पत्र पाथय—31
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय मां,
रात्रि
पूरी बीत गई
है और स्टेशन
के पार सूरज
फूट पड़ा है।
कम्पार्टमेंट
के झरोखों से
नई लहर किरणें
भीतर आ रही
हैं। गाड़ी और
लेट होती गई
है और अभी
नरसिंहपुर पर
ही पड़ी है।
मैं इस बीच
जहां आप बैठ
छोड़ गई हैं, वहीं
बैठा रहा हूं।
इतना है कि
अकेला नहीं हूं।
भुसावल—इटारसी
के बीच आप
जितना साथ थीं,
उससे
ज्यादा अब और
निकट हैं।
यह
बुलढ़ाता
यात्रा इतनी
सुखद होगी
इसका ख्याल
नहीं था। एक—एक
क्षण मधु—सिक्त
रहा है। जीवन
सच ही कितना आनंदपूर्ण
है। केवल उसको
देखना भर आना
चाहिए। यह
जीने का
विज्ञान धीरे—धीरे
लुप्त हो गए
हैं। इसलिए
इतना दुःख है, इतनी
पीड़ा है और सब
कुछ कुरुप और
टेढ़ा—मेढ़ा हो
गया है। इसे
सौंदर्य और
प्रेम में, शांति और
आनंद में
परिणत किया जा
सकता है। वह
परिणति कितनी
सरल है। जानते
ही सब अपने आप
हो जाता है। जहां
कुरुप थे वहां
सुन्दर होते
देर नहीं लगती
है। अज्ञान का
छोटा सा पर्दा
कितना काला है
और कितने
अंधेरे
रास्तों पर
यात्रा करनी
होती है।
मैं
सबसे कहना
चाहता हूं। ’’इस दुःख
में तुम अपने
ही कारण हो। आंखें
खोलो देखो, अंधेरा कहीं
भी नहीं है; अब आंखें
तुमने बंद कर
रखी है। इसलिए
रात्रि मालूम
हो रही है।’’
रात्रि
है ही नही बस आंखें
बंद हैं। खोला
और
ट्रेन से
23 जन. ।961
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