अध्याय—(अट्ठासीवां)
पद्रह
दिन के बाद
मुझे
डेंटिस्ट के
पास अपनी अक्कल—दाढू निकलवाने
के लिए जाना
है,
जो मेरे गाल
में बहुत चुभने
लगी है। इस
बीच मैं ओशो के
पास ऊर्जा
दर्शन के लिए
जाती हूँ। ओशो
कम्यून में
काम कर रहे
संन्यासियों
को ऊर्जा
दर्शन देने
लगे हैं। यह
एक विधि है
जिसमें गुरु
अपने शिष्य के
आज्ञाचक्र
को छूकर उसमें
अपनी ऊर्जा
प्रवाहित
करता है।
ऊर्जा दर्शन
के लिए मुझे
आगे बुलाया
जाता है। ओशो
मुझे देखकर
मुस्कुराते
हैं। मैं उनके
सामने झुकती हूं
और फिर आँखें
बंद करके बैठ
जाती हूं।
वे
अपने बाँए
हाथ से मेरी
ठुड्डी को पकड़कर
अपने अंगूठे
का दबाव ठीक
उसी जगह पर
डालते हैं
जहाँ मेरी अक्कल—दाढु
तकलीफ दे रही
है। अपने दाएं
हाथ के अँगूठे
से वे मेरे आज्ञाचक्र
पर दबाव डालते
हैं। मेरा
मुंह पूरी तरह
खुल जाता है
और विचार बिलकुल
रुक जाते हैं।
मैं उनकी
ऊर्जा को अपने
आज्ञाचक्र
में प्रवेश
करता हुआ
महसूस कर रही हूं।
जब वे अपना
हाथ हटाते हैं
तो मैं किसी पियक्कड़
की तरह झूमती
हुई वापस अपनी
जगह पर आकर
बैठ जाती हूं।
जब
दर्शन पूरा हो
जाता है और
मैं लाओत्सू
से बाहर आ
जाती हूं तब
मुझे महसूस
होता है कि जैसे
मेरे मुंह में
कुछ है। जब
मैं वह चीज
अपने मुंह से
निकालती हूं
तो अपने आँखों
पर विश्वास
नहीं कर पाती
कि यह —मेरी अक्कल—दाढू है। न
तो कोई दर्द
हुआ,
और न ही खून
आने का कोई
नामो—निशान है।
कैसा चमत्कार
है।
अगले
दिन मैं अपने
डेंटिस्ट को
फोन करके उन
से लिया गया
समय केंसल
करवाती हूं और
उन्हें बताती हूं
कि क्या घटना
घटी। वह डॉक्टर
भी ओशो के
प्रेमी हैं और
मजाक में मुझे
ओशो से यह
कहने के लिए
कहते हैं कि
वे उनके धंधे
में
हस्तक्षेप न
करें नहीं तो
वह उन के
खिलाफ मुकदमा
कर देगा।
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