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मंगलवार, 22 मार्च 2016

किताबे--ए--मीरदाद--(अध्‍याय--29)

अध्याय—उनतीस


शमदाम साथियों को मना कर
अपने साथ मिलाने का असफल यत्न करता है
मीरदाद चमत्कारपूर्ण ढंग से लौटता है
और शमदाम के अतिरिक्त
सब साथियों को विश्वास का चुम्बन प्रदान करता है

नरौंदा : जाड़े ने हमें आ दबोचा था, बहुत फ्लू, बर्फीले, कँपा देने वाले जाड़े ने।
खामोश, साँस रोके खड़े थे बर्फ में लिपटे पहाड़। केवल नीचे वादियों में दिखाई देते थे मुरझाई हरियाली के खण्ड और, कहीं—कहीं बल खाती सागर की ओर वही जा रही तरल चाँदी की कोई रेखा।
सातों साथी कभी आशा की तो कभी सन्देह की लहरों के थपेड़े खा रहे थे।
मिकेयन मिकास्तर तथा जमोरा इस आशा का दामन थामे हुए थे कि मुर्शिद अपने वचन के अनुसार लौट आयेंगे। बैद्य, हिम्बल तथा अबिमार मुर्शिद के लौटने के बारे में अपने सन्देह को पकड़े बैठे थे। किन्तु सब एक भयानक खालीपन तथा वेदनापूर्ण निरर्थकता का अनुभव कर रहे थे।

नौका शीत—ग्रस्त थी; निष्ठुर और स्नेहहीन। उसकी दीवारों पर एक बर्फीली खामोशी छाई हुई थी, यद्यपि शमदाम उसमें जीवन तथा उत्साह का संचार करने का भरपूर प्रयास कर रहा था। क्योंकि जब मीरदाद को ले जाया गया तब से शमदाम दया के द्वारा हमें वश में करने की कोशिश कर रहा था। उसने हमारे आगे बढ़िया से बढ़िया भोजन परोसा तथा मदिरा रखी, परन्तु न उस भोजन से हमें शक्ति प्राप्त हुई —न उस मदिरा से स्कूर्ति। उसने ढेरों लकड़ी और कोयला जलाया; लेकिन वह आग हमें गरमाहट नहीं दे सकी। शमदाम बहुत नम्रता के साथ पेश आ रहा था और उसका व्यवहार स्नेहपूर्ण लगता था; पर उसकी नम्रता और स्नेह ने हमें उससे और अधिक दूर कर दिया।
बहुत समय तक उसने मुर्शिद की कोई चर्चा नहीं की। लेकिन आखिर उसने अपने हृदय की बात बताते हुए कहा,
शमदाम : मेरे साथियो, यदि तुम समझते हो कि मैं मीरदाद से मृणा करता हूँ तो तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो। मुझे तो सच्चे दिल से उस पर दया आती है।
मीरदाद : एक बुरा व्यक्ति भले ही न हो लेकिन वह एक खतरनाक आदर्शवादी है, और जिस सिद्धान्त का वह इस ठोस वास्तविकता और व्यावहारिकता के जगत में प्रचार कर रहा है, वह सर्वथा अव्यावहारिक और झूठा है। निष्ठुर यथार्थ के साथ अपने प्रथम साक्षात्कार में ही उसका तथा उसके अनुयायियों का दुःखद अन्त निश्चित है। इसका मुझे पूरा विश्वास है। और मैं अपने साथियों को ऐसे अनर्थ से बचाना चाहता हूं।
यौवन के उतावलेपन से प्रेरित मीरदाद बातचीत में चतुर हो सकता है, किन्तु उसका हृदय अंधा, हठी और धर्महीन है। जब कि मेरे हृदय में सच्चे प्रभु का भय है, और मेरे पास बरसों का अनुभव है जो मेरे निर्णय को महत्त्व तथा मान्यता प्रदान करता है।
गत कई वर्षों में नौका का प्रबन्ध कौन मुझसे अधिक लाभदायक का से चला सकता था? क्या मैंने इतना समय तुम्हारे साथ नहीं बिताया और तुम्हारे लिये भाई और पिता दोनों नहीं बना रहा? क्या हमारे हृदय को शान्ति का और हमारे हाथों को प्रचुर समृद्धि का वरदान नहीं मिला? जिसका हम इतने समय से निर्माण करते आ रहे हैं वह सब एक अजनबी को क्यों नष्ट करने दिया जाये? और जहाँ विश्वास का प्रभुत्व था वहाँ उसे अविश्वास का, तथा जहाँ शान्ति का राज्य था वहाँ उसे कलह का बीज क्यों बोने दिया जाये?
हाथ आये एक पक्षी को वृक्ष पर बैठे दस पक्षियों की आशा में छोड़ देना निरा पागलपन है, मेरे साथियों। मीरदाद तुमसे इस नौका को छडुवा देना चाहता है जिसने तुम्हें बरसों शरण दी है, परमात्मा के
निकट रखा है, तुम्हें वह सब—कुछ दिया है जिसकी मनुष्य कामना कर सकते हैं, और जिसने संसार की अशान्ति तथा व्यथाओं से तुम्हें बचाये रखा है। बदले में वह तुम्हें क्या देने का वादा करता है? मनोवेदना, निराशा तथा निर्धनता, और ऊपर से सदा के लड़ाई—झगड़े। ये सब और कई इनसे भी बुरी चीजें तुम्हें देने का वादा करता है वह।
वह हवा में, अपार शून्य में एक नौका जुटाने का वादा करता है — एक पागल का सपना, एक बचकानी कल्पना, एक मधुर असम्मावना। क्या वह माँ —नौका के संस्थापक पिता नूह से भी अधिक समझदार है? उसकी वे सिर—पैर की बातों पर विचार करने के लिये तुमसे कहते हुए मुझे बहुत दुःख हो रहा है।
मीरदाद के विरुद्ध अपने मित्र बेसार के सुलतान से उसकी सशक्त भुजाओं की सहायता माँग कर मैंने नौका तथा इसकी पवित्र परम्पराओं के प्रति अपराध भले ही किया हो, किन्तु मैं तुम्हारी भलाई चाहता था, और इसी एक बात से सिद्ध हो जाना चाहिये कि मेरा अपराध उचित था। इससे पहले कि बहुत देर हो जाती, मैं तुम्हें और इस नौका को बचा लेना चाहता था। प्रभु ने मेरा साथ दिया और मैंने तुम्हें बचा लिया। मेरे साथ खुशी मनाओ, साथियो, और प्रभु को धन्यवाद दो कि उसने हमें अपनी पापी आंखों से अपनी नौका की बरबादी देखने के बहुत बड़े कलंक से बचा दिया। कम से कम मैं तो इस कलंक के साथ जीवित नहीं रह सकता था।
किन्तु अब, मेरे प्यारे साथियो, मैं अपने आप को नये सिरे से हज़रत छू के प्रभु तथा उनकी नौका की. और तुम्हारी सेवा में समर्पित करता हूँ। पहले की तरह प्रसन्न रहां, ताकि तुम्हारी प्रसन्नता से मेरी प्रसन्नता पूर्ण हो जाये।
नरौंदा : यह कहते —कहते शमदाम रो पड़ा। बहुत दयनीय थे उसके आंसू क्योंकि आंसू बहाने वाला वह अकेला था, उसके आंसुओं को हमारे हृदय और आंखों में कोई साथी नहीं मिल रहा था।
एक दिन प्रातःकाल, जब धुँधले मौसम की लम्बी घेराबन्दी के बाद सूर्य ने पहाड़ियों पर अपनी किरणें बिखेरी, जमोरा ने अपना रबाब उठाया और गाने लगा.
जमोरा :
अब जम गया है गाना
शीताहत होंठों पर
मेरे रबाब के।
घिर गया बर्फ में सपना
बर्फ से घिरे हृदय में
मेरे रबाब के।
है श्वास कहाँ वह तेरे
गाने को जो पिघला दे
ऐ रबाब मेरे?
है हाथ कहाँ वह तेरे
सपने को जो छुड़वा दे,
ऐ रबाब मेरे?
बेसार के तहखाने में।
जाओ, ऐ भिखारिन वायु,
माँग लो मेरी खातिर
इक गाना जंजीरों से
बेसार के तहखाने की।
जाओ, ऐ चतुर रवि—किरणो,
चुरा लाओ मेरी खातिर
इक सपना जंजीरों से
बेसार के तहखाने की।
था पंख गरुड़ का मेरे
छाया पूरे नभ पर, था
उसके नीचे मैं राजा।
अब हूँ अनाथ इक केवल और परित्यक्त इक बालक, है नभ पर राज उलूक का, क्योंकि उड़ गया गरुड़ है बहुत दूर एक नीड़ को — बेसार के तहखाने को।

 नरौंदा : ज़मोरा के हाथ शिथिल हो गये. सिर रबाब पर झुक गया और उसकी आंख से एक आंसू टपक पड़ा। उस आंसू ने हमारी दबी हुई वेदना के बाँध को तोड़ दिया और हमारी आंखों से आंसुओं की धारा वह चली।
मिकेयन सहसा उठ कर खड़ा हो गया, और ऊँचे स्वर में यह कहते हुए कि मेरा दम घुट रहा है वह तेजी से बाहर खुली हवा में चला गया। जमील, मिकास्तर तथा मैं उसके पीछे -पीछे आंगन में से होते हुए बाहर की बड़ी चारदीवारी के द्वार तक पहुँच गये जिससे आगे बढ़ने का साहस करने की अनुमति साथियों को नहीं थी। मिकेयन ने एक जोरदार झटके के साथ भारी अर्गला को खींच लिया, धक्का देकर द्वार खोल दिया, और पिंजरे से भागे बाघ की तरह बाहर निकल गया। अन्य तीनों भी मिकेयन के पीछे -पीछे बाहर चले आये।
सूर्य में सुहावनी गरमी और चमक थी, और उसकी किरणें जमी हुई बर्फ से टकराते हुए गुड कर अपनी चमक से हमारी आंखों को चकाचौंध कर रही थीं। जहाँ तक दृष्टि पहुँचती थी, बर्फ से ढकी ऊँची-नीची वृक्ष -रहित पहाड़ियाँ हमारे सामने फैली हुई थीं। लगता था मानों सब-कुछ प्रकाश के विलक्षण रंगों से प्रदीप्त है। चारों ओर गहरी खामोशी छाई हुई थी जो कानों में चुभ रही थी, केवल हमारे पैरों के नीचे चरमरा रही बर्फ उस खामोशी के जादू को तोड़ रही थी। हवा यद्यपि शरीर को बेध रही थी, फिर भी हमारे फेफड़ों को इस तरह दुलार रही थी कि हमें लग रहा था हम अपनी ओर से कोई यत्न किये बिना ही उड़े जा रहे हैं।
और तो और, मिकेयन की मनोदशा भी बदल गई। वह रुक कर ऊँची आवाज में बोला, ''कितना अच्छा लगता है साँस ले सकना। आह, केवल साँस ले सकना।'' और सचमुच ऐसा लगा कि हमने पहली बार स्वतन्त्रता से साँस लेने का आनन्द पाया है और साँस के अर्थ को जाना
हम थोड़ी दूर चले थे कि मिकास्तर को दूर ऊँचे टीले पर एक काली छाया -सी दिखाई दी। हममें से कुछ ने सोचा कि यह कोई अकेला भेड़िया है; कुछ को लगा कि यह एक चट्टान है जिसे ऊपर पड़ी बर्फ को उड़ा कर, हवा ने नंगा कर दिया है। पर वह छाया हमारी ओर आती लग रही थी; हमने उसकी दिशा में चलने का निश्चय किया। वह हमारे निकट, और निकट, आती गई और धीरे-धीरे उसने मानवीय आकार धारण कर लिया। अचानक मिकेयन ने आगे की और एक लम्बी छलाँग लगाते हुए जोर से कहा, ''ये तो वही हैं। ये तो वही हैं!''
और वे थे भी वही - उन्हीं की मनमोहक चाल, उन्हीं की गौरवशाली मुद्रा, उन्हीं का गरिमामय उन्नत मस्तक। इठलाती वायु उनके लहराते वस्त्रों से आंख -मिचौली खेल रही थी और अल्हड़पन के साथ उनकी लम्बी, काली लटों को छेड़ रही थी। धूप ने उनके चेहरे के कोमल पुखराज -से उज्ज्वल बादामी रंग को कुछ अपनी रंगत दे दी थी; परन्तु उनके काले, स्वप्नदर्शी, सदा की तरह ज्योतिर्मय नेत्रों से गम्भीर शान्ति और विजयी प्रेम की लहरें प्रवाहित हो रही थीं। उनके खड़ाऊँ पहने सुकोमल चरणों को पाले ने अपने चुम्बनों से गहरे गुलाबी रंग में रँग दिया था।
मिकेयन उनके पास सबसे पहले पहुँचा। सिसकते तथा हँसते हुए वह उनके चरणों में गिर पड़ा और -बेसुधी की -सी दशा में बड़बड़ाया,  ''मेरी आत्मा मुझे वापस मिल गई। ''
अन्य तीनों भी उनके चरणों में गिर पड़े। मुर्शिद ने उन्हें एक-एक करके उठाया, असीम प्यार से हरएक को गले लगाया और कहा :
मीरदाद : विश्वास का चुम्बन ग्रहण करो। अब से तुम विश्वास में सोओगे और विश्वास में जागोगे; सन्देह तुम्हारे तकिये में बसेरा नहीं करेगा, और न ही तुम्हारे कदमों को अनिश्चय के द्वारा जकडेगा।
नरौंदा : जो चार साथी नौका में रह गये थे, उन्होंने जब मुर्शिद को द्वार पर देखा तो पहले तो समझे कि कोई साया है और डर गये। पर जब मुर्शिद ने एक-एक को नाम लेकर पुकारा, और उन्होंने मुर्शिद की आवाज सुनी तो वे तुरन्त आगे बढ़ कर उनके चरणों में गिर गये; केवल शमदाम अपने आसन से चिपका रहा। मुर्शिद उन तीनों से भी वैसे ही प्रेमपूर्वक मिले जैसे पहले चार साथियों से मिले थे और उनसे भी वही शब्द कहे।
शमदाम शून्य दृष्टि से देखता रहा। वह सिर से पैर तक काँप रहा था। उसका चेहरा मुर्दे जैसा पीला पड़ गया था, उसके ओंठ फड़क रहे थे और उसके हाथ निरुद्देश्य उसके कमरबन्द को टटोल रहे थे। अचानक वह अपने आसन से सरका और हाथों तथा पैरों के बल रेंगते हुए वहाँ जा पहुँचा जहाँ मुर्शिद खड़े थे। उसने मुर्शिद के पैरों को अपनी बाहों में ले लिया और जमीन की तरफ मुँह किये व्याकुलता के साथ कहा, ''मुझे भी विश्वास है।’’ मुर्शिद ने उसे भी उठाया, लेकिन उसे चूमे बिना कहा:
मीरदाद : यह भय है जो शमदाम के भारी —भरकम शरीर को कँपा रहा है और उससे कहलवा रहा है, ''मुझे भी विश्वास है।’’
शमदाम उस जादू के सामने काँप रहा है और सिर झुका रहा है जिसने मीरदाद को काले खड्ड तथा बेसार की कालकोठरी से बाहर निकाल दिया। और शमदाम को डर है कि उससे बदला लिया जायेगा। इस बारे में उसे निश्चिन्त रहना चाहिये और अपने हृदय को सच्चे विश्वास की दिशा में मोड़ना चाहिये।
वह विश्वास जो भय की लहरों पर उठता है, भय का आग —मात्र होता है, वह भय के साथ उठता है और उसी के साथ बैठ जाता है। सच्चा विश्वास प्रेम की टहनी पर ही खिलता है, और कहीं नहीं। उसका फल होता है दिव्य ज्ञान। अगर तुम्हें प्रभु से डर लगता है तो प्रभु पर विश्वास मत करो।
शमदाम : (पीछे हटते हुए और आंखें निरन्तर फर्श पर गड़ाये हुए) अपने ही घर में अनाथ और बहिष्कृत है शमदाम। कम से कम एक दिन के लिये तो मुझे आपका सेवक बनने और आपके लिये कुछ भोजन तथा कुछ गर्म कपड़े लाने की अनुमति दें, क्योंकि आपको बहुत भूख लगी होगी और ठण्ड सता रही होगी।
मीरदाद : मेरे पास वह भोजन है जिससे रसोईघर अनजान है; और वह गरमाहट है जो ऊन के धागों या आग की लपटों से उधार नहीं ली जा सकती। काश, शमदाम ने अपने भण्डार में यह भोजन और यह गरमाहट अधिक तथा अन्य खाद्य —सामग्री और ईंधन कम रखे. होते।
देखो, समुद्र पर्वत—शिखरों पर शीतकाल बिताने आया है। शिखर जमे हुए समुद्र को कोट के समान पहन कर प्रसन्न हो रहे हैं, और अपने कोट में गरमाहट महसूस कर रहे हैं।
प्रसन्न है समुद्र भी कुछ समय के लिये शिखरों पर इतना शान्त, इतना मन्त्रमुग्ध हो लेटने में, लेकिन कुछ समय के लिये ही। क्योंकि बसन्त अवश्य आयेगा, और समुद्र शीतकाल में निष्क्रिय पड़े सर्प की तरह अपनी कुण्डली खोलेगा तथा अस्थायी तौर पर गिरवी रखी अपनी स्वतन्त्रता वापस ले लेगा। एक बार फिर वह एक तट सेर दूसरे तट की ओर लहरायेगा, एक बार फिर वह हवा पर सवार होकर, आकाश की सैर करेगा, और जहाँ चाहेगा फुहार के रूप में अपने आप को बिखेर देगा।
किन्तु तुम जैसे लोग भी हैं, शमदाम जिनका जीवन एक अन्तहीन शीतकाल और गहरी दीर्घ —निद्रा है। ये वे लोग हैं जिन्हें अभी तक बसन्त के आगमन का कोई संकेत नहीं मिला। देखो, मीरदाद वह संकेत है। जीवन का संकेत है मीरदाद मृत्यु का सन्देश नहीं। तुम और कब तक गहरी नींद सोते रहोगे '
विश्वास करो, शमदाम जो जिन्दगी लोग जीते हैं और जो मौत वे मरते हैं. दोनों ही दीर्घ —निद्रा हैं। और मैं लोगों को उनकी नींद से जगाने और उनकी गुफाओं और बिलों से निकाल कर उन्हें अमर जीवन की स्वतन्त्रता में ले जाने के लिये आया हूँ। मुझ पर विश्वास करो, मेरी खातिर नहीं, तुम्हारी अपनी खातिर।
नरौंदा : शमदाम निश्चल खड़ा रहा, उसने अपना मुँह नहीं खोला। बैद्य ने मेरे कान में कहा कि मुर्शिद से पूछो वे बेसार की काल —कोठरी से निकल आने में कैसे सफल हुए, पर मेरी जबान यह प्रश्न पूछने के लिये मेरी आज्ञा मानने को तैयार न हुई। लेकिन मुर्शिद ने तुरन्त ही हमारे अनपूछे प्रश्न का उत्तर दिया।
मीरदाद : बेसार का बन्दीगृह अब बन्दीगृह नहीं रहा, एक पूजा — स्थल बन गया है। बेसार का सुलतान भी अब सुलतान नहीं रहा। आज वह तुम्हारी तरह सत्य का खोजी यात्री है।
किसी अँधेरी कालकोठरी को भी एक उज्ज्वल प्रकाश—स्तम्भ में बदला जा सकता है, बैद्य। किसी अभिमानी सुलतान को भी सत्य के मुकुट के सामने अपना खट त्यागने के लिये प्रेरित किया जा सकता है। और कुड जंजीरों से भी दिव्य संगीत उत्पन्न किया जा सकता है। दिव्य ज्ञान के लिये कोई काम चमत्कार नहीं। चमत्कार तो दिव्य शान स्वय है।
नरौंदा : बेसार के सुलतान के राज्य —त्याग के बारे में मुर्शिद के शब्द शमदाम पर बिजली बन कर गिरे; और उसे अचानक एक ऐसी विचित्र तथा जोर की ऐंठन ने जकड़ लिया कि हम उसकी जान के बारे में गम्भीर रूप से आशंकित हो उठे। ऐंठन का अन्त मूर्च्छा में हुआ और बहुत देर के परिश्रम के बाद ही हम उसे होश में ला सके।

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