अध्याय—(सत्तासीवां)
मुझै
अपने काम में
बहुत मजा आ
रहा है।
कम्यून में
काम करना
बाह्य जगत में
काम करने —से
बहुत अलग है।
यहां पदों की
कोई सीढ़ियाँ
नहीं है। सभी
संन्यासी
अपने
सहकर्मियों
का ख्याल रखते
हुए बड़े प्रेम
से अपनी—अपनी भूमिकाएं
निभाते हैं।
सुबह के
प्रवचन मुझे
पूरे दिन उत्साहित
बनाए रखने में
संजीवनी का
काम करते हैं।
इन दिनों मैं
मुश्किल से ही
कोई प्रश्न स्वी हूं।
वास्तव में
मेरे प्रश्न
पूछने से पहले
ही उसका जवाब
मिल जाता है।
मुझे लगता है
कि ओशो की
आंखें एक्स—रे
की तरह हमारे
मन में प्रवेश
करके झाँक
लेती हैं, खासकर
दर्शन के समय।
उनसे कुछ भी
छिपाना बहुत
मुश्किल है।
हर शाम लगभग
पचास से साठ
संन्यासी
उनसे मिलते
हैं। छ: बजे से
संन्यासी लाओत्सू
गट पर
पंक्तिबद्ध
खड़े होने लगते
है। लाओत्सू
ओशो ने 33 नंबर
के बंगले को
नाम दिया है
जहां वे रह
रहे है।
सबको
भीतर जाते समय
दो सन्यासिनियो
के बीच से
होकर गुजरना
पड़ता है, जो कि
किसी भी
प्रकार की गंध
को सूंघ लेने
के प्रति बहुत
संवेदनशील
हैं। यदि किसी
भी प्रकार की
गंध के कारण
किसी को भीतर
जाने से मना
किया जाता है
तो वह बुरा
नहीं मानता
क्योंकि सबको
पता है कि ओशो
को गंध के
प्रति एलर्जी
है। उसके लिए
बड़ा ख्याल
रखा जाता है।
बिलकुल गंधरहित
पाए जाने पर
व्यक्ति भीतर
जाकर किसी भी
बैंच पर बैठ
सकता है। 6—45
तक जब सब भीतर
आ चुकते
हैं तो सभी आहिस्ता—आहिस्ता
उस पगडंडी पर
चल पड़ते हैं
जो च्चांग्त्सू
सभागार की ओर
जाती है। इस
सभागार का
फर्श संगमरमर
का है और छत
बहुत ऊंची है;
और कमाल की
बात है कि —छत
को
किनारे—किनारे
कुछ ही स्तंभों
का सहारा है।
इस सभागार की
कोई दीवारें
नहीं हैं, बस
बड़े—बड़े पेड़ों
से घिरा है और
ऐसा लगता है
जैसे बगीचे
का ही हिस्सा
हो।
7—०० बजे. तक
सभी लोग
सभागार में
बैठ जाते हैं
और तब ओशो एक
द्वार से बाहर
निकलकर आते हैं
और सबको
नमस्कार कर
अपनी कुर्सी
पर बैठ जाते
हैं। पेड़ों की
ओट में बोल
रहे झींगुरों
की आवाज के
अतिरिक्त ओर
कुछ सुनाई
नहीं देता।
पूरी तरह मौन
छा जाता है।
बुद्धा हॉल से
आता हुआ संगीत
मौन को और भी
समृद्ध कर
जाता है। पूरा
वातावरण ऐसा
जादुई हो उठता
है कि मुझे लगता
है यदि कहीं
स्वर्ग है तो
वह यहीं है।
फिर एक—एक
करके हर
व्यक्ति को
ओशो के पास
आने के लिए
नाम से पुकारा
जाता है। ऐसे
ही एक दर्शन
में, ओशो
मुझसे पूछते
हैं कि क्या
मुझे बंबई की
याद आती है।
मैं उनसे कहती
हूं 'ओशो, बस मुझे
यहां समंदर की
कमी महसूस
होती है।’ वे
कहते हैं, मेरी
आरके में देख
और तुझे
महासागर नजर
आएगा।’ मैं
उनकी आंखों
में झांकती
हूं जो कुछ पल
बिना झपके
खुली रहती
हैं। मैं उनकी
आंखों में
महासागर की
गहराई ही नहीं,
और भी बहुत
कुछ देख पाती
हूं। उनकी
आँखें तरल और
प्रकाश से भरी
हुई हैं और
उनके प्रेम और
करुणा को बरसा
रही हैं।
इस
दर्शन के बाद
मैं ओशो का
खुली आंखों
वाला एक चित्र
खरीदती
हूं और हर
सुबह समंदर की
अपनी प्यास को
बुझाने के लिए
इस चित्र को
निहारती हूं।
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