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रविवार, 27 मार्च 2016

संतो मगन भया मन मेरा--(प्रवचन--07)

मन रे, करू संतोष सनेही—(प्रवचन—सातवां)
दिनांक 18 मई 1979;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सारसूत्र:
मन रे, करु संतोष सनेही।   
तृस्ना तपति मिटै जुग—जुग की, दुख पावै नहिं देही।।
मिल्या सुत्याग माहिंजे सिरज्या, गह्या अधिक नहिं आवै
तामें फेर सार कछू नाहीं राम रच्या सोइ पावै।।
बाछै सरग सरग नहिं पहुँचै, और पताल न जाई।
ऐसे जानि मनोरथ मेटहु, समझि सुखी रहु भाई।।
रे मन, मानि सीख सतगुरु की, हिरदै धरि विस्वासा
जन रज्जब यूँ जानि भजन करु, गोबिंद है घर वासा।।

हरिनाम मैं नहिं लीनां
पाँच सखी पाँचू दिसि खेलै, मन मायारस भीनां।।
कौन कुमति लागी मन मेरे, प्रेम अकारज कीनां
देख्या उरझि सुरझि नहिं जान्यूँ, विषम विषयरस पीनां।।
कहिए कथा कौन विधी अपनी, बहु बैरनि मन खीनां
आतमराम सनेही अपने, सो सुपिनै नहिं चीनां।।
आन अनेक आनि उर अंतरि, पग पग भया अधीनां
जन रज्जब क्यूँ मिलै सतगुरु, जगत माहिं जी दीनां।।

नुकरई झाँझनों झन—झनन—झनन दूध से पाँवों को गुदगुदाती है
गुनगुनाती रहें काँच की चूड़ियाँ, हर कलाई नए गीत गाती रहे
हर जवानी सदा मुस्कराती रहे

गाँव से दूर खेतों के उस पार वह साफ शफ्फाक चश्मा उबलता रहे
शोख पनिहारियों का हसीं जमघटा गागरें लेके राहों पै चलता रहे
हुस्न मंजर के साँचे में ढलता रहे

गर्मियों की कड़कती हुई धूप में, झूमकर पेड़ साए लुटाते रहें
ठंडी—ठंडी हवाओं के पाले हुए, मस्त झोंके शराबें पिलाते रहें
नींद बनकर नज़र में समाते रहे
चौदवीं रात के चाँद की चाँदनी खेतों पर हमेशा बिखरती रहे
ऊँघते रहगुजारों में फैले हुए हर उजाले की रंगत निखरती रहे

नर्म ख्वाबों की गंगा उभरती रहे
ईद का दिन यूँ ही रोज आता रहे, ढोलकों पर यूँ ही थाप पड़ती रहे
मनचली लड़कियों में हँसी—खेलपर नित नए ढब से बनती—बिगड़ती रहे
कोई माने तो कोई अकड़ती रहे
शहर से लौटकर आनेवाले जवाँ, गाँव में जौक—दर—जौक आते रहें
अपनी—अपनी दुल्हन के लिए नित नयी सोने—चाँदी की सौगात लाते रहें
जिंदगी के महल जगमगाते रहें

नुकरई झांझनों झन—झनन—झनन दूध से पाँवों को गुदगुदाती है
गुनगुनाती रहें काँच की चूड़ियाँ, हर कलाई नए गीत गाती रहे
हर जवानी सदा मुस्कराती रहे

ऐसा मनुष्य चाहता है, पर होता नहीं। ऐसा मनुष्य चाहता है, पर हो नहीं सकता। जिंदगी मौत के बीच है। जिंदगी का छोटा—सा दीया तूफानों के बीच टिमटिमा रहा है। यहाँ न तो थिरता हो सकती है, न आनंद हो सकता है; यह असंभव है। मन आकांक्षा करता है, मन बड़े सपने सँजोता है, लेकिन सब सपने टूट जाते हैं। सपने टूटने को ही बनते हैं। प्यारे सपनों के गीत गाते रहो, गीतों से मन को उलझाते रहो, गीतों से मन को समझाते रहो, सांत्वना के खूब—खूब जाल रच लो, मगर मौत आती है और सब तोड़ जाती है।
दो ही तरह के लोग हैं पृथ्वी पर। एक, जो मौत को झुठलाते रहते हैं और सपनों में अपने को उलझाते रहते हैं। दूसरे, जो मौत को देख लेते भर—ऑंख कि आती है, आती ही होगी, आ ही गयी है, और मौत की उस चोट में ही सपनों से जाग जाते हैं। सपनों से जो जाग जाए, वही सत्य को अनुभव कर पाता है। सपनों में जो सोया रहे, वह अंधे की भाँति जीता है।

नाच रहे हैं अंधे इंसाँ
पैरों में जंजीरें डाले
जंजीरें टूटतीं नहीं तुम्हारे नाच से। जंजीरें टूटती हैं ऑंख से। और जंजीरें टूट जाएँ तो फिर एक और ही तरह का नाच है। जंजीरें टूट जाएँ तो फिर तुम्हारे भीतर परमात्मा नाचता है, तुम नहीं। और जंजीर एक ही है—तुम्हारी ऑंख का बंद होना जंजीर है। ऑंख खोलो
आज के सूत्र ऑंख खोलने की दिशा में बड़े मूल्य के उपाय बन सकते हैं। एक—एक शब्द को हृदय में लेना।
मन रे, करु संतोष सनेही।
सीधे—सादे शब्द हैं। सीधे—सादे आदमी रज्जब के हैं। किसी पंडित के नहीं, किसी शब्दों के धनी के नहीं, आत्मा के धनी के हैं। और खयाल रखना, आत्मा के धनी सीधे—साफ शब्दों में बोलते हैं। शब्दों में रस नहीं है उन्हें; जो कहना है, उसके लिए शब्दों का केवल उपयोग कर लेते हैं। रज्जब कोई कवि नहीं है, यद्यपि कविता की है और प्यारी की है। लेकिन गौण है वह बात। कवि तो केवल शब्दों को जमाता है। कवि के पास देने को शायद ही कुछ है। लेकिन शब्दों का एक तिलिस्म खड़ा करता है। शब्दों का मालिक है। शब्दों का कुशल कलाकार है। शब्दों में खूब रंग भरता है, शब्द मनमोहक हो जाते हैं। लेकिन कवि की जिंदगी तो सूनी—की—सूनी होती है। कवि की जिंदगी में तो कहीं फूल नहीं खिलते। उसके फूल सिर्फ कविताओं में खिलते हैं।
रज्जब कवि नहीं हैं। रज्जब तो ऑंख वाले आदमी हैं। कविता तो गौण है, मस्ती से निकल आयी है, सहज निकल आयी है। उसे बनाया भी नहीं है। इसलिए शब्द तो सीधे—सादे होंगे। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि सीधे—सादे शब्दों के कारण ही हम चूक जाते हैं। लगता है यह तो हम समझ ही गए; अब इसमें क्या बात समझाने की!
मन रे, करु संतोष सनेही!
यह तो हम दोहराते हैं खुद ही—संतोषी सदा सुखी। यह तो हम सब जानते ही हैं। मगर जानते कहाँ हैं? सुना है, पकड़ भी लिया है, तोतों की तरह दोहरा भी लेते हैं, मगर जानते कहाँ हैं? यह हमारे अनुभव की संपदा नहीं है, यह हमारा धन नहीं है—यही हमारा धन होता तो हमारे जीवन की रौनक और होती, गरिमा और होती। जंजीरें न होतीं, नृत्य होता। ऑंखों में ऍ?धेरा न होता, रोशनी नाचती। यह सारा आकाश तुम्हारा ऑंगन होता। यह सारा अस्तित्व अपने रहस्यों को तुम पर लुटाता। लेकिन वह तो नहीं हो रहा है। टटोल रहे हैं, ?धेरे की तरह, अंधी गुफाओं में। जिनको हम जीवन कह रहे हैं, अंधे संबंधों में—जिनको हम प्रेम कहते हैं—टटोल रहे हैं, तलाश चल रही है; हाथ कभी कुछ लगता नहीं, फिर भी टटोल जारी रहती है। हाथ कभी कुछ लगेगा भी नहीं। लेकिन हाथ न भी लगे तो भी क्या करें, टटोलना तो जारी रखना ही पड़ेगा, एक मजबूरी है। टटोलने में कम—से—कम एक आशा बनी रहती है कि आज नहीं तो कल मिलेगा, कल नहीं तो परसों मिलेगा—उलझे तो रहते हैं कम—से—कम, व्यस्तता तो बनी रहती है।
तुम्हारा सारा जीवन का उपक्रम तुम्हारी तथाकथित व्यस्तता का ही एक आयोजन है। आदमी व्यस्त रहता है तो भूला रहता है आदमी खाली होता है तो याद आने लगती है कि मैं क्या कर रहा हूँ? मैं यहाँ क्यों हूँ? किसलिए हूँ? मेरा गंतव्य क्या है? मुझे कहाँ होना था? मैं किस कीचड़ में पड़ गया? कमल बनने आया था और कीचड़ में ही दबा रह गया हूँ। झकझोरने वाले प्रश्न उठने लगते हैं। उनसे बचने का एक ही उपाय है—उलझा लो अपने को, कहीं भी काम में लगा दो अपने को। काम से एक झूठी प्रतीति बनी रहती है—कुछ हो रहा है। कुछ नहीं हो रहा है। कुछ न कभी हुआ है यहाँ, न कुछ कभी यहाँ होगा। मगर होने की भ्राँति बनी रहती है। कर तो रहे हैं, दौड़ तो रहे हैं, भाग तो रहे हैं, लड़ तो रहे हैं और क्या करें? सब तो दावँ पर लगा रहे हैं। आज नहीं कल, कल नहीं परसों होगा। देर है, अंधेर तो नहीं है। ऐसे अपने को समझाते हैं। और सब प्यारे शब्द हमें याद हो गए हैं। उन प्यारे शब्दों को हमने याद करके ही मार डाला है, उनकी हत्या कर दी है।
समझो—मन रे, करु संतोष सनेही।
रज्जब कहते हैं—दोस्त तो दुनिया में एक है, प्रेमी तो दुनिया में एक है, अगर प्रेम ही करना हो तो उसीसे कर लेना, उसका नाम संतोष है। संतोष से प्रेम कर लेंगे तो क्या होगा? हमने तो नाते असंतोष से जोड़े हैं। हमने तो विवाह असंतोष से रचाया है। हमने तो हाथ में हाथ डाल दिए हैं असंतोष के। फिर तड़फ रहे हैं, फिर रो रहे हैं, फिर गिड़गिड़ा रहे हैं। मगर दोस्ती नहीं छोड़ते। जितना गिड़गिड़ाते हैं, उतनी ही दोस्ती मजबूत करते चले जाते हैं। इस सीधे से सत्य को देखो—असंतोष से दोस्ती जो बनाएगा, वह कैसे सुखी हो सकता है? इतना सीधा—सा गणित भी दिखायी नहीं पड़ता! असंतोष की कला क्या है? जो है, असंतोष कहता है, उसमें क्या रखा है! असंतोष कहता है—जो तुम्हारे पास नहीं है, उसमें सार है। जो तुम्हारे पास है, निस्सार है। इसलिए जो नहीं है उसे पाने में लगो, तो मजा पाओगे, तो आनंद पाओगे।
लेकिन, यह सूत्र तो ऐसा हुआ—आत्मघाती सूत्र है यह—जैसे ही तुम उसे पा लोगे वह व्यर्थ हो जाएगा।
असंतोष का तर्क समझो। असंतोष की व्यवस्था समझो। असंतोष की व्यवस्था यह है कि जो मिल गया, वही व्यर्थ हो जाता है। सार्थकता तभी तक मालूम होती है जब तक मिले नहीं। जिस स्त्री को तुम चाहते थे, जब तक मिले न तब तक बड़ी सुंदर। मिल जाए, सब सौंदर्य तिरोहित। जिस मकान को तुम चाहते थे—कितनी रात सोए नहीं थे! कैसे—कैसे सपने सजाए थे!—फिर मिल गया और बात व्यर्थ हो गयी। जो भी हाथ में आ जाता है, हाथ में आते ही से व्यर्थ हो जाता है। इस असंतोष को तुम दोस्त कहोगे? यही तो तुम्हारा दुश्मन है। यह तुम्हें दौड़ाता है—सिर्फ दौड़ाता है—और जब भी कुछ मिल जाता है, मिलते ही उसे व्यर्थ कर देता है। फिर दौड़ाने लगता है। यह दौड़ाता रहा है जन्मों—जन्मों से तुम्हें। वह जो चौरासी कोटियों में तुम दौड़े हो, असंतोष की दोस्ती के कारण दौड़े हो। दस हजार रुपए पास में हैं—क्या है मेरे पास, कुछ भी तो नहीं! लाख हो जाएँ तो कुछ होगा! लाख होते ही तुम्हारा असंतोष—तुम्हारा मित्र, तुम्हारा साझीदार—कहेगा, लाख में क्या होता है? ज़रा चारों तरफ देखो, लोगों ने दस—दस लाख बना लिए हैं। अरे मूढ़, तू लाख में ही बैठा है! अब लाख की कीमत ही क्या रही? अब गए दिन लाखों के, अब दिन करोड़ों के हैं। करोड़ बना! तो कुछ होगा।
तुम सोचते हो करोड़ हो जाएगा तुम्हारे पास तो कुछ होगा? कुछ भी नहीं होगा। यही असंतोष तुम्हारा साथी वहाँ भी मौजूद रहेगा। करोड़ होते—होते—होते—होते काफी समय बीतेगा, दौड़ होगी, जीवन गँवाया जाएगा, और जब पहुँच जाओगे, तो यही असंतोष कहेगा कि करोड़ भी कोई बात है! अरबपति हैं दुनिया में! आगे देख! ठहरना नहीं, अरबपति होना है! और ऐसे ही दौड़ाता रहेगा। जो नहीं है, उसमें रस पैदा करवाता रहेगा। और जो है, उसमें विरस पैदा करवा देगा। जो है, वह होने के कारण ही अर्थहीन है। और जो नहीं है, वह न होने के कारण ही सार्थक है। तभी तो दौड़ जारी रहती है। नहीं तो दौड़ ही मर जाए।
संतोष से जिसने दोस्ती बाँधी, उसकी दौड़ ही गयी। उसकी आपाधापी समाप्त हो जाती है। संतोष का सूत्र उलटा है। संतोष कहता है—जो है, वही सार्थक है। जो नहीं है, उसमें क्या रखा है! जो अपने पास है, वही धन्यभाग है। और जो अपने पास नहीं है, उसमें कुछ भी नहीं है। संतोष से जिसने दोस्ती बाँध ली, वह अगर सुखी न होगा तो क्या होगा? और असंतोष से जिसने दोस्ती बाँधी, अगर वह दुःखी न होगा तो क्या होगा? असंतोष की सहज निष्पत्ति दुःख है। अगर तुम मेरी बात ठीक से समझो तो असंतोष में जीनेवाला मन ही नरक में जीता है। संतोष में जीनेवाला मन स्वर्ग में जीता है। जिसने संतोष बना लिया, स्वर्ग बना लिया।
स्वर्ग और नरक भौगोलिक अवस्थाएँ नहीं हैं; कहीं भूगोल में नहीं हैं, किसी नक्शे में नहीं मिलेंगे, मनोदशाएँ हैं। मनोवैज्ञानिक हैं। संतोषी आदमी में तुम स्वर्ग पाओगे। उसके पास तुम्हें स्वर्ग के फूल खिलते मिलेंगे। उसके पास तुम्हें स्वर्ग की आभा मिलेगी। धूल में भी बैठा होगा तो तुम उसे महल में पाओगे। क्योंकि धूल को भी महल बना लेने की कला उसके पास है, कीमिया उसके पास है। संतोषी आदमी के हाथ में जादू है। रूखी रोटी खाएगा तो ऐसे कि सम्राट भीर् ईष्यालु हो जाएँ। नंगा भी चलेगा रास्ते पर तो ऐसे कि सम्राटों की बड़ी—बड़ी शोभायात्राएँ फीकी पड़ जाएँ। देखा नहीं है महावीर को नग्न चलते हुए रास्तों पर? देखा नहीं है महावीर के चरणों में सम्राटों को झुकते हुए? क्या था इस आदमी के पास? लंगोटी भी न थी। मगर एक मस्ती थी। यह मस्ती कहाँ से आयी थी? इस मस्ती का खजाना कहाँ मिला था? संतोष से दोस्ती बाँध ली थी। और यह सम्राटों को क्यों झुकना पड़ रहा था महावीर के सामने, जिनके पास सब था? असंतोष से दोस्ती थी। सोचते थे कि शायद सम्राट होकर तो मिला नहीं, अब फकीर होकर मिल जाए। चलो फकीर के चरणों में बैठें। यह भी असंतोष की ही दौड़ है। संसार में नहीं मिला, तो चलो अब हिमालय पर चले जाएँ। यह भी असंतोष का नया कदम है : ध्यान रखना, संन्यास अगर असंतोष से ही उठता हो, तो गलत होगा। अगर संतोष से उठता होगा तो सम्यक् होगा। और दोनों में जमीन—आसमान का फर्क होगा।
भगोड़ा संन्यासी असंतोष से ही संन्यासी है। असंतोष से कोई संन्यासी है, मतलब अभी भी संसारी है। बाजार में रहकर देख लिया, नहीं पाया। असंतोष ने कहा—बाजार में क्या रखा है, पागल! असंतोष को समझ लेना। असंतोष सब तरह की भाषाएँ जानता है। आध्यात्मिक भाषा भी जानता है। असंतोष बड़ा कुशल है। उसने देखा तुम्हें कि अब तुम बाजार से ऊबे जा रहे हो, वह कहता है कि बिल्कुल ठीक ही है, बाजार में रखा क्या है? और मजा यह है कि यही असंतोष जिंदगी—भर तुमसे कहता रहा कि बाजार में सब रखा है। तुम्हारा अंधापन अद्भुत है। पहले भी इसकी माने चले गए, अब भी इसकी मान लेते हो। यही कहता था बाजार में सब रखा है, धन में सब रखा है, पद—प्रतिष्ठा में। इसके पहले कि यह देखता है कि हवा बदलने लगी, अब तुम चौंकने लगे, अब तुम जागने लगे थोड़े, यह कहता है—यहाँ क्या रखा है? पागल, मैं तो पहले ही से कहता था! यहीं होता तो त्यागीत्तपस्वी जंगल जाते! असली चीज जंगल में है। जंगल में मंगल है। चल जंगल। छोड़। छोड़ पत्नी, छोड़ घर—द्वार। और तुम सोचते हो—बड़े संन्यास की आकांक्षा उठ रही है! तुम्हें असंतोष ने फिर धोखा दिया। अब यह तुम्हें जंगल में बिठा देगा। और वहाँ भी थोड़े दिन बैठकर तुम पाओगे, कुछ नहीं मिल रहा है। और यही असंतोष तुमसे कहेगा—पहले ही कहा था कि जंगल में मंगल, यह सब फिजूल की बकवास है! अपने घर लौट चलो। जो है वहीं है, संसार में है। थोड़ी और चेष्टा करते तो मिल जाता। दो—चार कदम चलने की बात थी, मंजिल के करीब आ—आकर आ गए? मूढ़ हो, नासमझ हो। जो पीछे रह गए हैं, देखो मजा कर रहे हैं। और तुम यहाँ बैठे गुफा में क्या कर रहे हो?
मगर तुम्हारा अंधापन ऐसा है कि तुम असंतोष से कभी पूछते ही नहीं कि तू पहले यह कहता था, अब तू यह कहता है, तू बदलता जाता है? नहीं, दोस्ती गहरी है, दोस्त पर भरोसा होता है। भरोसे का नाम ही तो दोस्ती है।
रज्जब कहते हैं—यह दोस्ती छोड़ो। इसने तुम्हें जन्मों—जन्मों भटकाया है, नरकों की यात्रा करवायी है, दुःख से और महादुःख में ले गया है, यह दोस्ती छोड़ो। अब एक नयी दोस्ती बनाओ, संतोष से दोस्ती बनाओ।

मन रे, करु संतोष सनेही।
प्यारे, संतोष को पकड़ो। संतोष से प्रेम लगाओ। संतोष से भाँवर पाड़ो। असंतोष के साथ रहकर बहुत देख लिया, कुछ भी न पाया, अब तो चेतो! संतोष का मतलब होता है—जो है, धन्य मेरा भाग! असंतोष कहता है—इतना ही! और होना चाहिए, मैं अभागा हूँ! संतोष कहता है—जो है, धन्य मेरा भाग! इससे भी कम हो सकता था। जो है, इतना भी क्या कम है! इतना भी होना ही चाहिए, इसकी कोई अनिवार्यता थोड़े ही है! यह भी परमात्मा की देन है। मैं अनुगृहीत हूँ।
बस इस अनुग्रह की भाषा में जीवन का रूपांतरण हो जाता है। तब तुम जहाँ हो, अचानक पाते हो वहीं स्वर्ग की धुन बजने लगी। बज ही रही थी, सिर्फ तुम्हारे असंतोष के कारण सुनायी नहीं पड़ती थी। तुम्हारे आसपास देवदूत निरंतर मौजूद थे, मगर असंतोष से भरी ऑंखें देख नहीं पाती थीं। तुम सदा से ही इसके हकदार और मालिक थे, मगर असंतोष की दोस्ती तुम्हें बहुत दूर ले गयी—अपने से दूर ले गयी।
संतोष तुम्हें अपने पास ले आता है। क्यों? क्योंकि असंतोष की प्रक्रिया में दूर जाना जरूरी है। असंतोष तुम्हारी ऑंखों को दूर और दूर रखता है। वह कहता है—वहाँ चलो, चाँद पर चलो; भविष्य में, आगे, और आगे; आज थोड़े ही मिलने वाला है सुख, कल मिलेगा सुख। असंतोष कहता है—कल ज्यादा दूर थोड़े ही है! थोड़ा ही, चार कदम की यात्रा और है। और कल कभी आता नहीं। और कल भी असंतोष यही कहेगा कि थोड़ा और, थोड़ा और—चले चलो, चले चलो! असंतोष धीरज बँधा जाता है और अतृप्ति को जगाए जाता है। चलाए रखता है, चलाए रखता है, चलाए रखता है, दौड़ाता है। और जिस दिन तुम गिरते हो तो कब्र में ही पहुँचते हो। और कहीं नहीं पहुँचते।
संतोष कहता है—वहाँ नहीं, यहाँ। कल नहीं, अभी। इस क्षण सब है। संतोष से दोस्ती बाँधते ही इस क्षण के अतिरिक्त समय का और कोई अर्थ नहीं रह जाता है। यही क्षण सारा अस्तित्व हो जाता है। हो जाने दो इसी क्षण को सारा अस्तित्व! चलो थोड़ी ही देर को सही, मेरे साथ! इस क्षण संतोष से दोस्ती बाँध लो! ये हवाओं में लहराते हुए वृक्ष, यह सन्नाटा, यह मेरा होना, तुम्हारा होना, यह आमना—सामना, यह इस क्षण में जो घट रहा है इसके पार मत देखो, बस इसी में ऑंखें गड़ाओ, और तुम अचानक पाओगे—तुम किसी सुख के स्रोत के करीब आने लगे। अचानक भीतर से एक शांति उमगेगी और तुम्हें घेर लेगी। चूक जाओगे तुम इससे फिर, क्योंकि असंतोष इतनी जल्दी दोस्ती नहीं छोड़ देगा। दोस्ती बनानी आसान है, छोड़नी बहुत मुश्किल होती है। विवाह करने बहुत आसान, तलाक में अदालतें बड़ी झंझटें देती हैं। फिर पकड़ लेगा। फिर असंतुष्ट। फिर दुःखी। फिर चिंतित। फिर आतुर भविष्य के लिए। लेकिन जब भी तुम अवसर दोगे संतोष को, क्षण—भर को ही सही संतोष से नाता बाँधोगे, उसी क्षण तुम पाओगे वर्षा हो जाती है अनंत की। ये ही क्षण ध्यान के क्षण हैं। और इन्हीं क्षणों के राज़ को जिसने समझ लिया, वह समाधि को उपलब्ध हो जाएगा।
समाधि का क्या अर्थ है? संतोष से दोस्ती थिर हो गयी। अडिग हो गयी। असंतोष के हमले बंद हो गए। समाधि शब्द को देखते हो? उसी धातु से बना है जिससे समाधान। समाधान का अर्थ होता है—अब कोई असमाधान नहीं है चित्त में। ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए, ऐसी कोई चिंता नहीं है चित्त में, अब कोई समस्या नहीं है चित्त में। अब तो जैसा है वैसा है—"ज्यूँ का त्यूँ ठहराया'
मन रे, करु संतोष सनेही।
नहीं तो घूमोगे भिखारी बने—बने। बन जाओ सम्राट! जब्त भी कब तक हो सकता है? सब्र की भी इक हद होती है।

पल भर चैन न पानेवाला, कब तक अपना रोग छिपाए?
"शाद' वही आवारा शायर, जिसने तुझको प्यार किया था
नगर—नगर में धूम रहा है, अरमानों की लाश उठाए।
सब घूम रहे हैं अरमानों की लाश उठाए। तुमने कहानी सुनी है न—
पार्वती की मृत्यु हो गयी। और शिव पार्वती की लाश को लेकर देश—भर में घूमने लगे। इस आशा में कि कभी फिर जग जाएगी। इस आशा में कि किसी पुण्यत्तीर्थ में कोई चमत्कार हो जाएगा। इस आशा में कि मैं मृत्यु से हारूँगा नहीं, जीवन पर भरोसा रखूँगा। पार्वती की लाश को लिए शिव घूमते हैं सारे देश में। कथा प्यारी है! कथा सांकेतिक है। अंग—अंग पार्वती के सड़ते जाते हैं और गिरते जाते हैं। मगर शिव की आशा नहीं गिरती।
तुम सब भी लाशें लिए घूम रहे हो। तुम्हारे अरमानों की लाशें, तुम्हारे सपनों की लाशें, तुम्हारी आकांक्षाओं की लाशें—कितनी लाशें लिए तुम घूम रहे हो! और लाशें सड़ती हैं, दुर्गंध भी दे रही हैं, उनके अंग—अंग भी गिरते जाते हैं, मगर तुम हो कि जागते नहीं। तुम पुरानी लाशें तो ढो ही रहे हो, तुम फिर नई लाशों के आयोजन कर रहे हो। नए अरमान, नए वासनाओं के जाल निर्मित कर रहे हो। मरने के पहले तुम अपने को कितनी लाशों से नहीं घेर लोगे!
संतोष से दोस्ती करो। उस दोस्ती से होते ही सारी लाशों से छुटकारा हो जाता है। संतोष से दोस्ती होते ही अतीत से छुटकारा हो जाता है, भविष्य से छुटकारा हो जाता है, वर्तमान ही सब कुछ हो जाता है।
खयाल करो, अतीत की इतनी याद क्यों आती है? इसीलिए कि भविष्य से अभी लगाव है। तुम थोड़ा चौंकोगे, अतीत भविष्य का ऐसा क्या लेना—देना! गहरा लेना—देना है। अतीत से लगाव है, क्योंकि अतीत मिला कुछ नहीं उसमें, सिर्फ घाव—ही—घाव हैं, और उन्हीं घावों के लिए तुम भविष्य में मलहम खोज रहे हो। दोनों जुड़े हैं। घावों को उकसाना पड़ेगा, तो ही तो मलहम की तलाश जारी रहेगी। तुम्हारा भविष्य क्या है? तुम्हारे अतीत की आकांक्षाओं का ही प्रक्षेपण है। और इन दोनों के बीच में तुम चूके जा रहे हो। इन दोनों के बीच में है क्षण वर्तमान का। वही वास्तविक क्षण है। वही असली है। अतीत स्मृति है, भविष्य कल्पना है, वर्तमान सत्य है। लेकिन स्मृति और कल्पना के बीच में सत्य को झुठलाया जा रहा है। छोड़ो अतीत से नाता, छोड़ो भविष्य से नाता, हो रहो इसी क्षण के! एकरस हो जाओ इस क्षण से, तन्मय हो जाओ इसी क्षण में! यही तो ध्यान की परिभाषा है। यही प्रेम की परिभाषा है। जब अतीत और भविष्य मिट जाता है, तो तुम जिस घड़ी में होते हो— अगर अकेले हो तो ध्यान है, अगर उस घड़ी में किसी का संग—साथ है तो प्रेम है। मगर दोनों का स्वाद एक है। वर्तमान है दोनों का स्वाद।

मन रे, करु संतोष सनेही।
तृस्ना तपति मिटै जुग—जुग की, दुख पावै नहिं देही।।
संतोष से दोस्ती हो जाए तो तृष्णा तृप्त हो जाए। प्यास बुझ जाए। भूख भर जाए। "तृस्ना तपति मिटै जुग—जुग की'। और यह तृष्णा कोई नयी नहीं है, जुग—जुग की है—अनंतकालीन है। मगर एक क्षण में मिट जाती है संतोष से दोस्ती छुयी कि मिट गयी। संतोष से दोस्ती साधुता का आधार है, संन्यास का आधार है।
"दुख पावै नहिं देही'। और खूब तुमने दुःख दे लिए हैं अपनी आत्मा को। और व्यर्थ दिए हैं दुःख। हकदार तो सुखों के थे, मालकियत तो थी तुम्हारी फूलों के लिए, लेकिन काँटे चुनते रहे हो। और अब भी नहीं मानते; अब भी नहीं जागते। एक असंतोष मिट नहीं पाता कि तुम दस नए निर्मित कर लेते हो। फिर चले दौड़े! भागना ही तुम्हारे जीवन का एकमात्र ढंग हो गया है? तुम रुकना ही भूल गए हो? रुको! ठहरो! परमात्मा यहीं है। अभी है। इसी क्षण है। न दूर आकाश में है, न कहीं बैकुंठ में है, न किसी मोक्ष में है, संतोष में है।

मिल्या सुत्याग माहिं जे सिरज्या, गह्या अधिक नहिं आवै
ध्यान दो इस सूत्र पर विरोधाभासी सूत्र है। लेकिन सत्य अक्सर विरोधाभासी होता है। जीसस का प्रसिद्ध वचन है—जो बचाएँगे, गँवा देंगे; जो गँवाने को राजी हैं, उनका बच जाएगा। उल्टा गणित मालूम होता है। उल्टा इसीलिए मालूम होता है कि हम जिस तरह की जिंदगी जिए हैं अब तक, वही उल्टी रही है। अब उसको सीधा करना उल्टा मालूम होता है।
"मिल्या सुत्याग माहिं जे सिरज्या'। रज्जब कहते हैं—परमात्मा ने जो दिया है, उसको वे ही भोग सके हैं जिन्होंने उस पर पकड़ नहीं रखी; जिन्होंने उस पर मुट्ठी नहीं बाँधी। याद करो उपनिषद् का वचन—"तेन त्यक्तेन भु**१८२**ाीथाः'। उन्होंने ही भोगा, जिन्होंने त्यागा। अनूठा वचन है। इस एक वचन में सारे शास्त्रों का सार आ गया है। वे ही भोगना जानते हैं जो पकड़ने से मुक्त हैं। पकड़नेवाला भोग ही नहीं पाता। तुम देखते हो न कृपण को, कंजूस को, वह गरीब से भी ज्यादा गरीब होता है। और ऐसा नहीं कि उसके पास है नहीं, मगर वह पकड़कर बैठा है। तुमने कहानियाँ सुनीं न कि कृपण मर जाते हैं तो अपने गड़े धन पर साँप होकर बैठ जाते हैं। जिंदगी में भी वे यही किए थे—साँप होकर बैठे थे, पहरा ही देते रहे थे। मर कर भी यही करेंगे। कहानियों में सार है। क्योंकि जिंदगी—भर जो किया है, उसका अभ्यास ऐसा हो जाता है कि मरकर कुछ अन्यथा करोगे कैसे? एक विशेषज्ञ मरा। विशेषज्ञ था कुशलता का, "इफीसिएंसी एक्स्पर्ट' था। काम ही उसका यही था कि दफ्तर में जहाँ चार आदमी हैं वहाँ एक से काम चलवा देना। जो काम दो घंटे में होता है, वह पंद्रह मिनट में करवा देना। उसकी बड़ी ख्याति थी। वह मरा। कहते हैं जब उसकी अर्थी उठायी गयी, तो उसने ढक्कन खोला और बोला कि यह क्या हो रहा है? चार आदमियों की क्या जरूरत है? दो चाक लगा दो, एक ही आदमी से मरघट पहुँचना हो जाएगा।
बात ठीक मालूम पड़ती है। जिंदगी—भर यही काम किया था—कम आदमियों से कैसे ज्यादा काम लेना?मरते वक्त भी कैसे भूल जाएगा? मरकर भी कैसे भूल जाएगा? उसके प्राण छटपटा गए होंगे जब देखा होगा कि चार आदमी अर्थी उठा रहे हैं! यह तो एक से हो सकता है, सिर्फ दो चक्के लगाने की जरूरत है। इसलिए चार आदमियों का श्रम व्यर्थ करना!
कहानियाँ ठीक ही कहती हैं कि कृपण मरता है तो साँप होकर बैठ जाता है। जिंदगी—भर यही तो अभ्यास किया था उसने। भोगा कब? धन था तो भी भोगा कहाँ? रक्षा करता रहा। धनी इस दुनिया में बहुत कम हैं, रखवाले हैं। कोई दूसरे के धन की रखवाली करते हैं, कुछ अपने धन की रखवाली करते हैं; मगर रखवाली तो रखवाली है, फर्क क्या पड़ता है!
"मिल्या सुत्याग माहिं जे सिरज्या'
परमात्मा ने जो रचा है, वह उन्हीं को मिला है जिन्होंने त्याग की कला जानी। त्याग की कला क्या है? संतोष से दोस्ती त्याग की कला है। ऐसी परिभाषा किसी और ने नहीं की साफ—साफ। रज्जब ने बिल्कुल गणित का सूत्र दे दिया। त्याग की परिभाषा संतोष। तुम थोड़े चौंकोगे। क्योंकि तुमने तो त्याग भी किया है तो असंतोष के कारण किया है। कोई आदमी सब छोड़कर चला जाता है, वह कहता है—छोड़ेंगे नहीं तो स्वर्ग कैसे मिलेगा? स्वर्ग पाने की आशा में संसार छोड़ रहा है। यह त्याग नहीं है। यह भोग की प्रबल वासना है। इस पत्नी को छोड़ रहा है कि स्वर्ग में हूरें मिलेंगी, सुंदर अप्सराएँ मिलेंगी। सपने देख रहा है। यहाँ शराब नहीं पीता, स्वर्ग में शराब के चश्मे बहते हैं। वहाँ दिल खोलकर पीएगा। यहाँ—यहाँ जो—जो भोग छुड़वाने को धर्मशास्त्र कहते हैं—उन्हीं—उन्हीं भोगों की व्यवस्था उन्होंने स्वर्ग में की है। ये धर्मशास्त्र भी अद्भुत हैं! जब यहीं छुड़वाना है, तो फिर वहाँ इंतजाम क्या करवाना? और अगर वहाँ इंतजाम ही होना है, तो उमर खैय्याम ठीक कहता है कि फिर अभ्यास यहाँ करने दो। नहीं तो अभ्यास ही नहीं होगा। तुम कहते हो—स्वर्ग में चश्मे बहते हैं शराब के; और यहाँ शराब का अभ्यास न किया तो पिएगा कौन? तुम कहते हो—वहाँ सुंदर—सुंदर स्त्रियाँ हैं; और यहाँ स्त्रियों से बचने का उपदेश दिया जा रहा है। तो फिर उनको भोगेगा कौन? उमर खैय्याम की बात में तर्क मालूम पड़ता है। मजाक वह ठीक कर रहा है। वह तुम्हारे त्यागियों की मजाक कर रहा है, वह कह रहा है—ये त्यागी इत्यादि नहीं हैं, ये सब झूठी बकवास है। त्याग के नाम पर भी भोग की आकांक्षा है। और कुछ ज्यादा पाने की इच्छा है। यह सौदा है। व्यवसाय है, त्याग नहीं है।
शास्त्र कहते हैं—गंगा के किनारे अगर एक रुपया दान दो तो स्वर्ग में एक करोड़ गुना मिलता है। मगर यह कौन—सा त्याग हुआ? और एक रुपए में एक करोड़ गुना! तो लॉटरी सरकारें ही नहीं खिला रही हैं, भगवान भी खिला रहा है। लॉटरी हो गयी। एक रुपया आदमी छोड़ देता है गंगा के किनारे इस आशा में कि स्वर्ग में करोड़ गुना मिलेगा। मगर यह आशा असंतोष है। यह वासना असंतोष है। यह त्याग नहीं है। यह छोटा त्याग है बड़े भोग के लिए।
रज्जब कहते हैं—"मिल्या सुत्याग माहिं जे सिरज्या'। लेकिन भोगा उन लोगों ने है जो त्याग की असली कला जानते हैं। त्याग की असली कला क्या है? आज सब कुछ है। जो है, उसमें परम आनंद। कल है ही नहीं। कल के लिए बचाना क्या है जब कल है ही नहीं? कल के लिए इकट्ठा क्या करना है जब कल है ही नहीं? कल के लिए पकड़ना क्या है जब कल है ही नहीं?
मुहम्मद रोज रात सोने के पहले पत्नी को कहते थे—जो भी दिन में इकट्ठा हो गया हो, बाँट दे। कल का क्या भरोसा है? हम हों न हों। और फिर जिसने आज दिया है, अगर कल होगा तो वह कल भी देगा। यही संतोष है। जिंदगी—भर तो पत्नी मानती रही। फिर स्त्री आखिर स्त्री! मुहम्मद बीमार हुए। आखिरी घड़ियाँ करीब आ गयीं। उस रात पत्नी ने उनकी बात नहीं सुनी। उसे डर लगा। रात, आधी रात दवा की जरूरत पड़ जाए, वैद्य की जरूरत पड़ जाए तो फीस कहाँ से चुकाऊँगी? तो कुछ बचा लेना जरूर—ज्यादा नहीं बचाया, पाँच रुपए, पाँच दीनार छिपाकर रख दिए।
मुहम्मद आधी रात करवट बदलने लगे। पत्नी ने कहा—कुछ बेचैनी है? कोई तकलीफ है? दवा का इंतजाम करें? वैद्य को बुलाएँ? उन्होंने कहा—न दवा की जरूरत है, न वैद्य की, मुझे ऐसा लगता है कि तूने घर में कुछ बचा रखा है। उससे मेरे प्राण अटके हैं। मैं क्या जवाब दूँगा परमात्मा को कि आखिरी दिन भरोसा नहीं किया। पत्नी तो बहुत घबड़ायी। जल्दी से उसने पाँच दीनार लाकर कहा कि मैंने जरूर बचा लिए, मुझे क्षमा करें, इसी खयाल से कि कब जरूरत पड़ जाए वत्त बेवत्त, बिमारी—बूड़ापा मोहम्मद ने कहा जल्दी बांट दे! उसने कहा— में बाँटूँ भी तो किसको? आधी रात कौन होगा? मुहम्मद ने कहा—जिसने मुझे याद दिलायी है कि पाँच रुपये घर में अटके हैं उसने किसी को जरूर भेजा होगा, तू दरवाजा तो खोल। और दरवाजा खोला तो देखा एक भिखारी खड़ा है—आधी रात! और उसने कहा कि मैं बड़ी मुसीबत में हूँ, पाँच रुपए की जरूरत है। वे पाँच रुपए उस भिखारी को दे दिए गए; मुहम्मद ने चादर ओढ़ ली और कहते हैं चादर ओढ़ते ही उनके प्राण छूट गए।
संतोष के बड़े आयाम हैं। समय की दृष्टि से वर्तमान में जीना संतोष है। पकड़ की दृष्टि से जो मिल जाए उसे बिना पकड़े भोग लेना संतोष है। बिना पकड़े, बिना दावेदार हुए, बिना मालकियत जताए। परिग्रह की दृष्टि से अपरिग्रह संतोष है। श्रद्धा की दृष्टि से, यह भरोसा, कि जिसने आज दिया है कल भी देगा संतोष है। संतोष के गुण बहुत हैं। एक संतोष तुम्हारे जीवन को न—मालूम कितनी दिशाओं से रूपांतरित कर देगा। इसलिए रज्जब कहते हैं—दोस्ती कर लो, संतोष से दोस्ती कर लो।

मिल्या सुत्याग माहिं जे सिरज्या, गह्या अधिक नहिं आवै
कहते हैं—तुम कितना ही पकड़ने की कोशिश करो, अधिक नहीं हो पाएगा। "गह्या अधिक नहिं आवै' तुम कितना ही गहो, अधिक नहीं हो पाएगा। क्योंकि असंतोष से अगर दोस्ती रही, तो असंतोष इतना कुशल है कि हर चीज को कम बताने की उसकी आदत है। लाख होंगे तो वह कहेगा—लाख में क्या होता है, दस लाख चाहिए। दस लाख होंगे तो वह कहेगा दस लाख में क्या होता है—करोड़ चाहिए। असंतोष की सारी प्रक्रिया यह है कि जो है, उससे बड़े की कल्पना देता है। और बड़े की कल्पना में जो है वह छोटा हो जाता है। छोटा हो जाता है, पीड़ा शुरू हो जाती है। अतृप्ति हो जाती है। काँटा चुभने लगता है। दौड़ शुरू हो जाती है। और यह दौड़ कभी अंत नहीं हो सकती जब तक असंतोष से दोस्ती ही न छूट जाए। असंतोष से दोस्ती छूटते ही जो भी है, वह जरूरत से ज्यादा है।
मैंने सुना है, एक फकीर के पास छोटा—सा झोंपड़ा था। बस पति और पत्नी दोनों सो लेते, इतनी उसमें जगह थी। एक रात जोर से वर्षा होती थी, अमावस की रात और एक आदमी ने दरवाजे पर दस्तक दी। पति ने कहा—द्वार खोल दे। पत्नी ने कहा कि ठीक नहीं द्वार खोलना, वर्षा जोर की है, कोई शरण चाहता होगा, जगह कहाँ है? पति ने कहा—कोई फिकर नहीं, दो के सोने—योग्य जगह है, तीन के बैठने—योग्य होगी; दरवाजा खोल। दरवाजा खोला। एक मेहमान भीतर आया, उसने कहा—क्या मैं रात—भर विश्राम कर सकता हूँ? पति ने कहा मजे से। तीनों बैठ गए, गणशप शुरू होने लगी। फिर किसी ने थोड़ी देर बाद दस्तक दी। पति ने पत्नी से कहा—खोल। उसने कहा—अब बहुत मुश्किल हो जाएगी। जगह कहाँ है? पति ने कहा कि तीन ज़रा दूर—दूर बैठे हैं, चार ज़रा पास—पास बैठेंगे। जगह की क्या कमी है, हृदय चाहिए; दरवाजा खोल। वह आदमी भी भीतर ले लिया। फिर थोड़ी देर में एक आदमी आ गया और उसने दस्तक दी। रात है और रास्ता ऍ?धेरा—भरा है और लोग भटक गए हैं रास्ते पर और मार्ग नहीं खोज पा रहे हैं। पति ने कहा—दरवाजा खोल। पत्नी ने कहा—बहुत हुआ जा रहा है। पति ने कहा—अभी ज़रा सुविधा से बैठे हैं, फिर थोड़ी असुविधा होगी, जगह की कहाँ कमी है? और प्रेम हो, तो असुविधा क्या है? दरवाजा खोल।
अब तक तो बात ठीक थी, थोड़ी देर बाद एक गधे ने आकर दरवाजे पर जोर से सिर मारा। पति ने कहा—दरवाजा खोल। पत्नी ने कहा—अब सीमा के बाहर बात हुई जा रही है। अब यहाँ जगह कहाँ है? और यह गधा है बाहर! इस गधे को भी भीतर ले आएँ? पति ने कहा—अभी हम बैठे हैं, इसके लिए काफी जगह है, अब हम खड़े हो जाएँगे। मगर जगह काफी है, अभी जगह कम नहीं है। तू गधे को भीतर ले आ। अब तो वे जो लोग तीन पहले भीतर आ चुके थे, उन्होंने भी विरोध किया। उन्होंने कहा कि यह बात ठीक नहीं है। पति ने कहा—तुम अपनी सोचो! तुम्हें पता है, यह पत्नी पहले ही से विरोध कर रही थी! अब तुम भी विरोध कर रहे हो। यह कोई अमीर का महल नहीं है जिसमें जगह की कमी हो, यह गरीब का झोंपड़ा है। यह वचन बड़ा अद्भुत है—यह कोई अमीर का महल नहीं है—उस फकीर ने कहा—जिसमें जगह की कमी हो, यह गरीब का झोंपड़ा है, इसमें जगह की क्या कमी है? आने दो। गधा भी भीतर आ गया, वे सब खड़े हो गए। अब खड़े होकर गपशप चलने लगी। और उस फकीर ने कहा—देखते हो, जगह बन जाती है, हृदय चाहिए।
संतोष विराट है। असंतोष बड़ा क्षुद्र है। असंतुष्ट आदमी के पास महल भी हो तो छोटा है, और संतुष्ट आदमी के पास झोंपड़ा भी हो तो बड़ा है। संतुष्ट आदमी जीवन की कला जानता है।

मिल्या सुत्याग माहिं जे सिरज्या, गह्या अधिक नहिं आवै

तामें फेर सार कछू नाहीं राम रच्या सोइ पावै।।
और खयाल रखो—यह संतोष की नयी—नयी भाव—भंगिमाएँ समझा रहे हैं—वे कहते हैं, "तामें फेर सार कछु नाहीं,' जो तुम्हें मिला है, उसमें फेर—फार करने की बहुत चेष्टा मत करो; क्योंकि उसमें कभी कोई फेर—फार होता नहीं। धोखे होते हैं फेर—फार के, लेकिन फेर—फार नहीं होता। गरीब अमीर हो सकता है, लेकिन गरीबी नहीं मिटती। फेर—फार ऊपरी होते हैं। तुम बीमार आदमी को सुंदर वस्त्र पहना दो और मुकुट पहना दो और राजसिंहासन पर बिठा दो, क्या फर्क पड़ता है? उसकी बीमारी उसे भीतर खाए जा रही है। फटे—पुराने कपड़ों में बीमार था, अब सुंदर लबादों में बीमार है, मगर फर्क क्या है? तुम असंतुष्ट आदमी को धन दे दो, वह गरीब था, अब भी गरीब है, कुछ भेद नहीं पड़ता। अज्ञानी के हाथ में शास्त्र दे दो, वह कंठस्थ कर लेगा शास्त्र, अज्ञानी था, अज्ञानी ही रहेगा। शास्त्र के कंठस्थ करने से कुछ भी नहीं होता। हाँ, और वहम पैदा हो जाएगा कि मैं ज्ञानी हूँ।
"तामें फेर सार कछू नाहीं'
संतोष को जिसने जाना है, वह कहता है, कि इस जिंदगी में फर्क होते ही नहीं। तुम लाख दौड़धूप करो, जिंदगी वैसी—की—वैसी बनी रहती है। यहाँ—वहाँ थोड़े रंग इत्यादि बदल लो, मगर तुम वैसे—के—वैसे बने रहते हो। कुछ भेद नहीं आता। तो फिर दौड़धूप का सार क्या है? फिर इतनी आपाधापी क्यों है?
"राम रच्या सोइ पावै'। और जो परमात्मा देता है वही मिलता है, तुम्हारे पाने से नहीं मिलता। "राम रच्या सोइ पावै'। संतोष का अर्थ है, उसे देना होगा तो देगा, उसे नहीं देना होगा तो नहीं देगा। देगा तो धन्यवाद, नहीं देगा तो धन्यवाद। क्योंकि वह जानता है हमारी जरूरत क्या है। कभी हमारी जरूरत होती है कि हमें मिले और कभी हमारी जरूरत होती है कि हमें नहीं मिले। कभी हमारा विकास न मिलने से होता है, और कभी हमारा विकास मिलने से होता है। और वह जानता है, यह श्रद्धा संतोष है।

यह सब तेरी देन है दाता मैं इसमें क्या बोलूँ
तूने जीवन—जोत जगायी
मैंने पग—पग ठोकर खायी
जिस रास्ते पर डाले तू मैं उस रास्ते पर हो लूँ
यह सब तेरी देन है दाता मैं इसमें क्या बोलूँ

तूने तो मोती बरसाए
मैंने काले कंकर पाए
मैं झोली में कंकर लेकर मोती जानके रो लूँ
यह सब तेरी देन है दाता मैं इसमें क्या बोलूँ

तूने फूल सुहाने बाँटे
मेरे भाग में आए काँटे
मैं झोली में काँटे लेकर फूल समझके तोलूँ!
यह सब तेरी देन है दाता मैं इसमें क्या बोलूँ

तूने भेजे अमरित प्याले
पड़ गए मुझको जान के लाले
मैं विस को भी अमृत जानूँ तेरा भेद न खोलूँ
यह सब तेरी देन है दाता मैं इसमें क्या बोलूँ
भक्त कहता है, संतोषी कहता है तूने तो सदा ही ठीक किया है, मेरे असंतोष के कारण ही मैं चूकता रहा हूँ। तूने फूल भेजे, मैंने काँटे चुन लिए। तूने अमृत का प्याला भेजा, मैंने उसे विष में बदल लिया। तूने सारे जगत को अपूर्व रूप से सुंदर बनाया है, मैंने इसे कुरूप कर डाला। यह सब तेरी देन है दाता मैं इसमें क्या बोलूँ। अब भूल समझ आने लगी है कि अगर दुःख पाए तो हमने अपने कारण पाए। लोग कहते हैं—परमात्मा ने इतना दुःख क्यों बनाया है? तुम्हें न परमात्मा का पता है, न तुम्हें दुःख के रसायन का पता है कि कैसे दुःख निर्मित होता है। परमात्मा ने दुःख बनाए नहीं, सिर्फ तुम्हें स्वतंत्रता दी है। और स्वतंत्रता से बड़ा सुख नहीं है जगत में। मगर तुम उस स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर रहे हो। तुम फूलों को काँटे बना लेते हो, अमृत को विष बना लेते हो, मोतियों को कंकड़ बना लेते हो, और फिर दोष देते हो परमात्मा पर।

जिस रस्ते पर डाले तू मैं उस रस्ते पर हो लूँ
यही संतोष है। अपनी तरफ से मैं अब कुछ भी न करूँगा। तुझसे भिन्न कुछ भी न करूँगा। अगर तेरी मर्जी मुझे गरीब रखने की है, तो गरीब रहूँगा। और तेरी मर्जी अगर मुझे अमीर रखने की है, तो अमीर रहूँगा। खयाल रखना, पहली मर्जी तो तुमने बहुत बार सुनी है साधुओं—संन्यासियों से, दूसरी मर्जी तुमने नहीं सुनी क्योंकि तुम्हारा साधु—संन्यासी भी असली संतोषी नहीं है। एक है, जो कहता है जब तक धनी न होऊँगा तब तक रुकूँगा नहीं। दूसरा कहता है —धन? कभी नहीं। मैं तो निर्धन होकर रहूँगा! एक धन का गौरव गाता है, दूसरा दरिद्रता का गौरव गाता है।
इस देश में तो दरिद्रता का गौरव बहुत गाया गया है। उसी गौरव के कारण तुम दरिद्र हो गए हो। अभी भी तुम्हारे महात्मा दरिद्रता को दरिद्रनारायण का नाम दिए जाते हैं। ठीक है, फिर तुमने दरिद्र होने का तय ही कर लिया है। उसकी तरफ से तो मोती बरसते हैं मगर तुम काँटे बना लेते हो। यहाँ कोई भी दरिद्र होने को पैदा नहीं हुआ है। परमात्मा से आए हैं सब, कैसे दरिद्र हो सकते हैं! हमने इस देश में परमात्मा को जो नाम दिया है उस पर कभी खयाल किया? ईश्वर कहां है उसे। ईश्वर का अर्थ होता है—ऐश्वर्य। जिसका सारा ऐश्वर्य है, जिसकी सारी महिमा है, जिसका सारा धन है। हम उससे आए, उसकी किरणें, उसकी संतति, हम कैसे दरिद्र हो सकते हैं! लेकिन कुछ लोगों ने जिद्द कर रखी है कि अमीर होकर रहेंगे। जो आदमी कहता है मैं अमीर होकर रहूँगा, वह भी चूक रहा है। क्योंकि अमीर हम हैं, होने की जरूरत नहीं है।
एक भूल कि मैं अमीर होकर रहूँगा। अमीर थे ही, होने की क्या जरूरत थी? भूल में पड़ गए। फिर अमीर होने की चेष्टा में बहुत दुःख पाए। तो जिद्द दूसरी पैदा हुई एक दिन कि मैं अब गरीब होकर रहूँगा। यह अक्सर हो जाता है। आदमी विपरीत पर चला जाता है। अमीरी में बहुत दुःख पाए, एक दिन आदमी कहता है कि बहुत हो गया, अमीरी में दुःख मिल रहे हैं। अमीरी में दुःख नहीं मिल रहे हैं मैं तुमसे कहता हूँ, असंतोष में दूख मिल रहे हैं। अमीरी क्या दुःख देगी! जब गरीबी तक दुःख नहीं दे सकती तो अमीरी कैसे दुःख देगी? असंतोष में दुःख मिल रहा है।
मगर असली चीजें हम देखते ही नहीं। हम कहते हैं—अमीरी में दुःख मिल रहा है। अमीरी छोड़कर रहूँगा। मैं गरीब होकर रहूँगा। अब गरीब होने चले! मगर यात्रा जारी है। पहले गरीब से अमीर होने का असंतोष था, अब अमीर से गरीब होने का असंतोष है, लेकिन असंतोष से तुम्हारा नाता नहीं टूटता।
मैं तुमसे जो कह रहा हूँ, उसकी क्रांति समझो। मैं तुमसे यह कह रहा हूँ—जो हो, जहाँ हो, जैसे हो, उससे अन्यथा होने की बात ही छोड़ दो। अगर उसके इरादे गरीब होने के हैं, तो गरीब; उसका इरादा अमीर रखने का है, तो अमीर। और तुम तब चकित हो जाओगे। जो तुम हो, जहाँ हो, जैसे हो, वैसे ही राजी हो जाओ। उस राजीपन में ही असली धन पैदा होता है। राजीपन धन है। उस संतोष में धन है। फिर गरीब भी अमीर हो जाता है। अमीर की तो बात ही क्या करनी, गरीब भी अमीर हो जाता है। अमीरी एक ही बात का नाम है—संतोष का।
लेकिन तुमने दोनों तरह के लोग देखे हैं और तुम समझते हो कि दोनों बड़े विपरीत हैं। ज़रा भी विपरीत नहीं हैं। उनका तर्क एक, उनकी तर्कसारणी एक, उनके सोचने की प्रक्रिया एक। असंतोष दोनों का स्वर है।

तामें फेर सार कछू नाहीं राम रच्या सोई पावै।। 
बाछै सरग सरग नहिं पहुँचै, और पताल न जाई। 
वासना से न कोई स्वर्ग पहुँचता है, और न कोई नरक पहुँच सकता है। "बाछै सरग सरग नहिं पहुँचै' तुम्हारी चाह से ही तुम स्वर्ग नहीं जा सकते। चाह से तो तुम कहीं भी नहीं जा सकते। चाह का मतलब है—तुम परमात्मा से लड़ रहे हो। चाह का मतलब है—तुम्हारी निजी आकांक्षा है कुछ। तुम इस विराट की आकांक्षा के साथ एकरस नहीं हो। तुम कहते हो—मैं अपनी खिचड़ी अलग पकाऊँगा। यह जो खिचड़ी पक रही है विराट की, तुम इसमें भागीदार नहीं होना चाहते, तुम कहते हो—मैं अपनी हाँडी अलग चढ़ाऊँगा। ढाई चावल की खिचड़ी तुम अलग पकाना चाहते हो। बस वहीं तुम्हारी पीड़ा है, वहीं तुम्हारी चूक है।
"बाछै सरग सरग नहिं पहुँचै'। तुम्हारी चाहना से थोड़े ही तुम स्वर्ग पहुँचोगे। चाह को छोड़ो और तुम पाओगे—तुम स्वर्ग में ही हो; तुम स्वर्ग में ही थे।

ऐसे जानि मनोरथ मेटहु, समझि सुखी रहु भाई।।
"ऐसे जानि मनोरथ मेटहु'। इतनी बात जान लो कि तुम्हारे करने से कुछ होगा नहीं, तुम्हारे चाहने से कुछ होगा नहीं, तुम्हारे दौड़ने से कुछ होगा नहीं। तुम ही झूठ हो, इसलिए तुमसे जितनी चीज़ें पैदा होती हैं सब झूठ होंगी। राम सच है। तुम राम के साथ एकलीन हो जाओ, वही संतोष है। संतोष का मतलब—तेरी मर्जी सो मेरी मर्जी। मेरी अब कोई अलग मर्जी नहीं। और जिस दिन तेरी मर्जी सो मेरी मर्जी, उस दिन तुम कहाँ बचोगे? तुम तो बचते ही हो मेरी मर्जी की आड़ में। तुम कहते हो कि मैं तो ऐसा चाहता।
यहाँ रोज होता है। संन्यासी आकर मुझसे कहते हैं—हम सब आपके ऊपर समर्पण करते हैं। आप जो कहेंगे, वही हम करेंगे। जो मैं कहता हूँ, करते नहीं! यहाँ तक हो जाता है कि मैं उनसे वही कह रहा हूँ कि यह करो, और वे कहते हैं कि नहीं, हम तो वही करेंगे जो आप कहते हैं।
एक युवती ने संन्यास लिया; कहा कि मैं तो वही करूँगी जो आप कहेंगे। मैंने कहा—ठीक; अब यह पहला काम है कि तू वापिस घर जा। मैं कहीं जा ही नहीं सकती, उसने कहा। मैं तो वही करूँगी जो आप कहेंगे। मैंने कहा— तू सुन रही है? तेरे माँ—बाप दुःखी होंगे, अभी तेरी उम्र भी ज्यादा नहीं, वे परेशान होंगे, अभी तू जा। धीरे—धीरे जब वे राजी हो जाएँगे, तू आ जाना। उसने कहा कि आप मुझे हटा नहीं सकते यहाँ से! मैंने तो सब समर्पण ही कर दिया! और मैं नहीं हटा पाया उसे, दो साल हो गए, तीन साल हो गए, वह नहीं हटती। वह कहती है—समर्पण ही कर दिया! और आप जो कहेंगे वही करने वाली हूँ, मैं तो कुछ अब बची ही नहीं। देखते हैं तरकीब आदमी कैसी खेल लेता है? एक युवक संन्यासी ने पत्र लिखा मुझे कि मेरा मन कुछ दिनों से कुछ समय के लिए वापिस घर जाने का है, अमरीका जाने का है। मगर जो आप कहेंगे, वही मैं करूँगा। मैंने उससे कहा—कोई जाने की अभी जरूरत नहीं है। दूसरे दिन उसका पत्र आया कि आपका उत्तर सुनकर चित्त बहुत उदास हो गया है; चित्त में जाने—ही—जाने की धुन लगी है; हालाँकि जो कुछ आप कहेंगे वही मैं करूँगा। तो मैंने उसे खबर भेजी कि ठीक है, तू चला जा। तब उसका पत्र आया कि मैं अति आनंदित हूँ। इस बात से मेरे हृदय को बड़ी शांति मिल रही है कि जो आप कह रहे हैं, वही मैं करने जा रहा हूँ। देखते हैं मजाक! लोग प्रतीक्षा करते हैं उस समय तक जब तक तुम्हारी मर्जी की बात न कही जाए। तब तक वे कहते रहते हैं कि आप जो कहेंगे वही करेंगे—करते नहीं। जब वही बात कह दो जो वे करना ही चाहते थे पहले से, तब वे कहते हैं—देखो समर्पण! मैं तो सब समर्पित ही कर दिया हूँ! आप तो नरक जाने को कहें तो वहाँ चला जाऊँगा, अमरीका का तो क्या है! जाऊँगा, जब आप कहते हैं तो जरूर जाऊँगा!
आदमी का मन बड़ा बेईमान है।
मुल्ला नसरुद्दीन मस्जिद जाता है। मस्जिद के मौलवी को उसने कहा कि सुबह आने की बड़ी मुश्किल होती है, तय ही नहीं कर पाता, तय ही करने में समय निकल जाता है, कि जाऊँ कि न जाऊँ, जाऊँ कि न जाऊँ; मन में बड़ी दुविधा रहती है, अब आप तो जानते ही हैं। मन दुविधाग्रस्त है मेरा। मौलवी ने कहा—तू एक काम कर, परमात्मा पर छोड़ दे। उसने कहा—यह कैसे तय होगा और पक्का कैसे पता चलेगा कि परमात्मा की मर्जी क्या है? मुल्ला थोड़ा डरा भी, क्योंकि परमात्मा की मर्जी तो निश्चित ही यह होगी कि मस्जिद जाओ। मगर उसने कहा कि पक्का कैसे चलेगा कि परमात्मा की मर्जी क्या है? तो मौलवी ने कहा—तू ऐसा काम कर, एक रुपया रख ले और कहा कि अगर चित गिरे तो परमात्मा चाहता है मस्जिद जाओ, और अगर पुत गिरे तो परमात्मा चाहता है कि मस्जिद मत जाओ।
दूसरे दिन मुल्ला नहीं आया। रास्ते में बाजार में मौलवी को मिला, मौलवी ने पूछा—आए नहीं, भाई? उसने कहा कि आपने कहा था, वही किया। मौलवी ने कहा तो क्या हुआ? पुत गिरा रुपया? उसने कहा कि पहली बार में तो नहीं गिरा। सत्रह बार फेंकना पड़ा, तब पुत गिरा। मगर गिरा। जब पुत गिरा तब फिर मैं निश्चिंत सो गया; मैंने कहा कि अब जब परमात्मा की ही मर्जी है!
आदमी बहुत बेईमान है। अपनी मर्जी को परमात्मा पर भी थोपने की चेष्टा करता है। वहीं से उसके सारे कष्टों का जन्मस्रोत है।
"ऐसे जानि मनोरथ मेटहु'
इस दुःखों के जाल को देखकर अब अपने मनोरथ मिटा दो। यह जो मन के रथों में बैठकर तुम यात्राएँ कर रहे हो—ऐसा हो जाए, वैसा हो जाए; ऐसा बनजाए, वैसा बन जाए; ये जो मन के रथ हैं, इनको अब मिटा दो। अब मन के रथ से उतर आओ।

ऐसे जानि मनोरथ मेटहु,समझि सुखी रहु भाई।।
और फिर? फिर सुख—ही—सुख है। फिर दुःख तो जाना ही नहीं गया है कभी। जिसने भी परमात्मा के चरणों में समर्पण किया, उसने दुःख नहीं जाना। उस समर्पण में ही सारे दुःख मिट जाते हैं। उस समझ में ही सुख का सागर उमड़ आता है। परमात्मा से हमारी दूरी ही इतनी है—मेरी मर्जी। बस उतनी दूरी है।

फिर कहाँ आर्जू का लुत्फ रहा? 
आर्जू हो गयी अगर पूरी
और जन्नत है क्या, जहन्नुम क्या
तेरी कुर्बत है इक तेरी दूरी
बस एक ही सारा उपद्रव है—"तेरी कुर्बत है इक तेरी दूरी'। तुझसे फासला बस जीवन का सारा कष्टों का सार है। तेरी समीपता जीवन के सुखों का सार है। स्वर्ग है तेरी कुर्बत, तेरे पास होना। और नरक है तुझसे दूर होना। दूरी और पास होने के बीच में दीवाल क्या है? मेरी मर्जी या तेरी मर्जी। जिस दिन तुम पूरे हृदय से कह सकोगे—तेरी मर्जी पूरी हो, उस दिन के बाद फिर दुःख नहीं है।


रे मन, मानि सीख सतगुरु की, हिरदै धरि विस्वासा
जन रज्जब यूँ जानि भजन करु, गोविंद है घर वासा।।
"रे मन, मानि सीख सतगुरु की'। इतनी ही तो सीख है सतगुरुओं की, इतनी छोटी—सी ही तो बात है—कुंजियाँ तो छोटी ही होती हैं; महल कितने ही बड़े हों जिनके द्वार खुल जाते हैं, कुंजियाँ तो छोटी ही होती हैं—इतनी ही सीख है सतगुरुओं की। क्या है? संतोष से दोस्ती बना लो। "हिरदै धरि विस्वासा'। कौन कर सकेगा संतोष से दोस्ती? जिसे जीवन में श्रद्धा है।
समझना इसे।
तुम माँ के पेट में थे नौ महीने तक, कोई दुकान तो चलाते नहीं थे, फिर भी जिए। हाथ—पैर भी न थे कि भोजन कर लो, फिर भी जिए। श्वास लेने का भी उपाय न था, फिर भी जिए। नौ महीने माँ के पेट में तुम थे, कैसे जिए? तुम्हारी मर्जी क्या थी? किसकी मर्जी से जिए? फिर माँ के गर्भ से जन्म हुआ, जन्मते ही, जन्म के पहले ही माँ के स्तनों में दूध भर आया, किसकी मर्जी से? अभी दूध को पीनेवाला आने ही वाला है कि दूध तैयार है, किसकी मर्जी से? गर्भ से बाहर होते ही तुमने कभी इसके पहले साँस नहीं ली थी माँ के पेट में तो माँ की साँस से ही काम चलता था—लेकिन जैसे ही तुम्हें माँ से बाहर होने का अवसर आया, तत्क्षण तुमने साँस ली, किसने सिखाया? पहले कभी साँस ली नहीं थी, किसी पाठशाला में गए नहीं थे, किसने सिखाया कैसे साँस लो? किसकी मर्जी से? फिर कौन पचाता है तुम्हारे दूध को जो तुम पीते हो, और तुम्हारे भोजन को? कौन उसे हड्डी—मांस—मज्जा में बदलता है? किसने तुम्हें जीवन की सारी प्रक्रियाएँ दी हैं? कौन जब तुम थक जाते हो तुम्हें सुला देता है? और कौन जब तुम्हारी नींद पूरी हो जाती है तुम्हें उठा देता है? कौन चलाता है इन चाँद—सूर्यों को? कौन इन वृक्षों को हरा रखता है? कौन खिलाता है फूल अनंत—अनंत रंगों के और गंधों के?
इतने विराट का आयोजन जिस स्रोत से चल रहा है, एक तुम्हारी छोटी—सी जिंदगी उसके सहारे न चल सकेगी? थोड़ा सोचो, थोड़ा ध्यान करो। अगर इस विराट के आयोजन को तुम चलते हुए देख रहे हो, कहीं तो कोई व्यवधान नहीं है, सब सुंदर चल रहा है, सुंदरतम चल रहा है; सब बेझिझक चल रहा है। तुम छोटे से अंश हो इस जगत के, तुम्हें यह भ्रांति कब से आ गयी कि मुझे स्वयं को अलग से चलाना पड़ेगा? मुझे अपना जिम्मा अपने ऊपर लेना पड़ेगा? इसी भ्रांति में तुमने अपने जीवन के सारे कष्ट, असफलताएँ और विषाद पैदा कर लिए हैं।
"हिरदै धरि विस्वासा'। खयाल रखना, रज्जब या मैं तुमसे किसी सिद्धांत में विश्वास करने को नहीं कहते हैं। यह नहीं कहते—गीता में विश्वास करो। उससे तुम धार्मिक नहीं बनोगे, हिंदू बन जाओगे। हिंदू का धार्मिक होने से क्या लेना—देना! यह नहीं कहता—कुरान में विश्वास करो। उससे तुम मुसलमान बन जाओगे। और पृथ्वी पर मुसलमान के कारण काफी उपद्रव हो चुके हैं। मैं तुमसे कहता हूँ—जीवन में भरोसा करो, किताबों में नहीं। मंदिर—मस्जिदों में नहीं, इस विराट अस्तित्व में भरोसा करो। और इसी भरोसे में संतोष का जन्म हो जाएगा। यह भरोसा और यह संतोष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम्हारा असंतोष इतना ही तो कह रहा है न कि मुझे अपना इंतजाम खुद करना है। अगर मैं न करूँगा तो कौन करेगा?

रे मन, मानि सीख सतगुरु की, हिरदै धरि विस्वासा
जन रज्जब यूँ जानि भजन करु गोविंद है घर वासा।।
घर के भीतर गोविंद बसा है, तू किस फिकर में पड़ा है? कर भजन, नाच, आनंदमग्न हो—संतो, मगन भया मन मेरा—नाचो, गाओ, गुनगुनाओ, गोविंद ने तुम्हारे भीतर वास किया है। गोविंद तुम्हारे भीतर बैठा है।

हुआ करें तेरे कान आशनाए शोरेजर्स
सफर का दिल में इरादा नहीं तो कुछ भी नहीं

हमारे बुतकदए—दिल में ढूँढ तो जाहिद! 
यहीं कहीं तेरा काबा नहीं तो कुछ भी नहीं
"हुआ करें तेरे कान आशनाए शोरेजर्स'। ऐ पुजारी, मंदिर की घंटियों की आवाज सुन—सुनकर तेरे कान फूट भी जाएँ तो कुछ न होगा।

हुआ करें तेरे कान आशनाए शोरेजर्स
सफर का दिल में इरादा नहीं तो कुछ भी नहीं
सुनता रह मंदिर की घंटियों को, करता रह पूजा और पाठ, लेकिन अगर परमात्मा में डूबने की आकांक्षा नहीं; अगर असंतोष छोड़ने की, संतोष जगाने की कोई आकांक्षा नहीं—सफर का दिल में इरादा नहीं तो कुछ भी नहीं।
यह सब मंदिर—मस्जिद तेरी बनावटें हैं, तेरे झूठ, आदमी की ईजादें।
हमारे बुतकदए—दिल में ढूँढ़ तो जाहिद! और तू चला है बड़ा विराग साधने, बड़ा वैराग्य साधने, बड़ी तपश्चर्या करने; जाहिद, हमारे बुतकदए—दिल में, हमारे हृदय के मंदिर में भी तो ज़रा झाँक! "यहीं कहीं तेरा काबा नहीं तो कुछ भी नहीं'। अगर यहीं तेरा काबा न मिल जाए, तो कहीं भी नहीं मिलेगा।
"हिरदै धरि विस्वासा'; "गोविंद है घर वासा'। भीतर गोविंद का वास है। रचाओ रास! कहाँ के असंतोष में पड़ गए हो? किसे पाने चले हो? मालिकों का मालिक भीतर है! सम्राटों का सम्राट भीतर है!
हरिनाम मैं नहिं लीनां
मगर कहाँ फुर्सत गोविंद को भीतर खोजने की?

हरिनाम मैं नहिं लीनां
पाँच सखी पाँचू दिसि खेलैं, मन मायारस भीनां।।
आदमी तो इन पाँच इंद्रियों के जाल में पड़ा है। सोचता भोजन की, वह जीभ का रस। सोचता संगीत की, वह कान का रस। सोचता स्पर्श की, वह देह का रस। फुर्सत कहाँ है भीतर झाँके, अंतर के काबा को खोजे? फुर्सत कहाँ है कि गोविंद की तलाश करे? बाहर—ही—बाहर सब उलझा रह जाता है; सारा जीवन उसी में बीत जाता है। भोजन की तलाश करो, भोग की तलाश करो, सौंदर्य की तलाश करो, संगीत की तलाश करो, सुगंध की तलाश करो—इंद्रियाँ ही भरमाए रखती हैं। इंद्रियों के चक्कर में आदमी बाहर—ही—बाहर चलता रहता है, भीतर जाने का अवकाश नहीं मिलता, और हम चूक जाते हैं उससे जो हमारा है; और हम भटकते रहते हैं भिखारियों की तरह।

हरिनाम मैं नहिं लीनां
पाँच सखी पाँचू दिसि खेलैं. . .
और ये जो पाँच इंद्रियाँ हैं, अलग—अलग पाँच दिशाओं में इनकी यात्रा है। इसलिए तुम भी टूट गए खंड—खंड में—एक हिस्सा इधर जा रहा है, एक हिस्सा उधर जा रहा है। एक हिस्से को दूसरे की फिक्र नहीं है। जीभ के स्वाद में इतना खो जाते हो कि शरीर को कष्ट हो रहा है, इसकी फिकर नहीं है। शरीर के विश्राम में इतने सो जाते हो कि चित्त मलिन हो जाता है, उदास हो जाता है, इसकी फिकर नहीं है। एक—एक इंद्रिय अपनी—अपनी तरफ खींच रही है। तुम पाँच इंद्रियों के जाल में हो।
मुल्ला नसरुद्दीन एक घर में चोरी करने गया। चोरी तो नहीं कर पाया, क्योंकि घर के लोग जागे थे। उस घर के मालिक की दो पत्नियाँ थीं। एक ऊपर रहती, एक नीचे। और दोनों उसको खींच रही थीं। ऊपरवाली पत्नी ऊपर की तरफ खींच रही थी, नीचे रहनेवाली पत्नी नीचे की तरफ खींच रही थी! सो तुम समझ सकते हो जो उसकी फज़ीहत हो रही थी। घर में ऐसा उपद्रव मचा था कि मुल्ला छिपा हुआ एक कोने में, गबराया हुआ कि कब यह लोग शांत हो जाएं तो मैं भागुं। मगर भाग न पाया। वह आशांति रातभर चली। यह अशांतिया कोई ऐसी ही थोड़ी है कि खतम हो जाए आसानी से। वह उपद्रव रातभर चला—सुबह मुल्ला घर में ही पकड़ा गया—निकलने का मौका न मिला।
अदालत में मुकदमा चला। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि तुम भाग क्यों नहीं सके? उसने कहा—भागने का उपाय नहीं था। घर में ऐसा उपद्रव मचा था—एक तो मैं उत्सुक भी हो गया उपद्रव देखने में, और दूसरा उपद्रव ऐसा था और इन दोनों स्त्रियों ने ऐसी मरम्मत की अपने पति की कि मैं डरा भी कि अगर मैं पकड़ा गया तो मेरी क्या गति होगी! जब पति की यह गति हो रही है! तो मजिस्ट्रेट ने पूछा—अब तुम्हें क्या कहना है? उसने कहा—हुजूर, मुझे सिर्फ एक ही बात कहनी है कि और सब दंड देना मगर दो स्त्रियों से विवाह करने का दंड मत देना। सब तरह की सजा भोगने को तैयार हूँ, मगर जो देखा है उस रात, बस दो स्त्रियों से मेरी शादी मत करवा देना! इतना—भर मुझे कहना है। और मुझे कुछ कहना नहीं है।
लेकिन दो स्त्रियों का क्या सवाल है, यहाँ पाँच स्त्रियाँ हैं एक—एक के पीछे। पाँचों इंद्रियाँ खींच रही हैं। तुम्हारी फज़ीहत हुई जा रही है। तुम टूट गए हो खंड—खंड में।

पाँच सखी पाँचू दिसि खेलैं, मन मायारस भीनां।।
और मन है कि सपनों में डूबा हुआ है। इसलिए जो भीतर मौजूद है, उसका पता नहीं चलता। गोविंद है घर बासा, मगर पता कैसे चले? और प्रतिपल पुकार रहा है गोविंद भीतर से, मगर पता कैसे चले?

नसीमे—सहर ने मुझे गुदगुदाया
हँसाया, हँसाकर यह मुझको बताया
कि वे आ गए हैं

चहकते हुए पंछियों ने जगाया
जगाया, जगाकर यह मुझको बताया
कि वे आ गए हैं

महकने लगा फिर गुलाबी सवेरा
मिला मुझसे बिछड़ा हुआ प्यार मेरा
मुहब्बत भरा गीत भँवरों ने गाया
लुभाया, लुभाकर यह मुझको बताया
कि वे आ गए हैं

दुल्हन मेरे ख्वाबों की सजने लगी है
फजाओं में पायल—सी बजने लगी है
तराना कोई बादलों ने सुनाया
सुनाया, सुनाकर यह मुझको बताया
कि वे आ गए हैं

मचलने लगीं मेरे दिल की उमंगें
जवाँ हो गयीं फिर पुरानी तरंगें!
किसी ने मेरे दिल को झूला झुलाया
झुलाया, झुलाकर यह मुझको बताया
 कि वे आ गए हैं

हवा मुस्करायी, फजा गुनगुनायी
किसी के लिए सेज मैंने बिछायी
बहारों ने फिर मेरा घूँघट उठाया
उठाया, उठाकर यह मुझको बताया
कि वे आ गए हैं
परमात्मा प्रतिक्षण आ रहा है। हवाएँ भी उसकी खबर लाती हैं, बादलों की गड़गड़ाहट भी उसकी खबर लाती है; चाँद भी उसकी खबर लाता है, सूरज भी उसकी खबर लाता है; फूल खिलते हैं और उसकी खबर लाते हैं, हर घड़ी उसकी खबर आ रही है—कि वे आ गए हैं—लेकिन तुम्हें फुर्सत कहाँ? तुम उलझे हो अपनी इंद्रियों के चक्कर में। तुम खींचे जा रहे हो। तुम बड़ी झंझट में पड़े हो। तुम्हारा जीवन एक उपद्रव है।
"मन मायारस भीनां'
मायारस का अर्थ होता है—सपनों का रस। नहीं है, उसमें उलझे हो। और जो नहीं है, उसमें उलझे होने के कारण उससे वंचित हो, जो है।

कौन कुमति लागी मन मेरे, प्रेम अकारज कीनां
किस कुबुद्धि में पड़ गए हो, किस बेहोशी में जी रहे हो, कैसी नींद है यह कि व्यर्थ से प्रेम कर लिया है। "प्रेम अकारज कीनां'। जिससे कुछ हल नहीं होगा, उससे प्रेम कर लिया है। और जिससे सब हल हल हो जाए, उससे प्रेम नहीं किया—असंतोष से प्रेम कर लिया है और संतोष से प्रेम नहीं किया। मन रे, करु संतोष सनेही।

देख्या उरझि सुरझि नहिं जान्यूँ, विषय विषयरस पीनां।।
उलझना तो तुमने खूब कर दिया है, अब समझ में नहीं आ रहा है कि सुलझें कैसे! सूत्र दे रहे हैं रज्जब। उलझने का सूत्र है— असंतोष। बहुत समस्याएँ नहीं हैं तुम्हारे जीवन में। बहुत लक्षण हैं, समस्या तो एक ही है—असंतोष।
"देख्या उरझि सुरझि नहिं जान्यूँ', उलझना तो तुमने जान लिया, खूब उलझ गए हो और अब कहते हो—सुलझूँ कैसे? लेकिन अगर तुम ठीक से समझो अपनी उलझन को तो तुम पाओगे—सबके पीछे असंतोष है। और सूत्र मिल जाए असंतोष का तो सुलझने का सूत्र भी हाथ में आ गया। बस असंतोष से "अ' को अलग कर देना है। "अ' यानी अभाव। असंतोष अभाव में, लगाव में लगाए रखता है, "' के अलग होते ही भाव हो जाता है। जो है, उसका अनुभव शुरू हो जाता है।

. . .िषम विषयरस पीनां।।
कहिए कथा कौन विध अपनी, बहु बैरनि मन खीनां
और तुम्हारी कथा ही क्या है? इतनी ही कथा है कि कितनी चोटें खायीं, कितने घाव खाए, कितनी पीड़ाएँ झेलीं, इतनी ही कथा है कि कितनी—कितनी काँटे की झाड़ियों में उलझे। तुम्हारी कथा क्या है, व्यथा ही तुम्हारी कथा है।

कहिए कथा कौन विध अपनी, बहु बैरनि मन खीनां
बहुत शत्रुओं के जाल में पड़ गए।

आतमराम सनेही अपने, . . .
और गोबिंद भीतर बैठा है; असली प्यारा, असली मित्र भीतर बैठा है।

आतमराम सनेही अपने, सो सुपिनै नहिं चीनां।।
जागने की तो बात और सपने में भी खयाल नहीं आता परमात्मा का। सपने तक में उसकी झलक नहीं पड़ती। और मौजूद है परमात्मा हर घड़ी। जागे हो तब भी मौजूद है, सोए हो तब भी मौजूद है, सपने में भी मौजूद है।
 मैत्रेय जी ने एक प्रश्न पूछा है कि आप कहते हैं सपना झूठा है। सपना अगर झूठा है तो फिर सच क्या है? सपने को देखनेवाला सच है। ऑंख खुला सपना भी झूठा है, ऑंख बंद किया सपना भी झूठा है, मगर दोनों के बीच एक सूत्र है जो जोड़ रहा है—देखनेवाला, द्रष्टा। द्रष्टा सच है।
दृष्टि बदलो, दृश्य से द्रष्टा पर लौट आओ। बाहर न जाओ, भीतर आ जाओ। "हिरदै धरि बिस्वासा', "गोविंद है घर वासा'। जब तुम गहरे—से—गहरे सपने में भी खोए हो, तब भी तुम्हारे भीतर जो देख रहा है सपने को, वह स्वयं गोविंद है, वह स्वयं परमात्मा है। द्रष्टा परमात्मा का स्वभाव है। दृश्य में उलझ जाना हमारी उलझन है। हमारी ईजाद। द्रष्टा पर जाग जाना उलझन का अंत।

आतमराम सनेही अपने, सो सुपिनै नहिं चीनां।।
आन अनेक आनि उर अंतरि, पग पग भया अधीनां
कितनी वासनाओं में उलझ गए! अनेक विषयों को मन में स्थान दे दिया है। "आन अनेक आनि उर अंतरि'—कितने लोग बसा लिए भीतर; कितनी वासनाए,ँ कितनी आकांक्षाएँ! इसी भीड़ में भीतर का गोविंद खो गया है। उसकी आवाज बड़ी धीमी है, और तुम्हारी वासनाओं का शोरगुल बहुत बड़ा है।
पग—पग भया अधिना— और इन्हीं के कारण तुम पग—पग भिखमंगे हो। जब तक वासना है, तब तक भिखमंगापन है। जब तक असंतोष है, तब तक भिखमंगापन है। फरीद अकबर के पास गया था, क्योंकि फरीद के गाँव के लोगों ने कहा—अकबर से कहो एक स्कूल बनवा दे। और तुम्हें तो इतना मानता है तो जरूर तुम्हारी बात मान लेगा। फरीद गया। कभी राजमहल गया नहीं था। जब कभी आना था तो अकबर खुद आता था उससे मिलने। गया। पता चला अकबर अभी प्रार्थना करता है मस्जिद में, तो वह मस्जिद में जाकर खड़ा हो गया देखने कि क्या प्रार्थना करता है अकबर? प्रार्थना सुनी तो चकित हुआ। प्रार्थना कर रहा था अकबर हाथ उठाकर कि हे मालिक, या मालिक, मुझे और धन दे, और दौलत दे, मेरे साम्राज्य को बड़ा कर! फरीद तो लौट पड़ा।
अकबर ने प्रार्थना पूरी की, ऑंख खोलकर देखा, फरीद को लौटते सीढ़ियाँ उतरते देखा तो दौड़ा, कहा—कैसे आए और कैसे चले? फरीद ने कहा—आए थे सम्राट के पास, भिखारी को देखकर चले। नहीं—नहीं, अब तुमसे कुछ भी न कहूँगा! तुम्हारे पास वैसे ही कम है, मदरसा तुम मेरे गाँव में बनवाओगे और कमी हो जाएगी। नहीं—नहीं, बात ही खतम हो गयी। अकबर ने कहा—कौन—सी पहेली बूझ रहे हैं, मेरी कुछ समझ में नहीं आता, कौन—सा मदरसा, कौन—सा सम्राट, कौन—सा भिखारी, क्या कह रहे हैं आप? फरीद ने कहा—आया था गाँव के लोगों की बात मानकर कि एक स्कूल खुलवा दें। मगर यहाँ मैंने देखा कि तुम अभी भी माँग रहे हो—हे परमात्मा, हे मालिक, और धन दे, और दौलत दे, मेरे राज्य को बड़ा कर। तो फिर तुमसे क्या माँगना? फिर मैंने सोचा कि जिससे तुम माँग रहे हो, उसी से हम भी माँग लेंगे। अगर माँगना ही होगा, तो फिर बीच में और एक दलाल क्यों लेना! और तुम तो वैसे ही दरिद्र हो, मेरे पास कुछ होता तो तुम्हें देकर जाता। मगर मैं गरीब आदमी, मेरे पास कुछ है नहीं। तुम्हारी प्रार्थना सुनकर मुझे ऐसी दया आने लगी है कि कुछ होता तो सब दे देता—यह बेचारा माँग रहा है!
तुम खयाल रखना, तुम्हारे सम्राट भी भिखमंगे हैं। जब तक वासना है तब तक कोई सम्राट हो ही नहीं सकता। "पग पग भया अधीनां'

जन रज्जब क्यूँ मिलै जगतगुरु, जगत माहिं जी दीनां।।
दो चीजें हैं—जगत, जो तुम्हारे बाहर फैला है, और जगतगुरु, जो तुम्हारे भीतर बैठा है। जगत में ही उलझे रहे तो जगतगुरु से चूक जाओगे। और असंतोष जगत में उलझाए रखता है। संतोष जगत से सुलझा देता है। और जैसे ही चित्त सुलझता है जगत से, जाओगे कहाँ फिर? जब जाने की अब कोई इच्छा न रही, वासना न रही, कोई असंतोष न रहा, कोई अतृप्ति न रही, तो कहाँ जाओगे फिर? होओगे तो कहीं? तब तुम अपने भीतर होओगे। तभी तुम गोबिंद के रस में डूब जाओगे। जगतगुरु भीतर बैठा है। जगत को बनानेवाला भीतर बैठा है। बस इतना ही करना है, एक छोटा—सा सूत्र—असंतोष को संतोष में बदल देना है।

मन रे, करु संतोष सनेही।
तृस्ना तपति मिटै जुग—जुग की, दुःख पावै नहिं देही।।
मिल्या सुत्याग माहिं जे सिरज्या, गह्या अधिक नहिं आवै
तामें फेर सार कछू नाहीं राम रच्या सोइ पावै।।
बाछै सरग सरग नहिं पहुँचै, और पताल न जाई।
ऐसे जानि मनोरथ मेटहु, समझि सुखी रहु भाई।।
रे मन, मानि सीख सतगुरु की, हिरदै धरि बिस्वासा
जन रज्जब यूँ जानि भजन करु, गोबिंद हैं घर वासा।।

आज इतना ही।



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