एक छोटी सी
घटना से आज की
बात शुरू करना
चाहूंगा।
सिकंदर
महान की
मृत्यु हो गई
थी। लाखों लोग
नगर के
रास्तों पर
खड़े उसकी अरथी
की प्रतीक्षा
कर रहे थे।
अरथी आई और
अरथी महल से
बाहर निकली।
वे जो खड़े हुए
लाखों लोग थे, उन सबके
मन में एक ही
प्रश्न, उन
सब की बात में
एक ही प्रश्न
और जिज्ञासा
पूरे नगर में
फैल गई। बड़े
आश्चर्य की
बात हो गई थी, ऐसा कभी भी न
हुआ था। अरथिया
तो रोज निकलती
हैं, रोज
कोई मरता है।
लेकिन सिकंदर
की अरथी निकली
थी तो जो बात
हो गई थी वह
बड़ी अजीब थी।
अरथी के बाहर
सिकंदर के
दोनों हाथ
लटके हुए थे।
हाथ तो भीतर
होते हैं अरथी
के। क्या कोई
भूल हो गई कि
हाथ अरथी के
बाहर लटके हुए
थे?
लेकिन
सिकंदर की
अरथी और भूल
हो जाए, यह
भी संभव न था।
और एक—दो लोग
नहीं, सैकड़ों लोग महल से
उस अरथी को
लेकर आए थे।
किसी को तो
दिखाई पड़ गया
होगा—हाथ बाहर
निकले हुए हैं।
सारा गांव पूछ
रहा था कि हाथ
बाहर क्यों
निकले हुए हैं?
सांझ
होते—होते
लोगों को पता
चला। सिकंदर
ने मरते वक्त
कहा था, मेरे हाथ
अरथी के भीतर
मत करना।
सिकंदर ने
चाहा था, उसके
हाथ अरथी के
बाहर रहें, ताकि सारा
नगर यह देख ले
कि उसके हाथ
भी खाली हैं।
हाथ तो
सभी के खाली
होते हैं मरते
वक्त। उनके भी
जिनको हम सिकंदर
जानते हैं, उनके हाथ
भी खाली होते
हैं।
लेकिन
सिकंदर को यह
खयाल कि उसके
खाली हाथ लोग
देख लें—जिसने
दुनिया जीतनी
चाही थी, जिसने अपने
हाथ में सब
कुछ भर लेना
चाहा था—वे
हाथ भी खाली
हैं, यह
दुनिया देख ले।
सिकंदर
को मरे हुए
बहुत दिन हो
गए। लेकिन
शायद ही कोई
आदमी अब तक
देख पाया है
कि सिकंदर के
हाथ भी खाली
हैं। और हम सब
भी छोटे—मोटे
सिकंदर हैं, और हम सब
भी हाथों को
भरने में लगे
हैं। लेकिन आज
तक कोई भी
जीवन के अंत
में क्या भरे
हुए हाथों को
उपलब्ध कर सका
है? या कि
हाथ खाली ही
रह जाते हैं? या कि हाथ
नहीं भर पाते
और हमारा सारा
श्रम और हमारी
सारी शक्ति
अपव्यय हो
जाती है?
अधिकतम
लोग असफल मरते
हैं। यह हो
सकता है कि
उन्होंने बड़ी
सफलताएं पाई हों
संसार में। यह
हो सकता है कि
उन्होंने
बहुत यश और धन
अर्जित किया
हो। लेकिन फिर
भी असफल मरते
हैं, क्योंकि
हाथ खाली होते
हैं मरते वक्त।
भिखारी ही
खाली हाथ नहीं
मरते, सम्राट
भी खाली हाथ
ही मरते हैं।
तो फिर यह
सारी जिंदगी
का श्रम कहां
गया? अगर
सारे जीवन का
श्रम भी संपदा
न बन पाया और भीतर
एक पूर्णता न
ला पाया, तो
क्या हम रेत
पर महल बनाते
रहे? या
पानी पर
लकीरें
खींचते रहे? या सपने
देखते रहे और
समय गंवाते
रहे? क्या
है, इस दौड़
की सारी
निष्फलता
क्या है?
एक और
छोटी कहानी
मुझे स्मरण
आती है।
एक महल
के द्वार पर
बहुत भीड़ लगी
हुई थी। और
भीड़ बढ़ती ही
जा रही थी। और
दोपहर से भीड़
बढ़नी शुरू हुई
थी, अब
सांझ होने आ
गई, सारा
गांव ही करीब—करीब
उस द्वार पर
इकट्ठा हो गया
था। क्या हो
गया था उस
द्वार पर
राजमहल के? एक छोटी सी
घटना हो गई थी।
और घटना ऐसी
बेबूझ थी कि
जिसने भी सुना
वह वहीं खड़ा
होकर देखता रह
गया। किसी की
कुछ भी समझ
में न आ रहा था।
एक भिखारी
सुबह—सुबह आया
और उसने राजा
के महल के
सामने अपना भिक्षापात्र
फैलाया। राजा
ने कहा कि कुछ
दे दो, अपने
नौकरों को।
उस
भिखारी ने कहा, एक शर्त
पर लेता हूं।
यह भिक्षापात्र
उसी शर्त पर
कोई चीज
स्वीकार करता
है जब यह वचन
दिया जाए कि
आप मेरे भिक्षापात्र
को पूरा भर
देंगे, तभी
मैं कुछ लेता
हूं।
राजा
ने कहा, यह कौन सी
मुश्किल है!
छोटा सा भिक्षापात्र
है, पूरा
भर देंगे! और
अन्न से नहीं,
स्वर्ण अशर्फियों
से भर देंगे।
भिक्षुक
ने कहा, और एक बार
सोच लें, पीछे
पछताना न पड़े।
क्योंकि इस भिक्षापात्र
को लेकर मैं
और द्वारों पर
भी गया हूं और
न मालूम कितने
लोगों ने यह
वचन दिया था
कि वे इसे
पूरा भर देंगे।
लेकिन वे इसे
पूरा नहीं भर
पाए और बाद
में उन्हें
क्षमा मांगनी
पड़ी।
राजा
हंसने लगा और
उसने कहा कि
यह छोटा सा भिक्षापात्र!
उसने अपने
मंत्रियों को
कहा, स्वर्ण
अशर्फियों
से भर दो।
यही
घटना हो गई थी, राजा स्वर्ण
अशर्फियां
डालता चला गया
था, भिक्षापात्र कुछ ऐसा था
कि भरता ही
नहीं था। सारा
गांव द्वार पर
इकट्ठा हो गया
था देखने।
किसी की समझ
में कुछ भी न
पड़ता था कि
क्या हो गया
है! राजा का
खजाना चुक गया।
सांझ हो गई, सूरज ढलने
लगा, लेकिन
भिक्षा का
पात्र खाली था।
तब तो राजा भी
घबड़ाया, गिर
पड़ा पैरों पर
उस भिक्षु के
और बोला, क्या
है इस पात्र
में रहस्य? क्या है
जादू? भरता
क्यों नहीं?
उस
भिखारी ने कहा, कोई जादू
नहीं है, कोई
रहस्य नहीं है,
बड़ी सीधी सी
बात है। एक
मरघट से निकलता
था, एक
आदमी की खोपड़ी
मिल गई, उससे
ही मैंने भिक्षापात्र
को बना लिया।
और आदमी की
खोपड़ी कभी भी
किसी चीज से
भरती नहीं है,
इसलिए यह भी
नहीं भरता है।
आदमी
खाली हाथ जाता
है, इसलिए
नहीं कि खाली
हाथ जाना
जरूरी है, बल्कि
आदमी की खोपड़ी
में कहीं कुछ
भूल है। इसलिए
नहीं कि खाली
हाथ जाना जीवन
से कोई नियम
है, कोई अनिवार्यता
है। नहीं; जीवन
से भरे हाथों
भी जाया जा
सकता है। और
कुछ लोग गए
हैं। और जो भी
जाना चाहे वह
भरे हाथों भी
जा सकता है।
लेकिन आदमी की
खोपड़ी में कुछ
भूल है। और
इसलिए भरते
हैं बहुत, भर
नहीं पाता, हाथ खाली रह
जाता है।
कौन सी
भूल है? कौन सा
सीक्रेट है? कौन सा
रहस्य है
मनुष्य के मन
के साथ कि वह
भर नहीं पाता?
कौन सा जादू
है? और यह
मत सोचना कि
किसी राजमहल
के द्वार पर
ही कोई भिक्षु
खड़ा था और
उसका पात्र
नहीं भर पाया
था। हम सबके
द्वारों पर
भिक्षु खड़े
हैं और पात्र नहीं
भर पा रहे हैं।
हम सभी भिक्षु
हैं, हमारे
पात्र भी नहीं
भर पा रहे हैं।
यहां
हम इतने लोग
इकट्ठे हैं, आधा जीवन
तो करीब—करीब
हममें से सभी
का बीत चुका
है। किसी का
आधे से ज्यादा
भी बीत चुका
होगा, किसी
का अभी आधे से
कम भी बीता
होगा। लेकिन
क्या हमारे
पात्र थोड़े—बहुत
भर पाए हैं? और अगर आधा
जीवन बीत जाने
पर बिलकुल
नहीं भरे हैं,
तो शेष आधे
जीवन में फिर
कैसे भर
जाएंगे? पात्र
खाली हैं, पात्र
खाली रहेंगे,
क्योंकि
आदमी के मन के
साथ कुछ गड़बड़
है। क्या गड़बड़
है? उसी
संबंध में
थोड़ी सी बात
आज संध्या मैं
आपसे कहूंगा।
मनुष्य
के मन के साथ
क्या भूल है? क्या
उलझाव, कौन
सी पहेली है
जो सुलझ नहीं
पाती? और
इस पहेली को
बिना सुलझाए
जो जिंदगी में
भाग—दौड़ करने
में लग जाता
है, वह तो
बिलकुल पागल
है। जिसने
अपने मन की
समस्या को, इस उलझाव को,
इस रहस्य को
नहीं समझ लिया
है ठीक से, उसके
जीवन की सारी
दौड़ व्यर्थ है,
निरर्थक है।
वह तो बिना
समस्या को
समझे और
समाधान करने
को निकल पड़ा
है। और जिसने
समस्या ही न
समझी हो क्या
वह समाधान कर
सकेगा?
तिब्बत
में एक शिक्षक
के बाबत बड़ी
प्रसिद्धि है, बाद में
वह फकीर हो
गया। जब वह
शिक्षक था
विश्वविद्यालय
में, तीस
वर्षों तक
शिक्षक रहा, गणित का
शिक्षक था, हर वर्ष जब
नये
विद्यार्थी
आते और उसकी
कक्षा शुरू
होती, तो
तीस वर्ष से
निरंतर एक ही
सवाल से उसने
कक्षा को शुरू
किया था, एक
ही गणित, एक
ही प्रश्न। वह
जैसे ही पहले
दिन, वर्ष
के पहले दिन
कक्षा में
जाता और नये
विद्यार्थियों
का स्वागत
करता; तख्ते
पर जाकर दो
अंक लिख देता—चार
और दो— और
लोगों से
पूछता, क्या
हल है इसका? कोई लड़का
चिल्लाता, छह!
लेकिन वह सिर
हिला देता।
कोई लड़का
चिल्लाता, दो!
लेकिन वह सिर
हिला देता। और
तब सारे लड़के
चिल्लाते—
क्योंकि अब तो
एक ही और
संभावना रह गई
थी; जोड़
लिया गया, घटा
लिया गया, अब
गुणा करना और
रह गया था—तो
सारे लड़के
चिल्लाते, आठ!
लेकिन वह फिर
सिर हिला देता।
और तीन ही
उत्तर हो सकते
थे, चौथा
कोई उत्तर न
था, तो
लड़के चुप रह
जाते। और तब
वह शिक्षक
उनसे कहता, तुमने सबसे
बड़ी भूल यही
की कि तुमने
मुझसे यह नहीं
पूछा कि
प्रश्न क्या
है, और तुम
उत्तर देना
शुरू कर दिए।
मैंने चार
लिखा और दो
लिखा, यह
तो ठीक, लेकिन
मैंने प्रश्न
कहां बोला था?
और तुम
उत्तर देना
शुरू कर दिए।
और वह शिक्षक
कहता कि मैं
अपने अनुभव से
कहता हूं गणित
में ही यह भूल
नहीं होती, जिंदगी में
भी अधिक लोग
यही भूल करते
हैं। जिंदगी
के प्रश्न को
नहीं समझ पाते
और उत्तर देना
शुरू कर देते
हैं।
जिंदगी
की समस्या, जिंदगी
का प्रॉब्लम
क्या है? किस
बात का उत्तर
खोज रहे हैं? कौन सी
पहेली को हल
करने निकल पड़े
हैं? इसके
पहले कि कोई
पहेली को हल
कर पाए, उसे
ठीक से जान
लेना होगा—प्रश्न
क्या है? जिंदगी
की समस्या
क्या है?
मनुष्य
की समस्या
उसका मन है।
और मन की
समस्या, कितना ही
उसे भरो, न
भरना है। मन
भर नहीं पाता
है। क्या है
इसके पीछे? कौन सा गणित
है जो हम नहीं
समझ पाते और
जीवन भर रोते
हैं और परेशान
होते हैं? कौन
सी कुंजी है
जो इस जीवन की
समस्या को सुलझाकी
और हल कर देगी?
बिना इसे
समझे, चाहे
हम मंदिरों
में
प्रार्थनाएं
करें, चाहे
मस्जिदों
में नमाज पढ़ें,
चाहे आकाश
की तरफ हाथ
उठा कर
परमात्मा से
आराधना करें,
कुछ भी न
होगा, कुछ
भी न होगा।
क्योंकि जो
आदमी अभी अपने
मन को ही
सुलझाने में
समर्थ नहीं हो
सका, उसकी
प्रार्थना का
कोई भी मूल्य
नहीं हो सकता है।
और जो मनुष्य
अभी अपने भीतर
ही स्पष्ट
नहीं हो सका
है जीवन की
समस्या के
प्रति, वह
जिन मंदिरों
में जाएगा, उसके साथ ही
और भी उपद्रव
वहां पहुंच
जाएंगे।
मंदिर से वह
तो शांत होकर
नहीं लौटेगा,
लेकिन
मंदिर की
शांति को जरूर
खंडित कर आएगा।
भीतर जो उलझा
हुआ है वह जो
भी करेगा, कनफ्यूज माइंड जो भी
करेगा, उससे
जीवन में और कनफ्यूजन,
और परेशानी,
और उलझाव
बढ़ता है। हम
एक पागल आदमी
से सलाह लेने
नहीं जाते, क्योंकि
पागल जो भी
सलाह देगा वह
और भी उपद्रव
की हो जाएगी।
पागल जो
सुलझाव
उपस्थित
करेगा वह और
भी पागलपन का
हो जाएगा।
एक
राजा का एक
मंत्री पागल
हो गया था। और
अक्सर मंत्री
पागल हो जाते
हैं। सच तो यह
है कि जो पागल
नहीं होते वे
कभी मंत्री ही
नहीं होते।
राजा का
मंत्री पागल
हो गया था।
राजा सोया हुआ
था, उस
मंत्री ने
जाकर सोए हुए
राजा को चूम
लिया। राजा
घबड़ा कर उठा
और उसने कहा
कि यह तुम
क्या करते हो?
इसकी सजा
सिवाय मौत के
और कुछ भी
नहीं हो सकती! मुझे
चूमने का
तुमने साहस
किया!
उस
मंत्री ने कहा, माफ करें,
मैं तो समझा
कि महारानी सो
रही हैं।
यह
उन्होंने
उत्तर दिया था।
राजा हैरान हो
गया, वह
बोला कि
निश्चित ही
तुम्हारा
दिमाग खराब हो
गया है।
क्योंकि
तुमने जो
अपराध किया है
और उस अपराध से
बचने के लिए
तुम जो दलील
दे रहे हो, वह
और भी बड़ा
अपराध है।
करीब—करीब
ऐसे ही जीवन
की समस्या को
सुलझाने के
लिए हम जो
करते हैं वह
और भी बड़ी
समस्या खड़ी कर
देता है।
हमारे मन उलझे
हुए हैं, उलझे हुए मन
को लेकर हम
क्या हल कर
पाएंगे? लेकिन
हम बड़े अजीब
लोग हैं। इस
उलझे हुए मन
को लेकर गीता
पढ़ते हैं, गीता
पर टीका भी
करते हैं; कुरान
पढ़ते हैं, कुरान
पर भाष्य
लिखते हैं, उपनिषद पढ़ते
हैं। हम जब
गीता और
उपनिषद पढ़ते
हैं, तब जो
हम जान पाते
हैं, वह
गीता और
उपनिषद नहीं
हैं। हमारे
उलझे मन गीता
को भी उलझा
लेते हैं, उपनिषद
को भी उलझा
लेते हैं। और
तब हमारा
उलझाव बढ़ता
ही चला जाता
है और फैलता
ही चला जाता
है, उसमें
कोई ओर—छोर
मिलना कठिन हो
जाता है।
इसलिए
पहली और
बुनियादी बात
पूछनी जरूरी
है इस मन का
प्रॉब्लम
क्या है? इस मन की
समस्या क्या
है?
सबसे
पहली बात, वह यह, हमारे भीतर
जो यह
आकांक्षा और
दौड़ होती है
कि हम भर लें
अपने को, फुलफिलमेंट की, पूर्णता
की, पा
लेने की, कुछ
हो जाने की, यह दौड़
इसलिए पैदा
होती है कि
हमें अहसास
होता है कि
भीतर हम खाली
हैं, भीतर
अभाव है, भीतर
एंप्टीनेस
है, भीतर
कुछ भी नहीं
है।
भीतर
मालूम होता है
ना—कुछ, भीतर मालूम
होता है शून्य,
उस शून्य को
भरने के लिए
हम दौड़ते हैं,
दौड़ते हैं,
दौड़ते हैं।
लेकिन
क्या आपको पता
है कि जो
शून्य भीतर है, उसे बाहर
की कितनी ही
सामग्री से भरना
असंभव है!
क्योंकि
शून्य है भीतर
और हमारे
साम्राज्य
होंगे बाहर, साम्राज्य
बढ़ते चले
जाएंगे, शून्य
अपनी जगह बना
रहेगा।
इसीलिए तो
सिकंदर खाली
हाथ मरता है।
नहीं तो
सिकंदर के हाथ
में तो बड़ा
साम्राज्य था,
बड़ी धन—दौलत
थी। शायद ही
किसी आदमी कै
पास इतना बड़ा
साम्राज्य
रहा हो, इतनी
धन—दौलत रही
हो। खाली हाथ
क्यों मरता है
यह आदमी? यह
खाली हाथ किस
बात की सूचना
है? यह
सूचना है कि
भीतर जो
खालीपन है वह
नहीं भरा जा
सका। बाहर सब
इकट्ठा हो गया;
लेकिन नहीं,
भीतर कुछ भी
नहीं पहुंच
सका।
कौन सी
चीज भीतर
पहुंच सकती है?
बाहर
की कोई भी चीज
भीतर नहीं
पहुंच सकती।
बाहर के मित्र
बाहर हैं, बाहर की
संपदा बाहर है,
बाहर का धन,
बाहर की यश—प्रतिष्ठा,
सब बाहर है।
और भीतर हूं
मैं। मेरे
अतिरिक्त
मेरे भीतर कोई
भी नहीं। मेरा
होना ही मेरा
भीतर है। मेरा
बीइंग ही मेरा,
मेरा आंतरिक
शून्य है, मेरी
आंतरिक
रिक्तता है।
भीतर मैं हूं
खाली, बाहर
मैं दौड़ता
हूं कि भरूं,
भरूं। बहुत
इकट्ठा कर
लेते हैं दौड़
कर। लेकिन जब आंख
उठा कर देखते
हैं तो पाते
हैं— भीतर तो
सब खाली है, दौड़ तो
व्यर्थ गई।
दौड़
इसलिए व्यर्थ
गई कि जिस
दिशा में
शून्यता थी, उसके
विपरीत दिशा
में हमने श्रम
किया। दौड़
इसलिए खाली गई
कि जहां गड्डा
था वहां तो हमने
नहीं भरा, हमने
ढेर कहीं और
लगाए। गड्डा गडु[ बना
रहा, ढेर
बड़े—बड़े हो गए,
लेकिन
गड्डा नहीं
मिटा।
भीतर
है गड्डा, भीतर एक
खाई—खंदक है।
भीतर देखें
एकदम खाली है,
कुछ भी तो
नहीं वहां। न
वहां आपका
मकान है, न
आपका धन, न
आपकी दौलत। हो
सकता है कि
बाहर एक के
पास बड़ा मकान
हो और दूसरे
के पास कुछ भी
न हो, सड़क
पर खड़ा हो।
लेकिन भीतर? भीतर दोनों
एक समान खाली
हैं। भीतर कोई
फर्क नहीं है
भिखारी और
सम्राट में, भीतर का
खालीपन बराबर
एक सा है।
भीतर हम सब भिखमंगे
हैं।
एक
मुसलमान फकीर
था, फरीद।
वह अकबर से
मिलने गया।
उसके मित्रों
ने फरीद से
कहा था, अकबर
से करना
प्रार्थना कि
हमारे गांव
में एक स्कूल
बना दे। अकबर
फरीद को बहुत
मानता था, आदर
देता था। फरीद
ने सोचा जाऊं।
वह गया, सुबह—सुबह
जल्दी गया।
अकबर नमाज
पढ़ता था। फरीद
पीछे खड़ा हो गया।
अकबर ने नमाज
पढ़ी, नमाज
पूरी की और
हाथ जोड़े
परमात्मा की
तरफ और कहा, हे परमपिता,
मेरे राज्य
को और बड़ा कर, मेरे धन को
और बढ़ा।
फरीद
वापस लौट पड़ा।
अकबर उठा तो
देखा फरीद
मस्जिद की सीढ़ियां
उतर रहा है।
अकबर दौड़ा
और रोका कि
कैसे आए और
कैसे चले?
फरीद
ने कहा, मैं सोचता
था एक सम्राट
के पास जा रहा
हूं। यहां
मैंने देखा, यहां भी एक
भिखारी है।
मैंने भूल से
तुम्हारी
नमाज का आखिरी
हिस्सा सुन
लिया। तुमने
भी मांगा और
राज्य, और
धन। तुम भी
मांगते हो!
मैं लौट पड़ा
कि जो अभी खुद
ही मांग रहा
है उससे हमारा
मांगना ठीक
नहीं, अशिष्ट
है। और फिर
मैंने सोचा
तुम जिससे
मांगते हो, अगर मांगना
ही होगा तो हम
भी उसी से
मांग लेंगे, तुमको बीच
में क्यों लें?
लेकिन
फरीद ने अपने
गांव में जाकर
कहा, मित्रों,
मैं सोचता
था अकबर
सम्राट है और
मैं भिखारी हूं।
मैंने जाकर जब
झांक कर देखा
तो मैंने पाया,
अकबर भी
भिखारी है! तो
मैं उससे नहीं
कह सका कि स्कूल
बनवा दो गांव
में एक। वह तो
खुद ही अभी
मांग रहा है।
उसका मांगना
खत्म हो जाए
तो फिर हम
उससे कुछ कहें।
लेकिन
मांगना क्या
कभी किसी का
खत्म होता है? मरते दम
तक, आखिरी
क्षण तक आदमी
मांगे चला
जाता है।
क्यों? भीतर
का खालीपन
नहीं भरता!
आखिरी क्षण भी
हम सोचते हैं
कि शायद कुछ
मिल जाए और हम
भर जाएं, और
हमें लगे कि
हम कुछ हो गए
और हमने कुछ
पा लिया। नहीं
लेकिन, यह
नहीं हो पाता।
यह नहीं हो
सकता है, यह
इपासिबिलिटी
है, इसके
होने का कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए
नहीं है उपाय
कि भीतर है
शून्य, बाहर है
सामग्री। फिर
हम क्या करें?
इस भीतर के
शून्य को कैसे
भरें? कैसे
हमें अहसास हो
जाए कि अब
मेरी कोई मांग
नहीं?
उसी
दिन आदमी जीवन
में कहीं
पहुंचता है
जिस दिन उसकी
कोई मांग नहीं
रह जाती, जिस दिन
उसका भिखारी
मर जाता है।
धर्म
प्रत्येक
मनुष्य को ऐसी
जगह ले जाना
चाहता है जहां
वह सम्राट हो
जाए। दिखता तो
ऐसा है कि
संसार में
सम्राट होते
हैं, लेकिन
जो जानते हैं
वे कहेंगे, संसार में
कभी कोई
सम्राट नहीं
हुआ, सभी
भिखारी हैं।
यह दूसरी बात
है कि कुछ
भिखारी छोटे
हैं, कुछ
भिखारी बड़े
हैं; यह
दूसरी बात है
कि किन्हीं का
भिक्षापात्र
छोटा है, किन्हीं
का बड़ा है; यह
दूसरी बात है
कि कुछ रोटी
मांगते हैं, कोई राज्य
मांगता है।
लेकिन मांगने
के संबंध में
कोई भिन्नता
नहीं, भिखमंगेपन में कोई भेद
नहीं।
धर्म
तो समझता है
कि केवल वे ही
लोग सम्राट हो
सकते हैं जो
भीतर एक आंतरिक
संपूर्णता को
उपलब्ध होते
हैं। उनकी
सारी मांग मिट
जाती है। उनकी
दौड़, उनके
भिक्षा का
पात्र टूट
जाता है।
बुद्ध
बारह वर्षों
के बाद अपने
गांव वापस लौटे
थे। उनके हाथ
में भिक्षापात्र
था, भिखारी
के वस्त्र थे।
उनके पिता
उन्हें लेने
गांव के बाहर
आए। तो पिता
ने अपने लड़के
को कहा, मुझे
देख कर दुख
होता है! राज—परिवार
में पैदा होकर
तू क्यों
हमारे नाम को
कलंक लगाता है
और भिक्षा का
पात्र अपने
हाथ में लिए
हुए है? क्या
कमी है हमारे
पास जो तू
भिक्षा का
पात्र लेकर
घूम रहा है?
बुद्ध
हंसे और
उन्होंने
अपने पिता से
क्या कहा? उन्होंने
कहा, क्षमा
करें, लेकिन
मेरे देखे
भिखारी आप हैं,
मैं तो
सम्राट हो गया
हूं। मेरी तो
सारी मांग
समाप्त हो गई,
मैंने तो
मांगना बंद कर
दिया, मैं
तो कुछ भी
नहीं मांगता
हूं। आपकी
मांग अभी जारी
है, आप अभी
मांगे ही चले
जा रहे हैं।
फिर भी अपने
को सम्राट
कहते हैं?
लेकिन
हमें यह दिखाई
नहीं पड़ता, हमें यह
खयाल में नहीं
आता कि हम
मांगे चले जा रहे
हैं, मांगे
चले जा रहे
हैं। क्या
मांग रहे हैं
हम?
हम
सारे लोग ही
एक बात मांग
रहे हैं कि
किसी भांति
हमारे भीतर का
यह खालीपन मिट
जाए, यह शून्यता
मिट जाए। हम
भरे—पूरे हो
जाएं, हमारे
जीवन में कुछ
आ जाए जो
हमारे भीतर के
अभाव को, जो
नथिगनेस
मालूम होती है
भीतर, उसको
पूरा कर दे।
हम किसी भांति
पूर्ण हो जाएं।
लेकिन
यह नहीं होगा
तब तक, जब
तक हम बाहर
दौड़े चले जाते
हैं। बाहर की
दौड़ का भ्रम, वह इल्यूजन
कि बाहर से हम
अपने को भर
लेंगे, टूट
जाना जरूरी है।
तोड्ने
के लिए कोई
बहुत श्रम
करने की बात
भी नहीं है, केवल आंख
खोलने की बात
है। थोड़ा जीवन
को आंख खोल कर
देखने की बात
है, चारों
तरफ आंख खोल
कर देखने की
बात है।
सिकंदर के
खाली हाथ आंख
खोल कर देखने
की बात है,सब
के खाली हाथ आंख
खोल कर देखने
की बात है।
जीवन में
चारों तरफ
देखने की बात
है कि लोग क्या
कर रहे हैं और
क्या पा रहे
हैं? क्या
मिल रहा है? क्या है
उनकी उपलब्धि?
क्या है
जीवन भर का
निष्कर्ष? कहां
वे पहुंच गए
हैं? कहीं
पहुंच गए हैं
या कोल्हू के
बैल की तरह
चक्कर काट रहे
हैं? सिर्फ
लगता है कि चल
रहे हैं या कि
कहीं पहुंच भी
रहे हैं? पूछें
लोगों से, देखें
लोगों को, समझें
लोगों को, झांकें
लोगों के भीतर—
कौन कहां
पहुंच रहा है?
और अपने
भीतर भी—मैं
कहां पहुंच
रहा हूं?
जो
मनुष्य इतना
भी नहीं पूछता
और चला जाता
है, बहा
जाता है, वह
तो मनुष्य
होने का
अधिकार भी खो
देता है। फिर
उसके जीवन में
अगर उलझनें
बढ़ती चली जाएं
तो कौन है
जिम्मेवार? कौन है रिस्पासिबल?
किसका
उत्तरदायित्व
है? सिवाय
स्वयं के और
तो किसी का भी
नहीं।
हम
जीवन को कभी
खोज के लिए, जीवन को
पूछने के लिए
खड़े भी नहीं
होते, आंख
खोल कर देखते
भी नहीं कि यह
क्या हो रहा
है? जिन गड्डों
में हम दूसरे
लोगों को
गिरते देखते
हैं, हम
खुद उन्हीं गड्डों की
तरफ बढ़े जाते
हैं। जिन
रास्तों पर हम
दूसरे लोगों
को जीवन को मिटाते
देखते हैं, उन्हीं
रास्तों पर हम
भी दौड़े चले
जाते हैं।
देखते हैं
चारों तरफ, फिर भी आंख
शायद हम खोल
कर नहीं देखते।
अन्यथा यह
कैसे हो सकता
था कि वे ही
भूलें हजारों
वर्ष से जो
मनुष्य कर रहा
है, हर पीढ़ी
उन्हीं भूलों
को किए चली
जाए! दस हजार
वर्ष का इतिहास
क्या है? दस—पांच
भूलों को बार—बार
दोहराए जाने
के सिवाय और
क्या है? हर
पीढ़ी कोई
नई भूलें करे
तो भी ठीक है, तो भी समझ
में आए कि कोई
नई भूलें हो
रही हैं, दुनिया
में विकास हो
रहा है। हर पीढ़ी
वही भूलें
करती है, वही
रिपीटीशन,
रिपीटीशन......। जो मेरे
पिता भूल करते
हैं, जो
उनके पिता
करते हैं, जो
उनके पिता, वही मैं
करता हूं वही
मेरे बच्चे
करेंगे, वही
उनके बच्चे
करेंगे।
मनुष्य—जाति
किसी कोल्हू
के चक्कर में
पड़ गई है।
करीब—करीब एक
सी भूलें हर पीढ़ी
दोहरा देती है
और खत्म हो
जाती है।
नई
भूलें हों तो
भी स्वागत
किया जा सकता
है उनका, लेकिन
पुरानी भूलें
अगर बार—बार
होती हों, तो
एक ही बात पता
चलती है कि शायद
मनुष्य आंख
खोल कर भी
देखता नहीं और
चल पड़ता है।
शायद हम सोए—सोए
चल रहे हैं, शायद हम
नींद में हैं,
शायद हम
जागे हुए नहीं
हैं, कोई
गहरी निद्रा
हमें पकड़े
हुए है।
अन्यथा यह
कैसे हो सकता
था, यह
कैसे संभव था
कि दस हजार
वर्ष तक
मनुष्य निरंतर
कुछ बुनियादी
भूलों को बार—बार
दोहराता चला
जाए? दस
हजार साल की
महत्वाकांक्षा
की मूर्खता आज
भी हमें दिखाई
नहीं पड़ती। एंबीशन का
पागलपन आज भी
दिखाई नहीं
पड़ता। दस हजार
वर्ष की हिंसा,
युद्ध, उनकी
नासमझी हमें
आज भी दिखाई
नहीं पड़ती। हम
नये—नये नाम
लेकर फिर भी
लड़े जाते हैं,
नाम बदल लेते
हैं, लड़ाई
जारी रखते हैं।
पांच
हजार साल में
पंद्रह हजार
युद्ध लड़े हैं
आदमी ने।
पंद्रह हजार
युद्ध केवल
पांच हजार साल
में! तीन
युद्ध प्रति
वर्ष! या तो
आदमी पागल है
या यह क्या है? और हर
युद्ध को लड़ने
वालों ने यह
समझा है कि हम शांति
के लिए लड़ रहे
हैं। पंद्रह
हजार युद्ध!
और हर युद्ध
का लड़ने वाला
यह समझता है
कि हम शांति
के लिए लड़ रहे
हैं। और आज भी
जो युद्ध हम
लड़ते हैं, उसमें
भी हम कहते
हैं, शांति
के लिए इस
युद्ध को लड़
रहे हैं।
पंद्रह हजार
युद्ध लड़े जा
चुके शांति के
लिए, शांति
नहीं आई। एक
और युद्ध लड़ने
से शांति आ
जाएगी? पंद्रह
हजार युद्धों
की मूर्खता
दिखाई नहीं पड़ती?
जरा भी
दिखाई नहीं
पड़ती। हर नया
युद्ध ऐसा
मालूम पड़ता है
और ही तरह का युद्ध
है। पुराने
लोगों ने की
होगी गलती। हम
जो युद्ध लड़
रहे हैं, यह बात ही और
है, इससे
तो शांति की
रक्षा हो
जाएगी।
यही
वहम उनको भी
था। अगर यह
वहम उनको न
होता तो वे भी
न लड़े होते।
और जब तक हमें
भी यह वहम है
तब तक हम भी
लड़े जाएंगे, लड़ाई बंद
नहीं हो सकती
है। लेकिन वहम
नहीं टूटता, पंद्रह हजार
युद्ध लड़ने के
बाद भी हमें
दिखाई नहीं
पड़ती युद्ध की
मूर्खता, नासमझी।
और भी सब
मामलों में
यही है, सब
मामलों में
यही है।
हम से
पहले अरब—अरब
लोग जमीन पर
रहे हैं, उन सबने
क्या किया था,
वही हम कर
रहे हैं। किन
चीजों के लिए
वे जीए और मरे,
वही हम कर
रहे हैं।
च्चांगत्से नाम का
एक चीनी फकीर
एक मरघट से
निकलता था। वह
मरघट कोई
साधारण मरघट
नहीं था। उस
राजधानी में
दो मरघट थे
छोटे लोगों का
मरघट और बड़े
लोगों का मरघट।
आदमी जिंदा
में तो छोटे
और बड़े होते
ही हैं, मरने के बाद
भी फासला रखते
हैं। बड़े
आदमियों का
मरघट अलग होता
है। मिट्टी
में मिल जाते
हैं, लेकिन
बड़े होने का
खयाल नहीं मिटता।
कब अलग बनवाते
हैं, चिता
अलग जलवाते
हैं। वह मरघट
बड़े लोगों का
मरघट था। च्चांगत्से
वहां से
निकलता था तो
उसके पैर में
एक खोपड़ी की
चोट लग गई।
उसने उस खोपड़ी
को उठा लिया
और अपने
मित्रों से
कहा, बड़ी
भूल हो गई।
किसी बड़े आदमी
के सिर में
मेरा पैर लग
गया।
उसके मित्र
हंसे और
उन्होंने कहा, एक
मुर्दे को पैर
लग भी गया तो
क्या हर्जा है?
च्चांगत्से ने कहा, हंसो मत! क्योंकि
यह आदमी किसी
दिन जिंदा रहा
होगा और किसी
दिन इसके सिर
में पैर लगाना
तो दूर इसके
सिर की तरफ
अंगुली उठाना
भी खतरनाक हो
सकता था।
संयोग की बात
है कि बेचारा
मर गया। इसके
बस में न था, नहीं तो यह
मरता भी नहीं।
लेकिन फिर भी
मुझे तो क्षमा
मांगनी ही
चाहिए, भूल
हो गई।
वह उस
खोपड़ी को घर
उठा लाया। उस
खोपड़ी को सदा
अपने पास रखता
था। लोग उससे
पूछते, यह क्या किए
हुए हैं? तो
वह कहता, मैं
इससे रोज
क्षमा मांग
लेता हूं। जिंदा
आदमी होता तो
एक ही बार
क्षमा करने से,
क्षमा
मांगने से
क्षमा भी मिल
जाती। अब यह
मुर्दा है, यह बोलता भी
नहीं, उत्तर
देता भी नहीं।
मैं बड़ी अड़चन
में पड़ गया
हूं। जिंदा
आदमी हो तो
क्षमा भी मिल
सकती है, मुर्दा
आदमी से क्षमा
मिलना भी कठिन
है। इसीलिए तो
जो मुर्दा
होते हैं वे
कभी किसी को
क्षमा नहीं
करते, जिंदा
आदमी तो क्षमा
भी कर सकता है।
तो उस च्चांगत्से
ने कहा, बड़ी मुश्किल
है। ये है
मुर्दा, मुझसे
हो गई है भूल, सिर में लग
गई है इसके
चोट, नाराज
तो जरूर हो
रहा होगा।
क्योंकि जो
आदमी जिंदा है
वह तो नाराज
भी नहीं होता
है, मुर्दे
बहुत नाराज
होते हैं, बहुत
गुस्से में आ
जाते हैं।
इससे मांगता
हूं क्षमा, पता नहीं इस
तक पहुंचती है
कि नहीं
पहुंचती, इसलिए
रोज मांग लेता
हूं। फिर एक
बात और है, इसे
साथ रखने से
मुझे एक फायदा
हुआ। मुझे
अपनी खोपड़ी के
बाबत जो इल्यूजन
था, जो
भ्रम था, वह
टूट गया। अब
मेरे सिर में
कोई लात भी
मार दे तो भी
मैं हसूंगा,
क्योंकि
मैं जानता हूं
कि यह सिर आज
नहीं कल लातों
के नीचे आ
जाने को है।
तो जो आज नहीं
कल लातों के
नीचे आ जाने
को है, उसके
लिए परेशान
होना कहां की
समझदारी हो
सकती है?
च्चांगत्से ने कहा, इस खोपड़ी
को देखते—देखते
मुझे अपनी
खोपड़ी के बाबत
भी बड़ी सच्चाइयों
का पता चल गया।
मैं इसके बाबत
नाहक भ्रम में
था, मैं
इसको सदा ऊंचा
और ऊपर रखने
की कोशिश करता
था। फिर मुझे
पता चला यह तो
नीचे गिरने को
है। तो मैंने,
मुझे एक बात
दिखाई पड़ गई।
यह बात
हम में से
कितनों को
दिखाई पड़ती है? और अगर
नहीं दिखाई
पड़ती, तो
हम अगर सोए
हुए या अंधे
की तरह चल रहे
हैं, यह
कहने में कौन
सी गलती है? यह हमें कुछ
भी दिखाई नहीं
पड़ता है। और
इसीलिए हमें
यह भी नहीं
दिखाई पड़ता कि
बाहर की दौड़
हमेशा व्यर्थ
रही है, हम
भी उसी दौड में
दौड़े चले जाते
हैं। हमें असल
में कुछ भी
दिखाई नहीं
पड़ता। दिखाई
पड़ने से हमारा
कोई संबंध ही
नहीं रहा। हम
जीवन के किसी
भी, किसी
भी तल पर आंख
खोल कर देखने
में असमर्थ से
हो गए हैं। हम
देखते ही नहीं,
या हो सकता
है हम देखना न
चाहते हों।
एक
फकीर था, इब्राहिम।
एक गांव के
बाहर रहता था।
अनेक राहगीर
उस रास्ते से
गुजरते, चौराहा
था वह, दूसरे
रास्ते भी उस
जगह आकर मिलते
और फूटते थे।
तो राहगीर
उससे पूछ लेते
कि पास की जो
बस्ती है उसका
रास्ता कहां
है? रोज झगड़ा
हो जाता, रोज
मुश्किल हो
जाती। वह फकीर
बड़ा गड़बड़ रहा
होगा। एक दिन तो
बहुत झंझट हो
गई। एक आदमी
ने उसके सिर
पर लकड़ी भी
मार दी। उस
आदमी ने पूछा
था कि बस्ती
का रास्ता
कहां है? उसने
कहा, पूरब
की तरफ चले
जाओ, दो—तीन
मील के बाद
बस्ती आ जाएगी।
और भूल कर भी
पश्चिम की तरफ
मत जाना, वहां
बस्ती नहीं है।
वह
आदमी पूरब की
तरफ गया, तीन मील के
बाद मरघट आ
गया। तो उसे
बड़ा गुस्सा
आया कि यह
आदमी बड़ा पागल
है! लौट कर आया
तो पता चला कि
बस्ती तो
पश्चिम की तरफ
है। तो वह
इब्राहिम के
पास गया और
कहा, तुम्हारा
दिमाग खराब है?
मरघट को
बस्ती बताते
हो! और मुझसे
कहा कि बस्ती
वहां है नहीं
पश्चिम की तरफ,
जहां कि
बस्ती है!
उस
इब्राहिम ने
कहा कि मेरे
भाई, बहुत
दिन से मैं
यहां रहता हूं।
मरघट में जो
लोग बस गए हैं
उनको मैंने
कभी वहां से
हटते नहीं
देखा, इसलिए
उसको बस्ती
कहता हूं। और
यहां जो लोग
बसते हैं वे
तो रोज हट
जाते हैं, रोज
गुजर जाते हैं।
तो यहां तो
मैं देखता हूं
मरने वालों की
भीड़ लगी है, आज मरेगा
कोई, कल
मरेगा कोई, परसों मरेगा
कोई। उसे
बस्ती कैसे
कहूं? वहां
तो रोज कोई
विदा होता है,
वहां कोई
बसता तो है ही
नहीं। लेकिन
उस मरघट में
जो भी बसा है, वहां जो बस
गया, बस
गया, वहां
से कभी जाता
हुआ दिखाई
नहीं पड़ता।
लेकिन
कौन समझेगा
उसको? उस
आदमी ने तो
मारा
इब्राहिम को
और कहा कि तुम पागल
हो, तुम
यहां से अपना
स्थान हटा लो।
क्योंकि तुम
मुझको ही नहीं
गुमराह किए, तुमने और न
मालूम कितने
लोगों को
गुमराह करके मरघट
भेजा होगा।
लेकिन
मैं आपसे कहता
हूं इब्राहिम
को दिखाई पड़ता
था। और सच बात
तो यह है कि
जिन लोगों को
भी दिखाई पड़ता
है, वे
ही हमें ऐसे
मालूम पड़ते
हैं कि जैसे
गुमराह कर रहे
हैं। अंधों की
भीड़ है, उसमें
एकाध आदमी को
कभी दिखाई
पड़ता है तो
अंधे उस पर
टूट पड़ते हैं,
मार डालते
हैं— कि इसको
खत्म करो, यह
आदमी कुछ
हमारे बीच का
नहीं है, कुछ
गड़बड़ है।
मालूम होता है
इसकी आंखें
खराब हो गई
हैं। इसलिए
सुकरात को जहर
पिला देते हैं,
क्राइस्ट
को फांसी लगा
देते हैं, गांधी
को गोली मार
देते हैं।
अंधों के बीच आंख
होना बड़ी
खतरनाक बात है,
जिंदा रहना
बड़ा मुश्किल
है। पागलों के
बीच स्वस्थ
होने से
ज्यादा खतरा
और दुर्भाग्य
कोई भी नहीं
हो सकता, क्योंकि
पागल बेचैन हो
जाते हैं।
क्यों हो जाते
हैं बेचैन? बेचैन हो
जाते हैं
इसलिए कि जब
भी कोई आंख
वाला आदमी गैर
आंख वालों की
बस्ती में
पैदा हो जाए, तो उसकी आंखें
हमारे लिए
अपमान बन जाती
हैं, हमारे
लिए पीड़ादायी
हो जाती हैं।
उसकी आंखों के
होने से हमको
इस बात का
अहसास होना
शुरू हो जाता
है कि हम अंधे
हैं। और कोई भी
अपने को अंधा
नहीं देखना
चाहता। इसलिए
उसे खतम कर
देने के लिए
हम एकदम
उत्सुक और
पागल हो जाते
हैं। उसको खतम
करके हम
निश्चिंत हो
जाते हैं, फिर
हमें फिकर मिट
जाती है। फिर
बाकी सब अंधे
होते हैं, जिनके
साथी हम होते
हैं, उनसे
हमें कोई
बेचैनी नहीं
होती। बाकी
अंधे हमारे
ऊपर क्रिटिसिज्म
नहीं हैं, हमारी
आलोचना नहीं
हैं, हमारा
अपमान नहीं
हैं। लेकिन आंख
वाला आदमी
हमारी आलोचना
है, उसका
होना हमारे
लिए अपमान है।
लेकिन
हम सब जब तक आंख
बंद किए चलते
रहेंगे, तब तक यह
संभव नहीं है
कि जो व्यर्थ
है जीवन में
वह छूट जाए और
जो सार्थक है
उसकी दिशा में
हमारे कदम बढ़
सकें। सबसे
बड़ी केंद्रीय
बात तो यही है
कि जो आदमी आंख
खोल कर नहीं
देखेगा, वह
मरते वक्त
पाएगा हाथ
खाली हैं। आंख
खोल कर देखना
जरूरी है
जिंदगी को।
शास्त्रों
को नहीं!
शास्त्रों को
देखने में कोई
कठिनाई नहीं
है। आंख बंद
करके शास्त्र पढ़े जा
सकते हैं।
लेकिन जिंदगी आंख
खोले बिना
नहीं देखी जा
सकती।
शास्त्र आंख
बंद किए पढ़े
जा सकते हैं।
अगर यह बात सच
न होती, तो शास्त्र
पढ़ने वाले लोग
सत्य को
उपलब्ध हो गए
होते। लेकिन
शास्त्र पढ़ने
वाले लोग तो
सत्य से बहुत
दूर मालूम
पड़ते हैं। आंख
बंद किए
शास्त्र पढ़ने
में कोई
कठिनाई नहीं
है। जैसे अंधे
भी किताबें पढ़
लेते हैं, उनकी
अपनी पद्धति
होती है पढ़ने
की। ऐसे ही आंख
बंद किए गीता
और कुरान पढ़े
जा सकते हैं।
कोई कठिनाई
नहीं है। नहीं
तो हिंदू और
मुसलमान लड़ते?
मौलवी और
पंडित लड़ते? अगर आंख खोल
कर शास्त्र पढ़े होते
तो लड़ाई हो
सकती थी? लेकिन
आंख खोलने की
कोई शर्त नहीं
है शास्त्र
पढ़ने में। आंख
बंद किए मजे
से पढ़े जा
सकते हैं।
लेकिन
जिंदगी को
जिसे देखना हो
उसे तो आंख
खोलनी पड़ेगी।
जिंदगी आंख
बंद किए नहीं
देखी जा सकती।
जिंदगी चारों
तरफ मौजूद है।
जिंदगी की भूल—चूके
चारों तरफ
मौजूद हैं।
रास्ते पर
हजारों लोग चल
रहे हैं, उनके पैर
डगमगा रहे हैं,
वे गिर रहे
हैं। रोज कोई
गिर जाता है, रोज हमारे
चारों तरफ कोई
मिट जाता है, उसके हाथ
खाली होते हैं।
लेकिन फिर भी
हम आंख खोल कर
नहीं देखते।
हम अपनी दौड़
में इतने
व्यस्त हैं कि
आंख खोलने की
फुर्सत नहीं
है।
एक बात
तो जाननी
जरूरी है, थोड़ा ठहर
कर जिंदगी को
देखना आवश्यक
है। चौबीस
घंटे में कभी
थोड़ी देर को
ठहर कर जिंदगी
को देखें। जिस
रास्ते पर आप
रहते हैं, कभी
आधा घंटा उस
रास्ते के
किनारे बैठ कर
भागते हुए
लोगों को देखा
है? नहीं
देखा होगा, किसको
फुर्सत है? अगर रास्ते
के किनारे भी
आधा घंटा बैठ
कर भागते
लोगों को देखा
होता तो बहुत घबड़ाहट
होती कि ये
लोग पागल हैं
क्या? कहां
भागे जा रहे
हैं? ये
क्या कर रहे
हैं?
कभी
गौर से अपनी
पत्नी का
चेहरा भी देखा
है? कभी
गौर से अपने
पति को देखा
है? कभी
शांति से, पंद्रह
मिनट मौन से
अपने बच्चे को
देखा है?
नहीं, किसी को
फुर्सत नहीं
है। जिंदगी
क्या देखेंगे
आप? परमात्मा
के दर्शन क्या
करेंगे? बहुत
दूर की बातें
हैं। आसपास जो
हमारे चारों
तरफ मौजूद हैं,
उनकी तरफ भी
हमारी आंखें
खुली हुई नहीं
हैं। आपके
द्वार पर जो
वृक्ष लगा है,
कभी दो क्षण
उसे देखा है? किसको
फुर्सत है!
आकाश में इतने
तारे निकलते हैं
रोज रात, कभी
आधा घड़ी मौन
से उनकी तरफ
निहारा है? किसको
फुर्सत है!
किसको समय है!
दौड़ है तेज, और रुकने का
किसी के पास
कोई समय नहीं
है। और दौड़
कहां ले जाती
है? बड़ी
तेजी से दौड़
कर मौत में
पहुंच जाते
हैं। और रुकने
का किसी के
पास समय नहीं
है।
तो मैं
निवेदन
करूंगा, अगर जीवन
में कहीं
पहुंचना हो तो
थोड़ी देर रुकना
भी सीखना
चाहिए। वे ही
थोड़े से लोग
जो रुकने में
समर्थ हो पाते
हैं, देखने
में समर्थ हो
पाते हैं।
देखने की पहली
शर्त है—रुकना।
थोड़ी देर रुक
कर देखें तो!
चारों तरफ
देखें—क्या हो
रहा है?
अगर
चारों तरफ आप
गौर से
देखेंगे, तो उन्हीं
भूलों को आप
नहीं कर
पाएंगे जो
आपके चारों
तरफ हो रही हैं।
एक
छोटी सी कहानी
कहूं,
उससे मेरी बात
समझ में आ जाए।
एक
युवक एक रात
अपने मित्र के
घर एक राजधानी
में आकर ठहरा।
चिंतित था, रात
करवटें बदलता
था, नींद
नहीं आती थी।
उसके मित्र ने
पूछा, क्या
बात है?
पुराने
दिनों की बात
है, आज
की बात नहीं।
नहीं तो कितनी
ही करवटें बदलिए,
कोई मित्र न
पूछेगा कि
क्या बात है? यह तो बहुत
पुरानी कहानी
है, उस
वक्त मित्र
पूछते थे।
किसी को करवट
बदलते देखते
थे तो पूछते
थे—क्या बात
है? अब तो
कोई मित्र
नहीं पूछता, आप करवट बदलिए
तो वह और गहरी
नींद में सो
जाता है।
लेकिन पुरानी
कहानी है इसलिए
मैंने उसको
बदला नहीं, वैसे ही
रहने दिया। वह
करवट बदलता था
तो उसके मित्र
ने पूछा, क्या
बात है? नींद
नहीं आती, कोई
पीड़ा? कोई
बेचैनी?
उस
युवक ने कहा, बहुत मन
में बेचैनी है।
जिस गुरुकुल
में मैं पढ़ता
था, दस
वर्ष वहां रहा,
गुरु ने ही
भोजन दिया, गुरु ने ही कपड़ा दिया,
गुरु ने ही
शान दिया। सब
कुछ लिया उनसे
और मेरे पास
एक कौड़ी
भी न थी कि
उनको भेंट कर
सकता। जब अंत
में विदा हुआ,
सारे मेरे
मित्रों ने
कुछ न कुछ
भेंट दिया, मैं कुछ भी
भेंट नहीं दे
पाया। आज वहीं
से लौटा हूं
गुरुकुल से, मेरी आंखों
में आंसू हैं
और मेरे हृदय में
बड़ी वेदना है
कि मैं गुरु
को कुछ भी
भेंट नहीं कर
पाया हूं।
उसके
मित्र ने पूछा, क्या तुम
भेंट करना
चाहते हो?
ज्यादा
नहीं, उसने
कहा, पांच
स्वर्ण अशर्फियां
मिल जाएं तो
बहुत है।
उसके
मित्र ने कहा, चिंता मत
करो। इस गांव
का जो राजा है,
उसका नियम
है, उसका
व्रत है कि
पहला याचक
उससे जो भी
मांग ले, वह
भेंट कर देता
है। तो तुम कल
जल्दी जाना
सुबह, राजा
से मांग लेना।
पांच अशर्फियां
मिल जानी कठिन
नहीं हैं।
वह
युवक रात भर न
सो सका। जिसको
सुबह पांच अशर्फियां
मिलनी हों वह
कभी रात भर सो
सकता है? वह भी नहीं
सो सका। सुबह
बहुत जल्दी
अंधेरे में ही
भागा हुआ
राजमहल पहुंच गया।
राजा निकला तो
उसने कहा कि
मैं पहला याचक
हूं। मेरी
मांग है थोड़ी
सी, पूरी
कर देंगे?
राजा
ने कहा, स्वागत है
तुम्हारा। और
तुम आज के ही
पहले याचक
नहीं, मेरे
जीवन के ही
पहले याचक हो।
यह हमारा
राज्य बड़ा
समृद्ध है, कोई मांगने
नहीं आता।
इसीलिए तो मैं
भी हिम्मत कर
सका कि कोई जो
भी मांगेगा
उसको दे दूंगा।
नहीं तो मैं
भी कैसे
हिम्मत कर
सकता था!
लेकिन आज तक
कोई मागने
आया नहीं, तुम
पहले ही याचक
हो, आज के
ही नहीं, पूरे
जीवन के। तुम
जो भी मांगोगे,
मैं दूंगा।
राजा ने कहा, जो भी
मांगोगे, मैं
दूंगा। युवक
के भीतर पांच अशर्फियां
मिट गईं, खयाल
उसे भूल गया।
उसने सोचा, जो भी
मांगोगे
दूंगा, तो
मैं पागल हूं
जो मैं पांच
मांग! पचास
क्यों न मांग?
या पांच सौ
या पचास हजार
या पांच लाख? संख्या बड़ी
होती गई। राजा
सामने खड़ा था,
भीतर
संख्या बड़ी होती
जाती थी। युवक
तय न कर पाता
था कितने मांग
र क्योंकि राजा
कहता है जो भी
मांगोगे। वह
भूल गया यह कि
पांच अशर्फियां
मांगने आया था,
जरूरत मेरी
पांच की थी।
जरूरत खतम हो
गई अब, जरूरत
कोई भी न थी, अब तो
संख्या का सवाल
था।
राजा
ने कहा, तुम चिंतित
मालूम पड़ते हो,
विचार नहीं
कर पाते। तुम
सोच लो ठीक से,
मैं घूम कर
आया, बगिया
में एक चक्कर
लगा आऊं।
युवक
ने कहा, ठीक है, बड़ी
कृपा है। आप
चक्कर लगा आएं,
मैं थोड़ा
विचार कर लूं।
विचार
क्या करना था? संख्याओं
पर संख्याएं
बढ़ती चली गईं।
आखिर संख्या
का अंत आ गया, जितनी संख्याएं
उसे मालूम थीं।
आज उसके हृदय
में बड़ा दुख
और बड़ी पीड़ा
घिर गई। उसके
गुरु ने बहुत
कहा कि और
गणित सीखो, लेकिन गणित
में वह कमजोर
रहा। सोचता था
गणित का फायदा
क्या है आखिर
इतना सीखने का?
आज पता चला
कि फायदा था, आज संख्या अटक
गई एक जगह
जाकर, उसके
बाहर, उसके
ऊपर कोई
संख्या उसे
मालूम नहीं।
इतना ही मांग
कर लौट जाना
पड़ेगा। पता
नहीं राजा के
पास पीछे और
कितना बच जाए?
एक मौका
मिला था वह
खोया जा रहा
है। मिलने की
खुशी न रही, जो छूटता था
उसका दुख पकड़
लिया।
सभी के
साथ ऐसा होता
है, उसके
साथ भी ऐसा ही
हुआ। राजा लौट
कर आ गया, उसने
पूछा कि मालूम
होता है
निश्चिंत
तुमने सोच
लिया।
तब
युवक ने अंतिम
छलांग ली, उसे एकदम
अंतर्दृष्टि
मिली। संख्याएं
तो खत्म हो गई
थीं, उसने
सोचा
संख्याओं की
बात ही बंद
करूं। राजा के
पास जो कुछ है
सब मांग लूं।
राजा से कह
दूं कि दो
वस्त्र
तुम्हारे लिए
काफी हैं, पहने
हो, बाहर
निकल जाओ। अब
भीतर जाने की
कोई भी जरूरत
नहीं। जैसे
मैं दो वस्त्र
पहन कर आया, ऐसे ही आप भी
विदा हो जाएं।
सब मेरा हुआ।
संख्या में
भूल—चूक हो
सकती थी इसलिए
सब मांग लेना
उचित था।
जो भी
गणित में ठीक—ठीक
समझता है, वह भी यही
करता। सोचा था
राजा घबड़ा
जाएगा। बात
लेकिन उलटी हो
गई। कई बार
नाव पर लोग
सवार होते हैं,
कभी—कभी नाव
भी लोगों पर
सवार हो जाती
है। उस दिन भी
ऐसा ही हो गया।
उस युवक ने
सोचा था राजा
घबड़ा जाएगा।
एकदम सम्राट
से हो जाएगा
दो कौड़ी
का भिखारी।
कोई भी घबड़ा
जाएगा। हो
सकता है मर ही
जाए। लेकिन
बात हो गई
उलटी। जैसे ही
उस युवक ने
कहा कि सब
मुझे दे दें, जो दो कपड़े
पहने हुए हैं,
केवल ये ही
लेकर बाहर
निकल जाएं। उस
राजा ने जोड़े
हाथ आकाश की
तरफ और कहा, हे परमात्मा,
जिसकी मैं
प्रतीक्षा और
प्रार्थना
करता था, तूने
उसे भेज दिया!
उस युवक को
लगा लिया गले
और कहा, दो
कपड़े नहीं, दो कपड़े भी
नहीं ले जाऊंगा।
इतना भी दुख
तुझे न दूंगा
कि दो कपड़े ले
जाऊं, वे
भी छोड़ देता
हूं नग्न ही
बाहर निकल
जाता हूं।
युवक
तो बहुत घबड़ा
गया। बात क्या
है? उसने
पूछा, बात
क्या है? इतने
प्रसन्न
क्यों हैं? इतने आनंदित
क्यों हैं?
राजा
ने कहा, मुझसे मत
पूछ। महलों
में रह और देख।
राज्य को
सम्हाल और समझ।
आखिर मैंने भी
मुफ्त में
नहीं जाना, तीस साल इन
दीवालों के
भीतर बिताए
हैं तब जान पाया
हूं। तो तू भी
रह और विचार।
अभी तू युवा
है, इतनी
जल्दी क्या है,
मुझसे क्या
पूछता है? और
दुनिया में
कोई किसी से
पूछ कर कभी
समझा है? कोई
भी नहीं समझ
पाता। तू रुक!
तू रुक और ठहर
और मैं जाता
हूं ये कपड़े भी
सम्हाल।
वह
युवक बोला, ठहरें! एक क्षण ठहरें!
मैं अनुभवी
नहीं हूं एक
मौका मुझे
सोचने का और
दें। राजा ने
कहा कि नहीं, जो सोचता है
वह मुश्किल
में पड़ जाता
है। इसीलिए तो
दुनिया में
कोई सोचता
नहीं, हर
आदमी बिना ही
सोचे चला जाता
है। तू भी मत
सोच। सोचने
वाले मुश्किल
में पड़ जाते
हैं; सोचने
वालों के
सामने जीवन एक
समस्या बन
जाता है; सोचने
वालों के लिए
जीवन एक साधना
बन जाता है।
सोच मत। अभी
जिंदगी पड़ी है,
खूब सोच
लेना बाद में।
पहले तू भीतर
जा, मैं
बाहर जाऊं।
जितना राजा ने
आग्रह किया कि
तू सम्हाल, उतना ही
युवक ढीला
होता गया। उस
युवक के हाथ—पैर
ढीले हो गए।
उसने कहा, माफ
करें, एक
मौका मुझे दें।
मैं नासमझ हूं
और आप मेरे
पिता की उम्र के
हैं, मुझ
पर इतनी कृपा
करें—एक बगिया
का चक्कर और
लगा आएं, मैं
एक दफा और सोच
लूं। राजा ने
कहा कि देख, बगिया का
चक्कर तो मैं
लगा आऊंगा,
लेकिन तू
यहां मुझे
वापस मिलेगा
इसमें संदेह है।
और यही
हुआ, राजा
चक्कर लगा कर
लौटा, वह
युवक वहां
नहीं था। वह
भाग गया था।
वह पांच अशर्फियां
भी छोड़ गया जो
कि उसे लेनी
थीं। क्यों? क्या हो गया?
उस
युवक के पास
देखने वाली आंखें
थीं, वह
देख पाया।
इसको मैं
देखना कहता
हूं। जिंदगी
में ऐसी आंख
जिसके पास है
वही आदमी
धार्मिक हो
सकता है।
देखने वाली आंख!
आंखें तो हम
सबके पास हैं,
हम उनसे कभी
देखने का काम
ही नहीं लेते।
जिंदगी भी
चारों तरफ
मौजूद है, सब
कुछ मौजूद है,
हम आंखों का
काम ही नहीं
लेते। आंख
खोलें और थोड़ा
देखें, जिंदगी
में वे सारे
इशारे हैं जो
निरंतर दोहराई
गई भूलों से
किसी भी आदमी
को जगा देने
में समर्थ हैं।
कोई शास्त्र
नहीं कर सकता
जो, कोई
गुरु नहीं कर
सकता जो, जिंदगी
वह कर सकती है,
लेकिन खुली
हुई आंख चाहिए।
कौन खोलेगा यह
आंख? कोई
दूसरा आपकी आंख
खोल सकता है? नहीं, आंखें
आपके पास हैं,
आज से ही
खोल कर देखें
जिंदगी को
चारों तरफ, छोटी—छोटी
घटनाओं को
देखें।
एक
मित्र अभी आठ
दिन पहले ही
मेरे पास आए
और उन्होंने
मुझसे कहा कि
निरंतर आप
कहते हैं, आंख खोल
कर देखें, आंख
खोल कर देखें।
क्या आंख खोल
कर देखें? यह
एक घटना है, इसमें बताइए
मैं क्या करूं?
एक पत्र
मेरे सामने
रखा। किसी ने
उन्हें लिखा
था, बहुत
जहर भर दिया
था पत्र में।
जितनी भी
गालियां हो
सकती थीं, दी
थीं, जितना
भी क्रोध
प्रकट किया जा
सकता था, किया
था, जितना
भी अपमान किया
जा सकता था, किया था। वे
थर— थर कांप
रहे थे क्रोध
से और मुझसे
बोले, मेरा
मन होता है इस
आदमी के साथ
जो भी मैं कर
सकूं करूं। अब
आप क्या कहते
हैं? आंख
खोल कर क्या देखूं? आप
कहते हैं कि
क्रोध हजारों
वर्ष से आदमी
कर रहा है, आंख
खोल कर देखना
चाहिए। मैं
क्या देखूं?
मैंने उनसे
कहा, एक
पत्र इसके
उत्तर में
लिखें, यहीं
मेरे सामने।
वे मेरे सामने
बैठ गए और
उन्होंने एक
उत्तर में
पत्र लिखा।
मैंने वह पत्र
उन्होंने जो
लिखा था रख
लिया और मैंने
कहा, सुबह
वापस आ जाएं, सुबह इस
पत्र को पोस्ट
कर देंगे।
वे
सुबह आए।
मैंने उनसे
कहा, एक
दफा इस पत्र
को फिर पढ़
जाएं जो आपने
लिखा है। फिर
हम इसे पोस्ट
कर दें।
उन्होंने
उस पत्र को
पढ़ा और बोले
कि नहीं, यह थोड़ा
ज्यादा कठोर
हो गया।
तो
मैंने कहा, दुबारा
लिखें, अभी
हर्ज क्या हुआ!
उन्होंने
दूसरा पत्र
लिखा। पहले
पत्र से दूसरे
पत्र में जमीन—आसमान
का फर्क हो
गया था। मैंने
उनसे कहा, शाम फिर आ
जाएं, शाम
को पोस्ट कर
देंगे।
उन्होंने
कहा, अभी
नहीं करेंगे?
मैंने
कहा, अगर आंखें
होतीं तो तुम
समझ जाते, कि
अगर रात को ही
इसे पोस्ट कर
दिया होता तो
क्या होता? लेकिन सुबह
तुम बदलने को
राजी हो गए।
हो सकता है
शाम को और
बदलने को राजी
हो जाओ, शाम
तक प्रतीक्षा
करने में कोई
हर्जा नहीं है।
गाली थोड़ी देर
से देने से
कुछ बिगड़ा
नहीं जाता है,
शाम तक रुक
जाओ।
शाम को
वे फिर आए, उन्होंने
पत्र पढ़ा और
कहा कि नहीं, अभी भी कठोर
है।
मैंने
कहा, फिर
से लिख दें, हर्ज क्या
है!
फिर
पत्र मैंने
उनको दे दिया
और मैंने कहा, इसे अब
अपने पास रख
लें और जिस
दिन आपको लगे
कि अब इसमें
परिवर्तन
करने की कोई
गुंजाइश नहीं,
उस दिन
डालें, उसके
पहले नहीं।
आठ दिन
बाद वे मेरे
पास आए और
उन्होंने कहा, पत्र
डालने की कोई
जरूरत ही नहीं
है।
जो
क्रोध के क्षण
में गालियां उगली थीं
वह पत्र भी
मौजूद था, दूसरी
सुबह जो पत्र
लिखा था वह
१गई, आठ
दिन बाद कोई
लिखने की
जरूरत न रही, क्यों? आठ
दिन में जितना
उन्होंने गौर
से देखा, उतना
ही क्रोध की
व्यर्थता
दिखाई पड़ती
चली गई।
गुरजिएफ
एक फकीर था, उसके
पिता ने उससे
मरते वक्त कहा,
एक बात खयाल
रखना, अगर
किसी को प्रेम
देना हो तो एक
क्षण की भी देर
मत करना। आदमी
बहुत कंजूस है,
एक क्षण भी
रुक जाए तो
फिर प्रेम
नहीं देता है।
और किसी को गाली
देना हो तो एक
क्षण की देर
जरूर कर देना।
आदमी बहुत
समझदार है, एक क्षण रुक
जाए तो फिर
किसी को गाली
नहीं देता है।
जिंदगी
में देखने का
सूत्र चाहिए, चौबीस
घंटे हम कुछ
कर रहे हैं—
बिना देखे कर
रहे हैं—
क्रोध, घृणा,
सब बिना
देखे कर रहे
हैं। लोगों को
भी नहीं देख
रहे हैं, आंखें
बंद हैं; इस
बंद आंख में
फिर हम जो भी
करते हैं उससे
जीवन उलझता चला
जाता है। तो
जीवन की
समस्या के
प्रति आंख
खुली चाहिए।
इस खुली आंख
को ही हम
दर्शन कहते
हैं। दर्शन
किताबों में
नहीं है, फिलासफी की किताबों
में नहीं है।
दर्शन है
देखने वाले की
क्षमता में।
और जो आदमी
देखने लगता है,
देखने लगता
है, ऑब्जर्व करता है, निरीक्षण
करता है, देखता
है— एक बात
दिखाई पड़ जाती
है, बाहर
की दौड़ व्यर्थ
हो जाती है, क्रोध की
दौड़ व्यर्थ हो
जाती है, हिंसा
की दौड़ व्यर्थ
हो जाती है।
फिर क्या बचता
है? फिर
क्या शेष रह
जाता है? जब
बाहर की सारी
दौड़ व्यर्थ हो
जाती है, तो
एक क्रांति हो
जाती है भीतर,
भीतर की तरफ
गमन शुरू हो
जाता है। क्या
आपको यह पता
है—जिंदगी में
कोई चीज थिर
नहीं है, ठहरी
हुई नहीं है।
अगर बाहर की
तरफ सारी दौड़
बंद हो जाए, तो जीवन
अपने आप भीतर
की तरफ गति
करने लगता है।
भीतर की तरफ
गति करनी नहीं
होती, बाहर
के सब द्वार
बंद हो जाएं, तो जीवन
भीतर की तरफ
गति करने लगता
है।
अगर हम, एक झरना
बहता हो, उसे
बंद कर दें, तो झरना
दूसरा मार्ग
खोज लेता है।
चेतना की जो
धारा है, जो
स्ट्रीम ऑफ
कांशसनेस है,
वह बाहर की
तरफ बह रही है।
अगर बाहर की
दौड़ व्यर्थ
मालूम हो जाए,
तो चेतना की
धारा कहां
जाएगी? दो
ही दिशाएं हैं
चेतना के लिए,
तीसरी कोई
दिशा नहीं, या तो बाहर
या भीतर। अगर
बाहर की सारी
दौड़
मीनिंगलेस
मालूम हो, दिखाई
पड़ जाए कि
व्यर्थ है, तो चेतना
अपने आप
अंतर्गमन
करती है, भीतर
प्रवेश करती
है। और चेतना
का जो
अंतर्गमन है,
वही
परमात्मा में
प्रवेश है।
चेतना का जो
अंतर्गमन है,
वही धर्म
में प्रवेश है।
चेतना का जो
अंतर्गमन है,
वही सत्य
में, वही
जीवन में
प्रवेश है। और
जिस दिन चेतना
भीतर पहुंचती
है, उस दिन
जानते हैं हम—क्या
है जीवन, क्या
है सत्य, क्या
है परमात्मा।
उसी दिन
सार्थकता का
अनुभव और
कृतार्थता का
अनुभव होता है।
उस दिन हम
जानते हैं कि
भीतर खाली
नहीं है। जिसे
हमने खाली
समझा था वह
हमारी भूल थी।
भीतर तो सब
भरा है, भीतर
तो परमात्मा
है। लेकिन
बाहर को खोने
को जो राजी
होते हैं, वे
ही केवल भीतर
की पूर्णता को
पाने में
समर्थ हो पाते
हैं। जो बाहर
को भरते रहते
हैं, वे
भीतर को खो
देते हैं।
एक
छोटी सी कहानी, और मैं
अपनी चर्चा
पूरी करूंगा।
एक
भिक्षु एक दिन
सुबह अपने घर
के बाहर आया, अपनी
झोली कंधे पर
उसने डाल ली
थी और अपनी
झोली में घर
से चलते वक्त
थोड़े से चावल
के दाने भी
डाल लिए थे।
जो समझदार
भिखारी होते
हैं वे हमेशा
ऐसा करते हैं।
जो नासमझ होते
हैं वे खाली
झोली लेकर
दूसरों के घर
के सामने खड़े
हो जाते हैं।
जो समझदार
होते हैं वे
अपनी झोली में
कुछ —दाने घर
से डाल कर
निकलते हैं।
उससे दो फायदे
हो जाते हैं।
देने वाले को
ऐसा लगता है
कि मैं अकेला
ही देने वाला
नहीं हूं और
लोगों ने भी
दिया है। और
देने वाले के
अहंकार को चोट
पहुंचती है, कि जब
दूसरों ने
दिया और मैं न
दूं तो अहंकार
को धक्का लगता
है। और फिर
देने वाले को
यह भी सुख
मिलता है कि
मैं ही अकेला
इसके चक्कर
में नहीं पड़ा
हूं र दूसरे
लोग भी पड़
चुके हैं। मैं
कोई अकेला ही
इसके चक्कर
में नहीं पड़
गया हूं मैं
कोई अकेला ही मूढ़ नहीं
बनाया जा रहा
हूं और लोग भी
बनाए जा चुके हैं।
इसलिए समझदार
भिखारी अपनी
थाली में थोड़े
पैसे डाल लेते
हैं, थोड़े
चावल डाल लेते
हैं।
यहां
जो ऐसे भिखारी
आए हों जो
बिना ही डाले
निकल जाते हों, तो उनको
डाल कर निकलना
चाहिए। यहां
भी कुछ जरूर
आए होंगे।
जरूर आए होंगे,
यह बिलकुल
असंभव है कि
यहां न आए हों।
क्योंकि
भिखारी सब तरफ
कुछ न कुछ
खोजने की कोशिश
में भटकते ही
रहते हैं। कोई
सत्य की तलाश
में कहीं जाता
है, कोई
ज्ञान की तलाश
में कहीं जाता
है। वे सब
भिखारी हैं, वे सब
मांगने गए हैं—कहीं
कुछ मिल जाएगा।
कहीं कुछ
मिलता है? लेकिन
दौड़ चलती है।
वह
भिखारी भी
सुबह से निकला।
जैसे ही राजपथ
पर पहुंचा, सूरज
उगता था, और
आता था दूर से
राजा का रथ, स्वर्ण से
बना, रत्नों
से खचित।
सूर्य की
किरणों में
चमकता था रथ, दूसरा सूर्य
ही मालूम पड़ता
था। भिखारी की
आंखें
चकाचौंध से भर
गईं और भिखारी
ने धन्यवाद
दिया अपने
भाग्य को और
कहा धन्य हूं
आज। रोज जाता
था राजमहल तक,
द्वार के
सिपाही ही भगा
देते थे, कभी
राजा तक पहुंच
नहीं पाया। आज
तो मौका मिल
गया है, मार्ग
पर ही राजा
मिल गया है, तो आज तो जी
भर कर मांग
लूंगा। हो
सकता है सदा
के लिए मांगना
ही छूट जाए।
सोचते
ही सोचते में
समय बीत न
पाया और राजा
का रथ सामने आ
गया। उड़ती थी
धूल, भिखारी
घबड़ाया हुआ
खड़ा था, राजा
को देख कर भूल
गया भिक्षा के
पात्र को उठाना,
कभी राजा को
देखा नहीं था।
इसके पहले कि
वह अपनी झोली
फैलाता, राजा
ने अपनी झोली
फैला दी और उस
भिखारी से कहा,
आज तो यही
सोच कर निकला
था, जो भी
पहला व्यक्ति
मिल जाएगा
उसके सामने
भिखारी बन जाऊंगा।
राजा बने—बने
बड़ी पीड़ा में
पड़ गया हूं अब
तो भिखारी बन
जाना चाहता
हूं। राजा बने—बने
बहुत पीड़ा झेल
ली है, अब
तो भिखारी बन
जाना चाहता
हूं। तो सोचा
था आज कि जो भी
पहला व्यक्ति
मिल जाएगा, उसी के
सामने भिखारी
बन जाऊंगा।
तुम ही मिल गए,
मुझे कुछ
दान करो!
भिखारी
की मुसीबत आप
समझ सकते हैं, पहाड़ गिर
गया। सोचा था
मांग लेगा, बात उलटी हो गई,
यहां कोई और
मांगने वाला
मिल गया। जीवन
में कभी किसी
को दिया न था, हमेशा लिया
था, देने की
कोई आदत न थी।
झोली में हाथ
डालता था, खाली
वापस निकाल
लेता था, देने
की हिम्मत न
पड़ती थी। थोड़े
से चावल के
दाने थे, छूटते
न थे। किससे
छूटते हैं? दाने कितने
ही छोटे हों, थोड़े हों, छूटते किससे
हैं? उससे
भी नहीं छूटते
थे। झोली में
हाथ डालता, वापस निकाल
लेता।
राजा
ने कहा, जल्दी करो, जो भी देना
हो दे दो। न
देना हो, इनकार
कर दो।
बड़ी
हिम्मत की, मुट्ठी
बांधी, एक
दाना बाहर
निकाला और
राजा की झोली
में डाल दिया।
एक दाना! साहस
की बात थी, ऐसे
एक दाना भी
कौन छोड़ सकता
है? और
भिखारी कैसे
छोड़ सकता है? राजा बैठा
रथ में, चला
गया, धूल
उड़ती रह गई, भिखारी
पछताता रह गया।
जो मिलना था
वह तो मिला
नहीं, वे
सपने तो धूल—
धूसरित हो ही
गए और पास का
एक दाना चला
गया।
जिंदगी
बड़ी गड़बड़ है।
मांगने
निकलते हैं, उलटा
खोना हो जाता
है। खोजने
निकलते हैं, उलटे गंवा
कर लौट आते
हैं। उस
भिखारी के साथ
भी यह हो गया।
सभी
भिखारियों के
साथ यह होता
है। खोजने
निकलते हैं, पाने निकलते
हैं, बाद
में पाते हैं
कि गंवा कर
लौट आए, पास
में भी जो था
वह भी गया।
दिन भर उसने
भीख मांगी, लेकिन... बहुत
भिक्षा मिली
उस दिन, सारी
झोली भर गई..
.लेकिन झोली
भरने से कोई
सुख न हुआ, एक
दाना जो खोया
था उसकी पीड़ा
बड़ी थी। झोली
कितनी ही भर
जाए, कोई
फर्क न पड़ेगा,
जो खोया है
उसकी पीड़ा न छूटेगी।
रोता सा मन
लिए घर लौटा।
पत्नी
ने कहा, बड़े उदास हो?
लेकिन झोली
तो बहुत भरी
है!
उसने
कहा, और
भरी हो सकती
थी। लेकिन एक
दाना पास का
भी चला गया।
और अजीब था वह
राजा, हम
भिखारियों से
भी भीख मांगने
को तैयार हो
गया।
सच तो
यह है कि राजा
अगर
भिखारियों से
भीख न मांगें
तो राजा कैसे
बनें? भिखारियों
को लूट कर ही
कोई राजा बनता
है। तो उसने
भी भिखारी से
भीख मांग ली
थी तो कुछ बुरा
न किया था।
लेकिन
भिखारियों को
यह कभी समझ
में नहीं आया है
कि राजा
भिखारियों से
मांग कर ही
राजा बनते हैं।
उसकी भी समझ
में नहीं आता
था। उसने अपनी
पत्नी से कहा
कि बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया। एक
राजा मिल गया
था। सोचा था
कुछ मिलेगा, उलटा उसने
मुझसे छीन
लिया।
झोली
खोली, पूरी
झोली भरी थी
अन्न के दानों
से। पूरी झोली
गिरी, छाती
पीटने लगा वह
भिखारी। बड़ा
मुश्किल हो
गया। अभी किसी
और बात के लिए
दुखी था, अब
किसी और बात
के लिए दुखी
हो गया। झोली
खोल कर देखा.
एक दाना सोने
का हो गया था।
तब रोने लगा, चिल्लाने
लगा कि यह तो
बड़ी भूल हो गई।
काश, मैंने
सभी दाने दे
दिए होते तो
सभी सोने के
हो जाते!
जीवन
में जो बाहर
के दाने
बटोरता है, भीतर की
जिंदगी
मिट्टी की हो
जाती है। जो
बाहर के दाने
छोड़ता है, भीतर
की जिंदगी
सोने की हो
जाती है।
जिंदगी के
आखिर में पता
चलता है कि जो
इकट्ठा किया
था वह मिट्टी
का साबित होता
है, जो दे
दिया था वह
सोने का हो
जाता है। धन्य
हैं वे लोग जो
बाहर के जीवन
को छोड़ पाते हैं,
क्योंकि
भीतर के जीवन
को स्वर्ण का
बना हुआ पाते
हैं। और वे
लोग जो बाहर
के जीवन को पकड़े
ही पकड़े
रह जाते हैं, उनकी झोली
कितनी ही भर
जाए, उनके
दुख का कोई
अंत नहीं। और
आखिर में वे
रोके इस बात
के लिए कि जो
हमने पकड़ लिया
था वही मिट्टी
का हो गया और
जो हमने छोड़ा
था वही केवल
सोने का।
लेकिन
उस भिखारी ने
तो एक दाना
छोड़ा था, इसलिए सोने
का हो गया। उन
भिखारियों का
क्या होगा
जिन्होंने एक
दाना भी नहीं
छोड़ा है?
इसी
बात पर अपनी
चर्चा को छोड़
देता हूं। फिर
से दोहरा देता
हूं : उस
भिखारी ने तो
एक दाना छोड़ा
था, इसलिए
वह सोने का हो
गया। लेकिन उन
भिखारियों का
क्या होगा जिन्होंने
एक भी दाना
नहीं छोडा
है?
मेरी
बात को इतने
प्रेम और
शांति से सुना, उससे
अत्यंत
आनंदित और
अनुगृहीत हूं।
परमात्मा करे
भीतर का जीवन
कभी सोने का
हो जाए। लेकिन
केवल उन्हीं
का भीतर का
जीवन सोने का
हो सकता है, जो बाहर की
मिट्टी को
छोड़ने और बाहर
की मिट्टी को
मिट्टी समझने
में समर्थ हो
जाते हैं।
सबके
भीतर बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
हूं मेरे
प्रणाम
स्वीकार करें।
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