दिनांक
12 मई 1979,
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
सूत्र:
रामराय, महा
कठिन यहु मया।
जिन
मोहि सकल जग
खाया।।
यहु
माया बह्मा—सा
मोह्या, संकर—सा
अटकाया।
महाबली
सिध, साधक
मारे, छिन
में मान
गिराया।।
यह
माया षट दरसन
खाए, बातनि जगु
बौराया।
छलबल
सहित चतुरजन
चकरित, तिनका
कछु न बसाया।।
मारे
बहुत नाम सँ
न्यारे, जिन यासँ मन
लाया।
रज्जब
मुक्त भये
माया तें, जे
गहि राम छुड़ाया।।
संतो, आवै जाय
सु माया।
आदि
न अंत मरै
नहि जीवै, सो
किनहूं
नहिं जाया।।
लोक
असंखि भये जा माहिं, सो
क्यँ गरभ
समाया।
बाजीगर
की बाजी ऊपर, यहु
सब जगत
भुलाया।।
सुन्न
सरूप अकलि
अविनासी, पंचतत्त नहिं काया।
त्यँ औतार अपार असति ये, देखत
दृष्टि
बिलाया।।
ज्यँ
मुख एक देखि
दुई दर्पन, गहला
तेता गाया।
हर
आन यहाँ सहबाए—कुहन
इक सागरे—नौ
में ढलती है
कलियों
से हुस्न
टपकता है, फूलों
से जवानी
उबलती है
याँ
हुस्न की बर्क
चमकती है, याँ
नूर की बारिश
होती है
हर
आह यहाँ इक नग्माः
है,
हर अश्क
यहाँ इक मोती
है
हर
शाम है, शामे—मिस्त्र
यहाँ, हर
शब है, शबे—सीराज
यहाँ
है
सारे जहाँ का
सोज यहाँ और
सारे जहाँ का
साज यहाँ
यह दश्ते—जुनँ
दीवानों का, यह
बज्म?—वफ़ा
परवानों की
यह
शहर तरब रूमानों
का,
यह खुल्दे—बरी
अरमानों की
इस फ़र्श से
हमने उड़—उड़ कर अफलाक के
तारे तोड़े हैं
नाहीद से
की है सरगोशी, परवीन
से रिश्ते
जोड़े हैं
इस बज्म? में तेगें
खींची हैं, इस बज्म?
में सागर
तोड़े हैं
इस बज्म? में आंख
बिछाई है, इस
बज्म? में
दिल तक जोड़े
हैं
इस बज्म? में नेजे
फेंके हैं, इस बज्म?
में खंजर
चूमे हैं
इस बज्म? में
गिर—गिर तड़पे
हैं, इस बज्म?
में पीकर झूमे हैं
एक ही
जगत है—यही
जगत। फिर चाहो
नर्क बना लो, चाहे
स्वर्ग। जगत
मात्र एक अवसर
है। कोरी किताब।
क्या तुम लिखोगे,
तुम पर
निर्भर है। और
केवल तुम पर!
किसी और की कोई
जिम्मेदारी
नहीं। नरक में
जीना हो नरक
बना लो, स्वर्ग
में जीना हो
स्वर्ग बना लो—तुम्हारे
हाथों का ही
सारा निर्माण
है। यहाँ सब
मौजूद है।
युद्ध करना हो
तो युद्ध और
प्रेम की छाया
में जीना हो
तो प्रेम की
छाया। शांति
के फूल उगाने
हों तो कोई
रोकता नहीं, निर्वाण के
दीए जलाने हों
तो कोई बुझाता
नहीं—और अगर
जख्म ही छाती
में लगाने हों
तो भी कोई हाथ
रोकने आएगा
नहीं।
तुम मुत्त
हो। तुम
स्वतंत्र हो।
मनुष्य की यही
महिमा है। यही
उसका विषाद
भी। विषाद, कि
मनुष्य
स्वतंत्र है;
गलत करने को
भी स्वतंत्र
है।
स्वतंत्रता
में गलत करने
की
स्वतंत्रता
सम्मिलित है।
अगर ठीक करने
की ही
स्वतंत्रता
होती तो उसे
स्वतंत्रता ही
क्या कहते!
स्वतंत्रता
का अर्थ ही
होता है, गलत
होने की
स्वतंत्रता
भी है। चाहो
तो मिटा लो, चाहो तो बना
लो। चाहो तो
गिर जाओ मिट्टी
में और कीचड़
हो जाओ और
चाहो तो कमल
बन जाओ।
जीवन
एक कोरा अवसर
है—बिल्कुल
कोरा अवसर!
जैसे कोरा
कैनवास हो और
चित्रकार उस
पर चित्र उभारे; कि
अनगढ़
पत्थर हो, कि
मूर्तिकार
उसमें मूर्ति निखारे।
शब्द उपलब्ध
हैं; चाहो गालियाँ
बना लो और
चाहे गीत। इस
बात को जितने
गहरे में उतर
जाने दो ह्रदय
में, उतना
ही अच्छा है।
भूल कर भी मत
सोचना कि कोई
तुम्हारे
भाग्य का
निर्माण कर
रहा है। उस
बात में बड़ा
खतरा है। फिर
आदमी अवश हो
जाता है। फिर जो
हो रहा है, हो
रहा है। फिर
सहने के सिवाय
कोई उपाय
नहीं। फिर
आदमी मिट्टी
का लौंदा हो
जाता है; उसके
प्राण सूख
जाते हैं; उसमें
जीवन की धार
नहीं बहती।
चुनौतियों को
अंगीकार करने
की सामर्थ्य
खो जाती है।
और जहाँ चुनौतियों
को अंगीकार
करने की
सामर्थ्य नहीं,
वहाँ आत्मा
का जन्म नहीं।
आत्मा जन्मती
है चुनौतियों
के स्वीकार
करने से। तूफानों
में पैदा होती
है आत्मा। आंधियों—अंधड़ों
में पैदा होती
है आत्मा।
और बड़ी—से—बड़ी
आंधी यही है
कि तुम अपनी
स्वतंत्रता
को स्वीकार कर
लो। कठिन होगी
बात,
क्योंकि
सारा दायित्व
सिर पर आ
जाएगा। अभी तो
सोचने के लिए
बहुत उपाय हैं
कि क्या करें,
किस्मत, भाग्य,
कर्म, भगवान.....क्या
करें? अभी
तो दूसरे पर
टालने का उपाय
है। लेकिन यह
तुम्हारी
तरकीब है—और
चालबाज तरकीब
है। ये
सिद्धांत
तुम्हारे गढ़े
हुए हैं और
बेईमानी से
भरे हैं। इन
सिद्धांतों
की आड़ में
तुमने अपने को
खूब छिपा
लिया। और पाया
क्या छिपाने
से? इतना
ही पाया कि
नरक बनाने की
सुविधा मिल गयी
और स्वर्ग
बनाने की
क्षमता खो
गयी।
उस
मनुष्य के
जीवन में धर्म
की शुरूआत
होती है, जो इस
पहले कदम को
उठाता है—जो
कहता है मैं
निर्णायक हूं।
नरक जाऊँगा तो
मेरा निर्णय,
जिम्मेवारी
किसी पर थोपँगा
नहीं। तो इस
बात को जानकर
जाऊँगा कि
मुझे नरक ही
जाना है। कम—से—कम
इतना तो
आश्वासन
रहेगा, इतनी
तो सांत्वना
रहेगी, इतना
तो संतोष
रहेगा कि अपने
ही निर्णय से
जिआ हूं।
लेकिन
अगर तुम्हें
यह पक्का पता
हो जाए कि नरक
तुम अपने ही
निर्णय से
जाते हो, तो
क्या तुम नरक
जाना चाहोगे ?
कौन जाना
चाहेगा? दुःख
का कोई
निर्माण नहीं
करना चाहता।
इसलिए जैसे ही
यह तीर
तुम्हारे
प्राणों में चुभ जाए कि
मैं स्वतंत्र हूं,
वैसे ही
स्वर्ग का
निर्माण शुरू
हो जाता है। पृथ्वी
यही है, स्थान
यही है। यहीं
कोई बुद्ध की
तरह जी लेता है
और यहीं कोई बुद्धुओं
की तरह। यहीं
कोई परम आनंद
को उपलब्ध हो
जाता है और
समाधि की
सुवास में
नाचता है और
यहीं कोई सड़ता
है। यहीं! ठीक
एक ही जगह है!
लेकिन यहाँ
उतनी ही दुनियाएँ
हो गयी हैं, जितने यहाँ
लोग हैं।
आज जिस
अनूठे आदमी की
वाणी में हम
यात्रा शुरू
करेंगे, वह
आदमी निश्चित
अनूठा था। कभी—कभी
ऐसे अनूठे
आदमी होते
हैं। और उनके
जीवन से जो
पहला पाठ
तुम्हें मिल
सकता है, वह
यही है।
रज्जब
की जिंदगी बड़े
अद्भुत ढंग से
शुरू हुई। तुमने
सोचा भी न
होगा कि ऐसे
भी कहीं
जिंदगी बदलती
है! यह भी कोई
जिंदगी के
बदलने का ढंग
है! रज्जब
मुसलमान थे—पठान
थे—किसी युवती
के प्रेम में
थे। विवाह का
दिन आ गया।
बारात सजी।
बारात चली।
रज्जब घोड़े पर
सवार। मौर बाँधा
हुआ सिर में।
बाराती साथ
हैं,
बैंड—बाजा
है, इत्र
का छिड़काव
है, फूलों
की मालाएँ
हैं। और बीच
बाजार में, अपनी ससुराल
के करीब पहूंचने
को ही थे, दस—पाँच
कदम और, स्वागत
के लिए तैयार
थे ससुराल के
लोग—और यह
क्रांति घटी!
घोड़े के पास
एक अजीब—सा, फक्कड़—सा आदमी आकर
खड़ा हो गया और
उसने गौर से
रज्जब को
देखा। आंख से आंख
मिली। वे चार आंखें
संयुत्त
हो गयीं। उस
क्षण में
क्रांति घटी।
वह आदमी रज्जब
का होने वाला
गुरु था—दादू
दयाल। और जो
कहा दादू दयाल
ने, वे
शब्द बड़े
अद्भुत हैं!
उन छोटे—से
शब्दों में
सारी क्रांति
छिपी है। दादू
दयाल ने भर—आंख
रज्जब की तरफ
देखा, आंखें
मिलीं और दादू
ने कहा—
रज्जब
तैं गज्जब
किया, सिर
पर बाँधा मौर
आया
था हरि भजन कॅूं, करै नरक
को ठौर
बस
इतनी—सी बात।
देर न लगी, रज्जब
घोड़े से नीचे
कूद पड़ा, मौर
उतारकर
फेंक दिया, दादू के पैर
पकड़ लिए। और
कहा कि चेता
दिया, समय
पर चेता दिया।
और सदा के लिए
दादू के हो गए।
बारातियों
ने बहुत
समझाया—भीड़
इकट्ठी हो गयी,
सारा गाँव
इकट्ठा हो गया,
ससुराल के
लोग आ गए, पर
रज्जब तो बस
एक ही बात
दोहराने लगा,
बार—बार—
रज्जब
तैं गज्जब
किया, सिर पर
बाँधा मौर
आया
था हरि भजन कॅूं, करै नरक
को ठौर
एक
क्षण में ऐसी
क्रांति संभव
है?
संभव है।
क्रांति क्षण
में ही होती
है। जो कहते
हैं समय
लगाएँगे, वे
तो केवल टालते
हैं, स्थगित
करते हैं। जो
कहते हैं कल, व? तो
करना नहीं
चाहते। कल की
बात ही झूठों
की बात है। जो
होना है आज
होना है, अभी
होना है, यहाँ
होना है—अभी
या कभी नहीं।
रज्जब
ने यह न कहा : यह
भी कोई बात है? यह
कोई समय है? विवाह को
जाता हूं, बड़ी
आतुरता से!.....और
यह कोई साधारण
विवाह न था—प्रेम—विवाह
था। ऐसे ही
कोई माता—पिता
के द्वारा
आयोजित
जबर्दस्ती
लड़के को घोड़े
पर नहीं बिठा
दिया गया था।
बड़ी मुश्किल
से यह विवाह
हो रहा था, बड़ी
कठिनाई थी—यह
प्रेम—विवाह
था। परिवार
पक्ष में न थे,
बड़ी जिद्द
से रज्जब ने
यह विवाह करने
की ठानी थी।
और ऐसे लौट
पड़ा! फेंक
दिया उतार कर
मौर! याद आगयी
कोई। तीर चुभ
गया। यह शब्द
बाण हो गया।
यह गुरु का आंख
में आंख डालकर
देख लेना, यह
जरा—सा सैन, यह जरा—सा
इशारा.....समझदार
को इतना काफी
है।
सोचो
जरा,
कितनी आशाएँ
न बाँधी
होंगी रज्जब
ने! अपनी
प्रेयसी को
मिलने जा रहा
था, कितने
सपने न देखे
होंगे! क्या—क्या
मनसूबे, क्या—क्या
ताशों के महल,
कितने
सुहावने गीत न
रचे होंगे मन
में! और एक
क्षण में, ऐसे
झटके में सब
तोड़ दिया! और
एक फक्कड़—से
आदमी के आंख
में आंख डालने
से यह बात हो
गयी। इसलिए
कहता हूं
रज्जब गजब का
आदमी था।
हुस्ने यूसूफ से
तुझको क्या
निसबत
तू
जमाने में
बेमिसाल हुआ
कोई
मुकाबला नहीं
रज्जब का।
बहुत लोग संत
हुए हैं, मगर
ऐसी त्वरा, ऐसी तीव्रता,
ऐसी सघनता!
वर्षों सोचते
हैं लोग, विचार
करते हैं, चिंतन—मनन
करते हैं, आगा—पीछा
देखते हैं, हिसाब लगाते
हैं, गणित
बिठाते हैं, तर्क जुड़ाते
हैं—तब कहीं
लोग संतत्व
में कदम लेते
हैं। पर ऐसे!
यह
कैसे हुआ होगा?
मनुष्य
की स्वतंत्रता
है,
इसलिए। तुम
चाहो तो अभी
हो, इस
क्षण हो।
लेकिन तुम
चाहते नहीं कि
अभी हो। और
बेईमान तुम
ऐसे हो कि तुम
कहते हो, मैं
क्या करूँ? अपने किए
क्या होगा? विधि में जब
होगा तब होगा।
प्रभु की जब
मर्जी होगी तब
होगा। तुम बड़े
सुंदर शब्दों
में बड़ी असुंदर
भावनाओं को
छिपाते हो।
तुम बहाने
खोजते हो। और
बहाने ऐसे कि
लगे धार्मिक
हैं। बहाने
ऐसे कि शास्त्रों
का सहारा है
उनको।
शास्त्र भी
तुम्हारे लिखे
हुए हैं। तुम
जैसे ही
बेईमानों के
वहाँ भी
हस्ताक्षर
हैं।
लेकिन
मैं तुमसे यह
कहना चाहता हूँ
कि चाहो तो
अभी हो जाए।
और न चाहो, तो
कभी भी न
होगा। तुम कुछ
नए थोड़े ही
हो। तुम उतने
ही प्राचीन हो
जितना
प्राचीन यह
अस्तित्व है।
हिमालय नया है,
तुम ज्यादा
प्राचीन हो।
क्या
हुआ होगा उस
घड़ी में? दादू
दयाल ने क्या
याद दिलायी?
यह दादू को
इस युवक के
पीछे पड़ने की
जरूरत क्या थी?
और यह कोई
घड़ी थी, यह
कोई मौसम था, यह कोई वक्त
था! इतनी
बेरहमी तो न
करनी थी। थोड़ी
तो करुणा
करते। दो—चार
दिन तो इसे
सुख में रह
लेने देते।
विवाह तो हो
जाने देते।
सुहागरात तो
बीत जाने
देते। इतनी
क्या जल्दी थी?
और
क्या कहा? और
क्यों कहा?.....यह पहचान
पुरानी होगी।
यह आश्वासन पुराना
होगा। यह
वायदा नया
नहीं था।
इसलिए बात
तत्क्षण बैठ
भी गयी। देखा
होगा कि फिर
चला भूल में
पड़ने, फिर
गिरा गङ्ढे
में। फिर शुरू
होती है एक
कहानी। शुरू
हो जाए तो लौटानी
कठिन होती चली
जाती है, क्योंकि
हर कहानी की
अपनी जटिलता
है। पत्नी है,
फिर
जिम्मेवारी
है; फिर
बच्चे हैं, फिर बच्चों
की
जिम्मेवारी
है। फिर जिम्मेवारियों
से जिम्मेवारियों
का जन्म होता
है। फिर एक से
दूसरा
सिलसिला शुरू
होता है।
मेरे
हिसाब से ठीक
ही समय में
पकड़ लिया; जरा
देर और, फिर
जिम्मेवारियों
का जाल गहरा
हो जाता। मगर
यह पुराना
वायदा रहा
होगा। यहाँ भी
बहुत हैं, जिनसे
मेरी पुरानी
पहचान है।
यहाँ भी बहुत
हैं, जो नए
नहीं हैं। तुम
आकस्मिक थोड़े
ही आ जाते हो।
और फिर मेरे—जैसे
आदमी के पास
कोई आकस्मिक
तो नहीं आ
जाता। यह कोई
सस्ता धर्म तो
नहीं है। इससे
प्रतिष्ठा तो
नहीं मिलती।
होगी भी
प्रतिष्ठा तो
खो जाएगी।
इससे कोई
अहंकार, मान—मर्यादा
तो नहीं बढ़ती।
होगी भी तो
मिट्टी में मिल
जाएगी। मुझसे
दोस्ती बनानी
तो महूंगा
काम है। फिर
भी कोई खींच
लिए आती है।
सारी दुनिया
खिलाफ होगी, सारी दुनिया
विरोध करती
होगी, फिर
भी तुम चले आए
हो। शायद
तुम्हें भी
याद न हो, कहीं
कोई पुराना
गठबंधन होगा,
कोई पुरानी
भाँवर पड़ी
होगी। याद भूल
गयी है। तुम्हें
भूल गयी होगी,
मुझे नहीं
भूली है।
दादू
ने देखा होगा—कोई
पुराना साथी—संगी, कोई
पुराना
शिष्य। पहले
भी कभी बैठ
चुका होगा दादू
की संगत में।
फिर चला
उलझने। फिर
चला गङ्ढे
की ओर। पीछे
बहुत रोया होगा,
शायद किसी
और जन्म में
बहुत रोया
होगा कि अब क्या
करूँ, पत्नी
है, फिकर
करनी होगी, और बच्चे
हैं और इनका
विवाह तो करना
ही होगा और
इनको शिक्षा
तो देनी ही
होगी। अब आप
कहते हो कि जागो!
यह कोई वक्त
है जागने का? थोड़ी देर
रुको। अभी सब
अधूरा—अधूरा
है, सब जमा
देने दो। अभी
गृहस्थी
कच्ची है, थोड़ी
पक्की हो जाने
दो। आऊँगा, जरूर आऊँगा,
आना ही है, कब तक रुक
सकता हूं, लेकिन
अभी समय नहीं
आया। आने दो
मौसम , पकने
दो फल, जरूर
आऊँगा। ऐसा
कभी कहा होगा।
आज चूकने जैसा
समय नहीं था।
दादू ठीक समय
पर आ गए। वह जो आंख
में आंख डाली,
वह सिर्फ
अचेतन में दबी
हुई
स्मृतियों को
जगाने का उपाय
था।
जब
गुरु शिष्य की
आंख में आंख
डालकर देखता
है,
तो जिन
बातों का
शिष्य को भी
पता नहीं रह
गया है और जो
उसके अचेतन
गर्भ में पड़ी
हैं, उनको
सक्रिय कर
देता है।
याददाश्तें
भूली—बिसरी
पुनरुज्जीवित
हो उठती हैं।
बीज जो पड़े रह
गए हैं, अंकुरित
हो आते हैं। आकांक्षाएँ,
अभीप्साएँ जाग उठती
हैं, प्रबल
वेग से।
वो जो क्षणभर को
दादू का रज्जब
की आंखों में
देखना है, उसी
क्षण क्रांति
हो गयी। पहचान
गया होगा रज्जब
कि अब बचने का
कोई उपाय नहीं,
इस आदमी ने
अब ठीक समय
में पकड़ा। अब
मैं यह नहीं
कह सकता—पत्नी
है, बच्चे
हैं; घर—गृहस्थी
है, कच्ची
है; सब
व्यवस्थित कर
देने दो, जिम्मेवारी
ली है, उसे
पूरा कर लेने
दो, आऊँगा,
जरूर आऊँगा—अब
यह नहीं कह
सकता, अब
इस आदमी ने
ठीक समय पकड़ा
है। ठीक
ससुराल के द्वार
पर पकड़ा है। गङ्ढे के
किनारे ही था,
गिरने को ही
था और पकड़ा
है।
"रज्जब
तैं गज्जब
किया'। और
बात भी बड़ी
प्यारी कही कि
तुमने भी खूब
गजब किया!
पहले मुझे
धोखा देता रहा
कि अभी यह
उलझन, अभी यह
उलझन .....और अब यह
तू.....अब यह कर
रहा है, जब
कोई उलझन
नहीं! अभी
जबकि सब सुलझ
सकता है, अभी
जबकि मार्ग
साफ है, अभी
इधर मुड़ कि
उधर मुड़ अभी
चौराहे पर खड़ा
है, नरक की
तरफ जा कि
स्वर्ग की तरफ
जा, माया
में पड़ कि
प्रभु को खोज
ले.....अब तू यह
गजब कर रहा है!
अपने हाथ से
अपना आत्मघात
कर रहा है! आया
था हरिभजन कॅूं.....!
और मुझसे
वायदे किए थे
तूने कि अगली
बार आऊँगा तो
बस हरिभजन
करना है और
कुछ भी नहीं।
और मैं
तुमसे कहता हूं, तुमने
भी बहुत बार
इस तरह वायदे
किए हैं कि अगली
बार बस.....। यह
जीवन देख लिया
बहुत, भोग
लिया बहुत, बस हो गया
बहुत, इतना
काफी है, अगली
बार अगर मौका
मिल जाएगा तो
अब तो हरिभजन करना
है। अब तो उस प्राणप्यारे
को खोजना है।
मगर जैसे ही
मर जाते हो, स्मृति पर
पर्दा पड़ जाता
है। नया जन्म,
भूल गए
पुराना सब; फिर अ, ब, स; फिर
शुरूआत। फिर
वहीं भूलें, फिर वही पुनरुत्ति।हूं
नया
कुछ करने को
यहाँ है भी
नहीं। नया
करोगे क्या? वही
क्रोध है, वही
काम है, वही
लोभ है, वही
माया, वही
मोह—सब वही
है। वही
वर्तुल घूमता
है। वही चाक
है संसार का।
सद्गुरु
के
महत्त्वपूर्ण
कामों में एक
काम है कि वह
तुम्हें याद
दिला दे कि जो
तुम कर रहे हो, पहले
भी बहुत बार
कर चुके हो; नया कुछ भी
नहीं। इतने
उत्तेजित मत
हो उठो। इतने
दीवाने मत हो
जाओ। जरा याद
करो, स्मरण
करो, खोजो
अपने भीतर।
क्योंकि
तुम्हारी दबी
हुई स्मृतियों
में सब पड़ा है;
जो भी तुम
कभी रहे हो उस
सब की
याददाश्त
तुम्हारे
भीतर मौजूद
है। जरा वहाँ
अपनी चेतना के
प्रकाश को ले
जाओ। जरा
परतें उघाड़ो।
जरा पर्दे हटाओ।
और तुम भी
पाओगे कि बहुत
बार मरते वक्त
तुम भी यह
कहकर गए थे कि
अब की बार अगर
आना हो तो
हरिभजन करना
है। मगर वह
मरते हुए आदमी
की बात थी और
जिंदा आदमी भूल
जाता है। चलो
यह तो पुरानी
है, इसे
छोड़ दो।
जब तुम
दुःख में होते
हो,
तब
परमात्मा को
याद कर लेते
हो, जब सुख
आ जाता है, भूल
जाते हो। मौत
आती है, याद
कर लेते हो, जीवन मिल
गया, फिर
भूल जाते हो।
असफलता मिलती
है तो मन में संन्यास
का भाव उठने
लगता है।
सफलता मिलती
है, तुम
कहते हो—अभी
कोई वक्त है
यह? बूढ़े
होते तो सोचते
हो संन्यास ले
लें। जवान होते
हो, तो
सोचते हो अभी
तो मैं जवान हूं।
और मन के धोखे
ऐसे हैं कि
बूढ़े—से—बूढ़ा
आदमी, दूसरे
उसे बूढ़ा
मानते हैं, वह थोड़े ही
अपने को बूढ़ा
मानता है।
अमरीका
का एक करोड़पति
नब्बे वर्ष की
उम्र तक जिआ।
जब वह नब्बे
वर्ष का हो
गया,
उसके
मित्रों ने
पूछा कि आप अब
भी क्यों कमाए
चले जाते हैं?
इतना तो है,
बहुत है! और
अब जिंदगी
कितनी? अब
कमाने की फिकर,
अब झंझट? अब भी दफ्तर
जाने की जरूरत
है? पता है
नब्बे वर्ष के
बूढ़े आदमी ने
क्या कहा? बुढ़ापे
के लिए कुछ तो
इकट्ठा करूँ!
नब्बे
वर्ष का आदमी
भी बुढ़ापे के
लिए इकट्ठा कर
रहा है! कोई
मानता थोड़े ही
है कि मैं
बूढ़ा हूं। लोग
कहते हैं, हो
गया होगा शरीर
बूढ़ा, इससे
क्या फर्क
पड़ता है।
जवानी तो मन
की बात है! मन
तो जवान है! शरीर
से क्या फर्क
पड़ता है? लोग
इस—इस तरह की
बातें करके
अपने को समझा
लेते हैं। दुःख
होता है तो
सोचने लगते
हैं, दुःख
गया कि भूल
जाते हैं।
ऐसा
तुमने कितनी
बार किया है!
जब क्रोध में
होते हो तो
सोचा कि क्रोध
अब नहीं।
जलाता है, दग्ध
करता है, जहर
है; लेकिन
कितनी देर यह
याद टिकती है?
धुएँ की
लकीर की तरह
कब मिट जाती
है, पता
नहीं चलता।
फिर जरा—सी
बात और फिर
वही आग, फिर
वही क्रोध, फिर वही
जहर। कितनी
बार तुम काम
के अनुभव में गए
हो और कितनी
बार पछताए
हो! लेकिन फिर
कोई वासना मन
को पकड़ लेती
है और झकझोर
जाती है। और
हर बार तुम यह
कहते हो—बस एक
बार और! मगर वह
एक बार चुकता
नहीं।
गजब का
आदमी रहा होगा
रज्जब। गुरु
ने आंख डाली
और जैसे सारा
विस्फोट हो
गया! याद आ गयी उसे
कि क्या वचन
दिया था। फिर क्षणभर की
देर न की। क्षणभर
की देर अगर करता
तो चूकता। उसी
क्षण मौर उतारकर
फेंक दिया। बात
खत्म हो गयी।
मौर को उतारकर
फेंका यानी
संसार उतारकर
फेंक दिया।
गुरु के चरणों
में सिर रख
दिया। उस दिन
के बाद, लोग
चकित हुए, लोगों
को भरोसा नहीं
था कि इतनी
त्वरा में, इतनी
तीव्रता में
लिया गया
संन्यास गहरा
हो सकेगा। लोग
सोचते थे कि
दो—चार दिन
में अकल आ
जाएगी। और अभी
तो जवान था, और अभी कैसे
संन्यस्त हो
जाएगा! बड़े—बूढ़ों
ने सोचा होगा
कि घबड़ाओ
मत, दो—चार
दिन में
बुद्धि लौट
आएगी। मगर जो
हो गयी बात तो
हो गयी बात।
निर्णय
की बात है।
निर्णय
पर्याप्त है।
आचरण को साधना
नहीं होता—साधते
कमजोर हैं—जिनके
पास थोड़ी भी
जीवंतता है, उनका
निर्णय ही
उनका आचरण बन
जाता है। एक
निर्णय ले
लिया, बात
खत्म हो गयी।
फिर लौटकर
पीछे देखना कमजोरों
का काम है।
नहीं उसने
लौटकर पीछे
देखा। दादू तक
को, कहते
हैं, उस पर
दया आयी। दादू
भी सोचने लगे
होंगे कि अभी
जवान था
बेचारा! और
मैं बीच बारात
से लौटा लाया हूं।
थोड़ा सुख ले
लेने देता। यह
मैंने क्या
किया?
तो दो—चार—आठ
दिन के बाद
दादू ने खुद
रज्जब को कहा
कि देख, तू
अभी जवान है, तूने मेरी
बात मानी, सो
ठीक; अब
मुझे थोड़ा—थोड़ा
पछतावा होता
है। तूने मुझे
झंझट में डाला
है। तू मुझे
माफ कर। यह
मेरी भूल थी, जो मैंने
तुझे बीच
बारात में
रोका।
शायद
दादू दयाल ने
भी सोचा नहीं
था कि यह हो जाएगी
बात। लोग ऐसे
काहिल, ऐसे
सुस्त, ऐसे
कायर हैं कि
होती कहाँ है
ऐसी बात! दादू
दयाल ने सोचा
होगा डाल
आऊँगा बीज, होते—होते
होगी, वर्षों
लगेंगे, लेकिन
बीज तो डाल आऊँ।
यह नहीं सोचा
था कि बीज
डालते ही फल
लग जाएँगे।
इतना चमत्कार
नहीं सोचा
होगा। पछताने
लगे होंगे। मन
में लगने लगा
होगा कि यह
मैंने क्या
किया ? इस
भोले जवान को
देखते होंगे
रोज, हरिभजन
में बैठे, तो
खुद ही सोचते
होंगे कि यह
मैंने और एक
उपद्रव कर
दिया। अभी इसे
कुछ दिन भोग
ही लेने देना
था। फिर यह भी
मन में लगता
होगा—अभी जवान
है, कहीं
डाँवाँडोल हो
जाए, भूल—चूक
हो जाए, गिर
जाए.....! इतनी
तेजी से छलाँग
ले ली है, इतनी
ही तेजी से
गिर भी सकता
है।
तो
कहते हैं, दादू
ने कुछ महीनों
के बाद उसे
कहा कि रज्जब,
तूने ठीक
किया कि मेरी
बात मान ली, अब मेरी एक
बात और मान—तू
संसार में अभी
उतर ही जा।
रज्जब
ने जिस आंख से
दादू की आंख
में देखा, तो
दादू भी तिलमिला
गए होंगे। फिर
दुबारा वह बात
नहीं उठायी।
वह चमक, वह
लपट, वे
जलती हुई दो आंखें।
कहते हैं, रज्जब
ने एक शब्द
नहीं कहा, सिर्फ
गुरु की आंख
में देखा। और
सब कह दिया कि
यह भी कोई बात
है! और आप से सुनँ यह
बात! सारे लोग
समझा रहे हैं,
वह ठीक है; वे नासमझ
हैं, उनको
समझाने दो; मगर आप से सुनँ
यह बात! यह बात
दुबारा उठाना
भी मत! लेकिन
यह कहा भी
नहीं, बस
उन आंखों की
चमक ने कह दिया।
छाया
की तरह दादू
दयाल के साथ
रज्जब रहा।
उनकी सेवा में
लग गया। वे
चरण उसके लिए
सब—कुछ हो गए।
उन चरणों में
उसने सब पा
लिया। अद्भुत
प्रेमी था
रज्जब। जब
दादू दयाल
अंतर्धान हो
गए,
जब
उन्होंने
शरीर छोड़ा, तो तुम चकित
होओगे.....शिष्य
हो तो ऐसा हो!.....उसने
आंख बंद कर ली,
तो फिर कभी आंख
नहीं खोली।
लोग कहते कि आंख
क्यों नहीं
खोलते, तो
वह कहता, देखने—योग्य
जो था उसे देख
लिया, अब
देखने को क्या
है?
कई
वर्षों तक
रज्जब जिंदा
रहा दादू के
मरने के बाद, लेकिन
आंख नहीं
खोली। देखने—योग्य
देख लिया। जो
दर्शनीय था, उसका दर्शन
हो गया। अब
देखने—योग्य
क्या है? आंख
किसलिए
खोलनी है?
ऐसा यह
अद्भुत व्यक्ति!
इसके वचनों को
बहुत प्रेम और
सहानुभूति से
समझना। ये वचन
किसी
सिद्धांतवादी
के वचन नहीं हैं—क्रांति
से गुजरी हुई
एक चेतना से
बही अमृत की
धार हैं। ये
वचन वचन
ही नहीं हैं, ये
तीर हैं। और
अगर तुम राजी
होओ तो ये
तुम्हें छेदेंगे।
ये तुम्हें भी
रूपांतरित कर
सकते हैं।
रज्जब जैसे
लोगों के
वचनों की छाया
में बैठना
क्रांति से
दोस्ती बनानी
है।
इसके
पहले कि
सूत्रों में
हम उतरें, कुछ
और बातें इस
अपूर्व घटना
के संबंध में
समझ लेना
चाहिए।
क्योंकि यह
घटना सिर्फ
रज्जब और दादू
के बीच घटी, ऐसा नहीं है;
यह शिष्य और
गुरु के बीच
घटने वाली
अनिवार्य घटना
है। ढंग अलग—अलग
होते होंगे, रूप—रंग अलग
होते होंगे, तर्जत्तरन्नुम अलग होता
होगा, लेकिन
यह घटना
अनिवार्य
घटना है। इसके
बिना गुरु और
शिष्य का
संबंध
निर्मित नहीं
होता।
एक तरह
से देखो, तो
लगता है दादू
ने भी बड़ा
बेमौका चुना।
दूसरी तरफ से
देखो, तो
लगता है इससे
सुंदर मौका
कोई और हो
नहीं सकता था।
क्यों? क्योंकि
प्रेम से भरा
हुआ यह ह्रदय,
प्रेम से
भरी हुई यह
धारा.....रज्जब
के प्राण
प्रेम से
आंदोलित थे।
प्रेयसी से
मिलने जा रहा
था! प्रेम तो
तैयार था, जरा—सा
रुख बदलने की
बात थी। यह
मौका ठीक मौका
था। लोहा जब
गर्म हो तब
चोट करनी
चाहिए। एक तरह
से देखो तो
लगता है कि यह
ठीक नहीं था, मौजँ नहीं थी यह
बात, यह
जरा फक्कड़पन
की बात मालूम
पड़ती है, दादू
ने कुछ संगत
बात नहीं की।
लेकिन और गहरे
झाँककर
देखो तो लगेगा,
इसके पीछे
एक पूरा
मनोविज्ञान
है।
यह
जानकर तुम
हैरान होओगे
कि दुनिया में
जब भी कोई
धर्म जिंदा
होता है, नया—नया
पैदा होता है,
तो उसके
प्रति जो लोग
आकर्षित होते
हैं वे जवान
होते हैं। और
जब कोई धर्म
बूढ़ा हो जाता
है और मर जाता
है, मुर्दा
हो जाता है, तो फिर
मंदिर—मस्जिदों
में सिर्फ
बूढ़े और बुढ़ियाएँ
दिखायी पड़ते
हैं। क्या
कारण होगा? कारण है।
जीवन—ऊर्जा!
जिनका प्रेम
ही सूख गया हो
उनको परमात्मा
की तरफ भी
कैसे मोड़ोगे?
प्रेम तो
प्रेम है—चाहे
किसी स्त्री
की तरफ बहता
हो और चाहे
किसी पुरुष की
तरफ बहता हो, यही मुड़ जाए
तो उस परम
प्यारे की तरफ
बहने लगता है।
रज्जब
बड़े भाव से
भरा होगा। उस
घड़ी की जरा
कल्पना करो।
रज्जब के ह्रदय
का थोड़ा चित्र
उभारो!
आ कि
वाबस्ता हैं, उस
हुस्न की
यादें मुझसे
जिसने
इस दिल को परीखाना
बना रक्खा है
जिसकी उल्फत में
भुला रक्खी
थी दुनिया
हमने
दहर को
दहर का अफसाना
बना रक्खा है
आश्ना
हैं तेरे
कदमों से वे
राहें जिन पर
उसकी
मदहोश जवानी
ने इनायत की
है
कारवाँ
गुजरे हैं
जिनसे उसी
रानाई के
जिसकी
इन आंखों ने
बेसूद इबादत
की है
तुझसे
खेली हैं वो
महबूब हवाएँ
जिनमें
उसके मलबूस की अफसुर्दा
महक बाकी है
तुझ पे
भी बरसा है उस
बाम से महताब
का नूर
जिसमें
बीती हुई
रातों की कसक
बाकी है
तूने
देखी है वह
पेशानी, वो
रुखसार, वो
होंठ
जिंदगी
जिनके
तसव्वुर में
लुटा दी हमने
तुझ पै उट्ठी हैं
वो खोयी
हुई साहिर आंखें
तुझको
मालूम है
क्यों उम्र
गँवा दी हमने?
हम पै
मुश्तरका हैं
एहसान गमे—उल्फत के
इतने
एहसान कि गिनवाऊँ
तो गिनवा
न सकॅूं
हमने
इस इश्क में
क्या खोया है, क्या
सीखा है?
जुज
तेरे और को समझाऊँ
तो समझा न सकॅूं
एक फूल
खिल रहा होगा
अभी! न—मालूम
कितनी अभीप्साओं
से भरा! प्रेयसी
की आंखें, उसका
सौंदर्य, उसकी
देह की गंध, उसकी देह की
उष्णता!
तूने
देखी है वह
पेशानी, वो
रुखसार, वो
होंठ
जिंदगी
जिनके
तसव्वुर में
लुटा दी हमने
तुझ पै उट्ठी हैं
वो खोयी
हुई साहिर आंखें
तुझको
मालूम है
क्यों उम्र
गँवा दी हमने?
हम पै
मुश्तरका हैं
एहसान गमे—उल्फत के
इतने
एहसान कि गिनवाऊँ
तो गिनवा
न सकॅूं
हमने
इस इश्क में
क्या खोया है
क्या सीखा है
जुज
तेरे और को समझाऊँ
तो समझा न सकॅूं
दीवाना
था रज्जब।
पागल था
रज्जब। उस एक
स्त्री के लिए
सब कुछ दाँव
पर लगाया था
उसने। यह घड़ी थी—लोहा
आग था, सुर्ख
अंगार था!
दादू ने ठीक
समय चोट की।
वही प्रेम जो
संसार की तरफ
बहा जाता था, वही प्रेम
जो देह की तरफ
बहा जाता था, वही प्रेम
जो आज नहीं कल
नरक बन जाता, उसी प्रेम
को मोड़ लिया।
उसी प्रेम को
अपनी आंखों की
तरफ मोड़ लिया।
उसी प्रेम को
अपनी आंखों के
पीछे छिपे
परमात्मा की
तरफ मोड़ लिया।
प्रेम
ही है, चाहे
संसार से करो
और चाहे
परमात्मा से
करो। धन्यभागी
हैं वे, जिनके
ह्रदय में
प्रेम है। एक
ही ऊर्जा है
तुम्हारे
पास। वही
प्रेम जो
प्रेयसी से था,
वही लगाव, वही रस गुरु
से हो गया। उस
प्रेयसी के
बिना रज्जब
जीना नहीं
चाहता था। न
मिलती
प्रेयसी तो मर
गया होता। वही
प्रेम एक दिन
जब गुरु ने
देह छोड़ी
तो उसी प्रेम
में फिर आंखें
नहीं खोलीं।
देखने—योग्य
कुछ न रहा।
परमात्मा
जैसा आदमी देख
लिया था, अब
और देखने—योग्य
क्या हो सकता
था! आखिरी कमल
देख लिया था, अब घास—पात
को क्या देखना
था!
यह प्रेमी
की ही क्रांति
है। इसलिए मैं
तुम्हें याद दिलाऊँ—प्रेम
को मार मत
डालना, और
तुमसे जिन
लोगों ने कहा
है, प्रेम
को नष्ट कर दो,
वे
तुम्हारे
दुश्मन हैं।
उन्होंने
तुम्हारे
जीवन को
मरुस्थल कर
दिया है।
प्रेम को
मारना नहीं
हैं, प्रेम
का दिशा—रूपांतरण
करना है। प्रेम
की यात्रा
बदलनी है।
प्रेम एक तरफ
जा रहा है, उसे
तीर्थ की तरफ
ले जाना है।
प्रेम को
तीर्थयात्रा
बनाना है। भत्ति
के मार्ग का
इतना ही अर्थ
है। और ये
सारे वचन भत्ति
के वचन हैं।
रज्जब
अद्भुत
प्रेमी है! एक
लपट में
यात्रा बदल
गयी प्रेम की।
तूफान रहा
होगा प्रेम का, बड़ी
भयंकर ऊर्जा
रही होगी
प्रेम की। गया
होता तो बड़ा
नरक निर्मित
किया होता।
निश्चित है। संसार
में उतरा होता
तो बड़ा फैलाव
किया होता, बड़ा पसार
किया होता, बड़ा पसारी
बना होता। नहीं
गया संसार में
तो परमात्मा
में उतरा और
खूब गहरा
उतरा।
रज्जब
के गीतों में
उसी प्रेम की
गंध बार—बार
तुम्हें
मिलेगी।
सूत्र—
रामराय, महा
कठिन यहु
माया।
जिन
मोहि सकल जग
खाया।।
राम से
बात कर रहे
हैं—रामराय, महा
कठिन यहु
माया।
भत्त की
बात तो भगवान
से है। उसकी
गुफ्तगू
भगवान से है।
आदमी से भी
बोलता है तो
भी बस निमित्त, बोलता
भगवान से ही
है। क्योंकि भत्त को
भगवान के अतिरित्त
और कोई दिखायी
ही नहीं पड़ता।
अब यह हो सकता
है कि रज्जब
ने यह गीत
अपने शिष्यों,
अपने सत्संगियों
के सामने कहा
हो—रामराय,
महा कठिन
यहु माया!
लेकिन कहा राम
को ही है। कहा
है तुम्हारे
भीतर छिपे राम
को, कि हे
राजाराम, यह
माया बड़ी कठिन
है!
माया
का क्या अर्थ
होता है : माया
का अर्थ होता
हैः जो नहीं
है,
जो वस्तुतः
नहीं है, पर
ऐसी प्रतीति
होती है कि
है। सपना। रात
तुम देखते हो,
सुबह जागकर
पाते हो नहीं
है। मगर जब
देखा था तब था
और ऐसा लगता
था खूब है। डर
भी गए थे सपने
में।
आह्लादित भी
हो गए थे सपने
में। धन पा
लिया था तो
छाती से लगा
लिया था। डाकुओं
ने हमला कर
दिया था तो रो
लिए थे, तड़प लिए थे, सब
हो गया था।
तुम्हारे
सपने में सारा
संसार तो हो
जाता है। फिर
भी तुम्हें एक
बात खयाल नहीं
आती कि जब
संसार सारा—का—सारा
सपने में हो
जाता है, तो
कहीं ऐसा न हो
कि सारा—का—सारा
संसार सपना ही
हो!
ऐसा
क्या है संसार
में जो
तुम्हारे
सपने में नहीं
होता? तुमने
ऐसी कोई चीज
देखी है संसार
में जो सपने में
नहीं होती या
नहीं हो सकती?
या ऐसी कोई
अनिवार्यता
है कि सपने
में न हो सके? जब सबकुछ
सपने में हो
सकता है, जो
बाहर हो रहा
है, तो कभी
तो जागकर
सोचो, कभी
तो इस पर
विचार करो—कहीं
यह भी खुली आंख
का सपना न हो!
फिर
रात तुम इस
सपने को भूल
जाते हो। तुम
भिखारी हो; रात
तुम भूल जाते
हो कि तुम
भिखारी हो और
वृक्ष के नीचे
सोये हो। रात
तुम सपना देखते
हो कि सम्राट
हो, सोने
के महल हैं
तुम्हारे। और
दिन—भर वर्षों—वर्षों
की याददाश्त
कि मैं भिखारी
हूं, ऐसे
बह गयी जैसे
पानी पर लिखी
लकीर! जरा भी
याद नहीं आती।
जरा भी खयाल
नहीं आता कि
पागल, तू
यह क्या सोच
रहा है, कहाँ
के सोने के
महल! सड़क के
किनारे सोया
है और वह आ रहा
है सिपाही, अभी उठाएगा
बीच रात में
और भगाएगा
यहाँ से। तू
कहाँ के सपने
देख रहा है? और कितने
दिन से तुम भिखमंगे
हो, हो
सकता है पचास
साल से तुम भिखमंगे
हो! लेकिन
पचास साल का
निरंतर का
अनुभव इतना काफी
नहीं है कि एक
सपने को तोड़
दे?
नहीं, नहीं
काफी है। क्या
मूल्य होगा इस
सचाई का, जो
पचास साल की
सचाई और एक
क्षण भर में
उठे हुए सपने
की तरंग को भी
नहीं तोड़ पाती?
सपने से
ज्यादा नहीं
हो सकती। इस
सचाई का कोई मूल्य
नहीं है। यह
भी एक और तरह
का सपना है, बस।
और भी
तुमने एक बात
खयाल की कि जब
तुम सुबह
जागते हो तो
रात का सपना
तो थोड़ा—थोड़ा
याद भी रह
जाता है कभी—कभी, लेकिन
दिन का सपना
जब तुम रात
सोते हो तो
बिल्कुल याद
नहीं रहता।
इसका क्या
अर्थ होगा? इसका अर्थ
होगा कि दिन
का सपना रात
के सपने से भी
कमजोर सपना
है। यह तो
सीधे गणित की
बात है। रात
का सपना याद
रह जाता है
कभी—कभी। थोड़ा—बहुत
सरकता याद रह
जाता है।
धँधला—धँधला—सा।
लेकिन दिन के
सपने तो रात
में धँधले
भी याद नहीं
रहते। जरूर
रात के सपने
की लकीर ज्यादा
गहरी है, थोड़े
दिन में भी
प्रवेश करती
है। मगर दिन
का सपना
बिल्कुल झूठा
मालूम पड़ता है,
रात में जरा
भी प्रवेश
नहीं करता।
माया
का अर्थ है—स्वप्न।
जो है नहीं, पर
प्रतीत होता
है कि है। और चँकि
प्रतीत होता
है, तुम सब—कुछ
उस पर दाँव
लगा देते हो।
और सब—कुछ
दाँव पर लगाकर
गँवा देते हो,
क्योंकि
वहाँ कुछ है
नहीं; मिलने
को कुछ भी
नहीं है, दावँ
कितना ही
लगाओ।
जिंदगी
में पाओगे
क्या? एक दिन
जब मरोगे तो
तुम्हारे हाथ
खाली होंगे। पछतावे
के सिवाय
तुम्हारी
आत्मा में और
कुछ भी न
होगा।
जरा
सोचो! और ऐसा
नहीं कि
जिंदगी तुमने
ऐसे ही गँवायी
थी। तुमने बड़ी
कमाई की थी।
तुमने पद पाया, प्रतिष्ठा
पायी, यश
पाया, नाम
कमाया, धन
कमाया, यह,
वह, बड़े
मकान बनाए, महल बनाए—और
मरते वत्त.....जरा
सोचो, कल्पना
करो कि मौत आ
गयी। अब
तुम्हारे हाथ
में क्या है? सब कमाई
गँवाई हो गयी।
सब महल सपने—जैसे
खो गए।
रात सो
जाते हो, तभी
तुम्हें दिन
के महलों की
याद नहीं रह
जाती, जरा
मौत की नींद का
तो कुछ खयाल
करो। जब मौत
की गहरी नींद
आएगी, सब
सपाट हो
जाएगा। फिर न
तो पत्नी की
है याद, न
पति की, न
बेटे की, न
यश, न
अपयश। सब पड़ा—धरा
रह गया। इस
स्थिति का नाम
माया है।
रज्जब
कहते हैं—"रामराय'.....हे
राजाराम....."महा
कठिन यहु माया'। है तो झूठी,
पर बड़ी जटिल!
बड़ी लुभावनी!
बड़ी मनभावनी!
खींच—खींच
लेती है। भूल—भूल
जाते हैं।
तुमने
कभी देखा, फिल्म
देखने गए हो, जानते हो
अच्छी तरह, भलीभाँति कि
पर्दे पर कुछ
भी नहीं है, फिर भी भूल—भूल
जाते हो।
लोगों की आंखें
गीली हो आती
हैं, आंसू
गिरने लगते
हैं; संकोच
आता है, जल्दी
से ऍ?धेरे
में आंसू पोंछ
लेते हैं अपने
रूमाल से।
खयाल भी आ जाता
है कि मैं यह
क्या कर रहा हूं,
किस बात के
लिए रो रहा हूं?
वहाँ कुछ भी
नहीं है पर्दे
पर, सिर्फ
धूप—छाँव का
खेल है। मगर
इससे कुछ फर्क
नहीं पड़ता, थोड़ी देर
में फिर तुम
भूल गए। फिर
लीन हो गए। फिर
मानने लगे वह
जो पर्दे पर
है उसको सच।
एक
देहात में
फिल्म आयी।
पहली ही फिल्म
थी। जो लोग
गाँव के देखने
आए थे, उन्होंने
पहला "शो' भी
देखा और दूसरे
"शो' में भी
वे टिकट लिए
बैठे रहे, वे
जाएँ ही न।
फिल्म वही, तीसरे "शो' में भी।
मैनेजर ने कहा
कि भई तुम जाओ,
दूसरे लोग.....।
उन्होंने कहा—हम
जाएँगे ही
नहीं। पूछताछ
की तो वे एक—दूसरे
की तरफ देखकर हूंसे। तो
उन्होंने कहा,
कुछ बताओ भी,
तुम जाते
क्यों नहीं? फिल्म तुम
देख चुके दो
बार, फिर
दूसरे लोगों
को भी देखना
है, पूरा
गाँव देखने को
उत्सुक है, तुम हटते ही
नहीं! वे कहते
हैं—आप पैसा
ले लो, हम
जाते नहीं
यहाँ से। तब
एक आदमी ने
बताया कि अब
आप नहीं मानते
हैं तो हम
बताये देते
हैं। फिल्म
में एक दृश्य
आता है। एक
तालाब है और
उस पर एक
सुंदर स्त्री
अपने कपड़े उतारकर
स्नान करने
उतर रही है।
उसने करीब—करीब
सारे कपड़े
उतार दिए हैं,
बस आखिरी कपड़ा उतारने
को है, तभी
एक रेलगाड़ी
गुजर जाती है
और उसकी आड़
में वह सब
मामला खराब हो
जाता है—तब तक
वह स्त्री
तालाब में उतर
कर तैरने लगी।
तो उसने कहा, हम बैठे हैं
कि कभी तो
रेलगाड़ी लेट
होगी। आज नहीं
कल, कल
नहीं परसों, कोई रोज ही
टाइम पर तो
आनेवाली नहीं
है! कभी—न—कभी तो.....।
इसलिए गाँव का
कोई आदमी
जानेवाला
नहीं है। जो
यहाँ अंदर
बैठे हैं, वे
दृश्य को पूरा
ही देखकर
जाएँगे।
तुम हूस
सकते हो, लेकिन
तुमने भी वही मूढ़ता
बहुत बार की
है। किताब
पढ़ते वक्त, उपन्यास
पढ़ते वक्त भी
तुम ऐसे रसलीन
हो गए हो कि
कहानी को सच
मान लिया है।
और जब तुम सच
मान लेते हो, तो बात सच हो
जाती है।
भूतप्रेत की
कोई कहानी पढ़ी
रात में, ऍ?धेरे में, एकांत में, फिर घबड़ाहट
लगने लगती है।
फिर अपना ही
लंगोट टँगा है,
वह दिखता है
कि कोई आदमी
हाथ फैलाए खड़ा
है। एक चूहा
गुजर जाता है
और छाती धक्.....!
माया
का अर्थ होता
है—कल्पना को
सच मान लेने
की वृत्ति। और
मनुष्य में
बड़ी गहनता में
है कल्पना को
सच मान लेने
की वृत्ति। और
अगर तुम
कल्पना को सच
मान लो, तो सच
तुम्हारे लिए
तो हो गयी। उस
झूठे सच के पीछे
तुम अपना जीवन
गँवा दोगे। और
जो आदमी कल्पना
को सच मानने
में पड़ जाता
है, वह सच
को जानने से
वंचित रह जाता
है, क्योंकि
ये दोनों
बातें साथ—साथ
नहीं हो
सकतीं। जो
आदमी कल्पना
को सच मान लेता
है, वह सच
को कैसे देख
पाएगा? उसकी
आंखों में
कल्पना का जाल
होता है।
कल्पना के जाल
को हटाना
इसीलिए
आवश्यक समझा
जाता है, ताकि
जो है, हम
उसे जान सकें।
जो है, उसे
जानने में
मुत्ति है। जो
है, उसे
जानने में
आनंद है। जो
है, उसे
जानने में
कमाई है, संपदा
है। जो नहीं
है उसके पीछे
दौड़ने में मृग—मरीचिका
है।
रामराय, महा
कठिन यहु
माया।
जिन
मोहि सकल जग
खाया।।
जिसको
भी मोह लेती
है,
उसको खा
जाती है। और
सारे जग को मोहा
है।
यहु
माया ब्रह्मा
सा मोह्या, संकर
सा अटकाया।
हिंदुओं
की कथाएँ
अद्भुत हैं, महत्त्वपूर्ण
हैं। कहते हैं,
ब्रह्मा ने
संसार बनाया,
फिर अपने
बनाए संसार पर
ही मोहित हो
गए। स्त्री
बनायी और इतना
मोहित हो गए
कि उस स्त्री
का पीछा करने
लगे। बड़ी
अनैतिक बात हो
गयी; क्योंकि
बनाने वाले का
तो अर्थ होता
है, वह
पिता था। पिता
बेटी पर मोहित
हो गया!
मगर
हिंदुओं की
कहानियों में
सचाई है। सचाई
यही है। इसकी
फिक्र नहीं की
है हिंदुओं ने
कि किसी की
नैतिक
मान्यता को
धक्का लगेगा
या किसी की
नैतिक
मान्यता को
बड़ी पीड़ा हो
जाएगी। सचाई
यही है कि
ब्रह्मा भी.....खुद
ही बनाया था
जाल को और
उसमें मोहित
हो गया।
एक
पश्चिम का
बहुत बड़ा
चित्रकार
नग्न स्त्री का
चित्र बना रहा
था। अब नग्न
स्त्री का
चित्र बनाओ तो
एक कठिनाई
होती है। उसका
एक शिष्य देख
रहा था यह सब।
उसे यह कठिनाई
खयाल में आ
रही थी। उसने
पूछा अपने
गुरु को कि आप
यह चित्र
बनाते हैं नग्न
स्त्री का, समझेंगे
कैसे कि कब
पूरा हो गया? कपड़े पहने
हों तो समझो
कि कपड़े पहना
दिए, पूरा
हो गया; गहने
सब लटका दिए, पूरा हो गया—मगर
अब यह नंगी
स्त्री है, इसको
समझेंगे कैसे
कि चित्र पूरा
हो गया? कब
समझेंगे पूरा
हो गया? उसने
कहा, उसकी
एक तरकीब है।
जब मुझे ऐसा
मन होने लगता
है कि च्यँटी
ले लँ, तब
समझता हूं कि
पूरा हो गया।
अपना
ही बनाया
चित्र, कैनवास
पर कुछ है
नहीं, लेकिन
गुरु कह रहा
है कि जब मुझे
ऐसा मन होने लगता
है कि च्यँटी
ले लँ, तब
मैं समझता हूं
कि बस अब काफी
है, चित्र
पूरा हो गया।
जब मैं खुद भी
धोखा खाने लगता
हूं, तब
चित्र पूरा हो
गया।
ब्रह्मा
का अपने ही
द्वारा
निर्मित
स्त्री पर
मोहित हो जाना, चित्र
के पूरे होने
की कहानी है।
ब्रह्मा ने तो
स्वयं बनाया
था, उसे तो
याद रहनी
चाहिए थी! वह
भी भूल गया।
अगर तुम ठीक
से समझो तो
तुम भी
ब्रह्मा हो और
तुम जो बना
रहे हो अपनी
दुनिया आसपास,
वह भी
तुम्हारी
बनायी हुई है
और तुम भी भूल
गए हो। यह उस
कहानी का राज़
है।
तुम
कहते हो—मैं
स्त्री पर
मोहित हो गया हूं, इस
स्त्री पर, क्योंकि यह
सुंदर है। तुम
गलत कहते हो।
तुम मोहित हो
गए हो, इसलिए
वह सुंदर
मालूम होती
है। क्योंकि
वह और किसी को
सुंदर नहीं
मालूम हो रही,
वह तुम्हीं
को सुंदर
मालूम हो रही
है। अगर सुंदर
होती तो सभी
उस पर मोहित
हो जाते।
और
तुमने कभी
देखा है या
नहीं, अक्सर
लोग हंसते हैं
तुम पर कि अरे,
तुम इस
स्त्री के
पीछे क्यों
पड़े हो? या
इस पुरुष के
पीछे यह
स्त्री क्यों
पड़ी है? इस
पुरुष में इसे
क्या दिखायी
पड़ता है? तुम
भी हंसे हो
बहुत बार कि
यह आदमी पागल
है। मगर उस
पागल से पूछो।
वह कहता है—ऐसा
अनूठा
सौंदर्य कहीं
है ही नहीं।
और उससे पूछो
कि तुम इसके
मोह में क्यों
पड़े हो, तो
वह तर्क देता
है—क्योंकि यह
सुंदर है। बात
बिल्कुल उलटी
है। मोह में
पड़ गया है, इसलिए
"सुंदर' का
जन्म हुआ है।
मोह का परिणाम
है सौंदर्य, मोह का कारण
नहीं है। मोह
की उत्पत्ति
है सौंदर्य।
तुम जिस चीज
के मोह में पड़
जाते हो, वही
सुंदर मालूम
होने लगती है।
इसलिए तो अपनी
माँ किसी को भी
असुंदर नहीं
मालूम होती।
कैसे मालूम
होगी? पहले
दिन से ही मोह
शुरू हो गया।
जिसको तुम अपना
मान लेते हो
वह असुंदर
नहीं मालूम
होता। किस माँ
को अपना बेटा
असुंदर मालूम
होता है! और तुमने
देखा नहीं, हर माँ अपने
बेटे की ऐसी
तारीफ करती है,
जैसे ऐसा
बेटा दुनिया
में कभी हुआ
ही नहीं। लोग
ऊब जाते हैं
माताओं से, उनकी बेटों
की बकवास सुन—सुन
कर। कोई सुनना
नहीं चाहता।
लेकिन हर माँ
अपने बेटे की
इस तरह तारीफ
करती है.....।
मेरे पास भी आ
जाती हैं माताएँ
अपने बेटों को
लेकर। ये सब
मेधावी पुत्र
कहाँ खो जाते
हैं, पता
नहीं चलता!
मगर हर माँ
यही सोचती है
कि यह मेधावी
बेटा, यह
कुछ खास बेटा
पैदा हुआ है!
यह तुम्हारा
मोह है।
तुम्हारे मोह
के कारण यह
खास दिखायी पड़
रहा है। खास
के कारण मोह
नहीं है।
तुम
जिस चीज के
प्रति लगाव
बना लोगे.....लगावों
की भी फैशन
बदलती है।
जैसे पुराने
जमाने में गुलाब
के फूल की
फैशन थी। अब
गुलाब के फूल
की फैशन नहीं
है,
कैक्टस फैशन में
है। तो घर में
अगर तुम गुलाब
का पौधा लगाओ
तो लोग समझते
हैं कि अरे, पुराण—पंथी,
दकियानूसी;
कहाँ गुलाब
लगाये बैठे
हो! कुछ होश है?
बीसवीं सदी
में रह रहे हो?
कैक्टस लगाओ।
कैक्टस
पहले भी लोग
लगाते थे, खेत
इत्यादि पर बागुड़
लगाने के लिए
कि कोई जंगली
जानवर न घुस
जाए। घर में
कौन लाता था कैक्टस को!
और किसने कब
देखा था कि कैक्टस
में सौंदर्य
है! मगर अब है।
अब कैक्टस
को लोग लगाते
हैं और बड़े
प्रेम से, बड़े
भाव—विभोर
होकर देखते
हैं। एक—एक
काँटे में
अपूर्व सौंदर्य
का अनुभव करते
हैं। कैक्टस
पर कविताएँ
लिखी जाती
हैं। कैक्टस
के चित्र बनाए
जाते हैं। कैक्टस
शब्द सुनते ही
अनेक लोगों के
हृदय में
मिश्री घुलने
लगती है।
गुलाब, लगता
है कोई पुराण—पंथी,
कोई
रूढ़िवादी आ
गया। गुलाब, कहाँ की बात
कर रहे हो? किस
जमाने से आ
रहे हो? बाबा
आदम के जमाने
के कोई सज्जन
आ गए! अभी इनको पता
ही नहीं है कि
गुलाब का
जमाना जा चुका,
लद चुका। अब
कैक्टस
का जमाना है।
यह गुलाब
पँजीवाद का
प्रतीक है। कैक्टस—सर्वहारा,
गरीब, मजदूर
का प्रतीक है।
यह गुलाब—मुफ्तखोरों
का, शोषकों
का! कैक्टस—शोषितों
का! तब सारी
कहानी बदल
जाती है।
फैशनें
बदलती हैं। जो
कपड़े पिछले
वर्ष फैशन में
थे,
अब फैशन के
बाहर हैं। जो
अभी कपड़े फैशन
में हैं, अगले
वर्ष फैशन के
बाहर हो
जाएँगे।
एक
चित्रकार
पत्नी की तलाश
में था। एक
दलाल से मिला।
दलाल ने कहा
कि ठीक
तुम्हारे
योग्य एक स्त्री
मैंने चुनकर
रखी है। मैं
राह ही देखता
था कि तुम कभी
कहो।
तुम्हारे लिए
ही सुरक्षित
है। और तो कोई
उसके सौंदर्य
को समझ भी
नहीं सकता।
चित्रकार
बड़ा प्रसन्न
हुआ। दलाल ले
गया दिखाने।
देखा लड़की को
तो चित्रकार
ने अपना सिर
पीट लिया। एक आंख
नीचे की तरफ
जा रही है, दूसरी
आंख ऊपर की
तरफ जा रही
है। एक कान
बड़ा, एक
कान बिल्कुल
छोटा। नाक ऐसी
बेहूदी कि
उसने कभी देखी
नहीं। उसने
सोचा भी नहीं
था कल्पना में
भी कि ऐसी नाक
भी हो सकती है,
कि आदमी को
देखकर एकदम घबड़ाहट
पैदा हो। उसने
दलाल को पास
ले जाकर उसके
कान में कहा
कि तू पागल है
या होश में है?
इस स्त्री
से मेरा विवाह
करवाना चाहता
है! उसने कहा, भई, मैं
तो समझा कि
तुम चित्रकार
हो। पिकासो
की पेंटिंग
देखी! यह पिकासो
की पेंटिंग का
जीता—जागता
अवतार है।
आधुनिक
चित्रकला!
फैशन
बदलते हैं।
समय बदलता है।
लोग नयी—नयी
चीजों में रस
लेने लगते
हैं। रस लेने
लगते हैं तो
चीजें सुंदर
मालूम होने
लगती हैं। तुम
अपने आसपास एक
जगत का
निर्माण करते
हो—ब्रह्मा ने
ही किया था, ऐसा
मत सोचना—तुम
भी ब्रह्मा हो,
और तुम भी
अपने आसपास एक
माया का, मोह
का, सौंदर्य
का, लगाव
का, आसतित्व का, एक
जगत निर्मित
करते हो। तुम
उसी जगत में रहते
हो। इसीलिए तो
दो व्यक्ति
जब आसपास आते
हैं तो टकराहट
होती है, क्योंकि
दो अलग जगत एक—दूसरे
से टकराहट
लेने लगते
हैं। दो व्यक्तियों
में तालमेल
नहीं होता।
तुम्हारी
पसंद अलग, तुम्हारी
पत्नी की पसंद
अलग, तुम्हारे
बेटे की पसंद
अलग। पसंद
निजी होती है,
काल्पनिक होती
है।
माया
का अर्थ है, तुम
निर्मित कर
लेते हो एक
कल्पना का जाल
और फिर तुम उस
कल्पना के जाल
में ग्रसित हो
जाते हो।
जिन
मोहि सकल जग
खाया।।
यहु
माया ब्रह्मा—सा
मोह्या, संकर—सा
अटकाया।
महाबली
सिध, साधक
मारे, छिन
में मान
गिराया।।
यह
माया षट दरसन
खाये, बातनि जगु
बौराया।
और यह
कल्पना का जाल
इतना
महत्त्वपूर्ण
हो गया है कि
लोग शास्त्र
रचते हैं, लेकिन
सब कल्पना का
जाल। "षट दरसन
खाये!' दर्शनशास्त्र
निर्मित हो
जाते हैं
कल्पना के जाल
पर। लोग
परमात्मा की
प्रतिमा बना
लेते हैं
कल्पना के जाल
पर। लोग
स्वर्ग—नरक के
नक्शे बनाते
हैं कल्पना के
जाल पर। लोग
बड़े सिद्धांतों
में पड़ जाते
हैं कि हमारा
यह सिद्धांत,
तुम्हारा
वह सिद्धांत!
मैं हिंदू, तुम
मुसलमान।
क्या
है तुम्हारा
हिंदू होना? क्या
है तुम्हारा
मुसलमान होना?
सब
तुम्हारे
कल्पना के
सिद्धांत
हैं। सुनो रज्जब
की बात—यह
माया षट दरसन
खाये.....यह माया
बड़े—बड़े
दार्शनिकों
को खा गयी, छहों
दर्शन खा गयी.....बातनि जगु
बौराया। और इस
माया के कारण
बात—ही—बात
में सारे लोग
पागल हुए जा
रहे हैं। बेबात
की बात।
शब्दों में ही
माया छुपी है।
इसलिए जब तक
कोई शून्य
होने की कला
नहीं सीखता, तब तक माया
के बाहर नहीं
जा पाता। जब
तक कोई इतना
शांत होना
नहीं जान लेता,
जहाँ सारे
शब्द और विचार
समाप्त हो
जाएँ, जब
तक ध्यान का
दीया नहीं
जलता, तब
तक कोई माया
के बाहर नहीं
जाता है।
छलबल
सहित चतुरजन
चकरित।
और
तुम्हारे
तथाकथित चतुरजन, जिनको
तुम कहते हो
बड़े बुद्धिमान,
वे भी इसके
चकमे में हैं।
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। बुद्धू
हों कि
बुद्धिमान, कोई भेद
नहीं पड़ता। छलबल सहित चतुरजन चकरित।
जिनसे हम आशा
करते हैं ये
धोखा न खाएँगे,
वे भी धोखा
खा जाते हैं।
क्योंकि धोखा
खाने का सूत्र
भीतर छिपा है।
धोखा खाने का
सूत्र है—तुम्हारे
मन की सपने
देखने की
क्षमता। जब तक
तुम्हारा मन सपने
पैदा करेगा, तब तक तुम
धोखा खाते ही
रहोगे। जिस
दिन तुम्हारा
मन सपने पैदा
नहीं करता, निर्विचार,
शून्य में
रम जाता है, उस दिन तुम
धोखे के बाहर
होते हो।
छलबल
सहित चतुरजन
चकरित, तिनका
कछु न बसाया।।
बड़े—से—बड़े
बुद्धिमानों
का कोई बस
नहीं चलता, क्योंकि
बुद्धिमानी
का यहाँ कोई
संबंध नहीं है।
मारे
बहुत नाम सँ
न्यारे, जिन
यासँ मन
लाया।
जिसने
भी माया की
तरफ मुख किया
और जिसने भी
परमात्मा की
तरफ पीठ की, वे
सब मारे गए।
उन्हें
मृत्यु के
सिवाय और कुछ
भी न मिला।
जीवन के नाम पर
उन्होंने
केवल मृत्यु
ही इकट्ठी की।
बार—बार मरे, जिए कभी
नहीं। जन्मे
और मरे, जिए
कभी नहीं।
मारे
बहुत नाम सँ
न्यारे, जिन
यासँ मन
लाया।
जो
परमात्मा से
विमुख हैं, जो
उसके नाम से
अभी तक नहीं
भरे हैं, जो
सतनाम से
नहीं
प्रज्वलित
हुए हैं, जिनके
भीतर हरिनाम
नहीं गूंजा.....और
हरिनाम के गूंजने
का मतलब समझ
लेना। उसका
मतलब यह नहीं
होता कि बैठे
हैं और हरी
राम—हरी राम—हरी
राम कर रहे
हैं; कि
राम—राम, राम—राम,
राम—राम कर
रहे हैं; उसका
मतलब होता है :
जहाँ सब शब्द
शांत हो गए और
जगत की
वास्तविक ध्वनित्तरंग
ओंकार पैदा
हुआ।
तुम्हारे
द्वारा
दोहराया गया
ओंकार असली
ओंकार नहीं
है। जब
तुम्हारा मन
बिल्कुल ही
शून्य होता है, तब
उस शून्य में
एक ध्वनि सुनी
जाती है—वही
ध्वनि ओंकार
है। तुम
दोहराने वाले
नहीं होते हो,
तुम सुनने
वाले होते हो।
तुम उसे पैदा
नहीं करते, वह ध्वनि
व्याप्त है।
यह जगत उसी
ध्वनि से
निर्मित है।
वह नाद इस जगत
के प्राणों
में छिपा है।
मारे
बहुत नाम सूं
न्यारे। तो जो
भी उस
परमात्मा के
नाम से विमुख
हैं,
वे सिर्फ
मारे जाते हैं,
जीते नहीं।
तुम
जरा अपनी
जिंदगी पर सोच—विचार
करो,
थोड़ा
विश्लेषण
करो। तुम जी
रहे हो या
सिर्फ मर रहे
हो? तुम
जिसको जन्म—दिन
कहते हो, वह
जन्म—दिन है
या मौत और
करीब आ गयी है,
एक साल और
करीब आ गयी है?
जीने के नाम
पर तुम्हें
मिला क्या है?
जीवन का जरा—सा
भी स्वाद नहीं
मिला। जीवन का
ही स्वाद मिल जाए
तो अमृत मिल
गया। जीवन के
स्वाद का नाम
ही तो
परमात्मा है।
मारे
बहुत नाम सँ
न्यारे, जिन
यासँ मन
लाया।
रज्जब
मुत्त भये माया तें, जे
गहि राम छुड़ाया।।
लेकिन
जिन्होंने
राम को गह
लिया, जिन्होंने
भी माया से
अपनी आंख हटा
ली और राम पर आंख
जमा ली, केवल
वे ही.....रज्जब मुत्त भये
माया तें,
जे गहि
राम छुड़ाया।
जिन्होंने
राम का हाथ
पकड़ा, राम
ने उन्हें छुड़ा
लिया। राम ही छुड़ाता
है। मुत्ति
प्रसाद है।
तुम्हारे
प्रयास से नहीं
होती, उसके
प्रसाद से
होती है, उसकी
अनुकंपा से
होती है। वह
रहीम है, वह
रहमान है।
उसकी अनुकंपा
से होती है।
लेकिन उसकी
अनुकंपा
किनको मिलती
है? ऐसा मत
सोचना कि उसकी
अनुकंपा में
भेद है। भेद
होगा तो
अनुकंपा न रही।
उसकी अनुकंपा
सभी पर बरसती
है। लेकिन जो उसकी
तरफ पीठ किए
हैं, वे
वंचित रह जाते
हैं। अपने
कारण वंचित रह
जाते हैं। ऐसा
ही समझो कि
वर्षा हो रही
है और तुमने
अपना घड़ा उलट
रखा हुआ है; वर्षा होती
रहेगी और घड़ा
उलटा रहेगा और
नहीं भरेगा। घड़े को
सीधा करो। राम
की तरफ उन्मुख
होओ।
वही
घटना रज्जब
में घटी। जब
दादू ने रज्जब
की आंखों में
देखा। जाते थे
एक तरफ को, क्रांति
हो गयी, मुड़
गए। उतर पड़े
घोड़े से। घोड़े
से क्या उतरे,
संसार से
उतर गए।
घोड़ा
संसार का
प्रतीक है।
इसलिए विवाह
में उसका
उपयोग किया
जाता है। वह
जो घोड़े पर
चढ़ा देते हैं
आदमी को, चढ़ा
दिया संसार
पर। वह जो मौर—मुकुट
बाँध देते हैं,
बना दिया एक
दिन के लिए
राजा। सब झूठा
है। कहते हैं:
दूल्हा राजा!
कुछ राज्य
इत्यादि नहीं
है। बिना
राज्य के राजा
हो। मगर एक
दिन के लिए
रौनक आ गयी। चले
बराती! वे सब
तुम्हें यह
भ्रम दे रहे
हैं कि तुम
कुछ विशिष्ट
हो, घोड़े
पर तुम बैठे
हो, बाकी
सब पैदल चल
रहे हैं। छुरी
इत्यादि लटका
दी, हालाँकि
उससे सब्जी भी
नहीं कट सकती।
वह किसी काम
की नहीं है
छुरी। मगर
प्रतीक!
प्रतीक कि तुम
राजा बना दिए।
वेश इत्यादि
पहना दिया है।
बैंड—बाजे बज
रहे हैं।
तुम्हें एक
भ्रांति दी जा
रही है कि तुम
राजा हो—अश्व
पर सवार!
वह जो
उतर पड़ा रज्जब
और एक क्षण
में घोड़े से
नीचे हो गया, वह
संसार से नीचे
उतर पड़ा। उसने
प्रतीक तोड़ दिए।
उसी क्षण उसने
मौर उतारकर
फेंक दिया।
उसे बात
दिखायी पड़ गयी
कि यहाँ की
बादशाहत झूठी
बादशाहत है, कि यह मौर
इत्यादि सब
बकवास है। वह
असली बादशाहत
की खोज में
झुक गया गुरु
के चरणों में।
सोचते हो बारातियों
पर क्या गुजरी
होगी!
तिलमिलाती
हैं किस कदर
मौजें
डूबने
वाले जब उभरते
हैं
क्या
गुजरी होगी बारातियों
पर?
बड़े दुःखी,
बड़े
क्रोधित, बड़े
नाराज घर गए
होंगे। पीड़ित—परेशान
घर गए होंगे।
रात सो न सके
होंगे। क्योंकि
इस जवान लड़के
ने उन सबको
बुरी झेंप से
भर दिया होगा।
इसकी हिम्मत
ने उनके सामने
उनकी नामर्दगी
जाहिर कर दी
होगी। इसके
साहस ने
उन्हें बता दिया
होगा कि तुम
नपुंसक हो, तुम अभी भी
झूठे घोड़ों
पर बैठे हो।
तुमने अभी भी
झूठे मौर बाँध
रखे हैं। अभी
भी तुम समझ
रहे हो कि तुम
राजा हो। और न कोई
राज्य है। यह
है माया : कोई
राज्य नहीं है,
और राजा!
दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं। एक—जो
राज्य खोजते
हैं ताकि राजा
हो जाएँ। ये
ही संसारी लोग
हैं। और दूसरे
वे हैं जो
राजा को खोज
लेते हैं—राम
राजा! और उसके
साथ राज्य तो
अपने—आप मिल
जाता है; उसको
खोजना नहीं
पड़ता। राजा
तुम्हारे
भीतर छिपा है।
सारा राज्य
उसका है। मगर
तुम उससे विमुख
हो। बस इतनी
ही क्रांति
चाहिए। यही
संन्यास का
अर्थ है। इतनी
ही क्रांति—जो
आंखें बाहर
खोज रही हैं, वे भीतर
खोजने लगें।
रज्जब
मुत्त भये माया तें, जे
गहि राम छुड़ाया।।
संतो, आवै जाय
सु माया।
जो आती
है और चली
जाती है, वह
माया। प्यारी
परिभाषा! छोटी,
संक्षिप्त,
सारगर्भित।
जो आए और जाए—वह
माया। आयाराम,
गयाराम—माया।
जो न आती है और
न जाती है, जो
है, जो सदा
है, वह
माया नहीं।
वही सत्य है।
सत्य
का अर्थ है :
शाश्वत। माया
का अर्थ है :
क्षणभंगुर।
सागर में
लहरें उठती
हैं,
मिटती हैं;
बनती हैं, गिरती हैं, आती हैं, जाती
हैं—सागर सदा
है। अगर शांति
चाहिए, उसे
पकड़ो जो सदा
है। उसे गहो,
जो शाश्वत
है। क्षणभंगुर
को पकड़ोगे,
अशांत
होओगे।
क्योंकि तुम
पकड़ भी न
पाओगे और वह
गया।
संतो, आवै जाय
सु माया।
आदि
न अंत मरै
नहिं जीवै, सो
किनहूं
नहिं जाया।।
यह
माया सिर्फ
झूठा सपना है।
न तो इसका कोई
प्रारंभ है, न
कोई अंत है। न
इसका कोई जन्म
है, न इसका
कोई जीवन है।
यह केवल
कल्पना—जाल
है। तुम्हारा
सपना कहाँ से
पैदा होता है
रात? फिर
सुबह कहाँ
विलीन हो जाता
है? न पैदा
होता है, न
विलीन होता
है। खयाल
मात्र है।
उसका अस्तित्व
ही नहीं है।
आदि
न अंत मरै
नहिं जीवै, सो
किनहूं
नहिं जाया।।
लोक असंखि भये
जा माहिं, सो
क्यँ गरभ
समाया।
बाजीगर
की बाजी ऊपर, यहु
सब जगत
भुलाया।।
यह
माया ऐसी है, जैसे
जादूगर का
जादू। नहीं
हैं, और
चीजें दिखायी
पड़ने लगती
हैं। एक
भ्रांति खड़ी
हो जाती है।
बाजीगर
की बाजी ऊपर, यहु
सब जगत
भुलाया।।
सुन्न
सरूप अकलि
अविनासी, पंचतत्त नहिं काया।
ये जो
पाँच तत्त्वों
से मिलकर
तुम्हारी देह
बनी है, यह
तुम नहीं हो।
"सुन्न सरूप अकलि अविनासी।'
तुम तो वह
पूर्ण हो, जो
अविनाशी है, शाश्वत है, सनातन है, सदा है।
उसका स्वरूप
क्या है? शून्य
स्वरूप है
उसका। सुन्न
सरूप!
तुम्हारे
भीतर दो अवस्थाएँ
हैं। एक तो मन
की तरंगित
अवस्था। वही
माया है। फिर
एक मन की अतरंगित
अवस्था, शून्य
स्वरूप, वही
राम है। जब मन
बिल्कुल
निस्पंद रहित
हो जाता है, जब मन सारे
स्पंदन से मुत्त
हो जाता है, जब मन में
कोई विचार
नहीं उठते, जब मन सिर्फ
एक रित्त
मंदिर रह जाता
है—न कोई आता
है न जाता है—वही
है राम का
स्वरूप। वही
है आनंद। वही
है मोक्ष। उसे
पाकर ही तुम्हें
सच्चा
साम्राज्य
मिलता है। फिर
तुमने कुछ
कमाया, तुम
संपत्तिशाली
हुए। जब तक वह
न पा लो, तब
तक समझना कि
जो तुम कमा
रहे हो, वह
विपत्ति है, संपत्ति
नहीं।
सुन्न
सरूप अकलि
अविनासी, पंचतत्त नहिं काया।
त्यँ औतार अपार असति ये, देखत
दृष्टि
बिलाया।।
और अगर
तुम गौर से देखोगे
अपने भीतर
विचारों के
जाल को, तो ये
तुम्हारे
देखते ही
विलीन हो
जाएँगे। यह कुंजी
की बात है। यह
ध्यान की
कुंजी है।
निरीक्षण—मात्र
काफी है। झूठ
को मारने के
लिए तलवारें नहीं
उठानी पड़तीं।
और झूठ को
मारने के लिए
आग नहीं लगानी
पड़ती। झूठ को
मारने के लिए
बस एक काम
काफी है :
साक्षी हो जाओ,
जागकर देख लो।
इसका
थोड़ा प्रयोग
करना शुरू
करो। क्रोध पकड़े
तुम्हें, शांत
बैठकर क्रोध
को देखना शुरू
करो। लड़ो
मत, झगड़ो मत, निंदा
मत करो, न
क्रोध का पक्ष
करो, न
विरोध करो, सिर्फ देखो
क्रोध क्या
है! एक बार भर—आंख
देखो क्रोध
क्या है, और
तुम चकित हो
जाओगे—तुम्हारे
देखते—ही—देखते
क्रोध का धुआं
विलीन होने
लगा।
तुम्हारे
देखते—ही—देखते
तुम पाओगे, क्रोध गया।
और क्रोध की
जगह एक अपूर्व
शांति छूट गयी
है। पीछे एक
अपूर्व आनंद
का भाव छूट गया।
जैसे तूफान के
बाद शांति आ
जाती है—ऐसे
ही।
जब काम—वासना
पकड़े तो लड़ो मत, दबाओ
मत, जबर्दस्ती
ब्रह्मचर्य
मत थोपो।
जब कामवासना पकड़े, आंख
बंद करके देखो
: क्या है काम—वासना?
उठने दो, विचार ही है,
इतना घबड़ाना
क्या! इतना
परेशान क्या
होना! काम—वासना
उठे तो जल्दी
से माला लेकर
राम—राम—राम—राम
मत जपने लगना
कि किसी तरह भुलाओ।
तुम्हारे
भुलाने से कुछ
नहीं भूलने
वाला है। तुम
इधर राम—राम
जपते रहोगे, काम—वासना
उधर भीतर अपना
जाल फैलाती
रहेगी। और ऊपर—ऊपर
राम—राम रहेगा,
भीतर तुम
जानते हो क्या
चल रहा है!
किसको धोखा दोगे?
शायद दूसरे
धोखे में भी आ
जाएँ
तुम्हारा राम—राम
सुनकर, लेकिन
तुम तो जानते
ही हो कि राम—राम
तुम क्यों
दोहरा रहे हो!
यह तुम्हारा
राम—राम
दोहराना वैसा
ही है जैसे
सर्दी के
दिनों में लोग
नदी में स्नान
करने जाते हैं
न! पानी ठंडा
होता है। एकदम
उतरते हैं
पानी में तो
जोर—जोर से
मंत्र पढ़ने
लगते हैं—हरे
राम, हरे
राम, हरे
राम करने लगते
हैं।
मैं जब
छोटा था तो
अपने गाँव की
नदी पर जाकर
देखता, मैं
सोचता बड़ी
हैरानी की बात
है, यह
आदमी अभी तक
हरे राम नहीं
कर रहा था, एकदम
पानी में उतरा,
हरे राम—हरे
राम करने लगा!
फिर पानी के
बाहर आकर फिर
ठीक है, फिर
भूल—भाल गया।
मेरे सामने ही
एक सज्जन रहते
थे, उनको
मैंने कभी हरे
राम करते नहीं
देखा, लेकिन
ठंडे पानी में
वे जरूर करते
थे। मैंने उनसे
पूछा कि इसका राज़ क्या
है? उन्होंने
कहा—राज़
क्या, ठंड
लगती है।
भुलाने के
लिए। मन लग
गया हरे राम, हरे राम में,
उसी बीच
डुबकी मार ली।
इतनी देर मन
को उलझा लिया।
तुम
राम—राम जपोगे
और काम—वासना
से कितनी देर
बचोगे? तुम
राम—राम जपोगे,
क्रोध से
कितनी देर
बचोगे? कैसे
बचोगे? यह
कोई बचना है? किसको धोखा
दे रहे हो?
नही, सूत्र
कुछ और है।
विज्ञान कुछ
और है। देखो! जागकर
देखो! पूरी
तरह सावधान हो
जाओ। सजग हो
जाओ। सावचेत
हो जाओ।
त्यँ औतार अपार असति ये.....ये
इतनी असत्य
घटनाएँ हैं जो
तुम्हारे
भीतर घट रही
हैं कि सिर्फ
देखने से ही
समाप्त हो जाती
हैं.....देखत
दृष्टि
बिलाया। बस
तुम देख भर लो
भर—आंख, कि
विलीन हो जाती
हैं। और तब जो
शेष रह जाता
है, वही
प्रभु है।
ज्यँ
मुख एक देखि
दुइ दर्पन, गहला
तेता गाया।
देखते
हैं न कि
दर्पण के
सामने खड़े हो
जाते हो, तो
तुम्हारा तो
मुख एक है, लेकिन
दर्पण में एक
और दिखायी
पड़ने लगा।
दर्पण में जो
दिखायी पड़ रहा
है, वह सच
नहीं है। वह
है ही नहीं, वह सिर्फ
दिखायी पड़ रहा
है, उसकी
भ्रांति में
मत पड़ जाना, उसको सच मत
मान लेना।
मैंने
सुना है, एक
राजमहल में
दर्पण—ही—दर्पण
लगे थे। सारा
महल दर्पणों
से बना था। एक
कुत्ता रात
भूल से भीतर
रह गया। वह
सुबह मरा हुआ
पाया गया और
सारे दर्पणों
पर उसके खून
के दाग थे।
हुआ क्या? रात
अकेला उस महल
में, उसने
जब चारों तरफ
देखा, हर
दर्पण में उसे
कुत्ते
दिखायी पड़े।
कुत्ते—ही—कुत्ते!
घबड़ा गया
होगा। इतने
कुत्तों के
बीच कोई घिर
जाए.....अकेला
कुत्ता, उसकी
जान कितनी, औकात कितनी!
इतने कुत्ते
चारों तरफ और
सब ख्रूखार!
भौंका होगा, तो सारे
कुत्ते भौंके होंगे।
झपटा होगा तो
सारे कुत्ते
झपटे होंगे।
टकरा गया होगा
दर्पण से, तो
दूसरा कुत्ता
भी टकरा गया
होगा। दर्पण
भी टूटे पड़े
थे। दर्पण के
काँच छिदे थे
और कुत्ता मरा
हुआ पड़ा था।
आदमी
की अवस्था
करीब—करीब ऐसी
है। मन
तुम्हारा
सिर्फ दर्पण
है। मन से जूझो
मत। मन से लड़ो
मत। मन में जो
उठता है उसको
सच भी मत
मानो। छाया—मात्र
है। काम उठे, क्रोध
उठे, लोभ
उठे—छाया—मात्र
है। सिर्फ भर—आंख
देख लो, गौर
से देख लो—उतने
में ही विलीन
हो जाएगा।
ज्यँ
मुख एक देखि
दुइ दर्पन, गहला
तेता गाया।
बावले
मत हो जाओ।
पागल मत हो
जाओ। दर्पण
में भी कोई
छिपा है, ऐसा
सच मत मान लो।
छोटे बच्चे
अक्सर मान
लेते हैं।
बहुत छोटे—से
बच्चे के
सामने दर्पण
रखकर देखा? वह पहले
थोड़ा डरता है,
फिर थोड़ा
गौर से देखता
है कि मामला
क्या है। फिर
थोड़ा उत्सुक
हो जाता है, फिर थोड़ा
पास आता है।
फिर टटोल कर
देखता है। कुछ
समझ में नहीं
आता तो दर्पण
के पीछे जाकर
देखता है कि
शायद कोई पीछे
तो नहीं छिपा
है।
संसार
में अज्ञानी
आदमी की
अवस्था उसी
छोटे बच्चे
जैसी अवस्था
है। वहाँ कोई
भी नहीं है।
राम के अतिरित्त
यहाँ कोई भी
नहीं है। अगर
राम के अतिरित्त
तुम्हें कुछ
भी दिखायी पड़
रहा है तो समझ
लेना कि किसी
दर्पण में पड़े
प्रतिबिंब को
तुमने सत्य
समझ लिया है।
वृक्षों में
भी वही है।
पहाड़ों—पर्वतों
में भी वही
है। मुझ में
भी वही, तुम
में भी वही।
सब में वही
है। एक का ही
विस्तार है।
लेकिन अनेक
दिखायी पड़ रहा
है। राजमहल में
चले गए हो, जहाँ
बहुत दर्पण
लगे हैं।
ज्यँ
मुख एक देखि
दुइ दर्पन, गहला
तेता गाया।
जन
रज्जब ऐसी
विधि जानें, ज्यँ था
त्यँ
ठहराया।।
बड़ा प्यरा
वचन है! कहते
हैं,
रज्जब को
ऐसी विधि दे
दी गुरु ने, रज्जब को
ऐसा सूत्र हाथ
लगा दिया.....जन
रज्जब ऐसी
विधि जानें, ज्यँ था त्यँ
ठहराया। तो अब
रज्जब वही
देखता है, जैसा
है, जो है।
अब जरा भी
अन्यथा नहीं
देखता। अब
अपनी कल्पना
को बीच में
मिलाता नहीं।
अब अपनी कल्पना
से मिश्रण
नहीं होने
देता। अब अपने
सपनों को सत्य
के साथ जुड़ने
नहीं देता.....ज्यँ था त्यँ
ठहराया।
सपनों के हटते
ही जो है, बस
वही रह गया।
उसका ही नाम
परमात्मा है।
परमात्मा
कोई व्यक्ति
नहीं है आकाश
में किसी
सिंहासन पर
बैठा हुआ। इस
भ्रांति में
मत पड़ना
कि किसी दिन
मिल जाएगा
तुम्हें
परमात्मा धनुष—बाण
लिए हुए, कि
मुरली बजाता
हुआ, कि
मोर—मुकुट
बाँधे; इस
भ्रांति में
मत पड़ना, वे सब
तुम्हारी कल्पनाएँ
हैं। वह सब
तुम्हारी
माया का जाल
है। परमात्मा
तो उस अवस्था
का नाम है, जिसको
रज्जब कह रहे
हैं : ज्यँ
था त्यँ
ठहराया। अब
कुछ भी विकृति
नहीं होती है।
अब कोई सपना
बीच में नहीं
आता। अब चीजें
वैसी ही दिखायी
पड़ती हैं, जैसी
हैं। अब किसी
तरह की विकृति
नहीं है, किसी
तरह का आरोपण
नहीं है, किसी
तरह का
प्रक्षेपण
नहीं है। जो
है, जैसा
है, वैसा
ही दिखायी पड़
रहा है। यह
अवस्था ही
परमात्म—अवस्था
है।
रज्जब
के साथ यह जो
यात्रा चलेगी, इसमें
अगर तुम यही
एक सूत्र समझ
लोगे, तो
भर पाया; तो
खाली हाथ न
जाओगे; तो
कुछ अमूल्य
संपदा साथ ले
जाओगे—संपदा लुटेगी। घड़ों को
उलटे रखे मत
बैठे रहना।
संपदा
बरसेगी। घड़ों
को सीधे कर
लेना। घड़े
को सीधा करने
का नाम ही
शिष्य—भाव है।
शिष्य—भाव
का अर्थ होता
है : तैयार हूं, लेने
को तैयार हूं!
आतुर हूं!
स्वागत है।
हृदय मेरा
खुला है। तर्क
नहीं, विवाद
नहीं; स्वीकार
है।
ऐसी
स्वीकृति की
दशा में जो
वर्षा होगी, तुम्हें
भर देगी।
और ये
वचन साधारण
वचन नहीं हैं।
ये वचन एक ऐसे व्यक्ति
के वचन हैं
जिसने जाना; एक
ऐसे व्यक्ति
के वचन हैं जो
उस अपूर्व
क्रांति से
गुजरा। ये एक सिद्धपुरुष
के वचन हैं।
जन रज्जब ऐसी
विधि जानें, ज्यँ था त्यँ
ठहराया।
जिस
दिन से रज्जब
गुरु के चरणों
में बैठे, उस
दिन से ही नशे
में मस्त हो
गए। एक क्षण
में घट गयी थी
बात। मगर घड़ा
पूरा भर गया।
दादू दयाल ने
कहा है कि
रज्जब जैसे पीनेवाले
मुश्किल से
मिलते हैं। एक
ही घँट
में पी गया, पूरा भर
गया।
और
क्या चाहिए अब
ऐ दिले—मजरूह!
तुझे
देखना जज्बे—मुहब्बत
का असर आज की
रात
नूर ही
नूर है जिस
सिम्त उठाऊँ
आंखें
हुस्न
ही हुस्न है, ताहद्दे—नजर आज की
रात
अल्लाह—अल्लाह
वह पेशानिए—सीमीं का
जमाल
रह
गयीं जमके
सितारों की
नजर आज की रात
नग्मा—ओ—मैका
यह तूफानेत्तरब
क्या कहिए!
घर
मेरा बन गया खैयाम का
घर आज की रात।
उस रात
हो गयी वर्षा
मदिरा की।
दादू की आंखों
ने क्या देखा
रज्जब की आंखों
में,
जैसे
सुराही उँडेल
दी! गुरु तो
सदा ही तत्पर
है उँडेलने
को, पीने
वाले नहीं
मिलते। तुम
पीना, ताकि
कह सको—
नग्मा—ओ—मैका
यह तूफानेत्तरब
क्या कहिए!
घर
मेरा बन गया खैयाम का
घर आज की रात
यह हो
सकता है। सब
तुम पर निर्भर
है। स्वर्ग भी, नरक
भी—तुम्हारी
सृष्टि है।
तुम मालिक हो।
तुम्हारी
स्वतंत्रता
परम है। दुःख
में हो, तो
तुम कारण हो।
समझो, जागो। कोई
रोकेगा नहीं।
व्यर्थ की
बातों में मत
पड़े रहना। यह
मत सोचना कि
कैसे आज जाग
जाऊँ, जन्मों—जन्मों
के कर्मों का
जाल पहले
काटना पड़ेगा।
तुमने
परमात्मा को
कोई दुकानदार
समझा है, कि
बैठा है, खाते—बही
लिए, हिसाब—किताब
करेगा रत्ती—रत्ती,
दाने—दाने
का, कि
कहाँ गयी यह कौड़ी, कि
चुकाओ!
परमात्मा
दाता है। औघड़दानी!
तुम्हारे किए
इत्यादि का
कोई हिसाब
नहीं है। कौन
तुमसे पूछ रहा
है? तुम्हारे
अपराध भी तो
छोटे—छोटे
हैं। उसकी
करुणा के
सामने उनका
क्या मुकाबला?
उसकी करुणा
बाढ़ की तरह
आती है, सब
बहा ले जाती
है—तुम्हारा
सब कूड़ा—करकट।
ऐसा ही
समझो कि तुम
जन्मों—जन्मों
से एक ऍ?धेरे
घर में रहे हो
और आज अगर
दीया जले, तो
क्या तुम
सोचते हो अंधेरा
कहेगा कि मैं
हजारों—हजारों
साल से यहाँ हूं,
ऐसे एक ही
बार में दीया
जलाने से हट न
जाऊँगा। हटते—हटते
हटँगा।
जाते—जाते
जाऊँगा। और
जन्मों—जन्मों
से हूं, जन्मों—जन्मों
तक जब तुम
दीया जलाओगे
तब जाऊँगा।
नहीं, बस
दीये की एक
किरण काफी है।
एक छोटा—सा
दिया काफी है
करोड़ों—करोड़ों
वर्षों का अंधेरा
मिट जाता है।
ऐसा ही अंधेरा
रज्जब का
मिटा। ऐसा अंधेरा
तुम्हारा मिट
सकता है।
आज
इतना ही।
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