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रविवार, 20 मार्च 2016

संतो मगन भया मन मेरा--(प्रवचन--03)

म्‍हारो मंदिर सूनो राम बिन—(प्रवचन—तीसरा)
दिनांक 14 मई 1979;  श्री रजनीश आश्रम पूना।
सूत्र:

संतो, ऐसा यहु आचार।
पाप अनेक करै पूजा में, हिरदै नहीं विचार।। 
चींटी दस चौके में मारें, घुण दस हांडी माहीं।
चाकी चूल्है जीव मारै जो, सो समझै कछु नाहीं।।
पाती फूल सदा हीं तोड़ैं, पूजन कूँ पाषाण।
छार पतंगा होहिं आरती, हिरदै नहीं बिनाण।।
सगले जनम जीव संहारै, यहु खोटे षटकर्मा
पाप प्रपंच चढ़ै सिरि ऊपरि, नाम कहावै धर्मा।।
आप दुःखी औरां दुःखदायक, अंतरि राम न जान्या
जन रज्जब दुःख देहि दुष्टि बिन, बाहरि पाखंड ठान्या।।

म्हारो मंदिर सूनो राम बिन, बिरहिण नींद न आवै रे।
पर—उपगारी नर मिलै, कोई गोविंद आन मिलावै रे।।
चेती बिरहिण चित न भाजै, अविनासी नहिं पावै रे।
यहु बिवोग जागै निसबासर, बिरहा बहुत सतावै रे।।
बिरह बिवोग बिरहिणी बींधी, घर बन कछु न सुहावै रे।
दह दिसि देखि भयो चित चकरित, कौन दसा दरसावै रे।।
ऐसा सोच पड़ा मन माहीं समझिसमझि धूधावै रे।
बिरहबान घटि अंतरि लाग्या, घाइल ज्यूँ घूमावै रे।।
बिर—अगिन तन—पिंजर छीनां, पिवकूं कौन सुनावै रे।
जन रज्जब जगदीस मिले बिन पल—पल बज्र बिहावै रे।।

"म्हारो मंदिर सूनो राम बिन'
मंदिर राम के बिना सूना रहेगा ही। मंदिर को राम के बिना भरने का कोई उपाय नहीं। सब उपाय हार जाते हैं। धन से भरो, पद से भरो, प्रतिष्ठा से भरो, भरता ही नहीं। मंदिर राम से ही भरेगा। जन्मों—जन्मों की चेष्टाएँ सिवाय असफलता के और हाथ में कुछ लाती नहीं। इस जीवन का सारा अनुभव असफलता है। इस जीवन में आशाएँ बहुत बनती हैं, सपने बहुत उमगते हैं, फल कभी नहीं लगते, सब निष्फल हैं। रोओ, गाओ, तड़फो, दौड़ो, भागो, आपाधापी करो, झगड़ो, संघर्ष करो, पहुँचोगे कहीं भी नहीं। राम के बिना पहुँचने को कोई जगह ही नहीं है।
और मजा ऐसा है कि हर आदमी राम को ही खोज रहा है—उसे पता हो, या पता न हो। जब तुम किसी के प्रेम में पड़े हो तो वस्तुतः तुम राम के ही प्रेम में पड़े हो। इसीलिए तो हर प्रेम विषाद में रूपांतरित हो जाता है। क्योंकि राम मिलता नहीं। तुमने जब धन चाहा है तो राम ही चाहा है। फिर धन तो मिल जाता है, राम मिलता नहीं। इसलिए हाथ खाली—के—खाली रह जाते हैं। और धन को पाने में जीवन गया; उसका विषाद, उसकी पीड़ा, उसका तिक्त स्वाद जीभ पर छूट जाता है। तुमने जो भी चाहा है अब तक, तुम्हारी चाह जाने—अनजाने राम की ही चाह है। धन्यभागी हैं वे जिन्हें अपनी चाह की ठीक—ठीक पहचान हो जाती है। क्योंकि उसी ठीक पहचान से ठीक दिशा का जन्म होता है।
मेरे संन्यास की यही परिभाषा है। जिसकी खोज तुम कर रहे हो, उसकी ठीक—ठीक पहचान। अंधेरे में मत टटोलो, साफ—साफ हृदय में यह बात हो जानी चाहिए कि क्या मेरे मन के मंदिर को भरेगा? धन? तो सोचो, कि धन मिल जाएगा, मन भरेगा? ज़रा कल्पना ही करके देखो, सारी दुनिया का धन मिल गया, मन भरेगा? जो बुद्धिमान हैं, वे कल्पना से ही सीख लेते हैं। जो मूढ़ हैं, वे बार—बार अनुभव से भी नहीं सीखते है। मूढ़ और बुद्धिमान का यही भेद है। बुद्धिमान दूसरों के अनुभव से भी सीख लेता है, मूढ़ अपने अनुभव से भी नहीं सीखता। तुमने कितनी बार कितने द्वारों पर दस्तक दी है, द्वार खुले भी हैं— ऐसा नहीं कि द्वार नहीं खुले, द्वार खुले भी हैं— लेकिन घर सदा खाली पाया है। म्हारो मंदिर सूनो राम बिन।
अब जागों! अब उसके ही द्वार पर दस्तक दो! ये हाथ थक गए दस्तक देते—देते, ये पैर भी थक गए भटकते—भटकते, यह भटकाव लंबा है, जन्मों—जन्मों का है,—किन—किन चाँदत्तारों पर भटके हो; किन—किन मार्गों पर खोजा है; किन—किन घाटों का पानी पिआ; प्यास कहाँ बुझी? प्यास बढ़ती चली गयी है। थोड़ा सोचकर देखो। बचपन में आशा तो होती है कि शायद उपलब्धि होगी, जीवन तृप्ति को पाएगा। जवानी में आशा बड़ी प्रगाढ़ हो जाती है, प्रज्वलित हो जाती है। बुढ़ापा आते—आते पता चलना शुरू होता है फिर एक जीवन व्यर्थ हुआ; फिर एक दौड़ व्यर्थ गयी; फिर मंजिल न मिली; फिर मार्ग की धूल ही हाथ लगी।
जो बुद्धिमान है, जल्दी देख लेता है। थोड़े ही अनुभव से पहचान लेता है। दस—पाँच दरवाजों पर दस्तक देकर देख लेता है। मजा ऐसा है कि दरवाजा न खुले तो दुःख, दरवाजा खुले तो दुःख।
जार्ज बर्नाड शॉ कहता था— दुनिया में दो ही तरह के दुःख हैं। तुम जो चाहो वह न मिले, यह एक तरह का दुःख। और तुम जो चाहो वह मिल जाए, यह दूसरी तरह का दुःख। न मिले, स्वभावतः दुःख। आशा जगती रहती है कि मिल जाता तो सब तरह तृप्ति हो जाती। पर मिलकर तुम सोचते हो तृप्ति होती है? जिनके पास धन है, उनकी ऑंखों में ज़रा झाँको। जिनके पास पद है, प्रतिष्ठा है, ज़रा उनके हृदय में टटोलो। पूछो और तुम पाओगे— हारे हुए तो हारे हुए हैं ही, जीते हुए भी हारे हुए हैं। असफल तो असफल हैं ही, सफल भी असफल हैं। और ध्यान रखना, असफल की असफलता में तो थोड़ी आशा भी होती है, सफल की असफलता में आशा भी बुझ जाती है ः

जब कभी मुझको तेरा खयाल आ गया
मेरे चेहरे की सारी थकान धुल गयी
मेरे दिल में खुशी के कँवल खिल गए
मेरे एहसास में चाँदनी घुल गयी

और फिर एक मचलते हुए जोश से
चल पड़ा मैं तेरी जुस्तजू के लिए
अपनी वामांदः ऑंखों की महराब में
कितनी गुलरंग शमाए फ़रोजां किए

जाने कब तक तेरे रंगे—रुखसार को
आर्जूओं के खाकों में भरता रहा
ले के तखयील के बाजुओं में तुझे
गीत गाता रहा, रक्स करता रहा

यूँ ही गाते हुए, रक्स करते हुए
मैं भटकता रहा कितने सेहराओं में
रूह में तो उमंगें महकती रहीं
और काँटे खटकते रहे पाँओं में

मुद्दतों तक तुझे ढ़ूँढ़तेढ़ूँढ़ते
आ ही पहुँचा बिलाखिर मैं तेरे करीं
ऑंख उठाकर जो देखा तेरी शक्ल को
मुझको डसने लगा मेरा ख्वाबेहसीं

क्या यही वे भयानक खदो—खाल थे
जो मेरे अज्म को गुदगुदाते रहे
जिनकी खातिर मेरे नौजवां वलवले
जिंदगी भर मसाइब उठाते रहे
जब तुम्हें मिलेगा धन, तो तुम सोचोगे—क्या यही थे ठीकरे, जिनके लिए मैंने सब गँवाया, सब दावँ पर लगाया। जब तुम पा लोगे अपनी प्रेयसी को और अपने प्रेमी को, तो यह सवाल उठेगा क्या यही वे भयानक खदो—खाल थे? क्या इसी मिट्टी के रूपरंग के लिए मैं दौड़ा था? क्या यही आकृतियाँ, जीवन—भर दावँ इनके लिए ही लगाया था? "क्या यही वे भयानक खदो—खाल थे, जो मेरे अज्म को गुदगुदाते रहे'। जिन्होंने मेरी कल्पना को गुदगुदाया और आशाओं को जगाया और सपने जलाए, क्या यही है वह रूप, यही रंग, यही सौंदर्य? "जिनकी खातिर मेरे नौजवाँ वलवले, जिंदगी—भर मसाइब उठाते रहे'। इन्हीं के लिए मैंने मुसीबतें उठाईं, यात्राएँ कीं, काँटों से भरे रास्तों पर चला; इन्हीं के लिए मैंने जीवन को गँवाया!
सफल आदमी को यह सवाल उठना शुरू होता ही है। सफल आदमी से ज्यादा असफल आदमी कोई और नहीं। सिकंदर जितना असफल मरता है, भिखमंगे नहीं मरते। भिखमंगों के तो अभी आशाओं के, सपनों के जाल जीवित होते हैं। धनी आदमी जितना निर्धन हो जाता है, उतने निर्धन नहीं होते। क्योंकि निर्धन को तो अभी आशा होती है कि मिला, मिला। निर्धन का भविष्य होता है। धनी का कोई भविष्य नहीं होता। धनी का सारा भविष्य अंधकार है। जिनके पास पद नहीं हैं, वे तो अभी दौड़ सकते हैं, उमंग से, लेकिन जिनके पास पद है, वे कहाँ जाएँ? आगे कोई सीढ़ियाँ न रहीं; आगे कोई सोपान न रहे, अब ढलान—ही—ढलान है, अब कोई चढ़ाव न रहा। और चढ़ाव के शिखर पर बैठकर कुछ हाथ आया नहीं।
इस जिंदगी का एकमात्र स्वाद है— असफलता। और जो इस असफलता को ठीक से देख लेता है, पहचान लेता है, उसी व्यक्ति के जीवन में धर्म का प्रारंभ होता है। धर्म का प्रारंभ सोच—विचार से नहीं होता। धर्म का प्रारंभ लोभ—मोह—भय से नहीं होता। और अक्सर इसी तरह के लोग तुम्हें धार्मिक दिखायी पड़ते हैं। किसी की मौत करीब आने लगी, वह राम—राम जपने लगता है। यह असली धर्म नहीं है। यह सिर्फ मौत का भय है। यह भगवान का सहारा पकड़ रहा है, मौत से जूझने को। कोई बीमार है, वह मंदिर जाने लगता है। यह तलाश भगवान की नहीं है, स्वास्थ्य की तलाश भले हो। किसी के पास पद नहीं है, वह प्रार्थनाएँ करता है, पूजा करता है, यज्ञ—हवन करता है—पद मिल जाए। किसी के पास बेटा नहीं है, बेटा मिल जाए। यह धर्म नहीं है। धर्म का जन्म ही इस बात से होता है, सच्चे धर्म का जन्म इस बात से होता है कि यह पूरा जीवन एक असफलता है— निरपवाद असफलता। यहाँ सफल न कभी कोई हुआ है, न कभी कोई होगा। धार्मिक आदमी परमात्मा से सफलता की प्रार्थना तो कर ही नहीं सकता। क्योंकि धर्म की शुरूआत ही इस बात से होती है कि सफलता होती ही नहीं— न कभी हुई है, न कभी होगी; सफलता एक झूठ है। इस परम विफलता से धर्म का जन्म होता है। और अगर इस परम विफलता से धर्म का जन्म हो, तो रूपांतरण तत्क्षण हो जाता है। एक क्षण में ज्योति भभक उठती है।
अगर तुम धर्म के रास्ते पर चल रहे हो और क्रांति नहीं हुई, तो यही समझना कि धर्म से तुम्हारी अभी पहचान ही नहीं हुई। तुम किसी और ही बात को धर्म समझते रहे होगे। झूठे धर्म प्रचलित हैं। झूठे धर्म में बड़ा आकर्षण है, क्योंकि झूठे धर्म सस्ते होते हैं। झूठे धर्म तुमसे कुछ माँगते ही नहीं। झूठे धर्म तुमसे दावँ पर लगाने को कुछ कहते ही नहीं। झूठे धर्म तो उन्हें आश्वासन देते हैं कि तुम्हें यह मिलेगा, वह मिलेगा।
कल एक मित्र ने पूछा है; लिखा है कि मैं मुमुक्षु हूँ; और यहाँ संन्यासियों और मुमुक्षुओं में एक भेद देखकर मन में बड़ा अपमान होता है। ऐसा भेद नहीं होना चाहिए। मुमुक्षु का अर्थ जानते हो? उसका अर्थ होता है—मोक्ष का आकांक्षी। मोक्ष के आकांक्षी को मान—अपमान का सवाल नहीं उठता। मान—अपमान का जिसे सवाल उठ रहा है, वह अभी संसारी है; अभी मुमुक्षा का उसे कुछ पता नहीं; अभी मुमुक्षा की बूँद भी नहीं उसमें पैदा हुई। और फिर पूछा है कि क्यों भेद है मुमुक्षु, साधारण मुमुक्षु और संन्यासी में? भेद है, इसलिए भेद है। मजबूरी है। तुम पूछते नहीं स्त्री—पुरुष में क्यों भेद है? भेद है, इसलिए भेद है। आदमी—वृक्षों में क्यों भेद है? भेद है इसलिए भेद है। सन्यासी का अर्थ है—जिसने कुछ दावँ पर लगाया। संन्यासी का अर्थ है—जिसने हिम्मत की है, साहस किया है। साहस जिसने किया है, साहस करने के कारण ही भेद हो गया। तुम हिम्मत भी नहीं करना चाहते, साहस भी नहीं करना चाहते, सम्मानित भी होना चाहते हो। मुमुक्षु तुम नहीं हो अभी। कैसा मान—अपमान? मुमुक्षु का अर्थ ही यह है मैं कि सब दौड़ व्यर्थ है; अब कैसा मान—अपमान?
फिर अगर मान—सम्मान चाहिए तो कहीं और जाओ। फिर किन्हीं झूठे मंदिरों में तलाशो। यहाँ तो मूल्य उसका है जो जुआरी है, जो दावँ पर लगाने की हिम्मत रखता है; जिसे यह बात दिखायी पड़ गयी है कि इस भागदौड़ में कुछ सार नहीं है; जिसे असार असार की भाँति दिखायी पड़ गया है और जो सार की तलाश में चल पड़ा है। अब चाहे जो भी कीमत चुकानी पड़े।
दुनिया में सस्ते धर्म प्रचलित हो जाते हैं, क्योंकि लोग कीमत नहीं चुकाना चाहते। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई, कोई जैन। न तो कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान, न कोई ईसाई, न कोई जैन, सब नाम हैं। जन्म से कुछ संस्कार पड़ गए हैं। किसी घर में तुम पैदा हुए, यह संयोग की बात है। बचपन से कुछ बातें सुनी हैं, यह संयोग की बात है। वे बातें मन को पकड़ गयी हैं, ये संयोग की बात है। उन बातों के कारण तुम एक मंदिर में जाते हो, मैं दूसरे मंदिर में जाता हूँ, यह संयोग की बात है। न तुम मंदिर में गए, न मैं मंदिर में गया। मंदिर में तो वह जाता है जिसके सामने यह संसार व्यर्थ हुआ—संस्कार के कारण नहीं, इस सत्य की प्रतीति के कारण। मंदिर में तो वह जाता है जिसके जीवन में राम की तलाश शुरू हुई।
राम न हिंदू है, न मुसलमान; न गीता में है, न कुरान में, राम तो खोजने वाले हृदय में है, आतुर हृदय में है, अभीप्सा से भरी आत्मा में है। जिसको यह दिखायी पड़ा कि मेरा मंदिर सूना है, राम के बिना सूना है और भरने का कोई और उपाय नहीं; कोई परिपूरक नहीं है, कोई "सब्स्टीटयूट' नहीं है जो मैं राम की जगह रख लूँ। सब रखकर देख लिया और मंदिर खाली—का—खाली रहा है; भरता ही नहीं। जिसे ऐसी प्रतीति हुई, उसका विषाद समझो, उसकी पीड़ा समझो, उसके ऑंसुओं को देखो। उन ऑंसुओं से, उस पीड़ा से, उस विषाद से वास्तविक धर्म का जन्म होता है। नहीं तो पाखंड पैदा होता है।
पुरोहित का धंधा ही तुम्हें पाखंड देना है। तुम सस्ता धर्म माँगते हो, कोई सस्ता धर्म देने को तैयार हो जाता है।
दुनिया में तीन तरह के बिचौलिए हैं। एक तो पुरोहित बिचौलिया, "मिडिलमैन'। उसका धंधा इतना ही है कि भक्त और भगवान को दूर रखे, और उसका कोई काम नहीं है। क्योंकि भक्त और भगवान मिल जाएँ तो वह बेकाम हो जाता है। फिर उसकी क्या जरूरत? भक्त और भगवान दूर रहें, तो वह मिलाने का काम करता है। वह कहता है—हम मिलवा देंगे; हम पहुँचा देंगे; रास्ता हमें मालूम है, कुंजी मेरे पास है। इतना ही वह नहीं कहता कुंजी मेरे पास है, वह यह भी कहता है कि और दूसरे पुरोहितों के पास जो कुंजियाँ हैं वे झूठी कुंजियाँ हैं। कुंजी यही एक असली है। हिंदू की कुंजी भर ठीक है, कि मुसलमान की कुंजी भर ठीक है, कि कुरान से खुलेगा ताला, कि वेद से खुलेगा ताला। दूसरे कोई ताले नहीं खोल सकते। तुम मेरे पीछे रहो, तुम मेरे साथ रहो मैं तुम्हें पहुँचा दूँगा। लेकिन वह पूरी चेष्टा यह करता है कि तुम कहीं पहुँच न जाओ; क्योंकि जिस दिन तुम पहुँच गए उस दिन उसका काम व्यर्थ हुआ। उस दिन उसको तुम कहोगे— नमस्कार! अब तुम्हारी कोई जरूरत न रही।
कुछ धंधे बड़े अजीब हैं। आत्मघाती धंधे हैं। अगर वे सफल हो जाएँ तो मर जाते हैं। दुविधापूर्ण धंधे। उन धंधों के भीतर एक तरह का विसंवाद है। जैसे डॉक्टर का धंधा है, वह दुविधापूर्ण धंधा है। वह जीता तुम्हारी बीमारी पर है और काम उसका है तुम्हें स्वस्थ रखना। बड़ी झंझट की बात है! उसकी तुम दुविधा समझो! तुम बीमार रहो, यह उसका सौभाग्य है, और तुम स्वस्थ हो जाओ, यह उसका काम है। तो वह तुम्हें थोड़ा—थोड़ा स्वस्थ भी करता है, थोड़ा—थोड़ा बीमार भी करता है। एक हाथ से स्वस्थ करता है, दूसरे हाथ से बीमार करता है। एक बीमारी से छुड़ाता है, लेकिन उसी में दूसरी बीमारी पैदा कर लेता है।
तुमने देखा, एक बार तुम डॉक्टर के चक्कर में पड़ गए तो फिर छूटना मुश्किल हो जाता है। छूटने का एक ही उपाय है कि दूसरे डॉक्टर के चक्कर में पड़ जाओ। मगर वह कोई उपाय न हुआ। एलोपैथी से छूटना हो तो आयुर्वेद के चक्कर में पड़ो, आयुर्वेद से छूटना हो तो होमियोपैथी के चक्कर में पड़ों—मगर कहीं—न—कहीं पड़ों। धंधा विरोधाभासी है। खतरनाक है यह बात। यह होना नहीं चाहिए। इस पर दुनिया के चिकित्सक विचार करते हैं कि भविष्य में कुछ उपाय करना चाहिए। क्योंकि डॉक्टर को अगर बीमार पर ही जिंदा रहना है और बीमार को ठीक भी करना है, तो तुमने उसे एक दुविधा में डाल दिया। इसलिए तुम देखना, जितना ज्यादा पैसा होगा, मरीज उतने ज्यादा दिन तक बीमार रहता है। गरीब आदमी जल्दी ठीक हो जाते हैं। उनकी फिकर ही कौन करता है! उनसे जल्दी डॉक्टर छुटकारा चाहता है कि भई, तुम अलग करो, और लोगों को भी चाहिए जगह! तुम्हीं "वेटिंग रूम' में बैठे रहते हो तो मेरे असली मरीज कहाँ जाएँ, तुम जल्दी ठीक होओ। गरीब जल्दी ठीक हो जाते हैं; अमीर जल्दी ठीक नहीं होते।
मैंने सुना है, एक बूढ़े डॉक्टर का बेटा मेडिकल कॉलेज से वापिस लौटा। बाप थका था, बहुत दिन से काम में लगा था, बेटा लौट आया था तो उसने कहा कि दो महीने तू सँभाल, मैं ज़रा पहाड़ हो आऊँ । बाप पहाड़ चला गया। जब लौट कर आया तो बेटा स्टेशन पर पहुँचा और उसने कहा कि आप खुश होंगे यह जानकर कि जिस महिला को आप चालीस साल में ठीक नहीं कर पाए, उसे मैंने दो महीने में ठीक कर दिया। बाप ने सिर ठोंक लिया। उसने कहा—अरे मूढ़, तुझे मैंने पाला—पोसा कैसे? तुझे मेडिकल कॉलेज में पढ़ाया किसने? उसी महिला ने। वही मेरे बुढ़ापे का सहारा थी। वही तेरे छोटे भाई—बहनों को पढ़ाने का उपाय थी। तूने धंधा ही खराब कर दिया।
पुरोहित का धंधा भी बड़ा खतरनाक धंधा है। उसका मतलब यह है कि वह तुमसे कहे—मैं परमात्मा से मिलाऊँगा, पूजा करो, पाठ करो, यज्ञ—हवन करो; और पूरी चेष्टा करे कि तुम्हारे जीवन में कहीं परमात्मा की झलक न आ जाए। नहीं तो पुजारी व्यर्थ हो गया।
दूसरा बिचौलिया है—दलाल। वह उत्पादक को उपभोक्ता से नहीं मिलने देता। वह दोनों के बीच में खड़ा रहता है।
तीसरा बिचौलिया है—राजनेता। वह एक नागरिक को दूसरे नागरिक से नहीं मिलने देता; वह बीच में खड़ा रहता है। मगर इन सब बिचौलियों में सबसे ज्यादा खतरनाक बिचौलिया पुरोहित है। क्योंकि मनुष्य और परमात्मा के बीच में आड़ बन जाता है। तुम्हें पुरोहितों ने रोका है, तुम्हें पंडितों ने रोका है; तुम अपने पापों के कारण परमात्मा से नहीं रुके हो, यह मैं तुमसे बार—बार कहना चाहता हूँ, हजार बार कहना चाहता हूँ; तुम्हारे पापों के कारण तुम परमात्मा से नहीं रुके हो क्योंकि वह करुणावान है। तुमने पाप ही क्या किए हैं! छोटे—मोटे पाप! उसकी महाकरुणा की बाढ़ में टिकेंगे? नहीं, तुम पापों के कारण नहीं रुके हो; पाप ही क्या हैं तुम्हारे, ज़रा हिसाब तो लगाओ। ऐसा क्या पाप कर लिया है! लेकिन पंड़ित पुरोहित तुमसे कहता है—तुम अपने पापों के कारण रुके हो। जब तक पाप न कटेंगे तब तक तुम पहुँच न सकोगे। पाप कटते नहीं। क्योंकि उसने ऐसी चीजों को पाप बता दिया है, जो कि कट ही नहीं सकते। वह कहता है—उपवास करो तो पुण्य, भोजन करो तो पाप। अब बड़ी मुश्किल हो गयी, भोजन स्वाभाविक है, उपवास अस्वाभाविक है। एक दिन कर लो, दो दिन कर लो, कितनी देर करोगे? भोजन करना ही पड़ेगा। भोजन किया कि पाप है! उसने स्वभाव को पाप करार दे दिया है। इस लिए तुम पाप से छूट नहीं सकते और वह कहता है—पाप से जब तक छूट नहीं सकते, परमात्मा से मिल नहीं सकते। उसने तुम्हें खूब भरमाया है।
असली बात कुछ और है। जब तक तुम पुरोहित से नहीं छूटते, तुम परमात्मा से नहीं मिल सकते। पाप ने नहीं रोका है, पुरोहित ने रोका है। पाप क्या रोकेगा? सारे दुनिया के ज्ञानियों ने कहा है कि परमात्मा करुणावान है, रहमान है, रहीम है। लेकिन किसी ने भी नहीं कहा है कि परमात्मा इतना शक्तिशाली है कि पुरोहित को तुम्हारे बीच से अलग कर दे। परमात्मा भी नहीं कर सकता पुरोहित को अलग। वहाँ— उसकी सर्वशक्तिमत्ता काम नहीं आती। पुरोहित डटकर बैठा है। उसने सब तरफ अड्डे बना लिए हैं। वह तुम्हें पहुँचने नहीं देना चाहता।
इसलिए जब भी कोई पहुँचानेवाला पैदा होता है, पुरोहित उसके विपरीत हो जाता है। बुद्ध हों, कि कृष्ण हों, कि क्राइस्ट। पुरोहित बुद्ध के खिलाफ, क्राइस्ट के खिलाफ।
 उनकी खिलाफत क्या है?
ये आदमी धंधा खराब करने आ गए। ये मिलाने ही लगे। याद करो उस बेटे को जिसने बाप की सारी—की—सारी व्यवस्था को जिंदगी—भर की खराब कर दिया, चालीस साल के बीमार को दो महीने में ठीक कर दिया। यह बुद्ध और कृष्ण और क्राइस्ट के पीछे जो विरोध है, उसके पीछे क्या कारण है? यही कारण है कि ये पुरोहित का सारा व्यवसाय नष्ट किए देते हैं। ये कहते हैं हम मिलाए ही देते हैं। ये कहते हैं—यह रहा द्वार, मिल जाओ। पुरोहित लंबे रास्ते बनाता है, चक्करदार रास्ते बनाता है, सीढ?ी—दर—सीढ़ी लंबी यात्रा करवाता है। इतनी लंबी कि तुम जन्मों—जन्मों में पूरी न कर पाओ। ऐसे सिद्धांत निर्मित करता है कि तुम उनके चक्कर में खो जाओ। बुद्ध या कृष्ण या क्राइस्ट या दादू या कबीर या रज्जब, ये चक्करदार रास्ते तोड़ते हैं। वे कहते हैं—परमात्मा सामने है, कहाँ जा रहे हो; ऑंख खोलों, यहाँ और अभी, इसी वक्त मिलो। परमात्मा उधार नहीं है, नगद है।
पंडित और पुरोहित उस सुबह की बात करते हैं जो कभी आती नहीं—कम—से—कम उनके द्वारा तो नहीं आती। और जब भी कभी आती है, तो उनके बावजूद आती है। बुद्ध को अगर ज्ञान हुआ, पुरोहितों के कारण नहीं, पुरोहितों से छूटकर ज्ञान हुआ। क्राइस्ट को अगर ज्ञान हुआ, तो यहूदी धर्मगुरुओं के कारण नहीं, उनसे छूटकर हुआ। अगर दादू को ज्ञान हुआ, या कबीर को, तो वह जो परंपरागत रूढ़ि है, उससे मुक्त होकर ज्ञान हुआ।
ज्ञान परंपरामुक्त हो, तभी होता है। नहीं तो बस झूठी सुबह है और झूठी सुबह के वायदे हैं।

यह दाग—दाग उजाला, यह शब गजीरः सहर
वह इंतज़ार था जिसका, यह वह सहर तो नहीं
यह वह सहर तो नहीं कि जिसकी आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं—न—कहीं

फलक के दस्त में तारों की आख़िरी मंज़िल
कहीं तो होगा शबे—सुस्त मौज़ का साहिल
कहीं तो जाके रुकेगा सफ़ीनएग़मे—दिल
जवाँ लहू की पुरइस्रार शाहे राहों से

चले जो यार तो दामन ये कितने हाथ पड़े
दयारे—हुस्न की बेसब्र ख्व?ाबगाहों से
पुकारती रहीं बाँहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़े—सहर की लगन

बहुत करीं था हसीनाने—नूर का दामन
सुबक—सुबक थी तमन्ना, दबी—दबी थी थकन
सुना है हो भी चुका है फिराक़ेजुल्मतो—नूर
सुना है हो भी चुका है विसालेमंज़िलो—गाम

बदल चुका है बहुत अहले—दर्द का दस्तूर
निशाते—वस्ल, हलाल—ओ—अजाबे हिज्र हराम

जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पै चारएहिजराँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आयी निगारेशबा किधर को गयी
अभी चराग़े—सरे—रह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गरानिएशबमें कमी नहीं आयी
निज़ाते—दीदा—ओ—दिल की घड़ी नहीं आयी
चले चलो कि वह मंज़िल अभी नहीं आयी

बस रोज यही कि चले चलो कि वह मंजिल अभी नहीं आयी। जन्मों—जन्मों से ऐसा चल रहा है। मंजिल के वायदे, और मंजिल कभी आती नहीं। परमात्मा की बातें और मिलन कभी होता नहीं। मोक्ष के संबंध में लफ्फाजियाँ, मोक्ष कभी उतरता नहीं। आनंद के गीत, लेकिन धुन न तो प्राणों में जगती है और न बाँसुरी बजती है। कहीं कुछ होता नहीं।

जिगर की आग नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पै चारएहिजरां का कुछ असर ही नहीं
सब वैसा का ही वैसा होता है। वही आग जलती रहती है, वही अंधेरा बना रहता है। वही पीड़ा, वही घाव।

जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पै चारएहिजराँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आयी निगारेशबा किधर को गयी......  
लोग कहते हैं, सुबह भी हो गयी, मगर कुछ पता ही नहीं चलता।

कहाँ से आयी निगारेशबा किधर को गयी
अभी चराग़े—सरे—रह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गरानिए—शब में कमी नहीं आयी......  
रात का अंधेरा वैसा—का—वैसा है।

अभी गरानिए—शब में कमी नहीं आयी
निजाते—दीदा—ओ—दिल की घड़ी नहीं आयी
और न उस प्यारे के दर्शन होते हैं। कितने जन्मों से सुन रहे हो परमात्मा की बात। दर्शन तो हुए नहीं; बात—ही—बात रह गयी है। बात में से बात निकलती रही है, हाथ में कोरे शब्द रह गए हैं।

निजाते—दीदा—ओ—दिल की घड़ी नहीं आयी
ऑंखें कब होंगी चार? कब उसके हाथ में तुम्हारा हाथ होगा? कब होगा आलिंगन?

निजाते—दीदा—ओ—दिल की घड़ी नहीं आयी
चले चलो कि वह मंज़िल अभी नहीं आयी
बस चलते रहो, चलते ही रहो, मंजिल आती मालूम नहीं होती। कहीं कुछ बड़ी बुनियादी भ्रांति है। ऐसा लगता है कि जिसे हम खोजने चले हैं वह मंजिल दूर नहीं है, पास है, इसलिए चलने से नहीं आती—रुकने से आती है। दौड़ने से नहीं आती, ठहरने से आती है। विधि—विधानों से नहीं आती, सब विधि—विधानों से मुक्त हो जाने से आती है। औपचारिक धर्म से नहीं आती, अनौपचारिक प्रेम से आती है।
आज के सूत्र उसी तरफ इशारे हैं। समझना—

संतो, ऐसा यहु आचार।
रज्जब कह रहे हैं—संतों को संबोधन कर रहे हैं, खयाल रखना! वह जिन मित्र ने लिखा है कि मैं मुमुक्षु हूँ और यहाँ भेदभाव किया जा रहा है, बड़ा मुश्किल है, यह रज्जब भी भेदभाव करते हैं! यह संतों को संबोधन कर रहे हैं; असंतों को छोड़ रहे हैं। क्यों? क्योंकि संत ही समझ सकेंगे। जो समझ सकें, उन्हीं को पुकारो; जो समझ सकें, उन्हीं पर बरसों; जो समझ सकें, उन्हीं के द्वार खटखटाओ। जो समझने को राजी हों, उन से ही बात करने का कुछ मजा है।
संत का क्या अर्थ होता है? संत का अर्थ होता है, जिसने संसार की तरफ से पीठ करली और परमात्मा की तरफ मुख कर लिया—जो राम के सम्मुख हो गया। संम्मुखता का नाम संतत्व है। तुम राम से विमुख हो, संसार के सम्मुख हो, तुममें और संत में इतना ही फर्क होता है। संत संसार के प्रति पीठ कर लेता है, परमात्मा की तरफ ऑंखें उठा लेता है। उसे एक बात समझ में आ गयी—"म्हारो मंदिर सूनो राम बिन'। अब वह राम की तलाश में लग गया है। अब वह कहता है, राम न मिलें तो अब कुछ और पाना नहीं। जो पाया, सब दावँ पर लगा दूँगा। यह जीवन व्यर्थ है। राम के बिना जीना एक क्षण व्यर्थ है। एक श्वास भी अकारण अब न लूँगा। अब राम में होगी श्वास तो ही लेने—योग्य है। अब राम में धड़केगा दिल तो ही धड़कने—योग्य है।

संतो, ऐसा यहु आचार।
इसलिए संतों को संबोधन किया है। जिनको रज्जब ने संत कहा, उन्हीं को मैं संन्यासी कहता हूँ। भेद है, इसलिए भेद है। "ऐसा यहु आचार'। उनसे कह रहे हैं कि सुनो, जिस आचार की तुम बातें करते रहे हो, सुनते रहे हो, जिस आचार का पालन करते रहे हो, सदियों—सदियों से जिस आचरण के गीत गाये गए हैं, उस आचरण में कुछ भी नहीं है, सब थोथा है, सब धोखा है। तुम ज़रा देखो, धर्म के नाम पर जो आचरण चलता है, उसका धोखा देखो, उसकी बेईमानी देखो! लेकिन उसकी प्रतिष्ठा है, क्योंकि पुराना है। सदियों के पीछे दूर तक उसका नाम रहा है। करोड़ों बार उसे दोहराया गया है। इसलिए तुम देख भी नहीं पाते उसके झूठ को। अब जो आदमी भूखा बैठा है, तुम सोचते हो वह भोजन की नहीं सोच रहा होगा? तुम नहीं सोचते कि भोजन की सोच रहा होगा! तो तुम उपवास करके देखो। तो तुम्हें समझ में आ जाएगा कि उपवास में बैठा हुआ आदमी परमात्मा की तो सोचता ही नहीं। उपवास में बैठे आदमी को पहली दफे उपनिषद् का यह वचन समझ में आता है—"अन्नं ब्रह्म'
असल में यह वचन पैदा ही ऐसी घड़ी में हुआ था।
श्वेतकेतु लौटा था गुरु के आश्रम से। ब्रह्म की बातें करता हुआ आया। ब्रह्म—चर्चा करता हुआ आया। उसके बाप उद्दालक ने देखा कि ये बकवासी हो गया। उद्दालक उपलब्ध व्यक्ति रहा होगा। उद्दालक ने कहा, देख, तू बहुत ब्रह्म की बातें कर रहा है, तू एक काम कर, तू कुछ दिन उपवास कर। फिर तुझसे हम बात करेंगे।
दोत्तीन दिन उपवास किया। फिर पिता ने उससे पूछा कि अब कुछ ब्रह्म—चर्चा करनी है! अब वह रस नहीं था ब्रह्म—चर्चा में उसका। उसने कहा, मन बड़ा उदास है, और शरीर निढाल—निढाल, कहाँ की ब्रह्म—चर्चा! भोजन की याद आती है। कुछ देर और, पिता ने कहा, तू और उपवास कर दो—चार दिन। सप्ताह बीतते—बीतते ब्रह्म बिल्कुल विदा हो गया। "भूखे भजन न होहिं गोपाला'। अब कहाँ गोपाल! तो बाप ने कहा—अब तू बोल, अब तेरे मन में किसका विचार उठता है? ब्रह्म का विचार उठता है? उसने कहा—ब्रह्म इत्यादि का कोई विचार नहीं उठता, बस अन्न—ही—अन्न का विचार उठता है। तब बाप ने कहा था—"अन्नं ब्रह्म'। अन्न ब्रह्म है।
जो आदमी उपवास कर रहा है, तुम सोचते हो वह परमात्मा की याद कर रहा है। हाँ, कभी—कभी ऐसा होता है कि परमात्मा की याद करने वाला उपवास में उतर जाता है, वह बड़ी और बात है। उपवास किया नहीं जाता। परमात्मा की याद में कोई ऐसा डूब जाता है कि कभी एक घड़ी आती है कि भोजन की याद ही नहीं आती है। भोजन का समय बीत जाता है। मस्ती! राम के साथ रसमग्न है। राम के साथ कोई नाच रहा है, कि कृष्ण के आसपास कोई नाच रहा है,भूल ही गया है, तुम भी कभी—कभी भूल गए हो अपनी प्रेयसी के पास बैठे कभी—कभी तुम्हें भी भोजन की याद नहीं रही है। अपना मित्र, प्यारा मित्र घर आया है, उस रात तुम्हें देर हो गयी है, भोजन की याद ही नहीं आयी है। सो गए तब याद आयी कि अरे, आज भोजन चूक गया है! यह उपवास है। प्रेम के कारण फलित हुआ; चेष्टा से नहीं। जिस दिन राम के प्रेम में भूल जाता है भोजन, उस दिन उपवास। मगर वह बात और है।
लोग उपवास साधते हैं। लोग सोचते हैं, उपवास साधने से राम की याद आएगी। राम की याद आने से कभी—कभी उपवास होता है, यह सच है, लेकिन उपवास करने से राम की याद नहीं आती, फिर तो भोजन—ही—भोजन की याद आती है। उससे तो भरे पेट ही आदमी राम की याद आसानी से कर लेता है। लेकिन अगर कोई उपवास कर रहा है, तो तुम समझते हो धार्मिक आचरण हो रहा है। तुम्हें चिंता ही नहीं है इस बात की कि पुनर्विचार करो। कोई आदमी रोज जाकर मंदिर में घंटा बजा आता है, राम—राम कह आता है, तुम मान लेते हो कि धार्मिक है। तुम कभी यह सोचते ही नहीं की राम कि इस तरह बँधी—बँधायी याद सच हो सकती है? याद पर कोई बंधन काम करते हैं? याद का कोई अनुशासन होता है?
कब याद आ जाएगी, कौन कह सकता है! आधी रात आ जाएगी, कि सुबह आएगी, कि भर दोपहरी में आएगी। यह रोज सुबह सात बजे जाकर और मंदिर में घंटा बजाकर और राम—राम की जो याद कर आया है, इसने एक औपचारिकता पूरी की है। ऐसे कहीं प्रेम घटता है! ऐसे कहीं राम—धुन होती है! यह तुम्हारे हाथ में है। यह तो यंत्रवत् तुमने व्यवहार कर लिया। हाँ, रोज—रोज करते रहोगे और अगर एक दिन न करोगे, तो दिन में तुम्हें अड़चन भी मालूम होगी। जैसे सिगरेट पीनेवाले को होती है, तलफ लगती है। तलफ का मतलब समझते हो? इतना ही कि एक मूढ़ता जो रोज—रोज करता था, आज नहीं की, तो खाली—खाली लग रहा है। ऐसे ही रोज जो मंदिर जाता है, उसको भी तलफ लगती है। उसकी तलफ में और सिगरेट पीनेवाले की तलफ में कोई भी फर्क नहीं है। रत्ती—भर फर्क नहीं है। क्योंकि न तो सिगरेट पीनेवाले को कुछ मिल रहा है, न उस पूजा करनेवाले को कुछ मिल रहा है।
यह बड़े मजे की बात है, आदतों के साथ यह खतरा है कि जब कोई चीज आदत बन जाती है, उससे कुछ मिलता तो नहीं, लेकिन अगर न करो उसे पूरा तो दिल में कुछ खटका—सा बना रहता है; कोई चीज खटकती रहती है, कोई चीज कमी रह गयी, कुछ करना था वह नहीं कर पाए। एक आदत यंत्र की तरह पुकार करती है कि आओ और मुझे पूरा करो। तुम रोज किसी आदमी को देख लेते हो मंदिर जाते, तुम सोचते हो, बड़ा धार्मिक है। धर्म  ऐसा आसान नहीं है।
रामकृष्ण कभी पूजा करते थे, कभी नहीं करते थे। और कभी दो—दो, चार—चार दिन तक मंदिर का दरवाजा बंद ही रहता। और कभी चौबीस घंटे नाचते रहते। मंदिर के अधिकारियों ने समिति बुलायी। उन्होंने कहा कि यह पुजारी तो ढंग का नहीं है। यह कैसी पूजा? रामकृष्ण को बुलाया, पूछा कि यह कैसी पूजा? रामकृष्ण ने कहा कि जब होती है तब होती है, जब नहीं होती तब नहीं होती। झूठी नहीं करूँगा। जब मेंरा हृदय नहीं पुकार रहा है, तब मैं कैसे पुकारूँ? मेरे होंठ कुछ कहें और मेरा हृदय कुछ कहे, यह मुझसे नहीं होगा। अपनी नौकरी सँभालो!
नौकरी भी क्या थी! चौदह रुपये महीने मिलते थे। खैर, उन दिनों चौदह रुपये बहुत थे। ट्रस्टी ज़रा हैरान हुए, क्योंकि कोई इतनी आसानी से नौकरी नहीं छोड़ देता। लेकिन रामकृष्ण ने कहा कि पूजा जब होगी तब होगी, हाँ कभी—कभी जब पूजा होती है तो आधी रात में भी फिर मैं यह थोड़े ही सोचता हूँ कि यह कोई वक्त है! आधी रात को धुन बँध जाती है, आधी रात तार जुड़ जाते हैं, तो आधी रात दरवाजा खोल लेता हूँ। अब इससे पास—पड़ोस के लोग भी परेशान थे कि आधी रात पूजा होने लगी! कभी दिन—भर पूजा नहीं होती। यह क्या पूजा का ढंग है? असल में पूजा का ढंग होता ही नहीं। जब पूजा ढंग से होती है, तो झूठी होती है। पूजा की तो एक सरलता होती है, एक सहजता होती है। एक हृदय की उमंग है। एक हवा का झोंका है। अज्ञात से आता है, नचा जाता है, तब एक सचाई है। उस सचाई में परमात्मा से मिलन है। लेकिन तुम्हारे सब आचार झूठे हैं, नियोजित हैं, व्यवस्थित हैं। तुमने सब भाँति उनका अभ्यास कर लिया है। अभ्यास से बचना। अभ्यास से आदमी झूठा हो जाता है अभ्यास से आदमी पाखंडी हो जाता है। अभ्यास से मत जीना, सहजता से जीना, सरलता से जीना।

संतो, ऐसा यहु आचार।
पाप अनेक करैं पूजा में, हिरदै नहीं बिचार।।
और अद्भुत आचार है यह, धर्म के नाम पर चलता है! तुम्हें पता है धर्म के नाम पर क्या—क्या नहीं चला है? ऐसा कोई पाप नहीं है जो धर्म के नाम पर न किया गया हो। इसलिए थोड़ा सोच लेना, धर्म के नाम पर जो तुम कर रहे हो, वह धर्म है या नहीं? ऐसा कोई पाप नहीं जो धर्म के नाम पर न किया गया हो। पशुओं की बलि दी गयी है, मनुष्यों की बलि दी गयी है—अब भी दी जाती है कभी—कभी। माताओं ने अपने बेटे काट डाले हैं, और इसको धर्म समझा है। धर्म के नाम पर स्त्रियाँ पतियों के साथ छलाँग लगाकर आग में जल गयीं। यह भाव से हुआ हो, तो मैं पूरी तरह राजी हूँ। अगर कोई पत्नी भाव से, उमंग से, आनंद से, यह जानकर कि पति के बिना कोई अर्थ ही नहीं जीने का, रसविमुग्ध, नाचती हुई, दुलहन की तरह नाचती हुई चिता पर सवार हो गयी, यह और बात है! इसको तुम आचरण में मत लेना। लेकिन ऐसा तो कभी—कभी होता है। सौ में निन्यानबे सतियाँ तो करवायी गयीं —हुई नहीं थीं। जबर्दस्ती उनको ले जाया गया। पास—पड़ोस ने धक्के दिए...... ।
तुम्हें पता है जब कोई स्त्री सती होती थी तो कितना इंतजाम करना पड़ता था? मशालें लेकर पुरोहित चारों तरफ खड़े हो जाते थे, बड़े जोर से बैंडबाजे बजाते थे, क्योंकि जिंदा स्त्री कोई जलेगी—ज़रा हाथ तो आग में डालकर देखो, तब तुमको पता चल जाएगा। जिंदा कोई अपने हाथ से आग में जाएगा, या फेंका जाएगा, उसकी तकलीफ तुम समझो! और उस पति के लिए जिसके साथ जिंदगी में कुछ मिला भी नहीं! और अब मौत में यह मिल रहा है! उस पति के साथ जिसके साथ जिंदगी एक गुलामी थी और अब मौत में अब यह, यह आखिरी नरक झेलना पड़ रहा है! तो चारों तरफ मशाल लिए खड़े होते, कि स्त्री अगर भागने लगे, तो मशालों से धक्के देकर उसको वापस आग में डाल देते थे। भागेगा ही कोई, ज़रा तुम खुद ही सोचो। और इतना घी डालते थे चिता में कि धुऑं—ही—धुऑं हो जाता था—नहीं तो लोगों को दिखायी पड़ेगा कि स्त्री भाग रहीं है। वह दिखायी भी नहीं पड़नी चाहिए, और चीख—पुकार करेगी, भयंकर चीख—पुकार करेगी—जीवित स्त्री को आग में डाल रहे हो—तो बैंडबाजे बजाते थे, नगाड़े पीटते थे, ताकि उसकी आवाज न सुनायी पड़े। यह जबर्दस्ती सती बनाया जा रहा है! फिर ऐसा आयोजन था कि अगर कोई स्त्री सती न हो, तो उसका भयंकर अपमान होता था। वह प्रतिष्ठा से फिर नहीं जी सकती थी। फिर उसकी स्थिति वेश्या से गयी—बीती थी। फिर उसकी छाया भी पाप की, छाया में भी अपशकुन था। फिर उसका जीना मौत से ज्यादा बदतर कर देते थे। इसलिए मजबूरी में कोई यही चुन लेता था कि मर ही जाना बेहतर है।
यह सब धर्म के नाम पर चलता रहा है!
पशु काटे गए हैं। और कोई पूछे कि पशुओं का क्या कसूर है? अब भी काटे जाते हैं। कलकत्ता के काली के मंदिर में अब भी चलती है बलि।

संतो, ऐसा यहु आचार।
तुम्हारे हवन, तुम्हारे यज्ञ तुम्हारी अमानवीयता की घोषणाएँ हैं। अभी भी यज्ञ होते हैं जिनमें करोड़ों रुपये का घी और अग्नि में फेंका जाता है। गेहूँ और चावल और न—मालूम क्या—क्या। और देश भूखा मरता रहे! विश्वशांति के लिए यज्ञ किए जाते हैं। ये यज्ञ होते रहते हैं, विश्व की शांति होती ही नहीं। और कोई यह देखता भी नहीं कि कितने यज्ञ हो चुके, विश्वशांति कुछ हो नहीं रही, अब तो बंद करो! लेकिन आदमी अंधे की तरह चलता है। आदमी अपनी ऑंख से नहीं चलता। आदमी की तलाश बड़ी मुश्किल है।
यूनान का एक विचारक, एक अपूर्व दार्शनिक डायोजनीज दिन में भी अपने हाथ में लालटेन लिए रहता था— दिन में भी। और जब भी कोई आदमी आता तो वह गौर से उसका चेहरा लालटेन उठाकर देखता। लोग कहते—यह तुम क्या कर रहे हो, उजाला है, अभी तुम क्या देख रहे हो? वह कहता—मैं आदमी की तलाश कर रहा हूँ। अभी तक मुझे आदमी नहीं मिला। जब वह मर रहा था, तब भी वह लालटेन अपने पास रखे बैठा था। भीड़ इकट्ठी हो गयी थी और लोग पूछने लगे कि डायोजनीज अब मरते वक्त तो बता जाओ, जिंदगी—भर दिन के उजाले में भी लालटेन लेकर तुम आदमी खोजते रहे, आदमी मिला कि नहीं? उसने कहा—भई, आदमी तो नहीं मिला, मगर यही क्या कम है कि अपनी लालटेन चोरी नहीं गयी! अपनी लालटेन अपने पास है। आदमी तो नहीं मिला। अपनी लालटेन बच गयी, यही बहुत है। धर्म के नाम पर जब कोई चीज चलती है, तो तुम सोच—विचार खो देते हो। तब तुम बिल्कुल अंधे की तरह, जड़, उसका अनुगमन करते हो।

पाप अनेक करै पूजा में, हिरदै नहीं बिचार।।
चींटी दस चौके में मारें, घुण दस हांडी माहीं।
प्रसाद तैयार हो रहा है परमात्मा को चढ़ाने के लिए, जो लकड़ियाँ जलायी हैं उनमें गुन लगा है, उनमें कीड़े हैं, वे जल रहे हैं।

चाकी—चूल्हैं जीव मारै जो, सो समझै कछु नाहीं।।
पाती फूल सदा ही तोड़ैं, पूजन कूँ पाषाण।
कैसे अद्भुत लोग हैं—रज्जब कहते हैं! जिंदा फूल लगा था, गुलाब की झाड़ी पर आनंदित था, मग्न था; परमात्मा को चढ़ा ही था; उसको तोड़ लिया, चले चढ़ाने! किसी पत्थर पर सिंदूर पोत लिया, उसको कहते हैं—हनुमान जी! चले हनुमान जी पर चढ़ाने! यह फूल चढ़ा ही था परमात्मा को, और बेहतर क्या होगा, हवाओं से खेलता था, सूरज की किरणों में नाचता था, सुगंध को बखेरता था, सुंदर था; इसकी सुवास इसकी प्रार्थना थी। यह गुलाब की झाड़ी ने अपने आनंद का अभिव्यंजन किया था। यह गीत गाया था। तुम इसको तोड़ लिए, और अब चले! आदमी के बनाए हुए भगवान! किसी पत्थर पर सिंदूर पोत लिया—वह सिंदूर भी तुम खयाल रखना, वह खून का प्रतीक है। कभी आदमी ने खून पोता था। फिर खून पोतना ज़रा मुश्किल होने लगा; तो उसका परिपूरक खोजा। कभी आदमी ने आदमी के सिर फोड़े थे। फिर वह ज़रा मुश्किल होने लगा तो वह नारियल फोड़ते हैं। नारियल प्रतीक है। नारियल लगता भी जरा आदमी जैसा—दाढ़ी, मूँछ, ऑंखें, खोपड़ी! अब तुम शायद भूल ही गए होओ कि यह तुम आदमी का सिर तोड़ रहे हो। तुम सोचते हो तुम सभ्य हो गए, क्योंकि तुमने परिपूरक खोज लिए? लेकिन वृत्ति तो वही है।
यह आकस्मिक नहीं है कि धार्मिक दिनों में झगड़े हो जाते हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि हिन्दू—मुसलमान दंगे इस देश में हमेशा धार्मिक दिनों पर होते रहे—या तो मोहर्रम हो कि ईद हो, कि दशहरा हो, कि होली हो। कोई धार्मिक उत्सव चाहिए। धार्मिक उत्सव तुम्हारे भीतर बड़ी अधार्मिक वासनाओं को जन्म देता मालूम होता है। भले आदमी धार्मिक उत्सव में एकदम अमानवीय हो जाते हैं, अमानुषिक हो जाते हैं। कुछ ऐसा लगता है कि धर्म के उत्सव में तुम अपनी सभ्यता खो देते हो, अपने संस्कार खो देते हो, अपनी श्रेष्ठता खो देते हो; तुम गिर जाते हो अपने अतीत में, तुम अविकसित हो जाते हो, तुम आधुनिक नहीं रह जाते हो। भीड़भाड़ में तुम अपनी व्यक्तिगत चैतन्य की जो थोड़ी—सी क्षमता जन्मी है, उसको भी गँवा देते हो।

पाती फूल सदा ही तोड़ैं, पूजन कूँ पाषाण।
मुझे फूलों से लगाव रहा है। जहाँ भी मैं रहा हूँ, मैंने फूल लगा रखे थे। एक गाँव में कई वर्षों तक रहा। बड़ी मुश्किल थी वहाँ। पास ही एक मंदिर था, वह एक झंझट का कारण था कि मंदिर में जिसको भी फूल चढ़ाने हों, वह मेरी बगिया से फूल तोड़ ले जाएँ। और उनको कुछ कहो तो वे अकड़कर कहें कि यह धार्मिक कार्य के लिए ले जा रहे हैं। तो मुझे वहाँ एक तख्ती लगानी पड़ी कि अगर अधार्मिक कार्य के लिए तोड़ना हो, तो तोड़ सकते हैं, मगर धार्मिक कार्य के लिए फूल मत तोड़ना। धार्मिक कार्य और फूल का तोड़ने में मेल नहीं बैठता। अधार्मिक ठीक है। अब अधार्मिक कार्य करने जा रहे हो, फूल भी तोड़ लिया तो क्या हर्ज है! मगर धार्मिक कार्य? अकड़कर लोग कहें कि धार्मिक कार्य के लिए फूल तोड़ रहे हैं, पूजा के लिए फूल तोड़ रहे हैं। जैसे कि पूजा के लिए फूल तोड़ा जाना न्यायसंगत है।

पाती फूल सदा ही तोड़ैं, पूजन कूँ पाषाण।
पत्थर को पूजते हो, फूल को तोड़ते हो? फूल, जो जीवंत है, पत्थर, जो मृत है! पर मुर्दे की पूजा चलती है धर्म के नाम पर। और जीवंत का बलिदान होता है। यह अब तक की तुम्हारी धार्मिकता है।
और यह सिर्फ प्रतीक की ही बात नहीं है, हमेशा ऐसा होता है। जीसस को चढ़ा दिया—फूल था जीसस—मोजिज पर चढ़ा दिया जीसस को। मोजिज अब फूल नहीं थे, पत्थर हो चुके थे। तीन हजार साल बीत गए थे। अब मोजिज जिंदा नहीं थे। मुर्दा मोजिज पर जिंदा जीसस को चढ़ा दिया।

पाती फूल सदा ही तोड़ैं, पूजन कूँ पाषाण।
बुद्ध को तुमने पत्थर मारे, अपमान किया—वेद के ऋषियों के पक्ष में। अब तुम बुद्ध की पूजा करते हो। लेकिन अब अगर कोई बुद्ध होगा, तुम उसको भी पत्थर मारोगे। तुम जिंदा के विपरीत हो, तुम मुर्दा के पक्षपाती हो। स्वभावतः जो मुर्दा के पक्षपाती हैं, अगर वे मुर्दे ही रह जाते हों तो कुछ आश्चर्य नहीं है। इसलिए तुम्हारे जीवन में जीवन की ललक और गरिमा नहीं है। जीवन की विभूति नहीं है। जीवन का प्रसाद नहीं है।
अपने मंदिरों से उठा लाओ अपने पत्थरों को और फूलों पर चढ़ा दो। छुट्टी करो!
जीवंत को मृत के आगे मत झुकाओ। जीवन का सम्मान करो।

संतो, ऐसा यहु आचार।
छार पतंगा होहि आरती, ...
......  तुम आरती जला रहे हो और पतंगे उसमें मर रहे हैं। मगर तुम अपनी आरती उतारे जा रहे हो। तुम्हें फिकर ही नहीं है। तुम्हारे मन में ज़रा भी बोध नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो? इस आरती का क्या मूल्य है? पतंगों में जो परमात्मा है, उसमें मूल्य है। यह आरती बुझा दो! यह सब आरतियाँ बुझा दो! जीवन ही परमात्मा है, तुम जीवन के चरणों में झुको।

छार पतंगा होहिं आरती, हृदय नहीं बिनाण।।
ज़रा भी विज्ञान नहीं है, ज़रा भी विचार नहीं है, ज़रा भी होश नहीं है।

सगले जनम जीव संहारै, यहु खोटे षटकर्मा
और इनको तुम कहते हो, यह हमारे धर्म का क्रियाकांड है—षटकर्म। और सब कुछ, "सगले जनम जीव संहारै...... ' इस धर्म की प्रक्रिया के नाम पर तुमने कितना जीवन का विनाश किया है? और फिर ऐसा भी है कि कुछ ऐसे भी हैं, जो इस तरह से जीवन का विनाश नहीं करते। वे दूसरी तरह से करते हैं।
इस सदी की बड़ी—से—बड़ी खोजों में एक खोज है सिग्मंड फ्रॉयड की। उसने अपने जीवन—भर की खोज में दो बातें खोजीं मनुष्य के भीतर —एक को वह कहता है, काम—वासना, और दूसरे को कहता है, मृत्यु—वासना। काम—वासना उसने जीवन के प्राथमिक चरणों में खोजी, और जैसे—जैसे वह बूढ़ा होने लगा, उसे यह भी समझ आना शुरू हुआ कि मनुष्य के भीतर मृत्यु की भी आकांक्षा छिपी पड़ी है। आदमी मरना भी चाहता है। जब उसने पहली दफा यह बात कही कि आदमी में मृत्यु की वासना है, तो लोगों को समझ में नहीं आयी; क्योंकि कौन मरना चाहता है? लेकिन फ्रॉयड की बात धीरे—धीरे गहरी होती गयी। और लोग उस पर शोध करते रहे और अब यह बात एक तथ्य की तरह स्वीकार की जाती है कि आदमी जीना भी चाहता है और मरना भी चाहता है। आदमी में दोनों वासनाएँ साथ—साथ हैं यही आदमी की दुविधा है। इसके बड़े परिणाम होते हैं।
इसलिए दुनिया में दो तरह के झूठे धर्म हैं। एक धर्म, जो दूसरे को मारता है। वह एक वासना को मानकर चलता है—जीने की वासना। और दूसरा धर्म जो मृत्यु की वासना मानकर चलता है, वह दूसरे को नहीं मारता, वह अपने को मारता है। जैसे हिंदुओं के आचार—विचार पहली वासना से प्रभावित है—बलि दे दो। जैनों का आचार—विचार दूसरी वासना से प्रभावित है। क्या तुम्हें पता है, जैन—धर्म दुनिया में अकेला धर्म है जिसने आत्महत्या की आज्ञा दी है? और आत्महत्या को धार्मिक कृत्य माना है, फ्रॉयड को पता होता अगर इस बात का तो उसने जरूर उल्लेख किया होता। उसे पता नहीं था इस बात का। जैन—धर्म का पता दुनिया को ज्यादा नहीं है।
जैन—मुनि को आज्ञा है कि वह चाहे तो उपवास करके अपने जीवन का अंत कर दे। आत्मघात की सुविधा है। और जैन—मुनि चाहेगा ही अंत में—अगर वह सच्चा जैन—मुनि था तो अंत में चाहेगा ही—क्योंकि जीवन इतना बोझिल हो जाता है कि जीने से मरना ही बेहतर है। जीवन इतना कंटकाकीर्ण हो जाता है और इतना व्यर्थ हो जाता है—न कोई रस ही रह जाता है, न कोई जीवन में आनंद रह जाता है, कौन जीना चाहेगा? अगर जैन—मुनि ठीक से जिआ है तो वह आखिर में आत्मघात से ही मरेगा। मरना ही चाहिए। वही संगत है, तर्कयुक्त है। जैन—मुनि की प्रक्रिया क्या है? वह आत्मघाती है—वह दूसरे को नहीं सताता।
ये बातें जो रज्जब ने कही हैं, ये पहले तरह के धर्म के लिए लागू होती हैं। जैन कोई आरती नहीं उतारता, रात में भोजन भी नहीं करता है, दीया भी नहीं जलाएगा, रात पानी भी नहीं पिएगा, यह बात तो ठीक है, यह पहली तरह का उपद्रव तो बच गया, लेकिन दूसरी तरह का उपद्रव शुरू हुआ। अब रात—भर प्यास लगी है, वह अपने को तड़फा रहा है। दःुख दोगे ही तुम—या किसी और को या अपने को। दुःख देने से बचोगे नहीं तुम। मेरी दृष्टि में धार्मिक आदमी वह है, जो न दूसरे को दुःख देता है, न अपने को दुःख देता—जिसकी आस्था ही दुःख से हट गयी, जो दुःख देता ही नहीं।
इस देश में दोनों तरह की बातों का प्रचार है। दूसरों को दुःख देनेवाले लोग भी हैं, वे भी समझते हैं कि वे धर्म कर रहे हैं। अपने को दुःख देनेवाले लोग भी हैं, वे भी समझते हैं कि वे धर्म कर रहे हैं। कोई आदमी अपने को दुःख दे, बहुत लोग उसके चरणों में सिर झुकाने को तैयार हो जाते हैं। दुःख का सम्मान है। कोई आदमी काँटों पर लेटा है, तुम क्यों चले सम्मान करने? काँटों पर लेटा है तो पागल है, विक्षिप्त है, यह कोई लेटने का ढंग है, पुलिस को खबर करो, यह आदमी खतरनाक है। इसको मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। नहीं, चले तुम! चले पूजा का थाल लेकर कि कोई महर्षि का आगमन हो गया है। कोई आदमी काँटों पर लेटा हुआ है।
यह आदमी दुःखवादी है। यह दूसरे को दुःख नहीं दे रहा, खुद ही को दुःख दे रहा है, मगर दुःख तो दे रहा है। और दुःख देना तो एक ही बात है। किसको दिया, बहुत फर्क नहीं पड़ता। पहले आदमी को तुम बुरा कहते हो, दूसरे आदमी को भला कहते हो? अगर कोई किसी दूसरे को भूखा मार रहा है, तो तुम कहोगे—यह पापी है; और कोई अपने को भूखा मार रहा है तो तुम कहते हो—पुण्यात्मा है, उपवास कर रहा है।
यही कारण है कि ये दोनों वृत्तियों के लोग मेरे विपरीत होंगे। क्योंकि मैं दोनों के विपरीत हूँ। मैं तुम्हें एक ऐसा धर्म देना चाहता हूँ जो न तो दूसरों को दुःख देता है, न अपने को दुःख देता है। जिसकी आस्था ही दुःख में नहीं है। धर्म तो आनंद की आस्था है। और आनंद तभी फलित होगा जब तुम सब तरह के दुःख देने बंद करोगे। न तो पर—दुःखवादी, न स्व—दुःखवादी

सगले जनम जीव संहारै, यहु खोटे षटकर्मा
पाप प्रपंच चढ़ै सिरि ऊपर, नाम कहावै धर्मा।।
लोग और हजार तरह के पाप करते हैं धर्म के नाम पर, और मजा लेते हैं; क्योंकि नाम कहावै धर्मा। किसी ने धर्मशाला बनवा दी। कोई पूछता ही नहीं कि धर्मशाला बनाने के लिए उसने क्या—क्या किया! किसी ने मंदिर बनवा दिया। कोई पूछता ही नहीं कि मंदिर को बनाने में क्या—क्या उसे करना पड़ा! नही, धर्म की आड़ में सब छिप जाता है। धर्म का नाम होना चाहिए, फिर तुम्हारे सारे पाप क्षमा हो जाते हैं। उसी क्षमा के लिए लोग करोड़ों रुपये की चोरी करेंगे और लाख रुपये का दान कर देंगे। वह दान थोड़ा उनके अपराध—भाव को कम करवा देता है। उनको भी लगने लगता है कि मैं कोई पापी ही नहीं हूँ, पुण्यात्मा भी हूँ। फिर लोग भी कहते हैं कि महादानवीर बड़े दाता, बड़े धार्मिक, मंदिर बनवाया, धर्मशाला खुलवा दी। कम—से—कम प्याऊ बिठला दी—गर्मी के दिन, प्यासे राहगीरों के लिए इंतजाम करवा दिया! मगर यह आदमी दूसरी तरफ क्या कर रहा है, इससे किसी को चिंता नहीं है। इसलिए एक आश्चर्यजनक घटना घटती रहती है—धर्म भी चलता रहता है, धर्म के पीछे सब तरह की हिंसा, सब तरह का पाप भी चलता रहता है।

पाप प्रपंच चढ़ै सिरि ऊपरि, नाम कहावै धर्मा।
पाप का क्या अर्थ होता है? पाप का अर्थ होता है, या तो अपने को दुःख देना, या दूसरे को दुःख देना। दुःख देना पाप है। जहाँ तक बन सके दुःख न देना। तुम पूरे—पूरे सफल हो पाओगे, यह जरूरी नहीं है। क्योंकि दुःख लेनेवाले लोग भी हैं। इस दुनिया में। तुम न दो तो भी लेते हैं। लेकिन तुम्हारी तरफ से इतना काफी है कि तुम किसी को दुःख देने के लिए उत्सुक नहीं थे, आतुर नहीं थे। दुःख लेनेवाले लोग भी हैं। दुःख लेनेवाले इतने कुशल हैं कि तुम्हें पता ही नहीं चलेगा कि तुमने दुःख दिया कब, और ले लेंगे। अगर तुम हँसते हुए रास्ते से गुजर रहे हो, कोई दुःखी हो जाएगा। तुम अगर स्वस्थ हो तो कोई दुःखी हो जाएगा। तुम अगर आनंदित हो तो लोग दुःखी हो जाएँगे। लोग तुम्हें क्षमा न कर पाएँगे।
तुमने एक मजे की बात देखी? जब तुम दुःखी होते हो, तुमसे कोई नाराज नहीं होता। सब तुम्हारे प्रति सहानुभूति दिखलाते हैं। कहते हैं—बेचारा। लेकिन जब तुम आनंदित होते हो, तब तुम्हारे प्रति कोई सहानुभूति दिखलाता है? कोई सहानुभूति नहीं दिखलाता, सारी दुनिया तुम्हारे विपरीत हो जाती है।र् ईष्या पैदा होती है। जलन पैदा होती है, आग लगती है। इसलिए तुम किसी भी सुखी आदमी को क्षमा नहीं कर पाते।
तुमने ऐसे ही थोड़े बुद्ध को पत्थर मारे, तुम क्षमा नहीं कर पाए। तुमने महावीर के कानों में ऐसे ही थोड़े सलाखें छेदीं, तुम क्षमा नहीं कर पाए। इस आदमी का आनंद तुम बरदास्त नहीं कर सके। तुमने कहा—फिर हम क्या रहे हैं? यह आदमी इतना आनंद ले रहा है! इसके आनंद ने तुम्हें अपने दुःख का बोध करवा दिया। इसके आनंद की लकीर ने तुम्हारे दुःख की लकीर साफ करवा दी। इसके आनंद की बिजली क्या कौंधी, तुम्हारे जीवन के सारे काले बादल तुम्हें दिखायी पड़ गए। तुम क्षमा नहीं कर पाए। अभी तक सब ठीक था—न बिजली कौंधी थी, न तुम्हें पता था कि जीवन में इतना अंधकार है। यह बिजली कौंधानेवाला आदमी क्षमा नहीं किया जा सकता। तुम सदा आनंदित लोगों के विपरीत रहे हो।
इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि तुम अगर चेष्टा न करोगे लोगों को दुःख देने की तो लोग दुःख न लेंगे। वह उनकी मर्जी! वे जो लेना चाहते हैं वे लेंगे। मगर तुम मत देना। तुम्हारे भीतर विधायक रूप से दुःख लेने—देने की वृत्ति का विदा हो जाना पुण्य है। तुम्हारे भीतर दुःख देने में किसी तरह का रस रहे, तो पाप है।
दुःख देने में रस होता है। इसे तुम जाँचना तो तुम्हें समझ में आ जाएगा।
क्या रस होता है? जब भी तुम किसी को दुःख दे पाते हो तो तुम्हें मालूम होता है कि तुम्हारे पास शक्ति है। जब भी तुम किसी को दुःखी कर सकते हो, जितने ज्यादा लोगों को दुःखी कर सकते हो, उतना शक्ति का अनुभव होता है। और लोग शक्ति के दीवाने हैं। जब तुम किसी को दुःखी नहीं कर पाते, तो तुम्हें लगता है कि अपना कुछ बल ही नहीं। निर्बल मालूम होते हो। इसलिए लोग दुःख देने में रस लेते हैं।
छोटा—सा मौका मिल जाए तो चूकते नहीं। छोटा—सा बच्चा अपनी माँ से पूछ रहा है कि जरा मैं बाहर चला जाऊँ, खेल आऊँ, वह कहती है—नहीं! तुम जानते हो यह नहीं क्यों कह रही है? कुछ ऐसा नहीं कि बाहर कोई खतरा है, कि बच्चे के जीवन को कोई खतरा है, कि धूप में खेलने में कोई बरबादी हो जानेवाली है—और ऐसा भी नहीं कि बच्चा धूप में खेला नहीं है पहले, और ऐसा भी नहीं कि बच्चा आज भी नहीं खेलेगा, खेलेगा; बच्चा भी जानता है कि यह नहीं सब बकवास है—बच्चा वहाँ जोर मार कर खड़ा हो जाएगा, पैर पटकने लगेगा, सिर धुनने लगेगा, लेकिन माँ एकदम से नहीं क्यों कहती है? माताओं से हाँ निकलता ही नहीं। बड़ा मुश्किल है, एकदम कंठ अवरुद्ध हो जाता है। "हाँ' अटक जाता है। "नहीं' एकदम सरलता से आता है। "नहीं' में बल मालूम होता है। "नहीं' में बल है।
तुम देखो, स्टेशन पर गए हो, टिकट खरीदने खड़े हो, क्लर्क बैठा है, कुछ नहीं कर रहा है, अपना खाता खोलकर देखने लगता है। कुछ नहीं है उसको, न कुछ काम है, मगर वह अपनी किताब देख रहा है—अब वह तुमसे यह कह रहा है कि खड़े रहो, तुमने समझा क्या है? अपने आपको समझते क्या हो? खड़े रहो! तुम्हारी तरफ देखेगा ही नहीं। वह यह सिद्ध कर रहा है—तुम ऐरे—गैरे—नत्थू—खैरे! चले आए! जब मौज हुई तब चले आए! जैसे तुम्हारे यह बाप का घर है! इधर मालकियत मेरी है! थोड़ा—सा मजा ले रहा है बल का। थोड़ा—सा रस ले रहा है।
इसलिए लोग "नहीं' कहने में रस लेते हैं। "हाँ' कहने में मजबूरी अनुभव करते हैं। छोटा बच्चा भी समझ लेता है कि ऐसे काम नहीं चलेगा, यह दुनिया संघर्ष की है। यहाँ अगर "हाँ' कहलवाना है तो इतना उपद्रव खड़ा करना पड़ेगा कि माँ को "नहीं' कहने में दुःख मालूम होने लगे और "हाँ' कहने में सुख मालूम हो, तब स्थिति बदलेगी। यह सीधा संतुलन है। यह सीधा समीकरण है। वह शोरगुल मचाएगा, चीजें तोड़ने लगेगा, खिलौने की टाँग निकालकर रख देगा,चढ़ जाएगा घड़ी को बदलने लगेगा, तो माँ उससे कहेगी जा, बाहर जा, बाहर खेल। यही वह कह रहा था पहले से कि मैं ज़रा बाहर चला जाऊँ, मैं ज़रा बाहर खेल आऊँ? अब उसने इतना दुःख पैदा कर दिया, तब, तब, "हाँ' निकली।
यहाँ बड़ी छीनाझपटी चल रही है। यहाँ सारा बल का प्रदर्शन चल रहा है। हर आदमी कोशिश कर रहा है—कौन बलवान है? और ऐसा मत समझना कि दुश्मन ही ऐसी कोशिश कर रहे हैं, मित्र भी इसी कोशिश में लगे हैं। बाप कोशिश करता है कि कौन बलवान है—बेटा कि मैं? पति कोशिश करता है कौन बलवान है—पत्नी कि मैं? पत्नी भी इसी कोशिश में लगी है, सब इसी कोशिश में लगे हैं कि कौन बलवान है?
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी एक दिन उसके पीछे भाग रही है, लिए हुए है अपना मूसल। वह एकदम से बिस्तर के नीचे घुस गया। इतने में ही मोहल्ले से कुछ पड़ोसी आ गए। पत्नी ने आकर उससे कहा कि बाहर निकल आओ, पड़ोसी आ गए हैं! उसने कहा कि आने दो; आज यह सिद्ध हो ही जाएगा इस घर में मालिक कौन है? आज मैं निकलनेवाला नहीं—कोई मुझे निकाल सकता नहीं अपना घर है, जहाँ बैठना है वहाँ बैठेंगे। बैठा बिस्तर के नीचे है! मगर वह यह कह रहा है—आज पड़ोसियों को पता चल जाना चाहिए कि कौन मालिक है यहाँ। हर कोशिश आदमी यही कर रहा है कि सिद्ध हो जाए—मैं मालिक हूँ।
मेरी दृष्टि में पाप का अर्थ है, मैं बलशाली हूँ दूसरे से, इसकी चेष्टा। इस बात की चेष्टा कि दुःख देकर मैं अपनी मालकियत की घोषणा करता हूँ। इस बात की चेष्टा कि मैं दूसरे की गर्दन दबा दूँ और बतादँ कि जानते हो मैं कौन हूँ? तुम कुछ भी नहीं, मेरे सामने तुम क्या हो, खेत की मूली हो! पुण्य का क्या अर्थ होता है? पुण्य का अर्थ होता है—यह वृत्ति गयी। अब यह चेष्टा करने की कोई जरूरत न रही, क्योंकि सब जगह एक ही छिपा है। वही एक है—मुझमें भी, दूसरे में भी; बच्चे में भी, माँ में भी; शक्तिशाली में, दुर्बल में; सब में एक ही है, यहाँ दो हैं ही नहीं।

पाप प्रपंच चढ़े सिरि ऊपरि, नाम कहावै धर्मा।।
आप दुःखी औरां दुःखदायक, अंतरि राम न जान्या
खुद भी दुःखी हो, औरों को भी दुःख दे रहे हो। यह होगा भी। जो दुःखी है, वह दुःख ही दे सकता है। तुम वही तो दे सकते हो जो तुम्हारे पास है। तुम वह देना भी चाहो जो तुम्हारे पास नहीं, तो कैसे दोगे? तो ध्यान रखना, जब तुम दुःख दे रहे हो तो तुम सिर्फ एक बात की घोषणा कर रहे हो कि तुम दुःखी हो। सुखी सुख देता है, दुःखी दुःख देता है।
और एक और मजा है, गणित और भी समझ लेना, जो तुम देते हो, वही बढ़ता है। क्योंकि वही लौटता है। दुःख दोगे, दुःख लौटेगा। सुख दोगे, सुख लौटेगा। तो जो दुःखी है, दुःख देता है, और दुःख देने के कारण और दुःख लौटता है—और दुःखी हो जाता है। और दुःखी हो जाता है, और दुःख देता है। अब उसने एक दुष्चक्र पैदा कर लिया। इस दुष्चक्र का नाम नरक है। नरक कोई स्थान नहीं है, यह मन की गलत प्रक्रिया का नाम नरक है। अब यह फँस गया जाल में। अब और दुःख लौटेगा, यह और नाराज होकर दुःख देगा और जितना दुःख देगा उतना गुणनफल होता जाएगा और जितना दुःख बढ़ता जाएगा, उतना दुःख देने लगेगा। अब कैसे बाहर आएगा? इस वर्तुल के बाहर आना मुश्किल हो जाएगा। यही तुम्हारे जनम—जनम का फेरा है।
सुख का गणित भी यही है। जो सुखी है, सुख देता है। सुख देता है तो सुख लौटता है। ज़रा मुस्कुराओ तो दूसरा भी मुस्कुराने लगता है। और जब दूसरा मुस्कुराता है, तुम्हारे भीतर मुस्कुराहट और बढ़ जाती है। यह आसान है, जब चारों तरफ लोग मुस्कुराते हों तो मुस्कुराना आसान है। हँसो, सारी दुनिया तुम्हारे साथ हँसती है। रोओ, और तुम अकेले रोते हो। दो सुख! बाँटो सुख! यह पुण्य!
लोग कहते हैं—पुण्यात्मा को सुख मिलता है। इसलिए नहीं कि कोई परमात्मा वहाँ बैठा है और बाँट रहा है कि यह पुण्यात्मा, इसको ज़रा सुख दो, और यह ज़रा पापी, इसको ज़रा दुःख दो। कोई बाँटनेवाले की जरूरत नहीं है। यह सहज प्रक्रिया है। दुःख दुःख लाता है, सुख सुख लाता है। न कोई बाँटता है, न कोई न्यायकर्ता बैठा है, न कोई अदालत है न कोई कयामत का दिन है कि जिस दिन निर्णय होगा और क्रबों से लोग उठाए जाएँगे और पूछा जाएगा—तुमने क्या—क्या पाप किए? और फिर हरएक को पाप के हिसाब से दंड दिए जाएँगे, पुण्य के हिसाब से पुरस्कार दिए जाएँगे।
ये बचकानी बातें हैं। यह कोई तुमने प्राइमरी स्कूल समझा है कि साल के बाद में बस पुरस्कार मिलेंगे। स्वर्ण पदक मिलेंगे, खिलौने बांटे जाएंगे और एक ही दिन में यह सब हो जाएगा, तुम्हें मालूम है! एक ही दिन में!
एक पादरी समझा रहा था चर्च में लोगों को। उसने बड़ा वीभत्स चित्र खींचा कि कैसी—कैसी मुश्किलें होंगी कयामत के दिन —सारे पापों का लेखा—जोखा होगा!
एक आदमी बहुत घबड़ा गया सुनते—सुनते, एकदम उसकी साँस चढ़ गयी। वह खड़ा हो गया, उसने कहा—यह एक ही दिन में सब होगा? सब आदमी वहाँ होंगे, सब औरतें वहाँ होंगी, सब पशु—पक्षी, सब वहाँ होंगे, और एक ही दिन में यह सब होगा? फिर वह बैठ गया, उसने कहा—फिर मुझे कोई फिकर नहीं। तो मेरा नंबर शायद ही आए! इतना उपद्रव मचेगा, कौन मुझे देखेगा! मैं कोई बड़ा पापी भी नहीं हूँ, ऐसे छोटे—मोटे पाप, यही कि किसी के खीसे से दो रुपये निकाल— यह भी कोई पाप है! ऐसे वह भी कोई लेकर आया था दो रुपये! उसने किसी और के खीसे से निकाल लिए थे। कोई कुछ लेकर आया नहीं, इसलिए सब दूसरों के खीसों से ही निकाल रहे हैं—कि किसी को एक चाँटा मार दिया था।
कहते हैं एक दिन अकबर अपने दरबार में खड़ा था, उसने एक चाँटा मार दिया बीरबल को—किसी बात पर नाराज हो गया, बीरबल ने कुछ ऐसी बात कह दी कि अखर गयी। बीरबल तिलमिलाकर रह गया, दिल तो हुआ कि मार दे एक चाँटा खींचकर इसको; मगर ज़रा महँगा सौदा हो जाएगा। समझदार आदमी था। मगर इस वक्त कुछ न करना भी बड़ी बेइज्जती की बात थी। तो उसने पास खड़े एक आदमी को खींचकर चाँटा मारा। उस आदमी ने कहा—वाह भई, यह भी खूब हुआ! मैंने तो कुछ किया नहीं। उसने कहा— तुम दूसरे को मारो जी, बातचीत में समय क्यों गँवाना; चलाते जाओ जहाँ तक चले, आखिरी आदमी जानेगा—समझेगा।
और यहाँ हम आखिरी कोई भी नहीं हैं, यहाँ हम सब वर्तुल में खड़े हैं। यहाँ हर चीज लौट आती है। यहाँ क्या पाप हैं, क्या भूलें हैं—छोटी—मोटी! वह आदमी ठीक ही कह रहा है—एक दिन में अगर सबका ही निर्णय होना है, तो वहाँ ऐसी बकवास मचेगी, ऐसा शोरगुल मचेगा, ऐसी चीख—पुकार मचेगी कि कौन किसकी सुनेगा! तो मेरा तो नंबर शायद ही आए! वह बैठ गया, उसने कहा—फिर मुझे कोई फिकर नहीं है। मैं शांति से पीछे ही बैठा रहूँगा, नंबर शायद ही आए।
ये सब बचकानी धारणाएँ हैं धर्म की। ऐसा न कोई कयामत का दिन है, न कयामत की रात है; न कोई निर्णय करनेवाला है, न कोई निर्णय करने की जरूरत है। जीवन नियम से चल रहा है, यहाँ नियंता नहीं है।
नियम क्या है?
नियम सीधा—साफ है—जो दोगे, वह मिलेगा। जो बोओगे, वह काटोगे। आप दुःखी औरां दुःखदायक, अंतरि राम न जान्या। और यही उपद्रव में उलझे रहोगे, दुःख लेते रहोगे, देते रहोगे, राम को कब जानोगे, सुख कब जानोगे—राम यानी सुख। अंतर राम न जान्या

जन रज्जब दुःख देहि दृष्टि बिन, बाहरि पाखंड ठान्या।।
और जब तक यह दृष्टि तुम्हें न खुल जाए कि राम भीतर है, सुख भीतर है, तब तक तुम्हारा सारा जीवन, तुम्हारा सब धर्म, कर्म, सब पाखंड है—इससे अतिरिक्त कुछ भी नहीं।
मैंने सुना है—
मैं आदमी नहीं बनना चाहता—साँप ने कहा। मैं भी नहीं—गिलहरी बोली। अगर मैं आदमी बन जाऊँ तो मेरे लिए अखरोट कौन जमा करेगा? और आदमी के दाँत इतने कमजोर होते हैं कि वह किसी चीज को काट ही नहीं सकता, मुझे भी आदमी बनकर क्या लेना है—चूहे ने फरमाया। और मैं भी आदमी नहीं बनना चाहता—गधे ने मामला समाप्त करते हुए कहा—भला मैं आदमी बनकर क्या पाखंडी बनना चाहता हूँ।
आदमी इस पृथ्वी पर अकेला पाखंडी है। बाकी सब सहज सरल हैं। जैसा है वैसा ही है। ज्यूँ का त्यूँ ठहराया। सब वैसे ही का वैसा ठहरा है। पीपल पीपल है, नीम नीम है, आम आम है। सब वैसा—का—वैसा ठहरा है, सिर्फ आदमी डाँवाँडोल है। आदमी कुछ—का—कुछ हो जाता है। कुछ भीतर, बाहर कुछ। कुछ कहता, कुछ करता। कुछ हिसाब ही नहीं है। न—मालूम कितनी पर्तें—दर—पर्तें हैं। न—मालूम कितना पाखंड है। धीरे—धीरे याद ही नहीं रह जाती कि मैं कौन हूँ—इतने नकाब लगा देता है, इतने मुखौटे ओढ़ लेता है, पहचान ही भूल जाती है कि मेरा असली चेहरा क्या है?
और यह होगा ही, जब तक तुम जीवन के इस परम नियम को न समझ लोगे—

आप दुःखी औरां दुःखदायक अंतर राम न जान्या
जन रज्जब दुःख देहि दृष्टि बिन, बाहरि पाखंड ठान्या।।
और जब तक तुम्हें वह दृष्टि न मिल जाए जो भीतर राम को देख लेती है, सुख को पा लेती है, सुख के सागर को पा लेती है, तब तक तुम दुःख ही देते रहोगे और तुम्हारा जीवन पाखंड ही रहेगा। दुःखी आदमी पाखंडी रहेगा। सुखी आदमी ही सरल हो सकता है। क्यों? क्योंकि दुःखी आदमी पहले तो अपना दुःख छिपाता है। इसलिए पाखंड शुरू हो जाता है। क्या सार है अपना दुःख दिखाने से! तुम भी जब घर से निकलते हो तो सज—सँवरकर निकलते हो। देखते हो स्त्रियाँ कितनी देर आईने के सामने गँवाती हैं! कोई ऐसे ही थोड़े, बाहर जा रही हैं! और बाहर तो दिखलाना है कि सारा सौंदर्य उनका, सारी सुगंध उनकी, बाहर तो धोखा खड़ा करना है। घर में देखो उनको, तो भैरवी बनी बैठी रहती हैं कि पति देखे कि डर जाए, कि उसके हाथ—पैर कँपने लगें। बाहर जाएँ तो सब व्यवस्थित कर लेती हैं।
तुम भी देखते हो? घर में पति और पत्नी लड़ रहे हैं और कोई दस्तक दे देता है, दोनों एकदम मुस्कुराने लगते हैं—आइए, आइए, बिराजिए! बाहर तो हमें चेहरे बचाए रखने होते हैं न। घर में मेहमान आता है तो लोग पास—पड़ोस से चीजें माँग लाते हैं, उधार सोफे लगा लेते हैं, तस्वीरें टाँग देते हैं—दूसरे को दिखाना है कि हम बड़े मस्त हैं, हम बड़े प्रसन्न हैं, हम बिल्कुल ठीक हैं, कुछ गड़बड़ नहीं है। ऐसा ही दूसरे भी कर रहे हैं, खयाल रखना। उनको देखकर तुम धोखे में आ रहे हो, तुम को देखकर वे धोखे में आ रहे हैं। दुनिया में हर आदमी यही सोच रहा है—मुझे छोड़कर सब बड़े सुखी मालूम होते हैं। कोई यहाँ सुखी नहीं है। पाखंड शुरू हुआ।
और तुम जब भीतर दुःख से भरे हो और ऊपर मुस्कुराहट और भीतर ऑंसू—ही—ऑंसू, तो तुम्हारे जीवन में दो पर्तें हो गयीं, दो खंड हो गए—एक दिखाने का......  तुम्हारे खाने के दाँत अलग, दिखाने के अलग हो गए। अब तुम झूठ की दुनिया में उतरे। अब तुम किसी के प्रेम में पड़ जाओगे—समझो किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गए, वह स्त्री तुम्हारी मुस्कुराहट देखकर प्रेम में पड़ गयी, उसे पता नहीं तुम्हारे ऑंसुओं का; कितनी देर तक छिपाओगे ऑंसू? तुम उस स्त्री की छवि देखकर मोह में पड़ गए—छवि जो समुद्रतट पर दिखायी पड़ती है, घरों में नहीं पायी जाती; छवि जो घंटों आईनों के सामने निर्मित करनी पड़ती है; छवि जो असली नहीं है; छवि जो नियोजित है; तुम उसके मोह में पड़ गए, तुमने कहा—बड़ी सुंदर स्त्री है। और जब दो—चार दिन में पाउडर सरक जाएगा, बालों का असली रंग बाहर आ जाएगा, तब मुश्किल होगी।
एक आदमी ने विवाह किया। वह ज़रा परेशान था। हनीमून पर गए थे। पत्नी ने पूछा कि तुम बड़े परेशान हो, इतनी गर्मी तो नहीं और तुम पसीने—पसीने हो। उसने कहा—अब एक बात तुझसे क्या छिपाएँ कि मेरे दाँत नकली हैं। पत्नी ने कहा कि धन्यवाद तुम्हारा, इसमें कुछ हर्जा नहीं है, क्योंकि तुमने मुझे भी मेरे भार से मुक्त कर दिया, मेरे बाल भी नकली हैं, मेरे दाँत भी नकली हैं, मेरी एक ऑंख भी नकली है, मेरी एक टाँग भी नकली है; तुमने मुझे सारे भार से ही मुक्त कर दिया। अब हम निश्चिंत होकर असली हो जाएँ। अब अलग करें ये सब चीजें। मगर इन्हीं सब चीजों के अलग होने में सारा प्रेम है। वह प्रेम जो हुआ था, वह एक धोखा था।
और तुम हँसना मत इस बात पर, यही हालत है। तुम एक चेहरा दिखलाते हो, फिर उस चेहरे के मोह में कोई पड़ जाता है; फिर असली चेहरा जब दिखलायी पड़ता है तो मुश्किल खड़ी हो जाती है। फिर दुःख पैदा होता है। दुःखी हम हैं, दुःख को छिपाते हैं, मगर कब तक छिपाओगे? जो है, वह छलकेगा
"जन रज्जब दुःख देहि दृष्टि बिन।' दृष्टि के बिना यह स्थिति बनी ही रहेगी। यह दुःख की दशा बनी ही रहेगी। दर्शन चाहिए, दृष्टि चाहिए। दृष्टि, जो तुम्हें यह दिखा दे कि तुम्हारे भीतर तुम्हारे आत्मा में पड़ा हुआ सुख का खजाना है। राम भीतर विराजमान हैं। एक बार उनसे पहचान कर लो। बाहर जिसको खोजते रहे; खोजते रहे और न पाया, वह भीतर बैठा है। एक बार खोज छोड़ो और भीतर झाँको

म्हारो मंदिर सुनो राम बिन, बिरहणि नींद न आवै रे।
पर—उपगारी नर मिलै, कोई गोविंद आन मिलावै रे।।
जिस दिन तुम्हें यह दिखायी पड़ेगा जीवन व्यर्थ है, और राम के बिना मंदिर सूना है, उस दिन तुम गुरु की तलाश में निकलोगे। राम का तुम्हें पता नहीं, संसार का पता था, वह व्यर्थ हो गया; जिसका पता था, वह काम न आया, और जो काम में आ सकता है, उसका कुछ पता नहीं। अब तुम्हें किसी ऐसे आदमी को खोजना पड़ेगा, जिसे उसका पता हो। जो उन ऊँचाइयों पर गया हो। जिसने उन गहराइयों में डुबकियाँ ली हों।
"पर—उपगारी नर मिलै कोई, गोविंद आन मिलावै रे'। राम की तलाश में गुरु का पड़ाव आता है। संसार की तलाश तो अकेले भी हो जाए, क्योंकि यहाँ सारे—के—सारे संसारी तुम्हारे चारों तरफ हैं। उनको देख—देखकर भी काम चल जाता है असत्त में उनको देख देख कर ही काम चलता है, और तुम संसार सिखते कैसे? छोटा—सा बच्चा आता है, वह संसार कैसे सीखता है! बाप को देखता है, माँ को देखता है, पड़ोस के लोगों को देखता है, देखते—देखते संसारी हो जाता है—अनुकरण करने लगता है। लेकिन यहाँ संसार में तुम इस तरह के लोगों की भीड़ तो है नहीं जिन्होंने राम को पाया हो, जिनके पास बैठकर तुम अनुकरण कर लो, यहाँ तो कभी विरला कोई मिलेगा जिसका मंदिर भरा हो, जिसकी ज्योति जली हो, खोजना पड़ेगा। संसार तो बिना खोजे सीख लिया जाता है, क्योंकि संसार में सभी गुरु हैं। संसार के गुरु तो सभी हैं, हर एक से सीख लोगे तुम। मोहल्ले—पड़ोस के लोग सिखा रहे हैं, स्कूल में सिखाया जा रहा है; बाजार में, दुकान में, जहाँ जाओगे जीवन का अनुभव ही तुम्हें संसार सिखा देगा। लेकिन परमात्मा को कहाँ सीखोगे? परमात्मा का तो कुछ पता नहीं है। किसी की तलाश करनी होगी।

म्हारो मंदिर सूनो राम बिन, बिरहिरण नींद न आवै रे।
पर—उपगारी नर मिलै कोई, गोविंद आन मिलावै रे।।
चेती बिरहिण चित न भाजै, ......
और एक बार यह चेतना आ गयी कि संसार व्यर्थ है, फिर चित्त को कुछ भी नहीं भाता।

चेती बिरहणि चित न भाजै, अविनासी नहिं पावै रे।
जब तक अविनासी न मिले, तब तक फिर चैन नहीं। तब तक फिर एक बेचैनी है, एक विरह है, एक वियोग है।

यहु बिवोग जागै निसबासर, बिरहा बहुत सतावै रे।।
संसार व्यर्थ, सब किया—धरा व्यर्थ, और परमात्मा का हमें कुछ पता नहीं; खड़े हो गए बीच में। हाथ में जो है, राख, और हीरा कहाँ पड़ा है, हमें कुछ पता नहीं, ऐसी घड़ी में गुरु की तलाश शुरू होती है। और सच तो यह है, अगर ऐसी घड़ी तुम्हारे जीवन में आ जाए तो गुरु अपने—आप तुम्हारी तलाश करता आ जाता है।
मिस्र की पुरानी कहावत है—बहुमूल्य कहावतों में से एक—कि जब शिष्य तैयार होता है, गुरु प्रगट हो जाता है। तैयारी यही है, इसी जगह खड़े हो जाओ तुम, संसार व्यर्थ है यह तुम्हारे भीतर गहरी हो जाए बात। फिर तुम अचानक पाओगे कोई हाथ आ गया, जिसने तुम्हें पकड़ लिया। कोई ले चला, कोई किरण तुम्हें ले चली एक नयी यात्रा पर, एक नए आयाम में।

चेती बिरहणि चित ना भाजै, अविनासी नहिं पावै रे।
यहु बिवोग जागै निसबासर, ......    
और यह परमात्मा का वियोग ऐसा नहीं है कि थोड़ी—बहुत देर, यह निसबासर, दिन—रात, सोते में भी ऑंसू झलकते रहेंगे; सोते में भी भीतर यह प्यास जगती रहेगी।

बिरह बिवोग बिरहणि बींधी, घर बन कछु न सुहावै रे।
फिर कुछ अच्छा नहीं लगता—न घर, न जंगल; न अपने, न पराए; न सफलता, न विफलता; न यश, न अपयश; फिर कुछ भाता नहीं । "म्हारो मंदिर सूनो राम बिन।' फिर तो बस एक ही बात सताती है कि मेरा मंदिर अभी खाली है, कि मेरा मंदिर अभी भरा नहीं, कि मेहमान अभी आया नहीं, कि जिंदगी ऐसे ही बीती चली जा रही है, कि मेरी प्रतीक्षा अभी अधूरी है, कि मेरे द्वार जिसकी प्रतीक्षा है उसका आगमन अभी नहीं हुआ। बंदनवार सजाए हैं, आरती सजायी हैं, धूप—दीप बाले हैं, अतिथि कब आएगा?

दह दिसि देखि भयो चित चकरित, कौन दया दरसावै रे।
और ऐसी दशा में बड़ी अड़चन होती है, सब दिशाओं में खोजता है आदमी, दसों दिशाओं में खोजता है, और चक्कर बढ़ता जाता है। क्योंकि सद्गुरु तो बहुत मुश्किल है, असद्गुरु बहुत आसान है। पुरोहित—पंडित बहुत आसान हैं। वे हर जगह मौजूद हैं। वे बिल्कुल सस्ते हैं। वे तुम्हारा कान फूँकने को तैयार हैं। वे तुम्हें मंत्र देने को तैयार हैं। वे तुमसे कहते हैं कि यह लो, इसी मंत्र को जपते रहो, सब ठीक हो जाएगा। वे तुम्हें सस्ते नुस्खे देने को तैयार हैं। सद्गुरु तुम्हें मिटाएगा, तुम्हें भस्मीभूत करेगा; सद्गुरु तुम्हें धीरे—धीरे तोड़ेगा। तुम मिटोगे, तो ही तुम्हारा नया जन्म हो सकता है।
"दह दिसि देखि भयो चित चकरित'। तो साधक और मुश्किल में पड़ जाता है, चारों तरफ खोजता है और चक्कर पैदा हो जाता है। किसकी माने? किसकी सुने? कौन सही? कौन गलत? कैसे निर्णय होगा? निर्णय इस बात से ही होता है कि अगर तुम्हारी प्यास सच है, तो परमात्मा किसी गुरु के रूप में तुम्हें खोजता हुआ स्वयं आ जाता है। और कोई चीज निर्णायक नहीं है। तुम्हारी प्यास अगर वास्तविक है, प्रामाणिक है, अगर मुमुक्षा सच है, तो यह अस्तित्व सच का साथ देता है।

ऐसा सोच पड़ा मन माहीं समझि समझि धूधावै रे।
धूधू करके जलता है साधक। जबसे विरह पैदा होता है, संसार व्यर्थ हुआ और राम की याद आनी शुरू हुई, तब से धू   धू करके जलता है। तुम्हें ऐसे बहुत लोग मिल जाएँगे जो सांत्वना देंगे और पानी छिड़ककर तुम्हारी धूधू जलती हुई आग को बुझा देंगे। उनसे बचना। क्योंकि सत्य सांत्वना से नहीं मिलता। आग को बुझाना नहीं है, गहन करना है। आग को बुझानेवाले के पास मत जाना, यह आग ऐसी नहीं जो बुझायी जाती है, "फायर डिपार्टमेंट' को खबर मत कर देना कि आग लग गयी, कि आओ और बुझाओ! तुम्हारे पंडित—पुरोहित यही करते हैं। तुम बेचैन होते हो, परेशान होते हो, वे जब तुम्हें सांत्वना देते हैं। वे जब तुम्हें ताबीज दे देते हैं। वे जब कहते हैं—इससे सब ठीक हो जाएगा। यह लो हनुमान चालीसा, यह बड़ा संकटमोचन है, जब भी तकलीफ हो, इसकी याद कर लेना, यह सब बचाएगा, यह तुम्हारी रक्षा करेगा!
सद्गुरु तुम्हारी रक्षा नहीं करता, सद्गुरु तुम्हें बचाता नहीं, सद्गुरु तो तुम्हारी मृत्यु है, सद्गुरु तो तुम्हें बिल्कुल नष्ट कर देगा, तुम्हें पोंछ देगा, कुछ भी न बचने देगा—जब तुम बिल्कुल न बचोगे, उसी शून्य में परमात्मा का अवतरण होता है; उसी में मंदिर भरता है। "म्हारो मंदिर सूनो राम बिन'
तुम गए कि राम आया। यह मिलन बड़ा अद्भुत है। इसको मिलन कहना भी शायद ठीक नहीं। क्योंकि जब तक तुम हो, तब तक यह मिलन नहीं होगा, और जब तुम चले जाओगे, तभी यह मिलन मिलन होगा।
 हेरत हेरत हे सखि, रह्या कबीर हेराइ
जब तुम खो जाओगे खोजते—खोजते, तब मिलना होता है।
बिरहबान घटि अंतरि लाग्या, घाइल ज्यूँ घूमावै रे।।
और अब तो बाण ऐसा लगता है और गहरा होता जाता है—सद्गुरु के पास जाओगे तो बाण गहरा होगा। सद्गुरु मलहम—पट्टी नहीं है। और बाण को चुभाएगा, और गहरा करेगा, और खोदेगा, और तुम्हारे हृदय में गहरा उतारेगा विरह को।
बिरहबान घटि अंतरि लाग्या, घाइल ज्यूँ घूमावै रे।

ऐसा लगने लगेगा बहुत बार कि पीड़ा के कारण मूर्छा आयी जा रही है। लेकिन यह मूर्छा नए जागरण का प्रारंभ है। यह मूर्च्छा नहीं है। मूर्छित तो तुम अब तक थे, अब होश आ रहा है।

बिरह— अगिन तन पिंजर छीनां, ......
और यह विरह की अग्नि में तुमने जो अपने को अब तक जाना है, वह सब छिनने लगेगा, क्षीण होने लगेगा।

बिरह अगिनत्तन पिंजर छीनां, पिवकूँ कौन सुनावै रे।
और ऐसी घड़ी आएगी तब तुम्हें लगेगा कि मैं तो गया, मैं तो मिटा, और परमात्मा से निवेदन भी न कर पाया, जो कहना था वह भी न कह पाया, यह तो मेरी साँस आखिरी छूटने लगी......  "बिरह—अगिन तन—पिंजर छीनां, पिवकूँ कौन सुनावै रे ......  मेरी खबर मेरे जाने पर कोई प्यारे को कह देगा? ऐसा भी लगेगा; ऐसी घड़ी भी आ जाती है, ऐसी आत्यंतिक संकट की घड़ी आती है, जब तुम बिल्कुल मिट रहे होते हो, डूब रहे होते हो जैसे पानी में कोई डूब रहा है, और अब बचने का कोई उपाय नहीं दिखता। जब विरह में कोई ऐसे डूब जाता है कि बचने का कोई उपाय नहीं दिखता, उसी क्षण क्रांति घट जाती है, संक्रांति घट जाती है।

जन रज्जब जगदीस मिले बिन पल पल बज्र बिहावै रे।।
और जब तक जगदीस न मिल जाए, तब तक बज्र की भाँति पीड़ा बढ़ती जाती है, गहन होती चली जाती है; घाव बढ़ता जाता है, घाव—ही—घाव रह जाता है। भक्त एक घाव बन जाता है। भक्त की ऑंखें सिर्फ ऑंसुओं से भरी हो जाती हैं। संसार व्यर्थ हुआ, अब वहाँ आशा न रही, और अब जहाँ आशा लगी है, उसका कुछ पता नहीं, उस अज्ञात का कोई ओर—छोर नहीं, कहाँ खोजें उसे, किस दिशा में खोजें उसे, कैसे खोजें—न उसका कोई नाम है, न कोई पता है, न कोई ठिकाना—ऐसी घड़ी में गुरु का मिलन अनिवार्य है।
विरह को तुम जगाओ, गुरु तुम्हें खोजता चला आता है। यह अनिवार्य रूप से घट जाता है। जैसे जब गहन गर्मी होती है तो बादल आ जाते हैं और वर्षा हो जाती है। ठीक ऐसे ही जब तुम्हारे भीतर विरह गहन हो जाता है, तो गुरु का बादल आएगा, वर्षा हो जाएगी। इस वर्षा में तृप्ति है। इस वर्षा में ही जीवन की नियति की पूर्णता है।
धन्यभागी वे ही हैं, जो इस वर्षा में नहा जाते हैं, जो इस अमृत की धार से भर जाते हैं।

किसी टूटे हुए मअबद में जैसे रो उठे दीपक
दिलेवीराँ में यादों के दिये यूँ टिमटिमाते हैं
मेरी टूटी हुई किश्ती बिशातेजश्नेत्तूफाँ है
तलातुम रक्स करते हैं, किनारे मुस्कुराते हैं

जब कोई ऐसी डुबकी लेता है—

किसी टूटे हुए मअबद में जैसे रो उठे दीपक......  
जैसे किसी टूटे—फूटे मंदिर में दीया भभक उठे, रो उठे।
दिलेवीराँ में यादों के दिये यूँ टिमटिमाते हैं

वीरान दिल में। क्योंकि जगत से तो सब वीरान हो गया, अब तो सिर्फ उसकी एक याद रही—"म्हारो मंदिर सूनो राम बिन'

दिलेवीराँ में यादों के दिये यूँ टिमटिमाते हैं
जैसे किसी टूटे हुए मअबद में जैसे रो उठे दीपक
मेरी टूटी हुई किश्ती बिशातेजश्ने तूफाँ है......  

और मेरी टूटी हुई किश्ती तूफान के उत्सव की बिछावन हो गयी है......

मेरी टूटी हुई किश्ती बिशातेजश्ने तूफाँ है

तूफान के लिए समर्पित कर दी है किश्ती। तूफान के उत्सव का अंग हो गयी है।

मेरी टूटी हुई किश्ती बिशातेजश्नेत्तूफाँ है
तलातुम रक्स करते हैं, किनारे मुस्कुराते हैं
अब तूफान नाच रहा है और किनारे हँस रहे हैं। मिलन हो गया है। घड़ी आ गयी। इसी घड़ी की तलाश जन्मों—जन्मों से थी। इसी सुबह की तलाश है। इसी सूरज की तलाश है।
बहुत देर वैसे ही हो चुकी, अब और देर न करो। उतरो घोड़े से! देखो मेरी ऑंखों में! उतरो घोड़े से! "रज्जब तैं गज्जब किया'। काफी कर चुके गजब, समय आ गया, जिस घोड़े पर भी सवार हो वहाँ से उतर आओ—धन का घोड़ा हो, कि पद का घोड़ा हो—जिस घोड़े पर भी सवार हो, उतर आओ। सब घोड़े झूठे हैं। यह घुड़सवारी बहुत हो चुकी, यह अकड़ बहुत हो चुकी, यह अहंकार अब छोड़ो। उतर आओ संसार के घोड़े से। परमात्मा दूर नहीं है। घोड़े से उतरे कि मिलन हो जाता है।
और मैं तैयार हूँ तुम्हें घोड़े से उतारने को। मेरे पास जिज्ञासु की तरह मत आओ। यहाँ जिज्ञासाएँ तृप्त करने के लिए कोई आकांक्षा नहीं है। यहाँ दार्शनिक प्रश्न लेकर मत आओ। यहाँ मुमुक्षा लाओ। यहाँ अभीप्सा लाओ। लाओ हृदय, जो तीर खाने को तैयार है। लाओ प्यास, जो कहती है—
"म्हारो मंदिर सूनो राम बिन'

आज इतना ही।



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