संतों
मगन भया मन
मेरा
(रज्जब—वाणी)
मेरे पास आयु
हो तो मैं
तुम्हें
परमात्मा
नहीं देना
चाहता,
मैं तुम्हें
जीवन देना
चाहता हूँ। और
जिसके पास भी
जीवन हो, उसे
परमात्मा मिल
जाता है। जीवन
परमात्मा का
पहला अनुभव
हैं। और चूँकि
मैं तुम्हें
जीवन देना
चाहता हूँ, इसलिए तुम्हैं
सिकोड़ना
नहीं चाहता, तुम्हें
फैलाना चाहता
हूँ। तुम्हें मर्यादाओं
में बाँध नहीं
देना चाहता; तुम्हें
अनुशासन के
नाम पर गुलाम
नहीं बनाना चाहता
हूँ. तुम्हें
सब तरह की
स्वतंत्रता
देना चाहता
हूँ ताकि तुम
फैलो, विस्तीर्ण
होओ। तुम्हें
बोध देना
चाहता हूँ, आचरण नहीं।
तुम्हें
अंतश्चेतना
देना चाहता
दूँ, अंतःकरण
नहीं।
तुम्हें एक
समझ देना
चाहता हूँ
जीने की, जीने
को हजार रंगों
में जीने की;
तुम्हें
जिंदगी एक इंद्रधनुप
कैसे वन जाए
इसकी कला देना
चाहता हूँ; तुम कैसे
नाच सको और
तुम्हारे
ओंठों पर
बाँसुरी कैसे
आ जाए, इसके
इशारे देना
चाहता दूँ। और
मेरी समझ और
मेरा जानना
ऐसा है, जो
आदमी गीत गाना
जान ले, उसके
मुँह से
गालियां
निकलनी बंद हो
जाती हैं। मैं
तुम्हें गालियां
छोड़ने पर जोर
देना ही नहीं
चाहता, गीत
गाना सिखाना
चाहता हूँ। यह
विधायकता है।
मैं
तुम्हें जीवन
देना चाहता हूँ।
और जीवन नृत्य
करता हुआ, गीत
गाता हुआ, जीवन
उत्सवपूर्ण।
एक बार
तुम्हारे
जीवन में
उत्सव आ जाए, एक बार
तुम्हें पंख
पसारने की कला
आ जाए, एक
बार धीरे—धीरे
तुम्हें फिर पंख
फैलाने का
अभ्यास आ जाए,
फिर आस्था आ
जाए, फिर
तुम थोडे
प्रयोग करके
पंख उड़ाना
सीख लो, फिर
तुम्हें कौन
रोक सकेगा? फिर यह सारा
आकाश
तुम्हारा है।
परमात्मा तो
तुम्हें मिल
जाएगा, बस
तुम जीवित हो
जाओ। या इसे
और दूसरी भाषा
में कहें तो
यूँ—परमात्मा
तो तुम्हें
मिल जाएगा, तुम आत्मवान
हो जाओ। असली
बात आत्मा है।
जो भी आत्मबान
है, परमात्मा
उनकी संपदा है।
आत्मबान
को पुरस्कार
मिलता है
परमात्मा का।
—
भगवान श्री
रजनीश
(ओशो)
प्रवेश से
पूर्व----
.. .एक और मित्र
ने पूछा है।
उन्होंने
पूछा है कि
अतीत में तो
कोई बुद्धपुरुष
दूसरे बुद्धपुरुषों
के वचनों पर
नहीं बोला।
उनकी
तुम उनसे पूछ
लेना,
मेरे लिए तो
कोई दूसरा
नहीं है। जब
बुद्ध पर
बोलता हूँ तो
बुद्ध ही हो
जाता हूँ। अभी
रज्जब पर बोल
रहा हूँ तो
रज्जब ही हो
गया हूँ। मेरे
लिए कोई दूसरा
नहीं है। वे
क्यों नहीं
बोले दूसरों
पर, तुम्हारा
कहीं उनसे
मिलना हो जाए
उनसे पूछ लेना।
मैं क्यों बोल
रहा हूँ, इसका
उत्तर तुम्हें
दे सकता हूँ।
मेरे
लिए कोई दूसरा
नहीं है।
बुद्धत्व का
स्वाद एक है।
जैसे सब सागर
नमकीन हैं, ऐसे
बुद्धत्व का
स्वाद एक है।
बाहर से चखो
तो प्रेम, भीतर
से चखो तो
ध्यान। अपने
भीतर जाकर उतर
कर चखो तो
ध्यान उसका
स्वाद है और
अपने बाहर किसीको
बाँट दो तो
प्रेम उसका स्वाद
है। एक पहलू
सिक्के का
प्रेम है, एक
पहलू ध्यान है।
कुछ बुद्धों
ने एक पहलू को
जोर दिया, कुछ
बुद्धों ने
दूसरे पहलू को
जोर दिया।
क्योंकि एक को
पा लेने से
दूसरा अपने—आप
मिल जाता है।
बुद्ध ने कहा
ध्यान पा लो, प्रेम अपने
से उपलब्ध
होता है। और
मीरा ने कहा
प्रेम पा लो, ध्यान अपने
से उपलब्ध
होता है। तुम
एक पा लो
दूसरा अपने से
मिल जाता है।
मैं तुम्हें
याद दिला रहा
हूं, कि
चाहो तो तुम
दोनों भी
एकसाथ पा लो।
जो तुम्हारी
मर्जी हो, एक
से चलना है एक
से चलो, दूसरा
मिल जाएगा, दोनों को
एकसाथ पाना हो
तो दोनों को
एकसाथ पा लो।
मेरे
लिए कोई दूसरा
नहीं है। मुझे
न तो बुद्धों
में कुछ फर्क
है, और न
बुद्धों और अबुद्धों
में कुछ फर्क
है। मेरी
दृष्टि में
कोई फर्क ही
नहीं है। सबका
स्वीकार है, सबका
अंगीकार है।
और ऐसा ही
सर्व—स्वीकार
तुम्हारे
भीतर जगे,
यह मेरी
चेष्टा है।
सारा अतीत
अपने भीतर समा
लेने जैसा है।
सारा अतीत
तुम्हारा है।
और ध्यान रखना,
मैं
परंपरावादी
नहीं हूँ। मैं
नहीं चाहता कि
तुम अतीत से
बँधे रहो। मगर
मैं यह भी
नहीं चाहता कि
तुम अतीत के
शत्रु हो जाओ।
मैं चाहता हूँ,
अतीत को तुम
अपने में समा
लो और अतीत से
आगे बढ़ो।
जितना हो चुका
है वह
तुम्हारा है,
और बहुत कुछ
होना है। अतीत
पर रुकना मत।
मैं तुमसे
कहता हूँ, पीछे
'जो हुआ है
वह भी ठीक है, आगे और भी
ठीक होने को
है। तुम पीछे
को भी सँभाल
लो, पीछे
की संपदा को
भी सँभालो
अपने में, तुम
ज्यादा
समृद्ध हो जाओगे।
और उसी
समृद्धि की
बुनियाद पर भविष्य
के महल खड़े
होंगे और
भविष्य के
मंदिर उठेंगे।
जो अतीत में
जाना गया है
उससे बहुत कुछ
ज्यादा
भविष्य में
जाना जा सकेगा।
क्योंकि अतीत
कै कंधे पर हम
खड़े हो सकते
हैं। इसलिए
बोल रहा हूँ
कबीर पर भी, क्राइस्ट पर
भी, कृष्ण
पर भी ताकि
तुम इन कंधों
का सहारा ले
लो 1 ताकि तुम
इन सब कंधों
पर खड़े हो जाओ,
तुम ऊपर उठो।
तुम
इन सारे कंधों
का उपयोग कर
लो, ये तुम्हारी
सीढ़ियाँ
हैं। तुम —इक
पर चढ़ते
चले जाओ, ताकि
तुम्हें और
दूर और
विस्तीर्ण
दिखायी पड़ने
लगे। पूजा मत
करो इनकी, इनको
आत्मसात कर लो।
तुम पूजा में
पड़े हो। पूजा 'बचने का
उपाय है। मैं
तुम्हें पूजा
नहीं सिखा रहा
हूँ, तुम्हें
आत्मसात करने
की प्रक्रिया
सिखा रहा हूँ।
इसलिए
पुनरुज्जीवित
करता हूँ——अभी
रज्जब पर बोल
रहा हूँ तो
कोशिश यह है
कि अब तुम
रज्जब को सीधा
पढ़ोगे तो
कुछ तुम्हारे
हाथ में आएगा
नहीं, शब्द
रह जाएँगे, मैं अपने
प्राण रज्जब
में डाल देता
हूँ, जैसे
रज्जब ने बोला
होता वैसे
तुमसे फिर
बोलता हूँ, तुम्हें एक
मौका देता हूँ
रज्जब के साथ
सत्संग कर
लेने का; यह
कोई रज्जब के
ऊपर टीका नहीं
हो रही है, यह
रज्जब के ऊपर
कोई व्याख्या
नहीं हो रही
है, मैं
कोई पंडित
नहीं हूँ, न
कोई भाषाशास्त्री
हूँ, न कोई
इतिहासज्ञ
हूँ, यह
रज्जब के ऊपर
कोई
व्याख्यान
नहीं हो रहा
है, रज्जब
को निमंत्रित
कर रहा हूँ कि
मेरा उपयोग कर
लो, थोड़ी
देर को फिर
लोगों को
सत्संग का
मौका दे दो, फिर से
तुम्हारी
वाणी जीवित हो
जाए।
तुमने
सूखे हुए बेले
भी कभी सूँघ?
इनको
मसला न करो
कितनी
आज़ुर्दा
मगर
भीनी महक
देते हैं
इनको
फेंका न करो
तुमने
सूखे हुए बेले
भी कभी सूंघे?
ये
सूखे हुए
बेलों को फिर
से हरा कर रहा
हूँ। ताकि—फिर
एक बार
तुम्हारे
नासापुट इनकी
अपूर्व सुगंध
से भर जाएँ।
कौन जाने कौन—सा
फूल तुम्हें
पकड़ ले और
रूपांतरित कर
जाए। कौन जाने
कौन—सी वाणी
तुम्हारी
हृदय—तंत्री
को छू दे। कौन
जाने किसकी
पुकार
तुम्हारे सोए
प्राणों को मथ डाले।
इसलिए सबको
बुला रहा हूँ।
जो सत्संग
तुम्हें
उपलब्ध हो रहा
है, वैसा सत्संग
पृथ्वी पर कभी
किसीको
उपलब्ध नहीं
हुआ था। इसलिए
सबको बुला रहा
हूँ। सारी
गंगा तुम्हें
उपलब्ध करवा
दे रहा हूँ।
जो घाट
तुम्हें रुच
जाए, जहाँ
और जिस नाव
में तुम बैठ
जाना चाहो बैठ
जाओ, पार
उतरना है। पार
उतरना ही है।
कोई भी बहाने
से पार उतरो।
अटके मत रह
जाओ। इसलिए सब
पर बोल रहा
हूँ। मैं सब
हूँ। तुम भी
सब हो। मुझे
याद है, तुम्हें
याद नहीं।
तुम्हें याद
दिलाने के लिए
बोल रहा हूँ।
'रज्जब का
मार्ग तो
प्रेम का
मार्ग है। रज्जब
का मार्ग
भक्ति का
मार्ग है।
उनके गुल
अद्भुत हैं।
रज्जब
भक्त हैं।
उन्होंने
चेष्टा से, तप
और व्रत से, साधना से
परमात्मा को
नहीं पाया है।
उन्हेंने
तो सिर्फ पुकारकर,
रोकर, आँसुओं
से परमात्मा
को पाया है।
उन्होंने तो
छोटे बच्चे की
भाँति पुकारकर
परमात्मा को
पाया है। वे
खोजने नहीं
गये, परमात्मा
उन्हें खोजने
आया है। पुकार
होनी चाहिए!
रज्जब
के साथ ये
थोड़े से दिन
हमने बिताए, ये
दिन प्यारे थे।
रज्जब रोज—
रोज नयी सौगात
लाए, रोज—रोज
बहुमूल्य
हीरों जैसे
वचन उन्होंने
दिये। उनमें
से कोई एक वचन
की भी चोट तुम
पर पड़ जाए तो तुम्हारी
वीणा झंकृत हो
जाएगी। एक वचन
भी अगर
तुम्हारी समझ
में आ जाए——ख्याल
रखना, मैं
कह रहा हूँ
समझ में आ जाए।
समझ में आना
बड़ी और बात है।
साधारणत:
जिसको तुम समझ
कहते हो, वह
समझ नहीं है।
एक और समझ
होती है जो
बुद्धि से
नहीं होती; जो तुम्हें
दिखायी पड़ती
है। सुनते—सुनते
रज्जब को कोई
बात दिखायी पड़
जाती है। जैसे
कोई भाला चुभ
गया।
और
ये वचन साधारण
वचन नहीं हैं।
ये वचन एक ऐसे
व्यक्ति के
वचन हैं जिसने
जाना,
एक ऐसे
व्यक्ति के
वचन हैं जो उस
अपूर्व
क्रांति से
गुजरा। ये एक सिद्धपुरुष
के वचन हैं। 'जन रज्जब
ऐसी विधि
जानें, ज्यूं था त्यूँ
ठहराया'।
यह हो सकता है।
सब तुम पर
निर्भर है।
स्वर्ग भी, नरक भी——तुम्हारी
सृष्टि है।
तुम मालिक हो।
तुम्हारी
स्वतंत्रता
परम है। दुख
में हो, तो
तुम कारण हो।
समझो, जागो!
रज्जब
सीधे—साधे
आदमी हैं——साधारणजन——इसलिए
बार—बार कहते
हैं, 'जन रज्जब'। साधारणजन,
कोई
विशिष्टता
नहीं है, सामान्य
हैं, सामान्य
से भी सामान्य।
फिर भी पा
लिया, परम
पा लिया। तुम
भी पा सकते हो।'
भगवान
के इन उपरोक्त
वचनों में
सारे इशारे हैं, सारी
कुंजियाँ
हैं जिन्हें
समझ कर ही हम संतश्रेष्ठ
रज्जब जी की
सत्संग—गंगा
में डुबकी ले
सकते हैं।
रज्जब
जी के साथ हुई
इस बीस दिवसीय
यात्रा में
खूब रस बरसा
है, अपार संपदा लुटी है——हीरे—ही—हीरे
बरसे है——काश, एक हीरा भी
हमारी फैली
हुई झोली में
पड़ गया तो हमारी
अनंत—अनंत यात्रा
सार्थक हुई।
और
अंतत अपने
अनुग्रह व
अहोभाव के
ज्ञापन में भगवान
को प्रणाम
करने के बजाय
हम उनके लिए
प्रणाम हो
जाना ही पसंद
करेंगे।
—स्वामी योग
प्रताप भारती
11 दिसंबर 1979
श्री
रजनीश आश्रम
पूना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें