एक छोटी सी
कहानी कहूं और
उससे ही अपनी
चर्चा शुरू
करूं।
एक रात, एक सराय
में, एक
फकीर आया।
सराय भरी हुई
थी, रात
बहुत बीत चुकी
थी और उस गांव
के दूसरे मकान
बंद हो चुके
थे और लोग सो
चुके थे। सराय
का मालिक भी
सराय को बंद
करता था, तभी
वह फकीर वहां
पहुंचा और
उसने कहा, कुछ
भी हो, कहीं
भी हो, मुझे
रात भर टिकने
के लिए जगह
चाहिए ही। इस
अंधेरी रात
में अब मैं
कहां खोजूं और
कहां जाऊं!
सराय के मालिक
ने कहा, ठहरना
तो हो सकता है,
लेकिन
अकेला कमरा
मिलना कठिन है।
एक कमरा है, उसमें एक
मेहमान अभी—अभी
आकर ठहरा है, वह जागता
होगा, क्या
तुम उसके साथ
ही उसके कमरे
में सो सकोगे?
वह फकीर
राजी हो गया।
एक कमरे में दो
मेहमान ठहरा
दिए गए।
वह
फकीर अपने
बिस्तर पर लेट
गया, न तो
उसने अपने
जूते खोले, न अपनी टोपी
निकाली, वह
सब कपड़े पहने
हुए लेट गया।
दूसरा आदमी जो
वहां ठहरा हुआ
था, उसे
हैरानी भी हुई,
लेकिन
अपरिचित आदमी
से कुछ कहना
ठीक न था, वह
चुप रहा।
लेकिन वह फकीर
जो टोपी पहने
ही सो गया था, वह करवटें
बदलने लगा और
नींद आनी उसे
कठिन हो गई।
दूसरे
मेहमान के
बर्दाश्त के
बाहर हो गया
और उसने कहा, महानुभाव,
ऐसे तो रात
भर नींद नहीं
आएगी, आप
करवट बदलते
रहेंगे। कृपा
करके जूते
उतार दें, कपड़े
उतार दें, फिर
ठीक से सो
जाएं। थोड़े
सरल हो जाएं
तो शायद नींद
आ भी जाए।
इतने जटिल
होकर सोना
बहुत मुश्किल
है।
उस
फकीर ने कहा, मैं भी
यही सोचता हूं।
लेकिन अगर मैं
कमरे में
अकेला होता तो
कपड़े निकाल
देता, तुम्हारे
होने की वजह
से मैं बहुत
मुश्किल में
हूं!
उस
आदमी ने कहा, इसमें
क्या मुश्किल
की बात है?
वह
फकीर कहने लगा, मुश्किल
यह है कि अगर
मैं कपड़े
निकाल कर सो
गया, तो
सुबह मेरी
नींद खुलेगी,
मैं यह कैसे
पहचानूंगा
कि मैं कौन
हूं? मैं
अपने कपड़ों से
ही खुद को
पहचानता हूं।
यह कोट मेरे
ऊपर है, तो
मुझे लगता है
कि मैं मैं
ही हूं। यह पगड़ी
मेरे सिर पर है,
तो मैं
जानता हूं कि
मैं मैं
ही हूं। इस पगड़ी,
इस कोट को
पहने हुए आईने
के सामने खड़ा
होता हूं तो
पहचान लेता
हूं कि मैं मैं
ही हूं। अगर
कमरे में
अकेला होता तो
कपड़े निकाल कर
सो जाता, बदलने
का कोई डर न था।
लेकिन सुबह
मैं उठूं तो
मैं कैसे पहचानूंगा
कि मैं कौन हूं
और तुम कौन हो?
वह
आदमी कहने लगा, बड़े पागल
मालूम होते
हो! तुम जैसा
पागल मैंने कभी
नहीं देखा!
वह
फकीर कहने लगा, तुम मुझे
पागल कहते हो!
मैंने दुनिया
में जो भी
आदमी देखा, वह अपने
कपड़ों से ही
अपने को
पहचानता हुआ
देखा है। अगर
मैं पागल हूं
तो सभी पागल
हैं।
आप भी
अपने को कपड़ों
के अलावा और
किसी चीज से
पहचानते हैं? कपड़े
बहुत तरह के
हैं—नाम भी एक कपड़ा है, जाति भी एक कपड़ा है, धर्म भी एक कपड़ा है।
मैं हिंदू हूं
मैं मुसलमान
हूं? मैं
जैन हूं— ये भी
कपड़े हैं, ये
भी बचपन के
बाद पहनाए
गए हैं। मेरा
यह नाम है, मेरा
वह नाम है— ये
भी कपड़े हैं, ये भी बचपन
के बाद पहनाए
गए हैं।
इन्हीं को हम
सोचते हैं
अपना होना? तो हम जटिल
हो जाएंगे, तो हम जटिल
हो ही जाएंगे।
एक
महानगरी में
एक बहुत अदभुत
नाटक चल रहा
था।
शेक्सपियर का
नाटक था। उस
नगरी में एक
ही चर्चा थी
कि नाटक बहुत
अदभुत है, अभिनेता
बहुत कुशल हैं।
उस नगर का जो
सबसे बड़ा
धर्मगुरु था,
उसके भी मन
में हुआ कि
मैं भी नाटक देखूं।
लेकिन
धर्मगुरु
नाटक देखने
कैसे जाए? लोग
क्या कहेंगे?
तो उसने
नाटक के
मैनेजर को एक
पत्र लिखा और
कहा कि मैं भी
नाटक देखना
चाहता हूं।
प्रशंसा सुन—सुन
कर पागल हुआ
जा रहा हूं।
लेकिन मैं
कैसे आऊं? लोग
क्या कहेंगे?
तो मेरी एक
प्रार्थना है,
तुम्हारे
नाटक—गृह में
कोई ऐसा
दरवाजा नहीं
है पीछे से
जहां से मैं आ
सकूं, कोई
मुझे न देख
सके? उस
मैनेजर ने
उत्तर लिखा कि
आप खुशी से
आएं, हमारे
नाटक— भवन में
पीछे दरवाजा
है। धर्मगुरुओं,
सज्जनों, साधुओं के
लिए पीछे का
दरवाजा बनाना
पड़ा है, क्योंकि
वे सामने के
दरवाजे से कभी
नहीं आते।
दरवाजा है, आप खुशी से
आएं, कोई
आपको नहीं देख
सकेगा। लेकिन
एक मेरी भी
प्रार्थना है,
लोग तो नहीं
देख पाएंगे कि
आप आए, लेकिन
इस बात की
गारंटी करना
मुश्किल है कि
परमात्मा
नहीं देख
सकेगा।
पीछे
का दरवाजा है, लोगों को
धोखा दिया जा
सकता है।
लेकिन
परमात्मा को
धोखा देना
असंभव है। और
यह भी हो सकता
है कि कोई
परमात्मा को
भी धोखा दे दे,
लेकिन अपने
को धोखा देना
तो बिलकुल
असंभव है।
लेकिन हम सब
अपने को धोखा
दे रहे हैं।
तो हम जटिल हो
जाएंगे, सरल
नहीं रह सकते।
खुद को जो
धोखा देगा वह
कठिन हो जाएगा,
उलझ जाएगा,
उलझता चला
जाएगा। हर
उलझाव पर नया
धोखा, नया
असत्य खोजेगा,
और उलझ
जाएगा। ऐसे हम
कठिन और जटिल
हो गए हैं।
हमने पीछे के
दरवाजे खोज
लिए हैं, ताकि
कोई हमें देख
न सके। हमने
झूठे चेहरे
बना रखे हैं, ताकि कोई
हमें पहचान न
सके। हमारी
नमस्कार झूठी
है, हमारा
प्रेम झूठा है,
हमारी
प्रार्थना
झूठी है।
एक
आदमी सुबह ही
सुबह आपको
रास्ते पर मिल
जाता है, आप हाथ जोड़ते
हैं, नमस्कार
करते हैं और
कहते हैं, मिल
कर बड़ी खुशी
हुई। और मन
में सोचते हैं
कि इस दुष्ट
का चेहरा सुबह
से ही कैसे
दिखाई पड़ गया!
तो आप सरल
कैसे हो सकेंगे?
ऊपर कुछ है,
भीतर कुछ है।
ऊपर प्रेम की
बातें हैं, भीतर घृणा
के कांटे हैं।
ऊपर
प्रार्थना है,
गीत हैं, भीतर
गालियां हैं,
अपशब्द हैं।
ऊपर
मुस्कुराहट
है, भीतर आंसू
हैं। तो इस
विरोध में, इस आत्मविरोध
में, इस
सेल्फ कंट्राडिक्यान
में जटिलता
पैदा होगी, उलझन पैदा
होगी।
परमात्मा
कठिन नहीं है, लेकिन
आदमी कठिन है।
कठिन आदमी को
परमात्मा भी
कठिन दिखाई
पड़ता हो तो
कोई आश्चर्य
नहीं। मैंने
सुबह कहा कि
परमात्मा सरल
है। दूसरी बात
आपसे कहनी है,
यह सरलता
तभी प्रकट
होगी जब आप भी
सरल हों। यह
सरल हृदय के
सामने ही यह
सरलता प्रकट
हो सकती है।
लेकिन हम सरल
नहीं हैं।
क्या
आप धार्मिक
होना चाहते
हैं? क्या
आप आनंद को
उपलब्ध करना
चाहते हैं? क्या आप
शांत होना
चाहते हैं? क्या आप
चाहते हैं
आपके जीवन के
अंधकार में
सत्य की
ज्योति उतरे?
तो
स्मरण रखें—
पहली सीढ़ी
स्मरण रखें—
सरलता के
अतिरिक्त
सत्य का आगमन
नहीं होता है।
सिर्फ उन
हृदयों में
सत्य का बीज
फूटता है जहां
सरलता की भूमि
है।
देखा
होगा, एक
किसान बीज
फेंकता है।
पत्थर पर पड़
जाए बीज, फिर
उसमें अंकुर
नहीं आता।
क्यों? बीज
तो वही था! और
सरल सीधी जमीन
पर पड़ जाए बीज,
अंकुरित हो
आता है। बीज
वही है! लेकिन
पत्थर कठोर था,
कठिन था, बीज असमर्थ
हो गया, अंकुरित
नहीं हो सका।
जमीन सरल थी, सीधी थी, साफ
थी, नरम थी,
कठोर न थी, कोमल थी, बीज
अंकुरित हो
गया। पत्थर पर
पड़े बीज में
और भूमि पर
गिरे बीज में
कोई भेद न था।
परमात्मा
सबके हृदय के
द्वार पर
खटखटाता है—खोल
दो द्वार! परमात्मा
का बीज आ जाना
चाहता है भूमि
में कि
अंकुरित हो
जाए। लेकिन
जिनके हृदय
कठोर हैं, कठिन हैं,
उन हृदयों
पर पड़ा हुआ
बीज सूख जाएगा,
नहीं अंकुरित
हो सकेगा। न
ही उस बीज में
पल्लव आएंगे,
न ही उस बीज
में शाखाएं फूटेंगी, न ही उस बीज
में फूल
लगेंगे, न
ही उस बीज से
सुगंध बिखरेगी।
लेकिन सरल जो
होंगे, उनका
हृदय भूमि बन
जाएगा और
परमात्मा का
बीज अंकुरित
हो सकेगा।
इसलिए
संध्या का
पहला सूत्र
आपसे कहना
चाहता हूं—सरल
हो जाएं। और
यह मत पूछें
कि हम सरल
कैसे हो जाएं, क्योंकि
जहां कैसे का
भाव शुरू हुआ,
कठिनता
शुरू हो जाती
है। जैसे ही
आपने पूछा—
मैं कैसे हो
जाऊं सरल? बस
आप कठिन होना
शुरू हो गए।
सरलता
तो स्वभाव है।
सरल होना नहीं
पड़ता है, केवल कठिन
होना बंद कर
दें, और आप
पाएंगे कि सरल
हो गए हैं।
मैं यह मुट्ठी
बांध लूं और
फिर पूछने लगे
लोगों से कि
मैं मुट्ठी
कैसे खोलूं? तो कोई
मुझसे क्या
कहे? मुट्ठी
खोलनी नहीं
पड़ती, बांधनी जरूर पड़ती
है। मुट्ठी
खोलनी नहीं
पड़ती, बांधनी जरूर पड़ती
है। अब मैं
मुट्ठी बांधे
हूं और लोगों
से पूछता हूं
मुट्ठी कैसे
खोलूं? जो
जानता है वह
कहेगा कि
सिर्फ बांधना
बंद कर दें, मुट्ठी खुल
जाएगी।
बांधें मत, खुला होना
मुट्ठी का
स्वभाव है।
एक
बच्चा एक
वृक्ष की शाखा
को खींच कर
खड़ा है और
पूछता है, इसे मैं
इसकी जगह वापस
कैसे पहुंचा
दूं? क्या
कहें उससे? वापस पहुंचाने
के लिए कोई
आयोजन करना
पड़े? नहीं,
बच्चा छोड़
दे शाखा को।
शाखा हिलेगी,
कपेगी,
अपनी जगह
वापस पहुंच
जाएगी।
स्वभाव
सरल है मनुष्य
का, जटिलता
कल्टिवेटेड
है। जटिलता
कोशिश करके
लाई गई है।
जटिलता साधी
गई है। सरलता
साधनी नहीं है,
केवल
जटिलता न हो, और सरलता उपस्थित
हो जाती है।
यह मत पूछना
कि हम सरल
कैसे हो जाएं!
कठिन कैसे हो
गए हैं, यह
समझ लें, और
कठिन होना छोड़
दें, और
पाएंगे कि
सरलता आ गई है।
सरलता सदा
मौजूद है।
कैसे
कठिन हो गए
हैं? कैसे
हमने अपने को
रोज—रोज कठिन
कर लिया है?
पहली
बात मैंने कही, हमने
असत्य का जीवन
को ढांचा दिया
है। असत्य
हमारा पैटर्न
है, असत्य
हमारा ढांचा
है। असत्य में
हम जीते हैं, श्वास लेते
हैं। असत्य
में हम चलते
हैं। खोजें कि
कहीं आपका
सारा जीवन
असत्य पर तो
खड़ा हुआ नहीं
है?
एक
छोटा सा बच्चा
समुद्र की रेत
पर अपने हस्ताक्षर
कर रहा था। वह
बड़ी बारीकी से, बड़ी
कुशलता से
अपने
हस्ताक्षर
बना रहा था।
एक का उससे
कहने लगा, पागल,
तू
हस्ताक्षर कर
भी न पाएगा, हवाएं आएंगी और
रेत बिखर
जाएगी।
व्यर्थ मेहनत
कर रहा है, समय
खो रहा है, दुख
को आमंत्रित
कर रहा है।
क्योंकि जिसे
तू बनाएगा और
पाएगा कि बिखर
गया, तो
दुख आएगा।
बनाने में दुख
होगा, फिर
मिटने में दुख
होगा। लेकिन
तू रेत पर बना
रहा है, मिटना
सुनिश्चित है।
दुख तू बो रहा
है। अगर
हस्ताक्षर ही
करने हैं तो
किसी सख्त, कठोर चट्टान
पर कर, जिसे
मिटाया न जा
सके।
मैंने
सुना है कि वह
बच्चा हंसने
लगा और उसने कहा, जिसे आप
रेत समझ रहे
हैं, कभी
वह चट्टान थी;
और जिसे आप
चट्टान कहते
हैं, कभी
वह रेत हो
जाएगी।
बच्चे
रेत पर
हस्ताक्षर
करते हैं, बूढ़े
चट्टानों पर
हस्ताक्षर
करते हैं, मंदिरों
के पत्थरों पर।
लेकिन दोनों
रेत पर बना
रहे हैं। रेत
पर जो बनाया
जा रहा है वह
झूठ है, वह
असत्य है। हम
सारा जीवन ही
रेत पर बनाते
हैं। हम सारी
नावें ही कागज
की बनाते हैं।
और बड़े समुद्र
में छोड़ते हैं,
सोचते हैं
कहीं पहुंच
जाएंगे।
नावें ड़बती
हैं, साथ
हम ड़बते
हैं। रेत के
भवन गिरते हैं,
साथ हम
गिरते हैं।
असत्य रोज—रोज
हमें रोज—रोज
पीड़ा देता और
हम रोज—रोज असत्य
की पीड़ा से
बचने को और
बड़े असत्य खोज
लेते हैं। तब
जीवन सरल कैसे
हो सकता है? असत्य को पहचानें
कि मेरे जीवन
का ढांचा कहीं
असत्य तो नहीं
है? और हम
इतने होशियार
हैं कि हमने
छोटी—मोटी
चीजों में
असत्य पर खड़ा
किया हो अपने
को, ऐसा ही
नहीं है, हमने
अपने धर्म तक
को असत्य पर
खड़ा कर रखा है।
मैं एक
अनाथालय में
गया। वहां सौ
बच्चे थे, अनाथ
बच्चे। उस
अनाथालय के
संयोजक मुझसे
कहने लगे कि
हम बच्चों को
धर्म की
शिक्षा देते
हैं।
मैंने
कहा, धर्म
की शिक्षा! ये
शब्द बड़े
विरोधी मालूम
होते हैं।
अधर्म की
शिक्षा हो
सकती है, धर्म
की शिक्षा
कैसे होगी? अविद्या की
शिक्षा हो
सकती है, विद्या
की शिक्षा का
आज तक सुना
नहीं गया! घृणा
की शिक्षा हो
सकती है, युद्ध
की शिक्षा हो
सकती है, लेकिन
प्रेम के
विद्यालय अब
तक देखे नहीं
गए! फिर भी आप
कहते हैं तो
मैं चलूं क्या
शिक्षा देते
हैं जानूं।
वे
मुझे खुशी—खुशी
ले गए। और उन
बच्चों से
मेरे सामने
पूछने लगे, ईश्वर है?
उन बच्चों
ने हाथ ऊपर
उठा दिए।
उन्हें जो
सिखाया गया था
कि ईश्वर है, रटाया गया कि
ईश्वर है—
उन्होंने हाथ
ऊपर उठा दिए
कि हां, ईश्वर
है। उनसे पूछा
गया— आत्मा है?
उन बच्चों
ने कहा, हां,
आत्मा है।
जैसे उनसे
पूछा जाता—दो
और दो चार
होते हैं? तो
वे कहते कि
हां, दो और
दो चार होते
हैं। फिर उनसे
पूछा गया, परमात्मा
कहां है? उन
बच्चों ने
अपने हृदय पर
हाथ रख दिए कि
यहां।
मैं एक
छोटे बच्चे के
पास गया और
मैंने कहा कि बेटे, बता
सकोगे हृदय
कहां है?
उसने
कहा, यह
तो हमें
सिखाया नहीं
गया।
ईश्वर
है, सिखा
दिया गया।
सिखाया हुआ
ईश्वर झूठा हो
गया। जाना हुआ
ईश्वर सच्चा
होता है। ये
जो बच्चों ने
हाथ उठाए यह
जान कर नहीं
उठाए कि ईश्वर
है। यह किताब
में लिखा है
कि ईश्वर है।
यह शिक्षक
कहता है कि
ईश्वर है। यह
परीक्षा में
उत्तर देना है
कि ईश्वर है।
तो बच्चे कहते
हैं—ईश्वर है,
हाथ उठाते
हैं। ये हाथ
सच्चे हैं? ये हाथ अगर
सच्चे होते तो
दुनिया
परमात्मा के आलोक
से भर गई होती।
ये हाथ झूठे
हैं। लेकिन ये
बच्चों के हाथ
ही झूठे होते
तो भी ठीक था, को के उठे
हुए हाथ भी
इतने ही झूठे
हैं। क्योंकि
बचपन में जो
सीख लिया, जीवन
भर आदमी उसी
को दोहराए चला
जाता है, बिना
इस बात को
पूछे कि मैं
जान कर कह रहा
हूं या बिना
जाने कह रहा
हूं।
हमारे
जीवन का ढांचा
ही असत्य है।
मंदिर के
सामने हाथ जोड़
कर खड़े हैं।
वे हाथ भी
झूठे हैं, परमात्मा
का भाव भी
झूठा है।
क्योंकि
परमात्मा का
भाव अगर सच्चा
होता तो एक
बार के जुड़े
हुए हाथ हमेशा
के लिए जुड़े
हुए हाथ हो
जाते। और एक
बार मंदिर के
पास से निकल
जाने पर मंदिर
का छूटना
असंभव हो जाता।
फिर तो जहां
खड़े हो जाते
वहीं उसका
मंदिर था और
जो दिखाई पड़
जाता उसी के
लिए उसके हाथ
जुड़ जाते।
लेकिन ऐसा
नहीं दिखाई
पड़ता। मस्जिद
में जाने वाले
लोग मंदिर में
जाने वाले
लोगों की
हत्या करते
हैं। मंदिर
में जाने वाले
लोग मस्जिद
में जाने वाले
लोगों की
हत्या कर देते
हैं। बड़ा
अदभुत धर्म
है! बड़ा झूठा
धर्म होगा।
लेकिन
हमारा सारा
ढांचा, सारा पैटर्न,
हमारे जीवन
की बुनियाद, जिन सत्यों
पर खड़ी होती
है, वे सब
हमने विश्वास
के झूठे ढांचे
बना रखे हैं।
फिर आदमी सरल
कैसे हो सकता
है?
सरल
होना है तो
जान लें, जो न जानते
हों जान लें
कि नहीं जानता
हूं। अगर नहीं
जानते
परमात्मा को
तो कह दें
निर्मलता से
कि नहीं जानता
हूं मुझे पता
नहीं, मैं
झूठा हाथ नहीं
उठा सकता हूं।
दुनिया
में दो तरह के
झूठे हाथ उठ
रहे हैं।
सोवियत रूस
में एक हाथ उठ
रहा है, जो कहता है
परमात्मा
नहीं है। वह
भी सिखाई हुई
बात है, वह
भी स्कूल में
बताई हुई बात
है। और पूरब
के मुल्कों
में हाथ उठता
है ईश्वर के लिए
कि ईश्वर है।
वे हाथ भी
झूठे हैं, वे
हाथ भी सिखाए
हुए हैं। अगर
आप सीखी हुई
बात पर हाथ
उठा रहे हैं, वापस लौटा
लें अपने हाथ
को, तो
शायद सरल हो
भी सकते हैं।
एक फकीर एक
गांव में ठहरा
था। वह फकीर
बड़ा अदभुत
फकीर रहा होगा।
गांव के लोगों
ने उससे कहा, शुक्रवार का
दिन है, आप
चलें, हमारी
मस्जिद में
थोड़ा ईश्वर के
संबंध में समझाएं।
वह
फकीर कहने लगा, ईश्वर के
संबंध में कभी
कुछ समझाया
गया हो तो मैं
भी समझाऊं।
लेकिन
वे लोग नहीं
माने, जितना
फकीर इनकार
करने लगा उतने
लोग उसके पीछे
पड़ गए। लोगों
की बुद्धि ऐसी
है, जहां
दरवाजे बंद
होते हैं वहां
दरवाजे ठोकने
लगते हैं, जहां
दरवाजे खुले
हैं वहां जाते
भी नहीं। जिस
दरवाजे पर
लिखा है यहां
झांकना मना है,
वहीं—वहीं
चक्कर लगाने
लगते हैं।
वह
फकीर कहने लगा
कि नहीं—नहीं, मैं नहीं जाऊंगा।
ईश्वर के
संबंध में
क्या कहा जा
सकता है? कुछ
भी नहीं कहा जा
सकता।
लेकिन
लोग नहीं माने, उसे ले गए।
नहीं माने तो
गया। मस्जिद
में जाकर वह
खड़ा हो गया
मंच के ऊपर और
उसने कहा, मेरे
दोस्तो, इसके पहले
कि मैं ईश्वर
के संबंध में
कुछ कहूं? मैं
तुमसे कुछ पूछ
लूं। पहली बात,
ईश्वर के
संबंध में तुम
कुछ जानते हो?
ईश्वर है?
उन सारे
लोगों ने हाथ
हिला दिए कि
हम जानते हैं
ईश्वर है।
वह
फकीर बोला, फिर
क्षमा करो, जब तुम
जानते हो तो
मेरे बोलने की
कोई जरूरत न रही,
मैं वापस
जाता हूं। मैं
फिजूल, मैं
अपना समय, तुम्हारा
समय क्यों
खराब करूं!
मुझे क्या पता
कि तुम्हें
पता है। फिर
तुम मुझे किसलिए
लिवा लाए
हो? जब
तुम्हें
मालूम है, ईश्वर
है, और
तुम्हारे हाथ
उठते हैं उसकी
गवाही में, मेरी कोई
जरूरत न रही, मैं जाता
हूं।
लोग
बड़े हैरान हुए, मन और
आतुर हो गया
कि इस आदमी से
सुनना जरूर था।
भूल हो गई।
उन्होंने तय
किया कि अगली
बार फिर उसे
बुला कर लाएं।
और अब की बार
जब वह पूछेगा
कि जानते हो
ईश्वर है, तो
हम कहेंगे कि
ईश्वर है ही
नहीं, हम
कुछ भी नहीं
जानते। फिर तो
बोलेगा।
दूसरा
शुक्रवार आ
गया। फिर उस
फकीर के पास
गए और कहा कि
चलें, ईश्वर
के संबंध में
कुछ समझाएं।
वह फकीर फिर
टालमटोल करने
लगा। लेकिन वे
नहीं माने, वे उसे ले गए।
वह मंच पर खड़ा
हो गया। उसने
फिर पूछा कि
मैं ईश्वर के
संबंध में कुछ
कहूं उसके
पहले एक बात
जान लूं र
ईश्वर है? तुम्हें
कुछ पता है
ईश्वर के होने
का?
लोगों
ने कहा, ईश्वर नहीं
है और हमें
कुछ भी पता
नहीं।
वह
फकीर बोला, क्षमा
करना, जब
ईश्वर है ही
नहीं, तो
मेरी क्या
जरूरत? मैं
वापस जाता हूं।
और तुम सबको
पता है कि
ईश्वर नहीं है,
बात खत्म हो
गई। अब और
क्या जानने को
शेष रह गया? जिन्हें यह
तक पता हो गया
कि ईश्वर नहीं
है, उनको
अब जानने को
और क्या शेष
रह गया होगा? आ गई अंतिम
सीमा शान की, जब यह भी जान लिया
कि ईश्वर नहीं
है।
वह
फकीर वापस लौट
गया, लोग
फिर बड़ी
मुश्किल में
पड़ गए। सुनना
जरूर था। अब
और तीव्र
आकांक्षा हो
गई कि पता
नहीं वह आदमी
क्या कहता!
उन्होंने फिर
तय किया, तीसरा
उत्तर तैयार
किया कि अब की
बार फिर चलें।
तीसरे
शुक्रवार फिर
उसके पास
पहुंच गए कि
चलो।
उन्होंने
तीसरा उत्तर
तैयार कर लिया।
उन्होंने कहा,
अब की बार
जब वह पूछे, तो आधे लोग
कहेंगे कि
हमको पता है
कि ईश्वर है और
आधे लोग
कहेंगे कि
हमको पता नहीं
है कि ईश्वर
है। अब तो कुछ
बोलोगे।
फकीर
आकर खड़ा हो
गया और उसने
कहा कि दोस्तों, फिर वही
सवाल, पता
है ईश्वर है
या कि पता
नहीं है? जानते
हो कि नहीं
जानते?
आधी
मस्जिद के
लोगों ने कहा, आधे
लोगों को पता
है कि ईश्वर
है, और आधे
लोगों ने कहा,
हमें पता
नहीं कि ईश्वर
है।
फकीर
ने कहा, जिनको पता
है वे उनको
समझा दें
जिनको पता
नहीं। मैं
जाता हूं मेरी
कोई जरूरत
नहीं।
उस
फकीर से मैंने
भी पूछा कि
चौथी बार वे
लोग आए कि
नहीं?
वह
फकीर कहने लगा, चौथा
उत्तर उन
लोगों को नहीं
मिल सका, तीन
में उत्तर
समाप्त हो गए।
फिर वे लोग
नहीं आए। मैं
तो रास्ता
देखता रहा कि
आएं तो फिर
जाऊं।
मैंने
उस फकीर को
कहा कि अगर
उनके पास चौथा
उत्तर होता तो
आप जाते?
वह
कहने लगा, अगर चौथा
उत्तर होता तो
मैं जरूर जाता
और बोलता।
मैंने
पूछा, वह
चौथा उत्तर
क्या हो सकता
था?
वह
फकीर कहने लगा, अगर वे
चुप रह जाते
और कोई भी
उत्तर न देते
तो मैं कुछ
बोलता।
क्योंकि तब वे
सच्चे लोग
होते। तब वे
एक झूठी बात
को गवाही नहीं
देते। तब वे
मौन रह जाते।
उन्हें कुछ भी
पता नहीं है— न
होने का, न
ना होने का।
तब वे अपने
अज्ञान में
मौन रह जाते।
अज्ञान उनका
सत्य था, सच्चाई
थी। शान—
आस्तिक का
ज्ञान, नास्तिक
का शान— सब झूठ
है, सीखी
हुई बकवास है।
अगर वे चुप रह
जाते तो मैं
बोलता, वह
फकीर कहने लगा।
और आज तक सत्य
के संबंध में
तभी समझाया जा
सका है या
जाना जा सका
है, बोला
जा सका है, इशारे
किए जा सके है—जब
दूसरी तरफ
सच्चाई से भरा
हुआ मौन हो।
झूठ से भरे
हुए उत्तर
नहीं, सच्चाई
से भरा हुआ
प्रश्न काफी
है। झूठ से
भरा हुआ जान
नहीं, सच्चाई
से भरा हुआ अज्ञान
भी परमात्मा
की तरफ ले
जाने वाला चरण
बन जाता है।
हम
पूछें अपने से
हमारा जान सच
है? हमारा
शान सच है? और
जब हमारा शान
ही सच नहीं, तो हमारा
जीवन कैसे सच
हो सकता है? ज्ञान पर तो
जीवन खड़ा होता
है। लेकिन हम
झूठ में हां
भरते चले जाते
हैं। हम
चुपचाप हां
भरते चले जाते
हैं। चारों
तरफ लोग ही
भरते हैं, तो
हम भी हां
भरते हैं।
चारों तरफ जो
लोग कहते हैं,
वही हम भी
कहते हैं। हम
भीड़ के हिस्से
हो गए हैं।
भीड़ एक झूठ है।
हम समाज के
हिस्से हो गए
हैं। समाज एक
झूठ है।
एक बार
एक अदभुत घटना
घट गई। एक
आदमी ने एक
सम्राट से आकर
कहा, तुमने
सारी पृथ्वी
जीत ली, लेकिन
एक चीज की कमी
रह गई
तुम्हारे पास।
तुम्हारे पास
देवताओं के
वस्त्र नहीं
हैं। मैं
तुम्हें
देवताओं के
वस्त्र लाकर
दे सकता हूं।
सम्राट
के लोभ को गति
मिली, सोचा
कि देवताओं के
वस्त्र मिल
जाएं तो इससे
शुभ और क्या
होगा! उसने
कहा, कितना
खर्च होगा?
उसने
कहा, खर्च
तो बहुत होगा।
क्योंकि
आदमियों की
रिश्वत देख—देख
कर देवता भी
रिश्वत लेने
लगे हैं। बहुत
रिश्वत लगेगी।
वहां भी बहुत
भ्रष्टाचार
फैल गया है।
दिल्ली में ही
नहीं, इंद्र
की नगरी में
भी बहुत
भ्रष्टाचार
है। क्योंकि
यहां के मरे
हुए सब
भूतपूर्व
मिनिस्टर
वहीं इकट्ठे
हो गए हैं और
सब उपद्रव कर
रहे हैं। बहुत,
बहुत
रिश्वत
मांगते हैं।
सस्ते में काम
नहीं चलता।
यहां आदमी तो
दस—पांच रुपये
में भी मान
जाता है, देवताओं
को तो दस—पांच
रुपये की कोई
कीमत नहीं, करोड़ों खर्च
हो जाएंगे, दस—पांच करोड़
रुपये खर्च
होंगे।
लेकिन
राजा के मन को
लोभ पकड़ गया।
विश्वास तो
नहीं आता था
कि देवताओं के
वस्त्र कैसे
आएंगे! कभी
देखे नहीं गए
हैं! लेकिन
फिर भी उसने
कहा कि कोई
हर्ज नहीं।
लेकिन देखो, धोखा
देने की कोशिश
मत करना, नहीं
तो फांसी पर
लटक जाओगे।
तुम्हारे घर
पर पहरा रहेगा
नंगी तलवारों
का। उसने कहा,
घर पर पहरा
रखें, क्योंकि
देवताओं का
रास्ता सड़क से
होकर नहीं जाता।
वह बहुत
अंदरूनी
रास्ता है। वह
तो मैं घर के
भीतर से
देवताओं के
लोक में चला जाऊंगा।
आप उसकी फिक्र
न करें। दस करोड़
रुपये खर्च
होने थे, वे
रुपये दे दिए
गए। उसके घर
के पास
तलवारों का
पहरा लगा दिया।
छह महीने बाद,
उसने कहा, मैं वस्त्र
लेकर आऊंगा।
क्योंकि
सरकारी
कामकाज है, बड़ी मुश्किल
से होता है।
लंबा वक्त लग
जाता है, एक—दो
दिन में नहीं
होता है।
सरकारी काम है,
फाइल पर
फाइल सरकेगी,
इस क्लर्क
को खिलाओं,
उस दफ्तर
में खिलाओ,
उधर चलो, तब मुश्किल
से कहीं हो पाएगा।
किसी अप्सरा
को मनाओ, तब
कहीं इंद्र के
वस्त्र मिल
सकें। बहुत
मुश्किल है। लेकिन
कोशिश मैं
करूंगा।
छह
महीने बीत गए।
सारी राजधानी
आतुर हो उठी, सारे देश
में खबरें
पहुंच गईं।
अदभुत घटना घट
रही है!
मिरेकल! देवता
के वस्त्र
पृथ्वी पर
पहली बार आ
रहे हैं। शक
है सभी को, संदेह
है सभी को, लेकिन
नंगी तलवारों
का पहरा है।
छह महीने पूरे
हो गए। सुबह
सूरज निकला और
वह आदमी घर के
बाहर आ गया।
वह साथ में एक
बहुमूल्य
पेटी लिए हुए
है, ताले
बंद हैं। अब
तो कोई शक भी न
रहा। उसने कहा,
राजमहल ले
चलो।
नंगी
तलवारों के
पहरे में वह
राजमहल पहुंच
गया। लाखों
लोगों की भीड़ सड्कों पर
इकट्ठी हो गई
है। दरबार भरा
है, दूर—दूर
से राजा आए
हैं। उसने
जाकर दरबार
में पेटी रखी।
तब तो सम्राट
भी निश्चिंत
हो गया कि
धोखा नहीं
दिया गया। फिर
उसने ताला
खोला। फिर
उसने सम्राट
को कहा कि आप
पास आ जाएं और
ये वस्त्र मैं
भेंट करता हूं।
उसने कहा, अपनी
पगड़ी अलग
कर दें।
सम्राट ने पगड़ी
नीचे कर दी।
उसने पेटी के
भीतर हाथ डाला
और खाली हाथ
बाहर निकाला
और कहा, यह पगड़ी लें
देवताओं की।
सम्राट ने
देखा कि हाथ
खाली है, कोई
पगड़ी
नहीं। फिर वह
आदमी हंसने
लगा। उसने कहा,
देवताओं ने
चलते वक्त
मुझसे कहा है,
जो अपने बाप
से पैदा हुआ
होगा उसी को
ये वस्त्र
दिखाई पड़ेंगे।
ये वस्त्र सभी
को दिखाई नहीं
पड़ सकते।
राजा
को हाथ खाली
दिखाई पड़ रहा
है। लेकिन वह
कहने लगा, अहा, कैसी
सुंदर पगड़ी!
ऐसी पगड़ी
कभी देखी
नहीं! उसने वह पगड़ी जो थी
ही नहीं, अपने
सिर पर रख ली।
झूठ
शुरू हो गया, झूठ की
यात्रा शुरू
हो गई। सोचा
उसने कि मैं
कहूं कि पगड़ी
दिखाई नहीं
पड़ती, तो
मुश्किल हुई।
अपने बाप से
पैदा नहीं हुआ,
ऐसी अफवाह
फैल जाएगी। और
फिर यह भी डर
हुआ, क्योंकि
जैसे ही दरबार
के लोगों ने
सुना कि वस्त्र
उन्हीं को
दिखाई पड़ेंगे
जो अपने बाप
से पैदा हुए, दरबारी आगे
बढ़—बढ कर आ
गए और पगड़ी
की प्रशंसा
करने लगे और
कहने लगे, ओह,
ऐसी सुंदर पगड़ी, दस
करोड़ कुछ
भी नहीं हैं।
अब जब
सारा दरबार
कहने लगा, रानियां
कहने लगीं, वजीर कहने
लगे, मित्र
कहने लगे। एक
आदमी नहीं उस
दरबार में जो
कहे कि पगड़ी
मुझे दिखाई
नहीं पड़ती।
क्योंकि सारी
भीड़ जब कह रही
है कि पगड़ी
हमें दिखाई
पड़ती है, तो
कौन साहस करे?
कौन कहे कि पगड़ी
दिखाई नहीं
पड़ती? कौन
उलझे, कौन
चक्कर में पड़े?
राजा
ने पगड़ी
पहन ली। भीतर
तो प्राण थरथरा
रहे हैं, लेकिन ऊपर
से वह
मुस्कुरा रहा
है। फिर कोट
भी उतर गया।
फिर धोती भी
उतर गई। फिर
एक ही वस्त्र
रह गया। तब
राजा घबड़ाया—
अब तो मैं
नग्न हो जाऊंगा।
एक—एक वस्त्र
ले लिया गया, और झूठे
वस्त्र दे दिए
गए, जो थे
ही नहीं। और
दरबार में
तालियां बज रही
हैं। और लोग
प्रशंसा कर
रहे हैं। राजा
एक क्षण सोचा
कि अब क्या
करूं? लेकिन
झूठ में जो
आगे बढ़ता है, एक झूठ और
बड़े झूठ में
ले जाता है।
अब पीछे लौटना
बहुत मुश्किल
मालूम होने
लगा। अगर वह
कहे कि अब
मुझे कुछ नहीं
दिखाई पड़ता, तो वह कहेगा,
इतनी देर से
आपको दिखाई पड़
रहा था? झूठ
बोल रहे थे आप?
अपने बाप से
पैदा नहीं हुए
मालूम होता है।
मजबूरी थी, उसे अंतिम
वस्त्र भी छोड़
कर नग्न खड़ा
हो जाना पड़ा।
और तब उस नंगे
खड़े राजा को
देख लोग
तालियां बजाने
लगे। हर एक को
राजा नंगा
दिखाई पड़ रहा
है, लेकिन
कोई भी कहता
नहीं कि राजा
नंगा है।
और उस
आदमी ने कहा, सम्राट, ये वस्त्र
पहली बार
पृथ्वी पर आए
हैं। इनकी
शोभा—यात्रा
निकलनी बहुत
जरूरी है।
राजधानी के
राजपथों पर
चलें आप रथ
में बैठ कर, ताकि सारा
नगर देख ले कि
देवताओं के
वस्त्र आ गए
हैं। लोग
उत्सुकता से
बाहर बाट जोह
रहे हैं।
अब
राजा के प्राण
कंपे, वह नग्न
खड़ा है, कम
से कम अपने
महल में है।
रास्ते पर जाए?
लेकिन झूठ
की यात्रा
शुरू हो चुकी,
अब उसे
रोकना बड़ा
मुश्किल
मालूम होने
लगा। मजबूरी
है, दरबारी
भी कहने लगे
कि महाराज, यह तो
वस्त्रों के
स्वागत में
जरूरी है कि
आप बाहर चलें।
महाराज
को बाहर भी जाना
पड़ा। वह नग्न
राजा रथ पर
सवार हो गया।
लाखों लोगों
की भीड़ है और
लोग वस्त्रों
की प्रशंसा कर
रहे हैं; क्योंकि
शर्त का सबको
पता चल गया।
सिर्फ भीड़ में
कुछ छोटे—
छोटे बच्चे जो
अपने पिताओ
के कंधों पर
चढ़ कर राजा को
देखने आ गए थे,
वे अपने बाप
के कानों में
कहने लगे, पिताजी,
राजा नंगा
मालूम पड़ता
है! लेकिन
बापों ने कहा,
चुप नादान,
नासमझ, गैर—
अनुभवी! राजा
नंगा नहीं, राजा सुंदर
वस्त्र पहने
हुए है। जब
तुम बड़े हो
जाओगे, तुमको
भी वस्त्र
दिखाई पड़ने
लगेंगे। चुप
रहो अभी। अभी
अनुभव नहीं है।
बच्चे
अगर सत्य
बोलते भी हैं
तो के जो
असत्य में
दीक्षित हो गए
हैं उन्हें
बोलने नहीं
देते। बच्चे
कभी इशारा भी
करते हैं कि
मुझे यह नहीं दिखाई
पड़ता, तो
के कहते हैं
चुप, नासमझ,
अभी तुझे
अनुभव नहीं है।
अनुभव तुझे भी
दिखा देगा। और
अनुभव दिखा
देता है, क्योंकि
अनुभव सब
असत्य में
यात्रा का
अनुभव है, जब
वह भी का हो
जाता है उसी
असत्य की
यात्रा से गुजर
कर, तब
उसको भी दिखाई
पड़ने लगते हैं
वस्त्र।
हम सब
भी नंगे राजा
के वस्त्र देख
रहे हैं। सरल
कैसे हो सकते
हैं? झूठे
वस्त्रों की
गवाही देकर
कोई सरल कैसे
हो सकता है? आपको मंदिर
की मूर्ति में
कभी भगवान
दिखाई पड़े हैं?
नहीं दिखाई
पड़े तो आपने
क्यों कहा है
कि वहां भगवान
हैं? और
अगर दिखाई पड़
गए हैं वहां, तो फिर इस
पृथ्वी पर कोई
ऐसी जगह हो
सकती है जहां
दिखाई नहीं
पड़ते हों? किसी
मस्जिद में
कभी उसकी झलक
मिली है? किसी
शास्त्र में,
कभी किसी
शब्द में सत्य
अवतरित हुआ है?
लेकिन
क्यों गवाही
दी है? क्यों
विटनेस बने? कि यहां
मुझे सत्य
दिखाई पड़ता है,
यहा मुझे भगवान
दिखाई पड़ते
हैं। यह जो
झूठ की गवाही
दी है, तो
फिर सरल नहीं
हो सकते हैं, नहीं हो
सकते हैं, नहीं
हो सकते हैं।
कोई रास्ता
नहीं है फिर
सरल हो जाने
का। पहली बात,
पहला सूत्र
समझ लें सरल
हो जाने के
लिए असत्य से
अपनी गवाही
अलग कर लें।
विटनेस न बनें
असत्य के, गवाह
न बनें असत्य
के।
हम सब
गवाह हैं। हम
में से सत्य
का गवाह कोई
भी नहीं।
क्योंकि जो
सत्य का गवाह
है वह
परमात्मा का साक्षी
हो जाता है।
असत्य की
गवाही है, सुबह से
सांझ तक, जन्म
से मृत्यु तक,
सारा जीवन
असत्य की एक
गवाही है। और
रोज—रोज असत्य
की यात्रा
बढ़ती चली जाती
है, बढ़ती
चली जाती है, बढ़ती चली
जाती है।
धर्म
हमारा असत्य।
जीवन के संबंध
हमारे असत्य।
बेटे से बाप
कहता है कि
मैं तुझे
प्रेम करता हूं।
और यही बाप
बेटे को युद्ध
पर भेज देता
है कि जा तू लड़
और कट। तब
कहता है कि
देश—सेवा के
लिए भेजना
बहुत जरूरी था।
अगर दुनिया
में बाप अपने
बेटों को
प्रेम करते
होते, जमीन
पर आज तक कोई
युद्ध संभव
नहीं था। कौन
अपने बेटों को
कटने भेजता? लेकिन किसी
बाप ने अपने
बेटे को प्रेम
नहीं किया।
कहता है कि
मैं प्रेम
करता हूं। कौन
कटवाता है
युद्धों में?
पहले
महायुद्ध में साढ़े सात करोड़ लोगों
की हत्या हुई।
दूसरे
महायुद्ध में
दस करोड़
लोगों की
हत्या हुई।
कौन ने कटवाए
ये लड़के? रोज
लड़के कट रहे
हैं, ये
कौन कटवा
रहा है? कौन
भेज रहा है?
मां
भेजती है, पत्नी
भेजती है, बहन
भेजती है, बाप
भेजता है, भाई
भेजता है, बेटे
भेजते हैं, मित्र भेजते
हैं। और हम
कहे चले जाते
हैं कि हम
प्रेम करते
हैं। और हम
चिल्लाए चले
जाते हैं कि
हम प्रेम करते
हैं। यह हमारा
प्रेम बड़ा
झूठा मालूम
होता है। कौन
किसको प्रेम
कर रहा है? और
जो एक बार
प्रेम करने
में समर्थ हो
जाएगा, क्या
आप जानते हैं
वह परमात्मा
से दूर रह
सकेगा एक क्षण
को भी? जहां
प्रेम का
द्वार खुल गया
वहां प्रभु के
मंदिर का
द्वार भी खुल
जाता है।
रामानुज
एक गांव में
ठहरे थे। एक
आदमी उनके पास
आ गया और कहने
लगा कि मुझे
प्रभु से
मिलना है, मुझे
परमात्मा की
तरफ जाना है, मुझे रास्ता
बताओ!
रामानुज
ने उसे नीचे
से ऊपर तक
देखा और कहा, मेरे
दोस्त, मेरे
भाई, तुमने
कभी किसी को
प्रेम किया है?
वह
आदमी कहने लगा, प्रेम—वेम की
बातें मत करो,
मुझे
परमात्मा तक
जाना है। यह
प्रेम वगैरह
के चक्कर में
मैं कभी नहीं
पड़ा। मुझे
रास्ता बताओ
प्रभु का!
रामानुज
फिर थोड़ी देर
चुप रहे और
फिर पूछा कि मेरे
दोस्त, क्या तुम
बता सकते हो, तुमने कभी
किसी को भी
प्रेम किया हो?
उस
आदमी ने कहा
कि आप प्रेम
ही प्रेम
क्यों पूछे
चले जाते हैं? मुझे
परमात्मा को
खोजना है, प्रेम
से मुझे क्या
लेना—देना?
रामानुज
फिर तीसरी बार
पूछने लगे कि
फिर भी सोचो, शायद कभी
किसी को थोड़ा
प्रेम किया
हो! वह आदमी क्रोध
से खड़ा हो गया
और उसने कहा, यह क्या
पागलपन है? मैं प्रभु
का रास्ता
पूछता हूं।
मैं पश्चिम की
पूछता हूं आप
पूरब की बताते
हैं। मैं
प्रेम की बात
नहीं पूछ रहा
हूं।
रामानुज
की आंखों में आंसू
आ गए और
उन्होंने कहा, फिर तुम
जाओ। तुमने
अगर किसी को
भी प्रेम किया
होता, तो
उसी प्रेम को
प्रार्थना
में बदला जा
सकता था।
तुमने अगर एक
को भी प्रेम
किया होता, तो उसी
प्रेम के
द्वार से
तुम्हें एक
में तो परमात्मा
कम से कम
दिखाई पड़ जाता।
और जिसको एक
में दिखाई पड़
जाता है, फिर
कोई मामला
बहुत बड़ा नहीं,
उसे सब में
दिखाई पड़ सकता
है। लेकिन तुम
कहते हो मैंने
कभी किसी को
प्रेम ही नहीं
किया। फिर, फिर मैं
असमर्थ हूं
तुम्हें
परमात्मा तक
ले जाने में।
तुम कहीं और
खोजो, तुम
कहीं और जाओ।
हम
कहते हैं कि
हमने प्रेम
किया। हम
प्रेम करते
हैं? जो
आदमी प्रेम कर
ले उसके लिए
प्रभु से बड़ी
निकटता और कोई
नहीं रह जाती।
क्योंकि
प्रेम के क्षण
में ही वह
प्रकट होता है।
ज्ञान के क्षण
में नहीं, क्योंकि
ज्ञान तोड़ता
है। प्रेम के
क्षण में, क्योंकि
प्रेम जोड़ता
है। ज्ञानी को
प्रकट नहीं
होता, क्योंकि
ज्ञानी का
अहंकार है कि
मैं जानता हूं।
प्रेमी को
प्रकट होता है,
क्योंकि
प्रेमी कहता
है कि मैं हूं
ही नहीं। तो
हम जिसे प्रेम
कहते हैं वह
जरूर झूठा
प्रेम होगा; नहीं तो वह
प्रेम
परमात्मा तक
पहुंचा देता।
हमारा धर्म
झूठा, हमारा
प्रेम झूठा, हमारी
प्रार्थना
झूठी।
एक नाव
समुद्र में
डगमगा रही है।
तूफान आ गया
है जोर का।
नाव के यात्री
कंपे जा
रहे हैं, उनके प्राण कंपे जा
रहे हैं। वे
सब घुटने टेक
कर प्रार्थना
कर रहे हैं
परमात्मा से
कि बचा लो। हम
इतना धन दान
करेंगे, हम
इतना त्याग
करेंगे, मैं
मंदिर बनवा
दूंगा, मैं
मस्जिद बनवा
दूंगा, मैं
गीता की हजार कापियां छपवा कर बंटवा
दूंगा, मैं
यश करवा दूंगा,
मैं इतने
ब्राह्मणों
को खिलवा
दूंगा। वे सभी
यात्री
प्रार्थना कर
रहे हैं।
लेकिन
एक संन्यासी, एक फकीर
वहां बैठा हुआ
है। वह चुपचाप
बैठा है। लोग
उस पर नाराज
हो गए और कहने
लगे कि तुम
कुछ करो प्रार्थना,
शायद
तुम्हारी सुन
ले! तुम चुप
क्यों बैठे हो
इस दुर्घटना
की घड़ी में? नाव
डांवाडोल है,
एक क्षण में
डूब सकती है।
वह
फकीर हंस रहा
है, वह
चुप बैठा है।
वे प्रार्थना
कर रहे हैं।
तभी वह बीच
में चिल्लाया
कि ठहरो, ठहरो,
वचन मत दे
देना! नाव
करीब पहुंच
रही है, किनारा
करीब आ गया, खतरे के हम
बाहर हैं। वे
सारे लोग आधी
प्रार्थना
छोड़ कर सामान
बांधने लगे।
लेकिन
एक आदमी उसमें
झंझट में पड़
चुका था। वह
आदमी अरबपति
था, वह
इस नाव में
अरबों रुपया
कमा कर वापस
लौट रहा था।
वह इतना घबड़ा
गया कि उसने
भगवान को कहा
कि हे भगवान, अगर मैं बच
गया, नाव
बच गई, तो
मेरा राजधानी
का जो महल है, जिसकी कीमत
पांच लाख
रुपया है, वह
मैं तुझे दान
कर दूंगा, तेरा
मंदिर बना
दूंगा वहां।
या उसको बेच
कर गरीबों को
बांट दूंगा।
बचा ले!
गरीबों को
बांट दूंगा या
मंदिर बना
दूंगा। वह यह
वचन दे चुका
था। और तो
सारे लोग अभी
शुरू ही किए
थे, वचन
नहीं दिए थे, वह एक आदमी
फंस गया। और
नाव किनारे
पहुंच गई। अब
उसके प्राण
बड़े संकट में
पड़े कि वह
पांच लाख
रुपये का क्या
होगा? उस
मकान का क्या
होगा? उसने
उस फकीर से
कहा कि तुम
बहुत बुद्धिमान
मालूम पड़ते हो।
अब मैं क्या
करूं? मैं
तो फंस गया।
मैं तो
आश्वासन दे
दिया भगवान को।
मैं क्या करूं?
उस
फकीर ने कहा, घबड़ाओ मत, तुम
जरूर कोई
तरकीब निकाल
लोगे।
क्योंकि आदमी
की
प्रार्थनाएं
इतनी झूठी हैं
कि उनमें दिए
गए वचनों का
कोई अर्थ नहीं।
लेकिन तुम कोई
जरूर रास्ता
निकाल लोगे, घबड़ाओ मत। तुम बड़े
होशियार आदमी
मालूम पड़ते हो,
नहीं तो
करोड़ों रुपया
कमाना भी बहुत
कठिन था। तुम
बड़े चालाक
आदमी मालूम
पड़ते हो।
और
पंद्रह दिन
बाद उस आदमी
ने तरकीब
निकाल ली। और
उसने वह मकान
पांच लाख
रुपये का
गरीबों को बांट
दिया। कैसे
बांट दिया? उसने
सीधी तरकीब
निकाल ली। एक
गणित का हिसाब
निकाल लिया।
उसने गांव में
खबर कर दी कि
मुझे मकान
नीलाम कर देना
है। पांच लाख
रुपये का मकान
है, सबको
पता है। मुझे
मकान नीलाम कर
देना है। फलां—फलां
दिन सुबह लोग
इकट्ठे हो गए
लेनदार। वह
मकान अदभुत था।
खुद राजा भी
लेने आ गया था।
वह
फकीर भी पहुंच
गया उस भीड़
में कि वह
आदमी क्या कर
रहा है? क्या वह
बांट देगा
लोगों को? वह
फकीर भीड़ में
चुपचाप खड़े
होकर देखने
लगा।
उस
आदमी ने क्या
किया था? उस आदमी ने
एक बिल्ली
बांध दी मकान
के सामने और
गांव के लोगों
को कहा कि
बिल्ली की
कीमत पांच लाख
रुपया, मकान
की कीमत एक
रुपया। और
दोनों को
इकट्ठा बेचूंगा,
अलग—अलग बेचूंगा
नहीं। जिसको
भी लेना हो ले
ले। बिल्ली की
कीमत पांच लाख
रुपया, मकान
की कीमत एक
रुपया।
इकट्ठा बेचूंगा,
एक ही
ग्राहक को बेचूंगा।
दोनों अलग—अलग
नहीं बेचने
हैं।
गांव
के लोग बड़े
हैरान हुए!
लेकिन लोगों
को क्या मतलब, लोग
जानते थे पांच
लाख का मकान
है। एक रुपये
में देता है
पांच लाख का
मकान। और
बिल्ली जो दो कौड़ी की
नहीं, वह
बताता है पांच
लाख। लेकिन
लोगों को क्या
मतलब? पागल
हो गया है, हो
जाने दो। गांव
का मकान बिक
गया। एक आदमी
ने पांच लाख
में बिल्ली
खरीद ली, एक
रुपये में
मकान खरीद
लिया। उस आदमी
ने पांच लाख
तिजोरी में
बंद किए, एक
रुपया गरीबों
में बांट दिया।
उसने तरकीब
निकाल ली।
उसने रास्ता
निकाल लिया।
हमारी
प्रार्थना
झूठी है, हमारी पूजा
झूठी है, क्योंकि
हम झूठे हैं
बुनियाद में
इसलिए हमारा
सब झूठा है—
हमारा शान, हमारा धर्म,
हमारी
प्रार्थना, हमारा प्रेम—क्योंकि
बुनियाद में
हम झूठे हैं।
और झूठ पर खड़ा
हुआ जीवन सरल
नहीं हो सकता।
यह मत
पूछें कि हम
सरल कैसे हो
जाएं। इतना ही
जान लें कि हम
जटिल कैसे हो
गए हैं। कैसे
रोज हम जटिल
होते चले जा
रहे हैं।
एक पल
नहीं बीतता, हम और
जटिल हो जाते
हैं। एक घड़ी
नहीं बीतती, हम और उलझ
जाते हैं।
सारी जिंदगी
उलझाव की एक
लंबी कथा है।
बच्चे सरल और
सीधे पैदा
होते हैं, के
उलझे हुए मर
जाते हैं।
इसीलिए तो
जिंदगी भर
आदमी पीछे की
तरफ लौट—लौट
कर सोचता रहता
है कि बड़ी
खुशी थी बचपन
में, बड़ा
आनंद था बचपन
में, बड़ी
शांति थी बचपन
में। अब सब खो
गई।
क्या
बात थी बचपन
में? कौन
सी खुशी थी? कौन सा आनंद
था? कौन सी
शांति थी?
शांति
यही थी कि
सरलता थी, खुशी यही
थी कि सरलता
थी, आनंद
यही था कि
सरलता थी।
जटिल होता
जाता है आदमी
और दुख और
पीड़ा और चिंता
से भरता चला
जाता है। होना
तो उलटा था कि
आदमी की उम्र
जैसे बढ़ती वह और
सरल होता, और
सरल होता। और
अंत क्षण तक
इतना सरल हो
जाता कि उसकी
सरलता में और
प्रभु के बीच
कोई फासला न
रह जाता, कोई
दीवाल न रह
जाती, कोई
गांठ न रह जाती,
कोई ग्रंथि
न रह जाती।
लेकिन नहीं, उलटा होता
है, गांठ
रोज बढ़ती चली
जाती है, रोज
बढ़ती चली जाती
है। हम सब गांठों
को कमाने वाले
लोग, हमारे
लिए परमात्मा
सरल नहीं हो
सकता है।
इसलिए जब
धर्मगुरु
हमें समझाते
हैं कि परमात्मा
कठिन है, हम
बिलकुल राजी
हो जाते हैं
कि ठीक कहते
हैं, परमात्मा
कठिन है।
मैं
आपसे कहता हूं
झूठ कहते हैं।
परमात्मा
कठिन नहीं, कठिन आप
हैं। और अपनी
कठिनाई को
परमात्मा पर
मत थोपें।
परमात्मा
जटिल नहीं, जटिल आप हैं।
लेकिन जब भी
दोष दूसरे पर
दे दिया जाए, हम निर्दोष
होकर शांत और
मजे में हो
जाते हैं।
अपनी
कठिनाई पहचानें, अपनी कांप्लेक्सिटी
पहचानें,
और पहचानते
ही सरलता शुरू
हो सकती है।
और मैं यह
नहीं कहता कि
कल शुरू हो
सकती है। अभी
और इसी वक्त
शुरू हो सकती
है, आप
यहीं से सरल
होकर वापस लौट
सकते हैं, इसी
वक्त। मुट्ठी
बांधी है, मत
बांधें, और
आप एक दूसरे आदमी
होकर चल पड़े।
दूसरे आदमी—इसी
क्षण! अभी और
यहीं!
लेकिन
अगर आपने कहा
कि कल देखेंगे, जटिलता
शुरू हो गई।
क्योंकि कल पर
टालना जटिल
आदमी का लक्षण
है। जिंदगी कल
के लिए नहीं
रुकती, जिंदगी
अभी और यहीं
है। हो सकता
है जो वह अभी
हो सकता है और
यहीं, दिस वेरी
मोमेंट, इसी
क्षण में!
लेकिन जो इस
क्षण में नहीं
हो सकता, आप
कहते हैं. ठीक
कहते हैं, सोचूंगा, विचार
करूंगा, पूछूंगा, कल कुछ
करूंगा। बस
जटिलता के सब
रास्ते खोल
दिए गए। सोचने
से आदमी और
जटिलता में
जाएगा। करने
से और जटिलता
में जाएगा। कल
पर पोस्टपोन
करने से और
जटिलता में
जाएगा। अभी और
यहीं जटिलता
को देख लें, पहचान लें—कहां
मैं जटिल हूं!
फिर किसको
कहना है?
एक
युवा
संन्यासी एक
आश्रम में है।
बहुत विवादी
है, बहुत
तार्किक है, चौबीस घंटे
विवाद और तर्क,
और विवाद, एक क्षण को
मौन नहीं, बोलना,
बोलना, बोलना।
एक अजनबी
मेहमान आश्रम
में आया हुआ
है। वह युवक
उसके पीछे पड़
गया। विवाद
में, तर्क
में, आर्ग्युमेंट में, उसने
एक—एक बाल की
खाल निकाल
डाली। वह आदमी
हारा हुआ, पराजित
हुआ, वापस
लौटा। आश्रम
का का
गुरु चुपचाप
बैठा हुआ देख
रहा है, हंस
रहा है, देख
रहा है। जब वह
अजनबी हार कर
चला गया विवाद,
तब उस बूढ़े
ने उस युवा
संन्यासी को
कहा, मेरे
बेटे, तू
कब तक, कब
तक व्यर्थ की
बकवास करता
रहेगा? कब
तक व्यर्थ की
बकवास करता
रहेगा? क्या
मिलेगा इस
बकवास से, इस
विवाद से? जो
मिलना है वह
संवाद से
मिलता है, और
संवाद मौन में
होता है।
विवाद में कोई
संवाद नहीं
होता। विवाद
में कोई कम्युनिकेशन
नहीं है। क्या
मिलेगा तुझे?
कब तक बोलता
रहेगा व्यर्थ?
कब तक
शब्दों से
खेलता रहेगा?
शब्दों का
अपना शतरंज है।
कब तक खेलता
रहेगा? बोल!
वह
युवक सुना, जैसा आप
सुन रहे हैं, उस युवक ने
भी सुना कि
उसके बूढ़े गुरु
ने कहा है, कब
तक तू बोलता
रहेगा व्यर्थ?
बोल, उत्तर
दे! वह युवक
हंसने लगा, उसने उत्तर
भी नहीं दिया।
गुरु उसे
हिलाने लगा कि
बोल, उत्तर
दे! वह युवक
हंसने लगा, उसने फिर
उत्तर नहीं
दिया! वह चुप
ही हो गया! फिर
वह तीस साल
जिंदा रहा, वह मौन ही
जिंदा रहा!
उसी क्षण हो
गई बात, जो
बात दिखाई पड़
गई, हो गई।
उसे दिखाई पड़
गया कि ठीक कह
रहे हैं यह
बात कि मैं कब
तक व्यर्थ बोल
कर समय को
खोता रहूंगा?
बात दिखाई
पड़ गई, फिर
उसने यह भी
नहीं कहा कि
कल से बंद
करूंगा; अभी
बंद करता हूं।
क्योंकि इसके
कहने की भी
क्या जरूरत
रही? बंद हो
गया, उसी
क्षण बात हो
गई।
गांव
के लोग तो बड़े
परेशान हुए कि
वह आदमी जो सबसे
ज्यादा बोलता
था, चुप
हो गया। लोग
उसके गुरु को
आकर कहने लगे
कि यह बड़ा
पागल मालूम
होता है। उस
गुरु ने कहा, काश, लोग
इतने ही पागल
हों तो पृथ्वी
स्वर्ग बन जाए।
जिसको हम
होशियार कहते
हैं वह आदमी
सोच—विचार
करता है, सोच—विचार
करता है, सोच—विचार
करता है, कल
करूंगा, कल
करूंगा, उसमें
कूदने की
सामर्थ्य ही
विलीन हो जाती
है। और सत्य
को केवल वे
लोग उपलब्ध
होते हैं जो
कूदने की और
दांव लगाने की
सामर्थ्य
रखते हैं।
तो
मैंने कही यह
थोड़ी सी बात।
जटिल है
मनुष्य का मन।
जटिलता देखें, अपने
झूठे चेहरों
को पहचानें।
जिन झूठे
वस्त्रों को
गवाही दी है, उन गवाहियों
को पहचानें।
जिस प्रेम को
प्रेम कहा है
और जिसके पीछे
घृणा छिपी
बैठी है, उस
प्रेम को पहचानें।
जिस जान को
ज्ञान समझा है
और जहां शान
बिलकुल भी
नहीं, उस
ज्ञान की
व्यर्थता को
देखें। और
देखते ही आप
पाएंगे कि एक
दीवाल टूट गई
और कोई किरणें
उतरनी
शुरू हो गई
हैं और प्राण
सरल हो गए हैं,
निर्दोष हो
गए हैं, इनोसेंट हो गए हैं।
धन्य
हैं वे लोग जो
सरल हो जाते
हैं, क्योंकि
परमात्मा
उनकी संपदा बन
जाता है। धन्य
हैं वे लोग जो
सरल हो जाते
हैं, क्योंकि
सरलता के
द्वार से
उन्हें सब कुछ
मिल जाता है।
धन्य हैं वे
लोग जो सरल हो
जाते हैं, क्योंकि
सत्य का और
प्रभु का
राज्य उनका है।
लेकिन अभागे
हैं वे लोग जो
जटिल हैं। और
हम सब, हम
सब जटिल हैं।
हमारा अभाग्य,
हमारा
दुर्भाग्य
यही है कि हम
अपने को उलझाए
चले जाते हैं,
उलझाए चले जाते
हैं, उलझाए चले जाते
हैं।
यह
थोड़ी सी बात
मैंने कही, इस संबंध
में और जो
बातें हैं वे
आने वाली चर्चाओं
में आपसे
कहूंगा। एक
छोटी सी घटना,
और अपनी
चर्चा मैं
पूरी करूं।
जीसस
क्राइस्ट एक
गांव में गए।
उस गांव के
लोग इकट्ठे हो
गए। गांव का
पुरोहित, गांव का
पंडित, गांव
का डाक्टर, गांव का
शिक्षक, गांव
के व्यापारी,
गांव के
मजदूर, गांव
के पुरुष—स्त्रियां,
वे सब
इकट्ठे हो गए।
वे जीसस की
बातें सुनने
लगे। और जीसस
उन लोगों से
कहने लगे कि
परमात्मा का राज्य
बहुत निकट है।
तुम प्रवेश
होना चाहते हो
कि नहीं? वह
जो किंगडम ऑफ
गॉड है, बहुत
करीब है। तुम
चलना चाहते हो
वहां या नहीं?
उन
लोगों ने कहा, प्राण तो
हमारे भी आतुर
हैं, लेकिन
कौन जा सकेगा?
कौन है
पात्र? कौन
जा सकेगा
प्रभु के
राज्य में? कौन है
पात्र? कौन
है अधिकारी?
तो
जीसस ने सामने
खड़े हुए
धर्मगुरु को
देखा; नहीं,
वह अधिकारी
नहीं था, क्योंकि
उसे खयाल था
कि मैं धर्म
का गुरु हूं, अहंकार था।
जीसस ने पास
में खड़े हुए
धनपति को देखा,
उसकी रीढ़
में अकड़ थी, उसके जेब
वजनी थे, उसके
पास सोना था, धन था, वह
भी कुछ था; नहीं—नहीं,
वह भी पात्र
नहीं हो सकता।
जीसस की आंख
वहां से भी हट
गई। जीसस ने
दरिद्र की तरफ
देखा, उसके
मन में सिवाय
रोटी के और
कल्पना नहीं
थी कोई। धनी
के मन में
सोने—चांदी का
हिसाब था, गरीब
के मन में
रोटी का हिसाब
था। धर्मगुरु
समझता था मैं
जानता हूं।
गांव का
नास्तिक खड़ा
था, वह
समझता था
ईश्वर है ही
नहीं, ईश्वर
का कोई राज्य
नहीं है। कौन
कहता है?
जीसस
की आंखें एक—एक
आदमी को देखने
लगीं और
खिसकने लगीं, नहीं—नहीं,
वह कोई भी
पात्र नहीं है।
और तब किस पर
जीसस की आंखें
रुकी? एक
बच्चे पर जो
भीड़ के बाहर
चुपचाप धूल
में खेल रहा
था। वे दौड़ कर
गए, उस धूल
भरे बच्चे को
उठा लिया ऊपर
और कंधों पर ऊपर
उठा कर लोगों
से कहा, सुनो,
जो लोग इस
बच्चे की
भांति सरल
होंगे, परमात्मा
के राज्य के
अधिकारी वे ही
हैं। अपने से
पूछना रात
जाकर बच्चे की
सरलता है आपके
पास? नहीं
है, तो फिर
प्रभु बहुत
कठिन है, फिर
वह सरल नहीं
हो सकता है।
और अगर आपके
प्राणों से
कोई बच्चा बोल
उठे कि हां, मैं तैयार
हूं मैं मर
नहीं गया हूं;
तुम्हारी
सब कोशिश के
बावजूद भी मैं
मर नहीं गया
हूं; तुम्हारे
सब खो के
बावजूद भी मैं
जिंदा हूं इंस्पाइट
ऑफ यू; और
मुझे खोज लो, तुम्हारा
बच्चा अभी मौजूद
है। आज की रात
भी द्वार खुल
सकते हैं।
किसी भी क्षण
खुल सकते हैं।
मेरी बातो को
इतने प्रेम और
शांति से सुना, उसके लिए
बहुत
अनुगृहीत हूं।
और अंत
में सबके भीतर
बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता हूं,
मेरे
प्रणाम
स्वीकार करें।
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