प्रेम
प्रभु का
विधान है
मीरदाद
दो साथियों के
बीच हुए मन—
मुटाव को
ताड़
लेता है, रबाब
मँगवाता है
और
नई नौका का
स्तुति— गीत
गाता है
मीरदाद
:
प्रेम ही
प्रभु का
विधान है।
तुम
जीते हो ताकि
तुम प्रेम
करना सीख लो।
तुम प्रेम
करते हो ताकि
तुम जीना सीख
लो। मनुष्य को
और कुछ सीखने
की आवश्यकता
नहीं।
और
प्रेम करना
क्या है, सिवाय
इसके कि
प्रेमी
प्रियतम को
सदा के लिये अपने
अन्दर लीन कर
ले ताकि दोनों
एक हो जायें?
और
मनुष्य को
प्रेम किससे
करना है? क्या
उसे जीवन—वृक्ष
के एक विशेष
पत्ते को चुन
कर उस पर ही
अपना पूरा
प्यार उँड़ेल
देना है? तो
फिर क्या होगा
उस शाखा का
जिस पर वह
पत्ता उगा है?
उस तने का
जिससे वह शाखा
निकली है? उस
छाल का जो उस
शाखा की रक्षा
करती है?
उन जड़ों का जो छाल, तने, शाखाओं और पत्तों का पोषण करती हैं? उस मिट्टी का जिसने जड़ों को छाती से लगा रखा है? सूर्य, समुद्र और वायु का जो मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं?
उन जड़ों का जो छाल, तने, शाखाओं और पत्तों का पोषण करती हैं? उस मिट्टी का जिसने जड़ों को छाती से लगा रखा है? सूर्य, समुद्र और वायु का जो मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं?
यदि
किसी पेडू पर
लगा एक छोटा—सा
पता तुम्हारे
प्रेम का
अधिकारी हो तो
पूरा पेडू
उसका कितना
अधिक अधिकारी
होगा? जो
प्रेम
सम्पूर्ण के
एक अंश को
चुनता है, वह
अपने भाग्य
में आप ही दु:
खों की रेखा
खींच लेता है।
तुम
कहते हो, ''एक ही
वृक्ष पर
भाँति—भाँति
के पत्ते होते
हैं। कुछ
स्वस्थ होते
हैं, कुछ
अस्वस्थ; कुछ
सुन्दर होते
हैं, कुछ
कुरूप; कुछ
दैत्याकार
होते हैं, कुछ
बौने। पसन्द
करने और चुनने
से भला हम
कैसे बच सकते
हैं?''
मैं
तुमसे कहता
हूँ कि बीमारों
के पीलेपन में
से
तन्दुरुस्तों
की ताजगी पैदा
होती है। मैं
यह भी कहता
हूँ कि
कुरूपता
सुन्दरता की रंग—पट्टी, रंग
और कूँची है, और यह भी कि
बौना बौना न
होता यदि उसने
अपने कूद में
से कुछ कूद
दैत्य को भेंट
न कर दिया
होता।
तुम
जीवन—वृक्ष हो।
अपने आप को
टुकडों में
बाँटने से
सावधान रही।
फल की फल से
तुलना मत करो, न
पत्ते की
पत्ते से, न
शाखा की शाखा
से; और न
तने की जड़ों
से तुलना करो,
न वृक्ष की
माटी—माँ से।
पर तुम ठीक
यही करते हो
जब तुम एक अंश
को बाकी अंशों
से अधिक, अथवा
बाकी अंशों को
छोड़ कर केवल
एक अंश को ही प्यार
करते हो।
तुम
जीवन—वृक्ष हो।
तुम्हारी
जड़ें हर स्थान
पर हैं।
तुम्हारी
शाखाएँ और
पत्ते हर
स्थान पर हैं।
तुम्हारे फल
हर मुँह में
हैं। इस वृक्ष
पर फल जो भी
हों;
इसकी
शाखाएँ और
पत्ते जो भी
हों; जड़ें
जो भी हों, वे
तुम्हारे फल
हैं; वे
तुम्हारी
शाखाएँ और
पत्ते हैं; वे तुम्हारी
जड़ें हैं। यदि
तुम चाहते हो
कि वृक्ष को
मीठे और
सुगन्धित फल
लगें, यदि
तुम चाहते हो
कि वह सदा दृढ़
और हरा—भरा
रहे, तो उस
रस का ध्यान
रखो जिससे
उसकी जड़ों का
पोषण करते हो।
प्रेम
जीवन का रस है, जब
कि ता मृत्यु
का मवाद।
किन्तु प्रेम
का भी, रक्त
की तरह, हमारी
रगों में
बेरोक
प्रवाहित
होना नितान्त
आवश्यक है।
रक्त के
प्रवाह को
रोको तो वह एक
खतरा, एक
संकट बन
जायेगा। और
घृणा क्या है
सिवाय दबा
दिये गये या
रोक लिये गये
प्रेम के, जो
इसीलिये घातक
विष बन जाता
है खिलाने और
खाने वाले, दोनों के
लिये; का।
करने वाले और
घृणा पाने
वाले. दोनों
के लिये?
तुम्हारे
जीवन—वृक्ष का
पीला पत्ता
केवल प्रेम से
वंचित पत्ता
है। पीले
पत्ते को दोष
मत दो। मुरझाई
हुई शाखा केवल
प्रेम की भूखी
शाखा है।
मुरझाई हुई
शाखा को दोष
मत दो।
सड़ा
हुआ फल केवल
घृणा पर पाला
गया फल है।
सड़े हुए फल को
दोष मत दो।
बल्कि दोष दो
अपने अन्धे और
कृपण मन को, जो
जीवन—रस को
भीख की तरह
थोड़े—से
व्यक्तियों
में बाँट कर
अधिकांश को
उससे वंचित
रखता है, और
ऐसा करते हुए
अपने आप को भी
उससे वंचित
रखता है।
आत्म—प्रेम
के अतिरिक्त
कोई प्रेम
सम्भव नहीं है।
अपने अन्दर
सबको समा लेने
वाले अह के
अतिरिक्त
अन्य कोई अहं
वास्तविक
नहीं है।
इसलिये प्रभु
शुद्ध प्रेम
है,
क्योंकि वह
इसी अहं से
प्रेम करता है।
जब
तक प्रेम
तुम्हें पीडा
देता है, तुम्हें
अपना
वास्तविक अहं
नहीं मिला है,
न ही प्रेम
की सुनहरी
कुंजी
तुम्हारे हाथ
लगी है।
क्योंकि तुम एक—भंगुर
अहं क्षण को
प्रेम करते हो,
प्रेम भी
क्षण तुम्हारा—भंगुर
है।
स्त्री
के लिए पुरुष
का प्रेम, प्रेम
नहीं। वह
प्रेम का एक
बहुत धुँधला
चिह्न है।
सन्तान के लिए
माता या पिता
का प्रेम, प्रेम
के पवित्र
मन्दिर की
देहरी—मात्र
है। जब तक हर
पुरुष हर स्त्री
का प्रेमी
नहीं बन जाता
और हर स्त्री
हर पुरुष की
प्रेमिका, जब
तक हर सन्तान
हर माता या
पिता की
सन्तान नहीं
बन जाती और हर
माता या पिता
हर सन्तान की
माता या पिता,
तब तक
स्त्री—पुरुष
हाड़—मास के
साथ हाड़—मास
के घनिष्ठ
सम्बन्ध की
डींग भले ही
मार लें, किन्तु
प्रेम के
पवित्र शब्द
का उच्चारण
कभी न करें।
क्योंकि ऐसा
करना प्रभु—निन्दा
होगी।
जब
तक तुम एक भी
मनुष्य को
शत्रु मानते
हो,
तुम्हारा
कोई मित्र
नहीं। जिस
हृदय में
शत्रुता का
वास है, वह
मित्रता के
लिये
सुरक्षित
आवास कैसे हो
सकता है?
जब
तक तुम्हारे
हृदय में घृणा
है,
तुम प्रेम
के आनन्द से
अपरिचित हो।
यदि तुम अन्य
सभी वस्तुओं
का जीवन—रस से
पोषण करते हो,
पर किसी
छोटे—से कीड़े
को उससे वंचित
रखते हो, तो
वह छोटा—सा
कीड़ा अकेला ही
तुम्हारे
जीवन में
कड़वाहट घोल
देगा।
क्योंकि किसी
वस्तु या किसी
व्यक्ति से
प्रेम करते
हुए तुम
वास्तव में
अपने आप से ही
प्रेम करते हो।
इसी प्रकार, किसी वस्तु
या किसी
व्यक्ति से
घृणा करते हुए
तुम वास्तव
में अपने आप
से ही घृणा
करते हो।
क्योंकि
जिससे तुम
घृणा करते हो
वह उसके साथ जुड़ा
हुआ है जिससे
तुम प्रेम
करते हो— ऐसे
जुड़ा हुआ है
जैसे किसी
सिक्के के दो
पहलू जिन्हें
कभी एक दूसरे
से अलग नहीं
किया जा सकता।
यदि तुम अपने
प्रति
ईमानदार रहना
चाहते हो तो
उससे प्रेम
करने से पहले
जिसे तुम
चाहते हो और
जो तुम्हें
चाहता है, उससे
प्रेम करना
होगा जिससे
तुम घृणा करते
हो और जो
तुमसे घृणा
करता है।
प्रेम
कोई गुण नहीं
है। प्रेम एक
आवश्यकता है; रोटी
और पानी से भी
बडी, प्रकाश
और हवा से भी
बडी।
कोई
भी अपने प्रेम
करने का
अभिमान न करे।
प्रेम को उसी
सरलता तथा
स्वतन्त्रता
के साथ स्वीकार
करो जिस सरलता
तथा
स्वतन्त्रता
से तुम साँस
लेते हो।
क्योंकि
'प्रेम को
उन्नत होने के
लिये किसी की
आवश्यकता नहीं।
प्रेम तो उस
हृदय को उन्नत
कर देगा जिसे
वह अपने योग्य
समझता है।
प्रेम के बदले
कोई पुरस्कार
मत माँगो।
प्रेम ही
प्रेम का
पर्याप्त
पुरस्कार है,
जैसे ता ही
घृणा का
पर्याप्त
दण्ड है।
न
ही प्रेम के
साथ कोई हिसाब—किताब
रखो;
क्योंकि
प्रेम अपने
सिवाय किसी और
को हिसाब नहीं
देता।
प्रेम
न उधार देता
है,
न उधार लेता
है; प्रेम
न खरीदता है, न बेचता है, बल्कि जब
देता है तो
अपना सब—कुछ
दे देता है, और जब लेता
है तो सब—कुछ
ले लेता है।
इसका लेना ही
देना है। इसका
देना ही लेना
है। इसलिये यह
आज, कल और
कल के बाद भी
सदा एक—सा
रहता है।
एक
विशाल नदी
ज्यों—ज्यों
अपने आप को
समुद्र में
खाली करती
जाती है.
समुद्र उसे
फिर से भरता
जाता है। इसी
तरह तुम्हें
अपने आप को
प्रेम में
खाली करते
रहना है, ताकि
प्रेम
तुम्हें सदा
भरता रहे।
तालाब, जो
समुद्र से
मिला उपहार
उसी को सौंपने
से इनकार करता
है, एक
गन्दा पोखर बन
कर रह जाता है।
प्रेम
में न अधिक
होता है. न कम।
जिस क्षण तुम
उसे किसी
श्रेणी में
रखने या मापने
का प्रयत्न
करते हो, उसी
क्षण वह
तुम्हारे हाथ
से निकल जाता
है, और
पीछे छोड़ जाता
है अपनी कड्वी
यादें।
न
प्रेम में अब
और तब होता है, न
ही यहाँ और
वहाँ। सब
ऋतुएँ प्रेम
की ऋतुएँ हैं,
सब स्थान
प्रेम के
निवास के
योग्य स्थान।
प्रेम
कोई सीमा या
बाधा नहीं
जानता। जिस
प्रेम के
मार्ग को किसी
भी प्रकार की
बाधा रोक ले, वह
अभी प्रेम
कहलाने का
अधिकारी नहीं
है। मैं अकसर
तुम्हें कहते
सुनता हूँ कि
प्रेम अन्धा
होता है, अर्थात्
उसे अपने
प्रियतम में
कोई दोष दिखाई
नहीं देता। इस
प्रकार का
अन्धापन
सर्वोत्तम
दृष्टि है।
काश, तुम
सदा इतने
अन्धे होते कि
तुम्हें किसी
भी वस्तु में
कोई दोष दिखाई
न देता।
स्पष्टदर्शी
और बेधक होती
है प्रेम की
आँख। इसलिये
उसे कोई दोष
दिखाई नहीं
देता। जब
प्रेम
तुम्हारी
दृष्टि को
निर्मल कर
देगा, तब कोई
भी वस्तु
तुम्हें
प्रेम के
अयोग्य दिखाई
नहीं देगी।
केवल
प्रेमहीन
दोषपूर्ण आंख
सदा दोष खोजने
में व्यस्त
रहती है। जो
दोष उसे दिखाई
देते हैं वे
उसके अपने ही
दोष होते हैं।
प्रेम
जोड़ता है।
घृणा तोड़ती है।
मिट्टी और
पत्थरों का.
यह विशाल और
भारी ढेर, जिसे
तुम पूजा—शिखर
कहते हो, क्षण
भर में बिखर
जाता यदि इसे
प्रेम ने बाँध
न रखा होता।
तुम्हारा
शरीर भी, चाहे
वह नाशवान
प्रतीत होता
है, विनाश
का प्रतिरोध
अवश्य कर सकता
था यदि तुम
उसके
प्रत्येक
कोषाणु को समान
लगन के साथ
प्रेम करते।
प्रेम
जीवन के मधुर
संगीत से
स्पन्दित
शान्ति है, घृणा
मृत्यु के
पैशाचिक
धमाकों से
आकुल युद्ध है।
तुम क्या
चाहोगे?
प्रेम करना और
अनन्त शान्ति
में रहना, या
घृणा करना और
अनन्त युद्ध
में जुटे रहना?
समस्त
धरती
तुम्हारे
अन्दर जी रही
है। सभी आकाश
तथा उनके
निवासी
तुम्हारे
अन्दर जी रहे
हैं। अत: धरती
और उसकी गोद
में पल रहे सब
बच्चों से प्रेम
करो यदि तुम
अपने आप से
प्रेम करना
चाहते हो। और
आकाशो तथा
उनके सब
वासियों से
प्रेम करो यदि
तुम अपने आप
से प्रेम करना
चाहते हो।
तुम
नरौंदा से धृणा
क्यों करते हो, अबिमार?
नरौंदा
:
मुर्शिद की
आवाज और उनके
विचार—प्रवाह
में इस
आकस्मिक
परिवर्तन से
सब अचम्भे में
पड़ गये। मैं
और अबिमार तो
अपने आपसी मन—मुटाव
के बारे में
ऐसा स्पष्ट
प्रश्न पूछे
जाने पर अवाक्
रह गये, क्योंकि
उस मन—मुटाव
को हमने बड़ी
सावधानी के
साथ सबसे छिपा
कर रखा था और
हमें विश्वास
था, जो
अकारण नहीं था,
कि उसका
किसी को पता
नहीं है। सबने
परम आश्चर्य
के साथ हम
दोनों की ओर
देखा और
अबिमार के
होंठ खुलने की
प्रतीक्षा
करने लगे।
अबिमार
: (धिक्कारपूर्ण
दृष्टि से मुझे
देखते हुए)
नरौंदा क्या
मुर्शिद को
तुमने बताया?
नरौंदा
:
जब अबिमार ने 'मुर्शिद'
कह दिया है
तो मेरा हृदय
प्रसन्नता से
फूल उठा है.
क्योंकि जब
मीरदाद ने
अपना भेद खोला
उस से बहुत
पहले हमारे
बीच इसी शब्द
पर मतभेद पैदा
हुआ था; मैं—
कहता था कि वह
शिक्षक है जो
लोगों को
दिव्य ज्ञान का
मार्ग दिखाने
आया है, और
अबिमार का हठ
था कि वह केवल
एक साधारण
व्यक्ति है।
मीरदाद
:
नरौंदा को
सन्देह की
दृष्टि से न
देखो, अबिमार
क्योंकि वह
तुम्हारे
द्वारा लगाये
गये दोष से
मुक्त है।
अबिमार
:
तो फिर
तुम्हें किसने
बताया? क्या
तुम मनुष्य के
विचारों को भी
पढ़ लेते हो?
मीरदाद
:
मीरदाद को न
गुप्तचरों की
आवश्यकता है न
दुभाषियों की।
यदि तुम
मीरदाद से उसी
तरह प्रेम
करते जैसे वह
तुमसे करता है, तो
तुम आसानी से
उसके विचारों
को पढ़ लेते और
उसके हृदय के
अन्दर भी झाँक
लेते।
अबिमार
:
एक अंधे और
बहरे मनुष्य
को क्षमा करो, मुर्शिद।
मेरे आंख और
कान खोल दो, क्योंकि मैं
देखने और
सुनने के लिये
उत्सुक हूं।
मीरदाद
:
केवल प्रेम ही
चमत्कार कर
सकता है। यदि
तुम देखना
चाहते हो तो
अपनी आँख की
पुतली में
प्रेम को बसा
लो। यदि तुम
सुनना चाहते
हो तो अपने कान
के पर दे में
प्रेम को
स्थान दो।
अबिमार
:
किन्तु मैं
किसी से मृणा
नहीं करता, नरौंदा
से भी नहीं।
मीरदाद : घृणा
न करना प्रेम
करना नहीं
होता, अबिमार।
क्योंकि
प्रेम एक
क्रियाशील
शक्ति है; और
जब तक यह
तुम्हारी हर
चेष्टा को, तुम्हारे हर
पद को राह न
दिखाये, तुम
अपना मार्ग
नहीं पा सकते;
और जब तक
प्रेम
तुम्हारी हर
इच्छा में, हर विचार
में पूरी तरह
समा न जाये, तुम्हारी
इच्छाएँ
तुम्हारे
सपनों में
कँटीली
झाड़ियाँ
होंगी; तुम्हारे
विचार
तुम्हारे
जीवन में शोक—गीत
होंगे।
इस
समय मेरा दिल
रबाब है, और
मेरा गाने को
जी चाहता है।
ऐ भले जमोरा
तुम्हारा
रबाब कहाँ है?
जमील
:
क्या मैं जाकर
उसे ले आऊँ, मुर्शिद?
मीरदाद
:
जाओ,
जमोरा।
नरौंदा
:
जमील उसी क्षण
उठा और अपना
रबाब लाने के
लिये—वला गया।
बाकी सब कुछ
समझ न पाये और
एक दूसरे की
ओर देखते हुए
खामोश बैठे
रहे।
जब
जमोरा रबाब
लेकर लौटा तो
मुर्शिद ने
धीरे से उसे
अपने हाथ में
ले लिया और
स्नेह के साथ
उस पर झुकते
हुए उसके हर
तार का सुर
मिलाया और फिर
उसे बजाते हुए
गाना शुरू कर
दिया।
मीरदाद
:
तैर,
तैर, री
नौका मेरी,
प्रभु
तेरा कप्तान।
उगले
जीवित और मृतक
पर
नरक
अपना प्रकोप
भयंकर,
आग
में उसकी तप
कर धरती
हो
जाये ज्यों
पिघला सीसक,
नभ—मण्डल
में रहे न
बाकी
किसी
तरह का कोई
निशान।
तैर, तैर,
री नौका
मेरी,
प्रभु
तेरा कप्तान।
चल, चल,
री ऐ नौका
मेरी,
प्रेम
तेरा कम्पास।
उत्तर—दक्षिण, पूरब—पश्चिम
कोष
अपना तू जाकर
बाँट।
तरंग—शृंग
पर तुझको अपने
कर
लेगा तूफान
सवार,
मल्लाहों
को अन्धकार
में
वहाँ
से तू देगी
प्रकाश।
चल, चल,
री ऐ नौका
मेरी,
प्रेम
तेरा कम्पास।
वह, री
ऐ नौका मेरी,
लंगर
है विश्वास।
गड़गड़
कर चाहे बादल
गरजे,
कौंधे
तडित कडक के
साथ,
थर्रा
उठें अचल, फट
जायें,
मानव
दुर्बल—हृदय
हो .जायें
खण्ड—खण्ड
हों,
फैले त्रास
भूल
जायें वे
दिव्य प्रकाश
पर
बहती जा री
नौका मेरी
लंगर
है विश्वास।
नरौंदा
:
मुर्शिद ने
गाना बन्द
किया और रबाब
पर ऐसे झुक
गये जैसे
प्यार में खोई
माँ छाती से
लगे अपने
बच्चे पर झुक
जाती है। और
यद्यपि रबाब
के तार अब कम्पित
नहीं हो रहे
थे,
फिर भी अभी
उसमें से ''तैर.
तैर, री
नौका मेरी, प्रभु तेरा
कप्तान'' की
धुन आ रही थी।
और यद्यपि
मुर्शिद के
ओंठ बन्द थे, फिर भी उनका
स्वर कुछ समय
तक नीड़ में
गूँजता रहा, और तरंगें
बन कर तैरता
हुआ पहुँच गया
चारों ओर ऊँची—नीची
चोटियों तक; ऊपर
पहाड़ियों और
नीचे वादियों
तक; दूर
अशान्त सागर
तक, ऊपर
मेहराबदार
नीले आकाश तक।
उस
स्वर में
सितारों की
बौछारें और
इन्द्र—धनुष
थे,
उसमें
भूकम्प और
झक्कड़ थे और
साथ ही थीं
सनसनाती
हवाएँ और गीत
के नशे में
झूमती
बुलबुले।
उसमें कोमल, शबनम—लदी
धुन्ध से ढके
लहराते सागर
थे। लगता था
मानों सारी
सृष्टि आभार—भरी
प्रसन्नता के
साथ उस स्वर
को सुन रही है।
और
ऐसा भी लगता
था मानों दूधिया
पर्वत—माला
जिसके
बीचोंबीच
पूजा—शिखर था, अचानक
धरती से अलग
हो गई है और
अन्तरिक्ष
में तैर रहीं
है— गौरवशाली,
सशक्त तथा
अपनी दिशा के
बारे में आश्वस्त।
इसके
बाद तीन दिन
तक मुर्शिद
किसी से एक
शब्द भी नहीं
बोले।
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