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मंगलवार, 8 मार्च 2016

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--81)

अध्‍याय—(इक्‍यासीवां)

विष्य में देख पाने की ओशो की क्षमता गजब की है। 1971 में धीरे—धीरे कछ पाश्चात्य मित्र आकर संन्यास में दीक्षित होने लगते हैं।
बंबई की करुणा को अमेरिकन प्रतिमा के साथ न्यूयार्क में पहला ओशो ध्यान केंद्र शुरू करने के लिए वहा भेजा गया है। ओशो कहते हैं कि हजारों लोग उनके पास आना शुरू हो गए हैं और नव संन्यास आंदोलन पूरे विश्व में जंगल की आग की तरह फैलने वाला है।

वे लक्ष्मी से और जगह खोजने को कहते हैं। एक मित्र को लिखे गए किसी पत्र में ओशो यह स्पष्ट कर देते हैं कि अब उन्हें एक ही जगह पर रहना है। उनकी यात्राएं पूरी हो चुकी हैं और अब प्यासों को कुंए के पास आना पड़ेगा।
बंबई और उसके आस—पास की जगहों में काफी खोजबीन के बाद पूना के कोरेगांव पार्क में 33 नंबर का बंगला खरीद लिया जाता है।
21 मार्च 1974 की सुबह बहुत से मित्र बुडलैंड्स अपार्टमेंट के लिविंगरूम में ओशो का संबोधि दिवस मनाने के लिए इकट्ठे हुए हैं।
आज दोपहर ओशो कार से पूना के लिए रवाना हो जाएंगे। मां तरु कुछ और मित्रों के साथ मिलकर कीर्तन शुरू कर देती हैं। सभी को उनके चरण स्पर्श करने दिया जाता है और उसके बाद सबको प्रसाद मिलता है। मैं भी उनके साथ पूना जाने के लिए सुबह ही अपना सूटकेस लेकर आ जाती हूं। मैं उनके बिना बंबई में रहने की कल्पना भी नहीं कर सकती। एक दफा यदि वे चले जाते हैं, तो मुझे लगता है कि बंबई मेरे लिए वीरान हो जाएगी।
उत्सव कछ घंटों तक चलता रहता है। लगभग सभी रो रहे हैं। मैं थोड़ी दूर हटकर अकेली खड़ी ओशो की ओर देख रही हूं जिनके चेहरे पर जरा भी उद्विग्नता नहीं है। वे हमेशा की तरह शांत और तरी—ताजा लग रहे हैं। उनके बंबई छोड़ने से मुझ पर जरा भी असर नहीं पड़ा है क्योंकि मैं जानती हूं कि मैं पूना में उनके —साथ रहने वाली हूं।
उत्सव समाप्त हो जाने के बाद ओशो अपना भोजन लेकर कुछ देर आराम करते हैं। 2—3० बजे उनकी कार फूलों से सजी तैयार खड़ी है। बहुत से लोग उन्हें विदा देने के लिए फिर से इकट्ठे हो गए हैं। ओशो नीचे आकर सबको नमस्कार करते हुए कार की ओर बढ़ जाते हैं। कुछ रोने लगते हैं ही विदारक है। मित्र फूट—फूटकर। पूरा दृश्य बहुत हृदय उनके प्रियतम उन्हें छोड़कर जा रहे हैं।
लक्ष्मी ड्राइवर की सीट पर पहले से ही बैठी हुई है, ओशो जाकर पिछली सीट पर बैठ जाते हैं। मुझे स्वामी कृष्‍ण अरूप की नई फिएट कार में जगह मिल जाती है और उसी कार में ओशो के चाचाजी भी आ रहे हैं।

एक कार में कैमरे वाले बैठे हुए हैं जो इस ऐतिहासिक घटना की वीडियो फिल्म बना रहे हैं। कछ ही मिनटों में सभी कारें दूसरे वाहनों आगे निकलने की कोशिश करती हुईं सड़क पर दौड़ रही हैं।
अलविदा बंबई।


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