अध्याय—(चौरासीवां)
शाम की
गाड़ी से मैं
बंबई के लिए
चल पड़ती हूं।
भीतर से मैं
बहुत उदास और
खाली—खाली
महसूस कर रही
हूँ। खिड़की के
पास वाली सीट
पर बैठकर मैं आंखें
बंद कर लेती
हूं। जब गाड़ी
चल पड़ती है तो
मैं बाहर
पहाड़ों से
घिरे दूर—दूर
तक फैले खेतों
की ओर देखने
लगती हूं।
मैंने इसी
गाड़ी पर ओशो
के साथ भी सफर
किया है और
मुझे याद आ
रहा है कि उस
समय सब कछ
कितना आनंददायी
और उत्सवभरा
था।
आज
सबकुछ एकदम
बदला हुआ है।
ऐसा लग रहा है
जैसे हर चीज
पर उदासी छा
गई हो। मुझे
ओशो के ये वचन
याद आते हैं, जब
तुम उदास हो, तो अपनी
उदासी का भी
आनंद लो।’ यह
सुनने में
आसान लगता है,
लेकिन इस पर
अमल करना लगभग
असंभव ही है।
मैं तो उदासी
से पीड़ित हूं।
मैं भीतर
झांकती हूं तो
आभास होता है
कि उदासी के
सागर में डूब
गई हूं।
मुझे
पता नहीं चलता
कि कब नींद
मुझे घेर लेती
है,
लेकिन जब
मेरी आंख
खुलती है न और
मैं अपनी घड़ी
की ओर देखती
हूं तो हैरान
रह जाती हूं
कि मैं दो
घंटे सो ली
हूं और नींद
में मेरे साथ
कुछ बहुत ही
चमत्कारपूर्ण
घट गया है।
मैं स्वयं को
फिर से बहुत
ताजी और ऊर्जा
से भरी हुई
महसूस
कर
रही हूं। सारी
उदासी गायब हो
गइ है। उसकी
जगह मैं बहुत शांत
और आनंदित
महसूस कर रही
हूं। एक
स्पष्टता सी आ
गई है। मुझे
बोध होता है
कि मैं एक
स्वतंत्र
व्यक्ति हूं और
इस विराट नाटक
में मुझे अपनी
समझ से ही
अपनी भूमिका
निभानी है। अब
समय है कि जो
कुछ मैंने ओशो
से सीखा है वह
अब मैं
मित्रों में बांटू।
उन्होंने
मुझे इतना
दिया है, जिसे
.मुझे पचाना
है। मुझे ओशो
के वचन याद
आते हैं, छोटा
पौधा किसी बड़े
वृक्ष की छाया
में नहीं बढ़
सकता।’
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