ओशो
सर्वथा मौलिक
हैं, क्योंकि
उनकी
सत्व
की अनुणतइ
शाख्यों रो
नहीं हुई,
उधार
ज्ञान से नहीं
हुई, परमात्मा
के मूल
स्त्रोत
से जुड़ने से
हुई है। जो मूल
से जुड
जाता
है वह मौलिक हो
जाता है।
ओशो
कौन हैं? यह
प्रश्न लाखों
नए
जिज्ञासुओं
का भी प्रश्न है।
इस प्रश्न का
उत्तर देना
बहुत कठिन है,
क्योंकि
कोई भी उत्तर
बहुत छोटा और
ओछा होगा, कण
मात्र कह
पाएंगें और एक
महासागर पीछे
छूट जाएगा।
ओशो एक ऐसे
बहु— आयामी
व्यक्तित्व
का नाम है—
व्यक्तित्व
ही नहीं, अस्तित्व
का नाम है।
ऊपर
से दिखाई पड़ने
में ओशो भी हम
सब जैसे एक व्यक्तित्व
हैं— सागर की
एक बूंद, एक
लहर। एक कण।
फिर वे हमसे
भिन्न कैसे
हैं? भिन्नता
यह है कि बूंद
में पूरा सागर
उतर आया है— 'समुंद समाना
बूंद में।’ इस एक कण में
परमात्मा का
परमाणु
विस्फोट हुआ है।
इस एक लहर में
पूरा प्रशांत
महासागर लहरा
रहा है। देह
की सीमा में
असीम अदेही
प्रकट हुआ है।
इसलिए जो लोग
केवल क्षुद्र
सीमाएं ही देख
पाते हैं, सीमाओं
के दायरे में
ही सोच पाते
हैं, संकुचित
चिंतन के आदी
हैं, वे
निश्चित ही
ओशो को समझने
में असमर्थ
हैं।
ऐसे
ही लोगों ने
ओशो की
प्रारंभ से
आलोचना की, निंदा
की और उनको
मिटाने के
हजारों
प्रयास भी किये,
लेकिन ओशो
चेतना के एक
महासूर्य की
भांति निरंतर
उभरते आए, निखरते
आए। अंधकार के
बादल उनको ढक
नहीं पाए। इस
महासूर्य का
प्रकाश आज
चारों ओर अपनी
पूर्ण
तेजस्विता
अप्रे
ओजस्विता के
साथ विकीर्ण हो
रहा है। इस
प्रकाश से
केवल वे ही लोग
वंचित होगे
जिन्होंने
अपनी चेतना के
द्वार एवं
दरवाजों को
बंद रखने की
जिद कर रखी है।
ओशो की चेतना
सभी को उपलब्ध
है— युगों—युगों
तक उपलब्ध
रहेगी—लेकिन
केवल उन्हीं
को, जो
अपनी चेतना के
कपाट खोल कर
मुक्त आकाश
में विचरण
करने का साहस
करेंगे। वे परम
सौभाग्यशाली
लोग ही ओशो के
पथ पर चलकर
स्वयं को रूपांतरित
कर पाएंगे,
ओशो अपनी परम
अनुभुति को
उपलब्ध
करेंगे।
60—70
के दशक में
ओशो को विशेष
धार्मिक
सम्मेलनों में
निमंत्रण
दिया जाता था
लेकिन केवल
खुले मन के
लोग ही उन्हें
समझ पाते थे, शेष
सब तो अपनी
सड़ी—गली
परंपराओं की
रक्षा करने
में जुटे रहते
थे। लेकिन ओशो
में उनको भी
झकझोरने और
जगाने की हिम्मत
थी।
अमृतसर
के एक वेदांत
सम्मेलन में
एक बार ओशो को
निमंत्रण
दिया गया था।
उन्हें सब
महात्माओं के
बाद ही बोलने
दिया गया, क्योंकि
आयोजकों को
पता था कि अगर
ओशो को पहले
बोलने दिया
गया तो उनको
सुनने के बाद सभी
श्रोता उठकर
चल देंगे, फिर
दूसरे
महात्माओं को
सुनने के लिए
कोई नहीं
रुकेगा। ओशो
को सुनने के
लिए अधिकांश
श्रोता मध्य
रात्रि तक
बैठे रहे। सभी
महात्माओं के
बाद ओशो ने
अपना प्रवचन
शुरू किया और
उनके पहले
वाक्य ने ही
एक हलचल और जागरण
की लहर पैदा
कर दी। उन्होंने
कुछ ऐसा कहा— 'मेरे प्रिय
आत्मन् अभी जो
आप सुन रहे थे,
धर्म के नाम
पर यह बकवास
पिछले पांच
हजार साल से
चली आ रही है।’
ऐसा सुनते
ही सब
श्रोताओं की
रीढ़ सीधी हो
गई, आधी
नींद में
सुस्ता रहे
लोग पूरी तरह
जाग गए लेकिन
मंच पर बैठे
महात्माओं के
चेहरे मुरझा गए
अथवा क्रोध से
लाल हो गए।
अपने
प्रारंभिक
दिनों में ओशो
ने ऐसे अग्नेय
प्रवचन देश के
कोने—कोने में
दिए। पटना के
गांधी मैदान
में,
जहां पचास
हजार श्रोता
होते थे, उन
श्रोताओं में
जयप्रकाश
नारायण जैसे
नेता भी
उपस्थित होते
थे, पूरे
मौन में लोग
ओशो की ओजस्वी
वाणी को सुनते
थे, लेकिन
धर्म के
ठेकेदारों को
उनकी वाणी
परेशान करती
थी। वे या तो
मंच पर ही ओशो
का विरोध करने
लगते अथवा मंच
छोड्कर भाग
खड़े होते थे।
ऐसे
ही माहौल में
ओशो के
क्रांतिकारी
प्रवचन हुए, जिनमें
प्रमुख हैं—
समाजवाद से
सावधान, भारत,
गांधी और
मैं तथा संभोग
से समाधि की
ओर। प्रबुद्ध
लोगों ने इन
प्रवचनों पर
विचार किया, चिंतन—मनन
किया, इसके
विपरीत
परंपरागत
पाखंडी लोग
ओशो के विरोधी
बन गए, ओशो
को बदनाम करने
में जुट गए।
लेकिन सत्य की
कसौटी पर खरे
वचनों को कौन
कब रोक पाया
है। ओशो के ये
वचन आग की
लपटों की
भांति फैलने
लगे।
स्वार्थी लोग
ओशो को सेक्स
गुरु, पूंजीपतियों
का गुरु और
अनैतिक कहकर
निंदित करते
रहे, लेकिन
ओशो जैसे
युगपुरुष के
ये विचार पूरे
युग की चेतना को
रूपांतरित
करते रहे।
आज
भी आप देखते
हैं कि टीवी.
पर सैकड़ों
गुरु अपने
प्रवचन दे रहे
हैं,
इनमें से
कोई भी इतना
प्रभावशाली
नहीं जितना ओशो
थे। ओशो शरीर
में नहीं हैं,
लेकिन वे
अकेले इन सबसे
कहीं अधिक
प्रभावशाली
हैं। वे सब
ओशो जैसे
महासूर्य की
तुलना में
टिमटिमाते
सितारे जैसे
दिखते हैं। यह
ओशो की
मौलिकता है।
आज
सैकड़ों
महात्मा अपने
ओशो के
प्रवचनों को पढ़ते
हैं,
रटते हैं, उनमें कुछ
अपना
परंपरागत
मिश्रण जोड़कर
टेलीविजन पर
दर्शकों को
लुभाने में
लगे हैं। देर—सबेर
जब दर्शक और
श्रोता ओशो के
प्रवचनों को टेप
या सीडी पर
सुनते हैं या
पुस्तकों और
पत्रिकाओं
में पढ़ते हैं,
तो वे इन
नकली गुरुओं
के क्षणिक
प्रभाव से मुक्त
होकर मूल
स्रोत से जुड़
सकते हैं।
ओशो
सर्वथा मौलिक
हैं,
क्योंकि
उनकी सत्य की
अनुभूइत
शास्त्रों से नहीं
हुई, उधार
ज्ञान से नहीं
हुई, परमात्मा
के मूल स्रोत
से जुड्ने से
हुई जो मूल से
जुड़ जाता है
वह मौलिक हो
जाता है। ओशो
ने धर्म को
उदासी और
गंभीरता से
मुक्त करके
धार्मिकता की
मौलिक देशना
दी है। वे
कहते हैं:
'मेरी दृष्टि
में, धर्म
वही है जो
नाचता हुआ है
और दुनिया को
एक नाचते हुए
परमात्मा की
जरूरत है।
उदास
परमात्मा काम
नहीं आया।
उदास
परमात्मा
सच्चा सिद्ध
नहीं हुआ।
क्योंकि आदमी
वैसे ही उदास
था, और
उदास
परमात्मा को
लेकर बैठ गया।
उदास
परमात्मा तो
लगता है उदास
आदमी की ईजाद है,
असली
परमात्मा
नहीं। नाचता,
हंसता
परमात्मा
चाहिए और जो
धर्म हंसी न
दे और जो धर्म
खुशी न दे और
जो धर्म तुम्हारे
जीवन को
मुस्कुराहटों
से न भर दे, उत्साह
से न भर दे—वह
धर्म, धर्म
नहीं है, आत्महत्या
है। उससे राजी
मत होना। वह
धर्म को का
धर्म है या
मुर्दो का
धर्म है—
जिनके जीवन की
धारा बह गई है
और सब सूख गया
है। धर्म जवान
चाहिए। धर्म
तो युवा चाहिए।
धर्म तो छोटे बच्चों
जैसे पुलकता,
फुदकता, नाचता,
आश्चर्य—
भरा चाहिए।’
'तो मैं यहां
तुम्हें उदास
और लंबे चेहरे
सिखाने को
नहीं हूं और
मैं नहीं
चाहता कि तुम
यहां बड़े
गंभीर हो कर
जीवन को लेने
लगो। गंभीरता
ही तो
तुम्हारी
छाती पर पत्थर
हो गई है।
गंभीरता रोग
है। हटाओ
गंभीरता के
पत्थर को।
--स्वामी
चैतन्य कीर्ति
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