पत्र पाथय—32
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय मां,
कल
रात्रि पानी
पड़ा है। मौसम
गीला है और
अभी—अभी धीमी
फुहार आनी
शुरु हुई है।
हवायें नम हो
गई हैं और
वृक्षों से
गिरते पत्तों
को द्वार तक
ला रही हैं।
लगता है पतझड़
हो रही है और
बसन्त के आगमन
की तैयारी है।
रास्ते
पत्तों से ढक
रहे हैं और उन
पर चलने में
सूखे पत्ते
मधुर आवाज
करते हैं।
मैं उन
पत्तों को देर
तक देखता रहा
हूं। जो पक
जाता है, वह गिर जाता
है। पत्तों पर
पत्ते सुबह से
शाम तक गिर
रहे हैं।
वृक्षों को
उसके गिरने से
कोई पीड़ा नहीं
हो रही है—इससे
जीवन का एक
अद्भुत नियम
समझ में आता
है। कुछ भी
कच्चा तोड्ने
में कष्ट है।
पकने पर टूटना
अपने से हो
जाता है।
एक
संन्यासी आए
हैं। त्याग
उन्हें आनंद
नहीं बन पाया
है। वह कष्ट
है और कठिनाई
है। संन्यास
अपने को नहीं
आया, लाया
गया है। मोह
के, अज्ञान
के, परिग्रह,
अहंकार के
पत्ते अभी
कच्चे थे।
जबरदस्ती की
है—पत्ते तो
टूट गये पर
पीड़ा पीछे छोड़
गए हैं। वह
पीड़ा शांति
नहीं आने देती
है। सोचता हूं
कि आज शाम
जाकर पके
पत्तों के
टूटने का
रहस्य उन्हें
बता आऊं।
संन्यास पहले
नहीं है।
ज्ञान है
प्रथम। उसकी आंच
में ससार पके
पत्ते की
भांति गिर
जाता है।
संन्यास लाया
नहीं जाता, पाया जाता
है।
ज्ञात
की क्रांति के
बाहर त्याग
कष्ट नहीं, आनंद हो
जाता है।
दोपहर'
25 जन.1962
रजनीश
के प्रणाम
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