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सोमवार, 21 मार्च 2016

संतो मगन भया मन मेरा--(प्रवचन--04)

संन्‍यास : अस्‍तित्‍व के साथ प्रेम की कला—(प्रवचन—चौथा)
दिनांक 14 मई सन्1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्‍नसार:
1—आप मंदिर—मस्जिदों के इतने खिलाफ हैं, फिर आप स्वयं क्यों यह विशाल मंदिर बना रहे हैं?
2—कल संन्यास लिया हूं। रज्जब जी की तरह घोड़े पर मौर पहनकर सवार तो नहीं, हताशा और विषाद से भरा हूं। संसार में डूबकर कुछ पा सकँगा, ऐसी मेरी हैसियत नहीं। ऐसे में क्या मेरा संन्यास उचित है? आशीष दें कि मेरा संन्यास भगोड़े का परिणाम न बने!
3—जीवन में इतना दुःख क्यों है?
4—एक संन्यासी द्वारा अपने एक संन्यासी गुरुभाई के संबंध में प्रश्न!
5—..... मैं निपट नास्तिक हूं। ध्यान भी करता हूं, पर मन का कोई सहयोग नहीं रहता। आपके प्रवचनों में अनोखा आकर्षण, मन को आनंदाभिभूत प्रेरणाएँ; मन की गुत्थियाँ खुल जाना तथा आपके प्रति अगाध श्रद्धा से भर जाना। क्या मैं आपके संन्यास के योग्य हूं?


पहला प्रश्न : आप मंदिर—मस्जिदों के इतने खिलाफ हैं, फिर आप स्वयं ही क्यों यह विशाल मंदिर बना रहे हैं?
मंदिर और यहाँ! कुछ भूल हो गयी होगी तुम्हारी समझ में। यह मंदिर नहीं है। मधुशाला भले हो! शराबबंदी के बावजूद भी मेरा भरोसा शराब में है। और शराब ऐसी कि चढ़े तो उतरे नहीं। और शराब बाहर के अंगूरों से ढाली गयी नहीं—भीतर के अंगूरों से ढाली गयी।
यहाँ कैसा मंदिर, कैसी मस्जिद? यह तो पियक्कड़ों का जमाव है। यहाँ तो जो पीने और पिलाने की तैयारी रखते हों, उन्हीं का स्वागत है। यहाँ हम परमात्मा की पूजा नहीं कर रहे हैं, परमात्मा को पी रहे हैं। हाँ, मेरे जाने के बाद शायद मंदिर बने। उसकी जुम्मेवारी तुम पर होगी। उसका कसूर तुम्हारा होगा। मेरे रहते तो यह मधुशाला ही रहेगी!
यही तो अड़चन है मंदिर—मस्जिद वालों को, कि यह मंदिर नहीं है, मस्जिद नहीं है। यही तो उनका विरोध है। यही तो उनकी नाराजगी है। और तुम कहते हो, यहाँ विशाल मंदिर बन रहा है! विशाल मधुशाला बन रही है। और जब भी कोई मंदिर जीवित होता है तो मधुशाला ही होती है। और जब कोई मधुशाला मर जाती है तो मंदिर हो जाता है।
मंदिर मधुशालाओं की लाशें हैं। बुद्ध थे, तो मधुशाला थी। मुहम्मद थे, तो मधुशाला थी। मुसलमान के पास मस्जिद है। बौद्धों के पास मंदिर है। ये रेखाएँ हैं समय की रेत पर छूट गयी। शब्द पकड़ लिये गए, उनका रस तिरोहित हो गया है। अब वहाँ शराब नहीं ढाली जाती, अब वहाँ केवल शास्त्रों की चर्चा होती है। अब वहाँ कोई नाचता नहीं, वहाँ कोई उमंग नहीं हैं, वहाँ कोई प्रेम की बरखा नहीं होती है। अब तो वहाँ मरुस्थल हैं—सिद्धांतों के, तर्कों के, विवादों के।
यहाँ कोई विवाद नहीं है, कोई तर्क नहीं है। कोई सिद्धांत नहीं है—नाच है, गीत है, मस्ती है और तुम कहते हो, यहाँ मंदिर—मस्जिद बन रहा है! यहाँ कैसा मंदिर, कैसी मस्जिद? मेरा भरोसा ही पूजा पर नहीं है। मेरा भरोसा मस्ती पर है। हाँ, मस्ती से पूजन उठे, मस्ती पूजन बन जाए, तो प्यारी है। ध्यान रखना, पूजा से मस्ती कभी नहीं उठी है। और जब भी कभी सच्ची पूजा उठी है तो मस्ती से उठी है।
दुनिया में कुछ चीजें हैं जो तुम संकल्प से न कर सकोगे। और उन्हें ठीक—ठीक समझ लेना, अन्यथा जीवन में भूल होती ही चली जाती है। जैसे, निरहंकार—भाव तुम संकल्प से पैदा न कर सकोगे। विनम्रता पैदा कर सकते हो। दोनों एक—से लगते हैं। निरहंकार—भाव चेष्टा से, उपाय से, आयोजन से नहीं होता। निरहंकार—भाव कोई चरित्र का लक्षण नहीं है—चरित्र से मुक्‍ति है। क्योंकि सब चरित्र अहंकार के आसपास होता है—बुरे आदमी का चरित्र भी और अच्छे आदमी का भी। असाधु भी और साधु भी, दोनों अहंकार पर जीते हैं। संत वह है जो अहंकार के बाहर जीता है। निरहंकार—भाव की कोई साधना नहीं हो सकती। लेकिन अगर तुम साधना करोगे तो तुम विनम्रता जरूर पैदा कर सकते हो। विनम्रता संकल्प के भीतर है; और विनम्रता निरहंकार—जैसी मालूम होती है, यही खतरा है।
दुनिया में असली खतरा उन चीजों से है, जिनसे धोखा पैदा होता है। अहंकार से बड़ा खतरा नहीं है, क्योंकि अहंकार तो साफ है कि अहंकार है। उससे खतरा क्या होगा? जहर की बोतल है, जहर का "लेबल' भी है। विनम्रता से खतरा है—बोतल जहर की है, "लेबल' अमृत का है। और विनम्रता से खतरा है, क्योंकि विनम्रता निरहंकारिता जैसी मालूम होती है। बस मालूम होती है, असली नहीं है। क्योंकि विनम्रता साधी जा सकती है। और निरहंकार—भाव उतरता है—प्रसाद है। जब तुम मिट जाते हो तब आगमन होता है उसका। तुम चेष्टा करते रहते हो तो जो बना पाते हो चेष्टा से, वह विनम्रता है। विनम्रता अहंकार है—शीर्षासन करता हुआ। निरहंकार—भाव अहंकार का विसर्जन है।
जब पूजा आनंद से, मस्ती से पैदा होती है, तो तुम करने वाले नहीं होते—वहाँ पुजारी नहीं होता; वहाँ पुजारी मिट जाता है। जिस पूजा में पुजारी मिट जाए वही पूजा सच्ची है। लेकिन फिर एक और पूजा है—झूठी, चेष्टित, आयोजित—उस पूजा से पुजारी पैदा होता है। मिटता नहीं, पैदा होता है। कल तक तुम पुजारी नहीं थे, अब तुमने पूजा का अभ्यास करना शुरू किया, अब तुम पुजारी हो गए। अब तुम्हारे भीतर एक अकड़ पैदा हुई कि मैं पुजारी हूं; एक सूक्ष्म अस्मिता जगी कि मैं विशिष्ट हूं, धार्मिक हूं।
मैं यहाँ पूजा नहीं सिखा रहा हूं—वह पूजा, जिससे पुजारी पैदा होता है। मैं यहाँ शराब ढाल रहा हूं—वह नशा, जिससे पुजारी मिट जाता है। और जहाँ पुजारी नहीं है, वहाँ एक पूजा है। ऐसी पूजा, जो रूपांतरकारी है; ऐसी पूजा, जो आकाश से उतरती है और तुम्हें आह्लाद, आलोक से भर देती है। तुम्हारे हाथों से निर्मित नहीं है—परमात्मा का प्रसाद है।
मंदिर हम बना नहीं रहे हैं। हम तो सिर्फ उन लोगों को जगा रहे हैं जिनकी मौजूदगी में अपने—आप.....जिनकी मौजूदगी में मंदिर की पावनता होती है। जो जहाँ बैठ जाते हैं तो तीर्थ बन जाते हैं; जिनके पैर जहाँ पड़ जाते हैं वहीं स्वर्ग हो जाता है।
हम मंदिर नहीं बना रहे हैं। हम तो उन चेतनाओं को जगा रहे हैं जिनकी मौजूदगी में मंदिर की सुगंध अपने—आप होती है। वे जहाँ होंगे, वहाँ होगी। बाजार में खड़े होंगे तो वहाँ मंदिर होगा। यह कुछ और ही बात है। यह बात इतनी भिन्न है, इसीलिए अड़चन है। इसलिए मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे के लोग नाराज हैं। उनको तो लग रहा है, मैं उनकी जड़ें काट रहा हूं, उनके मंदिर गिरा रहा हूं।
और तुम पूछते हो कि आप यहाँ विशाल मंदिर बना रहे हैं! यहाँ कोई मंदिर नहीं बनाया जा रहा है। यहाँ मस्त जरूर इकट्ठे हो रहे हैं। यहाँ मस्ती जरूर बाँटी जा रही है। यहाँ एक दीवानगी उठ रही है, एक पागलपन पैदा हो रहा है—एक पागलपन जो परमात्मा का है।

निकलकर दैरो—काबा से अगर मिलता न मैखाना
तो ठुकराये हुए इंसाँ खुदा जाने कहाँ जाते?
चलो अच्छा हुआ काम आगयी दीवानगी अपनी
वगरना हम जमाने—भर को समझाने कहाँ जाते?
मंदिर और मस्जिद से पीड़ितों के लिए भी तो कोई जगह चाहिए न। यही है वह जगह।
निकलकर दैरो—काबा से अगर मिलता न मैखाना.....। कहीं कोई मधुशाला चाहिए। मंदिर और मस्जिद तो तुम्हें मार रहे हैं। खुद मुर्दा हैं, तो तुम्हें भी मारेंगे। खुद जड़ हैं, तो तुम्हें भी जड़ करेंगे। खुद पत्थर हैं, तुम्हें पथरीला कर देंगे। इसलिए तो हिंदू और मुसलमान पत्थरों जैसे हो जाते हैं, हिंसक हो जाते हैं, कठोर हो जाते हैं। हृदय खो जाता है।
देखते नहीं हिंदू—मुसलमानों के झगड़े? देखते नहीं ईसाइयों और मुसलमानों का जेहाद? देखते नहीं मनुष्यजाति के इतिहास पर पड़े हुए खून के धब्बे? धार्मिक आदमियों के ऊपर ही उनका जुम्मा है। इस पृथ्वी पर धार्मिक आदमियों ने जितना अधार्मिक व्यवहार किया है, उतना किसी और ने नहीं किया। शैतान को पूजने वालों ने क्या बुराई की है? सारी बुराई का जुम्मा भगवान को पूजने वालों के हाथ में है। तुम ज़रा इतिहास के पन्ने तो पलटो! तुम ज़रा ऑंख खोलकर तो देखो कि धर्म के नाम पर क्या हुआ है!

निकलकर दैरो—काबा से अगर मिलता न मैखाना 
तो ठुकराये हुए इंसाँ खुदा जाने कहाँ जाते? 
कहीं तो कुछ जगह बचने दो। कहीं तो कोई शरण—स्थल रहने दो। कहीं तो किसी बुद्ध को मधुशाला चलाने दो। कहीं किसी महावीर को घोलने दो उस अमृतरस को। पीने दो पीनेवालों को। हाँ, जिन्हें पीना नहीं है, जो पीने से डरते हैं, वे, ठीक है, जाएँ मंदिर और मस्जिद। उनके लिए भी झूठे स्थान चाहिए, ताकि उन्हें भ्रांति रहे कि वे धार्मिक हैं। बिना धार्मिक हुए जिन्हें धार्मिक होने की भ्रांति सजानी है, वे जाएँ वहाँ। यहाँ हम कोई तर्क तो नहीं समझा रहे हैं। यह तो अतक्र्य है।
चलो अच्छा हुआ काम आगयी दीवानगी अपनी.....। मेरे संन्यासियों से कोई पूछेगा कि उनसे मेरा लगाव क्या, मुझसे उनका लगाव क्या? तो क्या उत्तर है उनके पास? ऑंख में ऑंसू हो सकते हैं, ओंठ पर मुस्कराहट हो सकती है, पैर में नाच की धुन हो सकती है—उत्तर क्या है?

चलो अच्छा हुआ काम आगयी दीवानगी अपनी
बगरना हम ज़माने—भर को समझाने कहाँ जाते? 
तुम समझा पाओगे किसी को कि मुझसे तुम्हारा नाता क्या है? तुम जितना समझाओगे उतना ही न समझा पाओगे। लोग तुम्हें पागल समझेंगे।
यहाँ मंदिर नहीं बन रहा है—या, असली मंदिर बन रहा है।
आशा करो उस भविष्य की कि कभी वह दिन होगा कि पृथ्वी पर मंदिर और मस्जिद न होंगे, मधुशालाएँ ही होंगी।

जिंदगी की तबील राहों में
मुतलकन पेचोख़म नहीं होंगे
एक ऐसा भी वत्त आएगा 
जब यह दैरो—हरम नहीं होंगे 
ये मिट रहे हैं मंदिर और मस्जिद। मिट ही जाने चाहिए। ये जमीन पर वैसे ही जरूरत से ज्यादा रह लिए हैं। ये बोझ हैं। इनके होने की कोई जरूरत नहीं है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध की कोई आवश्यकता नहीं है। यहाँ ईश्वर को प्रेम करनेवाले लोग होने चाहिए, बस इतना काफी है। यहाँ प्रार्थना में डूबनेवाले लोग होने चाहिए, बस इतना काफी है। यहाँ पूजा से भरे हृदय होने चाहिए, इतना काफी है। वे पूजा कहाँ करते हैं, कैसे करते हैं—इसका कोई नियंता नहीं होना चाहिए।
पूजा नैसर्गिक है, वैयक्‍तिक है, निजी है। प्रार्थना परमात्मा और तुम्हारे बीच गुफ्तगू है—उधार नहीं, सिखायी हुई नहीं। और जब तुम सिखाए हुए शब्द दोहराते हो, तभी सब झूठ हो जाता है। अपनी बात कहना। जिस दिन तुम अपनी बात परमात्मा से कह सकोगे, परमात्मा भी तुमसे अपनी बात कह सकेगा। जब तक तुम ग्रामोफोन के रिकार्ड हो तब तक वहाँ से कोई उत्तर नहीं आएगा। उत्तर नहीं आता है तो तुम सोचते हो परमात्मा नहीं है। उत्तर नहीं आता तो सिर्फ एक ही बात का सबूत है कि तुम्हारी प्रार्थना सीखी हुई, उधार है, झूठी है, कृत्रिम है, औपचारिक है, आयोजित है; हार्दिक नहीं है; तुम्हारे अंतरतम से नहीं उठी है; तुम्हारे प्राणों का साथ नहीं है।
यहाँ तो अड़चन उन्हीं को हो रही है जो मंदिर—मस्जिदों के आदी हो गए हैं, जिन्होंने कसमें खा ली हैं कि शराब पिएँगे ही नहीं। उनको अड़चन हो रही है। उनको बड़ी मुसीबत हो रही है। उन्हें यहाँ का रंग—ढंग बड़ा कष्ट में डाल जाता है।

हमने कल ही कसम यह खायी थी
अब न सहबा को मुँह लगाएँगे,
काश! पहले से यह ख़बर होती
आज वे खुद हमें पिलाएँगे
कसमें खाए लोग बैठे हैं कि पिएँगे ही नहीं, मस्त होंगे ही नहीं, आनंदमग्न होंगे ही नहीं। धर्म ने तुम्हें गंभीरता सिखायी, नाच नहीं। और जो धर्म गंभीरता सिखाता है, बचना उससे, सावधान होना उससे! क्योंकि परमात्मा गंभीर नहीं है। परमात्मा उत्सव है। ऑंखें हों तो देखो—चारों तरफ उसका उत्सव है! कान हों तो सुनो—चारों तरफ उसके गीत है! हृदय हो तो अनुभव करो—हवा के हर झोंके में उसका नाच है। वृक्ष के हर हरे पत्ते में उसकी हरियाली है। नदी की हर यात्रा में उसकी ही यात्रा है। और सागर की उत्ताल तरंगों में उसका ही नाच है। देखो ज़रा ऑंख खोलकर, ज़रा चारों तरफ देखो, परमात्मा तुम्हें उदास दिखायी पड़ता है? परमात्मा तुम्हें महात्माओं—जैसा दिखायी पड़ता है? परमात्मा नाचता हुआ है। उसके हाथ में बाँसुरी है। उसने मोर—मुकुट बाँधा हुआ है।
लेकिन जिन्होंने कसम खा ली है गंभीर होने की, उन्हें बड़ी अड़चन हो जाती है। और गंभीर होने की कसम क्यों खा ली है? हर गंभीरता अहंकार के लिए भोजन बनती है। जितना गंभीर आदमी हो, उतना अहंकारी हो जाता है। जितना अहंकारी हो, उतना उसे गंभीर होना पड़ता है। बच्चे इसीलिए तो निरहंकारी होते हैं, क्योंकि गंभीर नहीं होते। अभी अहंकारी होने—योग्य गंभीरता उनमें नहीं है। अभी भोलापन है, अभी सरलता है।
जीसस ने कहा है : तुम मेरे प्रभु के राज्य में तभी प्रवेश कर सकोगे जब छोटे बच्चों की भाँति हो जाओ। यही तो सारे जानने वालों का संदेश है।
मैं तो तुमसे कहता हूँ : पीओ, पिलाओ! चार दिन की जिंदगी है, उसे नृत्य बनाओ! उसे उत्सव बनाओ! छलको! ऐसे कंजूस होकर, अपने को बाँधकर मत बैठे रहो।

दावरे—हश्र! देखता क्या है
मैं वही रिंद लाउबाली हूँ
इससे पहले कि तू सवाल करे
मैं खुद इक जाम का सवाली हूँ
किसी पियक्कड़ ने कहा है.....पहुँच गया है स्वर्ग, खड़ा है द्वार पर, प्रलय का न्यायाधीश सामने बैठा है।
"दावरे—हश्र!'..... कहता है : हे न्यायाधीश! देखता क्या है?....."मैं वही रिंद लाउबाली हूँ!' भूल गया? मुझे तो सारा जग जानता है कि मैं वही पागल पियक्कड़ हूँ! "मैं वही रिंद लाउबाली हूँ। इससे पहले कि तू सवाल करे, मैं खुद इक जाम का सवाली हूँ।' और इसके पहले कि तू कुछ पूछे, कुछ पीना—पिलाना हो जाए।
यह मधुशाला है। यहाँ और सब जो चल रहा है, वह तुम्हारे भीतर मधु को जन्माने का उपाय है।

तेरी जन्नत में भी अरे वाइज़! 
पीने वाले जरूर पी लेंगे
हे विरागी! हे महात्मा! तेरे स्वर्ग में भी पीनेवाले जरूर पी लेंगे।

तेरी जन्नत में भी अरे वाइज़!
पीने वाले जरूर पी लेंगे
मैं अगर दस्तयाब हो न सकी
सुर्खिए—चश्मे—हूर पी लेंगे
अगर न मिली शराब, कोई फिकर नहीं; स्वर्ग में रहनेवालों की आंखों की लाली तो होगी! उनकी मस्ती तो होगी! उसी को पी लेंगे।

मैं अगर दस्तयाब हो न सकी
सुर्खिए—चश्मे—हूर पी लेंगे
वे जो आंखों के चश्मे होंगे स्वर्ग में रहनेवालों के, उनकी आंखों में मस्ती होगी—होनी ही चाहिए, नहीं तो स्वर्ग में और क्या होगा? फिर स्वर्ग और नरक में फर्क क्या होगा?
मैं बहुत सोचता हूँ, बहुत विचार करता हूँ, कि तुम जब स्वर्ग जाओगे तो तुम्हें एक बड़ा अचंभा होगा—तुम अपने किसी महात्मा को वहाँ न पाओगे। मैं क्षमायाची हूँ, लेकिन सच है तो सच को कहना ही पड़ेगा। तुम्हारे सब महात्मा नरक में ही बस सकते हैं, नरक ही उन्हें रास भी आएगा—वहाँ बड़ी गंभीरता है। वहाँ काँटों पर लेटना हो तो यहाँ से बड़े—बड़े काँटे मिलते हैं। और वहाँ धूनी लगानी हो, धूनी जलाने की जरूरत ही नहीं पड़ती, धूनी वहाँ जल ही रही है। लपटें—ही—लपटें! वहाँ भूखा मरना हो, उपवास करना हो, तो कोई आयोजन नहीं करना पड़ता। वहाँ भूख लगती है और भोजन मिलता ही नहीं। वहाँ प्यासा रहना हो, मजे से रहो। प्यास लगती है, पानी का पता ही नहीं।
 ऐसा लगता है कि नरक बिल्कुल तपस्वियों के लिए ही बनाया गया है— विशेष रूप से आयोजित! स्वर्ग में तुम नाचने वालों को पाओगे। पीनेवालों को पाओगे।
या तो इसे मधुशाला कहो, या असली मंदिर कहो। दोनों का अर्थ एक ही होता है।

दूसरा प्रश्न : मैं कल संन्यास लिया हूँ। रज्जब जी की तरह घोड़े पर मौर पहन कर सवार तो नहीं हूँ, हताशा और विषाद से भरा हूँ; संसार में पूरा डूबकर कुछ पा सकूँगा, ऐसी मेरी हैसियत भी नहीं है। इस हालत में क्या मेरा संन्यास उचित है? मैं किसी प्रेम और आनंद की घड़ी की प्रतीक्षा में हूँ। आशीष दें कि मेरा संन्यस्त होना भगोड़े का परिणाम न बने।
प्रत्येक व्‍यक्‍ति घोड़े पर सवार है। घोड़ों का रंग—ढंग अलग—अलग है। किसी का गरीब घोड़ा है—उदास, हताश, हारा हुआ। किसी का अमीर घोड़ा है—उमंग से भरा, शक्‍तिशाली, लगाम तोड़कर भागने को उत्सुक, दौड़ के लिए आतुर। घोड़े पर सब सवार हैं। संसार में हो ही नहीं सकता आदमी जो घोड़े पर सवार न हो। चाहे खच्चर ही हो, चाहे गधा ही हो—लेकिन लोग सवार तो हैं ही। संसार का अर्थ ही होता है, सवारी। हताशा का घोड़ा ही सही, निराशा का घोड़ा ही सही।
और जिनने पूछा है, उन मित्र को.....उनका नाम है : उमंग भाई! मैंने भी बदला नहीं उनका नाम। उनकी हालत देखकर मैंने रख दिया : स्वामी उमंग भारती। उमंग नहीं है। माँ—बाप ने भी सोच—समझकर नाम दिया होगा। हताशा है, निराशा है। मगर संसार में हताशा—निराशा ही हाथ लगती है, सभी को। फिर घोड़े अमीरों के हों कि गरीबों के, सभी हताशा में पहुँचते हैं। और आदमी शानदार कीमती घोड़ों पर चले कि सस्ते गधों पर चले, मंजिल एक ही है—मौत। और जब मंजिल एक है, मौत, तो हताशा ही तो परिणाम होनेवाला है। अंधेरी रात ही है आगे। आगे कोई उजाला नहीं, आगे कोई सुबह नहीं। सुबह की तो सिर्फ कल्पना है, सपने हैं। सुबह कभी होती नहीं। इस संसार में सुबह होती ही नहीं। इस संसार में अंधेरी रात है। मगर रात इतनी अंधेरी है कि अगर सुबह का भरोसा न करो तो जीओं कैसे? रात इतनी अंधेरी है कि अगर सुबह की आशा न रखो तो रात कटे कैसे?
इसलिए हताश आदमी को नाम देते हैं : उमंग। अंधे आदमी को कहते हैं : नयनसुख। कुरूप स्त्री को कहते हैं : सुंदरबाई। मृत्यु की यात्रा को कहते हैं : महायात्रा! प्यारे नाम चुनते हैं! इनकी आड़ में हम कुछ छिपा रहे हैं। ये प्यारे नाम चुनकर हम धोखा दे रहे हैं, धोखा खा रहे हैं। यहाँ कुछ भी सुंदर नहीं है। यहाँ सुंदर होता ही नहीं। यहाँ सुंदर हो नहीं सकता। सौंदर्य तो परमात्मा के साथ संबंध हो, तभी पैदा होता है। सौंदर्य तो परमात्मा और तुम्हारे बीच सेतु बन जाए, तो ही उमगता है। सौंदर्य के फूल तो परमात्मा और मनुष्य के बीच ही खिलते हैं, और किसी तरह नहीं खिलते। और कोई उपाय नहीं है।
जीवन का आनंद परमात्मा के साथ होने में है। जीवन की उमंग उसके साथ होने में है। और संसार का अर्थ होता है, हम उसके साथ नहीं हैं। संसार का अर्थ होता है, संक्षिप्त में, कि हम बिना उसके सुखी होने की चेष्टा कर रहे हैं; और कुछ अर्थ नहीं होता। संसार का इतना ही सीधा—सीधा भाष्य है कि हम परमात्मा के बिना सुखी होने की चेष्टा कर रहे हैं। यह चेष्टा सफल नहीं हो सकती, क्योंकि परमात्मा के बिना हमारी कोई चेष्टा सफल नहीं हो सकती। उसके साथ ही जीत है। उसके साथ नहीं, तो हार है। और हर आदमी यही कोशिश कर रहा है कि जीत हो जाए और परमात्मा का साथ न लेना पड़े।
साथ लेने में भी अहंकार को बड़ी पीड़ा होती है। क्योंकि साथ लेने का मतलब होता है, झुकना पड़े। साथ लेने का मतलब होता है, हाथ फैलाना पड़े, भिक्षापात्र उठाना पड़े। नहीं, अहंकार कहता है, घबड़ाओ मत, थोड़ी चेष्टा और, थोड़ा प्रयास और। दो—चार कदम और। सुबह ज्यादा दूर नहीं है। और जब रात बहुत अंधेरी हाती है तो सुबह बहुत करीब होती है, घबड़ाओ मत। और हर अंधेरी बदली में बिजली की रजत—रेखा छिपी है। उदासी है, तो कहीं आशा का दीया भी जलता होगा, घबड़ाओ मत। थोड़ी तलाश और थोड़ी खोज और। थोड़ी खुदाई और। अभी पत्थर हाथ लग रहे हैं, घबड़ाओ मत, जलस्त्रोत भी आता ही होगा।
ऐसा मन कहे ही चला जाता है। अहंकार समझाए ही चला जाता है—आखिरी तक, अंतिम क्षण तक। न तो कभी सुबह होती, न वे रजत—रेखाएँ मिलतीं, न जल—स्त्रोत हाथ लगते। आदमी व्यर्थ जीता है और व्यर्थ मर जाता है।
परमात्मा के बिना कोई जीत नहीं है।
तुमने प्रसिद्ध वचन सुना है न : "सत्यमेव जयते'। सत्य जीतता है। परमात्मा जीतता है। झूठ कितने ही भरोसे दिला दे, जीत नहीं सकता। और अहंकार सबसे बड़ा झूठ है। और सब झूठ उसकी संतान हैं; वह महापिता है। जैसे ब्रह्मा ने जगत रचा, ऐसे अहंकार ने सारे झूठों का संसार रचा है। एक झूठ को सम्हालने के लिए हजार झूठों के सहारे लेने पड़ते हैं।
तुमने देखा ही होगा, एक झूठ बोलो और मुश्किल शुरू हुई। फिर दस झूठ बोलने पड़ते हैं उसे बचाने को। फिर उन दस झूठों को बोलने के लिए और हजार झूठ बोलने पड़ते हैं। फिर झूठ से झूठ— और तुम फँसते जाते हो, उलझते जाते हो। सच बोलो, फिर तुम्हें कुछ भी फिकर नहीं करनी पड़ती। इसलिए झूठ वही आदमी बोल सकता है जिसके पास अच्छी स्मृति हो। नहीं तो झूठ बोलना बड़ा मुश्किल है। स्मृति कमजोर हो तो झूठ मत बोलना क्योंकि बड़ी याददाश्त रखनी पड़ती है—किससे क्या कहा। सब हिसाब रखना पड़ता है। स्मृति ठीक न हो तो सच ही बोलना; उसमें याद नहीं रखना पड़ता। सच तो याद रखना ही नहीं पड़ता। सच तो सच है—ज्यूँ का त्यूँ ठहराया—अब उसमें याद क्या रखना है? अगर सुबह छह बजे सुबह हुई थी और तुमने कहा, सुबह छह बजे सुबह हुई थी, तो याद क्या रखना? लेकिन किसी से कहा, सुबह सात बजे सुबह हुई थी, और किसी से कहा सुबह आठ बजे सुबह हुई थी, और किसी से कहा सुबह नौ बजे सुबह हुई थी—अब मुश्किल में तुम पड़ोगे। अब तुम्हें याद रखना पड़ेगा कि तीनों कहीं आपस में न मिल जाएँ, कहीं एक—दूसरे से बात न कर लें, कहीं इनको पता न चल जाए! और फिर तुम्हें याद रखना पड़ेगा—किससे क्या कहा है?
सत्य सीधा—साफ है। झूठ जटिल है। और सबसे बड़ा झूठ क्या है संसार में? सबसे बड़ा झूठ है कि मैं हूँ। क्यों कहता हूँ कि सबसे बड़ा झूठ है यह? क्योंकि यह बात है ही नहीं। परमात्मा है, तुम नहीं हो। न मैं हूँ, न तुम हो—परमात्मा है। न वृक्ष हैं, न पहाड़ हैं, न पर्वत हैं—परमात्मा है। न चाँद है, न तारे हैं—परमात्मा है। यहाँ एक का ही आवास है। उस एक की ही हजार—हजार तरंगें हैं, रूप हैं, रंग हैं, ढंग हैं। वही अभिव्यत्त है। ये सब लहरें उसी एक सागर की हैं। मगर हर लहर दावा कर रही है कि मैं हूँ, यह भी दावा है कि मुझसे बड़ी कोई लहर नहीं। यह भी दावा है कि मुझसे बड़ी कोई लहर को होने भी न दूँगी। और यह भी दावा है कि टिकूँगी और रहूँगी और सदा के लिए स्थान बनाकर रहूँगी। अमर हो जाऊँगी। बस झूठों का जाल शुरू हुआ। हार न होगी तो क्या होगी?
इसलिए कहता हूँ तुमसे, उमंग भारती! इस जगत में तो हार ही है, पराजय ही है। लेकिन अब तुम संन्यस्त हुए। संन्यास का अर्थ भी ठीक से ले लो। अगर संसार का अर्थ है, परमात्मा के बिना सफल होने की चेष्टा, तो संन्यास का अर्थ साफ है। संन्यास का अर्थ है, परमात्मा के साथ होकर सफल होने की चेष्टा। फिर चेष्टा करनी ही नहीं पड़ती; उसके साथ होने में ही सफलता है। उसका साथ क्या मिला कि विजय—यात्रा शुरू हो जाती है। परमात्मा जीतता ही है, हार ही नहीं सकता। किससे हारेगा? उसके अतिरित्त कोई है नहीं। कैसे हारेगा? उसका हर कदम विजय का कदम है। और जिसके कदम उसके साथ पड़ने लगें, उसको ही मैं संन्यासी कहता हूँ। संन्यासी से मेरा मतलब नहीं है कि संसार छोड़कर भाग गए। संन्यासी से मेरा अर्थ है, संसार की मूल प्रक्रिया को समझ लिया। प्रक्रिया हुई संसार की—परमात्मा से अलग—अलग रहकर जीतने की चेष्टा। बस। इस प्रक्रिया को छोड़ दिया। अब दूसरी प्रक्रिया पकड़ ली—परमात्मा के साथ होकर जीतने की प्रक्रिया। कहीं जाना नहीं, कहीं भागना नहीं।
तुमने पूछा है कि मैंने संन्यास तो ले लिया, लेकिन क्या मेरा संन्यास उचित है? संन्यास अनुचित हो ही नहीं सकता। और अगर संन्यास अनुचित हो तो उसका एक ही अर्थ है कि लिया ही न होगा। संन्यास तो उचित ही होगा। संसार सदा अनुचित है, संन्यास सदा उचित है। परमात्मा के साथ होने में अनुचितता कैसे हो सकती है? हाँ, अगर न होओ साथ, ऊपर—ऊपर से दिखाओ साथ और भीतर—भीतर से अभी पुराना खेल जारी रखो, तो संन्यस्त तुम हुए ही नहीं। तो संन्यासी तो ठीक ही होता है; या, नहीं होता।
कपड़े बदल लेने से ही संन्यास का काम नहीं हो गया। भीतर की प्रक्रिया, भीतर का पूरा यंत्रजाल, जो जन्मों—जन्मों में निर्मित हुआ है, उसे गिराना पड़ेगा। अब से परमात्मा के साथ होने की भाषा में सोचो। अब से कहो : तेरी मर्जी पूरी हो! अब से कहो : मैं नहीं हूँ, अब तू जहाँ ले जाए वहीं जाऊँगा! मझधार में डुबाये तो डूब जाऊँगा, क्योंकि समझूँगा—यही किनारा है। मारे तो मरूँगा, क्योंकि समझूँगा यही शाश्वत जीवन है। तेरे हाथ से तलवार भी अब मेरे सिर पर गिरेगी तो फूल मालूम होगी। अब मेरी तुझसे अतिरित्त कोई आकांक्षा नहीं है, तुझसे भिन्न अब मेरा कोई विचार नहीं है। बस यही संन्यास है। यह संन्यास की आत्मा है।
संन्यस्त हुए हो, शुभ है। यह भाव भी शुभ है। इसलिए मैंने तुम्हारा नाम नहीं बदला, क्योंकि अब आशा है कि उमंग पैदा हो। माता—पिता ने तो दिया होगा किसी और आशा से, कि संसार में तुम जीतोगे; मैंने तुम्हें दिया नाम फिर से वही, इस आशा से कि अब तक तो तुम हार के रास्ते पर चले, अब जीत के मोड़ पर आ गए हो। अगर मुड़ गए तो जीत तुम्हारी है। जीत—ही—जीत। क्योंकि अब तुम नहीं हो तो हार हो ही नहीं सकती। तुम्हारी जीत का यही अर्थ होता है कि तुम नहीं हो, और जीत ही जीत है।
तुमने पूछा है, आशीष दें कि मेरा संन्यस्त होना भगोड़े का परिणाम न बने।
आशीष देता हूँ। वही तो मेरी चेष्टा है। वही तो महत आयोजन चल रहा है यहाँ। संन्यास भगोड़ों के हाथ में पड़ गया था; उसे उनके हाथ से छीन लेना है। उनके पास परंपरा का बल है। उनके पास हजारों साल का पुराना इतिहास है। अतीत उनके पक्ष में है। भविष्य मेरे पक्ष में है।
मैं तुम्हें जो संन्यास दे रहा हूँ, वैसा संन्यास पृथ्वी पर कभी था ही नहीं। क्योंकि संन्यास पृथ्वी पर था जीवन—विरोधी, नकारात्मक, पलायनवादी, भगोड़ेपन का—भाग जाओ! मैं कहता हूँ, भागना कहाँ है? बदल जाओ! भागो मत, जागो! जहाँ हो वहीं जागो! जैसे हो वैसे ही जाग जाओ! अब सब यहीं रूपांतरित हो जाता है, कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं होती। संन्यास कोई भौगोलिक यात्रा नहीं है—आत्मिक रूपांतरण है। नयी दृष्टि का आविर्भाव है। एक नया दर्शन है। एक नया परिप्रेक्ष्य। देखने की एक नयी शैली। होने की एक नयी व्यवस्था। एक नवोन्मेष। एक क्रांति।
भगोड़ापन संन्यासी को पकड़ा, क्योंकि वह सस्ता संन्यास था। वह समझ में आया लोगों को। लोग संसार से ऊब जाते हैं; पत्नी—बच्चे से ऊब जाते हैं; दुकानदारी से ऊब जाते हैं; एक—न—एक दिन घबड़ाहट पकड़ लेती है कि यह मैं क्या कर रहा हूँ; सब व्यर्थ है, समय जा रहा है; सोचते हैं भाग जाएँ, दूर निकल जाएँ इस सबसे। मगर जाओगे कहाँ? दूर निकल कर जाओगे कहां संसार अगर बाहर ही होता तो शायद हिमालय की गुफा में दूर निकल जाकर बैठ जाते तो निकल जाते बाहर। लेकिन न निकल पाओगे, क्योंकि संसार तुम्हारे भीतर की वृक्‍ति में है। परमात्मा से विपरीत खड़े होकर लड़ने का जो आग्रह है, वही संसार है। वह तो तुम्हारे साथ चली जाएगी वृक्‍ति। तुम वहाँ बैठकर हिमालय की गुफा में भी अपना संघर्ष जारी रखोगे। तुम वहाँ भी योद्धा की तरह परमात्मा से जूझते रहोगे। पहले तुम कहते थे, धन लेकर रहूँगा, अब तुम कहोगे, ध्यान लेकर रहूँगा। फर्क क्या पड़ेगा? पहले तुम कहते थे, दुनिया में जीत दिखाकर रहूँगा, अब तुम कहोगे कि मोक्ष में मकान बनाकर रहूँगा! लेकिन बनाना है! मैं हूँ बनानेवाला! वही पुराना भाव, वही ढर्रा। यह झूठा संन्यास है। यह संन्यास वास्तविक नहीं है।
मैंने सुना है, एक फिल्म अभिनेत्री बड़ी चतुर थी। उसने अपने गहनों को चोरों से बचाने के लिए एक तरकीब निकाल रखी थी। रात को जब वह सोती तो एक चिट लिखकर अपने गहनों के साथ रख देती, जिस पर लिखा रहता—ये सभी गहने नकली हैं, असली तो बैंक में हैं। एक सुबह उसने देखा कि उसके सभी गहने गायब हैं और उसके स्थान पर एक दूसरी चिट पड़ी है। चिट उसने उठायी और बड़ी उत्सुकता से उसे पढ़ा। उस पर लिखा था—मुझे नकली गहने ही चाहिए, क्योंकि मैं नकली चोर हूँ, असली तो जेल में है।
संसार भी तुम्हारा नकली है। उस नकली संसार से तुम्हारा जो संन्यास जन्मता है, वह भी नकली होता है। तुम जिस ढंग से संसारी थे, उसी ढंग से तुम संन्यासी हो जाते हो; कुछ बदलता नहीं। अब यह तुम्हें बड़ी विरोधाभासी बात लगेगी। लोग मुझसे आकर कहते हैं कि आपके संन्यासी में कुछ बदलता नहीं, क्योंकि वह दुकान करता था तो दुकान ही करता रहता है। और मैं उनसे कहता हूँ, पुराने संन्यासी में कुछ नहीं बदलता था; क्योंकि वह जिस तरह परमात्मा से लड़ता था, उसी तरह परमात्मा से फिर भी लड़ता रहता है। मेरे संन्यासी में बदलाहट होती है, मगर वह आंतरिक है। उसे देखने के लिए बड़ी गहरी ऑंख चाहिए, सूक्ष्म ऑंख चाहिए। अब भी वह दुकान पर बैठा है, मगर अब लड़ नहीं रहा है। अब यह दुकान परमात्मा की है, वह चला रहा है। अब भी नौकरी करता है, कल भी करता था, अब भी करता है, कुछ भी बदला नहीं— और सब बदल गया है। कल भी पत्नी के पास था, आज भी पत्नी के पास है—और सब बदल गया है। क्योंकि कल पत्नी और उसके बीच एक नाता था, कि पत्नी मेरी है; अब मेरेत्तेरे का भाव विलीन हुआ है। पत्नी अपनी जगह है, वह अपनी जगह है। ज्यूँ का त्यूँ ठहराया। न तो पत्नी मेरी है, न मैं पत्नी का हूँ। मिल गए हैं संग—साथ जीवन की राह पर; यात्री हैं, राह में मिल गए हैं, मुलाकात हो गयी है, दो घड़ी का साथ हो गया है, फिर बिछुड़न हो जाएगी; कौन किसका है! पत्नी अपनी जगह है, पति अपनी जगह है, बेटा अपनी जगह है, दुकान अपनी जगह है—सब जैसा—कात्तैसा है—लेकिन भीतर एक परिप्रेक्ष्य बदल गया है। अब एक देखने का ढंग बदल गया है। अब सब ठीक है। अब संघर्ष नहीं है। अब परमात्मा के प्रति समर्पण है।
इतना हो जाए तो पिछली सारी असफलताएँ भूल जाती हैं, सारे विषाद भूल जाते हैं। हूंसी आती है फिर—कैसी छोटी—छोटी बातों पर उलझे थे, कैसे छोटे—छोटे खिलौनों पर उलझे थे! खुद पर हूंसी आती है। सारा अतीत बेहूदा मालूम होता है।

दुनिया के मशगलों का लहद में खयाल क्या
मंजिल पै आके भूल गया रहगुजर को मैं
सब भूल जाता है, सब व्यर्थ हो जाता है। वह सब धूल—धँवास थी, उड़ गयी; दर्पण खाली होने लगता है।
पलायन से सावधान! क्योंकि जो भागता है, वह बदलता नहीं। वह भागता इसीलिए है कि बदलने से डरता है। भागकर बचा रहा है अपने को। भीतर सब वही रहेगा, बाहर की स्थिति बदलकर धोखा दे रहा है अपने को कि बदल लिया।
मैं बाहर की स्थिति तुम्हें बदलने ही नहीं देता—तुम बदलना भी चाहते तो हो। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि अब हमें क्यों आप कहते हैं कि हम घर में रहें? हम तो सब छोड़ने को तैयार हैं।
मैं उनसे कहता हूँ, तुम्हारी तैयारी का सवाल नहीं है। तुम्हें घर में रहना ही होगा। नहीं तो तुम बाहर को बदलने में लग जाओगे और भीतर को कौन बदलेगा? तुम्हारी ऊर्जा बाहर उलझी रहेगी, भीतर कौन जाएगा? बाहर को वैसा—का—वैसा रहने दो, छुओ ही मत, सब व्यवस्थित हो गया है, चलने दो उसको वैसा का ही वैसा, सारी ऊर्जा को भीतर मोड़ लो। सरल होगा।
थोड़ा सोचो। सब व्यवस्थित हो गया है, दुकान ठीक चल रही है, मकान व्यवस्थित है, पत्नी है, बच्चे स्कूल जाने लगे हैं—सब व्यवस्थित हो गया है, अब इसमें कुछ अड़चन नहीं है, अब इसमें कुछ जमाना नहीं है, सब चल रहा है, तुम्हारी मौजूदगी चला रही है चीजों को; दुकान पर बैठ जाते हो, घर आ जाते हो, सब चल रहा है। इसमें अब कोई नयी ऊर्जा लगाने की जरूरत नहीं है—अभी मैं तुमसे कह दूँ छोड़ दो घर, जाओ बैठ जाओ गुफा में, अब सवाल उठेगा—भोजन कहाँ से लाएँ? कपड़े कहाँ हैं? अब रात आ गयी, मच्छर काट रहे हैं, मच्छरदानी कहाँ हैं!
और मच्छर तुम्हें पता है, ध्यानियों के पुराने विरोधी हैं!
मैं सारनाथ में मेहमान हुआ एक बौद्ध भिक्षु के घर। इतने मच्छर सारनाथ में कि न मैं सो सका रात—भर, न वे सो सके रात—भर। सो दोनों ने बैठकर धम्मपद पर चर्चा की। और करते भी क्या? दूसरे दिन मैंने उनसे क्षमा माँगी कि मैं चला। उन्होंने कहा कि यह कोई आप ही तकलीफ में पड़े हैं, ऐसा नहीं है; बुद्ध भगवान भी सिर्फ एक ही बार आए थे सारनाथ— फिर नहीं आए। कारण मच्छर ही होंगे। क्योंकि और सब जगह तो वे कई बार गए। राजगृह नहीं तो कम—से—कम तीस बार गए जिंदगी में। वैशाली न—मालूम कितनी बार गए! श्रावस्ती न—मालूम कितनी बार—चालीस बार, पचास बार। सिर्फ सारनाथ एक जगह है जहाँ वे सिर्फ एक ही बार गए। कारण तो कुछ रहा होगा—सारनाथ के बड़े—बड़े मच्छर!
कोई तुम्हें ही मच्छर सताएँगे ऐसा नहीं है, वे बुद्ध को भीऱ्सताते थे। जैन—शास्त्रों में जहाँ ध्यान की चर्चा है, वहाँ मच्छरों का जरूर उल्लेख किया गया है, कि मच्छर सताएँगे, उस वत्त सावधानी रखना। अब जैन—मुनि की तुम सोच ही सकते हो—नंगा बैठा है, उसको तो सताएँगे ही मच्छर।
अब घर में मच्छरदानी भी थी, सब व्यवस्थित था। अब बैठ गए गुफा में जाकर, अब मच्छर सता रहे हैं। अब कहीं से इंतजाम करो। अब कल भूख लगेगी तो भोजन माँगने जाओ। और जमाना भी बदल गया। अब कोई ऐसे ही दे नहीं देता। जहाँ जाकर खड़े होओगे, लोग कहेंगे कि भले—चंगे मालूम पड़ते हो, क्या मुफ्तखोरी सीखी है? वे पुराने दिन गए, कि संन्यासी का लोग पैर पड़कर और भोजन दे देते थे। पच्चीस बातें सुनाएँगे। बामुश्किल मिल जाए तो बहुत। कहेंगे अच्छे मस्ततंड़े हो, क्यों यह मुफ्तखोरी सीखी? कुछ कमाओधमाओ, कुछ काम करो! क्यों हमारी छाती पर चढ़े हो? क्यों खून पी रहे हो? आसान नहीं होगा रोटी मिल जाना भी।
फिर कल बीमारी भी होती है, और अड़चनें भी आती हैं, बूढ़े होओगे—जवानी, तब यह मुसीबत कि लोग कहते हैं अभी जवान हो; बूढ़े हो जाओगे, तब बुढ़ापे की मुसीबत; अब माँगने जाने में तकलीफ, उठने में तकलीफ। ध्यान कब करोगे? ध्यान कैसे करोगे? और इस सब के उपद्रव के कारण ही लोग सांप्रदायिक हो जाते हैं, क्योंकि उसमें सुविधा है। अब अगर तुम सिर्फ संन्यासी हो जाओ—न हिंदू के, न मुसलमान के, न ईसाई के—बैठ जाओ गुफा में, भूखे मर जाओगे गुफा ही में। तो तुमको फिर चुनाव करना पड़ेगा कि भई, हिंदू के हो जाओ। तो हिंदू तुम्हारी फिक्र करेगा। जैन के हो जाओ तो जैन तुम्हारी फिक्र करेगा।
अब जब तुम जैन के संन्यासी हो जाओगे, जैन के मुनि हो जाओगे, तो वह हजार नियम लाता है। क्योंकि मुफ्त तो यहाँ कोई भोजन मिलता नहीं। वह कहता है, इतने बजे उठना, इतने बजे सोना। इस तरह रहना। दतौन मत करना। क्योंकि दतौन अगर की तो शरीर का प्रसाधन हुआ। स्नान मत करना।
तो तुम चकित होओगे जानकर कि जैन साधु—साध्वियों को चोरी से दाँत साफ करने पड़ते हैं। हद हो गयी, दुनिया में और चोरियाँ करने जैसी थीं, यह भी कोई चोरी करने जैसी बात थी! चोरी करनी थी तो कुछ ढंग की करते। जैन—साध्वियों को टूथपेस्ट अपनी पोटली में छिपाकर रखना पड़ता है। कहीं पता न चल जाए!
एक जैन—साध्वी मुझे मिलने आयी। जैन—साधुओं से और साध्वियों से मैं ज़रा दूर ही रहता हूँ। लेकिन यह बिल्कुल मेरे पास आ गयी और उसके मुँह से मुझे बास न आयी, मैंने कहा कि कुछ गड़बड़ है; तू जरूर दतौन करती होगी। उसने कहा, आपको कैसे पता चला? मैंने कहा, चलने की कोई जरूरत है? जैन—मुनि तो बारह कोस दूर से गंध देता है। इसमें कोई बात करने की बात है? इसमें कुछ पता लगाने की बात है? तेरे मुँह से बास नहीं आ रही है।
पच्चीस नियम तुम पर लगाएँगे। बाथरूम में पेशाब भी नहीं करने देंगे। उनके नियम के खिलाफ है। क्योंकि जैन—शास्त्र जब बने, तब सेप्टिक टैंक नहीं होते थे। तो नियम है नहीं वहाँ। जैन—शास्त्र में उल्लेख है, जल में पेशाब मत करना। अब सेप्टिक टैंक में जल होता है! अब फँसे मुसीबत में!
एक बार मैं सोहन के घर मेहमान था पूना में। पाँच—सात साध्वियाँ मुझसे मिलने के लिए घर मेहमान हो गयीं। सुबह आकर घर के पहरेदार ने कहा कि अजीब स्त्रियाँ हैं ये, ये रात भर न—मालूम क्या—क्या करती हैं। थाली में भर—भर कर पेशाब बाहर ले जाकर डालती हैं।
अब उनकी मजबूरी समझो! गोरखधंधे में पड़ना है! कि रात—भर सो भी न सको! कि पेशाब थाली में भरो और बाहर डालो
जिस संप्रदाय में पड़ोगे, उसके नियम हैं। उसके नियम में रत्तीभर भेद हुआ कि भोजन बंद। नियम ज़रा भिन्न हुआ कि भ्रष्ट, कि समादर समाप्त। जिंदगी की छोटी—मोटी जरूरतों के लिए गुलाम बनोगे? चले थे मुक्‍ति की खोज में, हो गए कहीं गुलाम। उससे तो कारागृह में बैठ जाना बेहतर है। कारागृह के नियम इतने सख्त नहीं हैं। कारागृह में नियम हैं, मगर इतनेऱ्सख्त नहीं हैं। क्योंकि आदमियों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं; आदमियत की कमजोरी को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं।
ये जो शास्त्र के नियम हैं, ये आदमी को ध्यान में रखकर नहीं बनाए गए हैं, ये आदमी के विपरीत बनाए गए हैं। ये आदमी को जबर्दस्ती खींचतान करके श्रेष्ठता के पद पर लाने की आकांक्षा में बनाए गए हैं। ये अमानवीय हैं।
तो अगर अकेले रहे तो भूखे मरोगे; ध्यान—व्यान की सुविधा नहीं रह जाएगी; और अगर किसी संप्रदाय के जाल में पड़े तो गुलाम हो जाओगे। इसलिए मैं तुमसे कहता हूँ, कहीं भागना मत। जहाँ हो, जैसी जीवन की व्यवस्था जम गयी है, उसको ज़रा—भी हिलाना—डुलाना मत। एक आयोजन हो गया है, अब इस आयोजन को व्यर्थ खंडित करके नया आयोजन करने की झंझट क्यों लेनी? इस आयोजन का फायदा उठा लो! मैं तुमसे बुद्धिमान होने को कह रहा हूँ। मैं तुमसे यह कह रहा हूँ, थोड़ी समझदारी बरतो! इस आयोजन का फायदा उठा लो। पत्नी भोजन बना देती है—फिर भी कोई भोजन बनाएगा कल, किसी और की पत्नी बनाएगी। अभी बीमार होओगे तो घर में कोई चिंता कर लेता है, कल फिर और कोई चिंता करेगा। यह व्यवस्था जम गयी है। इस जमी व्यवस्था का सबसे बड़ा लाभ यह है कि अब तुम चाहो तो सारी ऊर्जा को भीतर की तरफ मोड़ सकते हो। अब बाहर ऊर्जा को नियोजित करने की कोई जरूरत नहीं है।
इसलिए मैं कहता हूँ जहाँ हो, जैसे हो, वहीं अंतर्यात्रा पर निकल चलो, वहीं भीतर सरकने लगो। न गुलाम बनोगे किसी के, न किसी पर निर्भर होओगे, स्वावलंबी रहोगे, अपने मन के मौजी रहोगे; अपने जीवन की व्यवस्था अपने स्वभाव से जमाओगे, किसी और के स्वभाव से जमाने की जरूरत नहीं रहेगी। अब जीवन की सारी व्यवस्थाएँ किसी ने जमायी हैं! जिसने जमायी हैं, उसने अपने हिसाब से जमायी हैं—तुम्हारा तो उसको पता भी नहीं था। अब तुमको पता है कि महावीर स्वामी सोच रहे थे कि उमंग भाई संन्यास लेंगे ढाई हजार साल बाद, तो इनके हिसाब से बनायी जाए व्यवस्था! महावीर ने अपने ढंग से बनायी। ढंग—ढंग के लोग हैं।
मुझे शक है यह कि महावीर को मच्छर नहीं काटते थे। शक का कारण है। ऐसे लोग हैं, जिनको मच्छर नहीं काटते। मैं एक सज्जन के साथ वर्षों रहा, उनको मच्छर काटते ही नहीं। कोई दूसरा बैठे, उसकी जान ले लेते हैं, और उनके पास नहीं फटकते। तो मैंने कहा कि मामला क्या है? मच्छर उनसे दूर—दूर जाते हैं। उनके खून की गंध ऐसी है कि मच्छर को रुचती नहीं। मुझ शक है कि महावीर के खून में गंध ऐसी ही थी, नहीं तो नग्न रहना मुश्किल हो गया होता! जरूर मच्छर नहीं काटते रहे होंगे, मच्छर नहीं परेशान करते रहे होंगे।
तुम जाकर चिकित्सकों से पूछ सकते हो, जो रक्‍त की परीक्षा करते हैं। मच्छरों को किसी खास रक्‍त में रस होता है, तो उसकी तरफ एकदम आते हैं। गंध होती है एक खास, जो उनको खींचती है। अभी पश्चिम में मच्छरों को पकड़ने के लिए यंत्र बनाए जा रहे हैं। उन यंत्रों की कुल खूबी यह है कि उनमें एक खास तरह की गंध है, बस। यंत्र के भीतर गंध है, जैसे ही मच्छर उसमें आता है, वह फँस जाता है— फिर बाहर नहीं निकल सकता। बस भीतर जा सकता है, बाहर नहीं निकल सकता। भीतर गया कि मरा।
महावीर ने अपने हिसाब से नियम बनाया होगा। अपने जीवन के ढंग को अपने ढंग से जिआ; अपनी सहजता से जिआ। महावीर सुबह उठ आते थे जल्दी; उनको रास आता होता होगा। वैज्ञानिक कहते हैं, कुछ लोगों को सुबह जल्दी उठना रास आता है। अगर वे पाँच बजे न उठें तो उन्हें दिन—भर बैचेनी मालूम होती है। और कुछ लोगों को देर से उठना रास आता है। अगर वे पाँच बजे उठ आएँ तो दिन—भर जम्हाई लेते हैं और उदास रहते हैं और बैचेन रहते हैं और दिन—भर उनको ऐसा लगता है कुछ कमी है। इसकी वैज्ञानिक परीक्षाएँ हुई हैं, तो पाया गया है कि कारण है। हर आदमी का तापमान दो घंटे के लिए रात में नीचे गिर जाता है। दो से लेकर चार डिग्री तक नीचे गिर जाता है। वह जो दो घंटे के लिए तापमान नीचे गिरता है, वही दो घंटे उस आदमी के लिए सबसे गहरी नींद के घंटे हैं। अगर वे दो घंटे सोने में बीत गए तो वह आदमी दिन—भर ताजा रहेगा। और अगर उन दो घंटों में उसे जगा दिया तो वह दिन—भर बेचैनी अनुभव करेगा।
अब इसका ब्रह्ममुहूर्त से कुछ लेना—देना नहीं है। किसी के वे दो घंटे रात दो बजे से चार बजे के बीच में होते हैं, और किसी के चार से छह के बीच में होते हैं, और किसी के पाँच से सात के बीच में होते हैं। और ऐसे लोग भी हैं जिनके छह और आठ के बीच में होते हैं। अब इसमें उनकी मजबूरी है, उनका कोई हाथ का बस नहीं है। तुम क्या कर सकते हो? कब तुम्हारा तापमान गिर जाता है, वे दो घंटे तो तुम्हें सोना ही चाहिए। अब अगर तुमने किसी दूसरे के शास्त्र से नियम सीखा तो मुश्किल में पड़ोगे; उसने नियम अपने ढंग से बनाया है।
और अक्सर शास्त्र बूढ़ों ने लिखे हैं, यह भी खयाल रखना। उन जमानों में बूढ़े मुश्किल से लिख पाते थे, जवानों की तो बात ही क्या? जिंदगी—भर थोड़ा—बहुत सीख—साखकर बुढ़ापे में लिख पाते थे। सब शास्त्र बूढ़ों ने लिखे हैं। बूढ़ों की नींद कम हो जाती है। जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है। माँ के पेट में बच्चा चौबीस घंटे सोता है, फिर पैदा होने के बाद बाईस घंटे सोता है, फिर बीस, अठारह घंटे। घटते—घटते—घटते आठ घंटे, सात घंटे, छह घंटे, फिर पाँच घंटे, चार घंटे, तीन घंटे। बूढ़े तीन घंटे, दो घंटे में नींद को पूरा कर लेते हैं। अब अगर अस्सी साल का आदमी किताब लिखेगा कि लोगों को कितना सोना चाहिए, वह लिखेगा तीन घंटे काफी हैं। अब कोई बीस साल का जवान लड़का इसके चक्कर में पड़ गया, तो गया काम से! मारा गया! बेवत्त मारा गया! इसकी जिंदगी—भर खराब हो जाएगी, इसी ब्रह्ममुहूर्त में।
मैं ऐसे लोगों को जानता हूँ जो ब्रह्ममुहूर्त में मारे गए हैं। क्योंकि उनको उठना ही है, किताब में लिखा है कि पाँच बजे उठ आना। और उनकी नींद पूरी नहीं होती।
एक युवक मेरे पास आता था। उसके माँ—बाप उसे लाए थे कि आप कुछ करिये। वह बिल्कुल पागल हो रहा था। मैंने उनसे कहा कि इसका पूरा इतिहास मुझे कहो कि इसके पागलपन का मामला क्या है? उन्होंने कहा और कुछ मामला नहीं है, हम आपके पास इसीलिए आए हैं कि आप ही एक आदमी हैं जो शायद इसको बुद्धि दे सकें। क्योंकि इसको धार्मिक होने की भ्रांति है। यह तीन—चार साल से स्वामी शिवानंद की किताबों में उलझा हुआ है। किताबों में लिखा है, तीन बजे उठ जाना चाहिए; तो यह तीन बजे उठता है। तीन बजे उठ जाता है तो दिन—भर इनको नींद आती है। तो यह गया स्वामी जी से पूछने। स्वामी जी ने कहा कि दिन—भर नींद आना तो तामसी लक्षण है। इसका मतलब कि तेरा भोजन तामसी है, तू सिर्फ दुग्धाहार कर। सो इसने और सब भोजन बंद कर दिया, अब यह दुग्धाहार करता है, सिर्फ दूध ही पीता है। तो कमजोर हो गया है, सूख गया है बिल्कुल।
कितना दूध पीओगे? और प्राकृतिक रूप से दूध र्सिफ् बच्चों के लिए है। तुमने किसी जानवर को एक उम्र के बाद दूध पीते देखा? सिर्फ आदमी ही यह मूढ़ता करता है। नहीं तो दूध तो सिर्फ बच्चों के लिए है, छोटे बच्चों के लिए है। उनके लिए जरूरत है। जैसे—जैसे तुम्हारी उम्र बड़ी होती है, दूध तुम्हारे लिए उपयोगी नहीं रह जाता। या थोड़ी—बहुत ले लो तो ठीक है। मगर दूध—ही—दूध पर जीओगे? और शास्त्रों में लिखा हुआ है, और स्वामी शिवानंद के शास्त्र में तो बहुत जोर से लिखा हुआ है कि दूध ही शुद्ध आहार है।
अब यह बिल्कुल भ्रांत और झूठी बात है। दूध तो शुद्ध खून है, शुद्ध आहार कैसे होगा? माँ के स्तन में ग्रंथियाँ होती हैं, जिसमें खून दो हिस्सों में विभाजित हो जाता है। खून में दो तरह के कण होते हैं—सफेद और लाल। सफेद कणों को अलग कर देता है स्तन, वही दूध बनता है—इसलिए दूध पीने से खून बढ़ता है। दूध खून है, शुद्ध खून है। मांसाहार का हिस्सा है। दुनिया में एक ऐसा धर्म भी है—क्वेकर—जो दूध नहीं पीते; क्योंकि वे कहते हैं यह मांसाहार है। वे शुद्ध शाकाहारी हैं। दूध, दही, घी, सभी चीज का वर्जन है। मगर एक—एक धारणा होती है! दूध शुद्ध आहार है; ऋषि—मुनि पीते रहे सदा से!
तो वह युवक दूध—ही—दूध पीने लगा। दुबला हो गया, कमजोर हो गया। मस्तिष्क उसका थोड़ा डाँवाँडोल होने लगा, क्योंकि मस्तिष्क के लिए एक खास तरह की ऊर्जा चाहिए, अगर न मिले तो मस्तिष्क टूटने लगता है। उसकी विक्षिप्त—जैसी दशा होने लगी। यह सारा—का—सारा हुआ शास्त्र के अनुसार।
मैंने उससे कहा, पागल! दिन में नींद आती है, वह कोई तामस का लक्षण नहीं है। वह सिर्फ इस बात का लक्षण है कि रात नींद पूरी नहीं हुई। तू ठीक से सो! यह ब्रह्ममुहूर्त में उठना तुझे ठीक नहीं पड़ रहा है। और अभी तेरी उम्र इतनी नहीं है कि तू चार—पाँच घंटे सोने से गुजार ले। अभी तुझे सात—आठ घंटे, नौ घंटे सोना ही चाहिए।
बहुत समझाया तो उसकी समझ में आया। ठीक से सोना शुरू किया तो दिन की नींद बंद हो गयी। तो मैंने कहा, देख, तामसिक बात बदल गयी न! अब दिन में नींद नहीं आती है। अब तू यह भोजन बदल, क्योंकि तामस के लिए तूने यह भोजन शुरू किया था, अब साधारण भोजन पर आ।
एक छह महीने में युवक स्वस्थ हो गया। लेकिन जब वह गया शिवानंद के दर्शन को तो उन्होंने कहा, तू भ्रष्ट हो गया।
यहाँ स्वस्थ होना भ्रष्ट होना है! यहाँ रुग्ण और बीमार तरह के लोग और विक्षिप्त तरह के लोग स्वीकार किए जाते हैं।
सदा खयाल रखना, नियम किसी दूसरे के बनाए तुम्हारे काम के लिए नहीं हैं। तुम अपने जीवन को अपने ढंग में ढालो। बस इतना ही स्मरण रखो, गुरु के द्वारा सूक्ष्म निर्देश मिलते हैं, स्थूल आदेश नहीं। सद्गुरु के द्वारा दिशा मिलती है, एक—एक कदम का विस्तार नहीं। इतना ही खयाल रखो कि परमात्मा के साथ होना है और भीतर जाना है। फिर बाकी विस्तार की बातें खुद तय करो। कब उठना है, कब सोना है, क्या खाना है, क्या पीना है, कैसे जीना है, वह तुम अपने अनुकूल खोजो। इसलिए मेरे संन्यासी को मैं कोई अनुशासन नहीं देता। सब अनुशासन, बाहर से दिए गए, गुलामी के जन्मदाता हैं। और संन्यासी तो स्वतंत्रता की खोज में चला है।

तीसरा प्रश्न : जीवन में इतना दुःख क्यों है?
दुःख चुनौती है; विकास का अवसर है। दुःख अनिवार्य है। दुःख के बिना तुम जागोगे नहीं। कौन जगाएगा तुम्हें? हालत तो यह है कि दुःख भी नहीं जगा पा रहा है। तुम दुःख से भी अपने को धीरे—धीरे राजी कर लिए हो।
तुम्हारी हालत वैसी ही है जैसे कोई रेलवे स्टेशन पर रहता है, तो ट्रेनें निकलती रहती हैं, आती—जाती रहती हैं, शंटिंग होता रहता है गाड़ियों का और शोरगुल मचता रहता है, मगर उसकी नींद नहीं टूटती। तुम इतने सो गए हो कि अब तुम्हें दुःख भी नहीं जगाता मालूम पड़ता। लेकिन दुःख का इस अस्तित्व में उपयोग एक ही है कि दुःख माँजता है, जगाता है। दुःख बुरा नहीं है। दुःख न हो तो तुम सब गोबर के ढेर हो जाओगे। दुःख तुम्हें आत्मा देता है। दुःख चुनौती है। इसलिए दुःख को तुम कैसा लेते हो, इस पर सब निर्भर है। दुःख को चुनौती की तरह लो।
लेकिन तुम्हें कुछ और ही सिखाया गया है। तुम्हें सिखाया गया है कि दुःख तुम्हारे पापकर्मों का फल है। सब बकवास! दुःख चुनौती है, एक अवसर है। तुम दुःख को देखो और जागो। दुःख के तीर को चुभने दो भीतर, उसी से तुम्हें परमात्मा की याद आनी शुरू होगी।
एक सूफी फकीर था, शेख फरीद। उसकी प्रार्थना में एक बात हमेशा होती थी—उसके शिष्य उससे पूछने लगे कि यह बात हमारी समझ में नहीं आती, हम भी प्रार्थना करते हैं, औरों को भी हमने प्रार्थना करते देखा है, लेकिन यह बात हमें कभी समझ में नहीं आती—तुम रोज—रोज यह क्या कहते हो कि हे प्रभु, थोड़ा दुःख मुझे तू रोज देते रहना! यह भी कोई प्रार्थना है? लोग प्रार्थना करते हैं, सुख दो; और तुम प्रार्थना करते हो, हे प्रभु, थोड़ा दुःख रोज देते रहना!
फरीद ने कहा कि सुख में तो मैं सो जाता हूँ और दुःख मुझे जगाता है। सुख में तो मैं अक्सर परमात्मा को भूल जाता हूँ और दुःख में मुझे उसकी याद आती है। दुःख मुझे उसके करीब लाता है। इसलिए मैं प्रार्थना करता हूँ, हे प्रभु, इतना कृपालु मत हो जाना कि सुख—ही—सुख दे दे। क्योंकि मुझे अभी अपने पर भरोसा नहीं है। तू सुख—ही—सुख दे दे तो मैं सो ही जाऊँ! जगाने को ही कोई बात नहीं रह जाए। अलार्म ही बंद हो गया। तू अलार्म बजाता रहना, थोड़ा—थोड़ा दुःख देते रहना, ताकि याद उठती रहे, मैं तुझे भूल न पाऊँ, तेरा विस्मरण न हो जाए।
देखते हो, देखने के ढंग पर सब निर्भर करता है!
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूँ, यह तुम्हारे पाप इत्यादि का फल नहीं है जो तुम भोग रहे हो। यह जीवन की सहज व्यवस्था का अंग है।

जहनो—दिल में अगर बसीरत हो 
तीरगी कैफे—नूर देती है  
जीस्त की राह में हर—इक ठोकर
जिंदगी का शऊर देती है
"जहनो—दिल में अगर बसीरत हो'.....अगर देखने की शक्‍ति हो, क्षमता हो, ऑंख हो.....

जहनो—दिल में अगर बसीरत हो
तीरगी कैफे—नूर देती है
तो ऍ?धेरे को ही प्रकाश में बदल लेने की कला आजाती है। "जीस्त की राह में हर—इक ठोकर'..... और जिंदगी की राह में हर—इक ठोकर..... "जिंदगी का शऊर देती है'..... जिंदगी का राज खोलती है, जिंदगी का रहस्य खोलती है; जिंदगी के द्वार खुलते हैं, जिंदगी की महिमा प्रगट होती है, जीवन का प्रसाद मिलता है। सब तुम पर निर्भर है।

जहनो—दिल में अगर बसीरत हो
तीरगी कैफे—नूर देती है
जीस्त की राह में हर—इक ठोकर
जिंदगी का शऊर देती है
हादसाते—हयात की ऑंधी
हस्बेत्तौफीक रास आती है
तेज करती है सोजाअहले—कमाल
नाकिसों के दिये बुझाती है

इंतकामेगमो—अलम लेंगे
जिंदगी को बदल के दम लेंगे
मर गए तो कजाएगेती के
जर्रेजर्रे में हम जनम लेंगे

जिंदगी में न कोई गम हो अगर
जिंदगी का मजा नहीं मिलता
राह आसान हो तो रहरौ को
गुमरही का मजा नहीं मिलता  
जिंदगी में भटकने का भी एक मजा है, क्योंकि भटककर पाने का एक मजा है। जिसने खोया नहीं, उसे पाने का मजा नहीं मिलता। इस जिंदगी के विरोधाभास को जो समझ लेगा, उसने जीवन का सारा राज़ समझ लिया।
लोग पूछते हैं, हम परमात्मा से दूर क्यों हो गए? इसीलिए कि हम पास हो सकें। दूर न होओगे तो पास होने का मजा नहीं है।
मछली को निकाल लो सागर से, छोड़ दो घाट पर, तड़फती है। पहली दफा पता चलता है कि सागर में होने का मजा क्या था। सागर में थी एक क्षण पहले तक, तब तक सागर का कोई पता नहीं था। अब अगर यह सागर में वापस गिरेगी तो अहोभाव होगा; अब यह जानेगी कि सागर का कितना—कितना उपकार है मेरे ऊपर।
दूर हुए बिना पास होने का मजा नहीं होता। विरह की अग्नि के बिना मिलन के फूल नहीं खिलते। विरह की लपटों में ही मिलन के फूल खिलते हैं। "हादसाते—हयात की ऑंधी..... जीवन की दुर्घटनाएँ और दुर्घटनाओं की ऑंधी ..... "हस्बेत्तौफीक रास आती है'..... पात्रता के अनुसार रास आती है।
तुमने देखा? तूफान आता है, छोटे—मोटे दीयों को बुझा देता है; और घर में आग लगी हो, या जंगल में आग लगी हो, तो और लपटों को बढ़ा देता है। यह बड़े मजे की बात है, छोटा दीया बुझ जाता है और लपटें जंगल की और बढ़ जाती हैं। तूफान वही था। सब पात्रता के अनुसार है।
तुम ज़रा जागो! तुम जरा जंगल की आग बनो! और तुम पाओगे कि जिंदगी की हर ऑंधी तुम्हारी लपटों को बढ़ाती है; तुम्हें बुझा नहीं पाती। जिंदगी का हर दुःख तुम्हें परमात्मा के सुख के करीब लाता है।

तेज करती है सोजेअहले—कमाल
नाकिसों के दिये बुझाती है
जिंदगी में न कोई गम हो अगर.....
और अगर दुःख न हो जीवन में, जिंदगी का मजा नहीं मिलता। तो सुख का अनुभव ही नहीं हो सकेगा। काँटों के बिना गुलाब के फूल में कोई रस नहीं है, कोई अर्थ नहीं है। अंधेरी रातों के बिना सुबह की ताजगी नहीं है। और मौत के अंधेरे के बिना जीवन का प्रकाश कहाँ?

जिंदगी में न कोई गम हो अगर
जिंदगी का मजा नहीं मिलता
राह आसान हो तो रहरौ को
गुमरही का मजा नहीं मिलता
देखो इस तरह से; तब संसार भी परमात्मा के मार्ग पर एक पड़ाव है। फिर संसार परमात्मा का विपरीत नहीं है, विरोध नहीं है, वरन् परमात्मा को पाने की ही चेष्टा का एक अनिवार्य अंग है। यह दूरी पास आने की पुकार है। यह दुःख जागने की सूचना है।

चौथा प्रश्न : भगवान! हमारे आदरणीय गुरुभाई स्वामी ओमप्रकाश सरस्वती भी स्वामी ब्रह्म वेदांत की भाँति भ्रांत दिशा में अग्रसर हो रहे हैं। वे कहते हैं कि मुझे ध्यान वैसे करने की कोई आवश्यकता नहीं है जैसा कि भगवान ने नियत किया है।
पूछा है विजय भारती ने।
विजय भारती! तुम जब भी प्रश्न पूछते हो, गलत प्रश्न पूछते हो। तुममें गलत प्रश्न ही लगते हैं। पहली तो प्रश्न की तुम्हारी गलती सदा यह होती है कि तुम दूसरों के संबंध में प्रश्न पूछते हो; जैसे कि तुम्हारी अब अपनी कोई समस्या नहीं रही! कभी ले आते हो कि विजयानंद ने ऐसा कहा। कभी ले आते हो कि अर्हंत ने ऐसा कहा। कभी ले आते हो कि ..... अब यह स्वामी ओमप्रकाश सरस्वती ने ऐसा कर दिया। तुम्हारी जिंदगी की समस्याएँ सब समाप्त हो गयीं? अब तुम्हें दुनिया के और सारे लोगों की समस्याएँ हल करने में ही एकमात्र काम शेष रह गया है?
तुम्हें प्रयोजन क्या है? और तुम कौन हो निर्णायक, कि स्वामी ओमप्रकाश सरस्वती भी ब्रह्म वेदांत की भाँति भ्रांत दिशा में अग्रसर हो रहे हैं? तुम, मालूम होता है, उनसे भी आगे पहुँच गए हो। नहीं तो तुम्हें कैसे पता चले कि भ्रांत दिशा में अग्रसर हो रहे हैं? तुम्हें निर्णय लेने को किसने कहा? तुम कैसे निर्णायक बन जाते हो?
यह सब तुम्हारा अहंकार है। मुझे पता है कौन किस दिशा में जा रहा है। वह मेरी जिम्मेवारी है। तुम कोई ओमप्रकाश के गुरु नहीं हो। तुम चिंता न लो। यह चिंता मेरी है। मैंने ही उन्हें कहा है कि अब ध्यान मत करो। वे भ्रांत दिशा में नहीं जा रहे हैं। ध्यान का काम पूरा हो गया है।
कोई सदा ध्यान ही थोड़े करते रहना है। ध्यान तो औषधि है। जब बीमारी चली गयी तो औषधि बंद कर देनी होती है। नहीं तो फिर औषधि को पीते रहोगे तो औषधि ही बीमारी हो जाएगी।
ओमप्रकाश के ध्यान का काम पूरा हो गया है। अब वे उस मस्ती में हैं, जिस मस्ती को ध्यान से पैदा नहीं करना होता—अब मस्ती की धार बह रही है। अब उठते—बैठते ध्यान लगा हुआ है। वे भ्रांत दिशा में नहीं हैं—भ्रांत दिशा में तुम हो। वे तो ठीक चल रहे हैं; मुझसे पूछकर चल रहे हैं। सच तो यह है, जब मैंने उनसे कहा, अब ध्यान इत्यादि छोड़ दो तो उनकी ऑंख में ऑंसू आ गए थे। छोड़ना नहीं चाहते थे।
लगाव बन जाते हैं। जिस ध्यान से इतना मिला हो, उसको छोड़ दो? जिस औषधि से ऐसा स्वास्थ्य जन्मा हो, उसे छोड़ दो? लेकिन मुझे तुमसे औषधियाँ भी छुड़ानी होंगी। काँटा लग जाता है पैर में, दूसरे काँटे से उसे निकाल लेते हैं; फिर दोनों को फेंक देते हैं न! यह थोड़े ही है कि दूसरे काँटे को, जिससे काँटा निकाला, सम्हाल कर घाव में रख लेते हैं कि यह बड़ा प्यारा काँटा है।
ध्यान कोई चरम बात थोड़े ही है। ध्यान तो एक उपाय है, विधि है। कोई विधि चरम नहीं होती। जब ध्यान की चोट लग गयी और भीतर जागने का झरना बहने लगा, तो बस अब ध्यान को छोड़ देना है। अब सहज ध्यान रहने लगेगा।
ओमप्रकाश ठीक मार्ग पर हैं।
लेकिन कुछ लोगों को यही लगा रहता है, वे दूसरों की चिंता में पड़े हुए हैं! विजय भारती को सदा इसी तरह के प्रश्न उठते हैं। अब दुबारा इस तरह के प्रश्न मत पूछना। और यह मैं विजय भारती को नहीं कह रहा हूँ, औरों को भी कह रहा हूँ। ऐसे और लोग भी हैं, जो इसी तरह के प्रश्न पूछते हैं। अगर मैं जवाब नहीं देता तो नाराजगी के पत्र लिखते हैं कि हमारे प्रश्नों का जवाब क्यों नहीं?
तुमने पूछ लिया, इतना ही काफी नहीं है कि तुम्हें जवाब मिलना ही चाहिए। क्योंकि मैं यह भी तो देखूँगा कि तुमने जो पूछा है, वह कूड़ा—करकट तो नहीं है? फिर इतने लोग यहाँ बैठे हैं, तुम कूड़ा—करकट कुछ भी पूछ लो, इन सब का समय भी खराब करना, मेरा भी समय खराब करना।
ओमप्रकाश को पूछना होगा, मुझसे पूछेंगे। ध्यान करना कि नहीं करना, यह मेरे और उनके बीच की बात है। यह किसी और संन्यासी को इसमें किसी तरह का संबंध लेने की जरूरत नहीं है।
इसका मतलब सिर्फ इतना होता है, तुमको बड़ी अड़चन हो रही होगी कि यह ओमप्रकाश हमसे आगे कैसे निकल गए। कि अभी हमें तो ध्यान की जरूरत है और इन्हें ध्यान की जरूरत न रही!
यह सदा हुआ है। यह इतना ज्यादा हुआ है कि मैंने तय कर लिया है कि किन—किन लोगों की समाधि की अवस्था पक गयी है, उनका मैं नाम भी नहीं ले रहा हूँ। कौन—कौन व्‍यक्‍ति संबोधि के करीब पहुँच रहे हैं, उनका मैं तुम्हें कोई पता भी नहीं दे रहा हूँ। क्योंकि तुम्हारी भीड़ ज्यादा है। कोई एकाध व्‍यक्‍ति का अगर मैं नाम ले दूँ कि यह व्‍यक्‍ति अब ध्यान की आखिरी अवस्था में आ गया, तुम सब उसके दुश्मन हो जाओगे। क्योंकि तुम सब यह सिद्ध करने की चेष्टा करोगे कि नहीं, यह कैसे हो सकता है? हमारे रहते कोई दूसरा कैसे समाधि को उपलब्ध हो सकता है? अभी हम नहीं उपलब्ध हुए, आप कैसे हो सकते हैं? तुम जाकर भूल—चूक निकालने लगोगे। तुम उनके आचरण में कुछ चूकें खोजने लगोगे। नहीं तो तुम गढ़ लोगे, कल्पना कर लोगे। लेकिन तुम स्वीकार न कर सकोगे।
ऐसा अतीत में भी हुआ है।
चीन में प्रसिद्ध झेन फकीर हुआ, लिंची। जब वह ज्ञान को उपलब्ध हो गया तो उसके गुरु ने रात में, आधी रात में उसे बुलाया और कहा कि तू उपलब्ध हो गया। और तो मेरे पास भेंट देने को कुछ भी नहीं है, यह मेरा पुराना लबादा है, अब इसकी मुझे जरूरत भी नहीं है, क्योंकि मैं जल्दी ही शरीर छोड़ दूँगा, मैं इसी प्रतीक्षा में था कि कोई एकाध उपलब्ध हो जाए तो मेरे दीये को जलाए रखे, अब तू उपलब्ध हो गया, यह तू लबादा ले ले और यहाँ से भाग जा, और जितनी दूर निकल सके निकल जा। उसने कहा, लेकिन भागने की क्या जरूरत है? लिंची के गुरु ने कहा, तुझे पता नहीं है, यहाँ जो मेरे पाँच सौ और भिक्षु हैं वे मिलकर तुझे मार डालेंगे। वे बरदाश्त न कर सकेंगे।
और बरदाश्त न करने के कई कारण भी थे। पहला तो कारण यह था कि यह सबसे ज्यादा अज्ञात—नाम शिष्य था। इसको कोई जानता ही नहीं था। एक ऐसे काम में लगा था कि इसको कोई कभी जानता ही नहीं, इसका नाम भी लोगों को पता नहीं था। उन पाँच सौ भिक्षुओं में बड़े प्रसिद्ध लोग थे—देश—भर में जिनका नाम था, ख्याति थी; पंडित थे, शास्त्रकार थे, विवादी थे, वत्ता थे, किताबें लिखी थीं, यश था, मान्यता थी, प्रतिष्ठा थी, ऐसे लोग थे।
गुरु ने पंद्रह दिन पहले घोषणा की थी कि मेरा अंतिम समय करीब आ गया और इसके पहले कि मैं जाऊँ, मैं जानना चाहता हूँ कि कौन है जिसको दीया उपलब्ध हो गया है। जो सोचता हो कि उसे उपलब्ध हो गया है वह आकर मेरे दरवाजे पर चार पंक्‍तियों में अपने जीवन का सार अनुभव लिख जाए। उन्हीं पंक्‍तियों से सिद्ध हो जाएगा कि वह उपलब्ध हो गया है या नहीं।
जो सबसे महापंडित था, लोकख्याति को उपलब्ध, उसने ही हिम्मत की—बाकी ने तो हिम्मत भी नहीं की, क्योंकि वे जानते थे गुरु को धोखा देना आसान नहीं है। अभी हुआ नहीं था अनुभव, तो कैसे लिख दें? लिखेंगे तो उधार होगा। शास्त्र उनने भी पढ़े थे, शास्त्रों में अनुभव के शब्द भी पढ़े थे, चाहते तो वे भी चार पंक्‍तियाँ लिख सकते थे। लेकिन उन्होंने कहा कि यह तो झंझट खड़ी हो जाएगी। गुरु कोई साधारण गुरु नहीं था। अगर गलती हो तो मारपीट भी करता था, सिर तोड़ देता था। इस महापंडित ने भी रात जाकर ऍ?धेरे में उसके दरवाजे पर चार पंक्‍तियाँ लिख दीं। पंक्‍तियाँ बड़ी प्यारी और प्रसिद्ध पंक्‍तियाँ हैं। पंक्‍तियाँ थीं कि "मन एक दर्पण की भाँति है। इस पर कर्म की, विचार की धूल जम जाती है। उस धूल को झाड़ दें, दर्पण निर्मल हो जाए—बस यही उपलब्धि है, यही समाधि है।'
अब और क्या कहने को रहा? कह दी बात! हो गयी बात! लेकिन इसने भी रात को ऍ?धेरे में लिखी और दस्तखत नहीं किए। क्योंकि इसे यह पता था कि यह मैं कह तो रहा हूँ, मगर यह अनुभव मेरा नहीं है; यह दर्पण मेरा साफ नहीं हुआ है अभी। असल में यह दर्पण पर जमी धूल ही बोल रही है, यह दर्पण नहीं बोल रहा है। पता तो उसे था। अपने को कैसे धोखा दोगे? तो उसने दस्तखत नहीं किए थे, कि अगर गुरु कह देगा कि हाँ ठीक है, तो सुबह जाकर घोषणा कर दूँगा कि मैंने लिखा; और गुरु अगर कह देगा कि ठीक नहीं, तो चुपचाप रहूँगा, बात ही नहीं उठेगी, पता नहीं किसने लिखा। बेईमानी यहाँ भी कर गया वह!
सुबह गुरु उठा और उसने कहा, पकड़ो इस आदमी को! किसने यह मेरी दीवाल खराब की? इसकी पिटाई करनी होगी।
मगर पकड़ो कैसे? किसी का नाम तो था ही नहीं। बात आयी और गयी हो गयी। सारे आश्रम में एक ही चर्चा थी कि पंक्‍तियाँ हैं तो बड़ी सुंदर! मगर पंक्‍तियों के सौंदर्य का थोड़े ही सवाल है। पंक्‍तियों का सत्य क्या है? उसने बड़ी कविता में बाँधकर लिखा था, बड़े प्यारे ढंग से लिखा था, "कैलिग्राफी' सुंदर थी, पंक्‍तियाँ सुंदर थीं, शब्द ठीक बिठाए थे—और सार की बात कह दी थी, शास्त्रों का सारा सार आ गया था—यही चर्चा का विषय था। बड़ी सरगर्मी थी। सभी बात कर रहे थे कि और इसमें क्या सुधार हो सकता है? इस बूढ़े को कुछ पसंद ही नहीं आता! नाराज हो रहे थे कि जिसने भी लिखी हों, पंक्‍तियाँ तो सुंदर हैं।
ऐसे ही बात करते हुए चार भिक्षु भोजनालय से बाहर निकल रहे थे कि ये लिंची चावल कूट रहा था—इसका काम ही चावल कूटना था। यह जब आया था बारह साल पहले और इसने गुरु से कहा था कि मुझे अंगीकार कर लो, तो गुरु ने इसकी तरफ देखा था और कहा था कि तू सच में बदलना चाहता है? धार्मिक होना चाहता है या केवल धर्म की बातें जानना चाहता है? उसने कहा था, जब आप जैसा सद्गुरु मिले तो धर्म की बातें जानकर क्या करूँगा? धर्म की बात तो कहीं भी सस्ते पंडित—पुरोहितों से जान लेता, वे तो गाँव—गाँव उपलब्ध थे। धर्म की बातें नहीं जानना है, धर्म जानना है।
तो गुरु ने कहा था, फिर सुन! फिर तू चला जा आश्रम के चौके में और चावल कूट! और अब दुबारा मेरे पास मत आना। बस चावल कूट, और कुछ मत करना। यही तेरा ध्यान, यही तेरी विधि, यही तेरी साधना; जब जरूरत होगी, मैं आ जाऊँगा।
बारह साल बीत गए थे, न तो गुरु आया, न लिंची दुबारा गुरु के पास गया। न तो शास्त्र पढ़े इन बारह सालों में—फुरसत ही न थी—न बातचीत की लोगों से। और वहाँ बड़े—बड़े पंडित थे, ज्ञानी—ध्यानी थे, कौन इस लिंची से बात करे! यह तो सबसे निम्नतम था—शूद्र समझो। चावल कूटता, सुबह से उठकर साँझ तक चावल कूटता रहता—पाँच सौ भिक्षुओं के लिए चावल कूटना, बड़ा काम था! मगर चावल कूटतेकूटतेकूटते—कुछ सोच—विचार को तो था भी नहीं, गुरु ने कहा था, और कुछ करना भी मत, तो उसने कुछ और किया भी नहीं, सोचा भी नहीं—बस चावल कूटना और चावल कूटना! और चावल कूटना! बारह साल बीतते—बीतते तो विचार समाप्त हो गए। दर्पण खाली हो गया! धूल—वूल जमने की जरूरत ही न रही। धूल तो रोज जमानी पड़ती है तो जमती है। बारह साल कुछ सोचा ही नहीं! सोचने को कुछ था भी नहीं। चावल ही कूटना था, इसमें सोचने जैसी बात भी क्या थी?
ये चार भिक्षु बात करते निकल रहे थे कि लिंची ने सुना, वे पंक्‍तियाँ दोहरा रहे थे कि अद्भुत पंक्‍तियाँ हैं कि "मन एक दर्पण है; दर्पण पर विचार की, कर्म की धूल जम जाती है; धूल को झाड़ दो, दर्पण शुद्ध हुआ—यही समाधि है।' प्यारे वचन हैं! मगर उस बूढ़े को कुछ रास नहीं आता। अब इसके ऊपर और कौन सुधार कर सकेगा?
यह लिंची चावल कूट रहा था, हूंसने लगा। इसकी हूंसी सुनकर वे चारों चौंके। इसे कभी किसी ने हूंसते भी नहीं देखा था। उन्होंने पूछा, तुम हूंसे क्यों? इसने कहा कि गुरु ठीक कहते हैं। सब बकवास है।
उन्होंने कहा, यह तुम बोल रहे हो, जो बारह साल से सिर्फ चावल कूटते हो? ..... अब जैसे मैं अगर किसी दिन कह दूँ कि "दीक्षा' को समाधि उपलब्ध हो गयी, तुम मानोगे कि "दीक्षा' .....? चौका चलाती है, उसको कैसे समाधि उपलब्ध हो गयी? कौन मानेगा यह?..... तो उन्होंने मजाक में कहा, तो फिर तुम लिख दो चल कर। उसने कहा, बड़ी मुश्किल है, क्योंकि बारह साल में मैं लिखना भी भूल गया। तुम लिख दो तो मैं बोल देता हूँ।
वह गया, उसने चार पंक्‍तियाँ बोल दीं, किसीने लिख दीं दीवाल पर। चार पंक्‍तियाँ थीं—"मन का कोई दर्पण नहीं, धूल जमेगी कहाँ? जिसने यह जाना, उसने जाना।'
रात आधी, गुरु ने उसे बुलाया और कहा कि तूने पा लिया, मगर अब तू भाग जा। तुझे बरदाश्त नहीं किया जा सकेगा। लोग मार डालेंगे।
लबादा दे दिया और लिंची को भगा दिया आश्रम से। और निश्चित चेष्टाएँ की गयीं। लोगों ने उसका पीछा किया। उसको मारने की चेष्टाएँ की गयीं। क्योंकि बड़े—बड़े पंडित थे। और तुम जानते हो पंडितों का अहंकार! उनको यह चोट भारी हो गयी कि एक चावल कूटनेवाला और ज्ञान को उपलब्ध हो जाए और हम बैठे शास्त्र पढ़ते रहें; और हम पूजा किए, पाठ किए, मंत्रत्तंत्र किए और यह आदमी कुछ भी नहीं किया, चावल कूटता रहा, यह उपलब्ध हो जाए? यह बरदाश्त के बाहर है!
यहाँ बहुत लोग करीब आ रहे हैं। बहुत लोग करीब आएँगे। बहुत लोग उपलब्ध होंगे। यहाँ बहुतों की अंधेरी रात में दीया भभककर जलनेवाला है! बहुत—से लोग देहली पर आकर खड़े हुए जा रहे हैं। मगर मैं चुप रहूँगा। उनके नाम तुमसे कहूँगा नहीं। तुम उनको बरदाश्त न कर सकोगे। तुम उनसे बदला लेने लगोगे। तुम उनको सताने लगोगे। उन सीधे—साधे लोगों को तुम अड़चन में डालने लगोगे।
विजय भारती! इस तरह के प्रश्न पूछना बंद करो। तुम्हारा प्रयोजन तुम्हारी अपनी साधना से होना चाहिए, इससे ज्यादा नहीं। दूसरे में क्या हो रहा है, यह मेरे और उसके बीच की बात है।

आखिरी प्रश्न : भगवान, आत्मा—परमात्मा, पूर्वजन्म—पुनर्जन्म, मंत्रत्तंत्र, चमत्कार, भाग्यादि में मेरा कतई विश्वास नहीं है। मैं निपट नास्तिक हूँ। ध्यान भी करता हूँ, पर मन का कोई सहयोग नहीं रहता। आपके प्रवचनों में अनोखा आकर्षण है तथा मन को आनंद से अभिभूत प्रेरणाएँ मिलती हैं। मन की गहरी गुत्थियाँ खुल जाती हैं। आपके प्रति मन अगाध श्रद्धा से भर जाता है। क्या मैं आपके संन्यास के योग्य हूँ?
पूछा है मोतीलाल शाह ने।
मैं नास्तिकों की ही तलाश में हूँ, वे ही असली पात्र हैं। आस्तिक तो बड़े पाखंडी हो गए हैं। आस्तिक तो बड़े झूठे हो गए हैं। अब आस्तिक में और सच्चा आदमी कहाँ मिलता है? अब वे दिन गए, जब आस्तिक सच्चे हुआ करते थे। अब तो अगर सच्चा आदमी खोजना हो तो नास्तिक में खोजना पड़ता है।
आस्तिक के आस्तिक होने में ही झूठ है। उसे पता तो है नहीं ईश्वर का कुछ, और मान बैठा है। न आत्मा का कुछ पता है, और विश्वास कर लिया है। यह तो झूठ की यात्रा शुरू हो गयी। और बड़े झूठ! एक आदमी छोटे—मोटे झूठ बोलता है, उसको तुम क्षमा कर देते हो। क्षमा करना चाहिए। लेकिन ये बड़े—बड़े झूठ क्षम्य भी नहीं हैं। ईश्वर का पता है? अनुभव हुआ है? दीदार हुआ है? दर्शन हुआ है? साक्षात्कार हुआ है? कुछ नहीं हुआ। माँ—बाप से सुना है। पंडित—पुरोहित से सुना है। आसपास की हवा में गूँज है कि ईश्वर है, मान लिया है। भय के कारण, लोभ के कारण, संस्कार के कारण। यह मान्यता दो कौड़ी की है। यह असली आस्तिकता थोड़े ही है। यह नकली आस्तिकता है। असली आस्तिकता असली नास्तिकता से शुरू होती है।
नास्तिक कौन है? नास्तिक वह है जो कहता है, मुझे अभी पता नहीं, तो कैसे मानूँ? जब तक पता नहीं, तब तक कैसे मानूँ? जानूँगा तो मानूँगा। और जब तक नहीं जानूँगा, नहीं मानूँगा।
मैं ऐसे ही नास्तिकों की तलाश में हूँ। जो कहता है जब तक नहीं जानूँगा तब तक नहीं मानूँगा, मैं उसी के लिए हूँ। क्योंकि मैं जनाने को तैयार हूँ। आओ, मैं तुम्हें ले चलूँ उस तरफ! मैंने देखा है, तुम्हें दिखा दूँ!
आस्तिक को तो फिकर ही नहीं है देखने की। वह तो कहता है, हम तो मानते ही हैं, झंझट में क्या पड़ना! हम तो पहले ही से मानते हैं। यह उसकी तरकीब है परमात्मा से बचने की। उसकी परमात्मा में उत्सुकता नहीं है। इतनी भी उत्सुकता नहीं है कि इंकार करे। वह परमात्मा को दो कौड़ी की बात मानता है, वह कहता है, क्या जरूरत है फिकर करने की? असल में परमात्मा की झंझट में वह पड़ना नहीं चाहता, इसलिए कहता है कि होगा, जरूर होगा, होना ही चाहिए; जब सब लोग कहते हैं तो जरूर ही होगा। इसको बातचीत के योग्य भी नहीं मानता है। इस पर समय नहीं गँवाना चाहता है। वह कहता है, यह एक औपचारिक बात है, कभी हो आए चर्च, कभी हो आए मंदिर, कभी रामलीला देख ली—सब ठीक है। अच्छा है, सामाजिक व्यवहार है। सबके साथ रहना है तो सबके जैसा होकर रहने में सुविधा है। सब मानते हैं, हम भी मानते हैं। अब भीड़ के साथ झंझट कौन करे? और झंझट करने—योग्य यह बात भी कहाँ है? इसमें इतना बल ही कहाँ है कि इसमें हम समय खराब करें?
तुम देखते हो, लोग राजनीति का ज्यादा विवाद करते हैं, बजाय धर्म के। बड़ा विवाद करते हैं कि कौन—सी पार्टी ठीक! बड़ा विवाद करते हैं कि कौन—सा सिद्धांत ठीक! धर्म का तो विवाद ही खो गया है! धर्म का विवाद ही कौन करता है? अगर तुम एकदम बैठे हो कहीं होटल में, क्लबघर में और एकदम उठा दो कि ईश्वर है या नहीं; सब कहेंगे कि भई होगा, बैठो, शांत रहो, जरूर होगा, मगर यहाँ झंझट तो खड़ी न करो। कौन इस बकवास में पड़ना चाहता है?
नास्तिक अभी भी उत्सुक है। नास्तिक का मतलब यह है—वह यह कहता है कि परमात्मा अभी भी विचारणीय प्रश्न है; खोजने—योग्य है; जिज्ञासा—योग्य है; अभियान—योग्य है। जाऊँगा, खोजूँगा। नास्तिक यह कह रहा है कि मैं दावँ पर लगाने को तैयार हूँ। समय, तो समय लगाऊँगा
मेरे अपने देखे जगत में जो परम आस्तिक हुए हैं, उनकी यात्रा परम नास्तिकता से ही होती है, क्योंकि सचाई से ही सचाई की खोज शुरू होती है। कम—से—कम इतनी सचाई तो बरतो कि जो नहीं जानते हो उसको कहो मत कि मानता हूँ।
नास्तिक की भूल कहाँ होती है? नास्तिक की भूल इस बात में नहीं है कि वह ईश्वर को नहीं मानता, नास्तिक की भूल इस बात में है कि ईश्वर के न होने को मानने लगता है। तब भूल हो जाती है।
फर्क समझ लेना।
अगर आस्तिक ईमानदार है तो वह इतना ही कहेगा कि मुझे पता नहीं, मैं कैसे कहूँ कि है, मैं कैसे कहूँ कि नहीं है? अपना अज्ञान घोषणा करेगा; लेकिन ईश्वर के संबंध में हाँ या नहीं का कोई निर्णीत जवाब नहीं देगा। यह असली नास्तिक है। जो नास्तिक कहता है कि मुझे पता है कि ईश्वर नहीं है, यह झूठा नास्तिक है। यह आस्तिक जैसा हि झूठा है। आस्तिक ने एक तरह की झूठ पकड़ी है—बिना पता हुए कहता है कि ईश्वर है, इसने दूसरी तरह की झूठ पकड़ी है—बिना पता हुए कहता है कि ईश्वर नहीं है। दोनों झूठ हैं।
असली नास्तिक कहता है, मुझे पता नहीं, मैं अज्ञानी हूँ, मैंने अभी नहीं जाना है, इसलिए मैं कोई भी निर्णय नहीं दे सकता, मैं कोई निष्कर्ष घोषित नहीं कर सकता।
मगर यही तो खोजी की अवस्था है। यही तो जिज्ञासा का आविर्भाव है। यहीं से तो जीवन की यात्रा शुरू होती है।
तुम कहते हो, "आत्मा—परमात्मा, पूर्वजन्म—पुनर्जन्म, मंत्रत्तंत्र, चमत्कार— भाग्यादि में मेरा कतई विश्वास नहीं है। मैं निपट नास्तिक हूँ।' तो तुम ठीक आदमी के पास आ गए। अब तुम्हें कहीं जाने की कोई जरूरत न रही। यहाँ रहा तुम्हारा सद्गुरु। मैं भी महा नास्तिक हूँ। दोस्ती बन सकती है। मैं तुम्हारी "नहीं' को "हाँ' में बदल दूँगा।
मगर यह बदलाहट किसी विश्वास के आरोपण से नहीं—यह बदलाहट किसी अनुभव से। और वह अनुभव शुरू हो गया है। किरण उतरने लगी है। तुम कहते हो, "आपके प्रवचनों में अनोखा आकर्षण है तथा मन को आनंद से अभिभूत प्रेरणाएँ मिलती हैं।' शुरू हो गयी बात, क्योंकि परमात्मा आनंद का ही दूसरा नाम है। परमात्मा कुछ और नहीं है, आनंद की परम दशा है, आनंद की चरम दशा है। परमात्मा सिर्फ एक नाम है आनंद के चरम उत्कर्ष का। शुरू हो गयी बात। तुम मुझे सुनने लगे, डोलने लगे मेरे साथ; तुम मुझे सुनने लगे, मस्त होने लगे; तुम मेरी सुराही से पीने लगे; शुरू हो गयी बात। तुम रंगने लगे मेरे रंग में। अब देर की कोई जरूरत नहीं है। तुम संन्यासी बनो। बनना ही होगा! अब बचने का कोई उपाय भी नहीं है। अब भागने की कोई सुविधा भी नहीं है।
मेरे संन्यास में आस्तिक स्वीकार है, नास्तिक स्वीकार है। आस्तिक को असली आस्तिक बनाते हैं, क्योंकि आस्तिक झूठे हैं। नास्तिक को परम नास्तिकता में ले चलते हैं, क्योंकि परम आस्तिक और परम नास्तिक एक ही हो जाते हैं। कहने—भर का भेद है। आखिरी अवस्था में "हाँ' और "न' में कोई भेद नहीं रह जाता; वे एक ही बात को कहने के दो ढंग हो जाते हैं।
इसलिए तो बुद्ध जैसे व्‍यक्‍ति ने यह नहीं कहा अंत में कि ईश्वर है। महावीर ने नहीं कहा कि ईश्वर है। ये अद्भुत आस्तिक हैं! इनकी आस्तिकता ईश्वर की घोषणा पर निर्भर नहीं है। मगर दोनों ने यह कहा कि आनंद है। ईश्वर गौण है बात, असली बात आनंद है। सच्चिदानंद! वह आखिरी बात है। सत से ऊपर चित्, चित् से ऊपर आनंद। उसके ऊपर फिर कुछ भी नहीं है।
अगर तुम्हें मेरी बात से पुलक उठने लगी है, अगर तरंग उठने लगी है, अगर मेरा गीत तुम्हें सुनायी पड़ने लगा, और तुम्हारे पैरों में थिरकन आने लगी, तो समय आ गया। सिर्फ इस कारण मत रुकना कि तुम नास्तिक हो। यह कोई कमजोर धर्म नहीं है, जो मैं यहाँ दे रहा हूँ। यह किसी को इंकार नहीं करता है। वे कमजोर धर्म हैं, जो कहते हैं नास्तिक की हमारे पास कोई जगह नहीं है। वे नपुंसक धर्म हैं, जो कहते हैं पहले विश्वास करो, फिर भीतर आओ। मैं कहता हूँ, सारे विश्वास छोड़ो, शांत हो जाओ, फिर आस्था का जन्म होगा।
आस्था विश्वास से पैदा नहीं होती है। विश्वास आस्था की झूठी प्रतिलिपि है। झूठी! धोखा है।
तुम विश्वासी नहीं हो, यह अच्छा ही है—मेरा काम तुमने काफीऱ्बचाया। आस्तिक आता है तो पहले मुझे उसकी आस्तिकता तोड़नी पड़ती है। तुमने आधा काम खुद ही कर लिया है। तुम बिना किसी विश्वास के हो। यह शुभ घड़ी है। तुम्हारी किताब कोरी है। कुछ साफ नहीं करना है। इस कोरी किताब में शीघ्र ही परमात्मा का पदार्पण हो सकता है।
धर्म आस्तिकता से बँधा हुआ नहीं है, और न धर्म नास्तिकता से भयभीत है। जो धर्म नास्तिकता से भयभीत है वह धर्म नहीं है। जो आस्तिकता से बँधा है, वह धर्म नहीं है। धर्म बड़ी अद्भुत बात है! वहाँ आस्तिक—नास्तिक दोनों को बदल लेने की कीमिया है। धर्म विज्ञान है।
तुम किसी गणितज्ञ के पास जाओ और कहो कि मेरी गणित में आस्था नहीं है, क्या मैं विद्यार्थी हो सकता हूँ? वह कहेगा, विद्यार्थी होओ, आस्था तो पीछे आएगी। तुम किसी संगीतज्ञ के पास जाओ और कहो, मेरी संगीत में कोई आस्था नहीं है। वह कहेगा, हो भी कैसे सकती है; संगीत में उतरो, अनुभव से आस्था आएगी। वही मैं तुमसे कहता हूँ।
तुम्हारा भय मैं समझता हूँ। तुम कहते हो, क्या मैं आपके संन्यास के योग्य हूँ? क्योंकि तुम्हारे तथाकथित किसी मंदिर और मस्जिद में तुम्हारे लिए प्रवेश नहीं होगा। तुम्हारे तथाकथित शंकराचार्य, पोप और मौलवी, कोई तुम्हें अंगीकार नहीं कर सकेंगे। उनकी छाती बड़ी छोटी है।
मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। तुम धन्यभागी हो! यहीं से शुरू करेंगे यात्रा। नास्तिकता से ठीक—ठीक कदम उठ सकते हैं।
जो जहाँ है, वहीं से तो परमात्मा की तरफ चलना होगा! और परमात्मा शब्द में तुम्हें रस न हो तो उस शब्द को छोड़ ही दो। उससे कुछ लेना—देना नहीं है। शब्दों में कुछ रखा नहीं है। आनंद कहो, निर्वाण कहो, सत्य कहो, मोक्ष कहो—जो कहना हो कहो। और चुप रहना हो, कुछ न कहना हो उसके संबंध में, तो चुप रहो। मगर अनुभव कर लो उसका—जिसके सब नाम हैं और जिसका कोई नाम नहीं।
तुम कहते हो, "अनोखा आकर्षण और मन को आनंद से अभिभूत करने वाली प्रेरणाएँ उत्पन्न हो रही हैं। मन की गहरी गुत्थियाँ खुल जाती हैं।' उन्हीं गुत्थियों के खुलने में तो परमात्मा प्रगट हो जाएगा। मन की गाँठें खुल गयीं सब, कि फिर कुछ और बचता नहीं। मन की गुत्थियों में ही तो खो गया है परमात्मा।
"आपके प्रति मन में अगाध श्रद्धा भर जाती है।' देखते हो, आस्तिकता शुरू हो गयी! श्रद्धा आस्तिकता का जन्म है। किसके प्रति श्रद्धा भरती है, इससे थोड़े ही सवाल है। श्रद्धा उठ आए, बस, शुरू हो गयी। आनंद को कैसे झुठलाओगे? अगर मेरी बात में इतना आनंद है, तो मेरी बात का जो अनुभव है, उसमें कितना आनंद न होगा—इस बात को कैसे झुठलाओगे?
श्रद्धा तो उमगेगी। और यह श्रद्धा आरोपित नहीं है। यह तुम्हारे भीतर अपने आप आ रही है। यह प्रसादरूप है। इसका अवतरण हो रहा है।
सच्ची अनुभूतियाँ सदा ही उतरती हैं—लायी नहीं जातीं। अब तुमसे पुराने गुरु कहते हैं कि श्रद्धा करो! और मैं कहता हूँ, श्रद्धा मत करना। श्रद्धा आती है—की नहीं जाती।
मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था बहुत दिन तक। विश्वविद्यालयों में एक ही अड़चन हो गयी है कि कोई विद्यार्थी गुरुओं को आदर नहीं देता। तो कुछ विश्वविद्यालयों ने मिलकर एक समिति बिठायी थी इस पर विचार करने को, कि विद्यार्थियों के मन में गुरुओं के प्रति श्रद्धा क्यों कम हो गयी है? और श्रद्धा को कैसे जगाया जाए? न—मालूम किस भूल—चूक के क्षण में उन्होंने मेरा नाम उसमें रख लिया! फिर वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए। क्योंकि मैंने उनसे जो कहा, वह तो वे सुनने को आए नहीं थे—सोचकर भी नहीं आए थे कि यह कोई कहेगा! वहाँ तो सब अपना रोना रो रहे थे। मैंने उनसे कहा, बकवास बंद करो यह। तुम श्रद्धा—योग्य हो ही नहीं।
उनके चेहरे देखने—जैसे थे। उनको शक होने लगा कि मैं शिक्षक हूँ या विद्यार्थियों की तरफ से आ गया हूँ—मामला क्या है? मैंने कहा, तुम श्रद्धा—योग्य होते तो श्रद्धा पैदा होती ही। नहीं हो रही है तो तुम श्रद्धा—योग्य नहीं हो, और क्या चाहिए! बात जाहिर है और यह क्या बकवास लगा रखी है कि श्रद्धा कैसे पैदा की जाए? कौन कब श्रद्धा पैदा कर पाया है? प्रेम पैदा कर सकते हो? होता है तो होता है। श्रद्धा पैदा कर सकते हो? होती है तो होती है। लेकिन एक बात है कि अगर कहीं कुछ श्रद्धा—योग्य हो, तो जरूर हो जाती है। और कहीं अगर कुछ प्रेम—योग्य हो तो जरूर प्रेम हो जाता है। बचा नहीं जा सकता।
तो मैंने कहा, इससे सिर्फ इतना ही सबूत हो रहा है कि जिनको तुम गुरु कहते हो, अब वे गुरु नहीं हैं। और यह केवल संकेत है हवाओं का। विद्यार्थी सिर्फ यह कह रहे हैं कि अब हमारे भीतर तुम्हारे प्रति श्रद्धा पैदा नहीं होती। अब तुम कुछ करो! तुम सोच रहे हो कि विद्यार्थियों के साथ हम क्या करें? नहीं, अपने साथ कुछ करो। तुम बदलो! तुम श्रद्धा—याग्य नहीं रहे हो।
शास्त्रों में कहा है : गुरु के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए। मैं तुमसे कहता हूँ : जिसके प्रति श्रद्धा हो, वह गुरु। गुरु के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए, यह कोई चाहने की बात है? यह कोई चाहत से हो सकती है? जिसके प्रति श्रद्धा पैदा हो जाए, वह गुरु। जिसके प्रति तुम चाहकर भी श्रद्धा को न बचा पाओ, वह गुरु। जिसके प्रति तुम्हारे बावजूद श्रद्धा हो जाए, वह गुरु।
अब तुम नास्तिक हो और संन्यास का भाव उठ रहा है, ज़रा सोचो! ऐसा कभी सुना? आंखों देखा, कानों सुना? नास्तिक को संन्यास का भाव उठ रहा है! यही श्रद्धा है। श्रद्धा असंभव को संभव बनाती है।
मेरा संन्यास अस्तित्व के प्रति प्रेम की एक कला है।

अभी आओ कि नए सिर से मुहब्बत कर लें
दिल के वीराने को मामूरे—मसर्रत कर लें
गर्दिशे—चर्ख को फिर खूगरेबहजत कर लें
उम्रे—नाशाद को सरमायए—इशरत कर लें
वत्त बाकी है अभी आओ कि उल्फत कर लें
अभी आओ कि नए सिर से मुहब्बत कर लें

आओ देखो कि सरापा गमेपिन्हां हूँ मैं
शमअ की तरह से इक शोलएसोजां हूँ मैं
दिल शिकिस्ता हूँ, सितमकश हूँ, परेशाँ हूँ मैं
दर्द शाहिद है कि मिन्नत—कशेदरमाँ हूँ मैं
तुम जो आ जाओ तो सब दूर शिकायत कर लें
अभी आओ कि नए सिर से मुहब्बत कर लें

मुझसे गर तुमको गिला है तो सुनाओ मुझको
गर खता मुझसे हुई हो तो बताओ मुझको
हो खफा मुझसे तो पास आके जताओ मुझको
गमे—दूरी से मगर अब न जलाओ मुझको
नालए—दर्द को आहंगे—मसर्रत कर लें
अभी आओ कि नए सिर से मुहब्बत कर लें

परमात्मा के साथ संबंध जोड़ना मुहब्बत को एक नया ढंग, एक नयी शैली देनी है। वही मुहब्बत है यह, जो तुमने पत्नी से की थी, जो तुमने अपनी माँ से की थी, जो तुमने अपनी बहन से की थी, जो तुमने अपने दोस्त से की थी। वही मुहब्बत है यह। मगर एक नया सिलसिला है। उसी मुहब्बत का एक नया आयाम है।
संन्यास का अर्थ है, मेरे प्रेम में गिर जाना। और मैं एक द्वार हूँ, इससे ज्यादा नहीं। मुझमें गिरे कि मुझसे पार गए। द्वार तो सिर्फ द्वार है, उससे पार चले जाना है। मैंने एक झरोखा खोला है तुम्हारे लिए और तुम्हें पुकार रहा हूँ कि आओ, इस झरोखे से ज़रा देख लो। बड़ी सुंदर है दुनिया इस झरोखे के पार! खुला आकाश है और शुभ्र बादल हैं और चाँदत्तारे हैं! मुझ पर अटक नहीं जाना है—मुझसे पार हो जाना है।
तुम्हारे जीवन में आनंद की थोड़ी—सी पुलक उठी है, संन्यास इस पुलक को एक प्रगाढ़ बाढ़ बना जाएगा। अभी सुन रहे हो, दूर—दूर हो, फिर पास आ जाओगे। फिर मेरे शब्द ही नहीं सुनोगे, मेरे हृदय की धड़कन भी सुनने लगोगे। फिर मैं जो कहता हूँ, वह तो सुनोगे ही, और जो मैं नहीं कहता हूँ, वह भी सुनने लगोगे।

आओ, अभी आओ कि नये सिर से मुहब्बत कर लें
दिल के वीराने को मामूरे—मसर्रत कर लें
गर्दिशे—चर्ख को फिर खूगरेबहजत कर लें
उम्र—नाशाद को सरमायए—इशरत कर लें
वत्त बाकी है अभी आओ कि उल्फत कर लें
अभी आओ कि नए सिर से मुहब्बत कर लें
संन्यास प्रेम की एक नयी यात्रा है। उतर आओ घोड़े से! इस बारात के साथ बहुत चल लिए। इस भीड़—भाड़ के साथ बहुत चल लिए। अब किसी एक के, ऐसे के भी साथ चल लो, जो अकेला है। और उसी के साथ चलने में तुम्हें पहली दफा अपने अकेलेपन का आनंद अनुभव होगा, अपने एकांत का अनुभव होगा। वही एकांत का अनुभव एक दिन परमात्मा का अनुभव बन जाता है।
परमात्मा कोई विश्वास नहीं है— अनुभव है। परमात्मा कोई सिद्धांत नहीं है— श्रद्धा है। और श्रद्धा की शुरूआत हो गयी है। चमत्कार तो हो गया है। नास्तिक संन्यासी होना चाहता है!

आज इतना ही।



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