अध्याय—(बयासीवां)
कृष्ण
अरूप ओशो की
कार के साथ—साथ
ही चलना चाहते
हैं,
इसलिए वह
दूसरे वाहनों
को ओवरटेक
करते हुए बहुत
तेजी से
ड्राइविंग कर
रहे हैं।
परिणामत: उनकी
कार का एक
टायर पंक्चर
हो जाता है और
एक वीरान सी
जगह पर कार को
रोकना पड़ता है।
टायर बदलने
जाने में करीब—करीब
एक घंटा लग
जाता है, और
तब तक मैं एक पेड
के नीचे बैठी—बैठी
बहुत बेचैन हो
रही हूँ।
जब
तक हम पूना
पहुंचते हैं
तब तक पूना के
मित्रों
द्वारा ओशो के
स्वागत का
कार्यक्रम
पूरा हो चुकता
है। संबोधि
दिवस का उत्सव
बंगला नंबर 17
के सामने शुरू
हो चुका है।
ओशो सफेद चादर
से ढकी एक बड़ी
सी मेज पर
आलथी—पालथी
लगाकर बैठे
हुए हैं।
कीर्तन चल रहा
है और लोग
लाइन से उनके
चरण छूने के
लिए आ रहे हैं।
काफी भीड़ है।
मैं भी यह
अवसर नहीं
छोड़ती और एक
बार फिर से उनके
चरण छूने के
लिए लाइन में
लग जाती हूं।
उनके
पास होने की
यह प्यास तो
कभी न बुझने
वाली लगती है।
मैं जितना पीती
हूं उतनी ही
प्यासी महसूस
करती हूं। जब
मैं उनके पास
पहुंचती हूं, वे
मुझे बड़ी
शरारत भरी
मुस्कान से
देखते हैं, जिसका अर्थ
मैं नहीं समझ
पाती। उत्सव
समाप्त होने
के बाद ओशो
उठकर खड़े हो
जाते हैं और सबको
नमस्कार कर
लक्ष्मी के
साथ बंगला
नंबर 33 की ओर
चले जाते हैं।
मैं कछ
मित्रों के
साथ भोजन करने
चली जाती हूं
और रात को एक
होटल में ठहर
जाती हूं। अब
तक मैं बहुत
थक भी चुकी
हूं और जल्दी
सो जाना चाहती
हूं।
मैं
ओशो के बारे
में सोचती हूं
और मुझे लगता
है कि सारा
दिन लोगों से
मिल—मिलकर वे
कितना थक गए
होंगे। रात को
अपने ध्यान के
समय मैं उनके
लिए
प्रार्थना
करती हूं कि
उन्हें नई जगह
पर अच्छी तरह
नींद आए।
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