अध्याय—(सौवां)
17
जनवरी 1990 को
मैं बंबई
रजिस्ट्रार
के ऑफिस में
कुछ कागजात पर
हस्ताक्षर
करने के लिए
जाती हूं।
किसी कारणवश
कागजात अभी
तैयार नहीं
हैं और मुझे 20 जनवरी का
समय मिलता है।
मैं 18
जनवरी की सुबह
ही पूना वापस
लौटने का तय
कर लेती हूं।
17 जनवरी की
शाम को मैं एक
ध्यान केंद्र पर
अपने मित्रों
से मिलने के
लिए जाती हूं।
जब मैं उन्हें
बताती हूं कि
मुझे 20
जनवरी को वापस
आना है तो वे
सलाह देते हैं
कि दो दिन के
लिए मैं पूना
न जाऊं और
उन्हीं के पास
ठहर जाऊं।
मैं
उनके
प्रस्ताव को
यह कहकर
अस्वीकृत कर
देती हूं कि 'अब ओशो का
शरीर भरोसे
योग्य नहीं है।
वे किसी भी
क्षण अपना
शरीर छोड़ सकते
हैं। मैं दो
दिन के लिए भी
दूर रहना नहीं
चाहती।’ 18
जनवरी की सुबह
मैं पूना की
पलाइट पकड़ने
के लिए बंबई
एयरपोर्ट
जाती हूं।
वहां कुछ और
संन्यासी भी
है, जो पश्चिम
से आए है। वे
ओशो के स्वास्थ्य
के विषय में पूछते
है तो मैं उन्हें
कहती हूं, ‘उनका स्वास्थ्य
काफी अच्छा है
और हर शाम वे
सत्संग के
लिए बुद्धा
हाल में आ रहे
है।’ वे यह
सुनकर खुश हो
जाते है,
और साथ ही इस
बात से उत्तेजित
है कि आज ही श्याम
वे उन्हें
देख सकेंगे।
जब
हम पूना
पहूंचते है तो
हमें पता चलता
है कि 17 जनवरी
को ओशो सिर्फ
बुद्धा हाल में
आए और सबको
नमस्कार कर
चले गए। वे
सत्संग के
लिए नहीं
रूकें और बहुत
कमजोर लग रहे
थे। 18 जनवरी की
शाम वे अपने कमरे
से बाहर नहीं
आते और यह
संदेश भेजते
है कि अपने
कमरे में बैठ कर
ही वे हमारे
साथ ध्यान
करेंगे।
19
जनवरी 1990 को कम्यून
का सारा काम
हमेशा की तरह
चल रहा है।
बुद्धा हाल
में ओशो की
शारीरिक
अनुपस्थिति
अब कोई नई बात
नहीं है।
पिछले वर्ष के
दौरान उन्होंने
हमें इसके लिए
तैयार कर दिया
है।
करीब
5—30 बजे मा नीलम
रोती हुई माता
जी के कमरे
में यह समाचार
देने के लिए
आती है कि ओशो
ने अपना शरीर छोड़
दिया है। कुछ
मिनटों
तक तो मैं
सूनी आंखों से
नीलम की और ही
देखती रह जाती
हूं, और समझ में
नहीं आ रहा कि
वह कह क्या
रही है। नीलम
आंसुओं में
डूबी हुई है।
जब मैं उनसे
गले मिलती हूं
तो मुझे बोध
होता है कि वास्तव
में क्या हुआ
है। श्वेत
हंस विशाल
नीले आकाश में
उड़ गया है।
और पीछे कोई
पद चिन्ह्न
भी नहीं छोड़े
है।
ओशो
की इच्छा के
अनुरूप उसी
संध्या—सभा
में उनका शरीर
गौतम दी
बुद्धा
आडिटोरियम में
दस मिनट के
लिए लाकर रखा
जाता है। दस
हजार शिष्य
और प्रेमीजन
उनकी आखिरी
विदाई का उत्सव
संगीत—नृत्य, भावातिरेक
और मौन में
मनाते है। फिर
उनका शरीर दाह
क्रिया के लिए
ले जाते है।
एक वृह्त
उर्जा फैल रही
है और जो लोग
उनके प्रेम
में है, वे
इस अनूठी,
उर्जा की तरंग
पर सवार होकर उत्सव
मना रहे है।
घाट
पर ठीक सामने
खड़ी मैं अपने
प्यारे
सदगुरू के
शरीर को अग्नि
में विलिन
होते देख रही
हूं। इक्कीस
जनवरी 1990 की
पूर्वाह्र
में उनके अस्थि—फूल
का कलश
महोत्सव
पूर्वक कम्यून
में लाया गया
है। कम्यून
के मुख्य
द्वार से
लाओत्सू
हाऊस तक जाती
हुई सड़क के
दोनों किनारे—नाचते
गाते उनके
प्रेमी हाथ
में फूल लिए
कतार—बद्ध
खड़े है। मेरे
आंसू थमने का
नाम नहीं ले
रहे है। अपने
प्यारे
सदगुरू को फूल
भेंटकर में एक
कोने में आंखें
बंद कर बैठ
जाती हूं।
जैसे ही मेरा
मन शांत होता
है। अचानक
अनुभव करती
हूं कि ओशो
मुझे शून्य
की तरह चारों
और से घेरे
हुए है।
आश्चर्य!
उनकी उपस्थिति
पहले से भी
सघन अनुभव हो
रही है। ओशो
के आखिरी दिए
हुए संदेश याद
आते है। उन्होंने
कहा है कि ‘मेरे
देह छोड़ने के
बाद मेरे लोग
मेरी उपस्थिति
और भी सघन रूप
से अनुभ
करेंगे।’
21
जनवरी 1990 के
पूर्वाह्न
में उन के अस्थिफूल
का कलश महात्सवपूर्वक
कम्यून में
लाकर च्वांग्त्सू
हाल में
निर्मित
संगमरमर के
समाधि भवन में
स्थापित
किया जाता है।
ओशो
की समाधि पर
स्वर्ण
अक्षरों में
अंकित है :
OSHO
Never Born
Never Died
Only Visited this
Planet Earth between
Dec. 11-1931 – Jan 19 - 1990
समाप्त।
💗🙏🙏🙏💗
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