एक खलीफा
सिकंदरिया
पहुंचा था। और
सिकंदरिया के
बहुत बड़े
विराट
पुस्तकालय में
उसने आग लगवा
दी थी। उस
खलीफा ने जाकर
उस पुस्तकालय
के अध्यक्ष को
कहा था— एक हाथ
में कुरान
लेकर और एक
हाथ में मशाल—उससे
कहा था कि मैं
यह पूछने आया
हूं कि कुरान में
जो कुछ लिखा
है, तुम्हारे
इस पुस्तकालय
में जो
किताबें हैं,
क्या उनमें
भी वही लिखा
है जो कुरान
में लिखा है? अगर वही
लिखा है तो
इतनी किताबों
की कोई जरूरत
नहीं, कुरान
काफी है, कुरान
पर्याप्त है।
और अगर तुम यह
कहो कि इन
किताबों में
ऐसी बातें भी
लिखी हैं जो
कुरान में
नहीं हैं,
तो
मैं कहूंगा, ये किताबें
खतरनाक हैं, क्योंकि
सत्य सब कुरान
में लिखा है, उसके
अतिरिक्त जो
भी है वह
असत्य है।
दोनों हालतो
में मैं कुरान
की कसम लेकर
और कुरान को
साक्षी रख कर
इस मशाल से इस
पुस्तकालय
में आग लगाता हूं।
और
उसने बड़े
पवित्र भाव से, बड़े
धार्मिक भाव
से उस
पुस्तकालय
में आग लगा दी।
वह पुस्तकालय
इतना बड़ा था
कि छह महीने
तक उन किताबों
में लगी हुई
आग नहीं बुझाई
जा सकी थी।
उसके हाथ में
शास्त्र था, पुस्तकालय
में किताबें
थीं।
शास्त्र
हमेशा
पुस्तकों के
खिलाफ है।
शास्त्र का
मतलब है—कोई
किताब जो पागल
हो गई है या
उसके मानने
वाले पागल हो
गए हैं। और यह
दावा करने लगे
हैं कि यह परम
सत्य है, इसके
अतिरिक्त सब
असत्य है।
किताब
के मैं खिलाफ
नहीं हूं। जिस
दिन गीता एक
किताब होगी, और कुरान
एक किताब होगी,
और बाइबिल
एक किताब होगी—
वह स्वागत के
योग्य होगी।
लेकिन जब तक
वे शास्त्र
हैं, तब तक
वे खतरनाक हैं।
तब तक उनसे
बचने की जरूरत
है।
मेरे
शब्दों का जो
संग्रह किया
जा रहा है वे किताबें
हैं। उन
किताबों में
कोई भी
शास्त्र होने
का दावा नहीं
है। और न उन
किताबों का यह
दावा है कि जो
मैं कह रहा हूं
वही सत्य है।
न उन किताबों
का यह दावा है
कि मेरी जो
बात मान लेगा
वह मोक्ष चला
जाएगा और
स्वर्ग का
अधिकारी हो
जाएगा। और जो
मेरी बात नहीं
मानेगा उसे
नरक में सड़ना
पड़ेगा। नहीं, उन
किताबों में
यह कोई दावा
नहीं है। वे
किताबें
विनम्र
निवेदन हैं इस
बात की कि मुझे
जो दिखाई पड़ता
है वह मैं कह
रहा हूं ताकि
मैं आपको
साझीदार बना
सकूं। अनुयायी
नहीं! शास्त्र
अनुयायी
बनाता है, किताबें
केवल साझीदार
बनाती हैं—शेयरिग।
किताब सिर्फ
शेयर करना
चाहती है।
शास्त्र
अनुयायी
बनाना चाहता
है। शास्त्र
कहता है मेरे
पीछे आओ!
किताब कहती है
कि मेरी सुन
लो, इतनी
ही तुम्हारी
बड़ी कृपा है।
पीछे आने का
कोई सवाल नहीं
है।
तो एक
बात स्पष्ट हो
जानी चाहिए कि
मैं जो कह रहा
हूं वह
शास्त्र नहीं
है, न जो
लिखा जा रहा
है वह शास्त्र
है। और सच तो
यह है कि
बुद्ध ने जो
कहा था वह भी
शास्त्र नहीं
था, महावीर
ने जो कहा था
वह भी शास्त्र
नहीं था, कृष्ण
ने जो कहा था
वह भी शास्त्र
नहीं था। वह सब
अपने मित्रों
के साथ अपने
अनुभव में
साझीदार, अपने
अनुभव में
साथी बनाने का
प्रयास था।
लेकिन
उन किताबों के
आसपास झुंड
खड़ा हो गया भीड़
का। अनुयायी
खड़े हो गए। और
उन्होंने
दावे करने
शुरू किए कि
हमारी जो किताब
है वह साधारण
किताब नहीं है, वह
शास्त्र है।
दूसरी सब
किताबें हैं;
हमारी
किताब
शास्त्र है।
दूसरी सब
आदमियों की
लिखी हुई
किताबें हैं,
हमारी
किताब स्वयं
परमात्मा का
लिखा हुआ शास्त्र
है। हमारी
किताब स्वर्ग
से उतरा हुआ
संदेश है।
हमारी किताब
ईश्वर के
द्वारा भेजे
गए पैगंबर की
किताब है, मैसेंजर
की। हमारे वेद
स्वयं परमात्मा
के हाथ से
लिखे गए हैं, मनुष्य के
हाथों से नहीं।
वे अपौरुषेय
हैं। जब इस
तरह के गलत
दावे खड़े हो
जाते हैं, तो
किताब
शास्त्र हो
जाती है।
जैसे
आदमी पागल हो
जाता है, ऐसे ही
किताबें भी
पागल हो जाती
हैं। और जब
पागल हो जाती
हैं तो उनको
हम शास्त्र कहते
हैं।
शास्त्रों के
मैं खिलाफ हूं
किताबों के
मैं कभी खिलाफ
नहीं। दुनिया
में किताबें
जितनी बढ़े
उतना अच्छा है,
शास्त्र
जितने कम हो
जाएं उतना
अच्छा है।
गीता बहुत
अदभुत किताब
है, बहुत
प्यारी है।
लेकिन जैसे ही
वह शास्त्र हो
जाती है, विषाक्त
हो जाती है, पायजनस हो
जाती है।
किताब रह कर
वह सिर्फ
कृष्ण के
अनुभव की अभिव्यक्ति
है। और वह
आपको
निमंत्रण
देती है कि
मुझे सुनो, मेरी बात
सुन लो, तो
आपकी कृपा है।
सोच लो मेरी
बात, आपका
बड़ा अनुग्रह
है। मेरी बात
पर विचार कर
लो और अगर कुछ
ठीक लगे— ठीक
तुम्हें लगे,
तुम्हारी
बुद्धि को, तुम्हारे
विवेक कों—तो
ठीक लगते ही
वह किताब की
बात नहीं रह
गई, वह
आपकी अपनी बात
हो गई।
मैं जो
कह रहा हूं
अगर उसमें से
आपके तर्क और
विचार और
बुद्धि को कोई
बात ठीक लगे, सोचने से
ठीक लगे, विचारने
से ठीक लगे, संदेह करने
से ठीक लगे, तो फिर वह
मेरी नहीं रह
गई, वह
आपकी हो गई।
और बिना सोचे,
बिना
विचारे, विश्वास
करने से ठीक
लगे, तो वह
बात मेरी है
और आप अंधे
आदमी हो।
शास्त्र
दावा करता है
कि आप अंधे हो
जाओ। शास्त्र
कहता है मुझ
पर विचार मत
करना।
क्योंकि जो
ईश्वर के वचन
हैं उस पर
मनुष्य विचार
कैसे कर सकता
है? आदमी
की अदालत में
और
ईश्वर
को खड़ा किया
जा सकता है? आदमी की
बुद्धि की
कसौटी पर और
परमात्मा के
वचन नापे
जा सकते हैं? नहीं, यह
असंभव है।
शास्त्र पर
विचार नहीं
किया जा सकता,
शास्त्र पर
सिर्फ
विश्वास किया
जा सकता है।
उस किताब को
मैं शास्त्र
कहता हूं जो
कहती है विश्वास
करो, विचार
नहीं। जो कहती
है अनुगमन करो,
अनुकरण करो,
अनुयायी
बनो, जो
कहा है वह परम
सत्य है, वह
सर्वज्ञ की
वाणी है, वह
तीर्थंकर का
वचन है, उस
वचन में कभी
भी भूल नहीं
हो सकती।
ये जो
दावे हैं, ये दावे
अगर किसी दिन
मेरी किताबें
करें, तो
उन सारी
किताबों को
इकट्ठा करके
आग लगा देना।
कृष्ण की
किताब को आग
लगाने के लिए
मैं नहीं कह
सकता हूं।
मोहम्मद की
किताब को आग
लगाने को नहीं
कह सकता हूं।
लेकिन कम से
कम अपनी किताब
को आग लगाने
के लिए कहने
का हक मुझे है।
जिस दिन मेरी
कोई किताब
दावा करे कि
यह शास्त्र है,
उस दिन
उसमें एकदम आग
लगा देना और
भूल से उसको
कहीं बचने मत
देना दुनिया
के किसी कोने
में। अगर वह
रह गई तो वह
खतरनाक साबित
होगी और आदमी की
जिंदगी को
बर्बाद करेगी
और नुकसान पहुंचाएगी।
उन्हीं
मित्र ने एक
बात और पूछी
है और उनके
दोनों
प्रश्नों का
जवाब देना
जरूरी है क्योकि
नीचे उन्होंने
लिखा है कि
अगर आपने जवाब
नहीं दिया तो
मैं कत दुखी
हो जाऊंगा।
उन्होंने
दूसरी बात यह
पूछी है कि
ओशो आपके चित्र
भी बिकते हैं
और लोग आपके
चित्र भी अपने
घरों में
लगाते हैं और
आप तो मूर्ति
के विरोध में
हैं।
मैं मूर्ति के
विरोध में हूं
और चित्र के
विरोध में कभी
भी नहीं हूं।
मूर्ति और
चित्र में भी
वही फर्क है
जो किताब और
शास्त्र में
फर्क है।
मैंने कभी
नहीं कहा कि
राम के चित्र
को अपने घर
में मत लगाना।
मैंने कभी
नहीं कहा कि
महावीर के
चित्र को अपने
घर में मत लगा
लेना। मैंने
यह भी नहीं
कहा कि महावीर
की पत्थर की
प्रतिमा अपने
घर में मत रख
लेना। महावीर
जैसे प्यारे
आदमी की
स्मृति घर में
रखी जा सकती
है। बुद्ध
जैसे प्यारे
आदमी की
स्मृति जिस घर
में नहीं है
वह घर अधूरा
है। और जीसस
का सूली पर
लटका हुआ
चित्र जिस घर
के भीतर नहीं
है, उस घर
के बच्चों को
पता नहीं कि
कितने अदभुत
लोग जमीन पर
हो चुके हैं।
लेकिन
पूजा मत करना।
प्रेम करना, पूजा
नहीं।
क्योंकि पूजा
दूसरा ही अर्थ
रखती है। पूजा
यह कहती है कि
इस पत्थर की
मूर्ति के सामने
हाथ जोड्ने
से मुझे
मुक्ति मिल
सकती है। यह
बेवकूफी की
शुरुआत हो गई।
किसी मूर्ति
के और किसी
चित्र के
सामने बैठने
से मुक्ति
नहीं मिल सकती।
और कोई मूर्ति
और कोई चित्र
भगवान तक
पहुंचने का
रास्ता नहीं
बन सकता। कोई
मूर्ति भगवान
नहीं है।
मूर्ति और
चित्र उन
प्यारे लोगों
की स्मृतियां
हैं जो जमीन
पर हो चुके
हैं। और उनकी
स्मृति न रखी
जाए, यह
मैंने कभी भी
नहीं कहा है।
मैं
मूर्तियों के
मंदिर बनाने
के खिलाफ हूं।
लेकिन घर—घर
में
मूर्तियां
हों, इसके
पक्ष में हूं।
एक—एक घर में
मूर्तियां
हों। लेकिन
मूर्तियां
भगवान की तरह
नहीं, एक
पवित्र स्मरण
की तरह, एक सैक्रेड रिमेंबरिंग
की तरह। जमीन
पर कुछ फूल
हुए हैं
मनुष्य के
जीवन में, कुछ
मनुष्य हुए
हैं जो खिल गए
हैं पूरे, उनकी
याद अगर आदमी
रखे तो मैं
कैसे उसके
खिलाफ हो सकता
हूं?
एक
अदभुत घटना
सुनाता हूं।
सुन कर बहुत
हैरानी होगी।
रामकृष्ण
परमहंस का
किसी ने एक
चित्र उतारा।
और चित्र उतार
कर जब वह
चित्र बना कर
लाया, तो
रामकृष्ण ने
उस चित्र के
पैर पड़े और
सिर से चरण
लगाए उस चित्र
के। उनका ही
चित्र था, रामकृष्ण
का ही। पास
में बैठे लोग
तो बड़े हैरान
हो गए कि यह
क्या पागलपन
है? अपने
ही चित्र को
रामकृष्ण हाथ
जोड़ कर पैर
छूते हैं, सिर
से लगाते हैं।
यह क्या
पागलपन है!
सहने के बाहर
हो गई यह बात! और
किसी बैठे हुए
संन्यासी ने
पूछा कि परमहंसदेव,
यह क्या
करते हैं आप? अपने ही
चित्र को!
रामकृष्ण
ने कहा, यह मुझे
खयाल ही नहीं
रहा कि चित्र
मेरा है।
चित्र देख कर
मुझे खयाल आया
कि किसी
समाधिस्थ आदमी
का चित्र है।
और समाधि को
नमस्कार करने
का मन हो गया, मैंने
नमस्कार कर
लिया। तुम याद
दिलाते हो तो
मुझे खयाल आया
कि चित्र मेरा
है। अरे लोग
हंसेंगे जब
उन्हें पता
चलेगा कि मैंने
अपने ही चित्र
के पैर छू लिए,
लेकिन
मैंने सिर्फ
समाधिस्थ भाव
के पैर छुए हैं।
लेकिन
यह बात समझनी
थोड़ी कठिन हो
जाएगी।
महावीर का
चित्र महावीर
का चित्र नहीं
है। बुद्ध की
मूर्ति बुद्ध
की मूर्ति
नहीं है। ये
समाधिस्थ
चेतनाओं के
स्मरण हैं।
और कभी
आपने खयाल
किया, जैनों
के चौबीस तीर्थंकरों
की मूर्तियां
हैं, अगर
उनके नीचे
चिह्न न बने
हों और आपको बताया
न जाए ये
किसकी
मूर्तियां
हैं, आप
पहचान सकते
हैं किसकी
मूर्तियां
हैं? चौबीस
तीर्थंकरों
की मूर्तियों
में पहचान बता
सकते हैं आप—
यह महावीर की
है, यह
नेमी की है, यह पार्श्व
की है, यह
ऋषभ की है—किसी
की बता सकते
हैं? नहीं
बता सकते।
क्योंकि वे
मूर्तियां
आदमियों की
मूर्तियां
नहीं हैं, वे
केवल भावदशाओं
की मूर्तियां
हैं, वे सब
बिलकुल एक
जैसी हैं। उन
मूर्तियों
में कोई भी
फर्क नहीं है।
क्या फर्क है
उन मूर्तियों
में?
सच तो
यह है, जैसे—जैसे
आत्मा प्रकट
होनी शुरू
होती है, शरीर
गौण हो जाता
है। शरीर का
भाव गौण हो
जाता है, आत्मा
की
अभिव्यक्ति
तीव्र होने
लगती है, तीव्र
होने लगती है।
एक बल्व
है बिजली का, बिना जला
हुआ लटका है, तब तक बल्व
दिखाई पड़ता है।
जल जाए, फिर
रोशनी दिखाई
पड़ती है, बल्व
दिखाई नहीं
पड़ता। और
जितनी तेज
रोशनी होगी, बल्व उतना ही
दिखाई नहीं
पड़ेगा। वैसे
ही भीतर का
दीया जब तक
बुझा है तब तक
शरीर दिखाई
पड़ता है, जब
भीतर का दीया
जल जाता है तो
शरीर दिखाई
नहीं पड़ता, फिर भीतर की
रोशनी दिखाई
पड़ने लगती है।
वह
रोशनी प्रकट
हुई है न
मालूम कितने
लोगों से। उन
लोगों की
प्यारी
स्मृतियों को
लोगों ने संजो
कर रखा है, तो मैं
उसका दुश्मन
नहीं हूं। वे
स्मृतियां संजोई जा
सकती हैं।
लेकिन जब हम
इस भूल में
पड़ते हैं कि
उन संजोई
गई स्मृतियों
के आधार पर, चित्रों और
मूर्तियों के
आधार पर हम
मोक्ष पहुंच
जाएंगे और
मुक्ति पा
लेंगे, तो
गलती शुरू हो
जाती है।
मुक्ति तो खुद
महावीर भी
चाहें तो किसी
आदमी को मुक्त
नहीं करा सकते,
तो महावीर
की मूर्ति तो
क्या करेगी!
कोई किसी को
धक्के देकर
मोक्ष में भेज
सकता है? कोई
घसीट कर किसी
को मोक्ष में
ले जा सकता है?
आज तक तो यह
नहीं हो सका
कि कोई आदमी
किसी को मोक्ष
में ले जा सके।
खुद महावीर और
बुद्ध और जीसस
नहीं ले जा
सकते किसी को
मुक्ति में, तो उनके
चित्र तो क्या
ले जा सकेंगे!
लेकिन
चित्र न टांगे
जाएं घरों में, यह मैं
नहीं कह रहा
हूं। चित्रों
के टांगने का
कारण दूसरा है।
ऐस्थेटिक,
बहुत सौदर्यगत
मूल्य है उनका,
बहुत स्मृतिगत
मूल्य है।
लेकिन पूजागत
मूल्य बिलकुल
नहीं है।
इसी
से संबंधित एक
बात और दूसरे
मित्र ने पूछी
है। उन्होंने
पूछा है कि
ओशो आप उठते हैं—
कोई हाथ जोड़ता
है आपको कोई
आपके पैर छूता
है तो मुझे कत
हैरानी होती
है। उन्होंने
लिखा है कि
उन्हें बहुत
हैरानी होती
है। क्यों कोई
पैर छुए किसी
के? क्यों
कोई किसी को
हाथ जोड़े?
बहुत हैरानी
की बात तो है, कोई
क्यों किसी के
पैर छुए! कोई
क्यों किसी के
हाथ जोड़े!
लेकिन उन
मित्र ने शायद
कभी नहीं सोचा
होगा, मैं
भी पक्ष में
नहीं हूं कि
कोई किसी के
पैर छुए और
कोई किसी के
हाथ जोड़े।
लेकिन एक शर्त
बता देनी
जरूरी है अगर
वह सोचता हो
कि पैर छूने
से कुछ हो
जाएगा तो गलती
में है। अगर
वह सोचता हो
कि हाथ जोड्ने
से कोई प्रसाद
मिलेगा, कोई
आशीर्वाद
मिलेगा, तो
वह भूल में है।
वह बहुत सस्ते
सौदे करने की
कोशिश में लगा
हुआ है। वह मूढ़
है, अगर वह
सोचता है कि
किसी के पैर
छूने से कुछ
हो जाने वाला
है। अगर इस
कारण कोई किसी
के पैर छू रहा
है तो गलती कर
रहा है। वह
वही पूजा वाली
बात शुरू हो
गई, वह भूल
कर रहा है। और
भूल कर ऐसी
भूल नहीं करनी
चाहिए। कम से
कम मेरे साथ
तो नहीं करनी
चाहिए।
लेकिन
इसका मतलब यह
नहीं है कि
मैं यह कह रहा
हूं कि पैर छू
लेना पाप है
किसी का। यह
मैं नहीं कह
रहा हूं। मैं
यह कह रहा हूं
कि पैर अगर इस कंडीशन के
साथ, इस
शर्त के साथ
छुए जा रहे
हैं कि पैर
छूने से कुछ
मिलेगा, तो
गलत है बात, कुछ नहीं
मिलने वाला है।
लेकिन अगर कुछ
मिल गया है और
सिर्फ अनुग्रह
में पैर छुए
जा रहे हैं, तो दुनिया
में पैर छूना
कभी नहीं रोका
जा सकता। अगर
पैर छूना
सिर्फ एक
धन्यवाद है!
और आप
कहेंगे कि
धन्यवाद तो
हाथ जोड़ कर भी
दिया जा सकता
है, पैर
छूने की क्या
जरूरत है? लेकिन
शायद आपको पता
नहीं है, जब
आपको क्रोध
आता है किसी
आदमी पर तो आप
जूता निकाल कर
उसके सिर पर
क्यों मार देना
चाहते हैं? कभी सोचा है?
सारी
दुनिया में, यह कोई भारत
और चीन और
किसी एक देश
की बात नहीं है,
सारी
दुनिया में, आदमी क्रोध
से भर जाए तो
जूता निकाल कर
किसी के सिर
पर क्यों मार
देना चाहता है?
सिर पर जूता
मारने से क्या
हो जाएगा? पागलपन
है न! जूते को
सिर में लगाने
से क्या हो सकता
है?
जब कोई
आदमी प्रेम से
भर जाता है
पृथ्वी पर कहीं
भी, तो
किसी को अपने
हृदय से क्यों
लगा लेना
चाहता है? हृदय
से लगाने से
प्रेम का क्या
संबंध है? हड्डियां
हड्डियों से
मिल जाएंगी, इससे क्या प्रेम
हो जाएगा? लेकिन
शायद ही आपने
कभी पूछा होगा
कि दो प्रेमी
एक—दूसरे को
हृदय से क्यों
लगाते हैं? और दो क्रोध
में उन्मत्त
व्यक्ति अपने
पैर को दूसरे
के सिर से
क्यों लगाना
चाहते हैं? अब इतनी
छलांग लगानी
मुश्किल है कि
किसी के सिर
पर खड़े हो जाओ,
इसलिए जूता
प्रतीकात्मक
रूप से उसके
सिर पर लगाते
हैं। लगाना
पैर चाहते हैं
उसके सिर पर, लेकिन पैर
लगाना जरा
मुश्किल बात
है। उतना हाई
जंप कठिन
पड़ेगा। तो
उसके लिए जूता
निकाल कर, सिबालिक, कि लगा दिया
पैर तुम्हारे
सिर से।
क्रोध
में आदमी अपने
पैर को किसी
के सिर से लगाना
चाहता है।
प्रेम में
किसी को अपने
हृदय से लगाना
चाहता है। और रेवरेंस
में, श्रद्धा
में, आदर
में क्या करे?
ठीक क्रोध
से उलटी
अवस्था है वह।
वह किसी के
पैर से अपने
सिर को लगा
देना चाहता है।
यह सिर्फ
प्रतीकात्मक
है, इनका
इससे ज्यादा
अर्थ नहीं है।
इनसे कुछ
मिलने वाला
नहीं है। कुछ
भीतर घटना घटी
है, उसे
अभिव्यक्त
करने के
माध्यम हैं ये।
हम
किसी आदमी को
प्रेम करते
हैं, उसका
हाथ हाथ
में ले लेते
हैं। हाथ में
हाथ लेने से
क्या होने
वाला है? लेकिन
नहीं, कहीं
प्रेम घटित
हुआ है और
आदमी असमर्थ
है, कैसे
उसे प्रकट करे?
कहीं उसे लगा
है कि भीतर
मैं जुड़ गया
हूं उस जोड़ को
कैसे जाहिर
करे? वह
हाथ को हाथ
में लेकर जोड़
जाहिर करता है।
और भी भीतर
गहरा मालूम
पड़ता है कि
मैं जुड़ गया हूं
तो वह किसी को
हृदय से हृदय
लगा लेता है, वह आलिंगन
कर लेता है।
वह यह जाहिर
करता है कि
भीतर मैं इतना
मिल गया हूं कि
तुम्हें कहना
चाहता हूं
शरीर के
प्रतीकों से
कि मिलन हो
गया है।
मैं
नहीं चाहता कि
कोई किसी के
पैर छुए।
लेकिन कोई घड़ी
ऐसी हो सकती
है कि पता ही न
चले कि हमने
किसी के पैर
छू लिए हैं, तब बात
दूसरी है। अगर
सोच कर, विचार
कर और हिसाब
लगा कर पैर
छूते हों, तो
बिलकुल फिजूल
मेहनत कर रहे
हैं, कवायद
कर रहे हैं, इससे कोई
फायदा नहीं है।
तो कभी भूल कर
किसी का सोच
कर पैर मत
छूना कि यह आदमी,
दूसरे लोग
इसके पैर छूते
हैं इसलिए मैं
छू लूं। बेकार
मेहनत है।
इसके पैर छूने
से कोई स्वर्ग
और वैतरणी पार
हो जाएंगे।
गलती में हैं,
धोखे में
हैं। इसके पैर
छूने से ज्ञान
मिल जाएगा।
फिजूल की
आकांक्षा कर
रहे हैं, व्यर्थ
की आकांक्षा
कर रहे हैं।
लेकिन किसी
क्षण में शात
भी नहीं होता
कि हम कहीं
झुक गए हैं।
उस झुक जाने
का एक
आध्यात्मिक
अर्थ है, एक
मूल्य है।
और फिर
पूछने जैसा है, विचारने
जैसा है कि कोई
दूसरा आदमी
झुक रहा है और
किसी दूसरे
आदमी को
परेशानी हो
रही है! अगर वे
खुद झुक रहे
होते और
उन्हें
परेशानी होती
तो समझने की
बात थी। एक
दूसरा आदमी
किसी के पैर
में झुक रहा
है और वे
परेशान हो रहे
हैं। अजीब
परेशानी है!
आप क्यों
परेशान हो रहे
हैं? मैं
क्यों परेशान
हो रहा हूं? दो आदमी
प्रेम कर रहे
हैं। मैं
परेशान हो रहा
हूं! मैं
बेचैन हुआ जा
रहा हूं कि दो
आदमी प्रेम
क्यों कर रहे
हैं! यह मेरी बेचैनी
क्या बताती है?
एक आदमी
किसी को आदर
और श्रद्धा दे
रहा है, धन्यवाद
दे रहा है।
मैं परेशान
हुआ जा रहा
हूं। क्यों
मैं परेशान हो
रहा हूं?
परेशानी
के दो—तीन
कारण हो सकते
हैं। एक, परेशानी का
कारण एक तो यह
कि दूसरों को
झुकते देख कर,
मेरा जो
भीतर अहंकार
है, जो
झुकना नहीं
जानता— मेरा
जो अहंकार है,
जो झुकना
नहीं जानता—
उसे बड़ी चोट
लगती है। अगर
कोई भी न झुके
तो वह निश्चिंत
हो जाता है।
अगर कोई झुके
तो उसे चोट
लगती है।
जैसे
तीन आदमी जा
रहे हैं और एक
भीख मांगने वाला
सामने खड़ा हो
जाए और उन तीन
में से एक
आदमी पैसे
निकाल कर भिखमंगे
को दे दे
और बाकी दो न
देना चाहते
हों पैसे, तो उसके
देने से चोट
लगती है, क्योंकि
अब न देना एक भिखमंगे
के सामने
अपमानित होना
है। अगर इस
मित्र ने भी न
दिया होता
पैसा, तो
वे तीनों अपनी
अकड़ से जा
सकते थे; क्योंकि
तीनों ने नहीं
दिया था, तीनों
बराबर थे।
एक
आदमी चोरी
करता है और
अगर उसे पता
चल जाए कि यहां
जितने लोग
बैठे हैं सब
चोर हैं, उसके अपराध
का भाव विलीन
हो जाता है।
क्योंकि कोई
डर की बात
नहीं, सभी
चोरी कर रहे
हैं। चोरी आम
है। इसीलिए तो
आप अखबार उठा
कर सबसे पहले
देखते हैं कि
कहां चोरी हुई,
कहां हत्या
हुई, कहां
क्या हुआ।
अपने को
विश्वास
दिलाने के लिए
कि कोई फिक्र नहीं,
सब जगह यही
हो रहा है।
कोई हम ही कर रहे
हैं, ऐसा
नहीं है, हर
आदमी यही कर
रहा है। यह तो
यूनिवर्सल फिनामिना
है। यह तो हर
आदमी कर रहा
है। इसमें कोई
घबड़ाहट
की बात नहीं
है। एट ईज़,
आदमी को
भीतर एक
विश्राम
मालूम पड़ता है
कि सब ठीक है।
हम सामान्य
आदमी हैं, जैसे
सब लोग हैं।
लेकिन
अगर एक आदमी
के बाबत पता
चलता है कि वह
ईमानदार है, सच्चा है,
तो आप एकदम
से विश्वास
नहीं करते। आप
हजार चेष्टा
करते हैं
खोजने की कि
वह सच्चा सच
में है? ईमानदार
सच में
है? आप
सब उपाय करते
हैं पता लगाने
का कि वह है भी
ईमानदार? और
जब तक आप पता
नहीं लगा लेते
कि अरे सब
बेईमानी है
वहां भी, सब
ऊपर का धोखा
था, तब तक
एक बेचैनी
अनुभव होती है
मन में कि यह
कैसे हो सकता
है कि एक आदमी
ईमानदार है और
मैं बेईमान
हूं! उसकी
ईमानदारी मेरी
बेईमानी की
तुलना में
ऊंची मालूम
होने लगती है,
मैं नीचा
मालूम होने
लगता हूं। एक इनफीरिआरिटी,
एक हीनता
पकड़ लेती है।
तो चेष्टा
चलती है.. .हम
किसी अच्छे
आदमी की अच्छाई
को एकदम से
मानने को राजी
नहीं होते।
मजबूरी में
राजी होते हैं,
जब कोई उपाय
ही न रहे तब हम
मानने को राजी
होते हैं।
लेकिन
एक आदमी के
बाबत हमें कोई
कहे कि वह बेईमान
है,
चोर है। हम
एकदम मान लेते
हैं, हम
बिलकुल
खोजबीन नहीं
करते। हम
बिलकुल
खोजबीन नहीं
करते कि हम.. .एक
आदमी ने हमें
कहा कि वह चोर
है, बेईमान
है.. .हम खोजबीन
करें, फिर
मानें। नहीं,
कोई खोजबीन
नहीं करता।
बल्कि अगर
उसने कहा था
कि वह पचास परसेंट
चोर है, तो
जब हम दूसरे
को खबर देते
हैं तो वह खबर
सौ परसेंट
हो जाती है।
हमारे दिल को
राहत मिलती है
इस बात से कि
वह आदमी भी
बेईमान है। वह
जो हमारे भीतर
हीनता का भाव
था, वह मिट
जाता है। और हम
उस आदमी की
पचास परसेंट
चोरी को सौ परसेंट
क्यों बताने
लगते हैं? क्योंकि
हम जितना बड़ा
पापी अपने
आस-पास के लोगों
को बता सकें, उतना ही
हमारा पाप कम
और हम ऊपर
उठते जाते हैं।
सुना
होगा आपने, बहुत
पुरानी कहानी
है, कि एक
सम्राट ने एक
लकीर खींच दी
और अपने दरबारियों
से कहा कि इसे
बिना छुए हुए
छोटा कर दो।
वे मुश्किल
में पड़ गए।
लेकिन जो
दरबार का कवि
था हंसी-मजाक
करने वाला, जो दरबार का
जोकर था, उसने
एक बड़ी लकीर
उसके नीचे
खींच दी। उसने
उस लकीर को
छुआ भी नहीं
और वह छोटी हो
गई, क्योंकि
बड़ी लकीर नीचे
खींच दी गई।
जब
हम आस-पास के
पाप की खबर
सुनते हैं, तो
हम उस पाप को
बड़ा कर देते
हैं एकदम। वह
हमारे पाप की
लकीर को तो
छोटा करना
मुश्किल है, लेकिन दूसरे
की पाप की
लकीरों को बड़ा
किया जा सकता
है। और तत्काल
हमारी लकीर
छोटी हो जाती
है।
इसीलिए
निंदा में
इतना रस है। न
संगीत में
इतना रस है, न
अध्यात्म में
इतना रस है, निंदा में
जो रस है वह
अदभुत है। वह
रस ही अदभुत
है। न वीणा
इतना संगीत
पैदा कर सकती
है, न संत
ऐसी वाणी दे
सकते हैं, जैसा
निंदा में
आनंद उपलब्ध
होता है। वह
क्यों होता है?
तो
एक तो कारण यह
है कि अगर कोई
भी न झुके, तो
वह हमारा जो
नहीं झुकने का
आदी अहंकार है
वह निश्चिंत
रहता है।
लेकिन आस-पास
अगर लोग कभी
झुकने लगे, तो हमारी
अकड़ को कठिनाई
मालूम होने
लगती है। तो
हम किसी भांति
यह ठहराना
चाहते हैं कि
झुकने वाले
गलत हैं, ताकि
यह सिद्ध हो
जाए कि न
झुकने वाला
सही है।
लेकिन
मैं आपसे कहता
हूं झुकने
वाले गलत हैं
अगर वे किसी
इच्छा से
झुकते हों, लेकिन
न झुकने वाला
हर हालत में
गलत है। झुकने
वाले सिर्फ एक
हालत में गलत
हैं, अगर
वे किसी इच्छा
से झुकते हों।
कुछ चाहने के
लिए, कुछ
पाने के लिए
झुकते हों, तो बिलकुल
गलत हैं।
लेकिन न झुकने
वाला हर हालत
में गलत है।
क्योंकि न
झुकने की जो
प्रवृत्ति है,
अगर हम गौर
से देखें, तो
न झुकने की
प्रवृत्ति = न सीखने की
प्रवृत्ति, दोनों बराबर
हैं। एटिटयूड
ऑफ लर्निंग, सीखने की
प्रवृत्ति, झुकने की
प्रवृत्ति है।
जो जितना झुक
जाता है, उतना
सीखता है।
उतना, उतना
विनम्र।
एक
नदी के घाट पर
एक औरत खड़ी थी।
वह अपने सिर
पर मटकी लिए
हुए है और
घंटों से खड़ी है। फिर
एक दूसरी औरत
आई, वह
भी मटकी लिए
हुए है। वह
झुकी, उसने
अपनी मटकी में
पानी भर लिया
और जाने लगी।
वह खड़ी औरत
बोली, बड़े
आश्चर्य की
बात है, मैं
एक घंटे से
खड़ी हूं और
मेरी मटकी अभी
तक नहीं भरी!
उस
दूसरी औरत ने
कहा कि मटकी
तो भर जाती, नदी तो
भरने को हमेशा
तत्पर थी, लेकिन
झुकना तो
पड़ेगा, मटकी
झुकानी
तो पड़ेगी। नदी
तो बही चली
जाती है। नदी
तो कहती नहीं
कि मत भरी।
नदी तो किसी
की भी मटकी
में जाने को
सदा तत्पर है।
लेकिन उनकी ही
मटकियों
में जा पाती
है जो झुकते
हैं और नदी के
तल तक मटकी को
ले आते हैं।
तुम अकड़ कर
खड़ी हो। तो
तुम खड़ी रहो
जन्मों—जन्मों
तक। यह मटकी
नहीं भर सकेगी।
अहंकार
कभी भी कुछ
नहीं सीख पाता
है। विनम्रता
सीखती है, ह्मुमिलिटी सीखती है। ह्मुमिलिटी
का मतलब क्या
है? विनम्रता
का मतलब क्या
है? विनम्रता
का मतलब है
झुकने की
पात्रता।
किसी व्यक्ति
के सामने ही
नहीं, किसी
भगवान के
सामने ही नहीं;
किसी गुरु
के सामने ही
नहीं, झुकने
की पात्रता!
किसी से संबंध
नहीं है इस
बात का कि आप
किसी के लिए झुकें।
नहीं, आप
झुके हुए हों।
यह सवाल नहीं
है कि आप किसी
के लिए झुकें।
झुका हुआ मन
हो, प्रतिपल
झुकने को
तैयार हो। उस
झुकने से ही
सीखना उपलब्ध
होता है। जो
नहीं सीखना
चाहते, वे
अकड़ कर खड़े रह
जाते हैं।
अंधविश्वास
से भरी हुई
विनम्रता
व्यर्थ है।
लेकिन अहंकार
हर स्थिति में
व्यर्थ है। और
अगर यही चुनना
हो— अहंकार
में चुनना हो
और
अंधविश्वास
से भरे हुए
झुकने में
चुनना हो— तो
मैं कहता हूं
कि दूसरे
अंधविश्वास
से भरे हुए
झुकने को चुन
लेना।
क्योंकि जो आज
अंधविश्वास
से झुक रहा है, झुकने के
ही कारण इतना
सीख लेगा कि
उस सीखने की
वजह से
अंधविश्वास
मिट सकता है।
लेकिन जो अकड़
कर ही खड़ा है, वह कभी कुछ
नहीं सीख
पाएगा। और
बिना कुछ सीखे
अहंकार नहीं
मिट सकता है।
इसीलिए
पीड़ा होती है
कि मैं अकड़ कर
खड़ा हूं और कोई
दूसरा झुक रहा
है। और भी
कारणों से
पीड़ा होती है।
यह भी पीड़ा हो
सकती है नंबर
दो कि मेरे
भीतर भी झुकने
का तीव्र भाव
आ गया है, लेकिन सदा
की अकड़ने
की आदत अकड़ा
कर खड़ी है और
प्राण झुक
जाना चाहते
हैं। तो एक
भीतर द्वंद्व
खड़ा हो गया है।
इस द्वंद्व को
सुलझाने का एक
ही उपाय दिखाई
पड़ रहा है कि
जो झुक रहे
हैं वे गलत कर
रहे हैं। ताकि
मैं भी अपने
भीतर जो झुकने
की प्रवृत्ति
है उसको कह
दूं कि तू गलत
है।
अगर
भीतर झुकने का
भाव पैदा हो
गया है तो यह
सौभाग्य है, यह धन्यभाग्य
है। यह सवाल
किसी व्यक्ति
के आस—पास
झुकने का नहीं
है। और मेरे
पास तो झुकने
का बिलकुल ही
नहीं है।
लेकिन झुकने
के भाव का बड़ा
मूल्य है।
तीसरी
बात, आज
तक दुनिया में
ऐसे लोग हुए
हैं जो चाहते
हैं कि हमारे
चरणों में
झुको। अगर गौर
से हम देखें, तो वे लोग जो
चाहते हैं कि
मैं कभी कहीं
न झुकूं, सिक्के के
एक पहलू हैं; उसी सिक्के
का दूसरा पहलू
वह आदमी है जो
कहता है कि सब
मेरे चरणों
में झुकें।
गुरुओं की जो
लंबी परंपरा
है, वह इसी
तरह के
मोहग्रस्त
लोगों की
परंपरा है जो
चाहते हैं कि
लोग मेरे
चरणों में झुकें।
उनकी पांच
हजार वर्ष की
परंपरा ने
अत्यधिक शोषण
किया है
मनुष्य का। उन
झुकाने वाले
लोगों ने, जिन्होंने
चाहा कि झुको
और प्रलोभन
दिया झुकने के
लिए—कि झुकोगे,
पैर छुओगे,
चरणों में
सिर रखोगे, समर्पण कर
दोगे चरणों
में मेरे, तो
मोक्ष, स्वर्ग,
पुण्य, सब
उपलब्ध हो
जाएगा। मेरी
कृपा से सब
मिल जाएगा।
मेरे
आशीर्वाद से
सब मिल जाएगा।
गुरु—चरणों की
कृपा से सब मिल
जाएगा।
गुरुजन यह
समझाते रहे
हैं। वे तो
यहां तक कहते रहे
हैं कि अगर
गुरु और
गोविंद दोनों
खड़े हों, तो
पहले गुरु के
चरणों में झुक
जाना, क्योंकि
गुरु ही
गोविंद को
बताने वाला है।
गुरुजन यही
समझाते रहे
हैं। वे कहते
हैं कि बिना
गुरु के तो
ज्ञान होगा ही
नहीं। इसलिए
गुरु के चरण पकड़े बिना
कोई उपाय नहीं
है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है कि अगर
गुरु लोग ही
यह समझा रहे
हों, तो
स्पष्ट है कि
प्रयोजन क्या
है। तो मैं भी
कहता हूं कि
जो आदमी
झुकाना चाहता
हो अपने चरणों
में, भूल
कर भी उसके
चरणों में मत
झुकना। जो
आदमी कहता हो
कि झुको मेरे
चरणों में, वह आदमी तो
अत्यंत पाप की
बात कर रहा है।
मत झुकना उसके
चरणों में! इस
बात के कहने
के कारण ही वे
चरण अपवित्र
हो गए। न तो
किसी की
आकांक्षा से
झुकना, न
अपनी
आकांक्षा से
झुकना कि मुझे
कुछ मिल जाएगा।
लेकिन
अगर कभी वह
क्षण आ जाए
जीवन में कि
पता भी न चले
कि हम कब झुक
गए हैं, तो उस क्षण
को भी चूक मत
जाना।
क्योंकि उस
क्षण में जो
उपलब्ध होगा,
उस क्षण से
गुजर जाने में
जो अनुभव होगा,
उस क्षण के
पहले जो
प्रतीति होगी
और उस क्षण में
जो प्रतीति
होगी, उसे
बताने का कोई
उपाय नहीं कि
वह प्रतीति
क्या है।
मेरी बात
थोड़ी कठिन हो
गई। क्योंकि न
तो मैं इस
पक्ष में हूं
कि कोई किसी को
समझाए कि मेरे
पैरों में
झुको, न
ही मैं इस
पक्ष में हूं
कि कोई किसी
को समझाए कि
कभी झुकना मत,
मैं इन
दोनों बातो
के पक्ष में
नहीं हूं।
मेरा पक्ष यह
है कि झुकने
का भी अपना
आनंद है, झुकने
का भी अपना
अर्थ है, झुकने
के भी अपने
प्रतीक हैं।
लेकिन वे ही
उन्हें जानते
हैं जो अनायास,
अकारण, बिना
किसी फल की
इच्छा के, अचानक
पाते हैं कि
झुकना हो गया
है। उस झुकने
का एक
आध्यात्मिक
मूल्य है। वह
एक गेस्वर
है, वह एक
बहुत स्प्रिचुअल
गेस्वर
है। वह एक
बहुत अदभुत
अभिव्यक्ति
है। दुनिया से
उसको मैं नहीं
मिटाना चाहता
हूं।
लेकिन
इसका मतलब यह
नहीं है कि उस
अभिव्यक्ति के
आधार पर कुछ
लोग दूसरों को
अपने पैरों
में झुकाने की
शिक्षा दें और
शोषण करें।
उसके भी मैं
पक्ष में नहीं
हूं। इसलिए जो
आदमी कहता हो
कि आओ और पैर
छुओ और प्रलोभन
देता हो, उस आदमी को क्रिमिनल
समझना, उसको
अपराधी समझना,
और उसको
दंडित किए
जाने की, अच्छा
कोई समाज होगा
तो व्यवस्था
करेगा वह समाज।
लेकिन जो आदमी
अकड़ कर खड़ा है
और कहता है कि
मैं कभी नहीं झुकूंगा
और कहीं झुकना
भी मत, वह
आदमी भी
अपराधी है, क्योंकि वह
भी एक गलत बात
सिखा रहा है।
तूफान
आते हैं हवाओं
के, आंधिया आती हैं, बड़े
दरख्त
अकड़ कर खड़े रह
जाते हैं, छोटे
पौधे झुक जाते
हैं और जमीन
पर सो जाते हैं।
बड़े दरख्त
अकड़े ही
रहते हैं, खड़े
ही रहते हैं, रेसिस्ट करते हैं, प्रतिरोध
करते हैं
हवाओं का, और
टूट जाते हैं।
छोटे पौधे झुक
जाते हैं, हवाएं
गुजर जाती हैं,
पौधे फिर
वापस खड़े होकर
नाचने लगते
हैं, वे
जीवित रह जाते
हैं। उन छोटे
पौधों को
झुकने की कोई
अदभुत कीमिया पता
है जो बड़े
पौधों को नहीं
है। बड़े पौधे
अहंकार की
भांति सख्त और
कठोर हैं। वे
टूटते हैं, लेकिन झुकते
नहीं।
और
स्मरण रहे, जिसने
झुकने की कला
छोड़ दी, वह
का हो गया और
टूटने के करीब
पहुंच गया।
बच्चे और के
में यही फर्क
है। बच्चा लोचपूर्ण
है, फ्लेक्सिबल है, झुकता
है, लोच से
भरा है, कैसे
भी झुक सकता
है। का अकड़
गया; झुक
नहीं सकता, झुका कि टूट
जाएगा।
हड्डियां सब
मजबूत हो गई
हैं, अब
कहीं झुकाव
मुश्किल है।
इसलिए का मरता
है और बच्चा
जीता है।
बच्चा अभी
जवान होगा, के की सिर्फ
मौत आएगी! जिस
आदमी की
मानसिक तल पर
सारी
हड्डियां
सख्त हो गईं, मन के तल पर
सारे स्नायु
कठोर और पत्थर
के हो गए और
झुकने की
क्षमता भीतर
खो दी, उस
आदमी की आत्मा
मरने के करीब
पहुंच गई, मर
चुकी! लेकिन
जो वहां भीतर
के तल पर भी लोचपूर्ण
है और हवाओं
में झुकता है,
तूफानों में झुकता
है, वह
व्यक्ति और
बड़े जीवन के
निकट पहुंचने
की पात्रता
पैदा कर रहा
है।
कभी
देखना आंधियों
में जब छोटे
पौधे झुक जाते
हैं—कितने ग्रेसफुली, कितने प्रसादपूर्ण।
उनके झुकने
में न कोई
दयनीयता है, न उनके
झुकने में कोई
पीड़ा है, न
कोई दुख है, उनके झुकने
में भी एक
सौंदर्य है।
और खड़े हुए
वृक्षों को भी
देख लेना— अकड़े
हुए। और उनकी
इस अकड़ में न
कोई ग्रेस,
न कोई
प्रसाद है।
उनकी अकड़ में
सिर्फ एक वहम
है कि मैं
इतना बड़ा और
कैसे झुक सकता
हूं?
यही, यह भ्रम
तोड़ देगा
उन्हें, जड़ों
से उखाड़
देगा। और ये
छोटे—छोटे
पौधे, जिनकी
जड़ें भी छोटी—छोटी
थीं, तूफान
और आंधिया
जिन्हें उड़ा
कर कहीं भी ले
जा सकती थीं, वे जीवित
बाहर वापस
निकल आएंगे—
पहले से भी
ज्यादा
शक्तिपूर्ण, पहले से भी
ज्यादा आनंद
से भरे हुए।
क्योंकि एक
तूफान से गुजर
जाना एक अनुभव
है और जीवित
बच जाना एक
उपलब्धि।
जीवन
में एक कला, एक कला की
जरूरत है कि
हम ऐसे तरल, ऐसे सरल, ऐसे
विनम्र कि
झुकने में
कहीं कोई पीड़ा
न मालूम हो।
जिसे झुकने
में पीड़ा
मालूम होती है,
वह जीवन की लोचपूर्ण
कला को नहीं
जानता है।
लेकिन
इसका मतलब यह
नहीं है कि जो......झुकने
का मतलब यह
नहीं है, विनम्र होने
का, सरल
होने का, तरल
होने का यह
मतलब नहीं है
कि आप आंखें
बंद कर लें, अंधे हो
जाएं, इसका
यह मतलब नहीं
है कि जो कोई
भी आपको कहे
कि चलो झुको, और जोर से
आवाज दे, वहीं
आप झुक जाएं।
मैं
आपको कहता हूं—
यह बात बहुत पैराडॉक्सिकल
दिखाई पड़ेगी, यह बहुत
विरोधी दिखाई
पड़ेगी— लेकिन
मैं आपको कहता
हूं केवल वे
ही लोग जो झुकने
की पात्रता
रखते हैं, अगर
किसी दिन न
झुकने का
निर्णय ले
लेते हैं, तो
दुनिया का कोई
भी तूफान
उन्हें न झुका
सकता है और न
तोड़ सकता है।
केवल वे ही
लोग जो झुकने
के लिए हमेशा
तैयार होते
हैं, अगर
किसी दिन न
झुकने का तय
कर लें, इस
दुनिया की कोई
ताकत फिर उनको
झुका नहीं सकती
है। क्योंकि न
झुकने की ताकत,
वे झुकने के
माध्यम से
इतनी इकट्ठी
कर लेते हैं, जिसका कोई
हिसाब नहीं।
लेकिन
जो लोग हमेशा
अकड़ कर खड़े
रहते हैं कि
नहीं झुकेंगे, नहीं
झुकने की
चेष्टा में
उनकी कितनी
शक्ति अपव्यय
हो जाती है, उन्हें पता
नहीं। वे धीरे—
धीरे इंपोटेंट
हो जाते हैं, धीरे— धीरे
उनकी सारी
शक्ति क्षीण
हो जाती है
अपने से ही
लड़ने में कि
नहीं झुकूंगा।
अपने को ही
सम्हालने में,
अपने को ही
रोकने में, रेसिस्ट करने में
उनकी सारी
शक्ति खत्म हो
जाती है, भीतर
से वे खोखले
हो जाते हैं।
जैसे वृक्ष
भीतर से खोखले
हो जाते हैं।
और तब कोई
छोटा सा हवा
का झोंका भी
उन्हें झुका
सकता है।
अब यह
बड़ी उलटी बात
दिखाई पड़ेगी।
जीसस
जैसे लोग जो
झुकने के लिए
सदा तैयार हैं, जिस दिन
असत्य के
सामने झुकने
से इनकार कर
देते हैं, उस
दिन फिर मौत
भी नहीं झुका
सकती, फिर
कोई शक्ति
नहीं झुका
सकती। सुकरात
जैसे लोग
जिनकी विनम्रता
का कोई हिसाब
नहीं, जो
एक छोटे से
बच्चे से भी
सीखने को
तैयार हैं, जिन्होंने
जीवन में कभी अकड़ने का
खयाल ही नहीं
लिया, जब
सत्य की लड़ाई
खड़ी होती है, तो वे जहर
पीने को तैयार
हो जाते हैं।
लेकिन
उनके इस खड़े
रहने में भी
कुरूपता नहीं
है। क्योंकि
वह खड़ा रहना अहंकार
के लिए खड़ा
रहना नहीं है।
वह खड़ा रहना
सत्य के लिए
खड़ा रहना है।
अहंकार तो बड़ा
से बड़ा असत्य
है। जो अहंकार
के लिए खड़ा है
वह असत्य के
लिए खड़ा है।
जो सत्य के
लिए खड़ा होता
है वह अहंकार
के लिए कभी
खड़ा नहीं होता।
क्योंकि सत्य
केवल उसी को
उपलब्ध होता
है जिसका
अहंकार विलीन
हो चुका है।
फिर भी
इन मित्र ने
निवेदन किया
है, तो
उनकी तरफ से
आपको सूचना कर
दूं मेरे पैर
भूल कर भी मत
छूना। मुझे
जरा भी रस
नहीं है। आप
कवायद करें, मुझे क्या
मिल सकता है? आप झुकें,
उठें, साथ—साथ
मुझे भी थोड़ा—बहुत
झुकना—उठना
पड़ता है, मैं
भी थकता हूं
और कुछ होता
नहीं। मुझे
क्या मिलेगा
आपके पैर में
झुक जाने से? क्या मिल
सकता है? आपके
झुकने से मुझे
क्या मिल सकता
है? इसलिए
उन्होंने
निवेदन किया,
ठीक ही किया।
नहीं, आप
भूल कर भी
मेरे पैर में
मत झुकना।
लेकिन
यह नहीं कह
रहा हूं कि आप
जीवन में झुकना
भूल जाना, उसकी
तैयारी रखना।
क्योंकि जो
झुक जाते हैं,
जीवन की
सरिता उनकी गगरियों
में आ जाती है,
और जो अकड़े
रह जाते हैं, जीवन की
सरिता से
वंचित रह जाते
हैं।
एक—दो
छोटे प्रश्न
और, फिर
मैं अपनी बात
पूरी करूं।
एक
मित्र ने पूछा
है कि ओशो
क्या जैसा आप
कहते हैं कि
हर चीज पर
संदेह करें तो
क्या हम समाज
में जो अच्छाई
और बुराई की, पाप और
पुण्य की
धारणा है उस
पर भी संदेह
करें? और
अगर उस पर
संदेह करेंगे
तब तो हम
अनैतिक हो जाएंगे।
उन्हें यह
भ्रम पैदा हो
गया है मेरी
बात को सुन कर—
कि संदेह करने
से, जो
अच्छा है, वह
शायद फिर
अच्छा दिखाई
नहीं पड़ेगा; जो बुरा है, वह शायद फिर
बुरा दिखाई
नहीं पड़ेगा।
मेरा
कहना है कि
अगर संदेह की
कसौटी पर
अच्छा खरा न
उतरे, तो
वह अच्छा कभी
था ही नहीं।
और अगर वह
अच्छा था और
है, तो
दुनिया में
कितना ही आप
संदेह करें, आप संदेह से
उसे मिटा नहीं
सकेंगे। यह
ऐसा ही है
जैसे कि हम
सोने को आग
में डाल दें।
तो कोई डरे कि
सोने को आग
में डालेंगे
तो सोना कहीं
जल न जाए! जो जल
जाएगा, सिद्ध
हो जाएगा कि
वह सोना नहीं
था। सोना नहीं
जलेगा। जो जल
जाएगा, उससे
सिद्ध होगा कि
वह सोना नहीं
था। और जो आग
से निखर
कर वापस निकल
आएगा, वही
सिद्ध होगा कि
सोना था।
संदेह
की अग्नि में
जो भी सत्य है
वह नष्ट नहीं
होता है, और निखर
कर, और
तेजस्वी होकर
प्रकट होता है।
और सत्य के
साथ, शुभ
के साथ जो—जो
कचरा—कूड़ा
इकट्ठा था, वह सब जल
जाता है। जरूर
हमारे समाज की
बहुत सी
धारणाओं में कूड़ा—कचरा
है। और जो
संदेह करेंगे,
कूड़ा—कचरा बह
जाएगा, बह
जाना चाहिए।
उसी कूड़े—कचरे
की वजह से तो
यह समाज हमारा
इतनी नीति की बातें
करता है और
इतना अनैतिक
है। जरूर
हमारी
नैतिकता की
धारणा में
अनीति के बुनियादी
रोग घुसे
हुए हैं।
अन्यथा नीति
की इतनी बात
करने वाले लोग
और इतने
अनैतिक कैसे
हो सकते हैं? लेकिन हमें
दिखाई नहीं
पड़ता।
एक
आदमी रिश्वत
देने जाता है, वह पांच
रुपये देता है
और अपना काम
करवा लेता है।
हम कहते हैं
कि यह आदमी तो
बड़ा अच्छा
आदमी था, इसे
तो हमने मंदिर
में नारियल चढ़ाते
देखा, पूजा
करते देखा, फूल चढ़ाते
देखा, धूप—दीप
जलाते देखा।
यह इतना अच्छा
आदमी, इतना
नैतिक आदमी, यह पांच
रुपया रिश्वत
दे रहा है? यह
कैसे हो सकता
है?
नहीं, आप ठीक से
नहीं देख पाए,
आप समझ नहीं
पाए। वह
नारियल भी
रिश्वत था, वे फूल भी
रिश्वत थे जो
भगवान के
सामने चढ़ाए
गए। यह आदमी
बिलकुल कसिस्टेंट
है। यह ठीक
वही व्यवहार
वहां भी कर
रहा है जो
मंदिर में कर
रहा है। यह जब
नारियल चढ़ा
रहा था, तब
यह भीतर कह
रहा था कि
मेरे लड़के को
परीक्षा पास
करवा देना, भगवान, मैं
पांच आने का
नारियल चढ़ाता
हूं। और अगर
परीक्षा लड़का
पास हो गया, तो बिलकुल
बेफिक्र रहना,
एक नारियल
और चढ़ाऊंगा।
यह
क्या कह रहा
था वहां? यह कह रहा था
कि पांच आने
की रिश्वत हम
देते हैं
महाशय, लड़के
को पास करा
देना। यह
रिश्वत
पुरानी थी, दिखाई नहीं
पड़ती थी। आजकल
जो रिश्वत चल
रही है, दो— चार
सौ साल चलेगी,
वह भी दिखाई
नहीं पड़ेगी।
अभी भी दिखाई पड़नी कम हो
गई है। जितनी
उन्नीस सौ
सैंतालीस में
दिखाई पड़ती थी,
अब नहीं
दिखाई पड़ती।
आदत! अब हम
मानने लगे कि
वह भी है, धीरे—
धीरे वह
व्यवस्थित हो
जाएगी। जैसे
एक आदमी को
नौकरी मिलती
है, वैसे
ही रिश्वत भी मिलती
है। लोग बड़े
मजे से पूछते
हैं, तनख्वाह
कितनी मिलती
है? और
पूछते हैं, ऊपर से
कितना मिलता
है? और
बताने वाले
बिलकुल
निश्चिंतता
से बताते हैं
कि इतनी
तनख्वाह मिल
जाती है, ऊपर
इतना मिल जाता
है। यह भी
तनख्वाह का
हिस्सा है, तनख्वाह का
दूसरा हिस्सा
है। इसमें कुछ
पाप नहीं, कोई
ग्लानि नहीं,
कोई गलती
नहीं।
यह
आदमी रिश्वत
मंदिर में चढ़ा
रहा था तब हम
नहीं पकड़ पाए, आदमी को चढ़ाने लगा
तो हमें पकड़
में आ गया। और
इस बेचारे ने
बिलकुल
तर्कसंगत
व्यवहार किया।
इसने देखा कि
पांच आने में
भगवान तक राजी
हो जाते हैं, तो आदमी को
राजी करने में
कौन सी खराबी
है? जब
भगवान तक को
राजी करने में
कोई पाप नहीं,
तो आदमी को
राजी करने में
हर्ज क्या है?
संदेह
की अग्नि में
जो व्यर्थ है
वह जल जाएगा, लेकिन जो
सार्थक है वह
बच रहेगा। और
अगर न बचे तो
समझ लेना कि
वह व्यर्थ था।
यानी मैं
कसौटी इसे
मानता हूं कि
संदेह की आग
में जो न बचे
वह सत्य नहीं
था।
बहुत
कुछ है जो
असत्य है।
नीति के नाम
पर असत्य है, धर्म के
नाम पर असत्य
है, पुण्य
के नाम पर
असत्य है।
बिलकुल असत्य
है। लेकिन कभी
हमने संदेह
नहीं किया कि
हम सोचें, हम
विचार करें।
एक आदमी धन
कमाता है, सब
तरह की चोरी
और बेईमानी
उसे करनी पड़ती
है। क्योंकि
बिना चोरी और
बेईमानी के धन
कमाना असंभव
है। यह कभी भी
संभव नहीं रहा,
आज भी संभव
नहीं है। यह
कभी भी संभव
हो सकेगा, नहीं
दिखाई पड़ता।
एक तरफ वह धन
इकट्ठा कर
लेता है सब
तरह का गलत करके,
दूसरी तरफ
वह आदमी दान
करता है, एक
मंदिर बना
देता है। और
हम कहते हैं, दानवीर है, पुण्यात्मा
है।
अजीब
सामाजिक
दृष्टि है यह!
अजीब बात हो
गई यह! यह
सामाजिक नीति
खतरनाक है।
क्योंकि यह
चोरी और
बेईमानी से आए
पैसे से भी पुण्य
किया जा सकता
है, इसमें
विश्वास करती
है। यह कैसे
हो सकता है? यह कैसे हो सकता
है कि मैं
आपकी जेब काट
लूं जेब काट
कर रुपये
इकट्ठे करूं
और गांव में
हनुमान जी की
एक मढिया
बना दूं! यह
मेरी चोरी से
निकली हुई मढिया
धर्म—स्थान
कैसे बन सकती
है? कैसे
हो सकती है? यह पुण्य
कैसे हो सकता
है?
लेकिन
सामाजिक नीति
आज तक यह
स्वीकार करती
रही। वह यह
नहीं पूछती कि
धन कहां से
आया। वह यह
पूछती है कि
धन तुमने दान
में किया, बस बात
पूरी हो गई।
लाओत्सु
था चीन में एक
अदभुत आदमी।
एक राज्य का
कानून मंत्री
था। एक आदमी
ने चोरी की, पहला ही
मुकदमा उसके
सामने आया, तो उसने चोर
को छह महीने
की सजा दी और
साहूकार को भी
छह महीने की
सजा दे दी।
साहूकार
ने कहा, आप पागल हो
गए हैं! यह किस
कानून में
लिखा है कि जिसके
घर चोरी हो वह
भी सजा काटे?
लाओत्सु
ने कहा, पागल मैं
नहीं हो गया
हूं अब तक
सारा कानून पागल
था! तूने सारे
गांव की
संपत्ति
इकट्ठी कर ली
है, चोरी
नहीं होगी तो
अब क्या होगा
गांव में? यह
चोर तो नंबर
दो है
जिम्मेवार
चोरी में, नंबर
एक तू
जिम्मेवार है।
इतना धन जहां
इकट्ठा होगा
वहां चोरी
होगी। इस चोर
को चोरी
करवाने में
तूने ही
टेंपटेशन, तूने
ही प्रेरणा दी
है। और इस
आदमी ने अगर
चोरी की है, तो तुम
दोनों चोरी
में समान
भागीदार हो।
मैं तो तुम
दोनों को ही
सजा दूंगा।
राजा
ने कानून
मंत्री को
बुला कर कहा
कि आपका दिमाग
दुरुस्त है? कभी
दुनिया में यह
हुआ है? लाओत्सु
ने कहा, नहीं
हुआ दुनिया
में इसीलिए
दुनिया से
चोरी नहीं मिट
सकी है और
नहीं मिट
सकेगी। और मैं
कहता हूं कि
जो मैं कह रहा
हूं अगर यह हो,
तो दुनिया
में चोरी मिट
सकती है।
लाओत्सु
की बात नहीं
सुनी गई। आज
भी पूरी तरह
नहीं सुनी गई
है! लेकिन जब
तक नहीं सुनी
जाएगी, वह वर्डिक्ट,
वह लाओत्सु
का कथन खड़ा
रहेगा आकाश
में, चमकते
हुए अक्षरों
में लिखा
रहेगा कि तब
तक नहीं मिट
सकती चोरी जब
तक चोर के साथ
साहूकार भी
दंडित नहीं
होगा, नहीं
मिटेगी।
तो वह
नीति गलत है
जो सिर्फ चोर
को जिम्मेवार ठहराती
है और साहूकार
को जिम्मेवार
नहीं ठहराती।
अगर संदेह की
आग में वह
नीति गुजरेगी
तो दोनों
जिम्मेवार ठहरेंगे, वे एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। जब
तक धन इकट्ठा
होगा तब तक
चोरी कैसे बंद
हो सकती है? चोरी चलती
रहेगी।
लेकिन
धर्मग्रंथ और नीतिशास्त्री
कहते हैं, चोरी पाप
है। लेकिन वे
यह नहीं कहते
कि शोषण पाप
है। बड़े मजे
की बात है!
चोरी पाप है, शोषण पाप
नहीं है? चोरी
पाप है और धन? धन पुण्य से
मिलता है, पिछले
जन्मों के
पुण्य से
मिलता है।
जरूर इसमें
कुछ होशियारी
की बात हो गई।
होशियारी
की बात यह हो
गई कि चोरी
करता है गरीब
आदमी और शोषण
करता है अमीर
आदमी! अमीर
चाहता है, चोरी से
सुरक्षा रहे।
इसलिए अमीर के
आगे—पीछे
घूमने वाले
संन्यासी और
पंडित.....क्योंकि
यह पुराना
गठबंधन है; अमीर संन्यासियों
का सहारा लेकर
जीते हैं, संन्यासी
अमीरों का
सहारा लेकर
जीते हैं.....तो
संन्यासी
कहते हैं और
पंडित कहते
हैं, चोरी
पाप है, चोरी
कभी मत करना।
लेकिन वे
संन्यासी यह
नहीं कहते कि
शोषण पाप है, शोषण मत
करना। शोषण
जारी रहता है,
चोरी भी
जारी रहती है।
चोरी में इतनी
शक्ति है, वह
शोषण से जुड़ा
हुआ हिस्सा है।
जिस दिन शोषण
बंद होगा उस
दिन चोरी बंद
होगी।
तो अगर
संदेह की
अग्नि में आप
जांच करेंगे
समाज की नीति
की, तो
आप पाएंगे कि
उसमें बहुत
कुछ शरारत से
भरा हुआ है, झूठ है, पाखंड
है, बहुत
कुछ निश्चित
रूप से
अनीतिपूर्ण
है। और वह सब
जल जाएगा। और
जल जाना चाहिए।
और तब संदेह
के बीच से एक
नीति विकसित
होगी, सही,
एक ठीक
दृष्टिकोण, जिससे जीवन
रूपांतरित
होता है।
तो
इससे घबडाएं
मत कि संदेह
में चला जाएगा
तो सब गड़बड़ हो
जाएगा। गड़बड़
होगा, बहुत
कुछ गड़बड़ होगा,
क्योंकि सब
कुछ गड़बड़ है।
एक बीमार आदमी
को ठीक करना
पड़ता है तो
उसके शरीर में
बहुत कुछ गड़बड़
करनी पड़ती है,
दवाएं
डालनी पड़ती
हैं, इंजेक्शन
डालना पड़ता है।
लेकिन वह
बीमार आदमी
सहता है इस
बात को, वह
यह नहीं कहता
कि यह क्या
गड़बड़ कर रहे
हैं! चीजें
डाल रहे हैं
मेरे शरीर में?
वह जानता है
कि गड़बड़ वहां
भीतर है, बीमारी
वहां है, और
इनके विपरीत
चीजों को डाले
बिना वह
बीमारी अलग
होने वाली
नहीं है।
समाज
में गड़बड़ है, अनीति है।
इस अनीति को
एक बड़े
विध्वंस के
बिना मिटाए कोई
रास्ता नहीं
है। इसे तोड़ना
पड़ेगा। और हम
नहीं तोड़ेंगे
तो यह समाज और
सड़ता चला
जाएगा; और
गंदा, और
कुरूप होता
चला जाएगा। यह
समाज गंदगी की
आखिरी सीमा पर
पहुंच गया है।
जहां सिर्फ
चेहरे दिखाई
पड़ रहे हैं
ठीक, बाकी
भीतर सब सड़
चुका है।
परिवार सड़
चुका है, समाज
सड़ चुका
है, शिक्षा
सड़ चुकी
है, सारे
अंतर—जीवन के
संबंध सड़
चुके हैं, लेकिन
हम ऊपर से एक
चेहरा बनाए
हुए खड़े हैं
कि सब ठीक है।
यह सब
ठीक वैसा ही
है जैसे कि
सुबह आप चले
जा रहे हैं
दफ्तर की तरफ।
कुछ भी ठीक
नहीं है। घर
पर पानी नहीं
है, खाना
नहीं है, बच्चों
के लिए दवा
नहीं है, पत्नी
पागल हो जा
रही है। आप
चले जा रहे
हैं दफ्तर। और
एक आदमी कहता
है, कहिए, सब ठीक है? आप कहते हैं,
सब बिलकुल
ठीक है। बस यह
सब ठीक उसी
तरह का सब ठीक
है। कुछ भी
ठीक नहीं है।
एक औपचारिक
बात रह गई है
कि सब ठीक है।
ठीक हम
इसी तरह कहे
चले जा रहे
हैं, कुछ
भी ठीक नहीं
है। क्या ठीक
है? बचपन
से लेकर
बुढ़ापे तक कुछ
भी ठीक नहीं
है। इसमें
बहुत कुछ
गिरेगा, टूटेगा।
गिरना चाहिए,
तोड़ना
चाहिए। लेकिन
चूंकि हमने
कभी विचार
नहीं किया, इसलिए उसे
हम नहीं तोड़
पाए, हम
नहीं बदल पाए।
विचार
आएगा तो आएगा
विद्रोह!
विचार आएगा तो
आएगी क्रांति!
विचार आएगा तो
समाज इसी तरह
का बर्दाश्त
नहीं किया जा
सकता जैसा है!
जो लोग
बर्दाश्त
करते रहे हैं, उन लोगों
ने, उन
लोगों ने
अपराध किया है।
ये
थोड़ी सी बातें
मैंने कहीं।
कुछ प्रश्न और
रह गए। लेकिन
जिन दिशाओं
में मैंने बात
कही है, जिनके
प्रश्न रह गए
हों, अगर
उन दिशाओं में
थोड़ा भी वे
सोचने की
कोशिश करेंगे
तो उन्हें
अपने भीतर से
भी उत्तर मिल
सकते हैं। और
मेरे उत्तर का
बहुत बड़ा
मूल्य नहीं है।
मेरे उत्तर का
क्या मूल्य हो
सकता है, वह
मेरा उत्तर है।
जब आपका उत्तर
मिले तभी
मूल्य हो सकता
है।
पूछ
सकते हैं कि
फिर मैं क्यों
कह रहा हूं?
मैं
सिर्फ इसलिए
कह रहा हूं कि
आपको अगर यह
खयाल भी आ जाए
कि जिंदगी के
संबंध में
सोचना है, विचार
करना है, संदेह
करना है, तो
आपको अपने
उत्तर उपलब्ध
हो सकते हैं।
प्रश्न आपका
है, उत्तर
भी आपका चाहिए।
तभी वह प्रश्न
गिरेगा और
नष्ट होगा।
दूसरे के
उत्तर कुछ भी
नहीं कर सकते।
लेकिन दूसरे
के उत्तरों से
यह खयाल आ
सकता है कि
मैं भी सोचूं
मैं भी विचार
करूं, शायद
मेरे भीतर भी
चेतना है वह
भी उत्तर तक
पहुंच जाए और
समाधान खोज ले।
और प्रत्येक
व्यक्ति की
चेतना समाधान
खोज सकती है।
हमने नहीं खोजे
इसलिए हमको
नहीं उपलब्ध
हुआ; हम
खोजेंगे, वह
उपलब्ध हो
सकता है।
मेरी
बातों को इतनी
शांति और
प्रेम से सुना, उसके लिए
बहुत
अनुगृहीत हूं।
और अंत
में सबके भीतर
बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
हूं,
मेरे प्रणाम
स्वीकार करें।
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