दिनांक
19 मई 1979; श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार:
1—आपसे
आंख मिली तबसे
अविरत गुंजन
हो गयी थी। कल
संध्या आपके
चरणों में
गिरते ही धुन
विदा हो गयी, शब्द
निःशब्द हो
गए। यह कैसी
पुकार!
2—यहाँ
आने का कोई
कारण नजर नहीं
आता, मगर न
जाने आपकी
कशिश मुझे
यहाँ क्यों
खींच लाती है।
किसी को उत्तर
देने में
असमर्थ मगर अब
जिंदगी में
जीने का मजा
आने लगा है।
क्यों? साथ
ही मैं
बिल्कुल
पत्थर हो गयी
हूँ। रोना तो
जैसे सूख ही
गया है।
3—मनुष्य
क्यों व्यर्थ
की बातों में
उलझा रहता है?
4—मेरी
जिंदगी के "जिग्सा पज़ल' का
अब तक न मिल
रहा एक टुकड़ा
कल संतोष पर
हुए आपके
प्रवचन में
अचानक मेरे
हाथ आ गया।
भगवान, आशिष
दें कि फिर न
खो जाए।
5—संन्यासी
होने के
पश्चात हमने
जो पाया है, वह
सभी को
प्राप्त हो, ऐसा हृदय
में बार—बार
उठता है। क्या
यह संभव है?
पहला
प्रश्न :
दर्शन दो
भगवान
मेरी
अंखियाँ
प्यासी रे
तीन—चार
दिन से जबसे
आपसे आंख मिली
है,
तबसे अविरत
गुंजन हो गयी
थी। कल संध्या
आपके चरणों
में गिरते ही
धुन विदा हो
गयी, शब्द
निःशब्द हो
गए। यह कैसी
पुकार!
चितरंजन, शब्द
की पुकार गहरी
पुकार नहीं।
निःशब्द की पुकार
ही गहरी पुकार
है।
प्रार्थना जब
तक शब्दमय
होती है, तब
तक छिछली होती
है, उथली
होती है।
प्रार्थना जब
निःशब्द हो
जाती है, तभी
गहराई लेती
है। बोली जा
सके जो
प्रार्थना, वह मस्तिष्क
की ही तरंग
है। बोली न जा
सके जो
प्रार्थना, वही हृदय का
आविर्भाव है।
गूँज से शुरू
होती है बात, शून्य पर
पूरी होनी
चाहिए।
दर्शन
दो भगवान
मेरी
अंखियां
प्यासी रे
ठीक है, यहीं
से शुरू होगी
बात। इसी
अभीप्सा से।
लेकिन अगर ये
शब्द बहुत
ज्यादा पकड़
मारकर बैठ
जाएँ, तो
इन्हीं
शब्दों के कारण
दर्शन असंभव
हो जाएगा। यही
शब्द गूँजते
रहेंगे। इनकी
गूँज के कारण
ही उसकी गूँज
सुनायी न पड़
सकेगी। वह बोल
रहा है। लेकिन
उसका बोलना निःशब्द
है, मौन
है। उसे समझना
हो तो भी
निःशब्द और
मौन में ही
समझना होगा।
उससे पहचान
बनानी हो तो
उसकी ही भाषा सीखनी
पड़ेगी। उसकी
भाषा संस्कृत
नहीं है; न
अरबी है, न
हिंदी है, उसकी
कोई भाषा नहीं
है। सन्नाटा
उसकी भाषा है।
शून्य उसकी
भाषा है। मौन
उसकी भाषा है।
जैसे—जैसे
प्रार्थना
गहरी होने
लगेगी वैसे—वैसे
मौन होने
लगेगी। फिर एक
भाव ही रह
जाएगा। भाव जो
रोएँ—रोएँ
में समाया
होगा। भाव जो
धड़कन—धड़कन में
धड़केगा।
भाव जिसे तुम
पकड़ भी न
पाओगे, मगर
होगा। उसी भाव
की पहुँच हो
सकती है। उसी
भाव के पास
पंख होते हैं
परमात्मा तक
पहुँचने के।
तो ठीक
हुआ अनुभव।
शब्द छोड़ना है, शब्द
से मुक्ति
होना है, निःशब्द
से जुड़ना
है। मेरे पास
आए हो इसीलिए
बोलता हूं
इसीलिए कि
तुम्हें किसी
तरह अबोल की
तरफ ले चलूँ।
समझता हूँ
इसीलिए कि
किसी तरह
समझाने के पार
ले चलूँ।
शब्दों का
उपयोग शब्दों
की हत्या के
लिए ही किया
जा रहा है।
जैसे एक काँटे
से दूसरा
काँटा निकाल
लेते हैं, ऐसे
तुमसे बोल रहा
हूँ। ताकि
मेरा काँटा
तुम्हारे
काँटे को निकाल
ले। फिर दोनों
फेंक देने
हैं। फिर उस
खालीपन में ही
उसका
आविर्भाव
होता है। जब
कोई शब्द की
तरंग नहीं
होती तब कुछ
सुनायी पड़ता
है। और जो
सुनायी पड़ता
है, वह
तुम्हारा
नहीं है फिर, वह किसी का
नहीं है फिर, फिर वह
समस्त का है।
फिर वह पूरे
अस्तित्व के प्राणों
से उठा है।
वही अनुभव
रूपांतरित
करता है।
तुम
ठीक प्रतीति
से गुजरे।
मेरे पास आओगे
तो पहले तो
शब्द ही गूँजेंगे।
पर धीरे—धीरे
शब्द छूटते
चले जाएँगे।
फिर मैं यहाँ
बोलता भी
रहूँगा, वहाँ
तुम सुनते भी
रहोगे, और
न तो मैं यहाँ
बोल रहा हूँ
और न तुम वहाँ
सुन रहे हो।
तब घटना
घटेगी। मेरे
बोलने में
शून्य है, देर—अबेर
तुम्हारे
सुनने में भी
शून्य हो
जाएगा। तब इन
दो शून्यों
का मिलन होगा।
दूसरा
प्रश्न : मुझे
यहाँ आने का
कोई कारण भी
नजर नहीं आता।
मगर न—जाने
आपकी कशिश
मुझे यहाँ
क्यों खींच
लाती है। किसीके
पूछने पर भी
उत्तर देने में
असमर्थ होती
हूँ। मगर अब
जिंदगी में
जीने का मजा
आने लगा है।
क्यों? साथ
ही मैं
बिल्कुल
पत्थर हो गयी
हूँ। रोना तो
जैसे सूख ही
गया है।
मुद्रा!
यहाँ आने का
कोई कारण हो
भी नहीं सकता।
और जो कारण से
आते हैं, वे
आते जरूर हैं
मगर पहुँच
नहीं पाते। जो
कारण से आते हैं
उनका कारण ही
मेरे उनके बीच
दीवाल बन जाता
है। जो अकारण
आते हैं, वही
आते हैं।
अकारण
आने का अर्थ
है— प्रेम से
आना। प्रेम इस
जगत में
एकमात्र अकारण
वस्तु है।
उसके लिए कोई
कारण नहीं
बताया जा सकता।
और सब चीजों
के लिए कारण
बताए जा सकते
हैं। इसलिए और
सब चीजें व्यवसाय
का हिस्सा हैं, प्रेम
व्यवसाय के
बाहर है। और
सब चीजें
बुद्धि के ही
खेल हैं, प्रेम
बुद्धि के
अतीत है। उसे
कशिश कहो, आकर्षण
कहो, प्रेम
कहो, भक्ति
कहो, भाव
कहो, लेकिन
एक बात
सुनिश्चित है
नाम कुछ भी दो,
कारण उसमें
नहीं है। एक
खिंचाव है, एक अनजाना
खिंचाव है।
तुम्हारे
बावजूद
तुम्हें आ जाना
पड़ता है।
दूसरों को ही
नहीं समझा
पाती हो, ऐसा
नहीं है, खुद
को भी कहाँ
समझा पाती हो;
खुद भी तो
मन कहता है—क्या
जरूरत है जाने
की? कितने
बार तो हो आए!
अब बार—बार
जाने से क्या
सार है? लेकिन
तुम्हारे
बावजूद भी कोई
प्रबल आकर्षण
तुम्हें यहाँ
ले आता है।
यही आने का
ठीक ढंग है।
फिर मेरे और
तुम्हारे बीच
कोई बाधा नहीं
होगी, क्योंकि
कोई हेतु नहीं
होगा। फिर
संबंध अहेतुक
होगा। अहेतुक
प्रेम का नाम
ही भक्ति है।
जब तक
प्रेम में
हेतु होता है, तब
तक प्रेम
वासना। जिस
दिन प्रेम में
हेतु गिर गया,
उस दिन
प्रेम भक्ति।
ये प्रेम के
ही दो रूप
हैं। प्रेम जब
तक हेतु से
जुड़ा है, तब
तक काम, और प्रैम जिस
दिन हेतु से मुक्ति
हो गया, उस
दिन राम। ये
प्रेम की ही
दो यात्राएँ
हैं। हेतु से
जुड़ा तो प्रेम
जमीन में गिर
जाता है, हेतु
से मुक्ति
हुआ तो आकाश
में उड़ने
लगता है।
तुमने
पूछा—मुझे
यहाँ आने का
कोई कारण भी
नजर नहीं आता।
ठीक ही बात
नजर आ रही है।
यहाँ आने का
कोई कारण है
भी नहीं। यहाँ
आना वैसे ही
अकारण है जैसे
जीवन अकारण
है। यहाँ आना
वैसे ही अकारण
है जैसे फूल
खिलते हैं, पक्षी
गीत गाते हैं,
सूरज
निकलता है, आकाश में
रात तारे भर
जाते हैं।
यहाँ आना ऐसे
ही हो, ऐसे
ही सहज, ऐसे
ही बिना किसी
लाभ—हानि के
विचार के, बिना
कुछ पाने की
दृष्टि के—आध्यात्मिक
पाने की
दृष्टि भी
नहीं। क्योंकि
जहाँ पाने की
दृष्टि है
वहाँ लोभ है, जहाँ लोभ है
वहाँ
अध्यात्म
कहाँ? जहाँ
लोभ है वहाँ
संसार है। अगर
कोई मंदिर गया
और कुछ पाने
गया, तो
मंदिर नहीं
गया। अगर कोई
परमात्मा के
चरणों में
झुका और
अर्चना और
पूजा और
प्रार्थना के
पीछे कोई हेतु
रहा कि हे प्रभो,
ऐसा हो जाए,
वैसा हो जाए,
यह मिल जाए,
वह मिल जाए,
तो झुका ही
नहीं। झूठ हो
गयी
प्रार्थना, झूठ हो गयी
अर्चना। वे
शब्द जो
तुम्हारे
ओंठों पर आए, गंदे हो गए।
उठने चाहिए
शब्द बिना
किसी कारण के;
तो
प्रार्थना
तत्क्षण
पहुँच जाती
है।
मुद्रा!
यही है ढंग
आने का। मैंने
तुम्हें नाम
दिया है—प्रेम
मुद्रा।
प्रेम की भावदशा।
यही है प्रेम
की भावदशा।
तुम्हारा
किसी से प्रेम
हो जाता है, कारण
बता पाओगे? क्यों हो
गया प्रेम? खोजबीन
करोगे तो शायद
कुछ कारण बता
पाओ, लेकिन
वे सब कारण
नाममात्र के
होंगे; उनके
कारण प्रेम
नहीं हुआ है।
बात उल्टी ही
है। प्रेम हो
जाने के कारण
उन बातों का
मूल्य मालूम
पड़ रहा है।
तुम किसी व्यक्ति
के प्रेम में
पड़ गए, फिर
कहते हो—देखो
उसका शील, देखो
उसका प्रसाद,
देखो उसका
सौंदर्य, इसीलिए
तो मेरा प्रेम
हो गया। इसी
प्रसाद, इसी
शील, इसी
सौंदर्य के
कारण। यह बात
सच नहीं है।
तुमने गणित को
उल्टा कर
लिया। तुमने
गणित को शीर्षासन
करवा दिया।
तुम्हारा
प्रेम हो गया
है, इसलिए
शील दिखायी
पड़ता है, सौंदर्य
दिखायी पड़ता
है, प्रसाद
दिखायी पड़ता
है। जब तक
प्रेम नहीं
हुआ था, इसी
आदमी में न तो
शील था, न
सौंदर्य था, न प्रसाद था,
कुछ भी नहीं
था। यह ऐसा ही
एक आदमी था
जैसे और आदमी
हैं, ऐसी
ही एक स्त्री
थी जैसी और स्त्रियाँ
हैं। एक आंकड़ा
था, आदमी
नहीं था। नंबर
था। राह पर कई
बार गुजरना, साथ मिलना
हो गया था, मगर
कभी यह ललक
पैदा न हुई
थी। कभी इसके
सौंदर्य से
अभिभूत न हुए
थे।
फिर एक
दिन घटना घटी।
अब तुम कहते
हो—सौंदर्य के
कारण प्रेम हो
गया! मैं कहता
हूँ—प्रेम के
कारण सौंदर्य
दिखायी पड़ रहा
है। क्योंकि
प्रेम तो
अकारण होता
है। कभी—कभी
उस व्यक्ति
से भी हो जाता
है,
जिसको कोई
सुंदर नहीं
मानता। फिर भी
जिसका हो जाता
है, उसे
सौंदर्य
दिखायी पड़ता
है। उसकी आंख
ही बदल जाती
है। उसके
सोचने का ढंग
ही बदल जाता
है। उसके
मापदंड बदल
जाते हैं।
प्रेम क्या आता
है एक झंझा
आया, एक
तूफान आया। सब
रूपांतरित कर
जाता है। यहाँ
आना प्रेम से
है।
मगर न
जाने आपकी
कशिश मुझे
यहाँ क्यों
खींच लाती है।
जान नहीं
पाओगी। जान लो, समझ
लो, पकड़
में आ जाए
बुद्धि के, तो फिर बहुत
गहरी न रही।
तुम्हारे
भीतर ऐसा भी
कुछ है जो
तुम्हारे
जानने से ज्यादा
गहरा है।
जानना ऊपर—ऊपर
है। जानना सतह
पर है। जानना
परिधि है। तुम्हारा
केंद्र
तुम्हारे
जानने के बाहर
है। यह आना
अगर जानने से
होगा तो
तुम्हें पता
रहेगा किसलिए
जा रहे हैं।
ध्यान करने जा
रहे हैं।
शांति की तलाश
में जा रहे
हैं। ईश्वर की
खोज में जा
रहे हैं। शायद
कोई विधि मिल
जाए, कोई
मार्ग मिल जाए
और जगह भी गए
हैं, यहाँ
भी जा रहे हैं;
और दरवाजे खटखटाए, इस दरवाजे
पर भी खटखटा
लो; कौन
जाने, शायद
वह भाग्य की
घड़ी आ गयी हो
और अब जीवन का
सुख बरस उठे।
अगर ऐसे सोच—विचार
से आओ, तो
समझ के भीतर
होगी बात।
लेकिन मेरा
संबंध ही उनसे
बनता है जिनके
आने का कारण
समझ के बिल्कुल
बाहर है। जो
समझा न
सकेंगे। जो
लाख सिर पटकें,
समझा न
सकेंगे।
जितनी समझाने
की कोशिश
करेंगे, उतने
उलझ जाएँगे।
इसलिए
जिनका मुझसे
प्रेम है, समाज
उन्हें पागल
ही कहेगा।
क्योंकि तुम
समझा न सकोगे।
समाज कहता है—समझाओ,
क्यों जाते
हो? क्या
कारण है? और
तुम्हारे पास
कोई कारण नहीं
सूझता। और तुम
अवाक् खड़े रह
जाते हो। तुम
कोई तर्क नहीं
बना पाते। तुम
कहते हो, बस
एक आकर्षण है।
इन बातों को
समझदार लोग
थोड़े ही मान
लेंगे।
कहेंगे
सम्मोहित हो
गए हो। कि विक्षिप्त
हो गए हो। कि
तुम अपने होश
में नहीं हो।
ऐसे वे ठीक ही
कह रहे हैं।
ये बातें होश
की हैं भी
नहीं। ये
बातें बेहोशी
की हैं। ऐसे
वे ठीक ही कह
रहे हैं। चाहे
उनके कहने का
कारण गलत हो, चाहे वे
शब्द गलत
उपयोग कर रहे
हों, लेकिन
ठीक ही कह रहे
हैं। तुम मेरे
प्रेम में पड़
गए तो यही तो
सम्मोहन है।
सम्मोहन का
अर्थ है— एक
जादू का संबंध
निर्मित हो
गया। एक ऐसा
संबंध जो नहीं
होना चाहिए था,
नियम के
अनुकूल नहीं
है प्रकृति की
व्यवस्था में
नहीं है, बाजार
और व्यवसाय की
भाषा में नहीं
है; एक ऐसा
संबंध
निर्मित हो
गया जो
बिल्कुल अव्यावहारिक
है, खतरनाक
भी सिद्ध हो
सकता है, महँगा
भी पड़ सकता है;
जो संबंध
सौदे का नहीं
है, जिसमें
शुद्ध जुआ है,
जोखिम—ही—जोखिम
है, मगर हो
गया है। और
ऐसी गहराई से
हुआ है कि
तुम्हारी
बुद्धि भी उस
गहराई को माप
नहीं पाती। तुम्हारी
बुद्धि भी उस
गहराई में उतर
नहीं पाती।
बुद्धि डुबकी
मारना नहीं
जानती, बुद्धि
तैरना जानती
है। नदी की
सतह पर तैरती
है। ये बातें
डुबकी की हैं।
तो ठीक
ही है मुद्रा, कि
मगर न जाने
आपकी कशिश
मुझे यहाँ
क्यों खींच
लाती है? खींचती
रहेगी। यह
कशिश बढ़ती
रहेगी। यह घटनेवाली
कशिश नहीं है।
जितना आओगी
उतनी बढ़ती
रहेगी।
कुछ कशिशें
होती हैं, कुछ
आकर्षण होते
हैं, जल्दी
ही चुक जाते
हैं। सामान्य
नियम यही है। अर्थशास्त्री
से पूछो, उसने
उसके लिए एक
कानून ही बना
रखा है, एक
नियम ही बना
रखा है—"लॉ ऑफ डिमिनिशिंग
रिटर्न'।
आज एक भोजन
किया, खूब
स्वादिष्ट
था। कल भी वही
भोजन करोगे, उतना
स्वादिष्ट नहीं
मालूम पड़ेगा।
कैसे पड़ेगा? परसों भी
वही भोजन
करोगे, सारा
स्वाद खो
जाएगा। नरसों
भी वही भोजन
करोगे, ऊब
पैदा होगी। और
अगर वही भोजन
रोज—रोज दिया
जाए, कितने
दिन कर पाओगे?
एक सप्ताह
पूरा न होगा
कि थाली फेंक
दोगे। और यही
भोजन बड़ा
स्वादिष्ट
लगा था! "लॉ ऑफ डिमिनिशिंग
रिटर्न्स'। यह नियम है,
रोज—रोज
जिसका हम
अनुभव करते, रोज—रोज
जिसका हम
स्वाद लेते, उसका रस कम
होता चला जाता
है। बाजार में
सभी चीजों का
रस इसी तरह कम
हो जाता है।
इसीलिए तो दुकानदारों
को, व्यवसायियों को रोज—रोज
नयी—नयी चीजें
ईजाद करनी
पड़ती हैं। नयी
न भी हों, तो
कम—से—कम नए
पैकेट में
हों। नए नाम
में हों, नए
रंग में हों।
हर साल कारों
के नये मॉडल
निकालने पड़ते
हैं। थोड़ा—बहुत
फर्क होता है,
कुछ खास
फर्क नहीं
होता—और अक्सर
तो ऐसा होता
है पुरानी कार
शायद ज्यादा
मजबूत हो, नयी
कार और भी गयी—बीती
हो—मगर नयी है!
तो लोग खरीदते
हैं। साल—छः
महीने में रस
चुक जाता है, ऊब जाते हैं,
फिर कुछ नया
चाहिए।
सांसारिक
सारे संबंध
ऐसे ही हैं।
सिर्फ प्रेम
एक ऐसा अलौकिक
आयाम है, जहाँ
"लॉ ऑफ डिमिनिशिंग
रिटर्न्स'
लागू नहीं
होता। जहाँ
जितना भोगो, उतना रस
बढ़ता है।
प्रेम
अर्थशास्त्र
के बाहर है।
प्रेम गणित के
चौखटे के बाहर
है।
अब लोग
तुम्हें पागल
ही तो कहेंगे
न! कोई व्यक्ति
मुझे पाँच साल
से निरंतर सुन
रहा है। एकाध
दिन सुन लिया, ठीक
है; दो दिन
सुन लिया ठीक
है; पाँच
साल! अब अगर
"अजित
सरस्वती' को
लोग पागल कहें,
तो ठीक ही
कहते हैं।
पाँच साल से
निरंतर सुन
रहे हो! एक
सुबह नहीं गयी
जब न सुना हो।
और रस बढ़ता
गया है। और रस
नयी तरंगें
लेता गया है।
और रस नयी
गहराइयों में
उतरता गया है।
और रस ने नए—नए,
नए—नए, फूल
खिलाए
हैं; रोएँ—रोएँ
में प्रवेश कर
गया है, रग—रग
में चला गया
है। यह
अर्थशास्त्र
के बाहर की
बात है।
तुम्हारे
मन में भी कभी
खयाल उठता
होगा कि मैं
रोज क्यों
बोलता हूँ? मैं
छाँट रहा हूँ
उन लोगों को
जो मुझे रोज
सुन सकते हैं।
इसके पीछे
प्रक्रिया
है। कोई रोज नहीं
बोलता। और अगर
रोज लोग बोलते
भी हैं तो कम—से—कम
एक ही समूह के
सामने नहीं
बोलते। आज
बंबई बोलेंगे,
कल कलकत्ता
बोलेंगे, परसों
कानपुर
बोलेंगे, चलेगा।
क्योंकि समूह
बदल जाता है।
मैं एक ही जगह
बैठकर, एक
ही समूह के
सामने बोले
चला जा रहा
हूँ! तुमने
शायद सोचा हो
या न सोचा हो, आज बात आ गयी
तो तुमसे कहे
देता हूँ, मैं
जाँच रहा हूँ
उन लोगों को
जिनका रस
जितना सुनते
हैं उतना बढ़ता
जा रहा है। वे
ही मेरे हैं, मैं उनका
हूँ। जो ऊब
जाएँगे, उनसे
मेरा नाता कोई
प्रेम का नहीं
था, वह
अर्थशास्त्रीय
नाता था। वह
समाप्त हो गया।
वह समाप्त हो
ही जाना चाहिए
था। उसका कोई
मूल्य नहीं
है। यह छाँटने
की एक
प्रक्रिया
है। इस भाँति
वे ही बचे रहेंगे
जो सच में ही
दीवाने हैं।
जिन्हें इस बात
से कुछ मतलब
ही नहीं कि
मैं क्या बोल
रहा हूँ। वही
बात शायद हजार
बार तुमसे कही
होगी; लेकिन
जो मेरे प्रेम
में है, उसे
वही बात हर
बार नए रंग की
मालूम पड़ती है,
नए ढंग की
मालूम पड़ती
है। फिर उसे चौंककर
सुनता है। फिर
उससे कुछ होता
हुआ मालूम
होता है।
चिंता
में मत पड़ो।
यह कशिश बढ़नेवाली
कशिश है। यह
बढ़ती जाए, इसी
में सौभाग्य
भी है।
क्योंकि ऐसे
बढ़ते—बढ़ते, बढ़ते—बढ़ते, सुनते—सुनते—सुनते
एक दिन शब्द
तिरोहित हो
जाएगा : मैं
यहाँ बोलता
रहूँगा, तुम
वहाँ सुनते
रहोगे, न
मैं यहाँ बोलूँगा,
न तुम वहाँ सुनोगे।
उस दिन नाता
पहली दफा बना।
उस दिन सेतु
जुड़ा। उस दिन
दो शून्यों
का मिलना हुआ।
गुरु तो शून्य
है; शिष्य
को भी शून्य
होना पड़ता है;
तभी मिलन
है। समान से
ही समान का
मिलन हो सकता है।
मुझे
यहाँ आने का
कोई कारण नजर
नहीं आता, मगर
न—जाने आपकी कशिश
मुझे यहाँ
क्यों खींच
लाती है? किसी
के पूछने पर
भी उत्तर देने
में असमर्थ होती
हूँ। यह शुभ
लक्षण है।
उत्तर दे सको,
तो सब गुड़
गोबर हुआ।
उत्तर दे सको
तो बात दो कौड़ी
की हो गयी।
निरुत्तर रह
जाओ, कहना
चाहो और कहने
को कुछ न पाओ, भाव तो उठे
लेकिन शब्द न
बनें, पता
तो चले भीतर
कि ऐसा कुछ
होगा लेकिन
कोई शब्द उसे
प्रगट करने
में समर्थ न
हों। क्योंकि
सब शब्द
संकीर्ण हैं,
विराट को
नहीं समा
पाते। बाजार
में उनका उपयोग
ठीक है, रोज
के लोक—व्यवहार
में ठीक है, लेकिन जब भी
तुम किन्हीं
गहराइयों में सरकोगे, तभी पाओगे
सभी शब्द नपुंसक
हो गए, कुछ
भी नहीं कहते।
कहोगे, तो
लगेगा कुछ
कहना चाहा, कुछ कह
दिया। कहोगे
तो शर्मिंदा
होओगे।
क्योंकि ऐसा
लगेगा कि यह
तो कुछ गद्दारी
हो गयी। जो
भीतर था, वह
तो आया नहीं, कुछ—का—कुछ
हो गया है। लड़खड़ा
जाओगे। जैसे
छोटे बच्चे
तुतलाते हैं;
क्योंकि
भाषा नयी होती
है; इतनी
नयी होती है
कि उनको
तुतलाना पड़ता
है। फिर से
तुम तुतलाओगे
जब प्रेम की
भाषा सीखोगे,
क्योंकि यह
और भी नयी
भाषा है। फिर
से तुम तुतलाओगे
जब शून्य की
भाषा
तुम्हारे
भीतर उतरनी
शुरू होगी।
नहीं, उत्तर
नहीं बनेगा।
हँस देना। रो
देना। नाच लेना।
कोई पूछे कि किसलिए
जाते हो, नाच
लेना। एक खंजरी
पास रख लेना, ठोंककर और
नाच देना। मगर
उत्तर शब्दों
से नहीं दिया
जा सकता।
"उत्तर
देने में
असमर्थ होती
हूँ, मगर
अब जिंदगी में
जीने का मजा
आने लगा है'। वही असली
उत्तर है। उसी
मजे को प्रगट
होने दो। उस
आनंद को, उस
आनंद की गंध को
फैलने दो। उस
आनंद का
प्रकाश
विस्तीर्ण
होने दो। लोग
खुद—ही—खुद
समझेंगे।
समझने वाले
समझेंगे।
नासमझ कभी
नहीं समझते—समझाने
की कोई जरूरत
भी नहीं है। समझनेवाले
समझ लेंगे कि
कुछ हुआ है।
कुछ ऐसा हुआ
है जो कहा
नहीं जा सकता।
तुम्हारा व्यक्तित्व
कहेगा।
तुम्हारी शांति
कहेगी।
तुम्हारा
आनंद कहेगा।
तुम्हारे
भीतर से बहती
हुई नयी
अनुभूति की
धार कहेगी।
उनका हाथ पकड़
लेना, उन्हें
गले लगा लेना
जो पूछें कि
क्यों जाते हो?
अपनी ऊर्जा
से कहना, अपने
प्रवाह से कह
देना, अपनी
तरंग को उनमें
डाल देना, अपने
नृत्य को
उनमें उतर
जाने दना; उनकी
आंख में
झाँकना, उँडेल
देना अपने को
उनमें, मगर
शब्द से मत
कहना। शब्द से
नहीं कहा जा
सकता। शब्द से
कहोगे, बेईमानी
हो जाएगी।
"मगर
अब जिंदगी में
जीने का मजा
आने लगा है।
क्यो?' यह
क्यों
बिल्कुल छोड़
दो। जब दुःख
हो, पूछ
सकते हो—क्यों? लेकिन
जब आनंद हो, भूलकर मत
पूछना क्यों?
क्योंकि
आनंद स्वभाव
है। दुःख
विभाव है। एक
आदमी बीमार
होता है तो
जाकर डॉक्टर
से पूछता है
कि मुझे कौन—सी
बीमारी हो गयी?
क्यों हो
गयी? निदान
करो। कारण
खोजो, उपचार
करो। लेकिन जब
कोई स्वस्थ
होता है तो डॉक्टर
के पास जाकर
नहीं पूछता कि
मुझे कौन—सा
स्वास्थ्य हो
गया है? निदान
करो, कारण
बताओ, क्यों
हुआ? उपचार
करो। नहीं, स्वास्थ्य
तो स्वाभाविक
है। क्यों का
कोई सवाल ही
नहीं है।
स्वास्थ्य तो
होना ही
चाहिए। स्वास्थ्य
तो प्रकृति का
नियम है। जब
तुम स्वस्थ
होते हो तुम
यह नहीं पूछते—मैं
क्यों स्वस्थ
हूँ? या कि
पूछते हो? लेकिन
जब बीमार होते
हो तो जरूर
पूछते हो कि मैं
क्यों बीमार
हूँ? "क्यों'
पूछना पड़ता
है तब जब हमें
किसी चीज से मुक्ति
होना हो।
इसलिए आनंद जब
जगे तो
"क्यों' तो
पूछना ही मत।
आनंद से मुक्ति
थोड़ा होना है।
उसके
विश्लेषण में
जाने से क्या
रखा है? आनंद
आए तो आनंदित
होना। रत्ती—भर
समय मत गँवाना,
क्षण—भर भी
विश्लेषण में
अपना खोना मत,
"क्यों' इत्यादि
को भूल ही
जाना, आनंद
आए तो आनंद
में मग्न होना,
डूब जाना
मस्ती में, पी लेना
आनंद के फूल
को, आनंद
की शराब को और
नाचना और
प्रगट होने
देना गीत जो
अपने आप बहे, जो सहज—स्फूर्त
हो, मगर
क्यों मत
पूछना। क्यों
का उत्तर है
भी नहीं। आनंद
इस जगत का
स्वभाव है—सच्चिदानंद।
तुम
पूछते नहीं कि
वृक्ष हरे
क्यों हैं। या
कि पूछते हो? तुम
पूछते नहीं
गुलाब लाल
क्यों हैं। या
कि पूछते हो? तुम पूछते
नहीं कि दीये
से रोशनी
क्यों निकल रही
है। या कि
पूछते हो! ऐसा
ही आनंद है।
आनंद तुम्हारा
स्वभाव है—तुम्हारी
रोशनी, तुम्हारी
सुगंध, तुम्हारा
रंग, तुम्हारा
ढंग। आनंद चूक
रहा हो तो
जरूर पूछना कि
क्या कारण है,
मेरा
स्वभाव
अवरुद्ध
क्यों है? किन
पत्थरों ने
मेरे झरने को
रोका? कौन—सी
बाधा आ गयी? कौन अवरोध
कर रहा है? मैं
बह क्यों नहीं
पा रहा हूँ? मेरे भीतर
नृत्य क्यों
नहीं घट रहा
है? जरूर
पूछना। दुःख
हो तो पूछना—क्यों?
लेकिन
हमारी आदतें
दुःख की हैं।
हम जन्मों—जन्मों
से दुःखी रहे
हैं। दुःख की
आदत ने हमें
एक और आदत
सिखा दी है—"क्यों' की।
सदा पूछते रहे
हैं—क्यों, क्यों? ऐसा
ही समझो कि एक
आदमी जन्मों—जन्मों
से बीमार है
और पूछता रहा—क्यों,
क्यों, क्यों?
फिर एक दिन
स्वस्थ हो गया,
पुरानी आदत
के कारण
पूछेगा—क्यों?
सिर्फ
तुम्हारी
पुरानी आदत है,
मुद्रा! अब
पूछती हो, "मगर
जिंदगी में
जीने का मजा
आने लगा है; क्यों?' मुझको
पता नहीं।
किसी को पता
नहीं है।
जिंदगी आनंद
है! जैसे
वृक्ष हरे हैं,
ऐसे जिंदगी
आनंद है। यह
परमात्मा का
स्वभाव है
आनंद। कोई
उत्तर नहीं
है।
हाँ, दुःख
हो तो जरूर
कोई उत्तर
होगा। अगर
दुःख हो तो
उसका मतलब है,
तुमने कुछ
स्वभाव के
विपरीत किया
है। तुम स्वभाव
के अनुकूल
नहीं हो। तुम
स्वभाव के
प्रतिकूल चले
गए हो। तुमने
रास्ता छोड़
दिया है। तुम
काँटे—कंकड़ों
में पड़ गए हो।
तुमसे कुछ भूल
हो रही है। जब
कोई भूल नहीं
होती तो आनंद।
जब भूल होती
है तो दुःख।
जब दुःख हो, तो समझ लेना
कि कुछ भूल हो
रही है। और जब
सुख हो तो समझ
लेना भूल नहीं
हो रही है। बस
इतना ही काफी
है।
"साथ
ही मैं
बिल्कुल
पत्थर हो गयी
हूँ। रोना तो
जैसे सूख ही
गया है'।
वह पुराना
रोना कुछ खास
मतलब का था भी
नहीं। पुराना
गया है, नया
आएगा। एक तो
रोना है जो
दुःख को रोना
है। स्वभावतः
दुनिया में
लोगों ने यही
समझा है कि सब
रोना दुःख का
रोना होता है।
क्योंकि
उन्होंने
दुःख के ही आंसू
बहाए हैं। कोई
मरा तो रोए।
कोई पीड़ा हुई
तो रोए।
किसी ने अपमान
किया तो रोए।
कुछ विषाद हुआ
तो रोए।
हारे तो रोए।
लोगों का
अनुभव यह है
कि रोना दुःख
का पर्यायवाची
है। इसलिए जब
दुःख जाने
लगेगा तो रोना
भी चला जाएगा।
आंसू एकदम बंद
हो जाएँगे।
सूख जाएँगे। घबड़ाना
मत। तुम पत्थर
नहीं हो गयी
हो, सिर्फ आंसुओं
का एक पुराना
रिवाज, एक
पुराना ढंग और
ढर्रा टूट
गया। ज़रा
रुको, जल्दी
ही तुम पाओगी
नए आंसू आने
शुरू होंगे।
वे नए आंसू
आनंद के आंसू
होंगे। वे
रोने से नहीं
निकलेंगे, वे
दुःख से नहीं
निकलेंगे, वे
तुम्हारे
भीतर के
अहोभाव से
निकलेंगे। वे तुम्हारे
आनंद की एक
गहन अभिव्यक्ति
होंगे। तब उन आंसुओं
का रंग ही और
होता है। मोती
फीके हैं उन आंसुओं
के सामने। और
मोतियों में
कोई मूल्य नहीं
है उन आंसुओं
के सामने। और
फूल शरमा जाएँगे
उन आंसुओं के
सामने। उन आंसुओं
की गंध और है।
वह गंध
पारलौकिक है।
आनंद
के आंसू आएँ, इसके
पहले एक घड़ी
तो जरूर आएगी
जब सब आंसू
बंद हो
जाएँगे। दुःख
का सिलसिला
टूटेगा तो दुःख
के आंसू बंद
हो गए। अब सुख
का सिलसिला
शुरू होगा। धीरे—धीरे
इस नयी जीवन—व्यवस्था
का अनुभव
तुम्हें नयी—नयी
दिशाओं में ले
जाएगा। उनमें
एक दिशा आनंद के
आंसुओं की
दिशा भी है।
मुद्रा! फिर
तुम रोओगी।
मगर उस रोने
में पुराने
रोने का कोई
अनुभव नहीं
होगा। पुराने
रोने की कोई
छाया नहीं
होगी। ये आंसू
मुस्कराहट से
भरे हुए
होंगे। और इन आंसुओं
में एक ज्योति
होगी। जब आदमी
दुःख में रोता
है तो आंसुओं
में अंधेरा
होता है, दुर्गंध
होती है; वे
आंसू मवाद की
तरह होते हैं।
और जब आदमी
आनंद से रोता
है तो वे आंसू
गीत होते हैं,
उनमें एक
सुगंध होती
है।
अश्क
जो दे न उठे लौ
सरे—मिजगां
आकर
सिर्फ
एक कतरए—शबनम
है, शरारा
तो नहीं
जो आंसू
पलकों पर आकर
लपट न बन जाए, लौ
न बन जाए, ज्योति
न बन जाए—
अश्क
जो दे न उठे लौ
सरे—मिजगां
आकर
सिर्फ
इक कतरए—शबनम
है, शरारा
तो नहीं
—फिर
एक ओस की बूँद
है ऐसा आंसू, जो आकर आंखों
को ज्योति न
दे जाए। असली आंसू
तो वही है जो आंख
को ज्योति दे,
लपट दे; जो
आंख को नया
जीवन दे; जिसके
माध्यम से
भीतर छिपी
आत्मा आंख से
झाँक उठे।
आएँगे, वे
आंसू भी
आएँगे।
प्रतीक्षा
करो। और यह मत
सोचना कि
पत्थर हो गयी
हूँ। ऐसा
लगेगा, क्योंकि
पुरानी तरह का
रोना—धोना बंद
हो गया, तो
लगेगा कि कहीं
मैं पत्थर तो
नहीं हो गयी।
नए के आगमन और
पुराने के
जाने के बीच
में एक अंतराल
होता है। उस
अंतराल में
ऐसी प्रतीति होती
है। मगर भय का
कोई कारण नहीं
है।
तीसरा
प्रश्न :
मनुष्य क्यों
व्यर्थ की
बातों में
उलझा रहता है?
डर
के कारण। भय
के करण। भय
किस बात का? एक
ही भय है जो
लोगों को छाया
की तरह पीछा
कर रहा है, चौबीस
घंटे, जागते—सोते
और वह भय यह है
कि अगर मैं
व्यस्त न रहूँ,
उलझा न रहूँ,
तो कहीं
मुझे मेरे
भीतर का शून्य
न दिखायी पड़ जाए,
कहीं वह अतल
खाई न दिखायी
पड़ जाए। और वह
अतल खाई है।
तो भय एकदम
झूठ भी नहीं, निराधार भी
नहीं। अगर तुम
बिल्कुल अव्यस्त
हो, कोई
काम नहीं है
तो तुम अचानक
अपने भीतर के
शून्य का
अनुभव करने
लगोगे—रित्तता
अनुभव होगी, खाली लगोगे।
तुम जल्दी से
किसी काम में
व्यस्त हो
जाओगे।
क्योंकि खाली
में अहंकार
मरता है, गलता
है। अहंकारी
को तो व्यस्त
रहना ही पड़ेगा।
व्यस्त रहकर
ही अहंकारी अपने
को मान सकता
है कि मैं कुछ
हूँ।
इसलिए
लोग बड़े काम
करना चाहते
हैं—छोटे ही
नहीं, बड़े काम
करना चाहते
हैं। ऐसे काम
करना चाहते हैं
कि दुनिया—भर
को पता चल जाए
कि मैंने यह
किया, कि
मैंने वह
किया। छोटे—मोटे
काम में रस
नहीं आता।
क्यों? क्योंकि
छोटे—मोटे काम
छोटा—मोटा
अहंकार ही
पैदा कर सकते
हैं। अब
बुहारी लगाओ,
कि खाना
बनाओ, कितना
बड़ा अहंकार
इसमें से पैदा
करोगे। लेकिन
प्रधानमंत्री
हो जाओ, राष्ट्रपति
हो जाओ, तो
भारी अहंकार
पैदा कर सकते
हो, कि मैं
कुछ विशिष्ट
हूँ, साठ करोड़
लोगों में मैं
कुछ विशिष्ट
हूँ। तो लोग
दौड़ रहे हैं, भाग रहे हैं,
ऐसी जगह
पहुँच जाना
चाहते हैं
जहाँ कुछ
विशिष्ट काम
में उलझ जाएँ—अपने
को भर लेना
चाहते हैं।
मनस्विद
कहते हैं कि
जो आदमी जितना
ही अपने भीतर
की शून्यता से
घबड़ाया होता
है उतना ही पदलोलुप
हो जाता है।
भीतर जो लोग
हीनता की
ग्रंथि से पीड़ित
होते हैं, वे
लोग पदलोलुप
हो जाते हैं।
पद की दौड़
हीनता का
प्रक्षेपण है।
जो व्यक्ति
सचमुच ही भीतर
हीनता से
पीड़ित नहीं
होता, वह
पद की दौड़ में
नहीं होता।
उसे करना क्या
है? वह
जैसा है वैसा
परम आनंदित
है। उसका आनंद
प्रधानमंत्री
होने में नहीं
है, न बहुत
धन इकट्ठा कर
लेने में है, न बहुत
यशस्वी हो
जाने में है, उसका आनंद
तो वह जैसा है
वैसे में ही
है। इसी को तो
कल रज्जब ने
कहा—संतोष से
दोस्ती करो।
संतोष से
दोस्ती कौन करेगा?
वही कर सकता
है जो अपने
भीतर के शून्य
के साथ राजी
होने का साहस
रखता हो। और
यह बड़े—से—बड़ा
साहस है।
दुस्साहस है।
इस जगत में और
कोई साहस इतना
बड़ा नहीं है
कि तुम खाली
बैठ जाओ।
ध्यान में बैठने
से बड़ा कोई
साहस नहीं है।
तुम
थोड़ा सुनोगे
तो तुम चौंकोगे।
तुम कहोगे—इसमें
क्या बड़ा साहस
है?
एक आदमी
पालथी मारकर आंख
बंद किए बैठ
गया है घड़ी भर,
इसमें साहस
क्या है? साहस
तलवार उठाने
में है। नहीं,
तलवार
उठाने में कुछ
साहस नहीं है।
यह जो घड़ी—भर
आदमी शांत
होकर बैठ गया
है न—कुछ करने,
में शून्य
होकर, इसमें
साहस है।
क्यों? क्योंकि
यहाँ जैसे—जैसे
भीतर उतरेगा,
जैसे—जैसे
कृत्य का जगत छूटेगा, विचार का
जगत छूटेगा—क्योंकि
विचार भी सूक्ष्म
कृत्य है, वह
मन का कृत्य
है। कभी तुम
शरीर का काम
करते हो, शरीर
के काम से छूटो
तो तत्क्षण मन
का काम शुरू
कर देते हो, मगर काम
जारी रहता है।
जब दोनों काम
छूट जाते हैं,
फिर क्या
बचता है? तुम
ही नहीं बचते।
इसलिए मैं
कहता हूँ—यह
साहस है।
ध्यान में उतरकर
पता चलता है
कि मैं कभी था
ही नहीं। मेरा
होना भ्रांति
थी। मेरा होना
एक सरासर झूठ
था। मैं हूँ
ही नहीं।
हिम्मत है इस
बात को अनुभव
करने की कि
मैं हूँ ही
नहीं? और
जो ऐसा जानता
है कि मैं हूँ
ही नहीं, वही
जान सकता है
कि परमात्मा
है।
तुम
दोनों साथ—साथ
न हो सकोगे। "प्रेम
गली अति
साँकरी, तामें दो न समायँ'। या तो तुम, या
परमात्मा।
तुम मिटोगे तो
परमात्मा हो
सकेगा। तो वह
जो शून्य
तुम्हारे
भीतर है, परमात्मा
की ही आभा है।
उसका ही चेहरा
है। उसके ही
रूप—रंग का
अंग है। उसी
निराकार का एक
भाव है।
तुमने
पूछा है—"मनुष्य
क्यों व्यर्थ
की बातों में
उलझा रहता है'? अब
सार्थक बातें
रोज—रोज खोजो
भी कहाँ से? सार्थक बात
ही क्या है? सभी बातें
व्यर्थ की
हैं। सुबह से
उठे, अखबार
पढ़ लिया, तुम
सोचते हो, कुछ
सार्थक काम कर
रहे हो? दिल्ली
में किस पागल
को जुकाम हो
गया और किसको
क्या हो गया, तुम सोचते
हो कोई तुम
सार्थक बातें
पढ़ रहे हो? तुम
कोई बड़े काम
की बातें पड़
रहे हो? फिर
बैठकर पत्नी
से कुछ बात कर
ली, मुहल्ले
की गपशप, फिर
चले दफ्तर, तुम सोचते
हो वहाँ कुछ
सार्थक काम कर
रहे हो? सार्थक
क्या है! इस
सारे उपद्रव
की सार्थकता इतनी
ही है कि दो
रोटी मिल जाती
है। अब यह बड़े
मजे की बात है,
आदमी से
पूछो कि रोटी किसलिए
कमाते हो; वह
कहते हैं—जीने
के लिए। और
उससे पूछो
जीते किसलिए
हो, वह
कहता है—रोटी
कमाने के लिए।
यह कौन—सी
सार्थकता हुई?
जीते इसलिए
हैं कि रोटी कमाएँ, रोटी
किसलिए
कमाते हैं कि
जीना है। यह
तो बड़ा वर्तुल
हुआ, "विसियस सर्कल' हुआ,
दुष्ट—चक्र
हुआ। इसमें
सार कहाँ है? इसलिए जो
बहुत
बुद्धिमान
हैं, उनको
यह बात दिखायी
पड़नी
शुरू हो जाती
है कि यह तो सब
असार है! उठे
रोज सुबह, चले
वही रोटी
कमाने, साँझ
फिर आकर सो गए,
सुबह फिर
उठे, फिर
चले रोटी
कमाने, ऐसे
ही आते—जाते
एक दिन समाप्त
हो गए। पाया
क्या? उपलब्धि
क्या थी? हाथ
क्या लगा? मृत्यु
में जो बच सके
वही सार्थक
है। यह मेरी सार्थक
की परिभाषा
है। जिसको तुम
मृत्यु में भी
अपने साथ ले
जा सको, वही
सार्थक है। और
जो मृत्यु में
तुम्हारे साथ
न जाए, इसी
तरफ पड़ा रह
जाए, वह
सार्थक नहीं।
तुम्हारा पद
पड़ा रह जाएगा,
धन पड़ा रह
जाएगा, नाम
पड़ा रह जाएगा,
मित्र—प्रियजन
सब पड़े रह
जाएँगे। तुम
जब जाने लगोगे
अकेले, उस
वत्त क्या तुम
ले जा सकोगे? तुम्हारा
बैंक बैंलेस?
क्या ले जा
सकोगे? उस
वत्त ध्यान ही
ले जा सकोगे
बस और कुछ न ले
जा सकोगे। तो
ध्यान का
अनुभव
एकमात्र
सार्थक अनुभव
है।
यह तो
बड़ी उपद्रव की
बात है, उल्टी
बात है, तुम
जो भी करते हो
सब व्यर्थ है।
वे जो कुछ घड़ियाँ
न—करने की
बीतती हैं, वही सार्थक
हैं। क्योंकि
वही तुम बचाकर
ले जा सकोगे।
मगर उन थोड़ी—सी
घड़ियों
में जो तुम
शांत हो जाते
हो, कुछ भी
नहीं करते, मौत का
साक्षात्कार
करना होता है।
मौत और ध्यान
बड़े एक—जैसे
हैं। ध्यान
करनेवाला रोज
मौत में उतरता
है, रोज
मरता है, क्योंकि
रोज मिट जाता
है। भीतर
सन्नाटा हो जाता
है। खोजने से
भी नहीं पाता
अपना आपा कि
मैं कहाँ हूँ।
कोई आत्मा
नहीं मिलती, कोई भीतर
नहीं मिलता, सिर्फ
सन्नाटा
मिलता है।
सन्नाटा रोज
गहन होता जाता
है, खाई
रोज गहरी होती
चली जाती है।
गिरता चला जाता
है। और कहीं
जगह नहीं
मिलती जहाँ
पैर टेककर
खड़ा हो जाऊँ।
यही तो मृत्यु
का अनुभव है।
इसलिए जिसने
ध्यान में बार—बार
मरकर देख लिया,
जब मृत्यु
आती है तो वह घबड़ाता
नहीं।
क्योंकि यह
मृत्यु तो वह
रोज ही देखता रहा
है। इसलिए
ध्यानी
मृत्यु के
क्षण में निश्चिंत
भाव से जाता
है। यह तो
परिचित बात
है! यह तो रोज
का मामला है!
इतना ही नहीं
कि परिचित है,
इतना ही
नहीं कि रोज
की जानी हुई
बात है, यह
भी उसका अनुभव
है कि जितना
गहरा इस शून्य
में उतरो, उतने
ही आनंद का
आविर्भाव है।
इसलिए वह
मृत्यु का
स्वागत करता
है, अंगीकार
करता है, आलिंगन
करता है—अतिथि
की तरह, मेहमान
की तरह, द्वार
खोलता है कि
आओ, बहुत
प्रतीक्षा की
है तुम्हारी।
और जो व्यक्ति
मृत्यु को
स्वागत से
अंगीकार कर
लेता है, वह
मरेगा कैसे? वह मर कैसे
सकता है?
अब मैं
तुमसे एक
विरोधाभास
कहना चाहता
हूँ— जो मरने
को तैयार है, जो
ध्यान में
मरने को तैयार
है, उसकी
मृत्यु कभी
नहीं होती। वह
अमृत का धनी
हो जाता है।
लेकिन
आदमी व्यर्थ
की बातों में
उलझा है। न हों
बाहर तो खुद
ईजाद कर लेता
है,
खड़ी कर लेता
है, झगड़े—झाँसे
कर लेता है, उलझा लेता
है अपने को।
तुम ज़रा
खयाल करो, तुम्हारे
जितने झगड़े—झाँसे
हैं, अगर
सब हल हो जाएँ,
तुम्हारे
व्यवसाय में
जितनी
चिंताएँ हैं,
अगर सब हल
हो जाएँ, अगर
मैं एक जादू
का डंडा उठाऊँ
और तुम्हारे
सिर के पास फिराऊँ
और कहूँ—तुम्हारी
सारी चिंताएँ
समाप्त; तुम
मुझे माफ
करोगे? तुम
मुझे कभी माफ
नहीं करोगे।
तुम एकदम आंख
खोलकर कहोगे—अब
मैं करूँ क्या?
सब झगड़े—झाँसे
समाप्त, अब
मैं करूँ क्या?
अब करने को
कुछ भी नहीं
बचा। तुम माँगोगे,
हाथ जोड़कर
गिड़गिड़ाओगे
कि मेरी
चिंताएँ मुझे
वापिस दो, मेरी
समस्याएँ
मुझे वापिस दो;
उलझा तो
रहता था, लगा
तो रहता था।
याद
की राहगुज़र, जिसपै
इसी सूरत से
मुद्दतें
बीत गयी हैं
तुम्हें चलते—चलते
ख़त्म हो
जाए जो दो—चार क़दम और चलो
मोड़
पड़ता है जहाँ
दस्ते—फरामोशी
का
जिससे
आगे न कोई मैं
हूँ न कोई तुम
हो
साँस
थामे हैं
निगाहें कि न
जाने किस दम
तुम
पलट आओ, गुज़र
जाओ, या मुड़कर
देखो
गर्चे वाक़िफ हैं
निगाहें कि यह
सब धोका है
गर
कहीं तुमसे हम—आगोश
हुई फिर से
नज़र
फूट
निकलेगी वहाँ
और कोई राहगुज़र
फिर
इसी तरह जहाँ
होगा मुकामिल
पैहम
सायए—जुल्फ़ का
और जुम्बिशे—बाजू
का सफ़र
दूसरी
बात भी झूठी
है कि दिल
जानता है
यां कोई
मोड़, कोई
दश्त, कोई
घात नहीं
जिसके
पर्दे में
मेरा माहे—रवाँ
डूब सके
तुमसे
चलती रहे यह
राह, यूँ
ही अच्छा है
तुमने
मुड़कर भी
न देखा तो कोई
बात नहीं
आदमी कल्पनाएँ
करता रहता है।
कोई मेरे
प्रेम में पड़
जाएगा, मैं
किसी के प्रेम
में पड़ जाऊँगा;
आज धन नहीं
है, कल धन
मिल जाएगा; आज पद नहीं
है, कल पद
मिल जाएगा; और फिर
सोचता है—न भी
मिला तो कोई
बात नहीं, मगर
उलझा तो
रहूँगा, चलता
तो रहूँगा, लगा तो
रहूँगा, व्यस्त
तो रहूँगा।
व्यस्तता ऐसे
ही है जैसे सागर
में डूबते हुए
आदमी को तिनके
का सहारा। पकड़े
रहता है। तुम
उससे लाख कहो
यह तिनका है, यह तुम्हें बचाएगा
नहीं, वह
कहेगा—चुप रहो,
बकवास बंद
करो। बचाएगा
या नहीं बचाएगा,
यह सवाल
नहीं है; कम—से—कम
यह भ्रांति तो
मन को देता है
कि बच रहा
हूँ।
कागज
की नावों में
लोग चल रहे
हैं! उनसे
भूलकर मत कहना
कि यह कागज की
नाव है, अन्यथा
वे नाराज हो
जाते हैं।
उन्होंने
सुकरात को जहर
पिलाया—इसीलिए
पिलाया कि वह
लोगों को जा—जाकर
उनको पकड़—पकड़
कर कहने लगा
कि तुम जिस
नाव में बैठे
हो, यह
कागज की नाव
है। यह डूबेगी।
तुमने जो महल
बनाया है, यह
रेत पर बना है,
यह गिरेगा।
कौन सुनना
चाहता है यह
बात? कोई
आदमी मजे से
अपने महल में
रह रहा था—रेत
ही सही, गिरेगा
तब गिरेगा, अभी तो नहीं
गिरा है—अपनी
नाव में मस्त
सो रहा था, चादर
तान ली थी, बाँसुरी
बजा रहा था और
तुम उससे कहते
हो—यह कागज की
नाव है! यह अब
डूबी तब डूबी!
वह कहेगा—जब डूबेगी तब डूबेगी, अभी तो मेरा
चैन खराब मत
करो, अभी
तो मेरी
बाँसुरी बजने
दो।
इसलिए
इस दुनिया में
ठीक सद्गुरु
जब भी पैदा हुए, आदमी
उन्हें माफ
नहीं कर पाया।
तुमने जीसस को
सूली दी, मंसूर
की गर्दन काटी;
तुमने
महावीर के
कानों में
कीलें ठोंके,
तुमने बुद्ध
पर पत्थर
फेंके।
तुम्हारी भी
मजबूरी मैं
समझता हूँ।
मैं नाराज
नहीं हूँ। और
मैं तुमसे यह
नहीं कह रहा
हूँ कि तुम
अन्यथा कर
सकते थे।
तुम्हारी
मजबूरी मैं
समझता हूँ।
तुम्हारी
मजबूरी यह है
कि इन लोगों
ने तुम्हारे
सपने तोड़े। ये
जुर्मी
थे तुम्हारी आंखों
में, ये
अपराधी थे।
तुमने
अपराधियों को
माफ कर दिया है,
लेकिन
ज्ञानियों को
तुम माफ नहीं
कर सके।
तुम्हें
पता है? जिस
दिन जीसस को
सूली हुई, उस
दिन दो चोरों
को भी उनके
साथ ही सूली
हुई थी, तीन
आदमियों को
इकट्ठी सूली
दी गयी थी। इजराइल
का नियम था, कि
प्रतिवर्ष
पवित्र दिन के
उत्सव में एक व्यक्ति
को सूली से
माफ किया जा
सकता था। तो पॉयलट ने
जो गवर्नर था,
उसने
यहूदियों को
बुलाकर पूछा
कि ये तीन
आदमियों की
सूली लगनी है,
इनमें से एक
को नियम के
अनुसार माफ
किया जा सकता
है. . .पॉयलट
की मर्जी थी
कि जीसस माफ हो
जाए। इस आदमी
का कोई कसूर
नहीं था। पॉयलट
को लगता था कि
मैं किसी तरह
इनको समझा लूँ,
ये राजी हो
जाएँ। फिर उसे
यह भी भरोसा
था कि स्वभावतः
दो आदमियों
में, चोर
हैं दो, हत्यारे
हैं वे, उन्होंने
सब तरह के
जुर्म किए, सब तरह के
अपराध किए हैं;
और जीसस के
नाम पर न तो
कोई खून है, न कोई अपराध
है, ज्यादा—से—ज्यादा
इसका कसूर
इतना ही है कि
इसने घोषणा कर
दी है कि मैं
ईश्वर का बेटा
हूँ—यह भी कोई
बड़ी बात है!
समझ लो कि
पागल है। किसी
का कुछ बिगाड़
तो दिया नहीं,
किसी से कुछ
छीन नहीं लिया,
इतना ही कहा
है कि मैं
ईश्वर का बेटा
हूँ, इतनी—सी
बात के लिए
इतनी नाराजगी!
पॉयलट
सोचता था कि
यहूदी
पुरोहित राजी
हो जाएँगे, जीसस को
बचाया जा
सकेगा। लेकिन
नहीं, यहूदी
पुरोहितों ने
क्या कहा
तुम्हें पता
है? उन्होंने
कहा—दोनों
चोरों में से
किसी को भी
माफ कर दो
जिसको करना हो,
मगर जीसस को
माफ नहीं किया
जा सकता। इसका
अपराध बड़ा है।
क्या
अपराध है जीसस
का?
यही अपराध
है कि तुम
मस्त सो रहे
थे, और यह
वह आदमी
तुम्हें
जगाता है। यही
अपराध है कि
तुम अपने सपने
बसा रहे थे और
यह आदमी तुम्हारी
नींद तोड़ देता
है और
तुम्हारे
सारे सपने बिखेर
देता है। आदमी
व्यस्त रहना
चाहता है। झूठ
तो झूठ, सच
तो सच, मगर
व्यस्त रहना
चाहता है।
खाली नहीं
बैठना चाहता।
लोग खाली भी
बैठते हैं तो
उसमें भी कुछ व्यस्तता
का रास्ता खोज
लेते हैं।
पूछते हैं कि
क्या जाप करें?
खाली नहीं
बैठ सकते।
कहते हैं—राम—राम
ही जपेंगे,
मगर कोई
मंत्र दे दो।
मेरे
सामने रोज ही
यह प्रश्न खड़ा
होता है। मैं
लोगों को कहता
हूँ—चुप बैठो, कुछ
मंत्र की
जरूरत नहीं
है। वे कहते
हैं—लेकिन
आलंबन तो
चाहिए ही, चुप
कैसे बैठेंगे,
आप इतना ही
कह दो कि कोई
भी मंत्र दे
दो। राम कहो, गायत्री
मंत्र हो, नमोंकार मंत्र हो, कुछ भी सही, आप ही कोई
खोज दो; कोई
भी नाम दे दो
हम वही
दोहराएँगे
लेकिन चुप कैसे
बैठें? कुछ
व्यस्तता
रहेगी। चलो
माला दे दो, माला फेरेंगे।
तुम सोचते हो
कारण, ये
माला फेरनेवाले
क्या कर रहे
हैं? ये
व्यस्तता से मुक्ति
नहीं होना
चाहते। अगर
बाजार की
बातें न सोचेंगे
तो माला फेरेंगे।
मगर कुछ फेरने
को रहे। फेरने
को रहे तो मन
फेरे खाता रहता
है और जीता
है। राम—राम
करते रहेंगे,
मंत्र
दोहराते
रहेंगे; मंत्र
दोहरता
रहे तो मन
जीवित रहता
है।
तुम्हें
पता है—मंत्र
और मन एक ही
धातु से पैदा
होते हैं। एक
ही शब्द के दो
रूप हैं मंत्र
और मन। मतलब
यह है कि मंत्र
के बिना मन
जीवित नहीं रह
सकता। उसे कोई—न—कोई
मंत्र चाहिए
ही। मंत्र
उसका पोषण है, भोजन
है। और ध्यान
का अर्थ ही
होता है—ऐसी
दशा जहाँ मन न
रह जाए।
अव्यस्तता
सीखो। खाली
बैठना सीखो।
मंत्रों से मुक्ति
हो जाओ। अजपा
सीखो। शब्दों
को छोड़ो।
सार्थक भी छोड़ो,
व्यर्थ भी छोड़ो, सब
छोड़ दो। चौबीस
घंटे में कम—से—कम
एक घंटा ऐसा
निकाल लो जब
कोई कृत्य
तुम्हारे
भीतर न हो। जब
तुम बिल्कुल
शून्य मात्र
हो जाओ। न कोई
पूजा, न
कोई
प्रार्थना, न कोई
अर्चना। और
उसी शून्य में
तुम पाओगे—सबसे
बड़ी
कठिनाइयाँ
आएँगी और सबसे
बड़े आनंद भी।
सबसे बड़ी
चुनौतियाँ और
सबसे बड़ा
जागरण भी।
चुनौती कि
मरना सीखना
होगा। और उसी
मृत्यु में
आनंद का
आविर्भाव है।
तुम इधर मरे
नहीं, कि
उधर परमात्मा
जगा नहीं।
तुम्हारी
मृत्यु उसका
जन्म है।
चौथा
प्रश्न :
भगवान, मेरी
जिंदगी के "जिग्सा पज़ल' का जो
एक टुकड़ा मुझे
अब तक नहीं
मिल रहा था, वह कल
सुबह अचानक
संतोष पर हुए
आपके प्रवचन
में मेरे हाथ आगया।
भगवान, आशिष
दें कि फिर न
खो जाए।
कृष्ण
मुहम्मद, जो
चीज हाथ आ
जाती है, खोती
ही नहीं। हाथ
आ जाए, यही
बात है। खो
जाए तो समझना
कि हाथ आयी ही
नहीं थी। सत्य
खोते नहीं। एक
दफा दिखायी पड़
जाएँ, फिर
तुम लाख खोने
की भी कोशिश
करो तो खो न
सकोगे। तुम
चाहो भी कि इस
सत्य से
छुटकारा हो
जाए तो
छुटकारा न हो
सकेगा। सत्य
से छूटने का
उपाय ही नहीं
है। बस, तभी
तक तुम उससे
वंचित रह सकते
हो, जब तक
उसकी याद नहीं
आयी। एक बार
याद आ गयी, एक
बार बात समझ
में आ गयी कि
बस हो गया।
संतोष
का सत्य बड़ा
सत्य है। उस
एक सत्य की
कुंजी से जीवन
के सारे द्वार
खुल सकते हैं।
और वहीं बहुत
कुछ अटका है।
तो यह बात
तुम्हारी ठीक है
कि तुम्हारी
जीवन की पहेली
में कोई एक
चीज चूक रही
थी,
वह हाथ लग
गयी। अक्सर
यही है। अधिक
लोगों की जिंदगी
में एक ही चीज
चूक रही है, वह संतोष
है। वे खोज
रहे हैं और
हजार चीजें, खोजना चाहिए
संतोष। खोजते
हैं परमात्मा
को, खोजना
चाहिए संतोष।
संतोष मिल जाए
तो परमात्मा
तुम्हें
खोजता आ जाए।
और तुम खोजते
फिरते हो
परमात्मा को,
बिना संतोष
के। परमात्मा
तुमसे बचता
रहेगा। कौन
असंतुष्ट
आदमियों से
मिलना चाहता
है! परमात्मा
भागा—भागा है।
तुमसे डरा है।
तुम उसकी
खोपड़ी खा जाओगे।
एक
आदमी मरा। एक
दुर्घटना में
मरा,
कार में
दुर्घटना
हुई। उसका
साझीदार भी
उसके साथ था
कार में, दोनों
ही मर गए।
दोनों एक—साथ
परमात्मा के
सामने मौजूद
हुए। और
परमात्मा ने
आज्ञा दी पहले
को कि इसे नरक
ले जाया जाए और
दूसरे को कि
इसे स्वर्ग
पहुँचाया
जाए। उस पहले
ने कहा, ठहरिए,
कुछ भूल—चूक
हो रही है।
मैं जिंदगी—भर
आपकी
प्रार्थना
करता रहा और
इस दुष्ट ने
कभी आपका नाम
भी नहीं लिया—यही
हमारे बीच सदा
विवाद का कारण
था, यह
नास्तिक है, महानास्तिक,
मैं आस्तिक
हूँ। सुबह—साँझ—दोपहर
पूजा करता था।
भूल गए? हाथ
में सदा झोली
रखता था और
माला फेरता था
अंदर झोली
में। दुकान पर
भी लगा रहता
था तो भी माला
फेरता था। ऐसा
कोई दिन नहीं
गया जब
तुम्हारी याद
न की हो।
महीने—दो—महीने
में सत्यनारायण
की कथा भी
करवाता था।
यज्ञ—हवन में
भी दान देता
था। मंदिर—मस्जिद
भी बनवाए। सब
तरह का दान—पुण्य
किया था। भूल
गए? कुछ
चूक हो रही
है। मालूम
होता है मुझे
भेजना चाहते
हो स्वर्ग और
इसे नरक लेकिन
कुछ चूक हो रही
है।
ईश्वर
ने कहा—नहीं, चूक
नहीं हो रही
है। तुम्हें
नरक जाना होगा,
इसे स्वर्ग
जाना होगा।
कारण, उस
आदमी ने पूछा
बड़े गुस्से से
कि इसका कारण?
परमात्मा
ने कहा—कारण
यही कि तुम
मेरा सिर खा
गए। न सुबह
तुमने मुझे
सोने दिया, न रात तुमने
मुझे सोने
दिया, बस पुकारे जा
रहे हो, पुकारे जा रहे हो, आखिर जिंदगी
में एक आदमी
की धीरज की भी
एक सीमा होती
है। और तुम
लाउडस्पीकर
भी लगवा लेते
थे कभी—कभी!
तुम मुहल्ले—भर
को ही परेशान
नहीं करते थे,
मुझे भी
परेशान करते
थे। मैं, अगर
तुम्हें
स्वर्ग में
रहना है, तो
मुझे कहीं और
रहना होगा। हम
दोनों साथ
नहीं रह सकते।
लोग और
सब खोज रहे
हैं। कुछ
पाएँगे नहीं
वे। पा लेने
की बात सीधी
और साफ है—संतोष।
संतोष का अर्थ
है—जो है, पर्याप्त
है; जितना
है, पर्याप्त
है। पर्याप्त
से ज्यादा है।
जो है, उसके
लिए अनुगृहीत
हूँ। और जो
नहीं है, उसकी
कोई शिकायत
नहीं है।
बस, इसी
भावदशा
में जो लीन हो
जाता है, उसने
ही परमात्मा
को धन्यवाद
दिया। शिकायत
करनेवाले लोग
धन्यवाद कैसे
देंगे? माँग
करनेवाले लोग
धन्यवाद कैसे
देंगे? परमात्मा
ने तुम्हारे
बिना माँगे
बहुत दिया है।
तुम्हारी
योग्यता से
बहुत दिया है।
तुम्हारे
पात्र में समा
सके इससे बहुत
दिया है।
संतोष
समझ में आ गया
कृष्ण
मोहम्मद, तो सब
समझ में आ
गया। चुकेगा
नहीं, हाथ
से जाएगा भी
नहीं। मैं
तुम्हारी बात
समझता हूँ, तुम कहते हो—आशीष
दें। डर लगता
है; क्योंकि
सत्य जब हाथ
में आता है तो घबड़ाहट
लगती है कि
इतने—इतने समय
तक हाथ में
नहीं था, आज
हाथ लगा है
कहीं चूक न
जाए। लेकिन
मैं तुम्हें
याद दिला दूँ,
जो भी चीज
हाथ लग जाती
है, लग ही
गयी, फिर
छूटती नहीं।
सत्य का यही
गुणधर्म है।
एक बार
तुम्हारे
हृदय में सत्य
की भनक पड़ जाए,
तुम दूसरे
ही आदमी हो
गए। उसी क्षण
से सत्य तुम्हें
बदलना शुरू कर
देगा।
जीसस
का प्रसिद्ध
वचन है—सत्य मुत्तिदायी
है। "ट्रुथ
लिबरेट्स'।
और संतोष का
सत्य तो महा मुत्तिदायी
है। संतोषी को
मानने की
जरूरत ही नहीं
कि परमात्मा
है या नहीं, चिंता ही
करने की जरूरत
नहीं। संतोषी
को स्वर्ग और
नरक का विचार
उठाने की
आवश्यकता ही
नहीं। जन्म—पुनर्जन्म,
कर्म
इत्यादि की
बकवास में
पड़ने की जरूरत
नहीं। संतोषी
तो इसी क्षण
उतर गया आनंद
में। और उसी
आनंद में
उतरना
परमात्मा के
मंदिर की सीढ़ियाँ
तय करना है।
जो है, बहुत
है। जितना
दिया है, खूब
दिया है। हम
उस दिए हुए को
भोग ही कहाँ
पाते हैं! हम
जीते ही कहाँ! मनस्विद
कहते हैं कि
हम दो प्रतिशत
जीते हैं, अट्ठानबे प्रतिशत तो
हम जीते ही
नहीं। हम जीने
से डरे हुए
हैं। हम
न्यूनतम जीते
हैं। जितना कम—से—कम
जीना पड़े उतना
जीते हैं। और
जीवन के असली
आनंद अधिकतम
जीने से
उपलब्ध होते
हैं। जो मिला है,
उसे पूरी
तरह जिओ।
यह सुबह, इसे
पूरी तरह जिओ।
ये फूल, इन्हें
पूरी तरह जिओ।
ये लोग, इन्हें
पूरी तरह जिओ।
और अगर तुम सौ
प्रतिशत जिओ
तो तुम पाओगे
इतनी अहर्निश
वर्षा हो रही
है उसके
वरदानों की और
क्या माँगना
है? स्वर्ग
और कहाँ होगा?
स्वर्ग
यहाँ है, अभी
है, यहीं
है।
पाँचवाँ
प्रश्न :
संन्यासी
होने के
पश्चात हमने
जो पाया है, वह
सभी को
प्राप्त हो यह
प्रश्न बार—बार
हृदय में उठता
है। क्या यह
संभव है?
सत्य
वेदांत, संभव
है और संभव न
भी हो तो संभव
बनाना। जो मिला
है, उसे बाँटो।
क्योंकि बाँटोगे
तो बढ़ेगा। दया
से मत बांटना,
क्योंकि
दया से बाँटा
तो अहंकार
फलता है। और अहंकार
फल गया तो जो
हाथ में है
तुम्हारे वह भी
खो सकता है।
जो तुम्हें
मिला है, वह
भी तुम भूल जा
सकते हो।
अहंकार बड़ा
खतरनाक जहर
है।
दया से
मत देना किसी
को,
करुणा से मत
देना किसी को;
ऐसा मत देना
कि मेरे पास
है, तुम्हारे
पास नहीं है; मैं ज्ञानी,
तुम
अज्ञानी; देखो,
मैं
संन्यासी, तुम
संसारी; इस
बेचारे को बचाओ,
डूब रहा है
संसार में, इस भाव से मत
देना किसी को।
क्योंकि इस
भाव में तो
भूल हो गयी, अधर्म हो
गया। आनंद से
देना, करुणा
से नहीं।
मस्ती से
देना। इसलिए
देना कि मेरे
पास इतना है
कि अब मैं
करूँ क्या? अब फूल खिल
गया तो गंध तो लुटेगी न!
अब बादल भर गए
जल से तो जल
बरसेगा न! अब
दीया जग गया
तो रोशनी
फैलेगी न! यह
कोई करुणा का
थोड़े ही सवाल
है।
तुम
क्या सोचते हो, बादल
सोच—सोचकर
बरसता है कि
यह इस गरीब
किसान का खेत,
इस पर थोड़ा बरसूँ; या
यह अमीर का
खेत है, जाने
भी दो; चलेगा,
यह तो
इंतजाम कर
लेगा, नहर
से ले लेगा, कुआं खुदवा
लेगा। फूल
क्या सोच—सोचकर
गंध को
बिखेरता है कि
यह बेचारा
गरीब जा रहा
है, इसको
गंध मिलती भी
नहीं, एकदम
से झपट इसकी
नाक में
प्रवेश कर
जाऊँ। नहीं, फूल बँटता
है। कोई गुजरे
कि कोई न
गुजरे। एकांत
में खिला हुआ
फूल भी अपनी
सुगंध को
बिखेरता रहता
है। कोई जाने
कि कोई न
जाने। सच तो
यह है कि यह
कहना कि सुगंध
को बिखेरता है,
ठीक नहीं है,
सुगंध
बिखरती है।
जैनों
ने ठीक अपने
शास्त्रों
में शब्द का
उपयोग किया
है। उन्होंने
यह नहीं कहा
कि महावीर बोले, उन्होंने
कहा—वाणी
बिखरी। यह
बिल्कुल ठीक
शब्द का उपयोग
किया है। खूब
सोचकर उपयोग
किया है।
महावीर बोले
नहीं, वाणी
बिखरी। जैसे
फूल से गंध
बिखरती है।
जैसे सूरज से
किरणें
बिखरती हैं।
जैसे बादल से
जल बिखरता है।
ऐसे वाणी
बिखरी। झरी। बोलनेवाला
तो अब वहाँ
कोई है भी
नहीं। कुछ पक
गया है, वह
झर रहा है।
जिसकी हो मौज,
ले जाए।
जिसको लेना हो,
उसका है।
बाँटना
है,
आनंद से, मस्ती से, सहजता से।
और ध्यान रखना,
जो ले जाए
उसका धन्यवाद
करना। ऐसा मत
सोचना कि वह
तुम्हारा
धन्यवाद करे।
कि देखो मैंने
तुम्हें
ज्ञान दिया, दयान दिया कि अब
करो नमस्कार
मुझे, कि
दो धन्यवाद
मुझे, कि
देखो मैं
तुम्हारा
त्राता, तारनहार;
कि मैंने
तुम्हें
बचाया, डूबे
जाते थे संसार
के दल—दरिद्र
में, डूब
रहे थे
मरुस्थल में,
मैंने
तुम्हें
उबारा। ऐसा
भाव मत ले
आना। नहीं तो
सब मिट्टी हो
गया। सोना
मिट्टी हो
जाता है ऐसे
भाव में।
जो
तुमसे कुछ ले ले, झुककर
उसे नमस्कार
करना कि
तुम्हारा
धन्यवाद, कि
मैं तो बाँट
ही रहा था, तुम्हारी
बड़ी कृपा हुई
कि तुमने ले
लिया; न
लेते तो भी
बाँटता, निर्जन
में बाँटता, जंगलों में
बाँटता, पहाड़ों
में फेंकता, तुम्हारी
कृपा कि तुमने
इतना मूल्य
दिया, इतना
सम्मान दिया,
स्वागत से
ले लिया, तुम्हारा
धन्यवाद।
देना और
धन्यवाद
करना।
धन्यवाद की
अपेक्षा मत
करना। और तब
तुम पाओगे खूब
बढ़ेगा। जितना बाँटोगे
उससे हजार
गुना बढ़ेगा।
जीवन के परम
सत्य बाँटने
से बढ़ते हैं, रोकने से
घटते हैं।
रोकने से सड़
जाते हैं, उनसे
दुर्गंध उठने
लगती है।
बाँटने से
बढ़ते हैं, फैलते
हैं, उनकी
सुगंध बढ़ती
चली जाती है।
तुम
पूछते हो—"संन्यासी
होने के
पश्चात हमने
जो पाया है, वह
सभी को
प्राप्त हो'..... शुभ है यह
आकांक्षा।
होनी ही चाहिए..... "यह
प्रश्न बार—बार
हृदय में उठता
है'। अब कुछ करो,
प्रश्न को
उठने ही मत
दो। अब इस
प्रश्न के लिए
कुछ करो।
बाँटना शुरू
करो। जिस विधि
बन सके। अलग—अलग
लोगों से अलग—अलग
विधि से
बनेगा। कोई
सुंदर गीत रच
सकता है तो
गीत रचे। कौन
जाने उस गीत
को गुनगुनाते
किसको होश आ
जाए। उस गीत
की कौन—सी कड़ी
किसके हृदय
में टंकार कर
दे। जो मूर्ति
बना सकता है, मूर्ति
बनाए। कौन
जाने मूर्ति
को देखते—देखते
कौन ठहर जाए? किसका हृदय
रुक जाए?
कभी
गौर से बुद्ध
की मूर्ति
देखी कि
महावीर की
मूर्ति देखी? जिसने
भी गौर से
देखी, वह
अगर क्षण—भर
को ध्यानस्थ न
हो जाए तो उसे
मूर्ति देखना ही
नहीं आता।
उसके पास आंख
नहीं वह अंधा
है, बुद्ध
या महावीर की
प्रतिमा को
देखते ही तुम्हारे
भीतर कुछ ठहर
जाता है। उस
प्रतिमा में
वह कला है।
हजारों—हजारों
सालों में
जाननेवाले
कलाकारों ने
उस प्रतिमा की
रग—रग में
ध्यान की
अनुभूति को समोया है, ध्यान को
आकृति दी है, ध्यान को
रूप दिया है, ध्यान को
साकार किया
है। वे बुद्ध
और महावीर की प्रतिमाएँ
थोड़े ही हैं।
इसलिए कई दफे
तुम्हें
चिंता भी पड़ती
होगी, कभी
जैन मंदिर में
जाना जहाँ
चौबीस तीर्थंकरों
की प्रतिमाएँ
रखी हों, वे
सब एक—जैसी
लगती हैं।
कहीं चौबीस
आदमी एक—जैसे
होते हैं? दो
आदमी भी एक—जैसे
नहीं होते, चौबीस कहाँ
से होंगे? और
चौबीस फिर
हजारों साल का
फासला है
उनमें। ये
चौबीस ही एक—जैसे
लगते हैं! जो
उनकी पूजा भी
करते हैं रोज,
उनको भी
पक्का पता
नहीं होता कौन
पार्श्वनाथ
हैं, कौन
नेमिनाथ।
पक्का पता
करने के लिए
उन्होंने
नीचे चिह्न
बना रखे हैं।
हर मूर्ति पर
चिह्न हैं कि
यह महावीर का
चिह्न है, यह
पार्श्वनाथ
का चिह्न, ये
नेमिनाथ का
चिह्न। चिह्न
के हिसाब से
चलना पड़ता है।
अगर चेहरा ही
देखो तो वह सब
चेहरे ही एक—जैसे
हैं। उनमें
कुछ भेद नहीं
है।
क्या
कारण होगा?
ये असल
में महावीर, पार्श्व
या नेमि की प्रतिमाएँ
ही नहीं हैं।
ये प्रतिमाएँ
तो ध्यान की प्रतिमाएँ
हैं। यह तो
उनके भीतर जो
घटा था, उसको
रूप दिया है।
ये फोटोग्राफ
नहीं हैं, ये
कैमरे से
उतारी गयी
तस्वीरें
नहीं हैं, ये
तो ध्यानी मूर्तिकारों
ने भीतर जो
अनुभव होता है
थिरता का, उस
थिरता के
अनुभव को
संगमरमर में
ढाला है। अगर
तुम गौर से देखोगे
इन प्रतिमाओं
को, तुम
अचानक पाओगे
क्षण—भर को तुम्हारे
भीतर भी सब
ठहर गया। सब
शांत हो गया।
अगर
मूर्ति बना
सकते हो, तो
ध्यान की
प्रतिमा बनाओ;
अगर गीत गा
सकते हो तो
ध्यान का गीत
गाओ, अगर
बाँसुरी बजा
सकते हो तो
ध्यान को
बाँसुरी पर
बजने दो। जो
भी कर सकते हो..... कबीर
कपड़ा ही
बुन सकते थे
तो कपड़े ही
ऐसे बुनते थे
कि उनका ध्यान
कपड़े के तागेत्तागे
में समा जाए।
इधर राम का
गीत चलता, उधर
कपड़ा
बुना जाता। रामधुन से
बुना जाता।
भजन समा जाता।
तुम
क्या करते हो, यह
सवाल नहीं।
तुमसे जैसे
बने सके; बोल
सकते हो, बोलो,
चुप रह सकते
हो, तो चुप
हो जाओ; लेकिन
तुम्हारी
चुप्पी को बोलने
दो। चुप्पी भी
बोलती है। कई
बार तो ऐसा होता
है, चुप्पी
इतना बोलती है
जितना बोलना
भी नहीं बोल
पाता। तुम
अनुभव भी करते
हो इसका। कभी
पत्नी से झगड़ा
हो गया, तुम
चुप बैठ गए; वह बोले जा
रही है, तुम
बोल ही नहीं
रहे; क्या
तुम समझते हो
तुम बोल नहीं
रहे हो, तुम
बोल रहे हो, क्रोध बोल
रहा है। अबोल।
अगर
क्रोध बोल
सकता है, चुप
रहकर, प्रेम
भी बोल सकता
है चुप रह कर।
आनंद भी बोल सकता
है, ध्यान
भी बोल सकता
है। तुम्हारे
उठने—बैठने
में, तुम्हारे
मिलने—जुलने
में फैलने दो
जो तुम्हारे
भीतर घना हो
रहा है। इसे
बिखरने दो।
इसे बाँटो—और
कंजूसी मत
करना।
क्योंकि यह
ऐसी संपदा है
कि रोकने से
मर जाती है, बाँटने से
जीवित रहती
है। ये ऐसी
जलधारा है जो
बहती रहे तो
ताजा रहती है,
रुकी, अवरुद्ध
हुई कि गंदी
हुई।
"संन्यासी
होने के
पश्चात हमने
भी पाया, वह
सभी को
प्राप्त हो, यह प्रश्न
बार—बार हृदय में
उठता है। क्या
यह संभव है?' संभव है।
नहीं तो मैं
तुम्हें कैसे
दे पाऊँ? नहीं
तो बुद्ध ने
कैसे दिया? नहीं तो
कृष्ण ने कैसे
दिया? संभव
है। कठिन तो
है देना लेकिन
असंभव नहीं है।
कठिनाइयाँ तो
बहुत हैं।
पहली तो
कठिनाई यह कि
जो तुम्हारे
भीतर फलता है,
उसे कैसे शब्दों
में लाओ? शब्द
साथ नहीं
देते। कठिनाई
यह भी है कि
तुम कहते कुछ,
सुननेवाला
कुछ और समझता।
संवाद कठिन
है। छोटी—छोटी
बातों में
झगड़े हो जाते
हैं। तुम कुछ
कहते, पत्नी
कुछ समझती है;
पत्नी कुछ
कहती, तुम
कुछ समझते; तुम दोनों
इसी पर लड़ने
लगते कि मैंने
कुछ कहा, तुमने
कुछ समझा।
जिंदगी—भर लोग
लड़ते रहते हैं
कि हमें कोई
समझता ही नहीं।
मेरे पास लोग
आकर कहते हैं
कि हमें कोई
समझता ही
नहीं। भूलचूक
ही करते जा
रहे हैं लोग।
कठिनाइयाँ
तो हैं। तुम
कहोगे कुछ, लोग
समझेंगे कुछ।
तुम देने
जाओगे, लोग
समझेंगे लेने
आए हैं। तुम
बाँटना चाहोगे,
लोग बचेंगे,
लोग डरेंगे,
लोग
समझेंगे कि
तुम उनको फाँसने
आए हो। तुम
चाहोगे हृदय
उँडेल दें, वे कहेंगे
कि भई, हमें
चाहिए ही
नहीं। हमारा
संसार अभी
बहुत पड़ा है, अभी ये
संन्यास की
बात हमसे छेड़ो
मत। अभी इसका
समय नहीं आया।
अभी तो हम
जवान हैं, अभी—अभी
तो मेरी शादी
हुई है, अभी
तो नया बच्चा
घर में आ रहा
है, तुम्हें
ध्यान की पड़ी
है! बाबा घर
में आ रहा है, तुम्हें
ध्यान की पड़ी
है! अभी यह बात
मत छेड़ो।
अभी यह बात
करनी ही नहीं।
जब समय आएगा
मैं खुद ही
आकर आपसे पूछ
लूँगा।
और लोग
परेशान भी हो
गए हैं, मिशनरी
हैं और आर्यसमाजी
हैं, और न—मालूम
तरहत्तरह
के बकवासी हैं,
वे लोगों को
समझा रहे हैं,
पिला रहे
हैं कि यह
मानो, ऐसा
मानो, यही
ठीक है, बाकी
सब गलत है।
लोग घबड़ा गए
हैं। लोग कहते
हैं—बख्शो
हमें! आप
होंगे ठीक, मगर हमें बख्शो!
हमें अभी
दूसरे काम
करने हैं।
जिंदगी में और
भी काम हैं।
अब हम इसी
बकवास में
नहीं पड़े रह
सकते कि वेद
का क्या अर्थ
है? जो भी
होगा ठीक ही
होगा, आप
कहते हैं तो
ऐसा ही होगा।
कौन सुनने को
तैयार है?
कठिनाइयाँ
होंगी। पहले
तो तुम कह न
पाओगे। फिर
लोग समझने को
तैयार नहीं।
और अगर कोई
समझने को
तैयार हो जाए
तो विवाद करेगा, संदेह
उठाएगा और तुम
उत्तर न दे
पाओगे। क्योंकि
कुछ ऐसे संदेह
हैं जो केवल
अनुभव से ही
हल होते हैं।
और कोई उपाय
नहीं है।
जिसने कभी
प्रेम नहीं
किया, वह
प्रेम के
संबंध में
हजार संदेह
उठाएगा, और
तुम लाख कोशिश
करो, समझा
न पाओगे। एक
ही चीज समझा
सकती है कि वह
प्रेम करे।
लेकिन अगर
उसने यह कसम
खा ली है कि जब
तक मैं पक्का
समझ न लूँ
कि प्रेम होता
है, तब तक
करूँगा नहीं।
और उसकी बात
में भी जान तो मालूम
होती है।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
तैरना सीखना
चाहता था। तो
गाँव के एक
उस्ताद को पकड़
लिया जो तैरना
सिखाते थे बच्चों
को। उनके साथ
गया नदी पर।
घाट से उतर ही
रहा था कि काई
जमी थी नीचे
फर्श पर, और
फिसल गया, गिर
पड़ा। गिरा तो
भागा अपने
कपड़े लेकर
एकदम घर की
तरफ। उस्ताद
ने कहा—कहाँ
जाते हो, नसरुद्दीन?
उसने कहा—
जब तैरना सीख
लूँगा तभी
आऊँगा। ऐसे
अगर कहीं पानी
में गिर जाऊँ
बिना तैरना
जाने हुए, तो
मुफ्त मारे
गए। अब तो
तैरना सीख लूँ
उस्ताद, तभी
नदी आऊँगा।
मगर तबसे नदी
नहीं गया, तैरना
कहाँ सिखोगे?
बिस्तर पर
लेटकर हाथ—पैर
मारोगे? सुविधापूर्ण,
अपने कमरे
में चारों तरफ
दरवाजे बंद कर
लिए, लेट
गए बिस्तर पर
और पटक रहे
हैं हाथ—तैरना
नहीं आएगा!
ऐसे तैरना
नहीं आता।
अगर
किसी ने यह तय
कर लिया कि
तैरना आ जाए
तभी पानी में उतरूँगा, तो
तैरना आएगा ही
नहीं। और उसकी
बात में बल तो है
कि बिना तैरना
सीखे
पानी में कैसे
उतरूँ? यह तर्क
एकदम व्यर्थ
नहीं है, हँसो मत,
उस पर, यही
हमारी जिंदगी
का तर्क है।
हम कहते हैं—पहले
ईश्वर को
सिद्ध तो करो,
फिर हम
खोजने निकलें।
ध्यान किसी को
हुआ है कभी, यह सिद्ध
करो, तो हम
भी ध्यान
करें। मगर
कैसे सिद्ध
करोगे? ध्यान
अंतर्दशा
है। ऐसे बाहर
रखी नहीं जा
सकती निकालकर
बाजार में कि
सब लोग देख
लें। कोई उपाय
नहीं है। मुझे
क्या हुआ है, वह मैं
जानता हूँ।
तुम्हें जो
होगा, तब
तुम जानोगे।
तो अड़चनें
तो हैं, समझाने
की कठिनाइयाँ
हैं, संवाद
बहुत मुश्किल
है, मगर इन
सारी अड़चनों
को स्वीकार
करके भी बाँटना
तो होगा। और
फिर लोग ऐसे
हैं भी जिनको
प्यास है, जो
प्रतीक्षा कर
रहे हैं कि
कहीं से कोई
स्वर मिले, आवाज मिले, पुकार मिले।
और यह दुनिया
बदलनी है। यह
दुनिया गैर—ध्यान
के बहुत जी ली
और बहुत कष्ट
पा ली।
हमारे
मैकदे का
अब निजाम
बदलेगा
हम
अपना साकी
बदलेंगे, जाम
बदलेगा
अभी
तो चंद ही
मैकश हैं बाकी
सब तिश्ना
वह
वत्त आगया
जब तिश्नाकाम
बदलेगा
यह अर्शो—फर्श
की तफरीक
कुछ नहीं "वामिक'
बुलंदो—पश्त का मेयारे—खाम
बदलेगा
समय
आया है, अब
छोटी—मोटी मधुशालाओं
से काम न
चलेगा, इस
पूरी पृथ्वी
को मधुशाला
बनाना है। अब
कुछ ही पियक्कड़
हों और बाकी
प्यासे ही
रहें, ऐसे
काम न चलेगा।
"हमारे मैकदे
का अब निजाम
बदलेगा'।
अब हमें अपने
मदिरालय का
प्रबंध और
व्यवस्था बदलनी
होगी। वही मैं
कर रहा हूँ
चेष्टा।
इसलिए यहाँ
हिंदू की बात
नहीं हो रही; मुसलमान की
बात नहीं हो
रही, ईसाई
की बात नहीं
हो रही—और
सबकी बात भी
हो रही है।
वही कोशिश कर
रहा हूँ कि अब
यह निजाम
बदले। मंदिर
में हिंदू
जाता है, मुसलमान
मस्जिद जाता
है, अब यह
निजाम बदले।
अब इतनी
संकीर्णता न
रहे। अब सब
मंदिर—मस्जिद
उसके हों। जो
करीब पड़ जाए, वहीं चले
गए। मस्जिद
करीब हो तो
वहीं प्रार्थना
कर ली, इसकी
फिकर न की कि
तुम मुसलमान
हो या नहीं? मंदिर करीब
हुआ तो वहीं
चले गए, इसकी
फिकर न की कि
तुम हिंदू हो
या मुसलमान।
महावीर की
मूर्ति मिल
जाए तो वहीं
बैठ गए, वहीं
पी लिया, महावीर
की सुराही से
पी लिया। और
बुद्ध की प्रतिमा
मिल गयी तो
वहाँ पी लिया।
और कोई न मिला,
तो वृक्ष भी
उसी के हैं और
आकाश भी उसी
का है।
हमारे मैकदे का
अब निजाम
बदलेगा
हम अपना
साकी बदलेंगे, जाम
बदलेगा
अभी तो
चंद ही मैकश. . .
अभी तो
थोड़े—से पियक्कड़
हैं दुनिया
में। और
जिन्होंने पीआ है वही
जानते हैं।
..... बाकी
सब तिश्ना
बाकी
लोग तो सिर्फ
प्यासे हैं।
तलाश रहे हैं, मगर
हाथ कुछ लगता
नहीं। खाली—के—खाली
रह जाते हैं।
खाली आते हैं,
खाली जाते
हैं।
अभी तो
चंद ही मैकश
हैं बाकी सब तिश्ना
वह
वत्त आ गया जब तिश्नाकाम
बदलेगा
अब
हमें बदलना
है। ये मधु घट—घट
में ढालना है।
यह शराब एक—एक
हृदय में उतारनी
है। इस दुनिया
को ध्यान के
बिना रहते
बहुत समय हो
गया,
सिर्फ
युद्ध होते
हैं, हिंसा
होती है; लोग
क्रोधित होते
हैं, विक्षिप्त
होते हैं; इस
सारे क्रोध, विक्षिप्तता,
युद्धों और
हिंसा की
ऊर्जा को
प्रेम की
ऊर्जा में
बदलना है।
यह अर्शो—फर्श
की तफरीक
कुछ नहीं "वामिक'
आकाश
और पृथ्वी का
भेद कुछ भी
नहीं है। जरा
पीने की कला आ
जाए कि पृथ्वी
आकाश हो जाती
है।
यह अर्शो—फर्श
की तफरीक
कुछ नहीं "वामिक'
बुलंदो—पश्त का मेयारे—खाम
बदलेगा
और न
कोई नीचा है
और न कोई ऊँचा
है। ये सब
भेदभाव झूठे
हैं। न कोई
हिंदू है, न
मुसलमान है, न ईसाई है, न बौद्ध, न
जैन, ये सब
भेदभाव बचकाने
हैं। ये सब
दीवालें तोड़
देनी हैं।
बाँटो, तुम्हें
जो मिला है
उसे बाँटो।
होशियारी
इतनी ही रखना
कि किसी को
जबरदस्ती पकड़कर
मत पिला देना।
क्योंकि
जबरदस्ती जो
पिलाया जाता
है, वह जहर
हो जाता है।
जो स्वेच्छा
से पीया
जाता है, वही
अमृत है।
इसलिए बड़ी
परोक्ष
प्रक्रिया है लोगों
तक अपनी आनंद
की अनुभूति
पहुँचाने की।
किसी की गर्दन
सीधी पकड़कर
जोर—जबरदस्ती
से बदलने की
कोशिश मत करना—वही
तो चलता रहा
है, दुनिया
से वही तो
बदलना है। घर
में बच्चा
पैदा हुआ और
माँ—बाप ने
पकड़ा उसको, इसको जल्दी
से जैन बना लो—क्योंकि
वे जैन हैं।
उनको डर है कि
अगर यह जवान
हो गया, फिर
पता नहीं बना
पाएँ, न
बना पाएं फिर
मजबूत हो
जाएगा; फिर
इसकी गर्दन पकड़नी
इतनी आसान
नहीं रहेगी।
फिर इसमें
बुद्धि जग जाएगी।
इसलिए
सारी दुनिया
के धर्मगुरु
इस कोशिश में रहते
हैं कि सात
साल के पहले
ही बच्चे का
बपतिस्मा हो
जाए,
जनेऊ डाल
दिया जाए, सिर
घुटाकर चुटैया रख
दी जाए, कुछ—न—कुछ
कर दिया जाए
ताकि मामला
खतम हो जाए।
यह तय कर दिया
उसकी बुद्धि
के जागने के
पहले कि वह कौन
है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई? उसको
कुछ गीता रटा
दो, कुछ
कुरान की
आयतें रटा
दो, उसे एक—दूसरे
से दुश्मनी
सिखा दो, उसे
आदमी—आदमी के
बीच दीवाल खड़ी
करना सिखा दो,
उसे
ब्राह्मण बना
दो, शूद्र
बना दो, कुछ—न—कुछ
बना दो।
बस एक
बार यह विकृति
छा गयी उसमें, फिर
बहुत मुश्किल
हो जाता है
निकालना, क्योंकि
जहर गहरे उतर
जाता है। बचपन
में जो जहर
उतरता है, वह
बहुत गहरे उतर
जाता है। उससे
बुनियाद बन जाती
है। फिर सारा
भवन उसी पर
खड़ा होता है।
फिर जिंदगी—भर
वह उसी तरह
सोचता है। और
सोचता है कि
मैं सोच रहा
हूँ। वह नहीं
सोच रहा है, यह जो उसके
भीतर कूड़ा—कचरा
डाल दिया गया
है वही घूम
रहा है। वही
हवा में उठता—बैठता
रहता है। वह
कुछ सोचता
नहीं।
यह
जबरदस्ती
काफी चल चुकी, इसका
परिणाम क्या
है? हिंदू
भी नहीं है, मुसलमान भी
नहीं है, ईसाई
भी नहीं है, कोई भी तो
नहीं है यहाँ
पृथ्वी पर। बस
नाममात्र को
हैं।
जबरदस्ती कोई
धार्मिक हो
सकता है? धर्म
निजी खोज है, निजता है।
तो
तुम्हें मैं
याद दिला दूँ, भूलकर
भी किसी पर
जबरदस्ती मत
थोप देना।
प्रेम से, जो
तुम्हें मिला
है, उसको
बाँटना। सहज
भाव से निवेदन
कर देना। और दूसरे
को मौका देना
कि सोचे। और
किसी भय या
लोभ को खड़ा मत
करना। यह मत
कहना कि अगर
नहीं हमारी बात
मानी तो नरक
में पड़ोगे। यह
कहते रहे हैं
लोग इस जमीन
पर कि हमारी
बात नहीं मानी
तो नरक में
पड़ोगे। नरक का
ऐसा वीभत्स
चित्र खींचते
हैं कि जिसमें
थोड़ी भी
बुद्धि हो वह
यही सोचेगा कि
मान ही लेने
में सार है।
नरक में कौन पड़ना
चाहता है! और
हो न हो कहीं
नरक हो ही न! तो
मान ही लो।
फिर
स्वर्ग का
प्रलोभन दिया
है कि जो
मानते हैं, उनको
इस—इस तरह की
उपलब्धियाँ
होंगी। ऐसे
सुंदर सोने के
महल, और
कल्पवृक्ष, जिनके नीचे
बैठो, बात
उठे नहीं कि
पूरी हो जाए, वासना उठे
नहीं कि
तत्क्षण पूरी
हो जाए; और
सुंदर अप्सराएँ
जो कभी बूढ़ी
नहीं होतीं।
तुमने बूढ़ी
अप्सरा का नाम
सुना? कोई
अप्सरा बूढ़ी
होती नहीं।
उर्वशी अभी भी
उतनी ही जवान
है जैसी तब
थी। सोलह साल
पर रुक जाती
हैं अप्सराएँ।
उसके आगे नहीं
जातीं। स्त्रियाँ
यहाँ भी कोशिश
करती हैं
रुकने की, मगर
कब तक? कोशिश
तो करती हैं, यहाँ भी स्त्रियाँ
रुकने की कि
रुकी रहें
सोलह साल पर, मगर दो—चार—आठ
साल में फिर
उम्र बदलनी ही
पड़ती है
क्योंकि फिर
वह दिखायी ही
पड़ने लगती हैं,
उसको कहाँ
तक रोकोगे?
मगर स्वर्ग
में उम्र नहीं
बदलती। वहाँ
जवान—ही—जवान।
न कोई बच्चा
है, न कोई
बूढ़ा। वहाँ
सिर्फ जवानी
है। ये मनुष्य
की कामना के
प्रतीक हैं।
और वहाँ राग—रंग
ही चलता है और
कोई काम नहीं।
तुमने
देखा स्वर्ग
में कोई
देवदूत दुकान
कर रहे हैं, खेती—बाड़ी
कर रहे हैं—यह
कोई कहानी ही
नहीं आती! बस, जमी है
महफिल, शराब
छलक रही है, नाच हो रहा
है—इंद्र का
दरबार भरा है,
अप्सराएँ नाच रही हैं,
मस्ती चल
रही है। कोई
और काम है? इसका
पता ही नहीं
चलता कि शराब
कौन ढालता है?
शराब बनाता
कौन है? यह
शराब की भट्ठी
कौन चलाता है?
नहीं, इसीलिए
तो कल्पवृक्ष
ईजाद किए, वहाँ
तो जो कल्पना
करो, तत्क्षण
हो जाता है।
मैंने
सुना है, एक
आदमी भूल से
कल्पवृक्ष के
नीचे पहुँच
गया। भटक रहा
था, पहुँच
गया। थका—माँदा
था। इतना थका
था कि उसने
सोचा कि इस
वत्त अगर एक
बिस्तर मिल
जाता, तो
गहरी नींद सो
लेता। इतना
थका था, इतना
कि टूटा जा
रहा था। उसको
हैरानी भी न
हुई क्योंकि
उसने देखा
तत्क्षण एक
बिस्तर लग गया।
मगर वह इतना
थका—माँदा था
कि चौंका भी
नहीं, जल्दी
से सो गया।
थोड़ी
देर बाद उसकी
नींद खुली तो
उसने सोचा कि बड़ा
मजा है, यह
बिस्तर भी मिल
गया! अब चाय
इत्यादि भी
मिलेगी कि
नहीं? तत्क्षण
चाय की ट्रे
आकाश से उतर
आयी। तब थोड़ा
उसे भय भी
लगा। मगर उसने
कहा—चाय तो पी
ही लो! उसने
चाय तो पी ली, फिर उसने
सोचा कि यह
मामला क्या है?
क्या भोजन
वगैरह भी
मिलेगा? भोजन
भी आ गया।
भोजन भी कर
लिया। जब भोजन
कर लिया और सब
तरह से
निश्चिंत हो
गया, अब
उसे ज़रा
ज्यादा घबड़ाहट
पकड़ी कि
यह मामला क्या
है; ये थालियाँ,
ये बिस्तर,
ये उतर कहाँ
से रहे हैं? कोई भूत—प्रेत
तो नहीं हैं? भूत—प्रेत
खड़े हो गए।
देखकर उनको
उसने कहा कि
मारे गए, कि
मारा गया।
कल्पवृक्ष
है,
जिसके नीचे
जो चाहोगे
वैसा ही हो
जाएगा।
तत्क्षण। चाह
में और पूर्ति
में समय का
अंतराल नहीं
होगा। खूब
प्रलोभन दिए
हैं, खूब
भय दिए हैं, और इन्हीं
के आधार पर
आदमियों को
फाँसा गया है।
तुम न तो किसी
को भय देना, न प्रलोभन
देना, सिर्फ
जो तुम्हें
हुआ है उसका
निवेदन कर
देना। कोई
स्वेच्छा से
उमंग से भर
जाए, तो
ठीक। कोई
स्वेच्छा से
उमंग से न भरे
तो उसके पीछे
मत पड़ जाना—हाथ
धोकर किसी के
पीछे मत पड़
जाना।
आखिरी
प्रश्न :
संसार में ही
परमात्मा
छिपा है, या
कि संसार ही
परमात्मा है?
जब तक जाना
नहीं, तब
तक तो संसार
ही है, परमात्मा
कहाँ? तब
तक तो
परमात्मा की
सिर्फ बातचीत—ही—बातचीत
है। संसार ही
सत्य है अभी
तो।
अज्ञान
की अवस्था में
परमात्मा है
ही नहीं, संसार
ही है। ज्ञान
की अवस्था में
परमात्मा ही
है, संसार
नहीं है और
चूँकि
ज्ञानियों को
अज्ञानियों
से बात करनी
पड़ती है, इसलिए
वे कहते हैं—संसार
में परमात्मा
छिपा है।
इस बात
को समझ लेना।
अज्ञानी के
लिए संसार ही है, परमात्मा
है नहीं।
ज्ञानी के लिए
सिर्फ परमात्मा
ही है, संसार
नहीं है। और
अज्ञानी
ज्ञानी के बीच
बात होती है।
अब यह बात
कैसे चले? दोनों
के आधार अलग
हैं। अज्ञानी
कहता है—कहाँ
का परमात्मा?
संसार है।
और ज्ञानी भी
अगर ऐसे ही
जिद्दी हो तो
वह कहेगा—कहाँ
का संसार, सिर्फ
परमात्मा है।
फिर तो बात न
हो सकेगी। तो
समझौता करना
पड़ता है। वह
समझौते के
कारण ये सत्य
इस तरह कहे
जाते हैं, कि
संसार में
छिपा है
परमात्मा।
इससे अज्ञानी
भी एकदम नाराज
नहीं होता। वह
कहता है—चलो, संसार तो है;
अब रही छिपे
की बात, खोजेंगे।
थोड़ा
अज्ञानी
खोजने में
लगता है, तो
फिर ज्ञानी
दूसरी घोषणा
करता है, वह
कहता है—छिपा
है, ऐसा
नहीं, संसार
ही परमात्मा
है। जो पहली
बात मानने को
राजी हो गया
और खोज पर चला,
वह दूसरी
बात भी मानने
को राजी हो
जाता है। क्योंकि
संसार में
छिपा है, इसका
तो मतलब हुआ
दो हैं। संसार
और उसमें छिपा
हुआ
परमात्मा।
जैसे लोटे में
जल भरा है।
ऐसे परमात्मा
संसार में भरा
है। तो यह
लोटा अलग, जल
अलग। मगर यह
घोषणा पहली है
करनी ही पड़ती
है। दूसरी
घोषणा ज्ञानी
करता है जब
थोड़ा अज्ञानी
सरकने लगा
ध्यान में, प्रार्थना
में, पूजा
में, तो
उससे कहता है
कि अलग—अलग
नहीं हैं, एक
ही है, संसार
ही परमात्मा
है। मगर अभी
भी दो शब्दों
का प्रयोग कर
रहा है। संसार
शब्द को एकदम
नहीं छोड़ दिया
है। अज्ञानी
को देखकर चलना
पड़ता है ज्ञानी
को। अज्ञानी
की भाषा बोलनी
पड़ती है।
फिर
अज्ञानी और
ध्यान में
उतरा और ज्ञान
में उतरा, तो
एक दिन वह
घोषणा करेगा—कोई
संसार नहीं है,
बस
परमात्मा ही
है, वही एक
है। न तो कुछ
छिपा है, न
किसी में छिपा
है—परमात्मा
छिपा थोड़े ही
है। परमात्मा
से ज्यादा
प्रगट क्या है?
वही तो
प्रगट है, छिपेगा किसमें? उसके अतिरित्त
कुछ और है
नहीं जिसमें
छिप जाए।
लेकिन ये
घोषणाएँ करनी
पड़ती हैं अलग—अलग
पात्रता के
कारण। भिन्न—भिन्न
पात्रता के
लोग हैं। तुम
देखते नहीं जीवन
में इतना
परिवर्तन
दिखायी पड़ता
है लेकिन फिर
भी परिवर्तन
के पीछे
शाश्वत की झलक
नहीं मिलती? फूल खिले, फिर झर गए, कल फिर फूल
खिले; बसंत
आया, गया, पतझड़ हो गयी। फिर
बसंत आ गया।
बदलाहट होती
रहती है, लेकिन
किसी गहरे तल
पर कुछ भी
नहीं बदलता, फूल आते ही
रहते हैं। मौत
जीत कहाँ पाती
है? जीवन
होता ही रहता
है। जीवन मौत
के बावजूद भी चलता
ही रहता है।
इस शाश्वत चलनेवाले
जीवन का नाम
ही परमात्मा
है।
खिजां ने ख़ाक उड़ाई
हजार गुलशन
में
चमन
में फूल मगर मुस्कराए
जाते हैं
कितनी
ही मौत आए, कितने
ही पतझड़
आएँ, लेकिन
जिंदगी मुस्कराए
चली जाती है।
फर्क ही नहीं
पड़ता!
खिजां ने
खाक उड़ाई
हजार गुलशन
में
चमन
में फूल मगर मुस्कराए
जाते हैं
ज़रा
गौर से देखो!
तो पहले
तुम्हें ऐसे
ही लगेगा कि
संसार में
परमात्मा
छिपा है, फिर
ऐसा लगेगा—संसार
ही परमात्मा
है। फिर ऐसा
लगेगा—परमात्मा
ही है, संसार
कहाँ? ये
तीन सीढ़ियाँ
हैं।
फूलों
की तरफ उनकी कतारों की
तरफ देख
महके
हुए सरशार नजारों
की तरफ देख
है कश—म—कश
इश्क की हर
गाम पै दावत
बहकी
हुई बदमस्त
बहारों की तरफ
देख
कुंदन
की तरह निखरी
हुई चाँदनी
रातें
बिखरे
हुए मदहोश
सितारों की
तरफ देख
यह
सहने—चमन कर—मके—शहताब
की परवाज
उड़ते
हुए बेचैन शरारों
की तरफ देख
बसती
है यहाँ एक खयालात
की दुनिया
चश्मों
के लहकते हुए
धारों की तरफ
देख
कहता
था "हया' सुब्ह का टूटा हुआ
तारा
"कुछ
तू भी मशैयत
के इशारों की
तरफ देख'
ज़रा
संसार से आते
इशारे तो
देखो!
कहता
था "हया' सुबह
का टूटा हुआ
तारा
"कुछ
तू भी मशैयत
के इशारों की
तरफ देख'
सब तरफ
से इशारा हो
रहा है, मगर
तुम आंख बंद
किए खड़े हो।
सब तरफ से
परमात्मा न—मालूम
कितने—कितने
रूपों में
खबरें भेज रहा
है। यह आया
हवा का झोंका—
यह उसी का
झोंका। यह आयी
फूलों की गंध,
यह उसी की
गंध। यह उठा
इंद्रधनुष
आकाश में, यह
उसी का
इंद्रधनुष, यह उसी का
रंग। ये लोग
जो तुम्हारे
पास बैठे हैं,
यह तुम जो
अपने भीतर
बैठे हो, ये
सब उसी के बैठकखाने
हैं। घर—घर
में वही बसा
है। मगर यह
पहली घोषणा कि
घर—घर में वही
बसा है। फिर
दूसरी घोषणा
कि वह और घर दो
नहीं हैं, एक
ही हैं। फिर
तीसरी घोषणा—वही
है, घर
कहाँ?
यह
पात्रता के
अनुसार है।
इनमें कोई भेद
नहीं है। पहली
कक्षा का पाठ, दूसरी
कक्षा का पाठ,
तीसरी
कक्षा का पाठ।
और इस तरह के
प्रश्नों को
दार्शनिक ढंग
से सुलझाने मत
जाना। नहीं तो
सुलझा तो नहीं
पाओगे, और
उलझ जाओगे—वैसे
ही काफी उलझे
हो। इसलिए मैं
तुमसे कहता हूँ—बजाय
शास्त्रों
में जाने के, सृष्टि में
चलो। सब शास्त्र
आदमी के रचे
हुए हैं, सृष्टि
उसकी रची हुई
है।
फूलों
की तरफ उनकी कतारों की
तरफ देख
महके
हुए सरशार नजारों
की तरफ देख
है कश—म—कश
इश्क की हर
गाम पै दावत
बहकी
हुई बदमस्त
बहारों की तरफ
देख
कुंदन
की तरह निखरी
हुई चाँदनी
रातें
बिखरे
हुए मदहोश
सितारों की
तरफ देख
यह
सहने—चमन कर—मके—शहताब
की परवाज
उड़ते
हुए बेचैन शरारों
की तरफ देख
बसती
है यहाँ एक खयालात
की दुनिया
चश्मों
के लहकते हुए
धारों की तरफ
देख
कहता
था "हया' सुब्ह का टूटा हुए
तारा
"कुछ
तू भी मशैयत
के इशारों की
तरफ देख'
आज
इतना ही।
ओशो मेरे प्यारे सद्गुरू तुम सा और मिला नही कोई
जवाब देंहटाएं