होते हो अन्यथा तुम्हारी स्वाभाविकता तुम्हारा कद घटा कर तुम्हें केवल एक पशु बना देती है। पशु सहजता स्वाभाविक होकर जीते हैं, लेकिन वे बुद्ध नहीं होते। इसलिए केवल सहजता और स्वाभाविक किसी व्यक्ति को बुद्ध नहीं बना सकती, इससे कुछ अधिक और, किसी और चीज को जोड्ने की आवश्यकता होती है सहजता और स्वाभाविकता में सजगता जोड़नी होती है। तब तुम एक यांत्रिकता बनकर नहीं रह जाते और न तुम नदी की धारा के साथ बहने वाला लकड़ी का एक स्लीपर होते हो।
सागर पर तैरने वाले एक जहाज के डॉक्टर ने परिचारक को सूचना दी कि शयनकक्ष नम्बर पैंतालीस में एक व्यक्ति मर गया है। शव को दफनाने के सामान्य निर्देश दे दिए गए। कुछ समय पश्चात डॉक्टर ने उस केबिन में झांक कर देखा तो पाया कि शव अब भी वहां पड़ा हुआ है। उन्होंने परिचारक को बुलाकर उसका ध्यान उस ओर जब आकर्षित किया तो उसने उत्तर दिया—’‘ मेरा खयाल था कि आपने केबिन नम्बर उन्चास के बाबत कहा था। मैं उस केबिन में गया, तो मैंने देखा कि उन लोगों में से एक व्यक्ति अपनी बर्थ पर लेटा है। मैंने उससे पूछा—क्या तुम मर गये हो?'' उसने कहा—’‘ करीब करीब एक सीमा तक मरा ही समझो।’’ इसलिए मैंने उसे दफना दिया।’’

 फिर भी यदि कोई व्यक्ति यह कहता है—’‘ करीब करीब एक सीमा तक मरा ही समझो, तो इसका अर्थ है कि वह जीवित है। बहुत अधिक भाषा पर मत जाओ, बहुत अधिक शाब्दिक मत बनो। मैं तुम्हें अपनी भावनाओं और अनुभूतियों की बात सुनने के लिए कहता हूं लेकिन मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें खण्डित बन जाना चाहिए। मेरे कहने का अर्थ है कि तुम अपनी अनुभूतियों की बात तो सुनो, लेकिन तुम्हारे सभी अनुभव और अनुभूतियों एक गुंथी हुई माला बन जायें। उन्हें फूलों के एक ढेर की तरह नहीं होना चाहिए। तुम्हारे अनुभव और अनुभूतियां एक फूलों की माला की तरह होनी चाहिए और सभी फूलों के अंदर एक दौड़ता धागा हो जो उन्हें एक दूसरे से बांधे रहे। हो सकता है कि कोई भी उसे न देख सके लेकिन उन्हें जोड्ने वाला धागा एक निरंतरता देता है — यह निरंतरता ही दिशा है। जब तक तुम्हारी अनुभूतियां एक फूलों का हार नहीं बनतीं, तुम टुकड़ों में बिखर जाओगी, तुम खण्ड—खण्ड हो जाओगी, तुम अपनी सहभागिता खो दोगी।’’
हां! मैंने माधुरी से अपने अनुभवों और अनुभूतियों के अनुसार सहजता और स्वाभाविकता से जीवन में गतिशील होने को कहा था। लेकिन मैं निरंतर सब कुछ करने पर जोर तो देता रहा हूं लेकिन सदा यह भी स्मरण रखना है कि इसके साथ सजगता रखना भी आवश्यक है, जो बुनियादी जरूरत है—तब तुम जो कुछ करना चाहो, करो। तुम जो कुछ भी कर रही हो, यदि उसे करने में कुछ चीज ऐसी है, जिसमें सजगता बाधा बन रही हो, तो उसे मत करना। यदि वहां तुम कोई काम ऐसा कर रही हो, जिसमें सजगता बाधा न बन कर, उसके विपरीत तुम्हारी सहायता कर रही हो, तो उसे जरूर करना।
ठीक और गलत की पूरी परिभाषा ही यही है। गलत वही है जो सजगता के साथ न किया जा सकता हो, जिसके लिए मूर्च्छा जरूरी हो। ठीक वह है, जो केवल सजगता के साथ ही किया जा सकता हो, जिसके लिए मूर्च्छा को हटाना हो, अन्यथा उसे किया ही न जा सकता हो। सजगता अत्यंत आवश्यक है। ठीक वही है, जिसके लिए सजगता आवश्यक हो, और गलत वही है, जिसके लिए मूर्च्छा जरूरी हो। मेरी यही परिभाषा पाप और पुण्य के लिए भी है। और तय तुम्हें करना है; सारी जिम्मेदारी तुम्हारी ही है।

 एक बार ऐसा हुआ : एक चिंतित स्त्री अपने डॉक्टर के पास गई और उससे कहा कि उसके पति में पौरुष की कुछ कमी प्रतीत होती है क्योंकि वह उसमें कोई रुचि लेता ही नहीं। उसने उसे दवा देते हुए कहा—’‘ यह गोलियां तुम्हारी सहायता करेंगी। अगली बार जब तुम और तुम्हारे पति शांति से साथ—साथ भोजन करें तो इनमें से दो गोलियां उसकी काफी में मिला देना और वे अपने सहज स्वाभाविक रूप में आ जायेंगे। इसके बाद मुझे फिर आकर बताना।’’
दो सप्ताह बाद वह स्त्री फिर डॉक्टर के पास गई और डॉक्टर ने पूछा कि उसका उपचार सफल सिद्ध हुआ या नहीं?
उसने उत्तर दिया—’‘ ओह! पूरी तरह से लाजवाब। मैंने रेस्तरां में उसकी कॉफी में दो गोलियां मिला दीं और उसके दो सिप लेने के बाद ही वह मुझसे प्रेम करने लगा।’’
डॉक्टर ने मुस्कराते हुए कहा—’‘ बढ़िया! अब तो आपको कोई शिकायत नहीं?''
उसने उत्तर दिया—’‘ ठीक है, फिर भी एक शिकायत है। मेरे पति और मैं अब कभी अपने को उस रेस्तरां में अपना मुंह नहीं दिखा सकते।’’

 स्मरण रहे माधुरी! मैं जो कुछ भी कहता हूं उसे ध्यान से समझना है, क्योंकि अंत में तुम्हीं को यह निर्णय लेना है कि उन दो गोलियों का प्रयोग कहां किया जाये मैं तुम्हारा पीछा नहीं कर सकता। यह तुम ही तय करोगी कि कहां स्वाभाविक हुआ जाये, कैसे सहज और स्वाभाविक बना जाए। और कोई मूर्च्छा नहीं है सहजता और स्वाभाविकता। सहजता स्वाभाविकता में बहुत सजग बहुत सावधान और बहुत दायित्वपूर्ण होना है। तुम केवल चारों ओर बेवकूफ बनी घूम रही हो।
तुमने पूछा है—’‘ आप कहते हैं—तुम अपने अनुभवों और अनुभूतियों का अनुसरण करो, और जब मैं अंत में साहस कर अधिक स्वतंत्रता, प्रसन्नता और सरलता से अपने अनुभवों और अनुभूतियों का अनुसरण करती हूं तो आप कहते हैं कि मैं अपरिपक्व हूं। आखिर इसका क्या अर्थ है?''
अपने दिए गये वक्तव्य के साथ मैं तुम्हें देखने के लिए एक खास रस्सी भी देता हूं। मैं तुम्हें वह विशिष्ट रस्सी इसीलिए देता हूं जिससे जब मैं देखूं कि तुम पागल बन रहे हो, तब मुझे तुम्हें वापस खींचना होता है। मैं निरीक्षण करते हुए देखता रहता हूं कि माधुरी क्या कर रही है, लेकिन अब बहुत, कुछ बहुत अधिक हो चुका है।

 मैं तुम्हें एक प्रसंग के बारे में बताना चाहता हूं : अब्दुल, अरब के भूरे रेगिस्तान में यात्रा कर रहा था। उसका ऊंट रेत पर बैठ गया और उसने उठने से साफ इंकार कर दिया। आखिर लम्बी प्रतीक्षा के बाद एक दूसरा अरब उसे मिला और अब्दुल ने उसे अपनी समस्या बतलाई।
दूसरे अरब ने उससे कहा—’‘ मैं उसे ठीक कर सकता हूं। केवल तुम्हें इसके लिए चांदी के पांच सिक्के खर्च करने होंगे।
अब्दुल ने कहा—’‘ यह सस्ता सौदा है, इसलिए तुम आगे बढ़कर इस ऊंट को उठाओ।’’
इसलिए बिना बात का बतंगड़ बनाये वह अरब झुककर अब्दुल के ऊंट के निकट आया और उसके कान में फुसफुसाते हुए कुछ शब्द कहे। अचानक ऊंट उछल कर अपने पैरों पर खड़ा हो गया और एक शिकारी कुत्ते की तरह रेगिस्तान में दौड़ पड़ा।
अब्दुल आश्चर्यचकित होकर प्रसन्नता से बोला—’‘ तुम्हारी इस तरकीब की कीमत वाकई पांच चांदी के सिक्कों से काफी अधिक है।’’
उस दूसरे अरब ने उत्तर दिया—’‘ मैं जानता हूं। और मैं वह जादू भरे शब्द तुम्हें बताऊं, मैं तुमसे पांच सौ चांदी के सिक्के चाहता हूं जिससे तुम अपने ऊंट को वापस पकड सको।’’

 यह केवल आधी कहानी है : अब तुम्हें उस ऊंट को पकड़ना होगा...... अब पांच सौ चांदी के सिक्कों की जरूरत है। जब तक वह दूसरा अरब उसी मंत्र को अब्दुल के कानों को नहीं सुनाता, वह अपना ऊंट नहीं पकड़ सकता।
माधुरी! तुम्हारी कामनाएं भी शिकारी कुत्तों की तरह दौड़ रही हैं। यह आसान था, इसकी कीमत केवल पांच सौ रुपये है, तभी तुम अपना ऊंट पकड़ सकोगी, और इसकी कीमत पांच सौ रुपये होगी। यह तुम्हारे लिए अधिक स्कूर्तिदायक होगा।
कामनाओं के साथ गति करते हुए किसी को भी हमेशा पूर्णता का अनुभव होता है, क्योंकि कोई भी लगभग पशु के समान ही बन जाता है। इसमें प्रसन्नता जैसा ही अनुभव होता है क्योंकि वहां कोई तनाव नहीं होता, कोई जिम्मेदारी नहीं होती। तुम इस बारे में दूसरे व्यक्ति के बारे में कोई भी फिक्र नहीं करते। अब तुम्हें ऊंट को पकड़ना है।
हां, मैंने मैं तुमसे अपने अनुभवों और अनुभूतियों के साथ स्वतंत्र होने के लिए कहा था, अब मैं तुमसे सजग बनने के लिए भी कह रहा हूं। यह अधिक श्रमपूर्ण होगा, लेकिन यदि तुम सजग रह सकीं तो तुम वास्तव में सरल और पूर्ण बन सकोगी। यह सरलता और कुछ भी नहीं है, यह केवल अपने बचपन में पीछे लौटना अथवा अपने पशुत्व में पीछे लौटना है। मैं तुमसे जिस सरलता को उपलब्ध होने के लिए कहता हूं वह सहजता और सरलता एक बुद्ध की है, वह पशुत्व की ओर पीछे न लौटकर, जीवन के चरम शिखर पर पहुंचने की है। तुम्हारी यह सरलता और सहजता तुम्हारी अधिक सहायता करने नहीं जा रही है। इसने किसी की भी सहायता नहीं की है। यह सरलता बहुत आदिम, छिछली और अपरिपक्व है।
लेकिन मैं यह देखना चाहता हूं कि तुम क्या करती हो, और मैंने यह देखा भी है कि तुम क्या कर रही हो। अब तुम्हें अधिक सजग बनना है। अपने जीवन में एक अनुशासन लाओ, उसे एक दिशा दो। अधिक सावधान, अधिक प्रेमपूर्ण और अधिक जिम्मेदार बनो। तुम्हें अपने शरीर को पूरा सम्मान देना है, यह परमात्मा का मंदिर है। तुम्हें इसके साथ इस तरह का व्यवहार नहीं करना है, जिस तरह का तुम कर रही हो, यह उसका अनादर करना है। लेकिन यह कठोरता होगी, यह मैं जानता हूं। लेकिन मैं स्थितियां निर्मित करता हूं जिनके लिए कठोर चीजें करनी ही होती हैं क्योंकि विकसित होने का केवल यही एक ढंग है।

 चौथा प्रश्न : सहिष्णुता में, स्थगित करने में और मात्र मूढ़ता के मध्य क्या अंतर है?

 हां, यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है क्योंकि लोग इन तीनों के बारे में भ्रमित हो सकते है।
सहिष्णुता में बहुत सजगता होती है, बहुत सक्रियता होती है और सहिष्णुता में अत्यंत धैर्य और प्रतीक्षा होती है। यदि तुम किसी की प्रतीक्षा कर रहे हो—जिसे तुम अपना मित्र कहते हो—तो तुम बस दरवाजे पर बैठे रहते हो, लेकिन तुम बहुत सजग और सावधान रहते हो। सड़क से कोई भी आवाज आती है, कोई कार गुजरती है, और तुरंत तुम उस ओर देखना शुरू कर देते हो, शायद तुम्हारा मित्र आ गया हो। हवा से दरवाजा खड़कता है, और अचानक तुम सजग हो जाते हो, हो सकता है उसने दरवाजा खटखटाया हो..... .उद्यान में सूखी पत्तियां इधर—उधर उडती हुई खड़खड़ाती हैं और तुम घर के बाहर आ जाते हो, शायद वह आ गया है..... .सहिष्णुता बहुत सक्रिय होती है। उसमें प्रतीक्षा होती है। उसमें सुस्ती न होकर उसकी दृष्टि में प्रेम, आशा और आनंद की दीप्ति होती है। उसमें मूर्च्छा नहीं होती और न गफलत जैसी ही कोई चीज होती है। वह एक द्युतिवान जलती हुई ज्योति की भांति होती है। इसमें कोई प्रतीक्षा करता है। कोई भी अनंत प्रतीक्षा कर सकता है, लेकिन वह प्रेम, आशा और आनंद से प्रतीक्षा करता है, वह सक्रिय, सजग और निरीक्षणकर्ता बना रहता है।
इसके ठीक विपरीत है—मात्र मूढ़ता। तुम बस सुस्त, बेवकूफ और मूढ़ बने एक गफलत में होते हो और तुम सोच सकते हो कि तुम सहनशील या संतोषी हो। तुम यह सोच कर प्रसन्न हो सकते हो कि जो दूसरे लोग कठिन परिश्रम करते हुए कहीं पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं, वे असंतोषी हैं, जब कि तुम एक संतोषी व्यक्ति हो। लेकिन स्मरण रहे, सहिष्णुता को कार्य की आवश्यकता होती है। सहिष्णुता, निष्कि्रय नहीं होती। एक सक्रिय व्यक्ति धैर्यपूर्वक कार्य करता है। वह कोई मांग नहीं करता, उसकी जरूरतें बहुत अधिक नहीं होतीं, उसमें कोई जल्दबाजी नहीं होती, उसे तुरंत या शीघ्र सतोरी या समाधि घट जाये, ऐसी उसकी कोई चाह नहीं होती। वह जानता है कि यह श्रमपूर्ण और बहुत कठोर मार्ग है। वह जानता है कि मार्ग बहुत कठिन है और एक हजार एक बार गड्डों में गिरने की सम्भावनाएं हैं। खोना बहुत आसान है, और प्राप्त करना बहुत कठिन। वह जानता है कि 'उसे' पाना लगभग असम्भव है—लेकिन यही उसका आकर्षण है और यही उसके लिए एक चुनौती है। परमात्मा को पाना लगभग असम्भव है, लेकिन यही उसका सौंदर्य है, और यही चुनौती है। उस चुनौती को स्वीकार करना होता है। वह कठोर श्रम करता है और फिर भी यह भली भांति जानते हुए भी कि उसकी चाह असम्भव को पाने की है, और उसकी अपनी सीमाएं हैं, वह कोई शिकायत नहीं करता।
परमात्मा को जानना और परमात्मा ही हो जाना, यह उत्कंठा लगभग असम्भव है। यह अविश्वसनीय है पर यह घटती है। यही कारण है कि लोग इंकार किए चले जाते हैं कि बुद्ध कभी हुए भी थे, जीसस केवल एक काल्पनिक कथा के पात्र हैं, और कृष्ण, कवियों की कल्पना भर हैं। इतने अधिक लोग इस बात का आग्रह क्यों करते हैं कि बुद्ध केवल काल्पनिक कथा के एक चरित्र हैं और जीसस और कृष्ण कभी हुए ही नहीं। आखिर क्यों? वे लोग केवल यही कह रहे हैं कि यह पूरी बात असम्भव प्रतीत होती है और ऐसा हो ही नहीं सकता।
एक तरह से ये लोग ठीक ही हैं, ऐसा नहीं हो सकता, लेकिन फिर भी ऐसा होता है। पर ऐसा बहुत कम होता है। यह इतना अधिक दुर्लभ या कम है कि तुम यह कह सकते हो कि ऐसा बिलकुल होता ही नहीं। जब कभी हजारों वर्ष गुजरने के बाद, कोई कभी बुद्धत्व को उपलब्ध होता है—जैसे मानो लगभग ऐसा कभी होता ही नहीं।
इसे जानते हुए ही एक कोई प्रतीक्षा करता है, लेकिन वह निष्‍क्रिय होकर प्रतीक्षा नहीं करता, क्योंकि तब प्रतीक्षा करना निरर्थक होगा।
वह प्रतीक्षा ठीक किसान की प्रतीक्षा की भांति होती है। वह बीज बोता है कि वह मौसम आने पर अंकुरित होगे। उसमें जल्दबाजी नहीं की जा सकती। बार—बार खेत में जाकर खोदकर यह देखने की कोई जरूरत ही नहीं है कि बीज अभी तक अंकुरित हुए अथवा नहीं, क्योंकि वह बहुत ही विनाशक होगा। ऐसा करना बीजों को अंकुरित ही नहीं होने देगा। यह अधैर्य ही बीजों को नष्ट कर देगा। वह प्रतीक्षा करता है, वह जल से उन्हें सींचता है—महीनों तक कुछ भी दिखाई ही नहीं देता। पृथ्वी के ऊपर कुछ भी नहीं आता, लेकिन वह गहरे धैर्य के साथ प्रतीक्षा करता रहता है, अपना काम किए चला जाता है, खेत की देखभाल करता है, प्रार्थना करता है और उनके अंकुरित होने की आशा करता है कि वे अंकुरित होने की राह पर हैं। और एक दिन वे वहां होते हैं।
मात्र छूता तुम्हारी निष्क्रियता, तुम्हारे आलस्य और तुम्हारी सुस्ती को छिपाने के सुंदर शब्द हैं। एक आलसी व्यक्ति ही यह कह सकता है—’‘ मुझे कोई जल्दी नहीं है, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं ', और वह कोई भी काम नहीं करेगा। तब तुम व्यर्थ ही प्रतीक्षा कर रहे हो, कुछ भी होने नहीं जा रहा। हां, मौसम आने पर बीज अंकुरित तो होगे, लेकिन बीजों को बोना और सींचना होता है, अन्यथा वे अंकुरित न होगे। इसलिए तुम अपने ही अंदर निरीक्षण करो। यह भेदभाव एक ही व्यक्ति की विशेषता नहीं है, यह विशेषताएं प्रत्येक व्यक्ति में होती हैं। ये श्रेणियां नहीं हैं कि कोई व्यक्ति ' निरा मूर्ख ' होता है और कोई व्यक्ति बहुत सहिष्णु। नहीं, यह चित्तवृत्तियां, प्रत्येक व्यक्ति में साथ—साथ होती हैं। कभी तुम्हारे जीवन में मूर्खतापूर्ण क्षण आते हैं और कभी तुम्हारे जीवन में सहिष्णुता के भी क्षण आते हैं, और इन दोनों के ठीक मध्य में है—स्थगन। किसी कार्य को आगे के लिए स्थगित करना या टालना, बहुत बड़ी चालाकी अथवा बेईमानी है।
सहिष्णुता सजग है, मूर्च्छित है। सहिष्णुता सचेतन है, और स्थगन अचेतन है। स्थगन या टालने में दो मोड होते हैं, तुम कुछ काम करना चाहते हो, और फिर भी तुम उसके लिए कुछ भी करने को तैयार नहीं हो। यह बहुत बेईमानी की स्थिति है, तुम मध्यस्थ रहना चाहते हो, लेकिन तुम कहते हो—’‘ कल करेंगे।’’ यदि तुम वास्तव में करना ही चाहते हो तो आज ही वह सही समय है, क्योंकि कल कभी आता ही नहीं। यदि तुम वास्तव में करना ही चाहते हो, तो ठीक अभी उस पर ध्यान दो, क्योंकि उसके टालने की जरूरत क्या है? तुम कैसे निश्चित हो सकते हो कि कल आयेगा ही? हो सकता है कि वह कभी न आये। और यदि वह वास्तव में तुम्हारे लिए महत्त्वपूर्ण है और उसके लिए तुम्हारी तीव्र चाह है, तब तुम उसे एक क्षण के लिए भी न टालोगे। तुम अन्य सभी चीजें टाल दोगे लेकिन तुम ध्यान करोगे। तुम केवल वही आगे के लिए स्थगित करोगे जो तुम्हारे लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है अथवा तुम बेईमान बने हुए स्वयं अपने ही साथ खिलवाड़ कर रहे हो। तुम्हारे मन का एक भाग कहता है—’‘ हां। यह महत्त्वपूर्ण तो है—यह मैं जानता हूं इसी वजह से तो मैं इसे कल से शुरू करूंगा।’’ तुम संतुष्ट हो जाते हो।

 एक व्यक्ति को उसके एक अच्छे मित्र ने यह चुनौती दी, कि उनमें कौन व्यक्ति अधिक ऊर्जावान है, यह सुनकर पहले व्यक्ति ने कहा कि वह सुबह छ: बजे उठ बैठा, टहलने चला गया। आठ बजे नाश्ते के बाद उसने एक घंटा कार्य किया और तब ऑफिस चला गया। वहां उसने सिर्फ आधे घंटे का लंच किया और इसी तरह उसने किये गये कार्यों का बारी—बारी से ग्यारह बजे रात तक की कसरत का पूरा फैलाव भरा विस्तृत विवरण सुना डाला।’’
उसके मित्र ने कहा—’‘ यह तो ठीक है लेकिन तुम यह सभी कुछ कितनी अवधि से कर रहे हो?''
—’‘ मैं इसे सोमवार से शुरू करूंगा।’’

 परमात्मा का ध्यान हमेशा स्थगित कर दिया जाता है, प्रेम हमेशा स्थगित कर दिया जाता है, ध्यान हमेशा आगे के लिए टाल दिया जाता है। क्रोध, लोभ, और घृणा कभी स्थगित नहीं किये जाते, शैतान को कभी नहीं टाला जाता। जब शैतान तुम्हें आमंत्रित करता है तुम हमेशा पहले ही से तैयार रहते हो। तुम तुरंत, उसी समय खड़े हो जाते हो। तुम कहते हो ' मैं आ रहा हूं '। जब कभी कोई तुम्हारा अपमान करता है, तुम उससे यह नहीं कहते—’‘ मैं कल क्रोध करूंगा, '' लेकिन प्रेम के लिए तुम हमेशा उसे कल के लिए स्थगित कर देते हो। प्रार्थना के लिए तुम कहते हो— '' हां! उसे मुझे करना है ‘‘—यह बहुत बेईमान स्थिति है। तुम इस तथ्य को पहचानना ही नहीं चाहते कि प्रार्थना करने की तुम्हारी इच्छा है ही नहीं, प्रेम तुम करना ही नहीं चाहते, ध्यान तुम करना ही नहीं चाहते। तुम इस तथ्य को जानना ही नहीं चाहते कि तुम्हें परमात्मा के प्रति व्यग्रता है ही नहीं, इसलिए तुम उसे इस तरह टालना चाहते हो। तुम इसकी भली भांति व्यवस्था कर लेते हो—तुम उस काम को किए चले जाते हो, जिसकी तुम्हें वास्तव में चाह होती है, और उस काम को टाले चले जाते हो जिसकी तुम्हें चाह होती ही नहीं, लेकिन तुम्हें उस तथ्य को पहचानने का साहस नहीं होता। कम से कम ईमानदार बनी। टालना, बेईमानी है, बहुत बड़ी बेईमानी। अपने आप का अंदर से निरीक्षण करो और तुम पाओगे कि जो कुछ सुंदर है, उसे तुम स्थगित करते रहे हो।
यह दुहरा मोड़ है, तुम विभाजित हो अथवा तुम स्वयं के साथ ही चालाकी भरा खेल, खेल रहे हो।

 मैंने सुना है : एक रबी के दुर्भाग्य से उसने अपनी दौड़ती कार, फादर मर्फी की कार से टकरा दी। वह उछल कर कार से बाहर आया और ऊंची आवाज में क्षमा याचना करता हुआ बोला—’‘ मेरे प्रिय फादर मर्फी! मुझे इतना अफसोस है कि मैं बयान नहीं कर सकता। मैंने परमात्मा के प्रिय साथी के साथ ऐसा कर आपके और आपके सभी लोगों के साथ बहुत बड़ी बेवकूफी भरा काम किया है। आप ठीक तो हैं न फादर?''
फादर मर्फी ने कहा—’‘ हां मैं ठीक हूं रबी! मुझे कोई भी चोट नहीं लगी, लेकिन मैं थोड़ा सा कांप जरूर गया।’’
रबी ने नम्रतापूर्वक निवेदन किया—’‘ आप ठीक कह रहे हैं। यहां मेरे पास एक उम्दा व्हिस्की है, क्या उसका आप एक सिप लेना चाहेंगे?''
और उसने पतलून के पीछे की जेब से फ्लास्क में व्हिस्की निकालकर फादर को दी, जिसे पादरी ने हृदय से स्वीकार किया। उसने फ्लास्क फादर को देते हुए कहा—’‘ आप दूसरा पेग भी लीजिए। यह सब कुछ मेरी ही तो गलती से हुआ। आप मजे से पीजिए। इस बाबत फिक्र ही मत कीजिए कि यह कितनी महंगी है? पादरी को दूसरे आमंत्रण की आवश्यकता नहीं थी और उसने दूसरा गहरा सिप लेते हुए कहा—’‘ रबी! आप भी तो एक सिप लीजिए?''
रबी ने हर्ष से चीखते हुए कहा—’‘ लो पुलिस तो पहले ही से आ पहुंची।’’

 मन बहुत चालबाज है। प्रत्येक मनुष्य का मन एक यहूदी का ही मन है। यहूदी कोई जाति नहीं है, यह सभी के मनों के अंदर का केंद्र है, यह एक चित्तवृत्ति है। जब तुम दूसरों के साथ बेईमानी से खेल खेलते हो तो धीमे— धीमे तुम स्वयं चालाकियां सीखते हो। मनुष्य जाति के लिए यह सबसे बड़ी समस्या है, जिसका उसे सामना करना है। तुम दूसरों के साथ चालाकियां करते हो, और इस संसार में तुम्हें इससे फायदा होता है। धीमे— धीमे तुमने इतनी गहराई से वे चालें सीख ली हैं, कि तुम यह भूल ही गए हो कि तुम स्वयं अपने आप ही से चालाकी का खेल, खेल रहे हो। मन बहुत अधिक सांसारिक है, बहुत अधिक यहूदी चित्तवृत्ति का है। वह व्यापार के अतिरिक्त अन्य कोई व्यवहार जानता ही नहीं।

 मैंने सुना है :
एबे जब रिटायर होने लगा तो वह बहुत अधिक चिंतित था। अपने अधिकतम जीवन में उसने खूब मौज मजा ही किया था। उसकी ढेर सारी इच्छाएं थीं, पर बचत उसने कुछ भी नहीं की थी। अपने रिटायर होने की सुबह चढ़ी चिंतित त्यौरियों के साथ उसने अपनी पत्नी रशेल की ओर मुड़ते हुए कहा—’‘ मैं नहीं जानता कि अब हम लोगों की गुजर कैसे होगी?''
रशेल ने आलमारी की तली वाली दराज को खींचकर बैंक की पास बुक निकाली, जिसमें पिछले चालीस वर्षों से नियमित जमा धनराशि का विवरण था। वह भले ही रिटायर हो चुका था, लेकिन वे लोग धनी थे।
एबे ने पूछा—’‘ लेकिन तुमने ऐसा किया कैसे?''
रशेल ने शर्माते हुए कहा—’‘ अपने विवाहित जीवन में हर बार जब आप खर्च को अग्रिम धनराशि देते थे, मैं उसमें से दस शिलिंग अलग रख देती थी और देख लो, कैसे वह धनराशि इतनी अधिक इकट्ठी हो गई?''
पुलकित होकर उसने अपनी पत्नी को आलिंगन में भरते हुए कहा—’‘ ओह! यह कितना आश्चर्यजनक है? लेकिन प्रिय रशेल! तुमने यह बात मुझे पहले क्यों नहीं बतलाई? यदि मैं ऐसा जान पाता तो मैंने तुम्हें अपना पूरा काम धंधा सौंप दिया होता।’’

 बस कुछ पाना है।
मन हमेशा व्यापार की भाषा में ही सोच रहा है। भले ही तुम प्रेम भी कर रहे हो, वह भी व्यापार ही है। जब तुम प्रार्थना भी करते हो, वह भी एक व्यापार होता है। और यदि वह परमात्मा भी हो, तब भी वह एक व्यापार है। और एक बार जब तुम इस व्यापारिक संसार के अभ्यस्त बन जाते हो, तुम स्वयं अपने आपसे चालाकी भरा खेल खेलना शुरू कर देते हो। सजग हो जाओ। टालना, सबसे अधिक खतरनाक खेलों में से एक है, जो कोई भी मनुष्य स्वयं के साथ खेल सकता है। यदि तुम चाहते हो तो उस काम को करो। यदि तुम नहीं चाहते हो, तो ईमानदार बने रहो, कौन तुम्हें विवश कर रहा है? सिर्फ ईमानदार बने रहो। उस काम को मत करो, बल्कि इसे भली भांति जानो कि तुम उसे इसलिए नहीं कर रहे हो, क्योंकि तुम उसे नहीं करना चाहते हो? धोखेबाज क्यों बनो? यह ईमानदारी तुम्हारी सहायता करेगी।
जैसा मैं देखता हूं कोई भी मनुष्य बिना प्रेम किए नहीं रह सकता है, यदि वह वास्तव में ईमानदार है। लेकिन लाखों लोग बिना प्रेम किए इसलिए जी रहे हैं क्योंकि वे उसे टालते चले जाते हैं। एक दिन वे मर जायेंगे और उनका जीवन पूरी तरह मरुस्थल जैसा शुष्क होगा।
जैसा कि मैं देखता हूं कोई भी व्यक्ति बिना परमात्मा के भी जीवित नहीं रह सकता—लेकिन लाखों लोग जी रहे हैं, क्योंकि उन्होंने नकली परमात्मा सृजित कर लिया है, परमात्मा का एक प्रतिस्थापन, एक ऐसा परमात्मा, जिसे हमेशा टाल दिया जाता है। अब यह बहुत आसान है, तुम बिना परमात्मा के जी सकते हो क्योंकि परमात्मा के वहां होने का तुम्हारे पास झूठा अनुभव है, तुम उस पर विश्वास करते हो, और एक दिन तुम उसके लिए अपना पूरा जीवन लगाने जा रहे हो। लेकिन वह एक दिन कभी नहीं आयेगा। यदि तुम चाहते हो कि वह एक दिन आये, तो वह पहले से आया ही हुआ है—वह दिन आज ही है। यह क्षण ही तुम्हारे रूपांतरण का ही लक्षण है।

 पांचवां प्रश्न : किसी ने मुझसे यह अशोभनीय और गुस्ताखी भरा प्रश्न पूछने का साहस किया कि आपका व्यवहार विवेक के प्रति कैसा होता हे? आपके बताने के द्वारा कोई मेरे द्वारा कोई भी बात समझना सम्भव हो सकता है।

 स बारे में कुछ भी कहना कठिन होगा।
विवेक मेरे इतने अधिक निकट है, कि वह जैसे निरंतर सलीब पर चढ़ी रहती है। मेरे इतने अधिक निकट रहना बहुत श्रमपूर्ण और चढ़ाई पर चढ़ने जैसा कार्य है। तुम मेरे जितने अधिक निकट होते हो, तुम्हारा उतना ही अधिक दायित्व बढ़ जाता है। तुम मेरे जितने अधिक निकट होते हो, तुम्हें अपने आपको उतना ही अधिक रूपांतरित करना होता है। तुम अपनी अयोग्यता का जितना अधिक अनुभव करते हो, तुम्हें उतना ही अधिक यह महसूस होना शुरू हो जाता है कि कैसे अधिक योग्य बना जाये— और यह लक्ष्य लगभग असम्भव प्रतीत होता है। और मैं बहुत सी स्थितियां निर्मित किए चले जाता हूं। मुझे उन्हें निर्मित करना ही होता है क्योंकि मेरे भीर उसके स्वभाव के घर्षण या टकराने से ही एकीकरण घटित होता है। केवल कठिन से कठिन परिस्थिति के द्वारा ही कोई विकसित होता है। यह विकास बिना कष्ट के नहीं होता, विकास पीड़ायुक्त होता है। तुम पूछ रहे हो—मैं विवेक के प्रति कैसा व्यवहार करता हूं?
मैं उसे धीमे— धीमे मार रहा हूं। केवल यही एक रास्ता है जिससे पूरी तरह वह एक नया अस्तित्व ले, उसका पुनर्जन्म हो। उसके लिए एक सलीब पर चढ़े हुए चलने जैसा है, और यह काम बहुत सख्त है।

 मैं इस बारे में एक प्रसंग बताना चाहता हूं : एक यहूदी परिवार में अपने पुत्र के उद्दण्ड व्यवहार के कारण, माता—पिता के हृदय को बहुत आघात पहुंचा। सरकारी स्कूल से उसका नाम काट दिया गया इसलिए अंत में निराश होकर उन्होंने उसे एक रोमन कैथोलिक स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा। पहले ही दिन स्कूल से घर लौटते ही वह सीधे अपने कमरे में चला गया अपना होमवर्क करना शुरू कर दिया।
जब काम से उसका पिता घर लौटा तो उसने उसकी मम्मी से पूछा—’‘ अब मुझे बताओ, पुत्र के बाबत बुरी खबर क्या है?''
मोम्मा ने उत्तर दिया—’‘ पोप्पा! कोई बुरी खबर नहीं है। वह स्कूल से भेड़ के मेमने की तरह खामोश लौटा और वह अपने कमरे में बैठा हुआ अब भी होमवर्क कर रहा है।’’
पोप्पा आश्चर्य से चीखता हुआ बोला—’‘ वह और होमवर्क! उसने अपने पूरे जीवन में कभी होमवर्क किया ही नहीं। उसे जरूर अस्वस्थ होना चाहिए।’’
इसलिए पोप्पा अपने पुत्र के कमरे में जाकर उससे बोला—’‘ यह तुम्हारी मम्मी मुझे क्या बता रही हैं कि तुम होमवर्क कर रहे हो? यह अचानक तुम्हारे हृदय का परिवर्तन हो कैसे गया?''
लड़के ने उत्तर दिया—’‘ पोप्पा! मैं ही उस स्कूल में अकेला यहूदी हूं। मेरी डेस्क के सामने वाली दीवार पर जो तस्वीर लगी है वह वहां आखिरी यहूदी युवा की है। उई मां! आपको भी उसे जरूर देखना चाहिए कि उन्होंने उसके साथ किया क्या?

 जीसस को क्रॉस पर लटका दिया गया। मेरे बहुत अधिक निकट रहना, क्रॉस पर बने रहना होता है। सब कुछ इतना ही है। यही है वह सब कुछ, जो मैं उसे करने के लिए कहे चला जाता हूं। वास्तव में उसे तुम सभी लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक होम वर्क करना होता है।

  छठवां प्रश्न : अभी हाल ही के प्रवचन में आप कह रहे थे— ''प्रेम के मार्ग पर: ध्यान के बारे में सब कुछ भूल जाओ और ध्यान के मार्ग पर, प्रेम के बारे में सब कुछ भूल जाओ! '' अब आप कह रहे हैं कि प्रेम का मूल्य आवश्यक और अपरिहार्य है। वस्तुत: ध्यान के पथ पर चलते हुए मैं स्वयं अपने को बहुत उलझन में या रहा हूं, यह मैं समझता हूं कि बाउलो पर बोलते हुए आप बाउल ही बन जाते हैं और यूरी तरह से प्रेम के मार्ग पर ही होते है, मुझे इन प्रवचनो को फिर कैसे सुनना चाहिए? और ध्यान के मार्ग पर, प्रेम, अनुभव और भावनाओं का क्या महत्व है?

 त्तर : यदि मैं बाउलों के बाबत, और प्रेम, भक्ति तथा प्रार्थना के सम्बंध में चर्चा कर रहा हूं और तुम ध्यान के पथ पर चल रहे हो, तो मुझे ध्यानपूर्वक सुनो, बस इतना ही यथेष्ट है। केवल मुझे पूरे ध्यान से सुनो, तब सुनते हुए ही तुम ध्यान में भी विकसित होने लगोगे। लेकिन बुद्धि के द्वारा मत सुनो, क्योंकि उसकी वहां कोई जरूरत ही नहीं है। तुम ध्यान के मार्ग पर चल रहे हो, इसलिए तुम्हें उसके विवरण या विस्तार के बारे में फिक्र करने की जरूरत ही नहीं है। जो कुछ मैं कह रहा हूं उसे तुम खामोशी से बिना इस बात की चिंता किए कि मैं क्या कह रहा हूं मौन होकर बस सुनो। तुम उसे गहरे ध्यान में सुन सकते हो। सुनने को ही अपना ध्यान बना लो और उससे ही सब कुछ हो जायेगा। लेकिन यदि तुम उसे बुद्धि से सुनते हो, तो उससे भ्रम और उलझनें उत्पन्न होगीं। यदि मैं ध्यान के पथ पर बोल रहा हूं और तुम प्रेम के पथ पर चल रहे हो तो मुझे परिपूर्ण प्रेम से सुनो। तुम अपने मार्ग की लीक से हटोगे नहीं। और तब मैं भले ही प्रेम या ध्यान किसी पर भी बोलूं तुम परिपूर्ण और तृप्त हो जाओगे। तुम्हारा अपना पथ और भी अधिक सुदृढ़ और समृद्ध होगा। तुम्हारी संकल्प शक्ति और भी अधिक दृढ़ होगी।

 अंतिम प्रश्न : प्यारे भगवान? कृपया मेरी सहायता करो मुझे मेरा मार्ग दिखलाये : वह प्रेम है अथवा ध्यान? मुझे मेरे स्वभाव के अनुसार एक सूत्र देने की कृपा करें!

 ह प्रश्न नीलम का है। मैं उसे जानता हूं। मैं उसे बहुत लम्बी अवधि से काफी कुछ जानता हूं केवल इसी जीवन में नहीं, बल्कि मैं उसे पिछले जन्मों से जानता हूं। उसका मार्ग पूरी तरह से निश्चित ही प्रेम का है। प्रेम के द्वारा ही वह 'उसे' प्राप्त करने जा रही है। प्रेम के द्वारा ही उसे अपने 'होने' का अनुभव होगा, प्रेम के द्वारा ही वह जो सब कुछ घट सकता है, उसे घटेगा। और यह मैं निश्चित रूप से परिपूर्णता से कह सकता हूं। जब दूसरे लोग मुझसे पूछते हैं तो मैं इतना निश्चित नहीं होता हूं। कोई व्यक्ति जो अभी हाल ही में यहां आया है, मुझे उसे भली भांति जानना होता है, उसके अंदर अधिक गहराई से झांकना होता है, विभिन्न स्थितियों में उसका निरीक्षण करना होता है, उसकी चित्तवृत्तियों को देखना होता है, उसके अस्तित्व की पर्त दर पर्त को सूक्ष्मता से समझना होता है, तभी..... .लेकिन नीलम के बारे में यह पूर्ण रूप से निश्चित है। मैंने उसे इस जीवन में जाना है, और मैंने उसे पूर्व के जन्मों में भी जाना है। उसकी दिशा पूरी तरह से स्पष्ट है, प्रेम ही उसका ध्यान है।
आज इतना ही।



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