दिनांक
13 मई 1979; श्री
रजनीश आश्रम पूना।
प्रश्नसार:
1—संसार
और परमात्मा
में इतना
विरोध क्यों
लगता है?
2—ध्यान
में किसका
स्मरण करना
चाहिए?
3—आपने
प्रेम को
परमात्मा का
प्रवेशद्वार
बताया। मेरा
प्रेम सपनों—भरा
है। क्या करूँ
कि प्रेम रहे
लेकिन सपना टूट
जाए?
4—.....अब
मैं थकी—हारी
आपके पास आयी हूं,
कृपया मुझे
मेरा मार्ग
बताएँ। .....मेरी
स्थिति कृष्ण
की गोपियों
जैसी है। .....मेरे
लिए तो बस आप
ही हैं। मैं
क्या करूँ?
पहला
प्रश्न :
संसार और
परमात्मा में
इतना विरोध
क्यों लगता है?
क्योंकि
परमात्मा का
तुम्हें कुछ
पता नहीं।
परमात्मा के
संबंध में
सिर्फ सुना
है। और जिनसे सुना
है, उन्हें
भी पता नहीं।
परमात्मा और
संसार में विरोध
हो कैसे सकता
है? विरोध
हो तो संसार
एक क्षण जी
कैसे सकता है?
बिना
परमात्मा के
सहारे श्वांस
चलेगी? बिना
परमात्मा के
सहारे वृक्ष बढ़ेंगे? बिना
परमात्मा के
सहारे सूरज
में रोशनी
होगी? चाँदत्तारों में चमक होगी?
बिना परमात्मा के सहारे गति कहाँ से आएगी? ऊर्जा कहाँ से आएगी? जीवन कहाँ से स्पंदित होगा? परमात्मा और संसार में विरोध! इससे ज्यादा मूढ़ता की और कोई बात नहीं हो सकती। लेकिन पुरोहित ने तुमसे यही कहा है, पंडित ने तुम्हें यही समझाया है, तुम्हारे तथाकथित महात्मा तुम्हारे मन में यही बात डाल रहे हैं कि परमात्मा और संसार में विरोध है। और सदियों का शिक्षण, तुम्हारे भीतर गहरे संस्कार पड़ गए हैं।
बिना परमात्मा के सहारे गति कहाँ से आएगी? ऊर्जा कहाँ से आएगी? जीवन कहाँ से स्पंदित होगा? परमात्मा और संसार में विरोध! इससे ज्यादा मूढ़ता की और कोई बात नहीं हो सकती। लेकिन पुरोहित ने तुमसे यही कहा है, पंडित ने तुम्हें यही समझाया है, तुम्हारे तथाकथित महात्मा तुम्हारे मन में यही बात डाल रहे हैं कि परमात्मा और संसार में विरोध है। और सदियों का शिक्षण, तुम्हारे भीतर गहरे संस्कार पड़ गए हैं।
धर्म
के नाम पर जो
बड़ी—से—बड़ी भ्रांतियाँ
चलती रही हैं, उनमें सबसे
बड़ी भ्रांति
यही है कि
परमात्मा और
संसार में
विरोध है। क्यों
इस भ्रांति को
पैदा किया गया?
इसके पीछे राज़ होगा; गहरा राज़
होना ही
चाहिए। राज़
यह है कि अगर
परमात्मा और
संसार में
विरोध नहीं तो
फिर पंडित और
पुरोहित की
कोई आवश्यकता
नहीं रह जाती।
विरोध है तो
आवश्यकता है।
विरोध है तो
पंडित
तुम्हें समझाएगा
कि संसार से
कैसे मुक्त
होओ और
परमात्मा को
कैसे पाओ।
लेकिन अगर
संसार और
परमात्मा एक
ही सूत्र में
बँधे हैं, विरोध
ही नहीं है, तो फिर
तुम्हारे
महात्मा की
जरूरत क्या? बीमार ही
नहीं हो तो
वैद्य की
जरूरत क्या? अगर
परमात्मा में
जी ही रहे हो, तो परमात्मा
को कैसे पाएँ,
इसका विधि—विधान
रचने की जरूरत
क्या? इसलिए
जरूरी था कि
तथाकथित
धार्मिक
व्यवसाय परमात्मा
और संसार में
विरोध का लंबा
विवाद खड़ा करे,
तुम्हें
समझाए कि तुम
संसारी हो और
तुम्हें होना
है परमात्मामय।
और तुम जैसे
हो, गलत हो,
और तुम्हें
होना है ठीक।
ठीक होने की
विधि हमारे
पास।
इससे
कुछ ऐसा नहीं
हुआ कि सारे
लोग गैर—संसारी
हो गए हैं—गैर—संसारी
होना मुश्किल
है। क्योंकि
गैर—संसारी
होने का मतलब
है, परमात्मा
की ऊर्जा से
अपने को विरोध
में खड़ा कर
लेना। पर इतना
जरूर हो गया
है कि कुछ
पागलों ने
चेष्टा की है
और विकृत हुए
हैं, विक्षिप्त
हुए हैं। इतना
जरूर हुआ है
कि जिन्होंने
चेष्टा नहीं
की, उनके
मन भी विषात्त
हो गए हैं।
तुम संसार में
हो, मगर
प्रफुल्लता
से नहीं हो।
दुकान पर बैठे
हो, मगर
उदास हो, क्योंकि
बैठना तो
मंदिर में है।
काम तो कर रहे
हो, लेकिन
काम में रस
नहीं आता—यह
तो संसार है, इसकी तो
निंदा है
तुम्हारे
भीतर। पालन—पोषण
बच्चों का
करना है इसलिए
काम भी कर
लेते हो; पति
भूखा आता होगा
तो पत्नी घर
भोजन भी बना
लेती है, लेकिन
सब उदास—उदास
चल रहा है।
तुम्हारे धर्मगुरुओं
ने तुम्हारे
जीवन का सारा
आनंद छीन लिया।
तुम्हारे
जीवन को एक
बड़ी रक्तता
से भर दिया।
परमात्मा तो
मिला नहीं—साफ
है कि
परमात्मा
नहीं मिला—हाँ,
संसार से जो
कुछ रस की
उपलब्धि हो
सकती थी, वह
जरूर विकृत हो
गयी।
जो
जानते हैं, उनका जानना
कुछ और है। वे
संसार के
विरोध में नहीं
हैं—कैसे हो
सकते हैं
संसार के
विरोध में? वे परमात्मा
के पक्ष में
हैं। अब ज़रा
थोड़ा समझकर
चलना, एक—एक
बात को गौर से
सुन लेना, नहीं
तो गलत
समझोगे। वे
परमात्मा के
पक्ष में हैं,
संसार के
विरोध में
नहीं। और
तुम्हारे
पंडित—पुरोहित,
तुम्हारे
संत—साधु
संसार के
विरोध में हैं,
परमात्मा
के पक्ष में
नहीं। जो
परमात्मा के पक्ष
में हैं, वे
तुम्हें
संसार से नहीं
तोड़ना चाहते,
सिर्फ
परमात्मा से
जोड़ना चाहते
हैं। और जिस दिन
तुम जुड़ोगे
उस दिन तुम
पाओगे कि
संसार में भी
थे तुम उसी से
जुड़े हुए—सोए—सोए
जुड़े थे, अब
जागकर
जुड़े, बस
इतना ही फर्क
है। सोए—सोए
परमात्मा में
जी रहे थे, अब
जागकर
जीने लगे, बस
इतना ही फर्क
है। विरोध कुछ
भी नहीं है।
जैसे इस बगीचे
में कोई सोया
हो गहरी नींद,
कोयल आए और
गीत गाए, पक्षियों
का कलरव हो, सूरज निकले,
हवाएँ
वृक्षों में
नाचती हुई गुजरें,
मगर कोई
गहरी नींद में
सोया है, हवाएँ
उसे भी छुएँगी
और पक्षियों
के गीत उसके
कान पर भी गुंज
करेंगे, सूरज
की किरणें
उसके चेहरे पर
खेलेंगी, पर
उसे कुछ पता
नहीं।
फिर
कोई आए और उसे
झकझोर कर जगा
दे। आंख खुले
सूरज की महिमा
प्रगट हो, पास से
गुजरती हवा का
गीत सुनायी
पड़े, अचानक
कोयल की आवाज
आए, फूलों
की सुगंध आए, क्या तुम
सोचते हो कुछ
नया हो गया? सब था, सब
वैसा—का—वैसा
है, सिर्फ
यह आदमी नया
हो गया और कुछ
नया नहीं हुआ है।
वही बगीचा, वही सूरज, वही फूल, वही
पक्षी, सब
वही है, सिर्फ
इस आदमी में
थोड़ा फर्क पड़ा
है, यह
सोया था, यह
जाग गया।
संसार
का अर्थ है, तुम सोए हो
परमात्मा
में।
परमात्मा का
अर्थ है, तुम
जाग गए संसार
में। बस इतना
ही फर्क है, विरोध ज़रा
भी नहीं है।
वह जो
दादू दयाल ने
घोड़े पर चढ़े
रज्जब को उतार
लिया, वह
विरोध के कारण
नहीं, सिर्फ
जगाया। वह जो
आवाज दी कि
"रज्जब तैं
गज्जब किया', सिर्फ एक
आवाज दी कि यह
क्या कर रहा
है, जाग, सुबह हो गयी,
यह बेला जागने
की है। तू
सोने जा रहा
है? तू और
सोने जा रहा
है? फिर से
सोने जा रहा
है? अभी
ऊबा नहीं सोने
से? कितना
तो सो चुका है!
परमात्मा को
सोए—सोए खूब
देखा—सोए—सोए
कैसे देख
पाओगे!—अब आंख
खोल, अब जागकर
देख। बंद आंख,
खुली आंख, बस इतना—सा
फर्क है। बंद आंख
संसार, खुली
आंख
परमात्मा। है
तो एक ही। और
जैसा है वैसा
ही है। उसमें
कभी कोई अंतर
नहीं पड़ा है।
तुम्हारे भटकने
से, तुम्हारे
आंख बंद कर
लेने से, तुम्हारे
सो जाने से
दुनिया नहीं
बदलती। तुमने
आज शराब पी ली,
तुम सोचते
हो दुनिया बदल
गयी? तुम
आज शराब पीकर
रास्ते पर डगमगाकर
चलने लगे, तुम्हें
लगने लगा कि
तूफान आ रहा
है, कि
अंधड़ उठे हैं,
कि भूकंप
मालूम होता है,
मकान हिल
रहे हैं; न
तो मकान हिल
रहे हैं, न
कोई अंधड़ है, न कोई तूफान
है, सिर्फ
तुम नशे में
हो, तुम्हारे
पैर डगमगा रहे
हैं। नशा उतर
जाएगा, तुम
पाओगे न कोई
भूकंप था, न
कोई मकान गिर
रहे थे।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक रात अपने
घर लौट रहा है—खूब
पी गया है।
चाभी ताले में
डालने की
कोशिश करता है, लेकिन ताले
के छेद में
नहीं जाती, हाथ कँप—कँप जाता
है, इधर—उधर
चली जाती है।
राह पर खड़ा
पुलिसवाला यह
सब देख रहा है,
दया आयी—अक्सर
ही नसरुद्दीन
की सहायता को
उसे आना पड़ता
है—आकर उसने
कहा कि मुल्ला,
तुम नाहक
मेहनत कर रहे
हो, लाओ
चाबी मुझे दो,
मैं खोल दँ।
मुल्ला ने कहा—चाभी
तो मैं ही रख्रूगा
और मैं ही खोल लँगा, तुम
ज़रा इतना
करो कि मकान
को ज़रा
सम्हालकर
पकड़ो कि हिले
न।
मकान
नहीं हिल रहा
है! मकान कहाँ से
हिलेगा? तुम
हिल रहे हो।
तुम्हारी
चेतना कँप
रही है।
तुम्हारा मन
विचारों और
तरंगों से भरा
है, तुम
नींद में पड़े
हो। नींद के
कारण
तुम्हारे जीवन
में सुवास
नहीं है। नींद
के कारण
तुम्हारे
जीवन में आनंद
नहीं है। आनंद
जागरण का
लक्षण है।
आनंद जागरण की
छाया है। सोया
हुआ आदमी सदा
ही विषाद में
होता है। नींद
प्रफुल्लित
हो ही नहीं
सकती। बेहोशी
है, कैसे
प्रफुल्लता
होगी? तो
तुम बैचेन
हो, परेशान
हो, फिर
तुम पूछते हो
किसी से जाकर
कि मेरी बैचेनी
कैसे मिटे, मेरी
परेशानी कैसे
मिटे; वह
कहता है—तुम
सांसारिक हो,
आध्यात्मिक
बनो; छोड़ो संसार—पत्नी
छोड़ो, बच्चे
छोड़ो, घर—द्वार
छोड़ो, काम—धाम
छोड़ो—भागो
पहाड़ की तरफ, परमात्मा
वहाँ है।
परमात्मा
यहाँ नहीं? परमात्मा सब
जगह है। सिर्फ
आंख खोलो—तो
यहाँ है। और आंख
बंद रखो, तो
हिमालय पर भी
नहीं पाओगे
उसे। और आंख
बंद रखो, स्वर्ग
में भी पहुंच
जाओगे तो नहीं
पाओगे उसे। आंख
खुली रखो, तो
नरक कहाँ है? जहाँ होओगे,
वहीं पाओगे
उसे।
चिन्मय
ने पूछा है यह
प्रश्न।
"संसार और
परमात्मा में
इतना विरोध
क्यों लगता है?' तुम्हें
परमात्मा का
कुछ पता नहीं।
नहीं तो संसार
परमात्मा की अभिव्यत्ति
है, उसका
नृत्य है, उसका
गीत, उसकी
बाँसुरी। ये
सब रंग उसके
हैं। ये सब
ढंग उसके हैं।
इस संसार के
इंद्रधनुष
में उसी चितेरे
के हस्ताक्षर
हैं। ये सुंदर
चेहरे, ये
सुंदर फूल, ये सुंदर
लोग, ये
सुंदर रातें,
ये सुंदर
दिन, ये सब
उसी की खबर
लाते हैं।
लेकिन सदियों—सदियों
तक तुम्हें
समझाया गया है
कि संसार और
परमात्मा में
विरोध है; तुम्हें
संसार का
विरोध करना
सिखाया गया है
और कहा गया है
कि तब तुम
परमात्मा को
पाओगे; मैं
तुमसे कहता हूं—संसार
का विरोध किया,
परमात्मा
को तो कभी
पाओगे ही नहीं,
संसार को भी
गँवा बैठोगे।
दुविधा में दोई गए, माया
मिली न राम।
तुम धोबी के
गधे हो जाओगे—न
घर के न घाट
के। तुम्हारे
तथाकथित साधु—संन्यासियों
को मैं इससे
ज्यादा नहीं
मानता, धोबी
के गधे, न
घर के न घाट
के। बात
तुम्हें दःुख
देगी, तुम्हें
पीड़ा होगी
क्योंकि
तुम्हारी एक
सोचने की आदत
बन गयी है, एक
संस्कार बन
गया है।
तुम्हें
परमात्मा का
कोई भी पता
नहीं है, तुम
परमात्मा की
बात ही मत
उठाओ, तुम
तो अभी इतनी
ही बात करो कि
मेरी जिंदगी
नींद से भरी
है, मैं
कैसे जागँ?
छोड़ो परमात्मा!
यह
सैद्धांतिक
चर्चा में मत उलझो। तुम
इतना ही पूछो
कि कैसे मैं
जग जाऊँ, कैसे
यह सपने के
बाहर आ जाऊँ? नींद के
बाहर आते ही
तुम पाओगे, सदा से
परमात्मा में
थे। और होने
का कोई उपाय ही
नहीं है। जब
गलत थे तब भी
उसी में थे।
जब पाप में थे
तब भी उसी में
थे। पापी भी
उसमें है, पुण्यात्मा
भी उसमें है—उसके
बाहर कोई जगह
नहीं है, उससे
बाहर जाओगे
कहाँ? कैसे
जाओगे, कहाँ
जाओगे? उसका
ही सारा
विस्तार है।
बुरा भी करोगे
तो उसी में
करोगे, भला
भी करोगे तो
उसी में
करोगे। राम भी
उसमें है, रावण
भी। उसी के
मंच पर सारा
नाटक है। और
राम में वह
उतना ही है, जितना रावण
में। राम को
पता है, रावण
को पता नहीं
है। भेद इतना
है। बस इतना—सा
भेद—राम को
बोध है कि कौन
भीतर, रावण
को बोध नहीं
कौन भीतर!
इतने—से भेद
के अतिरित्त
संसारी में और
साधु में कोई
भेद नहीं है।
पाप—पुण्य का
भेद नहीं है, होश और
बेहोशी का भेद
है। लेकिन
आदतें पड़ जाती
हैं। फिर
उन्हीं के
ढर्रे में हम
सोचे चले जाते
हैं। हिम्मत
करो, आदतों
को छोड़ो।
बासी, उधार
आदतों से
सोचने का कोई
क्रम आगे नहीं
जाएगा।
मैंने
सुना है, माँ
अपने दोनों
बच्चों को एक—एक
लड्डू देकर
रसोईघर में
चली गयी। थोड़ी
देर बाद छोटे
बच्चे के रोने
की आवाज आयी।
तो माँ ने बड़े
बच्चे से पूछा—बड़े,
छोटा क्यों
रो रहा है? मैं
अपना लड्डू खा
रहा हूं, माँ,
इसलिए छोटा
रो रहा है।
माँ ने कहा यह
तो बड़ी हैरानी
की बात है, मैंने
छोटे को भी
लड्डू दिया
था। बड़े ने
कहा, मुझे
मालूम है, जब
मैं छोटे का
लड्डू खा रहा
था तब भी वह रो
रहा था। माँ, उसकी तो
रोने की आदत
ही पड़ गयी है!
एक
देखने की, सोचने की
प्रक्रिया की
जड़ आदत हो
जाती है।
तुमने सुना है
बार—बार
परमात्मा और
संसार में
विरोध है।
संसार को छोड़ो
अगर परमात्मा
को पाना है।
इसे इतनी बार
सुना है कि यह
झूठ बार—बार
दुहरा—कर
तुम्हें सच—जैसा
मालूम होने
लगा है। बड़े—से—बड़े
झूठ सच हो
जाते हैं—बस
दोहराते रहो।
फिक्र ही मत करो
लोगों की, दोहराए
चले जाओ। इतनी
बार सुनते हैं
लोग तो धीरे—धीरे
उन्हें शक
होने लगता है
कि जब इतनी
बार बात कोई
कही जा रही है
तो जरूर सच
होगी। इसी पर
तो सारा
विज्ञापन का
शास्त्र जीता
है—दोहराए चले
जाओ, फिकर
ही मत करो, इसकी
फिकर ही मत
करो कि लोग
अखबार में पढ़ते
हैं कि नहीं
पढ़ते; न भी
पढ़ते हों, पन्ना
पलटते वत्त ज़रा नजर तो
पड़ ही जाती है—लक्स
टॉयलट
साबुन—रास्ते
से गुजरते
वत्त भी बोर्ड
तो दिख ही जाता
है; कोई
जानकर, वहाँ
बैठकर और
नमस्कार करके
थोड़े ही बोर्ड
को पढ़ता है, मगर—लक्स टॉयलट
साबुन। फिल्म
देखते वत्त—लक्स
टॉयलट
साबुन।
रेडियो सुनते
वत्त—लक्स टॉयलट
साबुन। जहाँ
देखो वहाँ—लक्स
टॉयलट
साबुन। इतनी
बार दोहराया
जाता है कि
तुम्हें याद
ही नहीं रहता
कि इसका
संस्कार भीतर
बैठता जा रहा
है। फिर एक
दिन तुम बाजार
गए साबुन खरीदने,
दुकानदार
पूछता है—कौन—सा
साबुन? तुम
कहते हो—लक्स टॉयलट
साबुन। और तुम
सोचते हो तुम
सोचकर कह रहे
हो; तुम
सोचते हो
तुमने बड़ी शोध
की है कि कौन—सा
साबुन
श्रेष्ठ
साबुन है; तुम
सोचते हो कि
तुमने बड़ा
हिसाब—किताब
लगाया है।
तुमने कुछ
नहीं लगाया
है। तुम्हें
कुछ पता नहीं
है। यह बात
तुम्हारे
भीतर डाल दी
गयी है। यह
तुम्हारे
अंतरंग में
जाकर बैठ गयी
है। पुनरुत्ति
ही एकमात्र
उपाय है बिठा
देने का।
इसलिए विज्ञापन
सब तरफ से पुनरुत्त
होना चाहिए, दोहराना
चाहिए। जहाँ
जाओ वहीं, चाहो
चाहे न चाहो, विज्ञापन
दिखायी पड़ना
चाहिए।
सदियों
से तुमसे कहा
गया है कि
परमात्मा और
संसार में
विरोध है। बस पकड़कर बैठ
गए हो। यह हो
कैसे सकता है? यह तो ऐसा ही
हुआ जैसे
केंद्र और
परिधि में विरोध
हो। यह तो ऐसे
ही हुआ जैसे
आत्मा और देह
में विरोध हो।
तो चलेगा
क्यों यह नाता?
यह आत्मा और
देह का संग—साथ
एक क्षण भी
टिकेगा कैसे,
अगर विरोध
हो; टूट ही
जाएगा—आत्मा
अपने मार्ग पर
चली जाएगी, शरीर अपने
मार्ग पर चला
जाएगा। कौन
इन्हें जोड़
रखेगा? परमात्मा
कभी का उड़ गया
होता संसार से,
वृक्ष सूख
गए होते, फूल
कुम्हला गए
होते, पक्षियों
के कंठ बंद हो
गए होते, नदियाँ
बहना बंद हो
गयी होतीं।
नहीं, अभी
ऐसा हुआ नहीं।
महात्मा
होंगे संसार
के विरोध में,
परमात्मा
संसार के
विरोध में
नहीं है। नहीं
तो संसार चले
क्यों? कौन
चलाए?
और
खयाल रखना, मैं संसार
के विरोध में
नहीं हूं। मैं
परमात्मा के
पक्ष में जरूर
हूं। क्या भेद
है दोनों
बातों में? भेद बड़ा है।
भेद इतना बड़ा
है जैसे जमीन
और आसमान का
फासला। मैं
परमात्मा के
पक्ष में हूं,
संसार
परमात्मा का
छोटा—सा अंश
है। और जब तुम
परमात्मा को
जान लोगे तो तुम
संसार में भी
उसे जान लोगे।
फिर ऐसा थोड़े ही
होगा कि
तुम्हें अपने
बेटे में
परमात्मा नहीं
दिखायी पड़ेगा,
सिर्फ इसी
वजह से कि
तुम्हारा
बेटा है।
स्वामी
राम अमरीका से
लौटे तो उनके
प्रमुख शिष्य
सरदार पूर्णसिंह
ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि मैं उनके साथ
वर्ष—भर तक
रहा। वे
अपूर्व व्यत्ति
थे। लेकिन एक
दिन मुझे बड़ी
अड़चन हो गयी
इनकी पत्नी
दूर पंजाब से
उनसे मिलने
आयी अपने
बच्चों को
लेकर। पत्नी
को छोड़कर चले गए
थे, पत्नी
मुसीबत में
रही थी, आटा
पीस—पीस कर
काम चला रही
थी, बच्चों
का पेट भर रही
थी; पति ख्यातिनाम
होकर, दूर
देश में बड़ी
प्रसिद्धि
लेकर लौटे हैं,
वह दर्शन
करने आयी। पति—भाव
से नहीं कि वे
पति हैं; लेकिन
दर्शन करना था,
बच्चों को
भी दर्शन करा
देना था। और जब
वह आयी झोपड़े
के पास और राम
ने आते देखा, तो पूर्णसिंह
को कहा—द्वार
बंद कर दो, मैं
अपनी पत्नी से
नहीं मिलना
चाहता।
सरदार पूर्णसिंह
ने लिखा है कि
मुझे बड़ी
हैरानी हुई, क्योंकि
उन्होंने
द्वार बंद
करने को कभी
नहीं कहा था।
और भी स्त्रियाँ
मिलने आयी थीं,
और भी पुरुष
मिलने आए थे, कभी किसी को
मिलने के लिए
मनाही नहीं की
थी; अपनी
ही पत्नी को
मिलने के लिए
मनाही क्यों
की? तो
उन्होंने कहा,
दरवाजा तो
मैं बंद कर
देता हूं, लेकिन
यह प्रश्न
आपने मेरे मन
में उठा दिया।
आपको सब में
परमात्मा
दिखायी पड़ता
है, सिर्फ
अपनी पत्नी
में छोड़कर? आप ही तो
मुझसे कहते
रहे हैं, सभी
में परमात्मा
है। तो सिर्फ
इसी वजह से कि यह
स्त्री आपकी
पत्नी है, इसमें
परमात्मा
नहीं है? इसके
लिए द्वार बंद
करवा रहे हैं?
यह भेदभाव
कैसा? राम
प्रतिभाशाली व्यत्ति
थे, क्षण—भर
में उनको बात
दिखायी पड़ गयी,
उनकी आंख से
ऑंसू
बहने लगे, उन्होंने
कहा, मुझे
क्षमा करो।
द्वार खोलों।
मेरे भीतर डर
होगा। भेद
कैसे हो सकता
है? परमात्मा
सब में है। तो
इतनी—ही—सी
बात से क्या
फर्क पड़ेगा कि
वह मेरी पत्नी
थी कभी? भय
मेरे भीतर है।
मैं डरा होऊँगा।
शायद वह तो
किसी और आसत्ति
के कारण से न
भी आयी हो, लेकिन
मेरे भीतर ही
कहीं कोई भय
छिपा होगा। दरवाजा
खोलों। तुमने
मुझे ठीक
चौंकाया।
तुमने ठीक समय
पर मुझे
चेताया।
अन्यथा यह भूल
मुझसे हो
जाती। इतनी भी
भूल काफी है
परमात्मा से
दूर रहने के
लिए।
जिस
दिन परमात्मा
का अनुभव होगा, उस दिन तुम
सोचते हो
तुम्हारे
बेटे में
परमात्मा
नहीं दिखायी
पड़ेगा? तब
बेटे में भी
वही है, पत्नी
में भी वही
है। पति में
भी वही है। तब
दुकान पर
बैठोगे तो
वहाँ
दुकानदार
होकर बैठे हो जरूर,
ग्राहक में
भी वही दिखायी
पड़ेगा। उसका
ही काम कर रहे
हो। फर्क इतना
ही पड़ता है—अभी
तुम सोचते हो
अपना काम कर
रहे हो, तब
तुम जानोगे
उसका काम कर
रहे हैं; जो
उसकी मर्जी!
अब उसका इरादा
दुकानदार ही
बनाने का है, तो दुकानदार
बनेंगे। अगर
उसका इरादा
कुछ और है तो
कुछ और हो
जाएँगे। उसके
इरादे के अतिरित्त
हमारा अपना
कोई इरादा
नहीं। उसकी
मर्जी हमारी
मर्जी है। ऐसे
समर्पण का नाम
धर्म है।
इसलिए
मैं तुमसे
संसार से
भागने को नहीं
कहता। मैं, तुम
परमात्मा में जागो, इसके
लिए जरूर कहता
हूं। और जागते
ही तुम पाओगे—सारा
संसार उसी से
भरा है। उसी
से आप्लावित
है।
दूसरा
प्रश्न : आपकी
बातों का
अभ्यास करना
कठिन है।
बताएँ कि
ध्यान में किस
का स्मरण करना
चाहिए?
पहली
तो बात, मेरा
जोर अभ्यास पर
नहीं है। मेरा
जोर समझ पर है,
अभ्यास पर
नहीं। मेरी
बातों को
समझो। अभ्यास की
जल्दी मत करो।
लेकिन वह
ग्रंथि भी
हमारे भीतर
गहरी पड़ी है।
समझने की हमें
फिकर नहीं है,
अभ्यास
करना है। तुम
यह बात ही भूल
गए हो कि समझ पर्याप्त
है। मैं तुमसे
कहता हूं—यह
रहा दरवाजा, इससे निकल
जाओ; दाएँ
तरफ मत जाना, वहाँ दीवाल
है, जाओगे
तो टकराओगे।
तुम कहते हो—ठीक,
अब अभ्यास
कैसे करें? मैं तुमसे
कहता हूं—अगर
बात समझ गए कि बायीं तरफ
दरवाजा है, तो अब
अभ्यास क्या
करना है? निकल
जाओ। लेकिन
तुम कहते हो—आपकी
बात तो सुन ली,
लेकिन बड़ी
कठिन है, अभ्यास
तो करना ही
पड़ेगा।
अभ्यास
किस बात का
करना है? इस
बात का अभ्यास
कि दीवाल से
नहीं
निकलेंगे? दीवाल
के सामने खड़े
होकर कसम
खाओगे कि अब
कभी तुझसे न
निकलेंगे? दृढ़
प्रतिज्ञा
करता हूं कि
चाहे लाख
चित्त में
विचार उठें,
भावनाएँ उठें, आकर्षण
उठें, मगर
कभी अब तुझसे
न निकलँगा?
दरवाजे के
सामने कसम
खाओगे कि व्रत
लेता हूं कि
अब सदा तुझसे
ही निकलँगा?
बात समझ में
आ गयी तो
अभ्यास अपने—आप
हो जाता है।
अभ्यास नासमझ
करते हैं।
समझदार तो
सिर्फ देखते
हैं चीजों को।
समझदार समझते हैं,
नासमझ
अभ्यास करते
हैं। अभ्यास
का मतलब ही यह होता
है कि तुम
समझे नहीं।
समझ गए तो
पूछना ही मत
कि अभ्यास
कैसे करें।
जिसको
समझ में आ गया
कि सिगरेट
पीना जहर है, वह यह नहीं
पूछेगा कि अब
मैं इसको छोड़ँ
कैसे? अगर
हाथ में आधी
जली सिगरेट थी,
वहीं से गिर
जाएगी। बस समझ
में आ जाना
चाहिए कि
सिगरेट पीना
जहर है। हाँ, यह समझ में न
आए, सुन तो
लो, समझ
में न आए, तो
सिगरेट हाथ से
नहीं गिरती और
नए सवाल उठते हैं
कि ठीक कहते
हैं आप, कहते
हैं तो ठीक ही
कहते होंगे, आप कहते हैं
तो मेरे हित
में ही कहते
होंगे, अब
अभ्यास कैसे
करूँ? अब
सिगरेट को छाड़ूँ
कैसे?
ज़रा
सोचना, यह मूढ़ता का
लक्षण है, जो
आदमी कहता है
मैं सिगरेट को
छोड़ूँ
कैसे? यह
आदमी मूढ़
भी है और
बेईमान भी। मूढ़ इसलिए
कि इसको एक
सीधी—सी बात
दिखायी नहीं
पड़ रही है और
बेईमान इसलिए
कि यह भी नहीं
देखना चाहता
कि मुझे
दिखायी नहीं
पड़ रही है। बेईमान
इसलिए कि यह
दिखाना यह
चाहता है कि
समझ में तो
मुझे आ गया—मैं
कोई नासमझ
थोड़े ही हूं—समझ
में तो मुझे
बात आ गयी कि
यह काम ठीक
नहीं है, अब
अभ्यास.....।
अभ्यास का
मतलब है, कल
छोड़ँगा; पहले दंड—बैठक
लगाऊँगा,
सिर के बल
खड़ा होऊँगा,
माला फेरूँगा,
मंदिर
जाऊँगा, भजन—कीर्तन
करूँगा—कल छोड़ँगा।
और कल कभी आता
नहीं। कल कभी
आया है, कि
आएगा? कल
भी यह आदमी
यही कहेगा कि
अभी क्या करूँ,
अभ्यास कर
रहा हूं। यह
जिंदगी—भर
अभ्यास
करेगा। यह
दोहरी मूढ़ता
हो गयी।
सिगरेट ही
पीता रहता तो
कम—से—कम उतना
ही समय जाया
हो रहा था। अब
अभ्यास भी हो
रहा है सिगरेट
छोड़ने का। यह
दोहरा समय व्यय
हो रहा है।
पहले ही ठीक
थी बात। उतना
ही काफी था।
तुम
देखते हो, तुम्हें पता
है, तुम्हें
अपनी जिंदगी
से पता है, तुम्हें
अपने पास—पड़ोसियों
की जिंदगी से
पता है, लोगों
की जिंदगी हो
गयी वे सिगरेट
ही छोड़ने में
लगे हैं! जैसे
जिंदगी में एक
ही काम था
करने—योग्य—सिगरेट
छोड़ना। मैं
ऐसे लोगों को
जानता हूं जो
तीस साल से
सिगरेट छोड़ने
में लगे हैं।
मैं उनसे कहता
हूं कि भले
आदमी, अब
छोड़ ही दो, कम—से—कम
छोड़ना ही छोड़
दो। सिगरेट तो
नहीं छूटती, तीस साल
खराब हो गए, अब कम—से—कम
छोड़ना ही छोड़
दो, कम—से—कम
शांति से पिओ,
उतनी भी
शांति तो
रहेगी। कम—से—कम
पीने में थोड़ा
ध्यान तो
रहेगा; मस्ती
से पिओ, कुछ बड़ा, बड़ा
भारी पाप भी
नहीं कर रहे
हो, धुऑं ही बाहर—भीतर
ले जा रहे हो, कोई ऐसा बड़ा
पाप नहीं कर
रहे हो—दो—चार
साल कम भी जिए
तो हर्जा क्या
है! वैसे ही
दुनिया में
बहुत भीड़ है।
तुम ज़रा
जल्दी स्थान
खाली कर दोगे।
इतने परेशान न
होओ।
और तीस
साल हो गए और
तुमसे सिगरेट
नहीं छूटी! और
अगर पचास साल
की कोशिश के
बाद सिगरेट
छोड़कर मरेगा
और परमात्मा
तुमसे पूछेगा
कि क्या करके
आए हो, तो
किस मुँह से
कहोगे कि
सिगरेट छोड़कर
आए हैं! शर्म
आएगी, सिर
झुक जाएगा कि
पचास साल में
सिगरेट छोड़ी।
पहले तो पकड़ी,
यही मूढ़ता
थी; नंबर
एक की गलती तो
वही हो गयी। पकड़ने को
और भी चीजें
थीं दुनिया
में; सिगरेट
पकड़ी! फिर
छोड़ने में
पचास साल लगा
दिए! और तुम
सोचते हो
छोड़कर कोई बड़ा
गुण हो जाएगा।
अक्सर लोग
सोचते हैं—चरित्रवान
अगर कौन; अगर
सिगरेट नहीं
पीता, पान
नहीं खाता, तंबाकू नहीं
खाता—यह
चरित्रवान है!
ये कोई गुणवत्ताएँ
हैं? तब तो
तुम यह भी
कहने लगोगे कल
कि मैं पत्थर
नहीं खाता, मिट्टी नहीं
खाता, ये
भी गुण हो
जाएँगे।
खयाल
रखना, व्यर्थ
की बातों में
न तो पकड़ने
में कुछ सार
है, न
छोड़ने में कुछ
सार है। लेकिन
व्यर्थ की बात
को देख लो, तो
सार है। पहचान
लो, तो सार
है। पहचानने
में ही बात
समाप्त हो
जाती है। मैं
तुम्हें जो दे
रहा हूं सूत्र,
वह ऐसा नहीं
है कि तुम
अभ्यास करो
उसका।
कलकत्ता
में मैं एक घर
में मेहमान
था। एक बहुत
अद्भुत और इस
देश के धनपतियों
में अपने
किस्म के
अद्वितीय
आदमी थे—सोहनलाल
कोठारी। उनका
मुझसे बहुत
लगाव था। रात
मेरे पास बैठे
थे, कहने लगे
कि अब आपसे तो
क्या छिपाना—सत्तर
साल तो उनकी
उम्र हो गयी
थी—कहने लगे, मैंने जीवन
में चार बार
ब्रह्मचर्य
का व्रत लिया।
चार बार? मेरे
साथ एक सज्जन
और बैठे थे, धार्मिक
किस्म के हैं,
वे तो बड़े
प्रभावित हो
गए, उन्होंने
तो उनकी तरफ
ऐसे देखा जैसे
कोई महात्मा
की तरफ देखे।
मैंने उनको
कहा, तुम
ज्यादा
प्रभावित मत
होओ, चार
बार लेने का
मतलब समझते हो?
चार बार
लेने का मतलब
ही क्या होता
है, कि
पहली बार लिया,
काम नहीं
आया; दोबारा
लिया, काम
नहीं आया; तिबारा
लिया, काम
नहीं आया; और
मैंने कहा, पहले यह तो
पूछो कि चौथी
बार काम आया
या फिर पाँचवीं
बार थक गए और
फिर व्रत लेना
बंद कर दिया?
सोहनलाल
ईमानदार आदमी
थे। उन्होंने
कहा, आप ठीक
कहते हैं—उनकी
आंख से ऑंसू
आ गए—कि
पाँचवीं बार
मैंने व्रत
नहीं लिया।
इसलिए नहीं कि
व्रत पूरा हो
गया, इसलिए
कि पूरा होता
ही नहीं था और
बार—बार विषाद
होता था। व्रत
लेकर तोड़ता
था तो
पश्चात्ताप
होता था।
अपराध का भाव पकड़ता था।
तो मैंने सोचा
इस व्रत से
लाभ क्या? इससे
कोई जीवन में
सुगंध तो आती
नहीं—पूरा
होता ही नहीं
तो सुगंध कहाँ
से आए—और हर
बार टूटता है
और आत्मनिंदा
और
आत्मग्लानि
पैदा होती है,
और दुर्गंध
पैदा होती है।
अपने प्रति
बड़ी निंदा का
भाव पैदा होता
है, अपनी
ही ऑंखों
में गिरता
जाता हूं। जब
पहली दफ़ा व्रत
लिया था तो
अपनी ऑंखों
में अपनी थोड़ी
इज्जत थी, चार
बार के बाद
अपनी ऑंखों
में अपनी ही
इज्जत खो गयी।
पाया तो कुछ
नहीं, गँवाया बहुत है।
मैंने
उनसे कहा कि
तुम्हारी कुछ
भूल नहीं। यही
हो रहा है, सदियों से
यही हो रहा
है।
ब्रह्मचर्य
कोई व्रत नहीं
है, अभ्यास
नहीं है कि ले
ली कसम। कसमों
से कहीं जिंदगियाँ
बदली हैं! जिंदगियाँ
समझदारियों
से बदलती हैं,
कसमों से
नहीं बदलतीं।
और कसमें
लेनेवाले
समझदार लोग
नहीं होते। कसम
लेने का मतलब
ही होता है, नासमझ।
समझदार आदमी
को बात दिखायी
पड़ जाती है, कसम क्यों
आदमी लेगा?
कसम का
आधार क्या है? कसम का आधार
यह है कि अभी
मुझे लग रहा
है कि आप जो कहते
हैं, ठीक
है अभी अगर
कसम ले लँ
तो कसम में
बँध जाऊँगा, तो एक
मर्यादा
रहेगी। अगर
थोड़ी देर कसम
लेने से चूक
गया, तो
कहीं समझ फिर
खिसक न जाए।
इसीलिए लोग
साधु—संतों के
समागम में, मंदिर—मस्जिदों
में, धर्म
की प्रभावना
में आकर कसम
ले लेते हैं।
वाह—वाह हो
जाती है, लोग
तालियाँ बजा
देते हैं।
उनकी तालियाँ,
उनकी वाह—वाह,
अहंकार को
आता मजा, महात्मा
का आशीर्वाद,
ले ली कसम, उस वत्त
उन्हें याद
नहीं अपनी, अपने अचेतन
की, अपने
मन की
वृत्तियों की,
अपने अतीत
की, कुछ भी
याद नहीं। यह
क्षण का
प्रभाव है; घर पहूंचते—पहूंचते अड़चनें
शुरू हो
जाएँगी। घर पहूंचते—पहूंचते
पछताने
लगेंगे कि यह
मैंने क्या कर
लिया? लेकिन
अब किससे कहो?
अब कहना ठीक
भी नहीं है।
अब चुपचाप
साधो। अब किसी
तरह अपने को बाँधो। और
जितना तुम बाँधोगे,
उतना ही तुम
पाओगे कि वेग
प्रबल होता
चला जाता है।
जीवन
को बदलने के
ये रास्ते
नहीं हैं।
समझो! ब्रह्मचर्य
की तो बात ही
मत उठाना, काम—वासना
को समझो। काम—वासना
की समझ पूरी आ
जाए तो एक दिन
तुम अचानक पाते
हो कि काम—वासना
की जो तुम पर
पकड़ थी, वह
खो गयी, तुम
अब उसकी
मुट्ठी में
नहीं हो।
ब्रह्मचर्य
का व्रत नहीं
लेना पड़ता, काम—वासना
एक दिन
तुम्हारे
जीवन से सरक
जाती है, हट
जाती है।
हटाना पड़े, तो खतरा है, लौटकर आएगी।
क्योंकि
जिसको तुमने
हटाया है, वह
तुमसे बदला
लेगी। अपने—आप
हट जाती है।
बोध का जीवन
चाहिए। अपनी
काम—वासना को
समझो। इतनी घबड़ाहट भी
क्या है, इतनी
जल्दी भी क्या
है? अपनी
काम—वासना को
ध्यानपूर्वक,
विचारपूर्वक,
मनोयोगपूर्वक भोगो।
महात्माओं को
बीच में मत
आने दो। अपने अनुभव
से ही सीखो।
इस दुनिया में
कोई किसी दूसरे
के अनुभव से न
कभी सीखा है, न सीख सकता
है। वहीं
तुम्हारी भूल
हो रही है। तुम
दूसरों के
अनुभव को अपना
अनुभव बनाना
चाहते हो।
इतनी सस्ती
होती दुनिया,
तो एक
महावीर के मुक्त
होते ही सारी
दुनिया मुक्त
हो गयी होती।
और एक बुद्ध
के मुक्त
होते ही सारी
दुनिया मुक्त
हो गयी होती।
और एक रज्जब
घोड़े से उतर
गया था, सब
घोड़े से उतर
गए होते।
रज्जब घोड़े से
उतर गया, यह
कोई अभ्यास
नहीं था।
खयाल
करना, यह एक
क्षण में घटी
थी घटना।
रज्जब ने यह
नहीं कहा कि
ठीक कहते हैं
महाराज, हे
दादू दयाल, आप ठीक ही
कहते हैं, अब
मैं अभ्यास
करूँगा। एक
दिन जरूर
सत्संग में
हाजिर होऊँगा।
आपने ठीक कहा,
विचारूँगा,
अभ्यासँगा,
आऊँगा। और बैंडवालों
से कहते कि
चलो आगे बढ़ो!
घोड़े की लगाम
और जोर से पकड़
लेते। और अगर
जबर्दस्ती
कोई घोड़े से
उतर जाए तो
खतरा यह नहीं
कि घोड़े से
उतर जाए, खतरा
यह है कि घोड़े
को सिर पर ले
ले। घोड़े से
उतरने में
उतना उपद्रव
नहीं है, घोड़े
को ऊपर ले
लेने में भारी
उपद्रव है।
वही हो जाता
है। विपरीत का
अभ्यास शुरू
हो जाता है।
काम—वासना
तुम्हें पकड़ती
है जोर से, तुम
ब्रह्मचर्य
का अभ्यास
करने लगते हो।
काम—वासना
पकड़ती है
तो काम—वासना
को समझो!
परमात्मा की
देन है, जरूर
कुछ राज़
होगा। जरूर
वहाँ कुछ
रहस्य का
खजाना छिपा
है। मैं तुमसे
कहता हूं—तुम्हारी
कामवासना में
ही तुम्हारे
ब्रह्मचर्य
का खजाना छिपा
है। अगर तुम
काम—वासना में
गहरे उतर जाओ,
तो तुम इसी
में छिपे हुए
ब्रह्मचर्य
की सुगंध पाओगे।
और तब वह व्रत
नहीं होगा, अभ्यास नहीं
होगा, सहजयोग होगा।
अनुभव से
आएगा। चुपचाप
आ जाएगा।
शोरगुल भी न
होगा। किसी को
कानोंकान पता
भी नहीं
चलेगा। तुम भी
चौंकोगे
कि इतने जोर
से जिस वासना
ने पकड़ा था, वह ऐसे चली
गयी जैसे कभी
उसने पकड़ा ही
न था।
तुम्हें
पता है, एक
दिन तुम छोटे
बच्चे थे और
काम—वासना की
कोई पकड़ नहीं
थी। तुम्हें
वे दिन भूल
गए। चौदह साल
की उम्र में
काम—वासना का
प्रवाह, प्रबल
वेग तुम पर
आया था। लेकिन
उसके पहले भी दिन
थे, तब तुम
बिना काम—वासना
के भी जिए हो।
फिर वैसे दिन
आ सकते हैं। लेकिन
जबर्दस्ती
नहीं आएँगे वे
दिन; थोप—थोपकर
लाओगे तो नहीं
आएँगे वे दिन।
जो परमात्मा
देता है, उसे
जीओ; उसे
भोगो; उसमें
उतरो; ध्यानपूर्वक,
धन्यवादपूर्वक,
कृतज्ञता
से, और तुम
चकित हो जाओगे—तुम्हें
जो भी जीवन
में मिला है, उसमें कुछ
भी ऐसा नहीं
है जो व्यर्थ
हो। अगर आज
व्यर्थ है, तो तुम उसी
में छिपे हुए
कल सार्थक को
पाओगे।
ऐसा ही
समझो कि किसी
आदमी ने अपने
घर के बाहर गोबर
का ढेर लगा
रखा है। बड़ी
बदबू फैल रही
है। यही गोबर बगीचे में
छितरा दो, खाद बन जाए, फूलों में
सुगंध हो जाए।
यही दुर्गंध
कमल में खिलेगी,
गुलाब में खिलेगी, चंपा—चमेली—जूही
में खिलेगी।
यही दुर्गंध
अनंत—अनंत
सुगंधों का
रूप ले लेगी।
मैं इसी
रूपांतरण का
पक्षपाती हूं।
तुम
पूछते हो—आपकी
बातों का
अभ्यास करना
कठिन है। कठिन
क्या, असंभव
ही है।
क्योंकि
अभ्यास पर
मेरा जोर ही नहीं
है। तुम मेरी
बातों का
अभ्यास करना
ही मत। तुम तो
मेरी बातों को
समझ लो। मगर
तुम्हारी तकलीफ
भी समझता हूं,
तुम समझने
में उत्सुक
नहीं हो। जब
मैं समझा रहा हूं
तब भी तुम भीतर
गणित बिठा रहे
हो कि इसका
अभ्यास कैसे
करें? जब
मैं तुम्हें
समझा रहा हूं
तब भी तुम
समझने में
पूरे डूब नहीं
रहे हो। तब तुम
मेरे साथ लीन
नहीं हो रहे
हो। तब तुम
भीतर अपना
हिसाब बिठा
रहे हो कि ठीक
है, यह बात
जँचती है, इसको
ऐसा करके दिखा
देंगे। तुम
अपने हिसाब के
कारण मुझसे
चूके जा रहे
हो।
यहाँ
लोग आ जाते
हैं, जो जल्दी
से अपनी
नोटबुक
निकालकर
उसमें नोट करने
लगते हैं। तुम
पागल हो! नोट
करने से क्या
होगा? मैं
जो कह रहा हूं,
उसे समझो!
लेकिन वे
सोचते हैं
किताब में नोट
कर लिया, फुरसत
से घर में
समझेंगे।
मेरे साथ न
समझ पाए, फुरसत
से तुम घर में
समझोगे? मेरे
साथ एकरस होकर
डूबो।
अभ्यास
इत्यादि की
बकवास छोड़ो।
मैं तुम्हें
अभ्यासी नहीं
बनाना चाहता।
मैं तुम्हें सहजयोग
देना चाहता हूं।
मैं तुम्हें
रोशनी देना
चाहता हूं समझ
की, प्रज्ञा
की। मैं
तुम्हें दीया
देना चाहता हूं
ध्यान का। तुम
पूछते हो
नक्शा। तुम
कहते हो—हमें
ठीक—ठीक बता
दो, स्टेशन
जाना है, बाएँ
घूमें, दाएँ घूमें,
फिर
चौरस्ता
पड़ेगा, कि
इमली का झाड़
आएगा, कि
पीपल का झाड़
आएगा, आप
हमें नक्शा दे
दो। आप हमें
ठीक—ठीक दिशा
दे दो, फिर
हम अभ्यास
करते हुए निकल
जाएँगे। मैं
तुमसे कहता हूं—मैं
तुम्हें दीया दँगा और
तुम्हें ऑंखें
दँगा, ताकि
तुम खुद ही
राह के किनारे
लगे पत्थरों
पर लगे
निशानों को पढ़
लेना, तीरों
को देख लेना; विस्तार की
बातें
तुम्हें
क्यों दँ?
एक
अंधा आदमी
कहता है कि
मुझे समझा दें
शास्त्र में
क्या लिखा है।
कितने
शास्त्र उसे समझाऊँगा? मैं उससे
कहता हूं—तेरी
आंख का इलाज
ही किए देते
हैं। फिर तू
ही शास्त्र पढ़
लेना। फिर
सारा जीवन का
शास्त्र तुझे
उपलब्ध हो
जाएगा।
एक
बूढ़ा आदमी था।
सत्तर साल का
हुआ, उसकी
दोनों ऑंखें
चली गयीं।
होशियार था, अनुभवी था—चतुर
था। वैद्यों
ने कहा कि
चिकित्सा हो
सकती है, आंख
का ऑपरेशन
करवाना होगा।
उसने कहा—क्या
सार! फिर मेरे
घर कमी क्या
है? आठ
मेरे लड़के, उनकी सोलह ऑंखे; आठ
उनकी बहुएँ
हैं, उनकी
सोलह ऑंखें—बत्तीस
ऑंखें—दो
मेरी पत्नी की
ऑंखें—चौंतीस
ऑंखें; चौंतीस ऑंखें
मेरे पास
उपलब्ध हैं, दो मेरी ऑंखें
रहीं कि न रहीं,
क्या फर्क
पड़ता है? काम
चला लँगा।
लेकिन संयोग
की बात, कुछ
ही दिन बाद
उसके महल में
आग लग गयी। वे
चौंतीस ऑंखें
एकदम बाहर हो
गयीं। उन
चौंतीस ऑंखों
को याद भी न
आयी। आयी याद,
बाहर जाकर
आयी। सब भागे!
जब जीवन पर
संकट हो, तो
अपना प्राण
कोई पहले
बचाना चाहता
है। याद ही
नहीं आता है।
कोई सोच—विचार
कर थोड़े ही
भागता है। घर
में लपटें
उठीं, लोग
भागे। जो जहाँ
से निकल सका, द्वार—दरवाजे—खिड़की
से, छलाँग
लगाकर बाहर हो
गया। बाहर जब
सब पहूंच गए, सुरक्षित, साँस ली
सुरक्षा की, तब सबको याद
आया कि यह
क्या हुआ? बूढ़े
पिता को हम
भीतर ही छोड़
आए। और अब तो
भीतर जाना भी
कठिन है, लपटें
बढ़ गयी हैं।
अंधा बाप
द्वार—द्वार
दरवाजे—दरवाजे
से टटोलकर
निकलने की
कोशिश करने
लगा और जगह—जगह
जलने लगा। उस
जलते बाप की
दशा का
तुम्हें अनुभव
है? सोचो
थोड़ा, ध्यान
करना उस पर।
उस
क्षण उसे याद
आया कि समय पर
अपनी ही आंख
काम आती है।
मगर अब बहुत
देर हो चुकी
थी। जब जरूरत
न हो तो
दूसरों की ऑंखें
भी काम आ सकती
हैं। लेकिन जब
असली जरूरत हो, तो अपनी ही आंख
काम आती है।
मैं
तुम्हें
तुम्हारी आंख
कैसे खुल जाए, बस इसकी
प्रक्रिया
देना चाहता हूं।
अभ्यास
इत्यादि से
मुझे कोई रस
नहीं है। तुम
अपने पर थोपो
मत। अभ्यास का
अर्थ होता है—थोपना,
जबर्दस्ती
ठोंकना—पीटना,
अपने को
किसी तरह
ढालना। ऐसा
ढाला हुआ
चरित्र मेरी
दृष्टि में
दुष्चरित्रता
है। एक सहज आविर्भूत
चरित्र होता
है। सादगी से
जो उठता है, वही साधु
है। आरोपित
अभ्यास से जो
आता है, वह
साधु इत्यादि
नहीं है। ऊपर—ऊपर
साधु है, भीतर
असाधु बैठा है;
जो कभी भी
प्रगट हो
जाएगा। लेकिन
तुम्हें यही बताया
गया है कि
अभ्यास करो।
हर काम अभ्यास
से करना
सिखाया गया
है।
नहीं, जीवन के परम
सत्य अभ्यास
से नहीं
मिलते। परमात्मा
मौजूद है, अभ्यास
की जरूरत नहीं
है, सिर्फ
समझ लेना
चाहिए। अब तुम
कहोगे—समझ!
समझ से क्या
अर्थ है? समझ
से केवल इतना
अर्थ है कि
तुम अपने पिटे—पिटाये
विचारों से मन
को खाली कर
लो। उनसे
तुम्हें कुछ
लाभ तो नहीं
हुआ है, मगर
तुम उनको ढोए
चले जा रहे
हो। उन्हीं की
वजह से समझ
तुम्हारी दब
गयी है।
अन्यथा हर
आदमी
बुद्धत्व की
क्षमता लेकर
पैदा होता है।
हर आदमी
कोहिनूर हीरा
है। लेकिन कूड़ा—करकट
में दब गया
है। और मजा
ऐसा है कि कूड़ा—करकट
को तुम समझते
हो बड़ा
मूल्यवान है।
तुम उसे छाती
से लगाकर बैठे
हो। हीरा गँवा
रहे हो, कचरे
को छाती से
लगाकर बैठे
हो। कचरे को छोड़ो।
तुमने
जो विचार सुन
रखे, हैं, शास्त्रों
से पढ़ लिए हैं,
पंडित—पुरोहितों
से तोतों की
तरह कंठस्थ कर
लिए हैं, उन
सबके कारण
तुम्हारा
अपना हीरा
नहीं जगमगा पा
रहा है। तुमने
यह भी सुन रखा
है कि अभ्यास
करना होगा।
नहीं, अभ्यास
का कोई प्रश्न
नहीं है। घर
से कचरा फेंकने
का कोई अभ्यास
करना होता है!
कचरा कचरा
दिखायी पड़ा कि
तुमने फेंका।
फिर तुम जाकर
गाँव में कोई डुंडी
थोड़े ही पीटते
हो कि आज
मैंने कचरे का
त्याग कर दिया,
कि देखो, मुझ जैसा महातपस्वी
कोई भी नहीं
है, कि
देखो कितना बड़ा
ढेर लगा आया हूं
घर के बाहर।
तुम्हारे
अभ्यासी धन
छोड़ देते हैं,
मकान छोड़
देते हैं, तो
फिर घोषणा
करते फिरते
हैं कि
उन्होंने इतना
त्याग कर दिया
है।
जो
कहता है मैंने
त्याग कर दिया
है, वह यही कह
रहा है कि अभी
त्याग की घड़ी
नहीं आयी थी, अभी कचरा कचरा
दिखायी नहीं
पड़ा था; अभी
कचरे में
भ्रांति थी धन
की, संपदा
की। मैं तुमसे
सिर्फ समझने
को कहता हूं।
सुनो, गुनो;
शांत होकर
अपने भीतर जो—जो
व्यर्थ है, जो कुछ काम
में नहीं आया
है—अगर काम
में ही आ गया
तो फिर तो
मुझसे पूछने
की कोई जरूरत
नहीं—जो काम
में नहीं आया
है—तभी तो तुम
यहाँ आए हो—अब
उसे छोड़ो।
लेकिन तुम उसे
लेकर यहाँ आ
जाते हो। तुम
उसके पर्दे की
आड़ से
मुझे सुनते हो,
इसलिए चूक
जाते हो; फिर
अभ्यास का
सवाल उठता है।
कोई
हिंदू बना
बैठा है, कोई
मुसलमान बना
बैठा है, कोई
जैन बना बैठा
है, वह
मुझे सुन रहा
है वहाँ, लेकिन
बीच में हिंदू—धर्म
खड़ा है। बीच
में न—मालूम
कितने
महात्मा खड़े
हैं; ऋषि—मुनि
खड़े हैं, कतार
लगी है। एक
ऋषि मेरी बात
लेता है, वह
दूसरे ऋषि को
देता है, उसमें
कुछ गड़बड़ हो
जाती है, वह
तीसरे ऋषि को
देता है, और
गड़बड़ हो गयी, तुम तक पहूंचते—पहूंचते
बात बिल्कुल
विकृत हो जाती
है। तुम सीधा
सुनो। यह बीच
से ऋषि—मुनियों
को नमस्कार
करो। इनको कहो
कि यह कोई बस
नहीं है, यहाँ
किसलिए
"क्यू' लगाये
खड़े हो? अपने—अपने
घर जाओ। मुझे
अकेला छोड़ो।
मुझे सीधा—सीधा
आमना—सामना कर
लेने दो।
तुम्हारी
बातें सुन
चुका बहुत, होना होता
हो गया होता।
फिर ये ऋषि—मुनि
कोई जिंदा भी
नहीं हैं। ये
सब मुर्दा हैं।
ये कभी जिंदा
रहे होंगे। और
हो सकता है
तुम इनको भी
सुनने गए हो
और इनको भी
चूक गए हो, क्योंकि
तब दूसरे
मुर्दा ऋषि—मुनि
तुम्हारे और
इनके बीच में
खड़े रहे होंगे।
ऐसा अद्भुत
खेल है।
तुमने
बुद्ध को भी
सुना है, तुमने
महावीर को भी
सुना है, लेकिन
महावीर को जब
सुन रहे थे तब
पतंजलि महाराज
बीच में खड़े
थे अब तुम
मुझे सुन रहे
हो अब महावीर
बीच में खड़े
हैं। कल तुम
किसी और को सुनोगे
भविष्य में, तब मैं
तुम्हारे बीच
में खड़ा हो जाऊंगा।
लेकिन तुम
सीधा—सीधा कब सुनोगे? तुम रोशनी
सीधी कब देखोगे?
इन ऑंखों
को हटाओ, उधार ऑंखों
को हटाओ।
खाली होकर, शांत होकर
सुनो। सुनने
में से ही
तुम्हें सूत्र
मिल जाएगा, अभ्यास नहीं
करना होगा।
मैं तुम्हें
तत्क्षण
क्रांति देने
का आश्वासन दे
रहा हूं। मैं
तुमसे यह कह
रहा हूं कि
तुम यहीं से
बदलकर जा सकते
हो—आज ही, कल
तक टालने की
जरूरत नहीं—लेकिन
तुम कहते हो, आज कैसे? कुछ
अभ्यास बताओ
आप, तो कुछ
अभ्यास
करेंगे साल—छः
महीने, दो—चार
साल, फिर
धीरे—धीरे
बदलेंगे। तुम
बदलना नहीं
चाहते। तुम बेईमान
हो। तुम बदलना
नहीं चाहते, बदलने का
थोथा ढोंग
रचना चाहते
हो। इसलिए तुम
पूछते हो—कल।
तुम पूछते हो—परसों।
जैन—शास्त्रों
में एक कथा
है। एक युवक
महावीर को सुनकर
लौटा। वह अपने
स्नानगृह में
बैठा है, उसकी
पत्नी उबटन
लगाकर उसको
नहला रही है—पुरानी
कहानी है, अब
तो काई पत्नी
किसी पति को
नहलाती नहीं।
पति नहा
भी रहे हों तो
दरवाजा
खटखटाती रहती
हैं कि निकलो,
कब तक "बाथरूम'
में घुसे
रहोगे? और
भी काम हैं
दुनिया में कि
बस नहा
रहे हो! वे दिन
पुराने थे।
उबटन लगा रही
थी। शरीर को
साफ करके नहला
रही थी। दोनों
की बात होने
लगी। पत्नी ने
कहा कि महावीर
को सुनकर लौटे
हो, मेरे
भाई भी सुनने
जाते हैं; मेरे
भाई तो इतने
प्रभावित हुए
हैं कि वे
कहते हैं कि
दो—चार साल
में संन्यस्त
हो जाऊँगा।
उसका पति हूंसने
लगा। उसने कहा—संन्यास
और दो—चार साल
में! कल का
भरोसा नहीं है,
क्षण का
भरोसा नहीं
है! पत्नी ने
कहा कि मुझे मालूम
है, वे अभी
घर में ही
रहकर अभ्यास
कर रहे हैं।
जब अभ्यास
पूरा हो जाएगा
तो सब छोड़
देंगे। पर भाई
ने कहा—मौत
पहले आ सकती
है, सब
अभ्यास पड़ा रह
जाएगा। और
अभ्यास क्या
करना है! अगर
बात दिखायी पड़
गयी है कि घर
में आग लगी है,
तो तुम
अभ्यास करते
हो निकलने का!
तुम कहते हो, निकलेंगे
अभ्यास करके?
तुम
तत्क्षण निकल
जाते हो। पति
की ऐसी बात—और
पत्नियाँ
अक्सर अपने
भाई और अपने
परिवार और
अपने माँ और
बाप के पक्ष
में होती हैं—उसने
कहा, तुमने
समझा क्या है
मेरे भाई को? तुम भी
सुनने जाते हो,
क्या तुम
समझते हो कि
इसी क्षण तुम
संन्यास ले
सकते हो? वह
युवक उठकर खड़ा
हो गया। वह
दरवाजा खोलकर
बाहर निकलने
लगा—नग्न था, स्नान कर
रहा था—पत्नी
ने कहा कहाँ
जा रहे हो? उसने
कहा—बात खतम
हो गयी; कोई
अभ्यास थोड़े
ही करूँगा, बात खतम हो
गयी, नमस्कार!
पत्नी
चिल्लाने लगी
कि यह तो मजाक
थी, यह तुम
क्या कर रहे
हो? उसने
कहा—संन्यास
कोई मजाक नहीं;
संन्यस्त हो
ही गया।
सारा
गाँव इकट्ठा
हो गया यह
देखने, इस
तरह का
संन्यास किसी
ने देखा नहीं
था। लोग अभ्यास
करते हैं, लोग
धीरे—धीरे एक—एक
कदम चढ़ते
हैं—पहली सीढ़ी,
दूसरी सीढ़ी.....और
जैनों में तो,
दिगंबर
जैनों में
पाँच सीढ़ियाँ
होती हैं; दिगंबर
होने तक तो
पाँचवीं सीढ़ी
पूरी जिंदगी
लग जाती है।
मरते—मरते तक
आदमी जाकर
नग्न
संन्यासी हो
पाता है। यह
जवान आदमी, अभी कुछ
वर्ष पहले
इसका विवाह
हुआ था! पड़ोस
के लोग इकट्ठे
हो गए इसको
नग्न दरवाजे
पर खड़ा देखकर
कि तुम्हें
क्या हो गया? उसने कहा—कुछ
नहीं हो गया, मुझे बात
दिखायी पड़ गयी;
मैं महावीर
का अनुगृहीत हूं,
उससे भी
ज्यादा
अनुगृहित
अपनी पत्नी का
हूं, उसने
चोट ठीक मार
दी। आज ही
सुनकर लौटा था,
मन में बात गँज रही थी
और उसने चोट
मार दी। उसने
कहा कि क्या तुम
अभी छोड़ सकते
हो? बस बात
दिखायी पड़ गयी,
छोड़ने—योग्य
जो है या तो
अभी छोड़ा जाता
है, या कभी
नहीं छोड़ा
जाता।
इस
स्थिति को मैं
कहता हूं समझ।
फिर कोई पीछे
लौटकर देखता
है?
तुम
पूछते हो—"आपकी
बातों का
अभ्यास करना
कठिन है'।
अभ्यास हो ही
नहीं सकता।
असंभव ही है।
पूछने वाले
मित्र का नाम
बताता है कि
अड़चन कहाँ से
आती होगी, नाम
है—चंद्रशेखर
शास्त्री।
शास्त्र से
अड़चन आती
होगी।
शास्त्र की
जानकारी अड़चन
डालती होगी।
अब यह देखते
हैं, यह जो
युवक
स्नानगृह से
निकलकर
संन्यस्त हो गया,
यह कोई
शास्त्री तो
नहीं था इतना
पक्का है। यह
कोई
शास्त्रीय
ढंग है
संन्यास का? इससे ज्यादा
अशास्त्रीय
ढंग और क्या
होगा? मगर
इसको ही मैं
सहज संन्यास
कहता हूं। एक
झलक और बात
बदल गयी। एक
हवा का झोंका
और धूल उड़
गयी।
अभ्यास
तो करना ही मत
मेरी बातों का, नहीं तो तुम
पगला जाओगे।
ये बातें
अभ्यास की नहीं
हैं।
पूछा
है—"फिर बताएँ
कि ध्यान में
किसका स्मरण
करना चाहिए'? फिर आया
शास्त्र।
किसका स्मरण?
ध्यान का
अर्थ ही होता
है कि चित्त
शून्य हो जाए।
किसका स्मरण
तो मतलब हुआ
कि फिर भरा
रहेगा, फिर
कुछ—न—कुछ भरा
रहेगा। किसी
के मन में
फिल्मी गीत
भरा है—"लारे
लप्पा'.....—और
कोई बैठे
हरिभजन कर रहे
हैं; "लारे लप्पा' से
कुछ भिन्न
नहीं है। सब
शब्द एक—जैसे
हैं। कोई अंतर
नहीं। तुम जब
बैठे—बैठे
दोहरा रहे हो—राम—राम,
राम—राम, राम—राम, तुम
क्या कर रहे
हो? तुम
इतना ही कह
रहे हो कि तुम
खाली नहीं बैठ
सकते। तुम
इतना ही कह
रहे हो कि
चित्त को तुम
थोड़ी देर के
लिए भी विराम
नहीं दे सकते,
विश्राम
नहीं दे सकते।
या तो पैसे की
सोचोगे, या
बाजार की
सोचोगे। अगर
बाजार और पैसे
की नहीं सोचना,
तो कुछ और
सोचोगे—मगर
सोचना जारी
रखोगे।
ध्यान
का अर्थ है, सोचना न चले;
सोचना छूट
जाए। ध्यान
में किसी का
स्मरण नहीं करना
होता। स्मरण
की वजह से ही
तो ध्यान रुका
है, अवरुद्ध
है। ध्यान
तुम्हारा
स्वभाव है, किसी का
स्मरण नहीं
है। सब स्मरण
चला जाए कुछ भी
स्मरण न रहे, तुम कोरे रह
जाओ, जैसे
कोरा दर्पण, जिसमें कोई
प्रतिबिंब न
बनता हो—न
बाजार का, न
मंदिर का; न
संसार का, न
मोक्ष का; न
याद आती हो धन
की, न याद
आती हो धर्म
की; कोई
याद ही न आती
हो, कोरा
दर्पण रह गया
हो, कोई
प्रतिबिंब न
बनता हो, तरंग
न उठती हो, निस्तरंग दशा का नाम
ध्यान है।
अब तुम
मुझसे पूछते
हो—किसका
स्मरण करें? मैं
तुम्हारा कोई
दुश्मन हूं कि
तुम्हारा
ध्यान खराब करवाऊँ? अगर मैं कहूं
कि यह स्मरण
करो, तो
मैं तुम्हारे
ध्यान को नष्ट
करने का कारण
बना। मगर मैं
तुम्हारी
तकलीफ समझता हूं,
तुम्हारी
तकलीफ यह है
कि आदत
तुम्हारी ऐसी
विकृत हो गयी
है कि एक क्षण
को तुम खाली
नहीं हो सकते,
तो तुम कहते
हो कि चलो
संसार का
स्मरण नहीं करेंगे,
आप हमें कोई
मंत्र ही बता
दें—नमोंकार
मंत्र ही बता
दें, कि
कोई और मंत्र
बता दें.....मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
पूछते हैं—आलंबन
कुछ तो दे
दें। कोई
सहारा तो
चाहिए। मैं कह
रहा हूं—सब
सहारे छोड़ दो,
क्योंकि सब
सहारे
विजातीय हैं,
बेसहारा हो
जाओ, उसी
बेसहारा
अवस्था में
तुम्हारे
भीतर जो सोया
पड़ा है वह जागेगा।
जब तक सहारे
रहेंगे, वह
नहीं जागेगा।
मैं कहता हूं—तुम
सब बैसाखियाँ
छोड़ दो; तुम
कहते हो—यह
बैसाखी हम छोड़
देंगे, मगर
आप कोई दूसरी
तो दो। लकड़ी
की नहीं होगी
बैसाखी, चलो
सोने की दे दो;
मगर बैसाखी
तो चाहिए ही!
क्या फर्क
पड़ेगा, लकड़ी
की है कि
प्लास्टिक की
है कि सोने की
है कि लोहे की
है, बैसाखी
बैसाखी
है। बैसाखी की
वजह से तुम
निर्भर रहोगे,
गुलाम
रहोगे, परतंत्र
रहोगे।
बैठकर
तुम राम—राम
जपते रहो, कुछ फर्क
नहीं पड़ेगा।
मैं तुमसे कहा
रहा हूं—अजपा।
जपो ही मत, तभी
असली जप शुरू
होता है। यह
बात तुम्हें
विरोधाभासी
लगेगी, मगर
मेरी भी
मजबूरी है, यह बात ही
ऐसी है, मैं
भी क्या करूँ?
अजपा ही
असली जप है।
और जब सब नाम
खो जाते हैं, तो असली नाम
का स्मरण शुरू
होता है। और
जहाँ न हरिनाम
है और न राम का
नाम है, वही
हरिभजन है; जहाँ
बिल्कुल
चित्त
निर्विकार है,
उस चित्तदशा
का नाम ध्यान
है। ध्यान
स्वभाव है।
तीसरा
प्रश्न : आपने
कल कहा कि
प्रेम को
तोड़ना मत, क्योंकि
प्रेम ही
प्रवेश—द्वार
है परमात्मा
का। मेरा
प्रेम सपनों—भरा
है, इस बोध
से प्रेम
टूटने लगता
है। क्या करूँ
कि प्रेम रहे
लेकिन सपना
टूट जाए?
मैं
जिस प्रेम की
बात कर रहा हूं, तुम उस
प्रेम की बात
नहीं समझ रहे
हो। मैं कुछ कह
रहा हूं, तुम
कुछ समझ रहे
हो। तुम्हारा
तो प्रेम सपना
ही है। तो
जैसे ही तुम
याद करोगे कि
यह सपना है, तुम्हारा
प्रेम टूट
जाएगा। जो
प्रेम याद करने
से कि यह सपना
है, टूट
जाए, जान
लेना वह प्रेम
झूठा है, अभी
असली प्रेम
जन्मा नहीं।
जो प्रेम यह
सपना है ऐसा
जानने पर भी न
टूटे, सपना
टूट जाए और
प्रेम बहता
रहे, तो
जानना कि असली
प्रेम का
आविर्भाव हुआ
है। यही कसौटी
है।
जिस
बात को सोचने
से कि यह सपना
है, समाप्त
हो जाती हो, जाहिर है कि
वह सपना ही
थी। तुमने कभी
रात प्रयोग
करके देखा
सपने में—करके
देखो, न
देखा हो तो; कीमती होगा,
गहरे अनुभव
में ले जाएगा।
रोज रात सोते
समय एक बात
याद करके सोओ
कि आज जब मुझे
सपना दिखायी पड़ेगा,
तो मुझे एक
बात एकदम से
याद आ जाएगी
कि यह सपना है।
ऐसा एक ही रात
में नहीं हो
जाएगा। लेकिन
तीन महीने और
छः महीने के
बीच, अगर
तुम रोज नियम
से यह स्मरण
करके सोते रहे
तो यह घटना
घटेगी। और
घटेगी तो
तुम्हें बड़ा अद्भुत
अनुभव दे
जाएगी। रोज
सोते वत्त—और
जब मैं कहता हूं
सोते वत्त, तो मेरा
मतलब यह नहीं
कि आधा घंटे
पहले, घंटे
भर पहले—जब
ठीक तुम जागने
से नींद में
जा रहे हो, जब
जागना समाप्त
हो रहा है और
नींद उतर रही
है, जब पहले—पहले
नींद के हल्के
झोंके आने
लगें, थोड़े—से
जागे भी हो और
थोड़े—से सो भी
गए—तंद्रा की
दशा है—एकदम
सो भी नहीं गए
हो, रास्ते
पर चलती हुई
कारों की आवाज
सुनायी पड़ रही
है; एकदम
सो भी नहीं गए
हो, बच्चा
रो रहा है, उसकी
आवाज दूर से
आती हुई मालूम
पड़ रही है; लेकिन
एकदम जागे भी
नहीं हो; मध्य
में हो, जागने
से सोने की
तरफ जा रहे हो,
जल्दी ही सब
खो जाएगा, अंधकार
उतर रहा है, जल्दी ही
अंधकार घेर
लेगा, यह
घड़ी है याद
करने की; इस
घड़ी में याद
करते सोओ कि
आज रात जब
मुझे सपना आए,
तो याद भी
आए एकदम से प्रगाढ़ता
से कि यह सपना
है। तीन और छः
महीने के बीच
किसी दिन यह
याद आएगी। निश्चित
आएगी। मन के
नियम के
अनुसार आनी ही
चाहिए। और जिस
दिन यह याद
सपने में आएगी
कि यह सपना है,
तुम चकित हो
जाओगे, उसी
समय, ठीक
उसी क्षण सपना
टूट जाएगा।
उसी क्षण नींद
खुल जाएगी। एक
क्षण भी नहीं खोएगा।
लेकिन
ये वृक्ष हरे, इनके पास
तुम बैठकर
सोचते रहो, तीन महीने
से छः महीने
तक कि यह सपना
है; तीन
साल से लेकर
छः साल तक, या
तीन जन्मों से
लेकर छः
जन्मों तक कि
यह सपना है, तो भी वृक्ष
विदा नहीं हो
जाएगा।
तुम्हारे सपना
कहने से वृक्ष
विदा नहीं हो
जाएगा। वृक्ष
रहेगा। तुम कितना
ही कहो सपना
है, लाख
समझाओ कि सपना
है, सपना
मानकर अगर
वृक्ष में से
निकलने की
कोशिश करोगे—तो
सिर टूटेगा।
यथार्थ यथार्थ
है, तुम्हारे
सोचने से
बदलता नहीं।
हा,ँ लेकिन
सपना सपना
है, तुम्हारे
सोचने से बदल
जाता है।
तुमने
पूछा है—आप
कहते हैं
प्रेम को
तोड़ना मत, क्योंकि
प्रेम ही
प्रवेश—द्वार
है परमात्मा
का। निश्चित
कहता हूं
प्रेम को
तोड़ना मत, लेकिन
इसका यह मतलब
नहीं है कि
मैं कह रहा हूं
प्रेम को
सपनों से
जोड़ना। सपनों
से तो तोड़ना ही,
प्रेम को मत
तोड़ना, प्रेम
के ही दुश्मन
मत हो जाना, प्रेम को ही
नष्ट करने मत
लग जाना। ऐसा
तुम्हारे
साधु—संन्यासी
करते रहे हैं।
प्रेम को ही
नष्ट कर देते
हैं—घबड़ाहट
में— क्योंकि
उन्हें एक डर
पैदा हो गया
कि प्रेम जब
भी होता है, सपनों में
ले जाता है।
प्रेम है, तो
डर है। ज़रा—सा
प्रेम लग जाए
और उपद्रव
शुरू हो जाता
है। छोटा—सा
प्रेम, छोटा—सा
लगाव, पूरा
संसार उसके
पीछे चला आता
है।
मैंने
सुना है, एक
महात्मा मर
रहा था। उसके
शिष्य ने उससे
पूछा कि
गुरुदेव, अब
आप जाते हैं, कोई आखिरी
संदेश? मरते
महात्मा ने आंख
खोली और कहा—एक
बात खयाल रखना,
कभी बिल्ली
मत पालना। और
वह मर गया।
इसकी व्याख्या
भी नहीं कर गया
कि मामला क्या
है! अब यह किसी
शास्त्र में लिखा
भी नहीं है कि
बिल्ली मत
पालना। शिष्य
ने बहुत
शास्त्र खोजे,
कहीं इसका
सूत्र ही न
मिले। सब तरह
की जिज्ञासाएँ
शास्त्रों
में हैं, मगर
बिल्ली! और यह
सज्जन मर भी
गए कहकर, अब
किससे पूछें?
लेकिन
खोजबीन करता
रहा। किसी और
बुजुर्ग
महात्मा से
पूछा, उसने
कहा कि मुझे
पता है; मुझे
तेरे गुरु की
कहानी मालूम
है, तू
सुन। और ठीक
कहा तेरे गुरु
ने कि बिल्ली
मत पालना, बिल्ली
पालकर
तेरा गुरु
बरबाद हुआ।
उसने कहा—आप
कहिए क्या है
सूत्र का राज़?
उसने कहा—तेरा
गुरु
संन्यस्त हुआ,
जंगल गया, सब छोड़कर, सिर्फ दो
लँगोट अपने
साथ ले गया।
लेकिन एक झंझट
आ गयी। लँगोट
धोकर डालता, चूहे काट
जाते। किसी
गाँव के आदमी
से पूछा कि भई
क्या करूँ, यह बड़ी
मुसीबत है? उसने कहा—एक
बिल्ली पाल
लो। चूहों को
खा जाएगी, मामला
साफ हो जाएगा।
उसने बिल्ली
पाल ली, लेकिन
अब बिल्ली
पालने पर कोई
मामला थोड़े ही
समाप्त होता
है!—यहाँ
मामले समाप्त
ही नहीं होते,
शुरू भर
करो! अब
बिल्ली को दूध
चाहिए; नहीं
तो बिल्ली
जाती है। जब
देखो तब
"अल्टीमेटम' देकर खड़ी हो
जाए कि चले!
दूध चाहिए! सो
फिर गाँव के
लोगों से पूछा,
उन्होंने
कहा—भई, ऐसा
करो कि हम अब
तुम्हें कब तक
दूध देते
रहेंगे, तुम
एक गाय ही ले
लो। हम गाय दे
देते हैं सब
गाँव के लोग
मिलकर, तुम
जानो
तुम्हारा
काम। बिल्ली
के पीछे गाय आ गयी।
अब गाय
आ गयी तो और
झंझट शुरू
हुई। घासपात
चाहिए। गाँव
के लोगों ने
कहा—अब हम कब
तक तुम्हें
घासपात देते रहेंगे? अब यही थोड़े
हम करते रहें!
वह जो जमीन
तुम्हारे
आसपास पड़ी है,
तुम उसमें
घासपात उगाने
लगो। यह सब
काम में हरिभजन
का समय ही न
रहे—घासपात उगाओ, गाय
को चराने ले
जाओ, गाय
को स्नान करवाओ,
दूध लगाओ, बिल्ली को
पिलाओ, बिल्ली
चूहे खाए, तुम्हारे
लँगोट बचें.....यह
लँगोट के पीछे
बड़ा लंबा.....! और
बचे क्या आखिर
में—लँगोट!
उसने गाँव के
लोगों से कहा—भई,
यह तो बहुत
मुसीबत हो
गयी! मैं आया
था हरिभजन को,
ओटन लगा
कपास। हरिभजन
कब करूँ? उन्होंने
कहा—तुम ऐसा
करो कि गाँव
में एक विधवा
है, उसको
वैसे ही काम
नहीं है कोई, दो रोटी वह
भी खाती रहेगी,
वह सम्हाल
लेगी
तुम्हारी गाय
को भी, तुम्हारी
खेतीबाड़ी
को भी। घास भी
उगा देगी, गेहूं
भी निकाल देगी,
कुछ शाक—सब्जी
भी उगा देगी।
बात जँची!
और दयापूर्ण
मालूम पड़ी।
विधवा
आ गयी। अब और झंझटें बढ़ीं। भली
महिला थी, साधु के कभी
पैर भी दबा दे,
कभी सिर में
दर्द हो सिर
भी दबा दे; फिर
धीरे—धीरे
लगाव बन गया।
गाँव के लोगों
ने कहा कि महात्मा
जी, आप
विवाह करो; क्योंकि यह
बात ठीक नहीं;
गाँव में
चर्चा चलती
है! विवाह
करवा दिया।
बच्चे पैदा हो
गए। लँगोटी के
पीछे! तुम देख
रहे हो, कैसा
संसार आता गया?
इसलिए—उस
महात्मा ने
कहा—तेरे गुरु
ने तुझे ठीक
ही कहा, उसने
सार कह दिया, उसकी जिंदगी
इसी में गयी; वह तुझसे
सार की बात कह
गया है कि बस, एक—भर खयाल
रखना—बिल्ला—भर
मत पालना!
लोग डर
गए हैं प्रेम
से, क्योंकि
प्रेम बिल्ली
पालना है।
प्रेम से भयभीत
हो गए हैं।
क्योंकि जहाँ
प्रेम आया, आसत्ति आयी, मोह
आया, फैलाव
आया, विस्तार
आया, भटकाव
हुआ। लोग
प्रेम से डर
गए! तो लोगों
ने कहा—प्रेम
के स्त्रोत को
ही नष्ट कर
दो। प्रेम पाप
है। लेकिन जब
तुम प्रेम को
पाप समझ लोगे,
तो फिर
परमात्मा को
कैसे पुकारोगे?
फिर
प्रार्थना
कैसे करोगे? प्रेमशून्य हृदय
प्रार्थना
में कैसे
खुलेगा? फिर
तुम्हारी
प्रार्थना
मुर्दा होगी;
उसमें जीवन
नहीं होगा; उसमें हृदय
नहीं धड़केगा।
फिर तुम कैसे
आकाश की तरफ ऑंखें
उठाकर उसे पुकारोगे?
तुम्हारी
पुकार में
प्राण नहीं
होंगे। तुम्हारी
पुकार नपुंसक
होगी।
तुम्हारी
पुकार में
प्राण तो हो
सकते हैं
प्रेम के कारण
ही।
इसलिए
मैं तुमसे यह
कहता हूं—प्रेम
को मार मत
डालना। प्रेम
को गलत से मत जुड़ने
देना, और
प्रेम को
जिंदा रखना।
जीवन की साधना
ऐसी है जैसे
तुमने किसी नट
को रस्सी पर
चलते देखा हो—न
बाएँ गिरना, न दाएँ
गिरना, मध्य
में सँभालना।
कला है जीवन, बड़ी कला है, बड़ी—से—बड़ी
कला है। और सब कलाएँ तो
फीकी हैं।
और इस
कला का सारसूत्र
क्या है?
मध्य
में सँभालना; न इधर गिरना,
न उधर; अगर
बाएँ ज्यादा
झुके तो बाएँ
गिर जाओगे।
अगर दाएँ
ज्यादा झुके
तो दाएँ गिर
जाओगे। अगर
प्रेम को हर
किसी चीज से
लग जाने दिया,
तो उलझ
जाओगे हजार
तरह के उपद्रव
में। और अगर इस
डर से कि
प्रेम उलझाता
है, प्रेम
को नष्ट ही कर
दिया, काट
ही डाला, प्रेम
की जड़ें ही उखाड़
दीं हृदय से, तो फिर
परमात्मा को
कैसे पुकारोगे,
फिर तलाश
कैसे होगी, फिर भजन
कैसे जन्मेगा,
फिर प्रीति
कैसे उमगेगी?
प्रार्थना
प्रेम का ही
तो अभिनव रूप
है।
क्या
है प्रार्थना? परमात्मा की
तरफ लग गया
प्रेम
प्रार्थना
है।
इसलिए
मैं तुमसे यह
कठिन बात करने
को कह रहा हूं, करीब—करीब
असंभव लगती है
यह बात, लेकिन
हो जाती है।
खड्ग की धार
पर चलना है, दुर्गम है, लेकिन संभव
है। और दुर्गम
है, इसलिए
चुनौती है। और
दुर्गम है और
चुनौती है, इसलिए आत्मा
का इससे जन्म
होता है।
प्रेम
को गलत से मत जोड़ो। धन
से मत जोड़ो, मकान से मत जोड़ो, दुकान
से मत जोड़ो,
लेकिन मार
मत डालना।
प्रेम को मुक्त
करो व्यर्थ से
और समर्पित
करो सार्थक
को। प्रेम को
खींचो पृथ्वी
से और उड़ाओ
आकाश की तरफ।
प्रेम को
समेटो
क्षुद्र से और
विराट के
चरणों में
अर्पित करो—बनाओ
नैवेद्य।
प्रेम ही
भटकाता है, प्रेम ही पहूंचाता
है। इसलिए, बड़े सजग
होकर चलने की
बात है। जो
प्रेम तुमने अपनी
पत्नी को दिया
है, पति को
दिया है, उस
प्रेम को
परमात्मा तक पहूंचने
दो; उस
प्रेम को
पत्नी पर ही
मत रुक जाने
दो; क्योंकि
पत्नी के पीछे
भी परमात्मा
छिपा है; थोड़ा
और गहरा जाने
दो, पत्नी
में परमात्मा
को थोड़ा तलाशो।
तुमने जो
प्रेम अपने
बेटे को दिया
है, उसको
वहीं मत रुक
जाने दो।
प्रेम अगर
रुके न और
बहता ही चला
जाए, तो
जैसे हर नदी
सागर पहूंच
जाती है, हर
प्रेम
परमात्मा तक पहूंच
जाता है। बस
रुके न, अटके
न। अटके,
तो हाथ में
कुछ भी नहीं
लगता; नदी
सूख जाती है, किसी
मरुस्थल में
खो जाती है; डबरा बन
जाती है—गंदगी—और
हाथ कुछ भी
नहीं आता।
बहती रहे, किसी
जगह रुके न, यही भत्ति
का मार्ग है।
सपने
तो जाएँगे।
सपने कितने ही
प्यारे हों, सपने हैं।
कितना ही बचाओ,
बचा न
सकोगे।
मैंने
सुना है, एक
आदमी ने जाकर
डॉक्टर से कहा—डॉक्टर
साहब, मुझे
बराबर यही
सपना दीखता है
कि मेरे पास
से होकर सुंदर—सुंदर
लड़कियाँ
तेजी से भागी
जा रही हैं।
इसमें
तुम मुझसे
क्या चाहते हो, डॉक्टर ने
कहा, मैं
इसमें क्या
करूँ? उस
आदमी ने कहा—आप
कोई ऐसी दवा
दीजिए कि या
तो उन लड़कियों
की रफ्तार कुछ
कम हो, या
मेरी रफ्तार
कुछ बढ़ जाए।
सपनों
में भी लोग व्यवस्थाएँ
जुटा रहे हैं।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
आधी रात बीच
नींद में आंख
खोलकर अपनी
पत्नी से बोला—ज़रा मेरा
चश्मा ला!
पत्नी चश्मा
उठाकर लायी, उसने कहा—आधी
रात चश्मे की
क्या जरूरत? मुल्ला ने
कहा—एक बड़ा ही
प्यारा सपना
देख रहा हूं।
तू तो जानती
है कि मेरी ऑंखें
ठीक से देख
नहीं पातीं, सब धँधला—धुँधला
मालूम हो रहा
है।
लोग
सपनों को भी
चश्मे लगाकर देख
लेना चाहते
हैं। सपने भी धँधले न
हों। सपनों को
भी तुमने सच
समझ रखा है।
जितनी देर सच
समझ रखा है, वे सच हैं।
तुमने उनमें
सच्चाई डाल दी
है अपनी
मान्यता से।
फिर तुम बैठे
रहो, प्रतीक्षाएँ करते रहो, सपने चलते
रहेंगे, हाथ
कुछ भी न
आएगा।
आना
किसी का आज भी
मुमकिन नहीं, मगर
क्यों
देर से सिंगार
किए जा रही हूं
मैं?
लोग
करते जाते हैं
श्रृंगार, आता कोई
नहीं—कोई कभी
नहीं आया—मगर
श्रृंगार कर
रहे हैं, कि
आता होगा, कोई
आता होगा कोई
आता ही होगा।
तुम्हारी
जिंदगी में
कौन कब आया? क्या हुआ
तुम्हारी
जिंदगी में? खाली—की—खाली
है। मगर
प्रतीक्षा है,
बैठे हैं, राह देख रहे
हैं, आज
नहीं कल, कल
नहीं परसों, आशा का दीया जलाए बैठे
हैं। आशा का
दीया ही संसार
है। आशा के दीये
को फँक
दो। न कोई कभी
आया है, न
कोई कभी आएगा।
भविष्य की तरफ
ऑंखें मत अटकाए
बैठे रहो। उसी
के कारण तुम
वर्तमान से
चूके जा रहे
हो। और
परमात्मा अभी
है, यहाँ
है और
तुम्हारी ऑंखें
आगे अटकी हैं।
सपने
का अर्थ क्या
होता है? जो
नहीं है, उसमें;
जो हो सकता
है, उसमें;
जो कभी हो
शायद, उसमें;
आशा में; और जो ह, जो
अभी है, जिसने
तुम्हें
चारों तरफ से
घेरा है, बाहर
और भीतर जिसका
स्पंदन है, उससे तुम
चूके जा रहे
हो। सपनों के
कारण आदमी सत्य
से चूका जा
रहा है।
मैं
तुमसे कहता हूं—सपनों
से तो प्रेम
को अलग कर लो, लेकिन प्रेम
को नष्ट मत कर डालना।
सपनों से
प्रेम को अलग
करो और प्रेम
को परमात्मा
के चरणों में चढ़ाओ—फूल
बहुत चढ़ा चुके
तुम परमात्मा
के चरणों में;
वे फूल
तुम्हारे
नहीं हैं।
इसलिए
तुम्हारी प्रार्थनाएँ
अधूरी रह गयी
हैं, पूरी
नहीं हुईं।
तुम्हारा तो
एक ही फूल है, अगर कभी चढ़ाना
हो तो वह प्रेम
का फूल है।
मनुष्य
का फूल क्या
है? उसका
प्रेम। गुलाब
की झाड़ी पर
गुलाब खिलता
है, मनुष्य
की झाड़ी पर
कौन खिलता है?
प्रेम।
लेकिन लोग बड़े
बेईमान हैं।
वे आदमियों को
तो धोखा देते
ही हैं, परमात्मा
को भी धोखा
देते हैं।
गुलाब की झाड़ी
से फूल तोड़
लेते हैं, परमात्मा
के चरणों में
चढ़ा देते हैं।
अपना कुछ लगता
ही नहीं। फूल
था झाड़ी का, चरण
परमात्मा के,
अपना कुछ
लेना—देना
नहीं। और
सोचते हैं कि
बहुत कुछ काम
कर आए, प्रार्थना
कर आए, पूजा
कर आए! अपना
फूल चढ़ाओ—चैतन्य
का, प्रेम
का, ध्यान
का। अपनी जीवन—ऊर्जा
को चढ़ाओ।
तुम्हारे भीतर
सर्वश्रेष्ठ
क्या है, उसे
चढ़ाओ।
तुम्हारे
भीतर
सर्वश्रेष्ठ
प्रेम है, उसको
चढ़ाकर ही
तुम पाओगे।
आखिरी
प्रश्न : मैं
यहीं सात साल
से औषधालय में
अपनी औषधि खोजती
रही, लेकिन
वह नहीं मिली।
अब मैं थकी—हारी
आपके पास आयी हूं,
कृपया मुझे
मेरा मार्ग
बताएँ। प्रभु,
मैं घंटों
रोती रहती हूं
और पूछती हूं
कि मैं कौन हूं,
क्यों हूं?
सक्रिय
ध्यान में भी
वर्षों चीख—चिल्लाकर
यह प्रश्न
पूछती रही, लेकिन आपने
उत्तर नहीं
दिया; या
हो सकता है कि
उत्तर मुझ तक
नहीं पहूंचा।
मेरी स्थिति
कृष्ण की गोपियों
जैसी है, जिन्हें
कृष्ण को
छोड़कर कहीं भी
दिल नहीं लगता
था। मेरे लिए
तो बस आप ही
हैं। मैं क्या
करूँ?
पूछा
है कुंदन ने।
"जन
रज्जब ऐसी
विधि जानै,
ज्यँ था त्यँ
ठहराया'।
इस सूत्र को
हृदयंगम करो।
इसे उतर जाने
दो भीतर। और
सब अपने से हो
जाएगा। खोज
में ही भूल है।
खोज में ही
भ्रांति है।
जो परमात्मा
को खोजने
निकलेगा, उतना
ही दूर निकलता
जाएगा।
क्योंकि
परमात्मा दूर
नहीं है कि
खोजने जाओ, परमात्मा
पास है, खोज
में तुम दूर
निकल जाते हो
अगर परमात्मा
पास है, तो
कहीं जाना
नहीं है—जागना
है। जाने की
भाषा छोड़ो।
कुंदन
कह रही है—"मैं
यहाँ सात साल
से औषधालय में
अपनी औषधि खोजती
रही'। खोज के
कारण ही चूकती
रही। खोजोगे,
भटकोगे। मगर मैं यह
नहीं कह रहा हूं
कि खोज नहीं
होनी चाहिए, खोज करनी
होती है, मगर
खोज से
परमात्मा
मिलता नहीं।
खोज करनी होती
है; फिर एक
दिन समझकर खोज
छोड़ देनी होती
है; तब
मिलता है। यह
मत समझ लेना
कि जिसने खोज
नहीं की, उसको
मिल ही गया।
बहुत हैं
जिन्होंने
खोज ही नहीं
की, उनको
नहीं मिला है।
जिन्होंने
खोज नहीं की, उन्हें तो
मिलेगा ही
नहीं, क्योंकि
उनके भीतर
अभीप्सा नहीं
जगी है। उनके
भीतर प्रेम का
आविर्भाव
नहीं हुआ है।
उनकी ऑंखों
में अभी ऑंसू
भी नहीं आए, अभी पुकार
भी नहीं पैदा
हुई, अभी
लपट नहीं उमगी।
और, जो
खोजते हैं, वे भी नहीं पहूंच
पाते।
क्योंकि वे
खोज में ही
संलग्न हो
जाते हैं।
उनकी सारी
जीवन—ऊर्जा
खोज में ही लग
जाती है। खोज
का मतलब ही यह
होता है कि
परमात्मा दूर
है, हमने
ऐसा मान लिया
। खोज का मतलब
है, हमने
मान लिया कि
परमात्मा को
खो दिया है।
कुंदन!
परमात्मा को खोया
कब? जैसे
मछली ने सागर
नहीं खोया है,
ऐसे हमने
परमात्मा
नहीं खोया है।
और मछली तो चाहे
तो सागर खो भी
सकती है, क्योंकि
सागर के अतिरित्त
और स्थान भी
है, हम तो
चाहें तो भी
सागर को खो
नहीं सकते, क्योंकि
परमात्मा के अतिरित्त
और कोई स्थान
नहीं है। हम
उसमें ही
जन्मते, उसमें
ही जीते, उसमें
ही समाप्त
होते।
अब खोज
छोड़ो, खोज काफी हो
चुकी। अब घड़ी
आ गयी खोज छोड़
देने की। अब
तो खोज को भी
जाने दो। "मैं
यहीं सात साल से
औषधालय में
अपनी औषधि
खोजती रही'।
तुम रुग्ण कब
हो, बीमार
कब हो, औषधि
की जरूरत क्या
है? समस्या
ही नहीं है
कोई। इसलिए
समाधान भी
नहीं मिलेगा।
समस्या झूठी
है और सब
समाधान झूठे
हैं। सब
प्रश्न
बनावटी हैं, सब उत्तर
भी। "अब मैं
थकी—हारी आपके
पास आयी हूं'। थककर
और हारकर ही
कोई आता है।
यही खोज का
लाभ है। थकाती
है, हराती
है—हारे को
हरिनाम। जब
कोई खोज—खोज
कर, खोज—खोज
कर थक कर गिर
जाता है, उसी
क्षण मिलन हो
जाता है। जब
तक खोज जारी
है, तब तक
अहंकार जारी
है। तब तक यह
भाव जारी है
कि मैं कुछ कर लँगा।
मेरे किए कुछ
हो जाएगा।
खोज से
हारने का क्या
अर्थ होता है? कि मेरे किए
कुछ भी न
होगा। मैंने
सब किया, कर
लिया जो हो
सकता था, सब,
फिर भी कुछ
नहीं होता। इस
आत्यंतिक
विषाद की घड़ी
में, असहाय
कोई गिर पड़ता
है, ढेर हो
जाता है। उसी
घड़ी मिलन हो
जाता है। क्योंकि
उसी घड़ी तुम
मिट गए और
परमात्मा ही
शेष रह जाता
है। जब तक खोज
है, तब तक
खोजी है। जब
खोज बिल्कुल
हार गयी, आत्यंतिक
रूप से हार
गयी, परिपूर्ण
रूप से हार
गयी, खोजी
गिर गया, फिर
परमात्मा के
सिवाय और कौन
है?
कुंदन, ठीक हुआ। अब
ठीक घड़ी करीब
आ गयी। "अब मैं
थकी—हारी आपके
पास आयी हूं।
कृपया, मुझे
मेरा मार्ग
बताएँ'। अब
तो मार्ग की
कोई जरूरत
नहीं है। यही
मार्ग है। अब
इसी हार में
पूरी तरह डूब
जाओ। अब खोज की
बात को फिर मत
उठाना। अब
प्रश्न और खोज
इत्यादि सब
जाने दो। अब डूबो! और
इसी डुबकी में
उबर जाओगी। धन्यभागी
हैं वे जो डूब
जाते हैं।
क्योंकि
डूबने में ही
उबरना है। यह
मंजिल कुछ ऐसी
है कि मझधार
में डूबने से
मिलती है।
"मैं घंटों
रोती रहती हूं
और पूछती हूं
कि मैं कौन हूं'
क्यों हूं? इसका
कोई उत्तर
नहीं मिलेगा।
इसका कोई
उत्तर नहीं
है। और जो भी
उत्तर
मिलेंगे, सब
झूठ होंगे। तब
तुम्हें
हैरानी होगी।
तो फिर यह
क्यों कहा है
ज्ञानियों ने
कि पूछो कि मैं
कौन हूं? यह
इसीलिए कहा है
कि पूछो, पूछो,
थको, हारो। यह प्रश्न
ऐसा है, इसका
कोई उत्तर
नहीं है। क्या
तुम सोचते हो
कोई उत्तर
मिलेगा? कि
पूछ रहे हो, मैं कौन हूं,
उत्तर आएगा
कि तुम
दुकानदार हो,
कि तुम
डॉक्टर हो, कि तुम
पुरुष हो, कि
तुम स्त्री हो,
कि तुम
सुंदर हो, कि
तुम
बुद्धिमान हो,
कि कुरूप हो,
कि बुद्धू
हो। कोई उत्तर
आएगा? कोई
उत्तर नहीं
आएगा। प्रश्न
पूछते—पूछते—पूछते—पूछते
धीरे—धीरे
प्रश्न भी खो
जाएगा, एक
सन्नाटा रह
जाएगा। वही
सन्नाटा
उत्तर है, वही
शून्य उत्तर
है। बाकी सब
उत्तर बेकार
हैं।
मैंने
सुना है, रोज
एक महाशय पान
की दुकान में
जाते, दुकानदार
का अभिवादन
करते, काउंटर
पर रखे लाइटरों
में से एक से
अपनी सिगरेट
सुलगाते और
फिर अभिवादन
करके चले
जाते। यह क्रम
कई सप्ताह चला,
तो
दुकानदार
अधीर हो उठा।
एक दिन जैसे
ही उन महाशय
जी ने दुकान
में प्रवेश
किया तो उसने
पूछा—ज़रा
यह तो बताइए
कि आप हैं कौन?
आप मुझे
नहीं जानते? मैं वही तो हूं
जो रोज आपके
यहाँ आकर
सिगरेट
सुलगाता हूं।
सब
उत्तर ऐसे ही
होंगे। किसी
का बेटा हूं, किसी का पति हूं,
किसी की
पत्नी हूं, किसी की माँ हूं;
किसी धर्म
में पैदा हुआ हूं;
किसी देश
में पैदा हुआ
हूँ; कोई
रंग, कोई
रूप। यह सब
ऊपर—ऊपर हैं।
तुम्हारा न तो
कोई नाम है, न तुम्हारा
कोई पता है।
तुम अनाम हो।
परमात्मा भी
अनाम है। तुम
परमात्मा हो।
खोजने वाले में
ही जिसकी खोज
हो रही है वह
छिपा है। तुम
बाहर तलाश रहे
हो, वह
भीतर हूंस
रहा है। तुम
बाहर टटोल रहे
हो, वह
भीतर बैठा मजा
ले रहा है। वह
यह देख—देख कर हूंस रहा
है कि खूब मजा
चल रहा है—मैं
इधर भीतर बैठा
हूं, इधर
बाहर खोज चल
रही है।
परमात्मा तुम
पर हूंस
रहा है। तुम छोड़ो सब
खोज। यह
प्रश्न भी
जाने दो।
"सक्रिय
ध्यान में भी
वर्षों चीख—चिल्लाकर
यह पूछती रही,
लेकिन आपने
उत्तर नहीं
दिया'।
उत्तर है ही
नहीं। जो भी
उत्तर दिए
जाएँगे, व्यर्थ
होंगे। "या हो
सकता है उत्तर
मुझ तक नहीं पहूंचा'। उत्तर है
ही नहीं। पहूंच
जाता तो गलत
उत्तर पहूंचता।
कुंदन
ठीक रास्ते पर
है। गलत
रास्तों पर
उत्तर मिल
जाते हैं; ठीक रास्तों
पर सब प्रश्न
खो जाते हैं, उत्तर नहीं
मिलते। एक ऐसी
अवस्था आ जाती
है चेतना की
जिसको हम कहें—निष्प्रश्न।
वही समाधि है।
"मेरी स्थिति
कृष्ण की गोपियों
जैसी है, जिन्हें
कृष्ण को
छोड़कर कहीं भी
दिल नहीं लगता
था। मेरे लिए
तो बस आप ही
हैं। मैं क्या
करूँ'? अब
और करने को
कोई सवाल भी न
रहा। प्रेम का
आविर्भाव हो
जाए, फिर
कुछ और करने
की बात नहीं, फिर सब
कृत्य छोटे
हैं, फिर
कुछ भी करोगे
तो प्रेम से
ऊपर ले
जानेवाला
नहीं हो सकता।
और सब विधि—विधान
उनके लिए हैं
जिनके जीवन
में प्रेम का
अभाव है। वे
सब छोटी बातें
हैं। कामचलाऊ
बातें। योग है,
तप है, त्याग
है; मगर
उनके लिए है
जिनके जीवन में
प्रेम नहीं
है। जिनके
जीवन में
प्रेम है, उन्हें
फिर किसी और
चीज की जरूरत
नहीं। सब योग
फीके, सब
विधि—विधान
फीके। बस अब
इस प्रेम में
ही डूब जाओ।
इसी
घड़ी की तरफ
तुम्हें लाने
की कोशिश में
लगा हूं। और
मुझसे जो
प्रेम है, उसे मुझसे
ही प्रेम मत
बना लेना, अन्यथा
अटकाव हो
जाएगा। मेरे
पार देखो।
मुझे ज्यादा—से—ज्यादा
द्वार समझो।
द्वार पर कोई
अटकता नहीं।
द्वार से
देखता है दूर
आकाश, आकाश
में उड़ते हुए
पक्षी, दूर
चाँदत्तारे,
आकाश में
उड़ते हुए
शुभ्र बादल।
द्वार पर कोई
अटकता नहीं।
मुझ पर अटकना
मत। मैं बस
द्वार हूं।
नानक ने गुरु
को द्वार कहा
है; यह ठीक
कहा है, और
इसलिए नानक ने
अपने मंदिरों
को गुरुद्वारा
कहा है। ठीक
कहा है, द्वार
ही है मंदिर।
मंदिर में
परमात्मा
नहीं है, सिर्फ
द्वार है।
परमात्मा तो
इस विराट् में
छाया हुआ है।
द्वार पर मत
अटक जाना, द्वार
के पार देखो, द्वार का
अतिक्रमण
करो।
ठीक
घड़ी आ गयी।
खोज कर ली
बहुत, प्रश्न
पूछ लिया बहुत,
अब प्रेम
में मग्न होकर
नाचो, अब गुनगुनाओ,
अब गीत गाओ;
क्योंकि
परमात्मा
उपलब्ध ही है।
अब परमात्मा
को जीओ।
बड़ी
हिम्मत चाहिए
परमात्मा को
जीने के लिए।
और उसी हिम्मत
के लिए मैं
तुम्हें
प्रेरणा दे रहा
हूं। मेरी
सारी प्रेरणा
यही है कि तुम
इसी क्षण परमात्मा
को जीना शुरू
करो; तुम यह मत
कहो कि हम कल
खोजेंगे और
परसों जिएँगे।
तुम में अगर
हिम्मत हो तो
तुम इसी क्षण
परमात्मा के
साथ एक हो।
तुम एक हो ही, सिर्फ
हिम्मत की कमी
के कारण घोषणा
नहीं कर पाते।
डर जाते हो, घबड़ा जाते
हो। हो जाने
दो घोषणा अब!
जो
बीते
तुम्हारे पास
उन
क्षणों की
वह
अपूर्व सुवास
अब भी
मेरे पास
कैसे कहूं
कि वे
क्षण बीत गए
वे
क्षण तो
जीत गए
वे
क्षण ही बीते
हैं
जो
तुमसे रीते
हैं
तुम्हारे
पास बीते क्षण
बीतते
नहीं
जीतते
हैं
विधि
को
विधि
के विधान को।
मेरे
पास तुम्हें
परमात्मा की
थोड़ी सन्निधि मिले
तो मेरा काम
पूरा हुआ।
तुम्हें थोड़ी
सुवास मिले, एक किरण
मेरे द्वार से
तुम तक
परमात्मा की पहूंच
जाए, बस एक
किरण
तुम्हारे हाथ
आ जाए, तो
पूरा सूरज
तुम्हारे हाथ
आ जाएगा। फिर
एक किरण के
धागे को पकड़कर
आदमी सारे
सूरज को पा ले
सकता है। पहली
किरण ही असली
सवाल है।
कुंदन!
ठीक घड़ी आ
गयी। इस अवसर
को खो मत जाने
देना। अब फिर
खोज शुरू मत
कर देना। अब
फिर प्रश्न मत
पूछने लगना। छोड़ो
प्रश्न! छोड़ो
खोज! इसी क्षण
से परमात्मा
को जीना शुरू
करो। नाचो, उत्सव मनाओ,
परमात्मा
उपलब्ध है।
आज
इतना ही।
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