दिनांक
10 जूलाई 1976;
श्री
ओशो आश्रम
पूना।
सूत्र—
बाउल गाते
हैं
उत्सव
आनंद में डूबे
साहसी
दीवानों का
रस और
माधुर्य जब एक
स्वर्णपात्र
में इकट्ठा हो
जाता है
तभी उसका
मूल्य समझ में
आता है कि
वह
श्रेष्ठतम है।
पूजा
प्रार्थना
फलप्रद होकर
तभी
विकसित
करती है
जब
तुम्हारा
पात्र तैयार
और शुद्ध हो।
वही प्रेमी
सत्य को
उपलब्ध
होता है
जो
समग्रता से
प्रेम करता है।
इसे बार—बार
प्रयास कर
असफल होने
वाला व्यक्ति
ही
पूरी तरह
समझता है। जब
उसके आगे
मृत्यु के रहस्य
खुलते हैं
वह पूरी
तरह जीवंत
होता है।
जीवन के
दूसरे तलों
में ऐसा है ही
क्या
जिसकी वह
फिक्र करे.....?
मनुष्य
विभाजित है।
अपनी
पराकाष्ठा पर
पहुंचे दो
जीवन—दर्शनों
के कारण
मनुष्य का मन
भी विभाजित और
खण्डित है।
दोनों ही
दर्शनों में
अतिरंजना है, दोनों
ही दो तार्किक
छोरों पर हैं।
कभी
लोग इस दर्शन
को—'खाओ, पियो
और मौज करो' के नाम से
पुकारते हैं,
जो संयोगवश
जीवन का
भौतिकवादी
दृष्टिकोण है।
यह कहीं भी
पहुंचाता
नहीं, और न
इसमें कुछ
स्थायित्व है।
तुम किसी चीज
के लिए कोई
साधन नहीं
जुटा रहे हो
और न ही कुछ
घटने जा रहा
है, इसीलिए
तुम उस क्षण
में छोड़ दिए
गए हो, जिससे
अधिकतम तुम
उसे अपना बना
लो। मृत्यु
पूरी तरह से
सब कुछ नष्ट
कर देगी, और
कुछ भी न
बचेगा, इसलिए
दूसरे किनारे
की फिक्र ही
मत करो। कुछ
भी यहां
लक्ष्य जैसा
है, इस
बारे में सोचो
ही मत। न
विचार करो—परमात्मा,
सत्य, मुक्ति,
मोक्ष या
निर्वाण को
प्राप्त करने
के बारे में।
ये सभी मात्र
भ्रम हैं, इनका
कहीं कोई
अस्तित्व है
ही नहीं—यह
सभी मनुष्य मन
के मात्र
खोखले सपने
हैं। वे जरा
भी
महत्त्वपूर्ण
नहीं हैं, इसलिए
उस क्षण से
तुम जितना भी
रस निचोड सकते
हो, निचोड़
लो। जीवन में
अंतर्प्रवाह
जैसा वहां कुछ
भी नहीं है, जो सार्थक
हो। यह जीवन
तो एक संयोग
से मिला है : तुम किसी
लक्ष्य या
किसी कारण से
उत्पन्न नहीं
हुए हो।
बहुत
अधिक लोग इसी
तरह से जीते
हैं,
और बहुत कुछ
ऐसा है, जिससे
वे चूक जाते
हैं—क्योंकि
जीवन मात्र एक
संयोग नहीं है,
वहां उसका
कुछ कारण और
उद्देश्य है,
क्योंकि
प्रत्येक
क्षण की
शाश्वतता में
वहां एक धागा
दौड़ रहा है, क्योंकि
जीवन एक फैलाव
या एक विस्तार
है। कोई चीज
घटने जा रही
है। भविष्य
बंजर या बांझ
नहीं है, उसमें
कुछ सृजित
होने जा रहा
है। एक तैयारी
की जरूरत है, जिससे तुम
विस्तीर्ण हो
सको, जिससे
तुम्हारा बीज
अपने
उद्देश्य को
प्रकट कर सके,
जिससे तुम
अपने स्वभाव
और सारभूत
तत्व को उपलब्ध
हो सको, जिससे
तुम जान सको
कि तुम कौन हो
और यह अस्तित्व
है क्या?
जीवन
एक पागल
व्यक्ति का
केवल एक विचार
मात्र नहीं है।
वह बहुत अधिक
व्यवस्थित है।
वह मात्र एक
अव्यवस्था न
होकर, पूरा
ब्रह्माण्ड
है। वहां सभी
कुछ एक क्रम
में है।
अव्यवस्था के
पीछे भी वहां
एक व्यवस्था
है, केवल
उसे गहराई तक
देखने के लिए आंखों
की जरूरत है।
सतह या परिधि
पर तुम कुछ
क्षणों को ही
एक क्रम में
देख सकते हो
उसे, पर
उसकी
निरंतरता या
शाश्वतता
नहीं देख सकते।
यह हो सकता है
कि तुम परिधि
पर शरीर के
सिवा और कुछ
अधिक न देख
सको। ठीक उसी
तरह जब तुम
सागर के निकट
जाते हो, तो
उसके तट पर
खड़े हुए तुम
सागर की गहराई
को नहीं देख
सकते, केवल
तुम उसकी
लहरें ही
देखते हो।
लेकिन सागर
मात्र लहरें
ही नहीं है।
बिना सागर के
लहरों का कोई
अस्तित्व
नहीं है, और
बिना लहरों के
भी सागर
अस्तित्व में
नहीं रह सकता।
लहरें सागर से
पृथक नहीं हैं।
लहरें और कुछ
भी नहीं, बल्कि
वह सागर का
आलोड़न मात्र
हैं और सागर
में बहुत अधिक
गहराई है।
लेकिन उसकी
गहराई को
जानने के लिए
किसी व्यक्ति
को गहरे में
गोता लगाकर
उसकी
गहराइयों में
जाना होगा।
भौतिकवादी
दृष्टिकोण ने
जीवन को पूरी
तरह अर्थहीन
बना दिया है।
तब तुम भले ही
जीवित रहो
अथवा तुम
आत्महत्या कर
लो,
इससे कोई भी
अंतर नहीं
पड़ता, क्योंकि
जीवन और
मृत्यु दोनों
ठीक एक जैसे
हैं। जीवन और
कुछ भी नहीं, बल्कि मरने
का एक ढंग है।
तुम मरने जा
रहे हो, तुम
कैसे मरते हो
इससे कोई भी
फर्क नहीं
पड़ता। जब तुम
मर जाते हो, तो उससे भी
कोई अंतर नहीं
पड़ता। इससे भी
कोई फर्क नहीं
पड़ता कि तुम
कितनी अवधि तक
जीये और फिर
मर गये। कुछ
भी फर्क पड़ता
ही नहीं। यह
दृष्टिकोण एक
अर्द्धसत्य
है— और आधा सच
बहुत खतरनाक
होता है, झूठ
से भी कहीं
अधिक खतरनाक,
क्योंकि
उसमें थोड़ा सा
सत्य होता है।
किसी चीज का
थोड़ा सा होना
बहुत बहुत
धोखा दे सकता
है। पूरा झूठ
इतना खतरनाक
नहीं होता, क्योंकि वह
अधिक समय तक
धोखा नहीं दे
सकता। देर—सवेर
तुम जानोगे ही
कि वह झूठ है।
आधे सच या
अर्द्धसत्य
बहुत खतरनाक
होते हैं, क्योंकि
यदि कुछ चीज
सत्य है तो वह
थोड़ा सा सत्य
तुम्हें
हिलगाये रख
सकता है और
झूठ को जानने
में तुम कभी
भी समर्थ न हो
सकोगे।
दूसरा
विपरीत छोर है
आध्यात्मिक
लोगों का। वह
कहता है—’‘ यह
क्षण व्यर्थ
है। यह समय
व्यर्थ है, केवल
शाश्वतता ही
अर्थपूर्ण है।
इसलिए इस क्षण
आनंद मनाने
में समय
व्यर्थ नष्ट
मत करो। इस
क्षण को नष्ट
न करते हुए
भविष्य के लिए
तैयारी करो।
भविष्य के लिए
वर्तमान का
बलिदान कर दो।
तुम्हारे पास
जो कुछ भी है, उस सभी का उस
भविष्य के लिए
त्याग कर दो, जो अपने आप
में एक पक्का
आश्वासन देता
है। जीवन को
निरंतर सत्य
की ओर गतिशील
रखो। पूरा
जीवन
परमात्मा, अथवा
निर्वाण अथवा
स्वयं को
उपलब्ध होने
का एक निरंतर
प्रयास बन
जाये। ‘यह’
नहीं, बल्कि
'वह' महत्त्वपूर्ण
है। यहां कुछ
भी
महत्त्वपूर्ण
नहीं है, जो
कुछ है वह,' वहां
' है।
दूसरा किनारा
ही
महत्त्वपूर्ण
है। इस किनारे
का तो एक
छलांग लगाने
वाले बोर्ड की
तरह प्रयोग
करना है, लेकिन
तुम्हें जाना
दूसरे किनारे
पर ही है।
वास्तविक
जीवन तो दूसरे
किनारे पर ही
है। इस किनारे
पर तो केवल
भ्रम और
भुलावे हैं, सब कुछ माया
है। इसलिए ऐसी
किसी भी चीज
में समय नष्ट
मत करो, जो
तुम्हें इसी
किनारे पर ही
बनाये रखती है।
इस तट पर
प्रसन्न मत
रहो, क्योंकि
यदि तुम इसी
तट पर आनंद
मनाते रहे, फिर तुम इसे
छोड़ोगे कैसे?
उदास और
गम्भीर रहो।
यह तट, दुःखों
और पीड़ाओं का
तट है। यह तट
जीवन का नहीं,
मृत्यु का
तट है। इस तट
पर पापों के
ढेर के सिवा
और कुछ भी
नहीं है, इसलिए
यहां तो उदास
बन कर ही रहना
है। यह तट
तुम्हें जो
कुछ भी दे
सकता है, उसके
प्रति तटस्थ
बने रहो। यहां
किसी भी चीज
के प्रति
आसक्ति मत रखो।
किसी भी
व्यक्ति के
प्रेम में पड़ो
ही मत। इस तट
के सौंदर्य के
साथ प्रेम करो
ही मत। सदा
सजग बने रहकर
उस दूसरे तट
का ही स्मरण
करो। अपनी
दृष्टि सदा उस
दूसरे किनारे
की ओर ही लगाये
रखो।’’
यह
भी एक दूसरी
अति या
पराकाष्ठा है।
यह भी अपने
साथ
अर्द्धसत्य
लिए चल रही है, और
यह भी पहली
अति की ही
भांति उतनी ही
खतरनाक है।
यह
क्षण भी उस
शाश्वतता का
एक भाग है, और
यह किनारा भी,
इस नदी के
दूसरे किनारे
की भांति ही
महत्त्वपूर्ण
है। इस तट का
सौंदर्य और इस
तट के गीत और
काव्य भी, दूसरे
तट के गीतों
और काव्य
जितने ही
दिव्य हैं। यह
क्षण जो
तुम्हें
उपलब्ध है, वह भी
शाश्वत है।
इसलिए इस क्षण
का भविष्य के
लिए बलिदान
करना मूर्खता
है, क्योंकि
इसी क्षण जैसा
ही भविष्य भी
होगा। दूसरा
तट भी हमेशा
इस तट जैसा ही
आयेगा। और यदि
तुमने वह चाल
सीख ली, जो
अध्यात्मवादियों
ने सीख कर
पूरी मनुष्यता
के मन को
प्रदूषित कर
दिया है, और
उन्होंने
पूरी
मनुष्यता को
यह सिखला कर कि
कैसे इस क्षण
को नष्ट किया
जाये, कैसे
इस तट के
प्रति
नकारात्मक
बना जाये, तब
तुम किसी भी
जगह जाओगे तो
तुम नकार से
भरे होगे। तुम
जहां भी होगे,
तुम नकार से
भरे होगे। तुम
जहां कहीं भी
होगे तुम
विध्वंसात्मक
ही होगे। तुम
जहां कहीं भी
रहोगे, तुम
दुःखी और उदास
ही रहोगे। यह
धर्म नहीं
बाउलों
का दृष्टिकोण
इन दोनों दो
विपरीत ध्रुवों
के मध्य एक
महान
संश्लेषण है।
बाउलों की समझ
दोनों ही
अर्द्धसत्यों
का प्रयोग कर
उनसे ही पूर्ण
सत्य निर्मित
करती है। बाउल
कहते हैं—’‘ यह
क्षण ही सब
कुछ नहीं है, ठीक; लेकिन
यह कहना भी
गलत है कि यह
क्षण कुछ भी
नहीं है।’’ वे
कहते हैं—’‘ जीवन
एक तैयारी है,
लेकिन यह
तैयारी और कुछ
भी नहीं, बल्कि
इस क्षण के
प्रति आनंदित
बने रहना है।’’
वे न तो
भौतिकवादी
हैं और न
अध्यात्मवादी।
वे धार्मिक
लोग हैं। धर्म
एक महान
संश्लेषण है।
और यदि तुम
इसे नहीं
समझते हो, तो
तुम या तो इस
छोर की अति के
अथवा उस अति
के शिकार बन
जाओगे। अथवा
तुम आधे— आधे, दोनों के ही
शिकार हो
जाओगे। इसी
तरह से मनुष्य
का मन विचारों,
अनुभवों और
कार्यों के
मध्य सम्बंध न
जोड़ पाने से
दुविधाग्रस्त
हो जाता है।
इस स्थिति को 'सीजोफ्रेनिया'
कहते हैं।
यह कोई मानसिक
बीमारी न होकर,
थोड़े से
लोगों में
घटने वाली
व्याधि है और
यह मनुष्यता
की अब एक
सामान्य
स्थिति है।
यहां
प्रत्येक
व्यक्ति
विभाजित और
खण्डित है।
तुम इसे अपने
ही जीवन में
देख सकते हो।
जब तुम किसी
स्त्री या
किसी पुरुष के
साथ प्रेम में
नहीं होते, तो तुम
प्रेम के बारे
में
दिवास्वप्न
देखने लगते हो।
कल्पना में
प्रेम ही जैसे
लक्ष्य बन
जाता है। जैसे
वही जीवन का
लक्ष्य बन
जाता है। और
जब तुम किसी
स्त्री या
किसी पुरुष से
प्रेम कर रहे
होते हो, तो
अचानक तुम
अध्यात्म की
भाषा में
सोचना शुरू कर
देते हो : यह
आसक्ति है, यह परिग्रह
है, यह
वासना है।’’ उसके प्रति
निंदा का भाव
उठने लगता
तुम
अकेले भी नहीं
रह सकते, और
तुम किसी के
साथ भी नहीं
रह सकते। यदि
तुम अकेले
होते हो तो
तुम्हारी
उत्कंठा दूसरों
या भीड़ के लिए
होती है। यदि
तुम किसी
व्यक्ति के
साथ होते हो
तो तुम अकेले
रहने के लिए
व्यग्र होना
शुरू हो जाते
हो। इसमें कुछ
चीज समझने
जैसी है, क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति को इस
समस्या का सामना
करना पड़ता है।
तुम
इस दुविधाभरे ' सीजोफ्रेनिक
' संसार
में ही
उत्पन्न हुए
हो। तुम्हें
दोहरे
मानदण्ड दिए
गये हैं।
तुम्हें
भौतिकतावाद
और
आध्यात्मिकता
दोनों साथ—साथ
सिखाई गई हैं।
पूरा समाज
तुम्हें
परस्पर
विरोधी चीजें
सिखाये चला जा
रहा है। मैं
एक बार एक
उपकुलपति के
साथ ठहरा हुआ
था और उन्होंने
कहा कि वे नई
पीढ़ी के बारे
में बहुत अधिक
चिंतित हैं।
उनके दो युवा
पुत्र थे और
वे उन दोनों
के बारे में
ही परेशान थे।
वह चाहते थे
कि वे विनम्र
बनें। वह
चाहते थे कि
वे सच्चे, ईमानदार,
धार्मिक और
प्रार्थनापूर्ण
बनें।
मैंने
कहा—’‘
यह तो ठीक
है। लेकिन आप
उनसे और क्या
चाहते हैं?
''उन्होंने
उत्तर दिया—’‘ निश्चित ही
मैं यह भी
चाहता हूं कि
वे जीवन में
भी सफल हों।’’
मैंने
जोर देकर पूछा—’‘ सफल
होने से आपका
क्या अर्थ है?''
उन्होंने
कहा—’‘
कम से कम
मैं तो
उपकुलपति बन
ही गया हूं।
मैं चाहूंगा
कि वे लोग भी
उच्च शिक्षा
प्राप्त कर, ऊंचे पदों
पर पहुंचे, भौतिक
दृष्टि से सफल
होकर जहां तक
धन सम्पत्ति
का सम्बंध है—
उन लोगों के
पास भी एक
अच्छा बंगला,
एक अच्छी
कार हो, सुंदर
पत्नी हो और
समाज में भी
प्रतिष्ठा हो।’’
और
तब वह थोड़े से
असहज होकर
बोले—’‘ लेकिन
आप यह सब कुछ
क्यों पूछ रहे
हैं?''
मैंने
कहा—’‘
मैं इसलिए
पूछ रहा हूं
क्योंकि आपकी
दोनों ही चाहें
परस्पर
विरोधी हैं।
एक ओर तो आप
चाहते हैं कि
आपका पुत्र
विनम्र हो और
दूसरी ओर आप
यह भी चाहते
हैं कि वह
महत्त्वाकांक्षी
भी बने। अब यह
दोनों चीजें
उसे विभाजित
कर देंगी। एक
ओर तो वह
मनुष्यता, विनम्रता,
और सादगी का
आदर्श लेकर
चलेगा और
दूसरी ओर उसका
आदर्श होगा—सफल
होना, महत्त्वाकांक्षी
बन कर, सब
कुछ प्राप्त
करना। एक
महत्वाकांक्षी
मनुष्य
विनम्र नहीं
हो सकता — और एक
विनम्र
व्यक्ति, महत्त्वाकांक्षी
नहीं हो सकता।
और आप चाहते
हैं कि वह
प्रार्थनापूर्ण
भी हो। आप
चाहते हैं कि
वह सच्चा और
ईमानदार भी हो।
एक व्यक्ति जो
संसार में सफल
होने का
प्रयास कर रहा
है, उसे
बेईमान बनना
ही होगा। और
वास्तव में वह
बेईमान भी इस
तरह का होगा
कि कोई कभी भी
उसकी बेईमानी
पकड़ न सकेगा।
उसे बहुत
चालाक बेईमान
बनना होगा।
उसे बेईमान
होते हुए भी
ईमानदार होने
का बहाना
बनाना होगा।
उसे अहंकारी
होते हुए भी
विनम्र होने
का ढोंग करना
होगा। लेकिन
ये दोनों इतने
अधिक भिन्न, ठीक एक
दूसरे के धुर
विरोधी
लक्ष्य हैं, और आप
इन्हें एक ही
व्यक्ति के
अंदर
समाविष्ट करना
चाहते हैं—ऐसा
व्यक्ति
हमेशा
विभाजित और
खण्डित रहेगा।
यदि वह सफल
होता है तो वह
सोचेगा—’‘मेरी
विनम्रता का
क्या हुआ और
क्या कुछ हुआ
मेरी करुणा
विकसित करने
की भावना का?'' और यदि वह
विनम्र बनता
है तो वह
सोचेगा—’‘ आखिर
क्या हुआ मेरी
महत्त्वाकांक्षाओं
का? मैं तो
अब कहीं भी
नहीं हूं।’’
तुम्हारा
जन्म एक
द्विविधाग्रस्त
संसार में हुआ
है। तुम्हारे
माता—पिता
द्विविधाग्रस्त
थे,
तुम्हारे
सभी शिक्षक, तुम्हारे
पुरोहित और
तुम्हारे सभी
राजनीतिज्ञ
भी
द्विविधाग्रस्त
ही हैं। वे
सभी दो धुर
विरोधी
लक्ष्यों की
बातें किए चले
जाते हैं और
वे तुम्हें
खण्डित और
विभाजित
व्यक्तित्व
का बनाते जा
रहे हैं।
बाउल
बहुत स्वस्थ
लोग हैं। वे
द्विविधाग्रस्त
और खण्डित
नहीं हैं।
उनका
विश्लेषण समझ लेने
जैसा है : यह
समझ ही
तुम्हारे लिए
अत्यधिक
सहायक होगी।
वे
कहते हैं : ''यह
संसार और उसके
पार का दूसरा
संसार, परस्पर
विरोधी नहीं
है।’’ वे
कहते हैं—’‘ खाओ,
पियो और मौज
उड़ाओ, और
साथ ही साथ
प्रार्थनापूर्ण
भी बने रहो, इन दोनों
में कोई विरोध
नहीं है।’’ वे
कहते हैं—’‘ यह
तट और दूसरा
तट, दोनों
परमात्मा
रूपी नदी के
ही दो किनारे
हैं।’’ इसलिए
वे कहते हैं
कि प्रत्येक
क्षण को भौतिकतावादी
बनकर जीना है
और प्रत्येक
क्षण को
अध्यात्म की
ओर उन्मुख भी
करना है।
प्रत्येक
क्षण एक
व्यक्ति को
प्रसन्न और
उत्सवपूर्ण
होना है और इसी
के साथ—साथ
उसे भविष्य
में विकसित और
विस्तीर्ण
होने के लिए
सजग होशपूर्ण
और पूरी तरह
सचेत भी बने
रहना है। यह
विकसित होना
इस क्षण के
उत्सवपूर्ण
होने के
विरुद्ध नहीं
है। वास्तव
में, क्योंकि
तुम इस क्षण
में आनंदित हो,
तो अगले
क्षण
तुम्हारा
हृदय कमल कहीं
अधिक खिलेगा।
इस क्षण तुम
जितने अधिक
प्रसन्न होगे,
अगले क्षण
तुम और अधिक
आनंदित होने
में समर्थ हो
सकोगे। यदि आज
स्वर्ग बन गया
है तो आने
वाला कल भी
नर्क नहीं बन
सकता क्योंकि
उसका जन्म आज
के ही गर्भ से
होगा। यदि आज
का दिन गीत, नृत्य और
हास्य से
परिपूर्ण
अत्यधिक सुंदर
बीता है, तो
कल भी कैसे
उदास हो सकता
है? उदासी
उसमें कहां से
प्रविष्ट हो
सकती है? वह
तुम्हारा आने
वाला कल बनने
जा रहा है, और
जब वह आयेगा, वह आज जैसा
ही आयेगा, क्योंकि
तुमने आज किस
तरह जीया जाये,
यह राज जान
लिया है।
बाउल
कहते हैं—’‘ किसी
सांसारिक
व्यक्ति से
जीवन जीने का
ढंग सीखो, इपीक्यूरियन
या चारवाक से
सीखो कि इस
क्षण को कैसे
जिया जाये।
असली और
प्रामाणिक
धार्मिक
लोगों से दिशा
निर्देश लेना
सीखो, बुद्ध,
महावीर और
कृष्ण का
संश्लेषण करो।
इस क्षण और
शाश्वतता को
विभाजित मत
करो, पदार्थ
और मन को
विभाजित और
खण्डित मत करो
और न आकाश और
पृथ्वी को अलग—
अलग जानो।
जड़ों और फूलों
में विभाजन मत
करो, वे
दोनों एक साथ
ही हैं।
सहभागिता
अथवा दो
विरोधों को एक
साथ लेकर चलना
ही बाउलों का
लक्ष्य है। और
जब अंदर सारे
विभाज
विसर्जित हो
जाते हैं और
जब वहां अंदर
कोई संघर्ष
नहीं रह जाता, तब
अंदर तुममें
एकत्व और
अखण्डता घटती
है, तुम
दीसिवान हो
उठते हो।
तुममें एक
महान गरिमा का
जन्म होता है।
तब तुम उतने
ही प्रसन्न
होगे जितना
इपीक्यूरस था
और तुम बुद्ध
की भांति मौन
भी हो जाओगे।
एक
बाउल की आत्मा
में,
बुद्ध और
इपीक्यूरस
दोनों एक
दूसरे का
आलिंगन कर रहे
हैं, और
यही मेरा भी
लक्ष्य है, यही मेरी भी
सिखावन है।
यदि किसी
भांति तुम
बिना
इपीक्यूरस
हुए बुद्ध बन
जाओ, तो
बहुत कुछ चूक
जाओगे। तुम
बुद्ध की
पत्थर
प्रतिमा की
भांति बनकर रह
जाओगे, तुम
जीवंत न रहोगे।
अथवा यदि तुम
बिना बुद्ध
बने
इपीक्यूरस बन
जाते हो, तुम
तब भी बहुत
कुछ चूक जाओगे।
तुम क्षणिक
जीवन के कुछ
क्षणों का ही
आनंद ले सकते
हो, लेकिन
यह पर्याप्त
नहीं है। जीवन
के पास
तुम्हें देने
के लिए और भी
बहुत कुछ है
और तुम केवल
सतह की लहरों
पर ही जीवन
बिता रहे हो, तुम कभी भी
गहराई तक
पहुंचते ही
नहीं।
मैं
तुम्हें इतना
समर्थ बनाना
चाहता हूं कि
तुम लहरों पर
रहते हुए
चमकती धूप के
साथ बहती हुई
प्रचण्ड
हवाओं और
गर्जते तूफान
का भी सामना
करते हुए सागर
की गहराई में
भी उतर सको, जहां
सभी तूफान मिट
जाते हैं, जहां
केवल ऐसा गहरा
अंधकार होता
है जिसमें सूरज
की एक किरण भी
नहीं पहुंच
पाती और जहां
हर चीज बिना
किसी शोर या व्यवधान
के शांत और
मौन होती है।
लेकिन मैं
चाहता हूं कि
तुम दोनों के
योग्य बन सको।
यदि एक
तुम्हें
दूसरे के लिए
असमर्थ बनाता
है तो तुम
अपार सम्पदा
वाले मनुष्य
नहीं हो, तब
तुम आधे अधूरे
मनुष्य हो। तब
तुम्हारा आधा
अस्तित्व मृत
है। तब तुम
लकवाग्रस्त
हो : तब तुम
पूरी तरह
जीवंत नहीं हो।’’
तुमने
जरूर सुना
होगा कि
अस्तित्ववादी
क्या कहते हैं।
उनकी आधारभूत
घोषणा है :
आत्मा से पहले
मनुष्य का
शरीर
अस्तित्व में
आया। वे कहते
हैं— ''मनुष्य पहले
जन्मा, और
तब धीमे— धीमे
उसने स्वयं अपनी
आत्मा का सृजन
किया। मनुष्य
एक खाली बोतल
की तरह रिक्त
ही जन्मा था, उसके अंदर
कुछ भी न था, वह ठीक एक
कोरे कागज की
तरह था। तब
धीमे— धीमे
उसे अपनी
आत्मकथा
स्वयं लिखनी
पड़ी। वह कुछ
भी साथ लेकर
नहीं आया था, उसे हर चीज
पर अपने
हस्ताक्षर
स्वयं करने
पड़े। वह एक खालीपन
या रिक्तता
लेकर ही जन्मा
था।’’ बाउल
इससे ठीक
विरोधी बात
कहते हैं। वे
कहते हैं :
मनुष्य का
जन्म आत्मा के
ही साथ हुआ, आत्मा
अर्थात् 'आधार
मनुष्य '। '
सारभूत
मनुष्य ' अथवा
आत्मा वहां
सदा से ही है, यह हो सकता
है वह प्रकट
हो या अप्रकट
हो। बीज में वृक्ष
पहले ही से
छिपा होता है।
शरीर से पहले
आत्मा होती है,
उससे
अन्यथा नहीं
होता। बाउल
कहते हैं कि
जीवन किसी नई
चीज का सृजन
नहीं है, वह
केवल एक फैलाव
है। तुम्हारे
पास वह पहले
ही से है, केवल
उसे विकसित
होना है, उसके
बीच में आने
वाले अवरोधों
को हटाना भर
है। बाधाएं या
अवरोध हटाकर
उन्हें केवल
एक ओर रख देना
है और जीवन
विकसित होना
शुरू हो जाता
है। तुम एक
कली की भांति
हो 'जब
उसके खिलने
में कोई
बाधाएं नहीं
आतीं, तो
खिलावट होना
शुरू हो जाती
है और
तुम्हारा कमल
खिल जाता है।
लेकिन
तुम जो कुछ
बनने जा रहे
हो,
तुम
सारतत्व के
रूप में वह
पहले ही से हो—’‘
क्योंकि
यदि तुम पहले
ही से ' वह ' न रहे होते ‘‘, बाउल कहते
हैं, तब
तुम बन ही
नहीं सकते थे।
तुम्हारे
बनने का और
कोई दूसरा
रास्ता है ही नहीं,
वहां कुछ भी
ऐसा नहीं है
जिससे तुम कुछ
और बन सकते।
गुलाब की झाड़ी
में गुलाब
खिलेंगे ही, कमल की बेल
कमल ही उपयेगी।
तुम अपनी
नियति पहले ही
से अपने साथ
लिए चल रहे हो,
केवल उनके
रास्ते की
रुकावटें हटा
देनी हैं।
यही
है वह चीज, जिसे
बाउल तैयारी
करना कहते हैं।
अपने आप को
तैयार करने का
अर्थ है, अपने
रास्ते की
रुकावटों को
दूर हटाना।
यदि तुम घृणा
को मिटा दो, तो प्रेम का
झरना बहना
शुरू हो
जायेगा।
तुम्हें
प्रेम पैदा
करने की जरूरत
नहीं है, कोई
भी व्यक्ति
प्रेम
उत्पन्न नहीं
कर सकता। यदि
तुम प्रेम को
उत्पन्न कर
सकते तो वह
असम्भव होता।
केवल घृणा को
हटा दो और तुम
देखोगे, प्रेम
प्रवाहित
होने लगा।
मूर्च्छा दूर
करो और तुम
देखोगे, समझ
का उदय होने
लगा।
नकारात्मक
चीजों को हटाओं,
विधायक
विकसित होना
शुरू हो
जायेगा। तब
पूरी तैयारी
ही केवल
नकारात्मक
चीजों को हटाने
की है। यह
लगभग ऐसा है, जैसे नदी की
धारा के
प्रवाह को कोई
छोटी सी चट्टान
रोक रही हो ' तुम चट्टान
हटा देते हो
और नदी
प्रवाहित
होने लगती है।
चट्टान ही
उसके मार्ग का
अवरोध बन रही
थी और धारा के
लिए यह कभी
सम्भव ही न था
कि वह आगे
बढ़कर प्रकट हो
पाती। हम अपने
अस्तित्व के
साथ बहुत सी
चट्टानें लिए
चल रहे हैं—इन्हें
तुम अपनी बहती
ऊर्जा का
अवरोध कह सकते
हो—लेकिन उन
अवरोधों को
हटाना और
विसर्जित
करना होगा।
बाउलों
की विधियां
बहुत सरल हैं।
वे कहते हैं
कि यदि नाच
सकते हो तो
तुम्हारे अस्तित्व
से बहुत से
अवरोध
विसर्जित हो
जायेंगे—क्योंकि
जब कोई
व्यक्ति
नृत्य करता है
और नृत्य में
सच्चाई से गति
करता हुआ, केवल
घूमना ही बन
जाता है, तो
वह तरल हो
जाता है। क्या
तुमने इसे
देखा नहीं है?
यदि तुमने
किसी को नृत्य
में खोते हुए
देखा है, तो
तुम इसे क्यों
नहीं समझ पाते?
तब वह अधिक
समय तक शिला
जैसा ठोस और
कठोर रह ही नहीं
सकता। नाचते
हुए वह घुल
रहा है, बह
रहा है। वह
ठोस से तरल हो
रहा है। यह
तरलता ही
अवरोधों को
पिघलाती है।
इसलिए बाउलों
के लिए नृत्य
करना ही योग
है। वह एक
दूसरे के साथ
घंटों नाचते
हैं। जब आकाश
में रात्रि को
चंद्रमा की
चांदनी छिटकी
हुई होती है, तो बाउल रात
भर नाचते ही
रहते हैं, क्योंकि
उनके लिए
चंद्रमा ही
उनके प्रियतम
कृष्ण का
प्रतीक है। वे
अपने कृष्ण को
पूर्ण चंद्र
ही कहते हैं।
जब रात्रि का
अधिपति पूरा
चंद्रमा वहां
होता है, वे
नाचेंगे ही।
और यह नृत्य
कोई
प्रस्तुति या
कार्यक्रम
नहीं है उनके
लिए यह किसी
और को दिखाने
के लिए नहीं
है। यदि कोई
इसे देखता है,
तो वह दूसरी
बात है। बाउल
स्वयं अपने ही
लिए अपने आनंद
के लिए नाचते
हैं।
अवधी
के महान कवि
तुलसीदास से
किसी ने पूछा—
आपने रामायण
क्यों लिखी ?—क्योंकि
उन्होंने
अपना पूरा
जीवन उसमें ही
लगा दिया।
तुलसीदास
ने कहा—’‘ स्वान्तः
सुखाय तुलसी
रघुनाथ गाथा ''
: अपने
स्वयं के आनंद
के लिए ही मैं
राम कथा गाता
रहा—स्वान्तः
सुखाय, केवल
स्वयं अपने
आनंद के लिए
ही, केवल
मात्र अपने
आनंद की खातिर
यह किसी और के लिए
उनकी कोई
प्रस्तुति न
थी।
बाउल
नाचते हैं
स्वान्तः
सुखाय, स्वयं
अपने आनंद के
लिए। गीत गाना
उनकी दूसरी
विधि है।
उन्होंने
बहुत कोमल, स्त्रैण, ताओवादी और
सौंदर्यबोध
को उत्पन्न
करने वाली
विधियां चुनी
हैं, वे
सख्त या कठोर
नहीं हैं। वे
गीत गाते हैं
और गीत गाते
हुए पूरी तरह
उसमें डूब
जाते हैं, खो
जाते हैं। गीत
गाना उनके लिए
मंत्र
दोहराने जैसा
है, गीत
गाना उनके लिए
प्रार्थना
करने जैसा है।
और वे गीत
गाते हैं—
अपने प्रीतम
प्यारे के लिए
वे गीत गाते
हैं— अपने
मालिक के बारे
में, अपने
परमात्मा के
बारे में। यदि
तुम गीत गाने
में खो गये तो
तुम नाद ब्रह्म
में खो गये, तुम
ध्वनिरहित
ध्वनि में खो
गये। और उनका
गीत गाना और
नाचना कोई
संस्कारित
चीज नहीं है।
उसमें किसी
संस्कार
सम्पन्न करने
जैसा कुछ नहीं
है। प्रत्येक
बाउल
वैयक्तिक है।
तुम दो बाउलों
को एक ही
नृत्य करते
अथवा एक ही तरह
से नाचते भी
नहीं पाओगे।
वे किसी
कर्मकाण्ड का
पालन या
अनुसरण नहीं
करते।
यह
बात समझने
जैसी है, क्योंकि
यह उनके लिए
बहुत बहुत
बुनियादी बात है।
और मैं
चाहूंगा कि
तुम इसे निरंतर
याद रखो। यदि
कोई चीज
कर्मकाण्ड या
संस्कार बन
जाती है, तब
उसे छोड़ देना,
वह अब
व्यर्थ हो गई,
क्योंकि
कर्मकाण्ड का
अर्थ ही है—उसे
दोहराना।
मुसलमान, एक
विशेष ढंग से
प्रतिदिन
नमाज पढ़ते हैं,
वह एक
संस्कार या
कर्मकाण्ड बन
गई है। ईसाई
जो प्रार्थना
करते हैं, एक
ही प्रार्थना
वह बार—बार
दोहराते हैं।
वे उसे करने
के इतने अधिक
अभ्यस्त हो
गये हैं, कि
उसमें किसी
चेतना की कोई
आवश्यकता
नहीं पड़ती। वे
उसे औपचारिक
रूप में कर
सकते हैं और
उसके ही साथ
उसके पीछे
पृष्ठभूमि
में बहुत से
विचार चलते
रहते हैं।
उनकी
प्रार्थना
रोबोट की तरह
यंत्रचालित
बन गई है। वे
शब्दों को
दोहरा सकते
हैं। वे
प्रार्थना के
शब्दों को
जानते हैं, वे उन्हें
कई बार दोहरा
चुके हैं। वह
उनके लिए एक
मृत संस्कार
भर रह गया है।
बाउल
कहते हैं—
अपनी
प्रार्थना को
प्रत्येक
क्षण से उठने
दो। अपने अतीत
को ढोये चले
जाने की
आवश्यकता
क्या है? क्या
तुम अपने
परमात्मा से
सीधे ही
बातचीत नहीं
कर सकते? एक
ही बात को बार—बार
दोहराने की
आखिर क्या तुक
है? आज, कल
से भिन्न है—प्रार्थना
भी नई होनी
चाहिए उतनी ही
नूतन और नवीन,
जितना कि
सुबह का उगता
हुआ सूरज और
ओस की बूंदें
नई हैं। कुछ
ऐसा कहो, जो
तुम्हारे
हृदय से उमड़
रहा हो। यदि
उसमें कुछ
नहीं उमग रहा
तो गहन मौन
में झुक जाओ, क्योंकि वह
सब कुछ जानता
है। वह
तुम्हारा मौन
निवेदन भी समझ
जाएगा। किसी
दिन यदि नाचने
जैसा लगे तो
नाचो। अब उस
क्षण के लिए
वही
प्रार्थना
होगी। किसी
दिन यदि तुम
गीत गाना चाहो—लेकिन
किसी और के
गीत को
दोहराना मत
क्योंकि वह
तुम्हारे
हृदय में से
नहीं उमगा है
और उन दिव्य
चरणों में
अपने हृदय को
उड़ेलने का यह
कोई तरीका
नहीं है। अपने
गीत को कंठ से
स्वयं फूटने
दो। उसके छंद
और व्याकरण की
बात भूल ही
जाओ।
परमात्मा कोई
बहुत बड़ा
व्याकरण का
आचार्य नहीं
है और न वह उन
शब्दों की
फिक्र करता है,
जिनका तुम
प्रयोग कर रहे
हो। उसका अधिक
सम्बंध तो
तुम्हारे
हृदय से है।
उसका' मुख्य
सम्बंध तो
तुम्हारे
इरादों और भाव
से है। वह समझ
ही जाएगा।
इसलिए
बाउल अपने गीत
उस क्षण की
अन्तर्प्रेरणा
से रचते हैं।
वे सहज स्वाभाविक
होते हैं। उस
क्षण वे परम
विश्राम में
होते हैं, वे
नृत्य को अपने
से होने देते
हैं, वे
गीत को स्वयं
अपने से उमगने
देते हैं। यही
वजह है कि वे
लोग पागल जैसे
जाने जाते हैं,
क्योंकि
किसी दिन वे
परमात्मा से
झाड़ भी सकते हैं।
और ऐसा होना
ठीक भी है। जब
तुम परमात्मा
से प्रेम करते
हो तो उससे
झगड़ा भी कर
सकते हो। किसी
दिन वे उससे
बहुत नाराज
होकर कहेंगे—’‘
नहीं, आज
मैं तेरी
प्रार्थना
करने नहीं जा
रहा हूं। तूने
मेरे लिए किया
ही क्या है? मैं तुझसे
बहुत नाराज़
हूं।’’ लेकिन
यह प्रार्थना
बहुत सुंदर है।
यह सुनी
जायेगी, यह
अस्तित्व के
केंद्र तक
पहुंचेगी। जब
तुम प्रेम
करते हो तो
कभी—कभी तुम
खीज भी हो
जाते जब तुम
प्रेम करते हो,
तो कभी तुम
नाराज भी हो
जाते हो, कभी—कभी
तुम शिकायतें
करने लगते हो
और कभी केवल
नाचते हो।
मनुष्य बहुत
असहाय है और
बाउल पूरी तरह
निःसहाय होकर
जीता है। यही
कारण है कि वह
सभी वस्तुओं
की पकड छोड़
देता है और
सड़क का भिखारी
बनकर रहता है।
वह अपने को
परमात्मा के
हाथों में छोड़
देता है और
कहता है—’‘ मुझे
तुम पर पूरा
भरोसा है।’’
ठीक
दूसरे ही दिन
मैं एक बाउल
द्वारा गाया
हुआ गीत या
प्रार्थना पढ़
रहा था, जिसमें
बाउल कहता है—’‘
फिर ठीक है,
यदि तू मेरी
परीक्षा ही
लेना चाहता है
तो जरूर ले
परीक्षा। यदि
तू मुझे दुःख
और पीड़ाएं ही
देना चाहता है,
तो वही दे।
जितना अधिक
मैं सह सकता
हूं उन्हें
सहूंगा। ठीक
है न?''
लेकिन
उसकी यह
बातचीत, महज
बात भर ही
नहीं है। यह
उसका प्रियतम
से संवाद है।
और वह किसी
शास्त्र के
वचन नहीं
दोहरा रहा है,
वह अपना
शास्त्र
स्वयं गढ़ रहा
है। और जब तुम
स्वयं अपना
शास्त्र
सृजित करते हो
केवल तभी तुम
सही अर्थ में
जीते हो। यदि
वह उधार लिया
हुआ है तो तुम
उसे जी नहीं
सकते। उधार
लिया गया गीत
भी कोई गाता
है? उधार
लिया नाच कोई
नृत्य नहीं
होता। उसे
स्वयं अंदर से
प्रकट होने दो।
उसके
सम्पादित
होने के बारे
में फिक्र ही
मत करो, क्योंकि
हम लोग जो कुछ
भी प्रस्तुति
करते हैं, उसके
बारे में
दूसरे लोगों
की राय के
बाबत बहुत
अधिक चिंता
करते हैं।
बाउल लोग
नृत्य गान की
प्रस्तुति
जैसी कोई चीज
नहीं कर रहे
हैं, उनकी
पहुंच
प्रत्यक्ष है।
वह परमात्मा
से उसी तरह
सीधी बातचीत
कर रहे हैं, जैसा एक
छोटा बच्चा, अपने माता—पिता
से बातचीत
करता है, जैसे
कोई प्रेमी
अपनी
प्रेमिका से
बातचीत करता
है : वह बात
जीवंत होती है।
आज के लिए जो
गीत है, वह
बहुत प्यारा
है।
उत्सव
आनंद में डूबे
साहसी
दीवानों का
रस और
माधुर्य
जब एक
स्वर्णपात्र
में इकट्ठा हो
जाता है
तभी उसका
मूल्य समझ में
आता है,
कि वह
श्रेष्ठतम है।
पूजा
प्रार्थना भी
तभी फलप्रद
होती है
जब
तुम्हारा
पात्र तैयार
और शुद्ध हो
वह तभी
तुम्हें
विकसित करती
है।
इसलिए
बाउल कहते हैं—’‘ तुम
अपने आप को
तैयार करो।’’ लेकिन जब वह
तुम्हें अपने
को तैयार करने
के लिए कहते
हैं, तो
उसका अर्थ
संसार के
विरोध में
तैयार होने से
नहीं है। उनकी
तैयारी जीवन
समर्थित है।
जब वे कहते
हैं—' तैयारी
करो ' तो
दूसरे
आध्यात्मिक
लोगों के अर्थ
जैसा उनका
अर्थ नहीं
होता। जब
दूसरे
आध्यात्मिक
लोग पूजा
प्रार्थना के लिए
तैयार होने की
बात कहते हैं
तो उसका अर्थ होता
है—जीवन में
प्रसन्न और
प्रमुदित
होना छोड़ दो
जीवन के
विरुद्ध चलो।
और
उत्सव आनंद के
प्रति अपने
लगाव को नष्ट
करना शुरू कर
दो। ऐसे
धार्मिक लोग
गहरे अर्थों
में,
स्वयं अपने
शरीर को कष्ट
देने वाले
स्वपीड़क हैं।
स्वयं को
सताना उनके
लिए बहुत
मूल्यवान बन
जाता है। वे
स्वयं अपने
लिए दुःखों और
कष्टों को
सृजित करते
हैं। नहीं, बाउल तो
जीवन प्रेमी
होता है। जब
वह कहता है— 'अपने को
तैयार करो, तो वह कह रहा
है—इस क्षण का
आनंद लो, जिससे
तुम अगले क्षण
के लिए तैयार
हो सको। इस
क्षण को
स्वर्णिम बना
लो। अपने सभी
क्षणों को
सुनहरे पलों
की एक शृंखला
बना लो, और
तुम स्वर्ण
पात्र जैसे बन
जाओगे। और तुम
स्वर्णपात्र
जैसे बन जाओगे।'
उत्सव
आनंद में डूबे
साहसी
दीवानों का
रस और
माधुर्य
जब एक
स्वर्णपात्र
में इकट्ठा हो
जाता है
तभी उसका
मूल्य समझ में
आता है
कि वह
श्रेष्ठतम है।
परमात्मा
को आमंत्रित
करने से पूर्व, तुम्हें
एक स्वर्ण
पात्र बनना
होगा, जिससे
वह अपने को
तुम्हारे
पात्र में
उड़ेल सके।
प्रसन्न, प्रमुदित
और हर्षित रहो,
जिससे तुम
परम आनंदित
बनने में
समर्थ हो सको।
इस तट पर
उत्सव आनंद
मनाओ जिससे
जिसे तुम दूसरा
तट कहते हो, वहां उत्सव
आनंद मनाने के
तरीके सीख सको।
केवल वे लोग
जो पहले ही से
तैयार हैं, उसके द्वारा
बुलाये
जायेंगे। यदि
तुम उदास, दुखी,
स्वपीडूक
और स्वयं को
ही सताने वाले
हो, तुम दूसरे
तट को अपने से
और दूर कर रहे
हो। क्योंकि
दूसरा तट
उन्हीं लोगों
के अधिकार में
हो सकता है, जो उसे भली
भांति समझ
सकते हैं। तुम
जितने अधिक
उत्सवमय होते
हो, दूसरा
तट उतना ही
अधिक
तुम्हारे
निकट आ जाता है।
और वास्तव में
जब तुम्हारा
उत्सव— आनंद
अपने
सर्वोच्च शिखर
पर होता है, यह तट ही
दूसरे तट में
बदल जाता है।
जब तुम वास्तव
में अपने
समारोह के
सर्वोच्च शिखर
पर होते हो, जब तुम्हारा
नृत्य चरम
सीमा पर होता
है, तो
तुरंत ही यह
तट फिर यह तट
रह ही नहीं
जाता, और
तुम दूसरे तट
पर ही होते हो।
फिर तुम इस
संसार में
रहते ही नहीं,
तुम
परमात्मा में
ही होते हो।
पूजा
प्रार्थना
तभी फलप्रद
होती है
जब
तुम्हारा
पात्र तैयार
और शुद्ध है
वह तभी
तुम्हें
विकसित करती
है।
एक
योग्य पात्र
की आवश्यकता
होती है। यदि
तुम परमात्मा
को धारण करने
वाले पात्र बनना
चाहते हो, यदि
तुमने ' उसे
' अतिथि के
रूप में
आमंत्रित
किया है और
तुम उसका
मेजबान बनना
चाहते हो, तब
तुम्हें
स्वर्ग के
राज्य में
रहने के ढंग सीखने
होंगे।
तुम्हें यहां
और अभी इस ढंग
से रहना होगा
कि यह क्षण ही
स्वर्ग बन
जाये, और
केवल तभी तुम
परमात्मा को
आमंत्रित कर
सकते हो। बहुत
से लोग बिना
यह विचार किये
हुए उसे
आमंत्रित
किये चले जाते
हैं, कि
जैसे वह उसका
स्वागत कर उसे
ग्रहण करने को
पहले से तैयार
हों। यदि वह
आता है, क्या
वह तुम्हें
पहले से ही
तैयार पायेगा?
यदि वह आता
है तो क्या
तुम उसका
स्वागत करने में
समर्थ होगे? यदि वह अपने
को तुममें
उड़ेलता है तो
क्या
तुम्हारा
स्वर्ण पात्र
पहले से तैयार
है? यदि
नहीं, तो
तुम उसकी
दिव्यता को
कैसे इकट्ठा
करोगे? क्या
तुम्हारे
हृदय का पात्र
पहले ही से
खुला हुआ उसे
ग्रहण करने को
तैयार है? कोई
भी व्यक्ति इस
बारे में
पूछता ही नहीं।
मेरे
पास बहुत से
लोग आते हैं
और वे पूछते हैं—कहां
है परमात्मा ?—जैसे
मानो यह
परमात्मा का
कर्त्तव्य हो
कि वह अपने
आपको सिद्ध
करे कि वह
कहां है। यदि
वह स्वयं अपनी
उपस्थिति
सिद्ध नहीं कर
सकता तो वे
लोग विश्वास
भी नहीं कर
सकते। अभी और
यहीं, परमात्मा
तुम्हारे
चारों ओर है।
वह तुम्हारे
अंदर ही है
तुम उसके बिना
हो ही नहीं
सकते। उसके
सिवा और कुछ
है ही नहीं, केवल
परमात्मा ही
है। लेकिन तुम
ही पहले से
तैयार नहीं हो।
तुम
स्वर्णपात्र
बने बिना चूक
रहे हो उसे।
तुम्हारे पास
उसे देखने की
दृष्टि ही
नहीं है, उसे
सुनने के लिए
तुम्हारे पास
कान ही नहीं
है और उसका
स्पर्श महसूस
करने के लिए
तुम्हारे पास
वे हाथ ही नहीं
है। तुम तैयार
हो ही नहीं, और तुम उसका
स्वागत उसी से
कर सकते हो, जो तुम्हारे
पास पहले ही
से तैयार हो।
एक भी क्षण
खोने जैसा
नहीं है। एक
बार तुम तैयार
हो जाओ, तो
तुरंत—बिना एक
भी क्षण के
अंतराल के जिस
क्षण तुम तैयार
होते हो, तुरंत
वह प्रकट हो
जाता है और
घटना घट जाती
है। क्योंकि
वह तो पहले ही
से प्रकट है, केवल
तुम्हारी
तैयारी ही
घटित होनी थी।
यदि
जब कभी हम
तैयार होने की
कोशिश भी करते
हैं,
हमारे
प्रयास आधे
अधूरे हृदय से
किए गए प्रयास
होते हैं।
एक
कवि बॉब डाय
ने अपनी एक
बोध कथा में
इसे भली भांति
व्यक्त किया
है और मैं
तुम्हें उसी
के बाबत बताना
चाहता हूं।
जॉन
वेस्ले
हार्डिंग के
संगीत एलबम के
पीछे की ओर हम
तीन
व्यापारियों
का विवरण पाते
हैं जिनमें से
एक व्यापारी
ने फ्रैंक से
भेंट करते हुए
अपने मिशन को
स्पष्ट करते
हुए कहा—’‘ मि.
ड्यालन के
गीतों का एक
नया रिकार्ड
आया है, जिसमें
कोई
विशिष्टता न
भी हो, लेकिन
वह उनके लिखे
गीत हैं और हम
समझते हैं कि
उनकी सफलता की
कुंजी आपके
पास हैं। फेंक
ने कहा—’‘ आप
ठीक कह रहे
हैं।
कुंजी
मैं हूं।’’ व्यापारी
ने कुछ और
उत्तेजित
होकर कहा—’‘ ठीक
है, फिर
कृपा कर उसे
हमारे लिए आप
स्पष्ट करें।’’
फ्रैंक
जो पूरे समय आंखें
बंद किए लेटा
हुआ था, उसने
अचानक अपनी
दोनों आंखें
फाड़ते हुए कहा—’‘
और आप कितनी
दूर तक साथ चल
कर मुझे सहयोग
गे?''
उन
तीनों
व्यापारियों
के प्रमुख ने
उत्तर दिया—’‘ बहुत
अधिक दूर तक
नहीं, सिर्फ
उतनी ही दूर
तक, जिससे
हम कह सकें कि
हम लोग भी
वहां थे।’’
जो
लोग परमात्मा
को खोज रहे
हैं,
वे लोग भी
केवल उतनी ही
दूर तक चलना
चाहते हैं—जिससे
वे संसार को
यह बता सकें
कि उन्होंने
भी परमात्मा
को देखा है।
लेकिन वे काफी
दूर तक चलना
ही नहीं चाहते—क्योंकि
यदि तुम
परमात्मा में
बहुत अधिक दूर
तक बढ़ गये तो तुम
कभी वापस नहीं
लौट सकते। वे
लोग अगला कदम
उठाना ही नहीं
चाहते—क्योंकि
यदि तुम गहरे
उतर गये, तब
वहां एक बिंदु
ऐसा आ जाता है,
जहां से तुम
वापस नहीं लौट
सकते। वे केवल
थोडी ही दूर
तक चलना चाहते
हैं, जिससे
वे संसार में
वापस लौटकर
लोगों से यह
कह सकें—’‘ हमने
भी परमात्मा
को देखा है।’’ लेकिन उनकी
पूरी
दिलचस्पी इस
संसार में और
उस सम्मान पर
है, जो
संसार उन्हें
दे सकता है।
बैंक में उनकी
अच्छी खासी
रकम जमा है, आज उनके पास
एक महलनुमा
विशाल कोठी है
और अब वे अपने
घरों में ही परमात्मा
को भी प्राप्त
कर सकते हैं।
यह
एक सुंदर कथा
है।
व्यापारियों
का प्रमुख
उत्तर में
कहता है—’‘ बहुत
अधिक दूर तक
नहीं, सिर्फ
उतनी ही दूर
तक जिससे हम
कह सकें कि हम
लोग भी वहां
थे।’’
जब
तुम मंदिर में
जाते हो, तो
तुम जाकर भी
वहां वास्तव
में नहीं जाते,
तुम्हारा
चेहरा बाजार
की ओर ही रहता
है। क्या
तुमने कभी इसे
अपने आप में
अथवा दूसरों में
देखा है ?—यदि
तुम मंदिर में
अकेले ही होते
हो, तो
तुम्हें
प्रार्थना
करने में अधिक
आनंद नहीं आता।
यदि वहां बहुत
से लोग
तुम्हें देख
रहे होते हैं,
तब तुममें
बहुत उत्साह
होता है, तुम
अपने को बहुत
उच्च समझते हो—
अपनी
प्रार्थना के
कारण नहीं, बल्कि केवल
इसलिए
क्योंकि पूरा
शहर तुम्हें वहां
देख रहा है।
और वे लोग
सोचेगे कि तुम
कितने अधिक
धार्मिक कितने
अधिक सदाचारी
और कितने अधिक
परमात्मा के
निकट हो। तुम
चाहोगे कि लोग
तुम्हें
देखकर
ईर्ष्या का
अनुभव करें।
यह तुम्हारी
प्रस्तुति है।
लेकिन
तुम्हारी यह
प्रस्तुति
लोगों के सामने
उनके ही लिए
है, और
परमात्मा
इसके बाहर है।
तुम्हारा
उससे कोई भी
सम्पर्क नहीं
हो रहा है।
उससे
अकेले में ही
सम्पर्क करो, क्योंकि
तब वह कोई
प्रस्तुति
नहीं होगी।
तुम्हें किसी
भी व्यक्ति के
आगे कुछ भी
सिद्ध नहीं
करना है, तुम्हें
तो उसके आगे
अपना हृदय
खोलना है।
बाउल गाते
हैं—
अकेले
बैठे हुए
तुम जैसे
ही
विस्मयविमूढ़
होते हो
कि मृत्यु
का समय आ
पहुंचता है।
ओ मेरे
पागल हृदय!
सभी से
बेखबर होकर
तूने
अस्सी लाख
योनियों में
अनंत
पीड़ाओं से गुजरते
हुए
जन्म से
मृत्यु की
यात्राएं
पूरी करते हुए
जनम—जनमों
में खोज करते
हुए
यह मानुष
देह प्राप्त
की है।
इस मानुष
तन की पावन
भूमि को
तूने
क्यों बंजर
बना डाला?
यदि तूने
उसे गोडा औ
जोता होता
तो इसी से
सोने जैसी फसल
उग सकती थी।
ओ मेरे
हृदय!
प्रेम
का फावड़ा उठाकर
पापों के
खर—पतवार को
उखाड़कर
और सारे
अवरोधों को
अलग हटाकर,
तू आस्था
के बीज बो,
जो विकसित
हो सकें।
तुम
वे बीज अपने
साथ लिए चल
रहे हो।
तुम्हारे
अस्तित्व के
गहरे केंद्र
में वह खजाना
पहले ही से
प्रतीक्षा कर
रहा है, वह
प्रतीक्षा कर
रहा है उन
अवरोधों के
हटने की, जिससे
वह चारों ओर
फैलकर विकसित
हो सके।
परमात्मा
होना
तुम्हारा
अंतर्निहित
गुण और स्वभाव
है : परमात्मा
ही तुम्हारी
नियति है।
तुम्हीं वह
बीज हो, और
तुम्हारा बीज
ही विकसित
होकर
परमात्मा का पुष्प
बनने जा रहा
है।
मनुष्य के
सभी अंग
खिले
कमलों के एक
जोड़े से जुड़े
हैं।
एक कमल
नीचे की ओर
खिला है
और दूसरा
शरीर के ऊपर
के भाग में
लेकिन इन
कमलों को
खिलने के लिए
तेरी ही
तलाश है।
यह तेरे
शरीर में
सूरज के
उगने और अस्त
होने की भांति
ही
खिलते और
बंद होते हैं।
जैसे
ही तुम्हारा
होश जागता और
सोता है, तुम्हारे
अंदर का कमल
भी।ग्वलता और
बंद होता है।
ठीक जैसे सूरज
आकाश में पूरब
के क्षितिज पर
उदित होता है,
यह कंवल भी
खिल जाते हैं
और पश्चिम में
सूरज जब अस्त
होता है और
रात आ जाती है
तो यह कंवल भी
फिर बंद हो
जाते हैं।
बाउल कहते
हैं—
मनुष्य के
सभी अंग
खिलते कमल
के एक जोड़े से
जुड़े हैं.....
जिसे
योगी चक्र
कहते हैं, पानी
की भंवर जैसे
ऊर्जा के यह
सात चक्र होते
हैं। बाउल
इन्हीं को सात
कमल के पुष्प
कहते हैं।
एक कमल
नीचे की ओर उग
रहा है
और दूसरा—शरीर
के ऊपर के भाग
में
लेकिन इन
कमलों को
खिलने के लिए
तेरी ही
तलाश है।
यह तेरे
शरीर में सूरज
के उदय और
अस्त होने की
भांति ही
खिलते और
बंद होते हैं।
जिनमें यह
कमल खिलते हैं
उनकी
अमावस जैसी
काली रात में
पूर्ण
चंद्र का उदय
हो जाता है।
सबसे
नीचे का कमल
सेक्स का कमल
है। जब तुम
वहीं बने रहते
हो तो अमावस
की काली रात होती
है। सबसे
अंतिम सातवां
कमल है—सहस्रार
यह वह कमल है
जहां चंद्रमा
पूर्ण होकर
चमकता है।
सेक्स से
प्रेम की ओर
गतिशील होना
है। वह मनुष्य
जो सहस्रार तक
आ पहुंचा है—उसका
गुण है प्रेम, उसके
सभी कार्य
प्रेमपूर्ण
होते हैं। और
जो व्यक्ति
सबसे नीचे के
चक्र अथवा कमल
पर बना रहता
है, उसके
गुण अथवा
कार्य, सेक्स
से सम्बंधित
होते हैं।
और
जरा भी चिंता
मत करो। बाउल
गाते हैं—
अपनी इस
टूटी नाव के
लिए
मेरी
चिंताओं का
अंत नहीं
क्योंकि
यह नाव अब
मुझे और आगे
नहीं ले जा
सकती,
इसमें अब
सारा जल तेजी
से भरता जाता
है
और नमक ने
इसके ढांचे को
जर्जर बना
दिया है
यह मेरी
जीवन नौका
सारे जल का बोझ
अब और नहीं ढो
सकती।
ओ मेरे
जीवन के
स्वामी।
अपनी
दृष्टि मेरी
ओर उठाकर
मुझ पर
अपनी करुणा
बरसा
और जैसे ही
मैं मरने लग
तू मेरा
हाथ थाम ले।
क्रोध और
घृणा के
लुटेरों ने
मेरी जीवन
नौका पर
आक्रमण कर
सब कुछ लूट
लिया है।
तट से बंधी
रस्सी को काटकर
उन्होंने
उसे तेज हवा
और लहरों की
दया पर
छोड़ दिया
है।
सद्गुरु
कहते हैं—
तू अपने
हृदय पर लगे
दागों को धो
डाल
तेरी नाव
शांत जल में
फिर से तैरने
लगेगी।
केवल
हृदय के दागों
को धोना है।
हृदय से केवल
संदेहों को
गिराना है, हृदय
से अविश्वास
को हटाना है।
एक बार विश्वास
और श्रद्धा का
जन्म हो जाये,
तुम धुलकर
साफ हो जाओगे।
विश्वास और
श्रद्धा हृदय
को पूरी तरह
से शुद्ध और
साफ कर देते
हैं, और तब
कमल चक्र खिल
उठते हैं।
पत्थर की
चट्टान पर
आस्था का
बोया हुआ बीज
दिन
प्रतिदिन
सूखता ही जाता
है
वह कभी भी
अंकुरित हो ही
नहीं सकता।
तुम बंजर
पृथ्वी को
चाहे कितना ही
गोड़ो, जोतो
लेकिन
सूखे सख्त
बीजों से
फसल उग ही
नहीं सकती।
वह अरण्य
महान है
जिसमें
चंदन के वृक्ष
उगते हैं
और उनसे
स्पर्श कर
बहती हवा के
झोंकों में
चंदन की
सुबास होती है
जो आसपास
के सभी
वृक्षों को
सुवासित कर
उन्हें भी
चंदन बना देती
है।
यदि
तुम किसी बहुत
कठोर हृदय में
परमात्मा के बीज
बोना चाहो, तो
वे उ—गेगे
नहीं। पहले
अपने हृदय को
कोमल बनाओ, उसे
ग्राह्यशील
बनने दो। तब
वह उस अरण्य
की मुलायम
मिट्टी की तरह
हो जायेगा, जहां चंदन
के वृक्ष उगते
हैं। और गीत
की ये
पंक्तियां
बहुत सुंदर
हैं—
महान है वह
अरण्य
जिसमें
चंदन के वृक्ष
उगते हैं
और उनसे
स्पर्श कर
बहती हवा के
झोंकों में
चंदन की
सुवास होती है,
जो आसपास
के सभी
वृक्षों को
सुवासित कर
उन्हें भी
चंदन बना देती
है।
और
जब एक मनुष्य
का बीज
प्रस्कुटित
होकर फलता फूलता
और महकता है, तो
जो भी लोग
उसके संपर्क
में आते हैं
वे चंदन ही हो
जाते हैं।
इसीलिए
सत्संग की
इतनी ख्याति
है, इसीलिए
सद्गुरु की
उपस्थिति का
इतना अधिक गौरव
है। वह चंदन
का वृक्ष बन
जाता है। केवल
उसके सम्पर्क
में आने भर से
तुम सुवासित
हो उठते हो, और तुम्हारा
अपना बीज
अंकुरित और
विकसित होना
शुरू हो जाता
है। लकड़ी के
तख्तों और
धातुओं के
टुकड़ों को
जोड़कर
तुम सागर
पर तैरने के
लिए नाव बनाते
हो,
लेकिन
पानी के लिए
यह सभी
तत्व अजनबी
हैं।
उस पर
तैरती नाव
यात्रा पर भी
ले जाती है
और डूब भी
जाती है।
लेकिन
प्रेम की गांठ
कभी नहीं
टूटती।
यदि
वाहन ठीक नहीं
है,
यदि
तैयारियां
पूरी नहीं हैं,
तो पूरा
प्रयास
व्यर्थ हो
जाता है। तुम
एक बड़ी और
वजनी नाव भी
बना सकते हो, लेकिन तब वह
डूब जायेगी।
वह सागर में
तैरेगी नहीं।
बाउल
कहते हैं कि
केवल प्रेम की
नाव पर बैठकर वही
व्यक्ति, जो
कोमल हो, जिसमें
स्रैण
ग्राह्यता हो,
जिसमें गीत
और नृत्य का
उत्सव आनंद हो,
केवल उस
दूसरे किनारे
पर पहुंच सकता
है। इतने अधिक
कोमल और
स्त्रैण बन
जाओ, ठीक
मिट्टी की तरह
मुलायम और
अपने हृदय से
सभी कठोर
पत्थरों को
बीन—बीन कर
बाहर फेंक दो।
सामान्य रूप
से हम ठीक
इसका उल्टा
करते हैं, हम
लोग संदेह और अविश्वास
इकट्ठा किए
जाते हैं और
अपनी ही जमीन
को पथरीला
बनाकर नष्ट
किए जाते हैं।
पूजा
प्रार्थना
तभी फलप्रद
होकर
विकसित
करती है
जब
तुम्हारा
पात्र तैयार
और शुद्ध हो
वही
प्रेमी सत्य
को उपलब्ध
होता है
जो
समग्रता से
प्रेम करता है,
वही
अनुपलब्धि की
पीड़ा
भली भांति
समझता है।
वह
प्रेमी जो
समग्रता से
प्रेम करता है, वही
सत्य को
उपलब्ध हो
सकता है। वही
अनुपलब्धि की
पीड़ा समझ सकता
है..... बाउल का
मार्ग प्रेम
है : प्रेम और
उसके अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं—समग्रता
से प्रेम, प्रेम
की
परिपूर्णता
में पूरी तरह
डूबकर प्रेम
और पूरी श्रद्धा।
अमृत पाने
के लिए
हृदय के
शीरे में
प्रेम भरे
कृत्यों को
मिलाकर
प्रेम की
तीव्र भावना
से
उसे देह की
देग में भरकर
आग पर रखकर
मथना होता है।
सामान्यत:
लोग प्रेम तो
करते हैं, लेकिन
उनमें प्रेम
की तीव्र
भावना और
अहसास नहीं
होता। वे
प्रेम का भी
शोषण करते हैं।
वे प्रेमियों
की भांति
व्यवहार तो
करते हैं, लेकिन
उनका प्रेम
अपने को
संतुष्ट और
प्रसन्न करने
के लिए ही
होता है।
उनमें प्रेम
की तीव्र
भावना और
अहसास नहीं होता।
वे प्रेम करने
के लिए प्रेम
नहीं करते।
उनमें प्रेम
के प्रति
सम्मान और
श्रद्धा नहीं
होती। प्रेम
एक वासना बनकर
रह जाता है, वह कभी भी एक
पूजा और
प्रार्थना
नहीं बनता।
अमृत पाने
के लिए
हृदय के
शीरे में
प्रेम भरे
कृत्यों को
मिलाकर
प्रेम की
तीव्र भावना
से
उसे देह की
देग में भरकर
आग पर रखकर
मथना होता है।
हृदय के
माधुर्य को
वाष्प बनाना
होता है
तुम स्वयं
से ही प्रेम
करते हुए
उस अमृत की
सम्पदा के कोष
को
प्राप्त
कर सकते हो।
यदि
तुम ऐसा
व्यक्ति खोज
सको,
जो पूरी तरह
से परमात्मा
के प्रेम में
डूबा हो, तब
अपने को उस
व्यक्ति में
डुबो लो—क्योंकि
प्रेम सिखाया
नहीं जा सकता,
उसमें तो
केवल डूबा जा
सकता है।
तुम्हें कोई
भी प्रेम करने
के ढंग सिखा
नहीं सकता, तुम्हें
इसके लिए एक
प्रेमी के
निकट सान्निध्य
में रहना होगा।
तुम्हें कोई
भी नहीं सिखा
सकता कि
प्रार्थना कैसे
की जाए उसका
निरीक्षण
करते हुए
उन्हें अनुभव
करते हुए उनके
आसपास घूमते
हुए उनके अस्तित्व
के होने का
स्वाद और
सुवास लेते
हुए ही तुम
सीख सकोगे कि
प्रार्थना
क्या होती है।
तब प्रार्थना
करना एक
कर्मकाण्ड न
होगा। तब
प्रार्थना
तुम्हारे
अंदर एक
खिलावट करेगी,
तुममें एक
सहज
स्वाभाविक
नूतन दृष्टि
उदित होगी।
हृदय की
मधुरता को
वाष्प बनाओ
और स्वयं
से प्रेम करते
हुए
पूरी तरह
प्रेम रस में
डूबकर
तुम उस
अमृत के कोष
और आंतरिक
सम्पदा को
प्राप्त
कर सकते हो।
ऐसा
ही रिश्ता, सद्गुरु
और शिष्य के
मध्य घटित
होता है। बाउल
सद्गुरु को
खोजते भ्रमण
करते रहते हैं।
जब भी वे ऐसा
कोई व्यक्ति
पाते हैं, जिसके
गीत और जिसका
नृत्य
प्रार्थनापूर्ण
हो. और इसे
जानने का कोई
बौद्धिक
मापदण्ड नहीं
हैं, तुम्हें
बस किसी के
सान्निध्य
में रहना होता
है। तुम कैसे
जानोगे कि कोई
व्यक्ति
प्रेम में दीवाना
है? उसकी
कसौटी क्या है?
केवल उसके
साथ रहते हुए
उसे देखना और
समझना कि कैसे
वह आचरण करता
है, कैसे
उससे उत्तर
आता है। गीत
गाते उसके बहते
प्रेमाश्रुओं
को देखना और
समझना, भिन्न—भिन्न
क्षणों में
उसकी
चित्तवृत्ति
का निरीक्षण
करना। धीमे—
धीमे तुम यह
अनुभव करने
में समर्थ
होते जाओगे कि
क्या पूजा
होती है, क्या
प्रेम और क्या
प्रार्थना
होती है। हां!
इसे सिखाया
नहीं जा सकता
बल्कि इसे
पकड़ा जा सकता
है,
वह दिन कब
आयेगा
जब मेरे
हृदय में
विराजमान
वह अनमोल
खजाना, वह
मनमानुष
मेरा अपना
बनेगा?
यद्यपि उस
मनमानुष का
कोई रूप
या कोई
आकृति नहीं है।
लेकिन जिस
मनुष्य ने
प्रेम की
राहों पर चलकर
उसका
स्वाद लिया
जिससे
उसकी सुवास का
अनुभव कर उसे
अपने
में
अवशोषित कर लिया
वह मनुष्य
जिसे
मृत्यु का बोध
हो गया है
उसके होने
का वह स्वयं
ही सबसे बड़ा
प्रमाण है।
जिसने
अहंकार और
ईर्ष्या
वासना और
क्रोध
अज्ञान और
लोभ के
शत्रुओं को
जीत लिया है
उसका पूरा
जीवन ही
उसके होने
का प्रमाण है।
यदि
तुम्हारा
जीवन, उस
आधार मनुष्य
के लिए
जीवंतता
से प्रवाहित
हो रहा है
तो वह
अनुग्रह
पूर्ण कदमों
से चलकर
स्वयं
तुम्हारे पास
आयेगा।
देखो, तुम्हारी
अपनी ही देह
में
देवताओं, दानवों
और मनुष्यों
इन सभी के
संसार हैं
और वह वहां
पहले ही से
विराजमान है।
परमात्मा
तुझमें पहले
ही से गहरे
पैठा हुआ है, यह
खबर तुझे भले
ही अब तक न हुई
हो, तूने
भले ही अब तक
ईसामसीह का
उपदेश अथवा 'गोस्पेल ' न सुना हो।
अंग्रेजी का
यह शब्द Gosel
बहुत सुंदर है।
पुरानी
अंग्रेजी में
यह Godspeel है, जिसका अर्थ
होता है—परमात्मा
का जादू। 'गॉड
स्पेल' कहीं
अधिक सुंदर
शब्द है। 'वह'
पहले ही से
तुझमें गहरे
पैठा हुआ है।
वह पहले ही
वहां है, लेकिन
अभी तक तुझको
उसकी खबर नहीं
हुई।
तुम्हारा सिर,
तुम्हारे
हृदय से बहुत
दूर है। अपने
सिर को जरा
उसके निकट लाओ।
प्रेम
करने के
तरीकों में ही
मनुष्य अपनी
पूरी खबर
स्वयं देता है।
और तुम्हारे
ही शरीर में
देवताओं, दानवों
और मनुष्य के
सभी संसार
समाये हुए हैं।
' वह ' पहले
ही वहां
विराजमान हैं,
और तीन
संसारों को
संभाले हुए
हैं। बाउल
रोते और
बिलखते हैं और
उनके बहते
प्रेमाश्रु
ही उसका
प्रमाण हैं।
उनका रोना
इतना अधिक
प्रामाणिक है
और उनका बिलखना
और व्याकुल
होना भी इतना
अधिक प्रामाणिक
है कि यदि एक
बार भी तुम
किसी बाउल के
सम्पर्क में
आओ, तो तुम
उससे कभी यह
पूछोगे ही
नहीं कि
परमात्मा का
अस्तित्व है
अथवा नहीं।
यदि पहली
ही दृष्टि में
मैं उसके
दर्शन न कर सका
तो फिर मैं
अपने नयनों को
कभी खोलूंगा
ही नहीं।
तब क्या
तुम उसकी गंध
शंकर
कानों से
उसकी पदचाप
सुनकर मुझे
बता सकोगे
कि वह आ गया
है।
कि वह आ गया
है पूरब के आकाश
में
कि
तुम्हारा
मित्र छा गया
है पूरब की
पूरी दिशा में।
यदि
पहली ही
दृष्टि में, मैं
उसके दर्शन न
कर सका, तो
फिर मैं अपने
नयनों को कभी
खोलूंगा ही
नहीं वे गाये
चले जाते हैं,
प्रार्थना
किए चले जाते
हैं। उनका गीत
इतना अधिक
प्रामाणिक और
सच्चा होता है
उनकी
प्रार्थना
इतनी अधिक
मर्मभेदी
होती है, और
यह बिना
परमात्मा के
कैसे सम्भव है?
हां! प्रेम
के रास्तों
में परमात्मा
ही उसका प्रमाण
होता है।
वह प्रेमी, जो
समग्रता से
प्रेम करता है
वही सत्य को
उपलब्ध हो
सकता है।
इसे बार—बार
प्रयास कर
असफल होने
वाला व्यक्ति
ही
भली भांति
समझता है।
पूरा
जोर है
समग्रता, पूर्णता,
पूरी
सावधानी और
सम्पूर्णता
पर। तुरंत ही
जब तुम
समग्रता से
तैयार हो जाते
हो, स्वर्णपात्र
भी तैयार हो
जाता है।
मृत्यु के
रहस्य
उसके आगे
उद्घाटित हो
जाते हैं।
जब वह पूरी
तरह जीवंत
होता है।
फिर वह
जीवन के दूसरे
किनारे के लिए
किसी बात
की कोई फिक्र
करता ही नहीं।
''जबकि वह
पूरी तरह
जीवंत है, मृत्यु
के रहस्य उसके
आगे स्वयं खुल
जाते हैं ''..... और प्रेमी
भली भांति
जानता है कि
मृत्यु क्या होती
है। प्रेमी
जानता है कि
जड़ें और कुल
एक ही हैं मृत्यु
होती ही नहीं
है। केवल
प्रेमी ही यह
जानता है कि
इस आस्तित्व
में सबसे अधिक
झूठी चीज
मृत्यु ही है।
क्यों? प्रेमी
यह कैसे जान
पाता है कि
मृत्यु होती
ही नहीं है? क्योंकि
अपने प्रेम
में प्रेमी तो
पहले ही मर जाता
है। और वह
पाता है कि वह
वहां अभी भी
है—केवल वहां
है ही नहीं, बल्कि इतना
अधिक है वहां,
कि उतना
अधिक तो इससे
पहले वह कभी
रहा ही नहीं।
मरकर भी, पहली
बार ही वह
इतनी समग्रता
से जी रहा है।
वह मरता है—परमात्मा
के ही प्रेम
में, अपने
प्रीतम
प्यारे के
प्रेम में। वह
पूरी तरह से, उसे बिना
शर्त अपना
समर्पण कर
देता है।
केवल
कुछ ही दिनों
पूर्व गिरीश
ने मुझे एक
पत्र लिखा। वह
सोचती है कि
आश्रम में
उसके करने के
लिए बहुत अधिक
कार्य है। यह
सच हो भी सकता
है और नहीं भी
हो सकता है।
लेकिन अपने
पत्र में उसने
कुछ ऐसी चीज
लिखी है जो बहुत
अर्थपूर्ण है।
उसने अपने
पत्र में लिखा
है—’‘
मेरे पास
करने को बहुत
अधिक कार्य है,
और यह
समर्पण नहीं
है, यह
बलिदान है '' अब समर्पण
तो बलिदान
करने के बारे
में कुछ जानता
ही नहीं।
यदि
तुमने समर्पण
को ठीक से
जाना है तो
तुमने पहले ही
से अपना
बलिदान दे
दिया। समर्पण
का अर्थ ही है
कि तुम पहले
ही मर गये।
यदि तुमने
मुझे अपना
समर्पण किया
है,
तब वहां कोई
समस्या है ही
नहीं। तब
कार्य अधिक हो
या कम—
तुम्हारा
इससे कुछ लेना
देना है ही
नहीं। यह बात
ही असंगत है।
तब यह मुझे
देखना होगा, तब मुझे यह
तय करना होगा
कि कौन सा
कार्य अधिक है
और कौन सा कम? और यह मुझे
ही तय करना
होगा कि
तुम्हें करने
को कितना अधिक
कार्य कितनी
अवधि के लिए
दिया जाये और
तुम्हें
कितना अधिक
कार्य करने के
लिए एक
विशिष्ट दिशा
में शक्ति
लगाने के लिए
प्रेरित किया
जाए। लेकिन
तुम्हारे लिए
अब कोई समस्या
रही ही नहीं—तुम
तो समर्पित हो।
लेकिन यदि तुम
सोचती हो कि
तुम बलिदान
देने जा रही
हो, तो यह
समर्पण नहीं
है, तब
तुमने कभी
समर्पण किया
ही नहीं। तब
कोई भी चीज
बलिदान करने
जैसी ही दिखाई
देगी।
एक
प्रेमी ही
जानता है कि
बलिदान करने
जैसा कुछ है
ही नहीं। जब
तुम समर्पित
हो,
तो जहां तक
तुम्हारे
अहंकार का
सम्बंध है, तुम मृत हो।
तब जो कुछ भी
घटता है, तुम
न केवल उसे
स्वीकार करते
हो, तुम
उसे गहन
कृतज्ञता के
साथ स्वीकार
करते हो।
एक
प्रेमी
मृत्यु का
रहस्य जानता
है,
क्योंकि
अपने प्रेम के
द्वारा वह
पहले ही मृत्यु
की ओर गतिशील
हो जाता है।
वहां दो
मृत्यु घटित
होती है, एक
मृत्यु तो
होती है—तुम्हारे
जीवन के अंत
पर और दूसरी
जो जीवन और मृत्यु
के मध्य घट
सकती है—वह
प्रेम की
मृत्यु है, प्रेम में
मरना। जो
व्यक्ति
प्रेम में
मरता है, फिर
उसकी कभी मृत्यु
होती ही नहीं।
तब उसके लिए सभी
तरह की मृत्यु
का अंत हो
जाता है। उसका
पहले ही
पुनर्जन्म हो
गया। वह यह
भली भांति जान
गया कि केवल
अहंकार की ही मृत्यु
होती है। यदि
तुम अहंकार
छोड़ते हो, तो
तुम अमर हो
जाते हो।
मृत्यु के
रहस्य उसके
आगे
स्वयं खुल
जाते हैं
जब वह पूरी
तरह जीवंत
होता है।
फिर वह
जीवन के दूसरे
किनारे की
कोई फिक्र करता
ही नहीं।
समर्पण
के उस
आत्यंतिक
क्षण में—यह
तट,
दूसरे तट
में ही बदल
जाता है, यह
संसार ही
दूसरा संसार
बन जाता है—फिर
दूसरे किनारे
की कौन परवाह
करता है?
मैं
एक बहुत
महत्त्वपूर्ण
कहानी पढ़ रहा
था
चार
सौ वर्ष पूर्व
एक माली ने एक
उथले गमले में
चीड़ का एक इंच
का पौधा रोपा।
ज्यों—ज्यों
पौधा बढ़ता गया, वह
प्रत्येक जड़
और शाखा को
सुव्यवस्थित
करता रहा। जब
उसकी मृत्यु
हुई, तो
उसकी देखभाल
उसका पुत्र
करने लगा और
इसी तरह यह
क्रम उन्नीस
पीढ़ियों तक
चलता रहा। आज
भी वह वृक्ष
टोकियो के
कोवाला
उद्यान में खड़ा
हुआ है, वह
कभी मूल गमले
से पृथक
विकसित ही
नहीं हुआ। चार
सौ वर्षों बाद
भी वह केवल
बीस इंच ही
ऊंचा है और
शीर्ष पर भी
उसका फैलाव
करीब छत्तीस
इंच है। यह
छोटा वृक्ष
प्रत्येक को
चीख—चीख कर
चेतावनी दे
रहा है। ठीक
उस वृक्ष की
ही तरह मन और
आत्मा भी कतर
कर छोटे किए
जा सकते हैं, हमेशा परिणाम
एक ही होगा, वह मनुष्य
बौना बन जाएगा।
यदि
तुम अपनी जड़ों
को जीवन में
विकसित नहीं
कर रहे हो, यदि
तुम अपनी जड़ों
को विकसित
करते हुए
उन्हें प्रेम
और विश्वास
में नहीं
फैलने दे रहे
हो तो तुम
बौने ही बने
रहोगे। तुम
कभी भी 'सारभूत
मनुष्य' या
' आधार
मानुष ' न
बन सकोगे।
विकसित होते
हुए गहराइयों
की ओर बढ़ो, क्योंकि
जब तुम्हारी
जड़ें विकसित
होती हुई गहराइयों
में पहुंचेगी,
तुम्हारी
शाखें विकसित
होकर
ऊंचाइयों की
ओर बढ़ेगी।
गहराई और
ऊंचाई दोनों
साथ—साथ बढ़ती
हैं। पृथ्वी
में जितनी तुम
गहराई में
जाते हो उतने
ही ऊंचे आकाश
की ओर भी जाते
हो। इस तट की
जितनी अधिक
गहराई में तुम
जाते हो, तुम
दूसरे तट के
और अधिक निकट
पहुंचते हो।
प्रेम, जीवन
से प्रेम करो,
वह सब कुछ, जो तुम्हारे
चारों ओर है, उससे प्रेम
करो और अपनी
जड़ों को जितनी
अधिक दूर तक
फैलाना सम्भव
है, फैलाओ।
तुम परमात्मा
के ही चरण
स्पर्श करना
शुरू कर दोगे।
तुम्हारे
श्रद्धा सुमन,
दिव्य
चरणों पर
बरसना शुरू हो
जाएंगे।
अन्यथा स्मरण
रहे, तुम
एक बौने ही
बने रहोगे।
प्रेम
करना एक
अनिवार्यता
है। यह आत्मा
का एक मात्र
पोषक तत्व है।
शरीर, भोजन
करने से ही
जीवित रह सकता
है और आत्मा
का अस्तित्व
भी प्रेम ही
से
है। यह केवल
शब्द मात्र
बनकर न रह
जाये, इसे एक
गहरा अनुभव
बनने दो।
बाउलों
के लिए प्रेम
ही पूजा है।
बाउलों के लिए
प्रेम ही
प्रार्थना है
और
बाउलों
के लिए प्रेम
ही परमात्मा
है।
हे मेरे प्रिय ओशो आपने मुझे धन्य
जवाब देंहटाएंकर दिया