पत्र पाथय—33
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
25.
1. 1962
प्रिय मां,
संध्या
रुकी सी लगती
है।
पश्चिमोन्मुख
सूरज देर हुए
बादलों में
छिप गया है पर
रात्रि अभी
नहीं हुई है।
एकांत है। घर
पर अकेला ही
हूं। मन में
भी वहां हूं
जहां शून्य है।
मन भी अद्मुत
है। प्याज की
गांठ की तरह
अनुभव होता है।
एक दिन प्याज
को देखकर एक
उपमा सूझी थी।
उसे छीलता गया, छीलता
गया—पर्तों पर
पर्तें
निकलती गईं और
फिर हाथ में कुछ
भी न बचा।
मोटी, खुरदरी
पर्तें, फिरै
मुलायम
चिकतनी
पर्तें फिर
कुछ भी नहीं।
मन भी ऐसा ही
है। उघाडते
चलें स्कूल
पर्तें फिर
सूक्ष्म पर्तें
फिर शून्य।
विचार, वासनायें,
अहंकार और
बस। इनके पार
शून्य है। इस
स्थिति को ही
मैं ध्यान में
आना कहता हूं।
यह शून्य ही हमारा
स्वभाव है।
कहें आत्मा
चाहें कहें
अनात्मा।
शब्द से कुछ
अर्थ नहीं है।
विषम जहां
नहीं है, वहां
है वह, जो
है। पश्चिम के
एक दार्शनिक ह्यूम
ने कहा है, ‘‘जब
भी अपने में
जाता हूं कोई 'मैं' मुझे
वहां नहीं
मिलता है। या
तो विचार से
टकराता हूं या
किसी वासना से
या स्मृति से।’’
यह बात ठीक
ही हे। ह्यूम
थोड़ा और गहरा
जाता तो वहां
पहुंच जाता
जहां टकराने
को कुछ भी
नहीं है। वही
है शून्य। उस
शून्य पर ही
सारा खेल है।
सब सतह पर ही
रुक जाते हैं।
इससे आत्म—परिचय
नहीं हो पाता
है। सतह पर
संसार है।
केन्द्र में
फल
इस
केन्द्र पर
पहुंचना कितना
आनंददायी है? इस
केन्द्र पर
पहुंचकर नया
जन्म हो जाता
है।
रजनीश
के प्रणाम
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