अंगूर—बेल
के दिवस पर
आये
यात्रियों
को मीरदाद
प्रभावशाली
उपदेश देता है
और
नौका
को कुछ
अनावश्यक भार
से मुक्त करता
है
मीरदाद
:
देखो मीरदाद
को — अंगूर की
उस बेल को
जिसकी फसल अभी
तक नहीं काटी
गई,
जिसका रस
अभी तक नहीं
पिया गया।
अपनी फसल से
लदा हुआ है मीरदाद।
पर, अफसोस,
लुनेरे
दूसरी ही अगर —वाटिकाओं
में व्यस्त
हैं।
और
रस की बहुलता
से मीरदाद का
दम घुट रहा है।
लेकिन पीने और
पिलाने वाले
दूसरी ही
शराबों के नशे
में चूर हैं।
हल, कुदाल
और दराँती
चलाने वालो, तुम्हारे
हलों, कुदालों
और दराँतियों
को. मैं
आशीर्वाद देता
हूँ।
क्या
तुमने अपनी
अम्ल। के
सुनसान
बँजरों में हल
चलाया है जो
हर प्रकार के
घास—पात से
इतने भरे पड़े
हैं कि सचमुच
जगल ही बन गये
हैं जिनमें
भयंकर पशु और
घिनौने सर्प.
बिच्छू आदि
पनप रहे हैं
और उनकी सरथा
बढ़ रही है।
क्या
तुमने उन घातक
जड़ों को उखाड़
फेंका है जो अँधेरे
में तुम्हारी
जड़ों से लिपट
कर उन्हें दबोच
रही हैं, और इस
प्रकार
तुम्हारे फल
को कली की
अवस्था में ही
नोच रही हैं 7
क्या
तुमने अपनी उन
शाखाओं की
छँटाई की है
जिन्हें
व्यस्त कीड़ों
ने खोखला कर
दिया है, या
परजीवी बेलों
के आक्रमण ने
सुखा दिया
अपनी
लौकिक अगर—वाटिकाओं
में हल चलाना
और उनकी खुदाई
तथा छँटाई
करना तुमने
भली —भाँति
सीख लिया है।
पर वह अलौकिक
अंगूर—वाटिका
जो तुम खुद हो बुरी
तरह उजाड़ से
और उपेक्षित
पडी है।
कितना
निरर्थक है
तुम्हारा सब
श्रम जब तक
तुम वाटिका से
पहले वाटिका
के स्वामी की
ओर ध्यान नहीं
देते।
श्रम—जन्य
घट्ठों से भरे
हाथ वाले
लोगो! मैं
तुम्हारे
घट्ठों को
आशीर्वाद
देता हूँ।
लम्बसूत्र
और पैमाने के
मित्रो, हथौड़े
और अहरन के
साथियो, छेनी
और आरे के हमराहियो,
अपने —अपने
शिल्प में तुम
कितने कुशल और
योग्य हो।
तुम्हें
मालूम है कि
वस्तुओं का
स्तर और उनकी गहराई
कैसे जानी
जाती है; परन्तु
अपना स्तर और
गहराई कैसे
जानी जाती है,
इसका
तुम्हें पता नहीं।
लोहे
के टकड़े को हथौड़े
और अहरन से
कुशलतापूर्वक
गढ़ते हो, पर
नहीं जानते कि
ज्ञान की अहरन
पर सकल्प के हथौड़े
से अनगढ़
मनुष्य को
कैसे गढ़ा जाता
है। न ही
तुमने अहरन से
यह अनमोल
शिक्षा ली है
कि चोट के
बदले चोट
पहुँचाने का
रत्ती भर
विचार किये
बिना भी चोट
कैसे खाई जाती
है।
लकड़ी
पर आरा और
पत्थर पर छेनी
चलाने में तुम
समान रूप से
निपुण हो; पर
नहीं जानते कि
गँवारू और
उलझे हुए
मनुष्य को
सभ्य और सुलझा
हुआ कैसे
बनाया जाता है।
कितने
निरर्थक हैं
तुम्हारे सब
शिल्प जब तक पहले
तुम शिल्पी पर
उनका प्रयोग
नहीं करते!
अपनी
धरती —माँ के
दिये उपहारों
और साथी
मनुष्यों के
हाथों से बनी
चीजों की
मनुष्य को
आवश्यकता
होती है, और
मनुष्य अपने
लाभ के लिये
इस आवश्यकता
का ही व्यापार
कर रहे हैं।
मैं
आवश्यकताओं
को,
उपहारों को,
और
उत्पादित
वस्तुओं को
हूँ, आशीर्वाद
देता हूँ, और
आशीर्वाद
देता हूं, व्यापार
को भी। किन्तु
स्वयं उस लाभ
के —लिये, जो
वास्तव में
हानि है, मेरे
मुख से
शुभकामना
नहीं निकलती।
रात
के
महत्त्वपूर्ण
सन्नाटे में
जब तुम दिन भर
की आय के जमा —खर्च
का हिसाब करते
हो तो लाभ के
खाते में क्या
डालते हो और हानि
के खाते में
क्या? क्या
लाभ के खाते
में वह धन
डालते हो जो
तुम्हें
तुम्हारी लागत
से अधिक
प्राप्त हुआ? तो सचमुच
बेकार गया वह
दिन जिसे बेच
कर तुमने वह
पूँजी
प्राप्त की, चाहे वह
पूँजी कितनी
ही बड़ी क्यों
न रही हो। और
उस दिन के
सौहार्द, शान्ति
और प्रकाश के
अन्तहीन
खजाने से तुम
पूर्णतया
वंचित रह गये।
उस दिन के
द्वारा
स्वतन्त्रता
के लिये दिये
गये निरन्तर
आमन्त्रणों
का भी तुम लाभ
न उठा सके और
खो बैठे— उन
मानव —हृदयों
को जिन्हें
उसने
तुम्हारे
लिये उपहार के
रूप में अपनी
हथेली पर रखा
था।
जब
तुम्हारी
मुख्य रुचि
लोगों के
बटुओं में है, तब
तुम्हें उनके
हृदय में
प्रवेश का
मार्ग कैसे
मिल सकता है? और यदि
तुम्हें
मनुष्य के लता
तुम प्रभु
हृदय तक हृदय
में प्रवेश का
मार्ग नहीं मिला
तो के पहुँचने
की आशा कैसे
कर सकते हो? और यदि तुम
प्रभु के हृदय
तक नहीं
पहुँचते तो क्या
अर्थ है
तुम्हारे
जीवन का?
जिसे
तुम लाभ समझते
हो यदि वह
हानि हो, तो
कितनी अपार
होगी वह हानि।
निश्चय ही
व्यर्थ है
तुम्हारा
सम्पूर्ण व्यापार
जब तक
तुम्हारे लाभ
के खाते में
प्रेम और
दिव्य ज्ञान न
आये।
राजदण्ड
जामने वाले
मुकुटधारियो।
ऐसे
हाथों में जो
घायल करने में
बहुत चुस्त, लेकिन
घाव पर मरहम
लगाने में
बहुत— सुस्त
हैं राजदण्ड
सर्प के समान
हैं। जब कि
प्रेम का मरहम
लगाने वाले
हाथों में
राजदण्ड एक
विद्युत् —दण्ड
के समान है जो
विषाद और
विनाश को पास
नहीं फटकने
देता।
भली
प्रकार परखो
अपने हाथों को।
मिथ्याभिमान, ज्ञान
तथा मनुष्यों
पर प्रभुत्व
के लोभ से फूले
हुए मस्तक पर
सजा हीरे, लाल
और नीलम से
जुडा सोने का
खट बोझ, उदासी
और बेचैनी
महसूस करता है।
हां, ऐसा
मुकुट तो अपनी
पीठिका का —
जिस पर वह रखा
है उसका —
मर्मभेदी
उपहास ही होता
है। जब कि
अत्यन्त
दुर्लभ और
उत्कृष्ट
रत्नों से जड़ा
खट भी ज्ञान
तथा आत्म—विजय
से आलोकित
मस्तक के
अयोग्य होने
के कारण लज्जा
का अनुभव करता
है।
भली
प्रकार परखो
अपने मस्तकों
को।'
लोगों
पर शासन करना
चाहते हो तुम? तो
पहले अपने आप
पर शासन करना
सीखो।
अपने
आप पर शासन
किये बिना तुम
औरों पर शासन
कैसे कर सकते
हो?
वायु से
प्रताड़ित, फेन
उगलती लहर
क्या सागर को
शान्ति तथा
स्थिरता
प्रदान कर
सकती है? अश्रु
—पूरित आंख
क्या किसी
अश्रु —पूरित
हृदय में
आनन्दपूर्ण
मुसकान
जाग्रत कर सकती
है? भय या
क्रोध से
काँपता हाथ
क्या जहाज का
सन्तुलन
बनाये रख सकता
है?
मनुष्यों
पर शासन करने
वाले लोग
मनुष्यों द्वारा
शासित होते
हैं। और
मनुष्य
अशान्ति, अराजकता
तथा
अव्यवस्था से
भरे हुए हैं, क्योंकि वे
सागर की तरह
आकाश की हर
झंझा के प्रहार
के सामने बेबस
हैं? सागर
ही की तरह
उनमें ज्वार—भाटा
आता है. और कभी —कभी
लगता है कि वे
अपनी सीमा का
उल्लंघन करने ही
वाले हैं।
लेकिन सागर ही
की तरह उनकी
गहराइयाँ
शान्त और सतह
पर होने वाले
झंझाओं के
प्रहारों के
प्रभाव से
मुका रहती हैं।
यदि
तुम सचमुच
लोगों पर शासन
करना चाहते हो
तो उनकी चरम
गहराइयों तक
पहुँचों, क्योंकि
मनुष्य केवल
उफनती लहरें
नहीं हैं।
परन्तु
मनुष्यों की
चरम गहराइयों
तक पहुँचने के
लिये तुम्हें
पहले अपनी चरम
गहराई तक
पहुँचना होगा।
और ऐसा करने
के लिये
तुम्हें
राजदण्ड तथा
मुकुट को
त्यागना होगा
ताकि
तुम्हारे हाथ
महसूस करने के
लिये
स्वतन्त्र
हों, और
तुम्हारा
मस्तक सोचने
तथा परखने के
लिये भार—मुक्त
हो।
व्यर्थ
है तुम्हारा
सब शासन, नियमहीन
हैं तुम्हारे
सब नियम, और
अव्यवस्था है
तुम्हारी सब
व्यवस्था जब
तक तुम अपने
अन्दर के उस
उद्दण्ड
मनुष्य पर
शासन करना न
सीख लो जिसका
प्रिय
मनोरंजन है
राजदण्डों और
मुकुटों से
खेलना।
धूपदानों
और धर्म —पुस्तकों
वालो! क्या
जलाते हो तुम
धूपदानों में? क्या
पढ़ते हो तुम
धर्म —पुस्तकों
में?
क्या
तुम वह रस
जलाते हो जो
कुछ पौधों के
सुग्प्न्धपूर्ण
हृदय में से
रिस —रिस कर जम
जाता है? किन्तु
वह तो आम
बाजारों में
खरीदा और बेचा
जाता है, और
दो टके का रस
किसी भी देवता
को कष्ट देने
के लिये काफी
है।
क्या
तुम समझते हो
कि धूप की
सुगन्ध घृणा, ईर्ष्या
और लोभ की
दुर्गन्ध को
दबा सकती है? दबा सकती है
फरेबी आँखों
की, झूठ बोलती
जिह्वा की और
वासनापूर्ण
हाथों की दुर्गन्ध
को? दबा
सकती है
विश्वास का
नाटक करते
अविश्वास की
और
आनन्दपूर्ण
स्वर्ग का ढोल
पीटती अधम पार्थिवता
की दुर्गन्ध
को?
इन
सब को भूखों
मार कर, एक—एक
कर हृदय में
जला देने से, और इनकी राख
को चारों
दिशाओं में
बिखेर देने से
जो सुगन्ध
उठेगी वह
तुम्हारे
प्रभु की नासिका
को कहीं अधिक
सुहावनी
लगेगी।
क्या
जलाते हो तुम
धूपदानों में?
अनुनय, प्रशंसा
और प्रार्थना?
अच्छा
है क्रोधी —देवता
को अपने क्रोध
की अग्नि में
झुलसने के
लिये छोड़ देना।
अच्छा है प्रशंसा
के भूखे देवता
को प्रशंसा की
भूख से तड़पने के
लिये छोड देना।
अच्छा है कठोर
—हृदय देवता
को अपने ही
हृदय की
कठोरता के
हाथों मरने के
लिये छोड़ देना।
किन्तु
प्रभु न
क्रोधी है, न
प्रशंसा का
भूखा और न ही
कठोर— हृदय।
क्रोध से भरे,
प्रशंसा के
भूखे और कठोर —हृदय
तो तुम हो।
प्रभु
यह नहीं चाहता
कि तुम धूप
जलाओ, वह तो
चाहता है कि
तुम अपने
क्रोध को.
अहंकार और
कठोरता के।
जला डालो ताकि
तुम उसी जैसे
स्वतन्त्र और
सर्वशक्तिमान
हो जाओ। वह
चाहता है कि
तुम्हारा हृदय
ही धूपदान बन
जाये।
क्या
पढ़ते हो तुम
अपनी धर्म —पुस्तकों
में?
क्या
तुम
धर्मादेशों
को पढ़ते हो
ताकि उन्हें सुनहरे
अक्षरों में
मन्दिरों की
दीवारों और गुम्बदों
पर लिख दो? या
तुम पढ़ते हो
जीवित सत्य को
ताकि उसे अपने
हृदय पर अंकित
कर सकी?
क्या
तुम
सिद्धान्तों को
पढ़ते हो ताकि
धार्मिक
मैचों से उनकी
शिक्षा दे सको
और तर्क तथा
वचन —चातुरी
द्वारा, और
यदि आवश्यकता
पड़े तो तलवार
की धार द्वारा,
उनकी रक्षा
कर सकी? या
तुम अध्ययन
करते हो जीवन
का जो कोई
सिद्धान्त
नहीं है जिसकी
शिक्षा दी
जाये और रक्षा
की जाये, बल्कि
एक मार्ग है
जिस पर
स्वतन्त्रता
प्राप्त करने
के दृढ़ संकल्प
के साथ चलना
है, मन्दिर
के अन्दर भी
वैसे ही जैसे
उसके बाहर, रात में भी
वैसे ही जैसे
दिन में, और
निचले पदों पर
भी वैसे ही
जैसे ऊँचे
पदों पर। और
जब तक तुम उस
मार्ग पर चलते
नहीं और
तुम्हें उसकी
मंजिल का
निश्चित रूप
से पता नहीं
लग जाता, तब
तक तुम औरों
को उस मार्ग
पर चलने का
निमन्त्रण
देने का
दुःसाहस कैसे
कर सकते हो?
क्या
तुम अपनी धर्म
—पुस्तकों में
तालिकाओं, मानचित्रों
तथा मूल्य —
सूचियों को
देखते हो जो
मनुष्यों को
बताती हैं कि
इतनी या इतनी
धरती से कितना
स्वर्ग खरीदा जा
सकता है?
चालबाजो
और पाप के
प्रतिनिधियो।
तुम मनुष्यों
को स्वर्ग बेच
कर उनसे धरती
में उनका
हिस्सा मोल
लेना चाहते हो।
तुम धरती को
नरक बना कर
मनुष्यों को
यहाँ से भाग
जाने के लिये
प्रेरित करते
हो और अपने आप
को और भी
मजबूती के साथ
यहाँ जमा लेना
चाहते हो। तुम
मनुष्यों को
यह क्यों नहीं
समझाते कि वह धरती
के कुछ हिस्से
के बदले
स्वर्ग में
अपना हिस्सा
बेच दें?
यदि
तुम अपनी धम —पुस्तकों
को अच्छी तरह
पढ़ते तो लोगों
को दिखाते कि
धरती को
स्वर्ग कैसे
बनाया जाता है;
क्योंकि दिव्य
—हृदय
मनुष्यों के
लिये धरती एक
स्वर्ग है, जब कि उनके
लिये जिनका
हृदय संसार
में है स्वर्ग
एक धरती है।
मनुष्य
और उसके
साथियों के
बीच,
मनुष्य और
अन्य जीवों के
बीच, तथा
मनुष्य और
प्रभु के बीच
खड़ी सब बाधाओं
को हटा कर
मनुष्य के
हृदय में
स्वर्ग को
प्रकट कर दो। परन्तु
इसके लिये
तुम्हें
स्वयं दिव्य—हृदय
बनना होगा।
—स्वर्ग कोई
खिला हुआ
उद्यान नहीं
है जिसे खरीदा
या किराये पर
लिया जा सके।
स्वर्ग तो
अस्तित्व की
एक अवस्था है
जिसे धरती पर
उतनी ही आसानी
से प्राप्त
किया जा सकता
है जितनी
आसानी से इस
असीम
ब्रह्माण्ड
में कहीं भी।
फिर उसे धरती
से परे देखने
के लिये अपनी
गर्दन क्यों
तानते हो, अपनी
आंखों पर
क्यों जोर
डालते हो?
न
ही नरक कोई
दहकती हुई
भट्ठी है
जिससे प्रार्थनाएँ
करके या धूप
जला कर बचा जा
सके। नरक तो
मन की एक
अवस्था है
जिसका धरती पर
उतनी ही आसानी
से अनुभव किया
जा सकता है
जितनी आसानी
से इस अमित
विशालता में
कहीं भी।
जिस
आग का ईधन मन
हो उस आग से
भाग कर तुम
कहीं जा सकते
हो जब तक तुम
मन से ही नहीं
भाग जाते?
जब
तक मनुष्य
अपनी ही छाया
का बन्दी है
तब तक व्यर्थ
है स्वर्ग की
खोज,
और व्यर्थ
है नरक से
बचने का प्रयास।
क्योंकि
स्वर्ग और नरक
दोनों द्वैत
की स्वाभाविक
अवस्थाएँ हैं।
जब तक मनुष्य
की बुद्धि एक
न हो, हृदय
एक न हो, और
शरीर एक न हो, जब तक वह
छाया —मुक्त न
हो और उसका
संकल्प एक न
हो, तब तक
उसका एक पैर
हमेशा स्वर्ग
में रहेगा और दूसरा
हमेशा नरक में।
और यह अवस्था
निःसन्देह
नरक है।
और
यह तो नरक से
भी बदतर है कि
पंख प्रकाश के
हों और पैर
सीसे के; कि
आशा ऊपर उठाये
और निराशा
नीचे घसीट ले;
कि भय—मुक्त
विश्वास
बन्धन को खोले
और भयपूर्ण
संशय बन्धन
में जकड़ ले
स्वर्ग
नहीं है वह
स्वर्ग जो
दूसरों के
लिये नरक हो।
नरक नहीं है
वह नरक जो
दूसरों के
लिये स्वर्ग
हो। और
क्योंकि एक का
नरक प्राय:
दूसरे का
स्वर्ग होता
है,
और एक का
स्वर्ग प्राय:
दूसरे का नरक,
इसलिये
स्वर्ग और नरक
कोई स्थायी और
परस्पर विरोधी
अवस्थाएँ
नहीं, बल्कि
पड़ाव हैं
जिन्हें
स्वर्ग और नरक
दोनों से
स्वतन्त्रता
प्राप्त करने
की लम्बी
यात्रा में
पार करना होता
है।
पवित्र
अंगूर—बेल के
यात्रियो।
सदाचारी
बनने के
इच्छुक
व्यक्तियों
को बेचने या
प्रदान करने
के लिये
मीरदाद के पास
कोई स्वर्ग
नहीं है, न ही
उसके पास कोई
नरक है जिसे
वह दुराचारी
बनने के
इच्छुक लोगों
के लिये हौआ
बना कर खड़ा कर
दे।
जब
तक कि
तुम्हारी
सदाचारिता
खुद ही स्वर्ग
नहीं बन जाती, वह
एक दिन के
लिये खिलेगी
और फिर मुरझा
जायेगी।
जब
तक कि
तुम्हारी
दुराचारिता
खुद ही हौआ
नहीं बन जाती, वह
एक दिन के
लिये दबी
रहेगी पर
अनुकूल अवसर पाते
ही खिल उठेगी।
तुम्हें
देने के लिये
मीरदाद के पास
कोई स्वर्ग या
नरक नहीं है, परन्तु
है दिव्य शान
जो तुम्हें
किसी भी नरक की
आग और किसी भी
स्वर्ग के
ऐश्वर्य से
बहुत ऊपर उठा
देगा। हाथ से
नहीं, हृदय
से स्वीकार
करना होगा
तुम्हें यह
उपहार। इसके
लिये तुम्हें
अपने हृदय को
ज्ञान—प्राप्ति
की इच्छा और
संकल्प के
अतिरिक्त
अन्य हर इच्छा
और संकल्प के
बोझ से मुक्त
करना होगा।
तुम
धरती के लिये
कोई अजनबी
नहीं हो, न ही
धरती
तुम्हारे
लिये सौतेली
माँ है। तुम
तो उसके हृदय
का ही सारभूत
अंश हो, और
उसके
मेरुदण्ड का
ही बल हो।
अपनी सबल, चौड़ी
और सुदृढ़ पीठ
पर तुम्हें
उठाने में उसे
खुशी होती है;
तुम क्यों
अपने दुर्बल
और क्षीण
वक्षःस्थल पर
उसे उठाने का
हठ करते हो, और
परिणामस्वरूप
कराहते, हाँफते
और साँस के
लिये छटपटाते
हो?
दूध
और शहद बहते
हैं धरती के
थनों से। लोभ
के कारण अपनी
आवश्यकता से
अधिक मात्रा
में इन्हें
लेकर तुम इन
दोनों को
खट्टा क्यों
करते हो?
शान्त
और सुन्दर है
धरती का मुखड़ा।
तुम दुःखद कलह
और भय से उसे
अशान्त और
कुरूप क्यों
बनाना चाहते
हो?
एक
पूर्ण इकाई है
धरती। तुम
तलवारों और
सीमा —चिह्नों
से क्यों इसको
टुकड़े —टुकड़े
कर देने पर
तुले हो?
आज्ञाकारिणी
और निश्चिन्त
है धरती। तुम
क्यों इतने
चिन्ताग्रस्त
और अवज्ञाकारी
हो?
फिर
भी तुम धरती
से,
सूर्य से, तथा आकाश के
सभी ग्रहों से
अधिक स्थायी
हो। सब नष्ट
हो जायेंगे, पर तुम नहीं।
फिर तुम क्यों
हवा में
पत्तों की तरह
काँपते हो?
यदि
अन्य कोई
वस्तु तुम्हें
ब्रह्माण्ड
के साथ
तुम्हारी
एकता का अनुभव
नहीं करवा
सकती तो अकेली
धरती से ही
तुम्हें इसका
अनुभव
प्राप्त हो
जाना चाहिये।
परन्तु धरती
स्वय केवल
दर्पण है
जिसमें तुम्हारी
परछाइयाँ
प्रतिबिम्बित
होती हैं।
क्या दर्पण
प्रतिबिम्बित
वस्तु से अधिक
महत्त्वपूर्ण
है? क्या
मनुष्य की
परछाईं
मनुष्य से
अधिक महत्त्वपूर्ण
है?
आंखें
मली और जागो।
क्योंकि तुम
केवल मिट्टी
नहीं हो।
तुम्हारी
नियति केवल
जीना और मरना
तथा मृत्यु के
भूखे जबड़ों के
लिये आहार बन
कर रह जाना नहीं
है। तुम्हारी
नियति है
मुक्त होना —
जीवन और
मृत्यु से; स्वर्ग
और नरक से; और
परस्पर
संघर्ष —रत
सभी विरोधी
तत्त्वों से
जो द्वैत पर
निर्भर हैं।
तुम्हारी
नियति है
प्रभु की सतत
फलदायिनी अगर —वाटिका
की फलवती अगर —बेल
बनना।
जिस
प्रकार किसी
अंगूर—बेल की
जीवित शाखा
धरती में दबा
दिये जाने पर जड
पकड लेती है
और अन्त में
अपनी माता की
ही तरह, जिसके
साथ वह जुडी
रहती है, और
देने वाली
स्वतन्त्र
बेल बन जाती
है, उसी
प्रकार
मनुष्य, जो
दिव्य लता की
जीवित शाखा है,
अपनी
दिव्यता की
मिट्टी में
दबा दिये जाने
पर परमात्मा
का रूप बन
जायेगा और सदा
परमात्मा के
साथ एकरूप
रहेगा।
क्या
मनुष्य को
जीवित दफना
दिया जाये
ताकि वह जीवन
पा ले?
हां, निस्सन्देह
ही। जब तक तुम
जीवन और
मृत्यु के
द्वैत के
प्रति दफन
नहीं हो जाते,
तुम
अस्तित्व के
एकत्व को नहीं
पाओगे।
जब
तक तुम दिव्य
प्रेम के
अंगूरों से
पोषित नहीं
होते, तुम
दिव्य ज्ञान
की मदिरा से
भरे नहीं
जाओगे।
और
जब तक तुम
दिव्य ज्ञान
की मदिरा के
नशे में बेहोश
नहीं हो जाते, तुम
स्वतन्त्रता
के चुम्बन से
होश में नहीं
आओगे।
प्रेम
का आहार नहीं
करते हो तुम
जब पृथ्वी की अगर
—बेल के फल
खाते हो। तुम
एक छोटी भूख
को शान्त करने
के लिये एक
बड़ी भूख को
आहार बनाते हो।
ज्ञान
का पान नहीं
करते हो तुम
जब पृथ्वी की
अंगूर—बेल का
रस पीते हो।
तुम केवल पीड़ा
की एक क्षणिक
विस्मृति का
पान करते हो
जो अपना
प्रभाव
समाप्त होते
ही तुम्हारी
पीड़ा की
तीव्रता को
दुगुना कर
देती है। तुम
एक दु:खदायी
अहं से दूर
भागते हो और
वही अहं तुम्हें
अगले मोड़ पर
खड़ा मिलता है।
जो
अगर तुम्हें
मीरदाद पेश
करता है
उन्हें न फफूँदी
लगती है न वे
सड़ते हैं।
उनसे एक बार
तृप्त हो जाना
सदा के लिये
तृप्त रहना है।
जो मदिरा उसने
तुम्हारे
लिये तैयार की
है वह उन ओठों
के लिये बहुत
तीखी है जो
जलने से डरते हैं; लेकिन
वह जान डाल
देती है उन
हृदयों में जो
अनन्तकाल तक
आत्म —विस्मृति
के नशे में ड़बे
रहना चाहते है।
तुममें
ऐसे मनुष्य
हैं जो मेरे
अंगूरों के भूखे
हैं? वे अपनी
क्या.
टोकरियाँ
लेकर आगे आ
जायें।
क्या
कोई ऐसे हैं
जो मेरे रस के
प्यासे हैं? वे
अपने प्याले
लेकर आ जायें।
क्योंकि
मीरदाद अपनी
फसल से लदा है.
और रस की बहुलता
से उसकी साँस
रुक रही है।
पवित्र
अंगूर—बेल का
दिवस आत्म—विस्मृति
का दिन था —
प्रेम की
मदिरा से
उन्मत और
ज्ञान की आभा
से स्नात दिन, स्वतन्त्रता
के पंखों के
संगीत से आनन्द
—विभोर दिन, बाधाओं को
हटा कर एक को
सबमें और सबको
एक में विलीन
कर देने का
दिन। पर देखो,
आज यह क्या
बन गया है।
एक
सप्ताह बन गया
है यह रोगी
अहं के दावे
का,
घृणित लोभ
का जो घृणित
लोभ का ही
व्यापार कर
रहा है, दासता
का जो दासता
के साथ ही
क्रीड़ा कर रही
है, अज्ञानता
का जो
अज्ञानता को
ही दूषित कर
रही है।
जो
नौका कभी
विश्वास, प्रेम
और
स्वतन्त्रता
की मदिरा
बनाने का केन्द्र
थी, उसी को अब
शराब की एक
विशाल भट्ठी
तथा घृणित
व्यापार—मण्डी
में बदल दिया
गया है। वह
तुम्हारी अगर—वाटिकाओं
की उपज लेती
है और उसे मति—भ्रष्ट
करने वाली
मदिरा के रूप
में वापस
तुम्हें ही
बेच देती है।
तुम्हारे
हाथों के श्रम
की वह
तुम्हारे ही
हाथों के लिये
हथकड़ियाँ गढ़
देती है।
तुम्हारे
श्रम के पसीने
को वह जलते
हुए अंगार बना
देती है
तुम्हारे ही
मस्तक को
दागने के लिये।
दूर, बहुत
दूर भटक गई है
नौका अपने नियत
मार्ग से।
किन्तु अब
इसकी पतवार को
ठीक दिशा दे
दी गई है। अब
इसे सारे
अनावश्यक भार
से मुक्ति कर
दिया जायेगा
ताकि यह अपने
मार्ग पर
सुविधापूर्वक
और सुरक्षित
चल सके।
इसलिए
सब उपहार
उन्हीं को, जिन्होंने
दिये थे, लौटा
दिये जायेंगे
और सब कर्ज
कर्जदारों को
माफ कर दिये
जायेंगे।
नौका सिवाय
प्रभु के किसी
को दाता
स्वीकार नहीं
करती, और
प्रभु चाहता
है कि कोई भी
कर्जदार न रहे
— उसका अपना
कर्जदार भी
नहीं।
यही
शिक्षा थी
मेरी नूह को।
यही
शिक्षा है
मेरी तुम्हें।
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