पत्र—पाथय—47
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय मां,
सांझ
से ही आधी
पानी है।
हवाओं ने थपेड़ों
से बड़े—बड़े
वृक्षों को
हिला डाला है।
बिजली बद हो
गई और नगर में
अंधेरा है।
घर में
एक दीपक जलाया
गया है।
उसकी
लौ ऊपर की और
उठ रही है
दीया भूमि का
भाग है पर लौ न मालूम
किसे पाने
निरंतर ऊपर की
और भागती रहती
है।
लौ की
भांति मनुष्य
की चेतना है।
शरीर
भूमि पर तृप्त
है पर मनुष्य
में शरीर के अतिरिक्त
भी कुछ है जो
निरंतर भूमि
से ऊपर उठना
चाहता है। यह
चेतना ही, यह
अग्निशिखा ही
मनुष्य का
प्राण है। यह
निरंतर ऊपर
उठने की
उत्सुकता ही
उसकी आत्मा है।
यह लौ
है इसलिए
मनुष्य है।
अन्यथा सब
मिट्टी है। यह
लौ पूरी तरह
जले तो जीवन
में क्रांति
घट जाती है।
यह लौ पूरी
तरा. दिखाई
देने लगे तो
मिट्टी के बीच
ही मिट्टी को
पार कर लिया
जाता है।
मनुष्य
एक दीया है।
मिट्टी भी है
उसमें, पर ज्योति
भी है। मिट्टी
पर ही ध्यान
रहा तो जीवन
व्यर्थ हो जाता
है। ज्योति पर
ध्यान जाना
चाहिए।
ज्योति पर
ध्यान जाते ही
सब कुछ
परिवर्तित हो
जाता है।
क्योंकि
मिट्टी में ही
प्रभु के
दर्शन हो जाते
हैं।
रात्रि
22 मार्च 1962
रजनीश
के प्रणाम
(पुनश्च:
आपका पत्र मिल
गया है। जयपुर
चलना है। मैं 5 अप्रैल
की रात्रि
जबलपुर— बीना
पैसेन्नर से
निकलूंगा जो
कि (1
अप्रैल को
सुबह 6—30 बजे
बीना पहुंचती
है। वहां 9—30 बजे
पंजाब मेल
मिलेगी जो कि
शाम को आगरा
पहुंचाती है।
आगरा में लगी
हुई
एक्सप्रेस
जयपुर के लिए
मिलती है जो
कि? अप्रैल
की सुबह 4
बजे जयपुर
पहुंचायेगी।
आप 5
अप्रैल की
सुबह जी. टी. से
निकलें और
बीना पर मेरी
प्रतीक्षा
करें। बीना से
साथ हो जायेगा।
एक ही असुविधा
होगी कि आपको
बीना पर 6—7
घंटे रुकना
होगा।)
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